English Literature – Poetry ☆ Trishanku☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “त्रिशंकु ” published today as ☆ संजय दृष्टि  – त्रिशंकु☆.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

Original article  –

☆ त्रिशंकु ☆

स्थितियाँ हैं कि

जीने नहीं देती और

जिजीविषा है कि

मरने देती,

सुनिए महर्षि विश्वामित्र!

अकेला सत्यव्रत

त्रिशंकु नहीं हुआ

इस जगत में..!

☆ Trishanku☆

The conditions are such that

They won’t let you live

But the indomitable desire to live

Won’t allow to die

Listen, O’ Maharishi Vishwamitra,

Satyavrat is not the only

Trishanku in this world..!

PS: Maharishi Vishwamitra had unsuccessfully tried to send King Satyavrat bodily to the heaven. Legend has it that he is still hanging between the earth and heaven, as Trishanku.

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 38 ☆ ललित निबंध संग्रह – तन रागी मन बैरागी – डा देवेन्द्र जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डा देवेन्द्र जोशी जी  के  ललित निबंध संग्रह  “तन रागी मन बैरागी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 38 ☆ 

तन रागी मन बैरागी (ललित निबंध संग्रह)

लेखक –  डा देवेन्द्र जोशी 

प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा

मूल्य  १२५ रु

पृष्ठ ११२

☆ पुस्तक चर्चा –ललित निबंध संग्रह   – तन रागी मन बैरागी  – लेखक – डा देवेन्द्र जोशी 

मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है

जीवन जीना सहज न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी है

… निदा फाजली

जीवन  का भाव  पक्ष सदैव मर्मस्पर्शी होता है.  जब अपने स्वयं के अनुभवो के आधार पर कोई ललित निबंध लिखा जाता है तो वह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है व पाठक को सीधा हृदयंगम हो, उसके अंतः को प्रभावित करता है.  ऐसे निबंध पाठक को जीवन दृष्टि देते हैं, उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं.  तन रागी मन बैरागी में संकलित प्रत्येक निबंध मैंने फुरसत से पढ़ा है, मैं कह सकता हूं कि ये निबंध डा जोशी की वैचारिक अभिव्यक्ति हैं, जो पाठक को चिंतन की प्रचुर समृद्ध सामग्री व दिशा देते हैं.  निदा फाजली के जिस शेर से मैंने अपनी बात शुरू की है, उसके बिल्कुल अनुरूप इस पुस्तक का प्रत्येक निबंध जीवन की फनकारी सिखलाता है.  लेखक डा देवेन्द्र जोशी चेतावनी के स्पष्ट स्वर में प्रारंभ में ही लिखते हैं, जिनमें जिंदा रहने का अहसास मर चुका है कृपया वे इस पुस्तक को न पढ़ें, सचमुच संग्रह के सभी निबंध जिंदगी के बहुत निकट हम सबके बिल्कुल आसपास के विषयों पर हैं.  अनावश्यक विस्तार  से मुक्त, छोटे छोटे निबंध हैं,  शीर्षक की सीधी वैचारिक अनुकरणीय विवेचना है.  पहला संस्करण हाल ही प्रकाशित हुआ है.

हिन्दी में ललित निबंध को  विधा के स्वरूप में अभिस्वीकृति का साहित्यिक इतिहास भी रोचक व विवादास्पद रहा है, लगभग वैसा ही जैसा व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करने की यात्रा रही है.  अब ललित निबंध की सात्विक सत्ता भी प्रतिष्ठित हो चुकी है, और व्यंग्य की भी.  डा देवेंद्र जोशी दोनो ही विधाओ के साथ विज्ञान लेखन के भी पारंगत सुस्थापित विद्वान हैं. वे कवि हैं , संपादक है, मंच संचालक हैं, शोधार्थी हैं.  बिना उनसे मिले मैं कह सकता हूं कि  बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डा जोशी सबसे पहले एक अच्छे इंसान हैं, क्योंकि ऐसा लेखन एक सदाशयी व्यक्ति ही कर सकता है.

