English Literature – Poetry ☆ Chatak ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “चातक ” published previously as ☆ संजय दृष्टि  – चातक ☆.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

Original article  –

☆ चातक ☆

…माना कि अच्छा लिखते हो पर कुछ जमाने को भी समझो। दुनियादारी सीखो। हमेशा कोई अमृत नहीं पी सकता। कुछ मिर्च- मसालेवाला लिखो। नदी, नाला, पोखर, गड्ढा जो मिले , उसमें उतर जाओ, अपनी प्यास बुझाओ। सूखा कंठ लिये कबतक जी सकोगे?

…चातक कुल का हूँ। पीऊँगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अन्यथा मेरी तृष्णा, मेरी नियति बनी रहेगी।

☆ Chatak ☆

… agreed that you write well but also try to understand the world some time.  Learn worldliness.  One cannot always drink nectar alone.  Write something peppery-spicy.  Get into the river, stream, puddle, pond, and quench your thirst.  How long can you live with dry throat?

 

 … I’m of Chaatak family.  If I drink, I drink water of Swati Nakshatra only, else, my thirst craving will remain my destiny…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पगडंडी की पीड़ा ☆ श्री अमरेंद्र नारायण

श्री अमरेंद्र नारायण

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं  देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री अमरेंद्र नारायण जी की एक भावप्रवण कविता पगडंडी की पीड़ा)

☆ पगडंडी की पीड़ा  

 कभी घोड़ों की निर्मम टापें

कभी तपती धरती का क्रंदन

कभी धूल उड़ाती वायु की

झुलसाती , चुभती हुई तपन

 

कभी दंभ भरे कर्कश वाहन

कभी पशुओं का स्वच्छंद गमन

कभी लाठी की फटकार, कभी

जूतों का चुभता रूखापन

 

कभी फुसफुस,चोरी की बातें

तो सिक्कों की झनकार कभी

किसी गहन निशा में आती है

करुणा से भरी चीत्कार कभी

 

पगडंडी सहती जायेगी

कब तक यह निर्मम आवर्तन?

कोई सरस हृदय दे पायेगा

उसके उर को क्या स्निग्ध छुअन ?

 

हां सच है सुनने को मिलता

समवेत स्वरों में गीत मधुर

कभी घर को लौट रहे किसी का

आतुरता से प्रेरित कोई सुर

 

ना जाने कितने पांवों का

आघात सहन करना पड़ता

वे अपनी मंजिल को पा लें

बस यही ध्येय उर में रहता!

 

जल्दी जाने की धुन सबको

यह सबकी उपेक्षा सहती है

कोई प्यार से मुड़ कर देख तो ले

इतनी ही अपेक्षा रखती है!

 

किसको उसकी परवाह भला?

पगडंडी क्या कभी रोती है?

वह टाप,चाप,संताप,तपन

अपनी छाती पर ढोती है!

 

कोई कीचड़,फिसलन दे जाता

गंदगी,प्रदूषण फैलाता

यह सब सहती है पगडंडी

जाने वाले का क्या जाता?

 

संवेदनशील अगर हों हम

खुश हो बांहें फैलायेगी

सदियों से सहती आई है

आगे भी सहती जायेगी!

 

क्या कोई भावुक हृदय कभी

हौले से पांव बढ़ायेगा?

सुन्दर मुस्काते फूलों की

क्यारी क्या कभी लगायेगा?

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

२७ अगस्त २०२०

जबलपुर

मो ९४२५८०७२००

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 14 ☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  विश्व जनसंख्या दिवस – “जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत”)

☆ किसलय की कलम से # 14 ☆

☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत 

 

