हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 43 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा

 

गांधीजी बहुभाषी थे। गुजराती उनकी मातृ भाषा थी, अंग्रेजी और संस्कृत उन्होंने स्कूली शिक्षा के दौरान सीखी, लैटिन जब  इंग्लैंड में बैरिस्टर बन रहे तब सीखी और तमिल व उर्दू दक्षिण अफ्रीका में सीखनी पडी क्योंकि उनके मुवक्किल उर्दू भाषी मुसलमान थे या दक्षिण भारतीय तमिल भाषी। बाद में जब वे 1922 में यरवदा जेल में कैद थे तब इन भाषाओं में प्रवीणता हांसिल कर उन्होने काफी पुस्तकें पढी। गांधीजी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे और इस हेतु वे पांच तर्क देते थे :

  1. हिन्दी ऐसी भाषा जिसे समझना और उपयोग में लाना सरकारी कर्मचारियों के लिए अन्य भाषाओं की तुलना में आसान है। अंग्रेजों के लम्बे शासन के बाद भी बहुत कम भारतीय कर्मचारी अंग्रेजी में पारंगत हुए और इसी प्रकार मुग़ल बादशाह भी फारसी-अरबी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके उन्होंने भी हिन्दी की व्याकरण के आधार पर नई भाषा उर्दू से काम चलाया।
  2. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसके उपयोग से भारतीयों का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज आसानी से हो सकता है। हिन्दुओं के कर्मकांड संस्कृत में होते हैं लेकिन आमजन उसे हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में सुनना पसंद करते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम व ईसाई धर्मावलम्बी भी अपनी प्रार्थना में हिन्दी का प्रयोग बहुतायत में करते हैं।
  3. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसे अधिकाँश भारतीय बोल सकते हैं और उसमे आसानी से पारंगत भी हो सकते हैं।
  1. हिन्दी भाषा राष्ट्र के लिए आसान है। लोग इसे सीख सकते हैं और अनेक प्रांतीय भाषाएं संस्कृत परिवार से निकली हैं अत: उनमे काफी हद तक समानता भी है।
  2. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाएँ क्षणिक समय के लिए तो राज-काज की भाषा हो सकती है लेकिन आगे चलकर उसकी आवश्यकता अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक कामकाज के अलावा नहीं रहेगी।

लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर गांधीजी का सपना आज भी अधूरा ही है वह अनेक प्रयासों के बाद भी  पूरा नहीं हुआ है। मातृ भाषा में शिक्षा को लेकर जो भी प्रयास हुए वे सफल नहीं हो सके और इसने लोगों के मध्य आर्थिक व वैचारिक खाई को और चौड़ा किया है। अंग्रेजी आभिजात्य समुदाय की भाषा थी और अंग्रेजी में विशेष कौशल के दम पर यह समुदाय भारत की नौकरशाही की रीढ़ बना रहा। मध्यमवर्गीय परिवारों ने साठ-सत्तर के दशक में अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाया लेकिन कालांतर में जब उन्हें अपने सपने पूरे करने में अंग्रेजी की कमी अखरी तो उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना शुरू किया। शहर के मध्यमवर्गीय परिवारों से शुरू हुई यह बीमारी आज गावों और निम्न आय वर्ग को लोगों में भी फैल गई है। इसने ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने का दावा करने वाले निजी स्कूलों की बाढ़ सी ला दी है और यह शिक्षण अभी केवल लड़कों को उपलब्ध है और इस प्रकार अंग्रेजी आज लैंगिक भेदभाव का भी पोषक बन गई है।