उनमें सूत्र वाक्य लेखन की विशेषता है जैसे वे लिखते हैं ” निर्धन के अभाव की पूर्ति तो धन से संभव है, पर लालच और धन लोलुप प्रवृत्ति की पूर्ति कोई नहीं कर सकता”, या ” लक्ष्यहीन जीवन को जीवन की श्रेणि में नहीं रखा जा सकता‍‌. . चलना ही जिंदगी “, ” व्यक्तित्व विकास की प्रथम सीढ़ी है. .आत्म साक्षात्कार ” मैंने पुस्तक पढ़ते हुये ऐसे अनेक वाक्यो को रेखांकित किया है, ये उद्वरण  केवल इसलिये कि आप की जिज्ञासा पुस्तक पढ़ने के लिये जागृत हो.

जिन विषयो पर लेखक ने निबंध लिखे हैं उनमें ये शीर्षक शामिल हैं, राष्ट्रीयता का बोध, समय से पहले भाग्य से ज्यादा, माँ, प्यार का अहसास,युवा उम्र का रोमांच,रिश्तों की गर्माहट, स्वभाव के प्रतिकूल, बड़प्पन,सामाजिक सरोकार, पद की गरिमा, बाल मनोविज्ञान,सफलता का जश्न, अवसाद के क्षण,अकेलापन, श्मशान बैराग्य आदि आदि कुल तीस हम सबके जीवन के रोजमर्रा के विषय हैं.

प्रत्येक निबंध विषय की व्याख्या करते हुये एक निर्णायक मार्गदर्शक बिन्दु पर अंत होता है, उदाहरण स्वरूप वे बचपन की मीठी यादें निबंध का अंत इस शेर से करते हैं

घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं करें

किसी रोते हुये बच्चे को हंसाया जाये

अकेलापन निबंध का अंतिम वाक्य है ” अकेलापन हमारी कमजोरी बने उसके पहले उसे अपनी ताकत बनाना सीख लें.  ”

भाषा के लालित्य के मोती, भाव,  शिल्प के स्तर पर बुने हुये सभी निबंध प्रेरक हैं. अभिधा में सशक्त मनोहारी अभिव्यक्ति के सामर्थ्य के चलते  लेखक डा देवेन्द्र जोशी को श्रेष्ठ निबंधकार कहा जाना  सर्वथा तर्कसंगत है. यह  कृति हर उस पाठक को अवश्य पढ़नी चाहिये जो जीवन के किसी मोड़ पर किंकर्तव्य विमूढ़ हो, और इसे पूरा पढ़कर मैं सुनिश्चित हूं कि उसे अवश्य ही निराशा से मुक्ति मिलेगी व उसका भविष्य प्रदर्शित हो सकेगा.  इस दृष्टि से कृति जीवन की सफलता के सूत्र प्रतिपादित करती है.  संदर्भ हेतु संग्रहणीय व बार बार पठनीय है.  अभी ऐसी कई पुस्तकें लेखक से हिन्दी साहित्य को मिलें इसी शुभाशंसा के साथ.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 63 – श्राद्ध से मुक्ति ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “श्राद्ध से मुक्ति।  वर्तमान पीढ़ी न तो जानती है और न ही जानना चाहती है कि  श्राद्ध क्या और क्यों किये जाते  हैं। उन्हें जीते जी किया भी जाता है या नहीं ? पितृ पक्ष में इस सार्थक  एवं  समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 63 ☆

☆ लघुकथा – श्राद्ध से मुक्ति

रामदयाल जी पेशे से अध्यापक थे। गांव में बहुत मान सम्मान था। बेटे को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। उसकी इच्छानुसार काफी खर्च कर विदेश भेज दिया पढ़ने और अपने मन से सर्विस करने के लिए।

