हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # एक ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है । उनकी विगत दो कड़ियाँ आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :-

  1. हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆ – अरुण कुमार डनायक  (3 नवम्बर 2019) http://bit.ly/2Nd143o
  2. हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2 – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆ – अरुण कुमार डनायक (5 नवम्बर 2019) http://bit.ly/2oOausH

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आज से दस अंकों में आप तक उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ यात्री मित्र दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # एक ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

गत वर्ष  13 से 17अक्टूबर की यात्रा के बाद हम सभी वर्ष पर्यन्त नर्मदा परिक्रमा की योजना बनाते रहे पर भौतिक जगत की आपाधापी और किसी न किसी बहाने के कारण  यात्रा  की तिथियां निर्धारित न की जा सकी। अंततः यह तय हुआ कि इस वर्ष एकादशी के आसपास पुनः परिक्रमा में चला जाय और झांसी घाट खमरिया से, जहां हमने पिछली यात्रा समाप्त की थी, सांडिया तक की कोई दो सौ किमी से अधिक की यात्रा पन्द्रह दिनों में पूरी कर नरसिंहपुर जिले  होते हुये दूधी नदी को पार कर होशंगाबाद जिले में प्रवेश किया जाय। जब मैंने और सुरेश पटवा ने आपस में चर्चा कर योजना बना ली तो हमारा नर्मदा परिक्रमा वाला निष्क्रिय व्हाट्स ऐप ग्रुप पुनः सक्रिय हो गया। सूचनाओं का आदान-प्रदान किया गया और 04.11.2019को यात्रा प्रारंभ करने का निश्चय किया गया पर अचानक सुरेश पटवा के यहां कुछ पारिवारिक कार्यक्रम आ गया और मुझे भी तीन तारीख को हिन्दी भवन द्वारा सम्मानित किया जाना था सो यात्रा  06.11.2019 से  18.11.2019 के बीच किया जाना तय हो गया।

जैसे ही तिथियों की घोषणा हुई सबसे पहले तेहत्तर वर्षीय  श्री जगमोहन अग्रवाल ने अपनी सहमति दी और बरमान में अपने साढू भाई तथा अपने पैत्रिक गांव  कौन्डिया में एक-एक रात विश्राम का आग्रह  भी कर डाला। फिर 62वर्षीय  एडव्होकेट मुंशीलाल पाटकर की खबर आ गई कि वे भी चलेंगे। भाई अविनाश दबे को एक विवाह में जाना था सो उन्होंने आगे बरमान में 12.11.2019  को सम्मिलित होने की स्वीकृति दी। हम पांच तो तैयार थे पर प्रयास जोशी की कोई खबर न थी। अतः दिंनाक 06.11.2019को सोमनाथ एक्सप्रेस से आरक्षण करवाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई और मैंने भी तत्काल हम चार लोगों की टिकिट बुक करा दी,  कोच नंबर एस-4की बर्थ सात कन्फर्म बाकी सब प्रतीक्षा सूची में। यात्रा की तैयारी में सामान कम से कम हो इस हेतु भी हम सबने आपस में तय किया कि भोजन सामग्री  साथ में  ले जाने हेतु जिम्मेदारी सभी को अलग-अलग सौंप दी जाय। मैंने चार पैकेट पूरी सब्जी के तैयार करवाये तो अग्रवालजी ने गुड़ में पगे खुरमें लाने की ठानी, पटवाजी ने सूखे मेवा खरीदें और मुंशीलाल पाटकर ने दो तीन प्रकार के नमकीन बनवा लिए।

विगत यात्रा के अनुभवों से सीख लेते हुए सामान को कम करते करते कोई इक्कीस नग तो हो ही गये। इस बार मैंने गांधी साहित्य में कुछ पतली पुस्तकें ले जाना तय किया कारण मेरे सपनों का भारत या आत्मकथा वजनी हो जाती हैं। पिछली यात्रा में एक दिन मोजे गीले  हो गये थे सो मैंने जूते बिना जुराबों के ही पहन लिये नतीजा पैरों में छाले हो गये, अतः इस बार एक जोड़ा अतिरिक्त मोजे भी रख लिये।