हिन्दी को लेकर दक्षिण भारत में अस्वीकार्यता तो शुरू से ही रही है और 1960-70 के दौरान तो वहाँ उग्र हिन्दी विरोधी आन्दोलन हुए। लेकिन सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक क्षेत्रों, बैंको आदि  में रोजगार के अवसर तलाशने उत्तर भारत आए दक्षिण भारतीयों ने हिन्दी को प्रेम से अपनाया। आज इन लोगों के बच्चे हिन्दी लिखने, पढने व बोलने में पारंगत हैं लेकिन वे अपनी मातृ भाषा केवल बोल सकते हैं लिख-पढ़ नहीं सकते। अब सरकारों  व बैंकों में  नौकरियों में भर्ती  कम होने से दक्षिण भारतीयों का उत्तर भारत आना कम हुआ है और इससे उनका हिन्दी सीखना भी प्रभावित हुआ है। दूसरी ओर दक्षिण भारत में रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं और उत्तर भारत से इंजीनियर से लेकर मजदूर तक दक्षिण भारत की ओर रुख कर रहे हैं और वहाँ जाकर दोनों पक्ष एक दूसरे की भाषा सीख रहे हैं। इससे आशा की जा सकती है कि हिन्दी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने का अवसर बढेगा।

नई शिक्षा नीति में सरकार ने यह प्रस्ताव किया था कि प्राथमिक स्कूल स्तर बच्चे मातृ भाषा के अलावा एक भारतीय क्षेत्रीय भाषा और मिडिल स्कूल में  अंग्रेजी भाषा सीखे लेकिन क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक विरोध के कारण यह प्रस्ताव वापस ले लिया गया है। आज़ाद भारत में यह पहला अवसर नहीं है जब भाषा को लेकर राजनीतिक टकराव न हुआ हो। पुराने अनुभव यही बताते हैं कि एक राष्ट्र एक भाषा का नारा राजनीतिक दलों के हीन दृष्टिकोण  की बलि   चढ़ता रहेगा। एक देश की एक भाषा का सपना केवल जनता की इच्छा शक्ति ही पूरा कर सकती है।

सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा विशेष – हिन्दी का वर्तमान ☆ श्री विजय नेमा ‘अनुज’ 

श्री विजय नेमा ‘अनुज’ 

(आदरणीय  श्री विजय नेमा ‘अनुज’ जी का ई- अभिव्यक्ति में स्वागत है। श्री विजय नेमा जी संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था ‘वर्तिका’ के संयोजक हैं। आज प्रस्तुत है हिंदी दिवस के अवसर पर आपका आलेख हिन्दी का वर्तमान

☆ राजभाषा विशेष – हिन्दी का वर्तमान ☆

हिन्दी हमारे देश  के व्यापक समाज की मातृभाषा है, देश की राजभाषा है और हमारी संस्कृति के गौरव की भाषा है।   हिंदी  अब पूरी दुनिया में प्रचलित होकर विश्वभाषा बनने की ओर उन्मुख है। अनेक देश के लोग हिन्दी लिखते और बोलते हैं।

हमारे देश मैं सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी ही है, यही नहीं हमारे देश की जनसंख्या के साथ से भी हिन्दी सर्वोपरि एवं शीर्ष पर है, और सदा आगे भी रहेगी।

आजतक हिंदी के नाम पर जो सियासत होती रही हैं, वो अब नहीं होनी चाहिए और उसके विकास पर बहुत  तेजी से कार्य होने चाहिए।

हिंदी इस देश की माटी से अंकुरित हुई भाषा है, इसमें हमारे देश के कोटि कोटि के साहित्यकारों, विद्वानों, लेखकों,चिंतकों, कहानीकार, कथाकार, व्यंगकारों, गज़लकारों, दोहाकारों आदि आदि ने रातदिन मेहनत कर,अपनी लेखनी, अपनी वाणी से इस धरा को समवेत आवाज, एवं अपनी अपनी, सहभागिता से अभिसिंचित किया है,समर्पित किया है, जो आज हम सब पढ़ लिखकर, बोलकर उन सबका मार्गदर्शन, अनुशरण लेकर आगे बढ़े हैं, और सदा बढ़ते रहेंगे। जैसे:-