जनसंख्या शब्द याद आते ही विश्व की बढ़ती आबादी का भयावह स्वरूप हम सबके सामने आ जाता है। खासतौर पर चीन और भारत की जनसंख्या वृद्धिदर जानकर। इसके पश्चात जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करने वाले प्रश्नों की अंतहीन श्रृंखला मानस पटल पर उभरने लगती है। ऐसा नहीं है कि पिछले छह-सात दशकों में शिक्षा का प्रतिशत न बढ़ा हो, जन जागरूकता न बढ़ी हो अथवा राष्ट्रस्तरीय जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रयास न किए गए हों। उक्त तीनों तथ्यों के अतिरिक्त हमारी सीमित सोच भी जनसंख्या नियंत्रण अभियान को प्रभावित करती है। हमने कभी सकारात्मकता पूर्वक सोचने का प्रयास ही नहीं किया कि हम जनसंख्या नियंत्रण में स्वयं कितना योगदान कर सकते हैं। हाँ, हमारा मस्तिष्क यह अवश्य सोच लेता है कि हमारी एक संतान के अधिक होने से क्या फर्क पड़ेगा। तब यह बताना आवश्यक है कि विश्व जनसंख्या के यदि एक अरब लोग भी इस सोच पर आगे बढ़ेंगे, तब वर्ष में एक अरब जनसंख्या तो वैसे ही बढ़ जाएगी। अब आप ही बताएँ कि यह सोच विश्वस्तर पर कितनी भारी पड़ेगी और देखा जाए तो भारी पड़ भी रही है।  वह दिन दूर नहीं है, जब हमारा देश पहले क्रम पर आकर जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला राष्ट्र बन जाएगा।

अकेली शिक्षा अथवा शासन जनसामान्य को कितना या किस हद तक सचेत करेगा। आज पृथ्वी पर संसाधन हैं। प्रकृति भी साथ दे पा रही है, लेकिन प्रकृति कब तक साथ देगी? धीरे-धीरे हवा, पानी और हरित भूमि भी कम होती जाएगी। जनसंख्या के दबाव से माँगें बढ़ती ही जा रही हैं। माँगों की तुलना में अन्य जरूरतें कम पड़ेंगी ही। बड़े-बड़े कार्यक्रम व सरकारों की सक्रियता से भी आशानुरूप परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। हम जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित हर वर्ष नई-नई थीम पर केंद्रित ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाते चले आ रहे हैं और उन सब पर कार्य भी किये जा रहे हैं, लेकिन संतोषजनक परिणाम न आने के कारण चिंतित होना स्वाभाविक है।

अन्य राष्ट्रीय-पर्व व त्यौहारों के समान ही ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाने की परिपाटी बन गई है। 11 जुलाई अर्थात विश्व जनसंख्या दिवस के पूर्व कुछ तैयारियाँ प्रारंभ होती हैं। कुछ घोषणाएँ, कुछ भाषण, कुछ संदेश, कुछ बड़े-बड़े आलेखों और उनकी रिपोर्ट का मीडिया में प्रकाशन-प्रसारण हो जाता है। इस दिवस को मनाने का जैसे बस यही उद्देश्य बचा हो। किसी भी स्तर का कार्यक्रम क्यों न हो, उसका प्रमुख विषय यह कभी नहीं देखा गया कि जनसंख्या विषयक पिछले पूरे वर्ष में कितनी प्रगति हुई है। आज विज्ञप्तियों, विशिष्ट लोगों के संदेशों के अतिरिक्त और होता भी क्या है। आज तक कितने बार आपके दरवाजे पर कोई जनप्रतिनिधि, किसी सामाजिक संस्था के सदस्य अथवा किसी सरकारी अमले ने आकर इस समस्या के निराकरण हेतु आपसे कभी पूछा है या कोई समझाइश दी है? क्या आपने…., जी हाँ आपने कभी इस समस्या पर किसी से गंभीरता पूर्वक चर्चा की । आप किसी एक को भी जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित कर पाए हैं।

जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से आज हम सभी अवगत हैं, मुझे नहीं लगता कि उन बातों का यहाँ उल्लेख अनिवार्य है और न ही यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी बातें लिखने का कोई विशेष लाभ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि जब तक हम सबसे छोटी इकाई से यह कार्य प्रारंभ नहीं करेंगे। युवा, वयस्क एवं बुजुर्ग सभी इस सर्वहिताय जनसंख्या नियंत्रण अभियान को स्वहिताय नहीं मानेंगे, तब तक जनसंख्या वृद्धि दर के संतोषजनक परिणाम मिलना कठिन ही लगता है।