बरसों हो गए बेटे अभिमन्यु को विदेश गए हुए। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी अकेले हो गए। बीच के वर्षों में एक बार या दो बार बेटा आ गया था। परंतु उसके बाद केवल मोबाइल का सहारा। गांव में होने के कारण अभिमन्यु कहता था…. नेटवर्क की समस्या रहती है जब बहुत जरूरी हो तभी फोन किया करें। बेटे ने वहाँ अपनी पसंद से विवाह कर लिया। माँ पिताजी को बताना भी उचित नहीं समझा। बस फोन पर कह दिया कि उसने अपनी लाइफ पार्टनर ढूंढ लिया है।

माँ को बहुत झटका लगा। लगातार चिंता और दुखी रहने के कारण उम्र के इस पड़ाव पर वह जल्द ही बीमार हो चली। फिर एक दिन सब कुछ छोड़ रामदयाल को अकेले कर वह चल बसी। बेटे को फोन किया गया।  वह बोला… अभी कंपनी के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं। मुझे अभी आने में वक्त लग सकता है। मैं जल्द ही आऊंगा आप अपना ध्यान रखना।

कहते-कहते बरस बीत गए। माता जी के श्राद्ध का दिन आने वाला था। पिताजी ने फोन से कहा… बेटे जीव की मुक्ति के लिए श्राद्ध का होना जरूरी होता है तुम्हारा आना आवश्यक है। झल्ला कर अभिमन्यु ने कहा… ठीक है मैं आ जाऊंगा। बहू को भी ले आना… ठीक है ठीक है ले आऊंगा… सारी तैयारी करके रखियेगा। मुझे ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।

पिताजी खुश हो गए कि बेटा बहू आ रहे हैं। रामदयाल जी पत्नी के श्राद्ध को भूल कर बेटे के आने की खुशी में घर को सजा संवार कर खुश हो रहे थे कि बेटा बहू आ रहे हैं।

निश्चित समय पर बेटा बहू आ गए। पूजा पाठ के बाद घर के नौकर के साथ मिलकर पास पड़ोस में सभी को खाना खिलाया गया। रामदयाल जी बहुत खुश थे कि अपनी माँ का श्राद्ध कर रहा है। इसी बीच जाने कब बेटे ने पिता जी से एक कोरे कागज पर दस्तखत करवा लिया कि उसे विदेश में एक छोटा सा घर लेना है। जिसमें आपके पहचान की आवश्यकता है।

पिताजी ने खुशी से वह काम कर दिया। सभी काम निपटने के बाद रात को सभी चले गए। नौकर भी रामदयाल के पास सो रहा था। देर रात खटर-पटर की आवाज से वह उठ गया। देखा अभिमन्यु और बहू घर का सारा सामान भर चुके थे। सामने दो गाडियाँ खड़ी थी। उसे समझते देर न लगी। उनमें एक गाड़ी अनाथ आश्रम की गाड़ी थी। उसने तत्काल रामदयाल जी को उठाया। अभिमन्यु ने कहा… पिताजी मुझे बार-बार आना अब नहीं होगा। मैंने यह मकान बेच दिया है और आपकी व्यवस्था आपके जीते जी रहने के लिए अच्छे से अनाथ आश्रम में करवा दिया है।

नौकर का भी हिसाब कर पैसा और गांव में रहने की व्यवस्था कर दिया है। कल सुबह वह चला जाएगा।

और हां एक बात और मैंने… पंडित जी से कहकर आपका भी “श्राद्ध” करवा दिया है। अब किसी प्रकार के डरने की आवश्यकता नहीं है। आपकी मुक्ति हो जाएगी।

रामदयाल चश्मे को निकाल आँसू पोछते नौकर से बोले… चलो अच्छा हुआ जीते जी बेटे ने श्राद्ध कर मुझे मुक्ति दे दी।

अनाथ आश्रम के आदमी रामदयाल जी को बड़े आदर के साथ पकड़ कर अपनी गाड़ी की ओर ले चले। गरीब नौकर हैरान था ये कैसी “श्राद्ध से मुक्ति” ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 19 ☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 19 ☆ 

☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

अंधकार के कितने बादल आये,

नीर की कितनी बारिश हो जाये,

रात की कितनी कलिमा छा जाये,

हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,

रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,

ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,

तू एक उजाला, तू एक सूरज सारे जगत को रोशन करता,

तू असीम, तू अनन्त, तू आरुष का साथी ।

 

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ परिंदे ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना  “परिंदे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ 

☆ परिंदे ☆ 

गर्मी के दिनों में

सुबह सुबह का अखबार

विज्ञापनों की भरमार

पत्नी के हाथ

चाय की चुस्कियां

खबरों की सुर्खियां

मजे ले लेकर पढ़ता हूं

जब पत्नी कहां है –

देखने आगें बढता हूं

वो गॅलरी में

चिड़ियां और उसके बच्चों को

दाने खिलाती रहती है

अलग से कटोरों मेंं

साफ पानी रख

उन्हें पिलाती रहती है

उनके घोंसलों को

साफ करती है

रूई, पैरा उसमें भरती है

अपना कार्य करती है यतन से

बड़े ही जिम्मेदारी, जतन से

मैंने एक दिन पूछा,’ भाग्यवान !

रूत बदलते ही यह उड़ जायेंगे

फिर यहां लौटकर नहीं आयेंगे ?

पत्नी मुझ पर कटाक्ष करते हुए बोली-

जिनको उड़ना था

वो परिंदे उड़ गए

अपने अलग-अलग

घोंसले बना

उससे जुड़ गए

ये परिंदे ही तो अब हमारे हैं

हमारे बुढ़ापे में

सुख दुःख के सहारे हैं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 63 ☆ हळदीचा लेप ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता “हळदीचा लेप ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 63 ☆

☆ हळदीचा लेप 

माझ्या काळजाचा गाव

तेथे कालवाकालव

आले माहेरी सोडून

पूर्व संचिताचा डाव

 

माझं सोन्यावाणी रूप

त्याला हळदीचा लेप

ओलांडता उंबरठा

नव्या घराचा प्रभाव

 

प्रीतिच्या या सागरात

जलविहाराचा बेत

लाटांवर झुलण्याचा

आता होईल सराव

 

खेळ संसाराचा खेळू

अपवाद सारे टाळू

जेथे जमीन सुपीक

तेथे फुलण्याला वाव

 

कोंबडा हा आरवला

सूर्य उदयास आला

आनंदाला आज माझ्या

नाही उरलेला ठाव

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ असावा कोणी दुर्योधन ☆ श्री शुभम अनंत पत्की

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ असावा कोणी दुर्योधन ☆ श्री शुभम अनंत पत्की ☆ 

 

जाणून घ्यावी एकसूत्री

सधन असो वा निर्धन

कर्णाची साधण्या मैत्री

असावा कोणी दुर्योधन

 

तिरस्कार असे सोपा

स्वीकार असे दुर्लभ

शेवटी होई समाजप्रिय

मनुष्य असो वा गर्दभ

 

मैत्री पाहिली त्याने

नाही पाहिला वेश

मैत्री प्रती कर्तव्याने

बहाल केला अंगदेश

 

असला जरी सूर्यपुत्र

केला त्याग मातेने

वाचवण्या देवेंद्र पुत्र

साधला स्वार्थ देवाने

 

जेष्ठ कुंतीपुत्र असण्याचा

झाला जेव्हा साक्षात्कार

धर्मापुढे अभेद्य मैत्रीचा

झाला भव्य सत्कार

 

त्रिखंड गाजवित तो

आला जेव्हा कुरुक्षेत्री

युद्ध खेळला ऐसे तो

वसला अनुजांच्या नेत्री

 

पडला जेव्हा मृत्युमुखी

तेथेच हारले कौरवजन

होते पांडवजन सुखी

दुःखी होता दुर्योधन

 

लाभण्या ऐसा सखा

पुण्य असावे निरंजन

होई नेहमी पाठीराखा

असावा कोणी दुर्योधन…

 

©  श्री शुभम अनंत पत्की

7385519093 /9284656466

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तीर..अनुवादित कथा.. ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग : लघुकथा –  तीर ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

गर्दी एका घरासमोर एका बाणाच्या रुपात उभी होती. घराचा मालक चांगले मार्क मिळवून पास झाला. गर्दीतून तीर सुटले,

‘ जरूर कुठून तरी प्रश्नपत्रिका मिळाली असणार.’