यात्रा में लाठी का बड़ा सहारा होता है, परिक्रमा वासी और ग्रामीण उसे सम्मान के साथ सुखनाथ कहते हैं अतः बांस खेड़ी से चार लाठियां भी मैं ले आया। अब तैयारी पूरी हो गई तो मानस की चौपाई याद आ गई कि ‘अब विलंबु केहि कारन कीजै। तुरंत कपिन्ह कहुं आयसु दीजै ।।’ पर तिथि तो तय थी और हम सब 06.11.2019को हबीबगंज स्टेशन पहुंच गए वहां अचानक पूरी तैयारी के साथ प्रयास जोशी भी खड़े दिख गये, मन  प्रफुल्लित हुआ और हम सब प्रेम से गले मिले। ठीक समय पर कोई आठ बजे सोमनाथ एक्सप्रेस चार नंबर प्लेटफार्म पर आ गई। जगमोहन अग्रवाल भोपाल से गाड़ी में बैठ गये थे और हम चार हबीबगंज स्टेशन से चढ़े। शेष टिकटें भी कन्फर्म हो गई थी पर अलग-अलग कोच में। इटारसी आते आते रेलगाड़ी लगभग खाली हो गई और हम पांचों एक ही जगह बैठ गये,पूरी और आलू की सब्जी से कलेवा किया और कोई एक घंटे के विलंब से लगभग दो बजे श्रीधाम स्टेशन में उतरकर आटो रिक्शा की तलाश में लग गये।

नर्मदे हर!
©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆ सुख – दुःख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सुख – दुःखअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से

☆ सुख – दुःख ☆

 

मैंने दुःख को विदा किया

कभी ना लौट आने के लिए

वो सुख की चादर ओढ़ आया

मेरे निश्चय की आजमाइश में ।

 

उसने विदाई का सम्मान किया

बस दूर खड़े रह सुख का नाट्य किया

हाथों में गुब्बारे लिए उसने

मेरे बालमन को लोभित किया

 

कभी वो ख़्वाबों की तश्तरी लाया

कभी रंग -बिरंगी तितलियाँ लाया

मेरी बढ़ती ताक -झाँक को

उसकी नजरो ने जान लिया

 

दुःख था बड़ा बहुरूपिया

समझता था मेरी कमजोरियाँ

हर उस शख्स का उसने रूप धरा

जिससे कभी था मेरा नाता जुड़ा

 

सब्र का मेरे बांध ढहा

हल्के से मन का किवाड़ खुला

दहलीज पर जो मैंने कदम रखा

मृगमरीचिका सा भरम हुआ

 

मैं दौड़ पड़ी उस ओर

सुख की चाह थी पुरजोर

उसने भी चादर फैला के मुझे

अपने अंक में समेट लिया

 

मै पहुँची अंध लोक

बस सुख की ही थी खोज

सुख का स्पर्श मुझे याद था

पर वहाँ कही ना उसका आभास था

 

मेरी आँखों से अश्रु बहे

सुख चाहे पर  दुःख मिले

क्यों पुराने पाठ ना याद रहे

सुख -दुःख सदा ही साथ रहे ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry – ☆ In an attempt to scare away the vulture… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Article “गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में” published in today’s edition as   संजय उवाच – गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

☆ In an attempt to scare away the vulture…☆

The characters of the stories are often found amidst us only, in our surroundings.  If one examines the characters, the concerned litterateur/writer will mention that this character lived in his/ her locality or a friend of his/ her mentioned about such and such characters, that is to say, the characters of the stories shape up on paper from the real life.  The characters connect with the reader’s compassion and senses.  ‘Ah’ and ‘wow’ factors, on the events of the character’s life, become an overwhelming medium of expression of the readers.

The anomaly is that the person who is empathizing with the character of the story, or living the compassion, refuses to interfere with the plight of the characters in real life, saying that: this is a personal matter of the concerned character.

It is only natural to recall talented but unfortunate photographer ‘Kevin Carter’ in this context.  Kevin went on to cover a ‘story’ (!) of starvation in Sudan in 1993.  He took a photo of a vulture sitting behind a starving baby girl, waiting for her to die.  This picture caught the attention of the world towards Sudan.  Kevin also received a Pulitzer Prize for this photo.  Later on during a TV show, when Kevin was talking about the vulture, a viewer’s comment shook him from within, who retorted rather agonizingly, “There were two vultures there that day.  The other had a camera in his hand.”