” पतवार तुम्हें दे जाऊँगा  ” को चरितार्थ करते हुए, जो हमने विद्वान साहित्यकारों से सीखा वही आने वाली पीढ़ी को  देकर जाने का है।

हिंदी की अपनी एक प्यारी ,लेखनी, बोली मृदुभाषी, सरल और मीठी भाषा है जो हमारे विद्वान साहित्यकारों, लेखकों,चिंतकों को आज इस पवित्र दिन पर याद कर शत शत नमन करते हैं, जो अपनी विधा से हम सभी को परिचित कराते हैं।

तुलसीदास, कबीरदास, रहीम,अमीर खुसरो, जनकवि जगनिक, चन्द्रवरदाई, रैदास, मीराबाई,सूर जायसी,रसखान, विहारी, गालिब, मीर,गोरखनाथ।

फिर आगे:-

मुंशी प्रेमचंद, भारतेन्दु हरिश्चंद्र,, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, महावीर प्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, धर्मभारतीय, मैथलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला,राहुल सांकृत्यायन,महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, हरिऔध, माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, दुष्यंत कुमार, अज्ञेय,अदम गोंडवी

मुक्तिबोध, फणीश्वरनाथ रेणु, सुमित्रा नन्दन पन्त, हरिवंशराय बच्चन, हरिशंकर परसाई, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ, भवानी प्रसाद मिश्र, रामविलास शर्मा, नामवरसिंह, रघुवीर सहाय, धूमिल, कमलेश्वर,मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, शरद जोशी, रवीन्द्र कालिया, कृष्ण सोवन्ति, श्री लाल शुक्ल, जिनेन्द्र कुमार, देवकीनंदन खत्री, गोपालदास नीरज,  भवानी प्रसाद तिवारी,रामेश्वर गुरु,श्रीबालपांडेय, हरिकृष्ण त्रिपाठी, जवाहरलाल चौरसिया, गारगीशरण मिश्र मराल, प्रो.राजेन्द्र तिवारी ऋषि आदि।

और आज की दौर में जिन साहित्यकारों का मार्गदर्शन हो रहा है वो

आचार्य डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार सुमित्र, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. ज्ञानरंजन, डॉ. मलय, हरेराम समीप, आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदि आदि, जो वर्तमान में हिन्दी पर बहुत अधिक कार्य कर रहे हैं।

आज के दिन हम सब को संकल्प लेना चाहिए कि हम हिंदी लिखेंगे, हिंदी ही बोलेंगे।

हिंदी दिवस पर ढेर सारी शुभकामनाएं बधाई। 

 

©  विजय नेमा अनुज

24बी,” शंकर ” कुटी विवेकानंद वार्ड, जानकीनगर, जबलपुर (  म.प्र.), मोबाइल  9826506025

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुली किताब ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब

 

जब खुली किताब थी मेरी जिंदगी,

तब किसी ने पढ़ी नही, सब जिंदगी के अनचाहे पन्ने ही पढ़ते रहे ||

 

दुनिया मुझे गुनाहगार ठहराती रही,

मेरे लफ्ज़ मेरी बेगुनाही की कहानी चीख़-चीख़ कर कहते रहे ||

 

किसी ने मेरी आवाज सुनी नहीं,

सब मेरी जिंदगी की किताब को रद्दी समझ इधर-उधर पटकते रहे ||

 

आज जब जिंदगी की किताब पूरी हो गयी,

सब लोग आज मेरी जिंदगी के सुनहरे पन्नों के कसीदे पड़ने लगे ||

 

कल तक जो मुझे देखना पसन्द नहीं करते थे,

वे आज मेरी जिंदगी की किताब के पन्ने पलट-पलट कर रोने लगे ||

 

कल तक जो मुझ पर थूकना पसन्द नही करते थे,

वे ही आज मेरी लाश पर सर पटक-पटक कर बेतहाशा रोने लगे ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 43 ☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  रचना  स्वार्थ कितना गिराता है । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 42 ☆

☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆

 

मन में जो बस गये

दिल में जो उतर गये

 

इक झलक क्या देखी

अपने ही होश कतर गये

 

है हरजाई वह  बेदर्दी

क्षणिक प्यार को तरस  गये

 

दूरियां कम होंगी सोचा था

पर खाईयों के पल बढ़ गये

 

स्वार्थ कितना गिराता है

सच को मसल आगे बढ़ गये

 

दिल रोया तड़प उठा था

बदल जाने किस बात पर  गये

 

सच खूब कहा है किसी ने

हैं कुछ और  कुछ और दिखा गये

 

मैं गलत थी सच सामने था

प्यार मे  हैं   कुछ और दिखा गये

 

प्यार उनका रहे सलामत

उस राह हम क्यों चले गये

 

लौटते हैं आज हम अपने में

चले थे पर वहीं फिर  आ गये।

 

न भरोसा न विश्वास अब नहीं

अपना काम  साथ बस यही

 

ईश्वर की करामात रही

उसने ही हकीकत दिखाई।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 64 – पूर्वज ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक विषय पर आधारित अतिसुन्दर रचना  पूर्वज। सुश्री प्रभा जी ने इस काव्याभिव्यक्ति में वरिष्ठतम पीढ़ी के माध्यम से अपने पूर्वजों का स्मरण किया है। जो निश्चित ही अभूतपूर्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 64 ☆

☆ पूर्वज  ☆

 

ते कोण असतात? कुठून आलेले??

आपल्याला माहित नसते त्यांच्याबद्दल फारसे काही…..

किंवा सांगीवांगी ,

ऐकून असतो आपण,

त्यांच्या पराक्रमाच्या गाथा!

मूळगावातला तो भग्न पडका वाडा पाहून—-

दाटून आली मनात अपार कृतज्ञता,

किती पराक्रमी होते आपले पूर्वज!

वारसदारांपैकी एकच आनंदी चेह-याची बाई,

तग धरून त्या वाड्यात—-

आपले म्हातारपण सांभाळत!

तिने सांगितले अभिमानाने—

आपला धडा आहे इतिहासात,

कोणत्या लढाईत मिळाली होती….सात गावं इनाम आणि हा बुलंद वाडाही!

आपण इनामदार, देशमुख,

अमक्या तमक्याचे वंशज—-

असे बरेच सांगत राहिली ती……

मुले शहरात बंगला बांधून सुखसोयीत रहात असताना…..

ती इथे एकटी….

 

वाड्याच्या वैभवशाली खुणा सांगत—-

किती ऊंट किती हत्ती घोडे, किती जमीन….किती पायदळ!किती लढाया!!

 

हे सारे खरे असले तरी,

पूर्वज ठेऊन जातात, जमीनजुमला, घरे,वाडे…..

ते कुठे राहते  टिकून काळाच्या प्रवाहात??

कुणी म्हणतही असेल तिला,

वाड्याची मालकीणबाई…

 

पण प्रत्येकाला जिंकायची असते आता….

आयुष्याची लढाई स्वतःच स्वतःसाठी…..

हेच सांगते ती ऐंशी वर्षाची म्हातारी,

चुलीवरचा चहा उकळत असताना !

लढण्याचं बळ देतात पूर्वज…..

 

हिच काय ती पूर्वपुण्याई !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आस ☆ कवी आनंदहरी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ आस ☆ कवी आनंदहरी ☆ 

तुझी लागलीसे आस

तुझ्याठायीं नाही वास

मन होई रे उदास

पांडुरंगा !!

 

जन्म वृथा जाई वाया

नाही भौतिकाची माया

तुजपायी झिजो काया

पांडुरंगा !!

 

ध्यानी मनी तुझे भास

जीवा राहो तुझा ध्यास

तुजमुळे श्वासोश्वास

पांडुरंगा !!