त्या व्यक्तिला चांगला जॉब मिळाला.

‘ नक्कीच कुणाचा तरी वशिला लावला असणार.’

व्यक्तीचा विवाह झाला. एक सर्वगुण संपन्न पत्नी मिळाली.

गर्दीतून तीर आला,  ‘त्याचा नशीब चांगलं म्हणून अशी चांगली बायको मिळाली.’

त्या व्यक्तिची मुलेदेखील चांगली शिकली आणि त्यांनाही चांगल्या नोकर्‍या मिळाल्या. त्यांची लग्ने झाली अणि त्या व्यक्तिला आता नातवंडेही झाली.

गर्दीतून सातत्याने त्याच्या दिशेने तीर येतच होते.

गर्दीच्या बाणांचा आघात झेलता झेलता अखेर ती व्यक्ती जीवनाच्या बंधनातून मुक्त झाली.

गर्दीने त्या व्यक्तीचं मृत शरीर पाहिलं. आता गर्दी आपल्या बाणांना धार लावून दुसर्‍या घरापुढे उभी होती.

 

मूळकथा – आघात  मूळ लेखिका – रंजना फतेपूरकर

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ उत्तर ☆ डॉ वसुधा गाडगीळ

डॉ वसुधा गाडगिल

☆ जीवन रंग ☆ उत्तर ☆ डॉ वसुधा गाडगीळ ☆

मॉरीसेट कांगारू वाइल्ड लाइफमधून बाहेर पडून लोक  क्रूसनच्या वाटेकडे पाहत होते. आमच्या शेजारी दोन स्त्रियाँ उभ्या होत्या.  दोघीही परदेशी होत्या.  माझ्या कपाळावर कुंकू बघून एक स्त्री म्हणाली – “इंडिया !”

मी “हो”  म्हणाले.

“ब्यूटीफूल कंट्री”.

“तुम्ही भेट दिली होती का!”

“नाही, पण माझी मुलगी तिथे होती …. फॅमिली बॉन्डिंग अँड ह्यूमन रिलेशनशिप इज व्हरी स्ट्रॉंग इन इंडिया!”

“हो!” मी स्मितहास्य देत म्हणाले.

“ऑस्ट्रेलिया सुंदर देश आहे “.

“हो … सुंदर आणि विकसित देश.”

त्यांनी आपल्या देशाच्या प्रगतीबद्दल बरेच काही सांगितले. मी उत्सुकतेने चौकशी केली

“येथील सामाजिक आणि कौटुंबिक रचना आहे ?”

अचानक तिचा उत्साह थांबला.  तिच्या वार्धक्यातल्या  चेहऱ्यावरील सुरकुत्यांचे आकार एकाएकी बिघडले.  श्वास सोडत ती मोठ्या आवाजात बोलली.

“कृपया येथील रचनांबद्दल विचारू नका! खूप बीटर एक्सपिरियंस…”

मला माझ्या प्रश्नाचे उत्तर सापडले तसेच हा सांस्कृतिक वारसा जोपासण्याच्या विचारांनी मनात उत्तम आकार  घेतला होता.

 

© डॉ. वसुधा गाडगीळ 

संपर्क –  डॉ. वसुधा गाडगिल  , वैभव अपार्टमेंट जी – १ , उत्कर्ष बगीचे के पास , ६९ , लोकमान्य नगर , इंदौर – ४५२००९. मध्य प्रदेश.

मोबाईल  – 9406852480

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सामाजिक समरसता ☆ सौ पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

सौ पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

 ☆ विविधा  ☆ सामाजिक समरसतासौ पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

माझ्या आयुष्यात मला समाजाशी समरस होण्याची एक उत्तम संधी प्राप्त झाली. ती म्हणजे आमचं पूर्वी होत ते टेलिफोन बूथ.