Due to the guilt, Kevin is believed to have gone into depression later.  He committed suicide year later.  However, in a letter written before his suicide, Kevin had mentioned that it was due to this photo that Sudan received massive support from the United Nations.

Myriad aspects of this unfortunate story can be discussed, endlessly. There can be consensus or disagreement, but it cannot be denied that before being litterateurs, journalists or photo-journalists, we are human-being first. If the humanity remains, then only will the concerns related to humans shall remain.  Also, one aspect of the timeless truth is that there is a vulture within all of us. May be, we cannot to exterminate that vulture in us, but at least, we can try to scare it away!

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM
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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #28 – ☆ शिक्षण ☆ – सुश्री आरूशी दाते

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( अन्य देवताओं की उपासना का विषय )

 

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌।।21।।

 

जिस जिस में दिखती मुझे पावन प्रीति प्रगाढ

उस उस के प्रति जगाता उनमें भक्ति की बाढ।।21।।

 

भावार्थ :  जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।।21।।

 

Whatsoever form any devotee desires to worship with faith-that (same) faith of his I make firm and unflinching.।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ जीवन साथी का परिवार ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत

श्रीमती कृष्णा राजपूत

( श्रीमती कृष्णा राजपूत जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही आप साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, माहिया, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आपने अगले सप्ताह से प्रत्येक बुधवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य”  शीर्षक प्रकाशित करने के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया है जिसके लिए हम आपके ह्रदय से आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा “जीवन साथी का परिवार”।)

 

☆ लघुकथा – जीवन साथी का परिवार☆ 

 

नयी बहू नये-नये अरमानों संग ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही सकुचाई, पर उसनें घूंघट को सरकने न दिया.  एकाध स्थान पर तो नेग-दस्तूर  में गिरते-गिरते बची. खिला चेहरा नये अरमान और बहू के  लिये अनजाने नये एक दूसरे  मेहमानों  का अदब-कायदा  करती जा रही थी. सासू माँ आजकल की लड़कियों का रहन-सहन तो जानती  थी.

वर्तमान के वातावरण से  परिचित थी. जैसे ही बहू ससुर साहब के पैर छूने झुकी तुरन्त सासु माँ ने कहा – “बेटी इतना अधिक परदा मत करो, मै और तुम्हारे ससुर साहब आँखों के परदे पर विश्वास करते हैं. पर्दा बड़ो के सम्मान में किया जाता है.”

इतना सुनते ही बहू के चेहरे पर पहले से और ज्यादा निखार आ गया. उस चेहरे का क्या कहना मानो चार चाँद लग गये हों.

अगाध खुशी उसके चेहरे की रौनक पर चमक बढ़ाती  ही जा रही थी.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत 

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 – मन की इन्द्रियों पर विजय ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “मन की इन्द्रियों पर विजय।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 ☆

 

☆ मन की इन्द्रियों पर विजय

 

सबसे पहले इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर वरुण पाश (पानी के देवता वरुण का फंदा) चलाया। यह किसी भी प्राणी को हवा में लटकाकर उसके प्राण हर सकता था, चाहे वह देवता, असुर या मानव कोई भी हो। इस अस्त्र के फंदे से बचना असंभव था, उत्तर में, लक्ष्मण ने कुम्भ अस्त्र का प्रयोग किया जो संग्रह पात्र की तरह कार्य करता था, और इंद्रजीत द्वारा वरुण पाश को कुम्भ अस्त्र ने अपने अंदर एकत्रित करना शुरू कर दिया और जल्द ही वरुण पाश आकाश में लुप्त हो गया ।

तब इंद्रजीत ने कंकालम अस्त्र चलाया यह एक भरी मूसल नुमा अस्त्र था इसका उत्तर  लक्ष्मण ने धर्म पाश (अर्थ : सच्चाई का हथियार)से दिया ।