 

आता उराउरी भेटी

तुझी नाही जगजेठी

ऱ्हावे तुझे नाम ओठी

पांडुरंगा !!

 

© कवी आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पुन्हा नव्याने ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी

☆ जीवनरंग ☆ पुन्हा नव्याने ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी  ☆ 

धो धो पाऊस झाला. तुफान ढग फुटी.माणसांवर

रागावून कोसळला.  सगळीकडं पाणीच पाणी! उंच आकाशनिंबावरचं त्यांचं घरटं होतं की नव्हतं झालं. घरट्यातील अंडी खाली पडून फुटून गेली. दोघंही फांदीवर बसून एकमेकांची समजूत घालत असावेत. जड मनानं मी बाल्कनीच दार बंद केलं.सकाळी जाग आली ती ओळखीच्या किलबिलाटानं. बाल्कनीत येऊन पाहिलं.

चिमणा-चिमणी  गवत, काड्या गोळा करून घरटं बांधताना दिसले. पुन्हा नव्या उमेदीचं चिमणगाणं गुणगुणत!!सर्वस्व वाहून गेलं तरी दु:ख विसरून!!!नव्यानं संसार सजवण्यासाठी!!!!

 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

फोन.नं    ९६६५६६९१४८

email :[email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ दैवगती ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी 

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी 

शिक्षा- बी.कॉम

नोकरी- युनियन बॅक ऑफ इंडिया, अधिकारी  निवृत्त – 2017

अभिनयाची आवड,सिध्दार्थ कॉलेज ऑफ कॉमर्स एन्ड  इक्नोमिक्स  मध्ये मराठी एकांकीका ‘ सारे कसं शांत शांत.’ अभिनयाचे पारितोषिक

निवृत्तीनंतर पौरोहित्याचा अभ्यास चालू आहे. सुगम संगीताची आवड. जुनी नाती जपणे. नवीन माणसं जोडण्याची आवड.

 

☆ विविधा ☆ दैवगती ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

“आई,छानशी गोष्ट सांग ना, आजी झोपायच्या आधी रोज गोष्ट सांगायची. श्रावणांत तर तिच्या पुस्तकातली आटपाट नगर वाली कहाणी  सांगायची”. श्रुतीला गोष्ट सांगितल्याशिवाय माझी सुटका नव्हती. तसेच सगळं काम ठेवून तिला घेवून बेडरूम मध्ये आले.

चला चालू —- “आटपाट नगर—– तिकडे एक भाऊ आणि बहिण  भाऊ —— भावाकडं  पूजा  होती——–माझी गोष्ट चालूच होती. तात्पर्य काय? शेवटी दिवस कोणाचे  कधी बदलतील सांगता येत नाही म्हणून कोणी कोणाला हंसू नये, कमी लेखू नये.अरेच्चा पण हे ऐकायला आमचे बाळ  जागं कुठे आहे  ? ते तर केव्हाच झोपलं.

ती झोपली तरी आम्ही ऐकली ताई  तुमची गोष्ट. लगेच इकडून तिकडून एकदम आवाज आले. दांडीवरचा गाऊन सांगू लागला काल पर्यंत ती पैठणी,कांजीवरम् तो-यांत मिरवायच्या आणि मला हसायच्या .आज  पाच महिने झाले कश्या  गपगुमान कपाटात पडून  आहेत.

तेवढ्यात बेसिनवरचा डेटॉल हॅण्डवॉश ओरडला ,”एकदम बरोबर रोज बाहेर पडतांना दादा ,ताई सगळेजण फुस्. फुस  सेंट मारून जायचे.अगदी आजी आबांना  उग्र वासाचा त्रास झाला तरी. आणि ती  सेंट ची बाटली  माझ्या कडे तुच्छतेने बघायची.पण आता दिवस फिरले.आबांपासून ते छोट्या श्रुतीपर्यंत अगदी कामावाल्या मावशीं सुध्दा सकाळ संध्याकाळ मला हातावर घेऊन कुरवाळतात.