आमच्या आजूबाजूला सगळे दवाखाने असल्याने आमचे  बूथ चांगले चालले होते

पहाटे तीन वाजता कॉल बेल वाजली. नाईलाजाने बूथ उघडले. जखड आजोबा, ‌ ननगे फोन माडूवदिदे असं म्हणून नंबरचा त्याच्यासारखाच चुरगळलेला कागद दिलान. डोळ्याच्या कडा पाणावलेल्या आणि नंतर वहायला लागल्या. त्यांचा नातू समोरच्या हॉस्पिटल मध्ये सिरीयस होता. पिकलं  पान हिरव्या पानाला आधार देत होत. दुसरे दिवशी काय झालं कोण जाणे. आजोबा परत आला नाही.

सकाळी दप्तरांचे ओझ वागवत जाणारी मुलं, बूथच्या केबिन मध्ये उभा राहून गप्पात मशगुल होणारी लैला मजनु पाहिली की आपलं शालेय आणि कॉलेज जीवन आठवल्या वाचून रहायचं नाही. जनावरांच्या दवाखान्यातून कुत्र्याला बरोबर घेऊन येणारा तगडा पैलवान फोन करताना कुत्रा वाचणार नाही म्हणून रडायला लागला की मी श्वान प्रेमी यांची चौकशी केल्यावाचून रहायची नाही. त्यांच्या दुःखाशी समरस व्हायची. कधीकधी वयस्क जोडप येऊन डब्बा, पथ्य-पाणी याविषयी घरी फोन करायचे. घरात होणारी कुचंबणा मला सांगायचे आणि रात्री मुलगा सून येऊन हे म्हातारे कसे हेकेखोर आहेत तेही सांगायचे. कधी एखादा पेशंट डिस्चार्ज मिळाल्याचे आनंदाने सांगायचा आणि त्याला दिलाचा आकडा सांगताना अडखळायला व्हायचं. कोणी वाढदिवसाच्या शुभेच्छा द्यायचं. तर कुणी एखादा मृत्यू झाल्याचे दुःख सांगायचं. कुणीतरी समोर दवाखान्यात बाळंत होऊन मुलगा झाल्याचा आनंद सांगायचे. कधीकधी पाऊस खूप असला की दोन दोन दिवस कोकणातल्या खेडेगावात फोन न लागल्याने निराश होऊन परत जायचे. कुणी डॉक्टरांच्या विषयी तक्रार तर कुणी कौतुक करायचे.

बूथ बंद करून वर आल्यानंतर पुन्हा बेल वाजली की परत उघडायचा कंटाळा यायचा. पण त्यांच्या अडचणी पाहून कपाळावरची आठी जाऊन ओठ आडवे फाकवत हसावे लागायचे.

येथे येणारे बरेचसे कानडी असल्यामुळे मला कानडी भाषा यायला लागली. दैनंदिन जीवनातली अनेक कोडी उलगडायला लागली. या बूथ मुळे दोन हृदयांच्या भावनांच्या संक्रमणाला मी साक्षी रहात गेले. दोन व्यक्तींना मनाने जोडून आणण्याचे माध्यम झाले.

बूथ मधे येणाऱ्या प्रत्येकाचे प्रयोजन वेगवेगळे. वेगवेगळ्या भावभावनांचे फिकट गडद, आकर्षक अशा रंगांचे मिश्रण मी रोज बूथमधे बसून पहात होते. एका पांढऱ्या रंगातील सात रंग असले तरी डोळ्याला पांढरा रंगच दिसतो. त्या पांढऱ्या तल्या मिश्रणालाच मी  समजून घेत गेले. आणि खरी तेव्हाच समरसतेची जाणीव प्रत्ययाला आली. न विसरण्यासारखी.

© सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

पत्ता- ‘पुष्पानंद’ बुधगावकर मळा रस्ता मिरज, जि. सांगली

फो नं. ०२३३-२२१२१५१ मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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