इंद्रजीत का क्रोध सभी असफल अस्त्रों के साथ बढ़ रहा था। क्रोध में इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर त्रिशूल फेंक दिया, भगवान शिव का विनाशक अस्त्र । यह अचूक है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता है। इसे बिना किसी समानांतर के सबसे शक्तिशाली हथियार कहा जाता है । परन्तु जैसे ही यह इंद्रजीत के हाथ से त्रिशूल निकला, लक्ष्मण ने अपने दोनों हाथों को उसकी ओर जोड़ दिया, और त्रिशूल आकाश में उड़ गया और सीधे कैलाश गया, और भगवान शिव के बायीं ओर बर्फ की जमीन पर  गड  गया। बिना भगवान शिव की अनुमति के लक्ष्मण पर शक्ति का उपयोग किया गया था, जिससे शिव जी  इंद्रजीत से नाराज थे तो ऐसा लगा की जैसे उनका त्रिशूल भी इंद्रजीत से नाराज है ।

त्रिशूल एक परंपरागत भारतीय हथियार है। यह एक हिन्दु चिन्ह की तरह भी प्रयुक्त होता है। यह एक तीन चोंच वाला धात्विक सिर का भाला या हथियार होता है, जो कि लकडी़ या बांस के डंडे पर भी लगा हो सकता है। यह हिन्दु भगवान शिव के हाथ में शोभा पाता है। यह शिव का सबसे प्रिय अस्त्र हैं शिव का त्रिशूल पवित्रता एवं शुभकर्म का प्रतीक है। इसके तीन सिरों के कई अर्थ लगाए जाते हैं: –यह त्रिगुण मयी सृष्टि का परिचायक है, –यह तीन गुण सत्व, रज, तम का परिचायक है

इन तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का संचालन कठ‌िन हैं, इसल‌िए श‌िव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण क‌िया। यह त्रिदेव का परिचायक है। भगवान शिव के त्रिशूल के बारे में कहा जाता है कि यह त्रिदेवों का सूचक है यानि ब्रम्हा, विष्णु, महेश के अनुसार ही इसे रचना, पालक और विनाश के रूप में देखा जाता है। इसे भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ धऱती, स्वर्ग तथा पाताल का भी सूचक माना जाता हैं। यह दैहिक, दैविक एवं भौतिक ये तीन दुःख, के नाश के रूप में त्रिताप के रूप में जाना जाता है। यह हिन्दु देवी दुर्गा के हाथों में भी शोभा पाता है। खासकर उनके महिषासुर मर्दिनी रूप में, वे इससे महिषासुर राक्षस को मारती हुई दिखाई देतीं हैं। विभिन्न देवी दुर्गा के मंदिरो की प्रतिमा में त्रिशूल सोने चाँदी या पीतल के देखे जा सकते हैं । मनुष्य शरीर में भी त्रिशूल, जहाँ तीन नाड़ियां मिलती हैं, उपस्थित है और यह ऊर्जा स्त्रोतों, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को दर्शाता है। सुषुम्ना जो कि मध्य में है, को सातवां चक्र और ऊर्जा का केंद्र कहा जाता है ।

अगर तत्त्वमीमाँसा की दृष्टि से देखे तो इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच का संग्राम क्या सूचित करता है ? इंद्रजीत अर्थात जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो या जिसकी कर्म इन्द्रियाँ और ज्ञान इन्द्रियाँ भोग विलास की वस्तुओं को स्वीकार ना करती हो। ये दस, पाँच कर्म इन्द्रियाँ और पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ वाह्य मुखी होती है पर एक आंतरिक इन्द्रिय भी होती है जिसे मन कहते है मन वह इन्द्रिय  है जो मस्तिष्क में बाहरी वासनाओं के प्रति आने वाली पहली लहर की प्रतिक्रिया देता है । तो  भले ही कोई मनुष्य दस बाहरी इन्द्रियों पर काबू कर ले तो भी उसकी वासनाएँ जीवित रहेंगी जब तक कि उसका मन संतुलित ना हो। दूसरी ओर लक्ष्मण का अर्थ है जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर रहे और किसी भी वासना के प्रति तनिक भी ना डिगे। अगर मन स्थिर हो तो बाहरी इन्द्रियाँ आपने आप काबू में आ जाती है। तो इंद्रजीत की बाहरी इन्द्रियाँ भले ही उसके नियंत्रण में हो लकिन उसका मन लंका और उसके पिता के अहंकार की वासनाओं से जुड़ा हुआ था जबकि लक्ष्मण का मन सदैव भगवान राम की भक्ति में लगा था इसी लिए लक्ष्मण इंद्रजीत को मार पाए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्द सामर्थ्य ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  शब्दों के सामर्थ्य पर आधारित आलेख  “शब्द सामर्थ्य ”।)