“हो रे बाबा सध्या तुम्हालाच चांगले दिवस आले आहेत. तुम्ही आहात म्हणून आम्ही सुरक्षित आहोत.”

तेवढ्यात जाऊबाई ने खणाचा शिवलेला  मास्क बोलू लागला कित्येक महिने मी वहिनीच्या कपाटात  पडून  होतो.परवा you tube वर वहिनी ने खणांचा मास्क बघितला आणि माझं नशीब फळफळलं.आता सगळे मला

त्यांच्या चेह-यावर विराजमान केल्याशिवाय बाहेर पाय टाकत नाही.शशांकदादांचा  बिच्चारा टाय. पाच महिने त्याला बाहेरचं दर्शन नाही.

हो ना . करोना ने तर सगळ्या सृष्टीचीच उलथापालथ  केली.

तेवढ्यात कोप-यातून हुंदका आला. माझी सुंदर लाल प्लॅस्टीकची पिशवी रडत  म्हणाली ,’ताई करोनाने  नाही काही त्याच्या आधीच आमचं नशीब  रुसलं.”

रद्दी तिला डावलून खुद्कन हसून म्हणाली ,”मारे हिणवत होतीस ना ,आमच्या शिवाय कुणाच काही  चालत नाही. कागदा, तुझा उपयोग काय ?  Xxपुसायला. पण तुझ्या हे लक्षात नाही आले आजपर्यंत जे शिकले सवरले ते आमच्यामुळेच.पण हे लक्षात यायला अक्कल  लागते ना.”

म्हणजे  थोडक्यात काय? चांगले  वाईट  दिवस सगळ्यानाच असतात. सजीव  असो वा निर्जीव .म्हणून कोणाला कमी लेखू नये .त्याची चेष्टा  करू नये.

ही साठा उत्तरांची कहाणी—

 

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शेती संस्कृती मधील स्त्रियांचा सहभाग ☆ सौ. सावित्री जगदाळे

☆ विविधा ☆ शेती संस्कृती मधील स्त्रियांचा सहभाग ☆ सौ. सावित्री जगदाळे ☆ 

 

मानव प्रगत झाला. गुहेमधून घरात राहू लागला. त्याही आधी तो जेव्हा गुहेत राहत होता. शिकारीला जात होता. अनेक दिवस शिकरीहून परत येणं होत ही नसेल. तेव्हा बाई आपल्या चिल्या पिल्यांना घेऊन कसे जगत असेल, त्यांना काय खाऊ पिऊ घालत असेल ? हा प्रश्न पडतो. तेव्हा वाटते बाईने का केली असेल शेतीला सुरुवात? कशी सुचली असेल तिला ही किमया? कुठून मिळाली असेल ही प्रेरणा?

फळे कंदमुळे .अनेक मुलांमुळे शोधणे हेही शक्य नसेल तर तिला वाटलेही असेल की ही फले कंदमुळे आपल्या आसपास जवळच असावीत, त्याचे बी  लावावे… मनात आल्यावर कृती करायला काय वेळ लागणार… तिचेच राज्य. तिच्या मनात असं का आले असेल… ? बी लावल्यावर त्याचे झाड उगवून येते हे तिला कधी आणि कसे कळाले असेल? कसा असेल तो क्षण?

न्यूटन ला सफरचंद पडल्यावर अचानक लख्ख जाणवले आणि गुरुत्वाकर्षणाचा शोध लागला…. लहानपणापासून तो पडलेलं सफरचंद बघत असेलच की…. पण असा जाणिवेचा क्षण नेनिवेतून यायला तशी वेळही यावी लागत असेल…

कुठे तरी वाचल्याचे आठवते, खार किंवा खारोटी हिला एक सवय असते, बिया गोळा करायच्या आणि कुठे ना कुठे पुरायच्या. तिच्या या सवयीने जंगलं वाढतात म्हणे.