 

☆ शब्द सामर्थ्य ☆

भाषा व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होताहै, कि अक्षरों के समूह से शब्द बनते हैं। पहला सार्थक, दूसरा निरर्थक निरर्थक शब्दों का प्रयोग भाषा लिपि की आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। वाक्य रचना, तथा काव्य रचना में उद्देश्य की आवश्यकता के अनुसार एकही शब्द अनेक अर्थो में प्रयुक्त होते हैं। नीचे उदाहरण से लेखक के मन्तव्यों को समझें।

दोहा—-

चरण धरत चिंता करत, चितवत चारिउ ओर।
सुबरन  को खोजत  फिरत, कवि, ब्यभिचारी, चोर।।

यहां सुबरन का अर्थ कवि के लिए सुन्दर वर्ण, व्याभिचारी के लिए सुन्दर स्त्री, तथा चोर के अर्थ में सोना है।

अथवा

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।

यहां पानी शब्द का प्रयोग, मोती मानुष चून (पक्षी) के लिए  किया गया है जो अलग अलग परिपेक्ष में है। इस प्रकार परिस्थिति जन्य परिपेक्ष की आवश्यकता अनुसार शब्दों के अर्थ तथा। भाव बदलते ही रहते हैं। शब्द ही साहित्य विधा के लेखन की  प्राण चेतना है।

शब्द ही हृदय के भावों  एवं मन के विचारों का प्रस्तोता (प्रस्तुत ) करने वाला है। साहित्यिक विधा में शब्दों से अलंकारिक भाषा का  सौन्दर्य बोध, रस छंद अलंकार के सुन्दर भावों की उत्पत्ति होती है। शब्दों में ही मंत्रो की शक्ति बसती है। जिनके विधि पूर्वक अनवरत जाप के बड़े चमत्कृत कर देने वाले परिणाम देखे  गये हैं। और निर्धारित उद्देश्यो की सफलता  भी।

शब्दों का प्रभाव सीधे सीधे मन मस्तिष्क तथा हृदय पर होता है। शब्दों से ही दुख के समय संवेदना, सुख के समय प्रसन्नता, तथा आक्रोश के समय में क्रोध प्रकट होताहै। जो हजारों किलोमीटर बैठे। मानव के मन को सुख दुःख पीड़ा का एहसास करा जाता है, इसका अनुभव मुझे आपको तथा सभी को होगा। तथा वे शब्द ही तो है जो सामनेवाले के आचार विचार तथा व्यवहार पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। कहा भी गया है कि गोली के घाव तो भर जाते हैं, बोली के घाव जो शब्दों से मिलते हैं वो जल्दी नहीं भरते।

शब्दों से ही स्तुति गान प्रशस्तिगान है क्योंकि उसमें बहुत जान है। शब्द ही बोलचाल भाषा तथा अभिव्यक्ति के माध्यम के मूलाधार है। वाणी से शब्द प्राकट्य तथा लेखन से उसका स्वरूप बनता है।

तभी तो श्री कबीर साहेब कहते हैं—–

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

और इन्हीं भावों के समर्थन में वाणी की महत्ता बताते हुए श्री तुलसी दास जी कह उठते हैं—–

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजै चंहुओर।
मधुर बचन इक मंत्र है, तजि दे बचन कठोर।।

इस प्रकार मधुर शब्दों से सराबोर वाणी जो मंत्र सा चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती है। और सामने वाले को अपने प्रभाव मे ले लेती है।

ऐसे अनुभव आप सभी के पास होंगे जहां कठोर वाणी। अपनो से भी दूर कर देती है, वही मृदु वाणी सबको ही अपना बना लेती है।