हेही बाईने बघितले असेलच. तिला अशी प्रेरणा मिळू शकली असेल. आणि बिया पेरणी कळत नकळत सुरू झाली. ही बाईच्या मनातली आदिम प्रेरणा मुळीच कमी झालेली नाही, अजूनही!

आजही शेती मध्ये अनेक अवजड यंत्रे आली, नांगरणी पेरणी यंत्रे करू लागली तरी पेरणीच्या वेळी घरातल्या गृह लक्ष्मीच्या हाताने मुठभर धने पेरले जातातच. हा पिढ्यान् पिढ्या चालत आलेला शेती संस्कृती मधील संस्कार किंवा, रुढी परंपरा म्हणा अजूनही आहे. तिने शेतीला सुरावत केली याची आठवण म्हणून  , तिचा सन्मान म्हणून ही पद्धत अजूनही कायम आहे. पुरुष सत्ता क पद्धतीमध्ये अनेक बदल झाले असले तरी या सत्तेने स्त्रीच्या निर्मिती क्षमतेची जाणिव ठेवली आहे म्हणायचे.

आजही  मुख्य पीक पुरुष ठरवत असेल , पण बांधावर, मधल्या सरीत काय माळवं लावायचे हे बाईच ठरवते.

त्याची निगुतीने काळजी घेते. मिरच्या,  धने, लसूण काही ओली तरकारी म्हणजे, वांगी, गवार, दोडकी, घेवडा यावर फक्त तिचीच सत्ता असते. ते विकायचे की वाटायचे हे तीच ठरवते. त्या पैशावर हक्क नावापुरता तरी तिचाच असतो.( नंतर गोड बोलून काढून घेतले जातात ती गोष्ट वेगळी. )

पेरणी करणे आणि पाणी पाजणे एवढे पुरुष करतो. पण बाकीच्या उगनिगी बाईच करते. पीक पोत्यात भरेपर्यंत तिची कितीतरी कामे असतात. भांगलान, खुरपणी दोनतीन वेळा करावी लागते. हे घरातील स्त्रीच करून घेते. कापणी, खुडणी आहेच. तिच्याशिवाय कोण करणार …

मातेरे, सरवा , काशा वेचने या सर्वांना बाईचाच हात पाहिजे. ही हलकी कामे पुरुष थोडाच करतो. वाळवणं सारख्या गोष्टींना तर बाई शिवाय कुणाचा हात लागणार … भरलेली पोती उचलायला फक्त बाप्या येणार… धान्याला कीड लागतेय का कधी चाळायचे, वाळवायचे हे तीच बघणार… कडधान्यांचा भुंगा कीड लागू नये, बियांनासाठी टिकवून ठेवण्यासाठी ते राखेत ठेवायचे काम तिचेच. मग चुलीतली राख वर्षभर साठवायची. नंतर चालून त्यात कडधान्य मिसळून छोटी कणगी किंवा पत्र्याचे डबे मिळवून त्यात ठेवायचे. यासाठी खूप बारकावा लागतो, सायास लागतात. हे सगळे काम बाई बिनबोभाट, आनंदाने करत असते. एक ना दोन शेतकऱ्याची बाई आणि शेती वेगळी होऊ शकेल काय…

शेती बाई शिवाय शक्य तरी आहे का..

 

© सौ. सावित्री जगदाळे

१४/२/१९

१००, कुपर कॉलनी, सदर बाजार, सातारा ,पीन-४१५०० १

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (17) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17।।

 

कर्म फलो की चाह बिन, श्रद्धा से संयुक्त

साधक करता त्रिविध तप वह सात्विक तप उक्त ।।17।।

भावार्थ :   फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।।17।।

This threefold austerity practised by steadfast men with the utmost faith, desiring no reward, they call Sattwic.।।17।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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