शब्दों में समाये भावों का बड़ा ही सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मेरे अपने विचारों से शब्द ही भाषा ,भाव व वाणी के मूल श्रोत है तो साहित्य सृजन के सौन्दर्य बोध भी।  जहाँ अक्षर शब्दो के जनक है, तो शब्द ही गीत संगीत विधा के माधुर्य भी, जिसके सम्मोहन से आदमी तो क्या जानवर भी नहीं  बचते। ऐसा पौराणिक कथाओं में मिलता है जब कृष्ण की बांसुरी ने सबके मन को मोहा था।

अपनी गरिमा मय प्रभाव एवं स्वभाव से शब्द प्रतिपल मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। शब्दकोश  बढ़ने से ही मानव कवि, लेखक, रचनाकार, पत्रकार बन जाता है। तथा आदर्श अभिव्यक्ति कर भावों का चितेरा बन जाता है।

बिना अक्षरों के ज्ञान के भी शब्द ज्ञान संभव है, तभी तो बिना पढ़े लिखे छोटे बच्चे भी तो अपनी भाषा में बात कर पाते हैं। अक्षर ज्ञान शब्द ज्ञान प्राथमिक पाठशाला के प्रथम कक्षा के छात्रों की नींव की ईंट है। प्रत्येक शब्द में असीम सामर्थ्य है।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – ☆ “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त ☆ काव्यांजलि ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त

सुश्री स्वपना अमृतकर

ई-अभिव्यक्ति की ओर से स्वर्गीय शिरीष व्यंकटेश पै जी को सादर नमन।

प्रख्यात मराठी कवी, लेखिका और नाटककार स्वर्गीय शिरीष व्यंकटेश पै जी आचार्य अत्रे जी की पुत्री थी।  उनका  जन्म 15 नवम्बर 1924 को हुआ और देहांत 2 सितंबर 2017 को मुंबई में हुआ था।

सुश्री स्वपना अमृतकर जी ने अपनी आदर्श स्व. शिरीष व्यंकटेश पै जी को हायकू विधा में जन्मदिवस पर काव्यांजलि समर्पित की है। सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी के ही  शब्दों में –

ज्येष्ठ हायकूकार स्व. शिरीष पै जी का  का जन्म 15 नवम्बर 1929 को हुआ था।  आदरणीय गुरू माँ हम सबके लिए बहूत सारा महत्वपूर्ण हायकू साहित्य की रचना कर के अनंत यात्रा पर चली गई । उनकी यह हायकू साहित्य की तपस्या, हर एक के लिए प्रेरणादायी बन गई हैं। आज भी उनकी लिखीं हुई पुस्तकें  नये-पुराने हायकू समावेशकों  के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। इनमें प्रमुख हैं :-

१. हे ही हायकू,

२. हे का हायकू,

३. फक्त हायकू

और बहूत सारी हायकू पुस्तके हमे पढ़ने को आज भी मिलती हैं । मुझे काव्य की इस विधा में अभिरुचि का एकमात्र कारण है आदरणीया  “शिरीष पै”  जी का प्रकाशित हायकू साहित्य। उनसे मिलने की इच्छा तो अधूरी रह गई पर उन्होंने हायकू की जो राह दिखाई है, उसमे प्रयास करके चलते रहने की ख्वाहिश जरूर पूरा करने का साहस जुटा रहीं हूँ।  इस अद्भुत काव्य विधा की पहचान बनी आदरणीया “शिरीष पै” जी के लिए उनके जन्मदिन पर मैने अपने शब्दों मे हायकू काव्य विधा में  बधाई देने का एक छोटा सा प्रयास किया है ।

पुढील हायकू स्वरचित काव्यरचना ज्येष्ठ हायकूकार – “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त :

 

☆ “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त ☆

 

काव्यांजलि – शिरीष पै

हायकू :

 

कवी जीवाला
हायकू पायवाट
छंद मनाला ,    १

हायकू ऋतू
निसर्गात जन्मतो
शीळ घालतो ,   २

हायकू काव्य
अल्प शब्द सोहळे
जगावेगळे ,      ३

साथ गुरूंची
लिखाणांतून भासे
वाढ ज्ञानाची ,    ४

पुन्हा नव्याने
हायकूंचे दिवस
ताजेतवाने,       ५

जन्मदिवस
शिरीष पैंचा आज
हर्ष मनांस ,      ६

शुभेच्छांचीच
हायकूची हो खोळ
सदा निर्मळ ,     ७

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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