अंधविश्वास, अशिक्षा, जितने लोग होंगे उतनी अधिक कमाई होगी, जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी दमदारी, हमारे अकेले आगे आने से क्या होगा? ऐसे सभी बार-बार दोहराने वाले जुमलों को परे रखकर हम स्वयं से ही शुरुआत करें और जनसंख्या नियंत्रण में सहभागी बनना सुनिश्चित करें। जमीनी तौर पर यह सभी जानते हैं कि परिवार के सदस्य बढ़ेंगे तो संपत्ति तथा घर के भी अधिक भाग होंगे। चार-छह संतानों के बजाय एक संतान पर अधिक तथा समुचित ध्यान दिया जा सकता है। सीमित संसाधनों के चलते अधिक लोगों को नौकरी नहीं दी जा सकती तब ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। उच्च अर्थव्यवस्था के न होने से सबका खुश रहना और सभी आवश्यकताएँ पूर्ण करना संभव नहीं है। इन सभी बातों का उल्लेख प्राथमिक शालाओं के पाठ्यक्रम से ही प्रारंभ होना चाहिए। मोहल्ला समिति, ग्राम पंचायत, पार्षद, विधायक, सांसद तक प्रत्येक को अपनी दिनचर्या में जनसंख्या नियंत्रण विषय को शामिल करना होगा। अपने कार्यक्रमों, अपने उद्बोधनों एवं शासकीय नीतियों में प्रमुखता से जनसंख्या नियंत्रण की बात कहना होगी। जब तक जनसामान्य एवं सरकार इस विकराल समस्या को प्राथमिकता नहीं देगी, सच मानिए सफलता की आशा करना निरर्थक है।चिंतन-मनन-अध्ययन एवं कार्य भी वृहदरूप में हुए हैं, इसलिए जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों का संपूर्ण ब्यौरा देना यहाँ कदापि उचित नहीं है, उचित है तो बस जनसंख्या नियंत्रण हेतु इस अभियान के सुपरिणाम हेतु स्वस्फूर्त रूप से अग्रसर होना और लोगों को अधिक से अधिक प्रेरित करना, ताकि हम यह कह सकें कि हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण अभियान के सुखद परिणाम सामने आने लगे हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 60 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 60 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

तितली

रंग बिरंगी तितलियां,

विश्व सुंदरी रूप।

कहीं छिटकती चांदनी,

कहीं छिटकती धूप।।

 

जंगल

जल का माध्यम हरे वन,

जल से वन संपन्न ।

जल जंगल से हीन हो,

मृत्यु देखें आसन्न।।

 

श्राप

कोरोना की मार ही,

आज बना है श्राप।

सबके सिर पर नाचता,

बना सभी का बाप।।

 

बारूद

बातों के बारूद पर,

चलें घिनौनी चाल।

जीवन है संघर्ष का,

करे बुरा जो हाल।।

 

धूप

शरमाता है देखकर,

दर्पण उजला रूप।

तेरी शोभा बढ़ रही,

पड़े मखमली धूप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 51 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 51☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

 

तितली

तितली की फितरत अलग,निखरें रंग हज़ार

जब भी थामा प्यार से,करे रंग बौछार

 

जंगल

अपराधी निशिदिन बढ़ें,उन पर नहीं लगाम

लगता जंगल राज सा,सरकारी अब काम

 

बारूद

हथियारों की होड़ में,बारूदों के ढेर

दुनिया में सब कह रहे,मैं दुनिया का शेर

 

श्राप

अजब परीक्षण चीन का,आज बना है श्राप

कोरोना सिर चढ़ गया,देकर सबको थाप

 

धूप

पूस माह में धूप की,सबको होती चाह

तन कांपे मन डोलता,मुँह से निकले आह

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 5 –  ते आणि मी ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 5 ☆

☆ ते आणि मी  ☆

 

ते मरतात रुळांवरती-निष्प्राण

मी लिहितो आणखी एक कविता मुर्दाडपणे

ते चालतात,पायाचे तुकडे करतात

मी घेतो वाहवा भेगाळलेल्या टाचांच्या फोटो साठी -बेशरमपणे

ते होरपळतात कच्याबच्यांसह तापल्या मातीत

मी पंख्याखाली थंड होत रहातो-शांतपणे

ते तुडवत रहातात आपल्या खोपटाची वाट

मी पहात असतो माझ्या घराच्या सावलीतून -निवांतपणे

ते शोधतात आयुष्यभर ‘भाकरीचा चंद्र

मी तपासत असतो डझनाचे बाजारभाव -कुतूहलाने

ते मरतात आणि

शेखर कविता करतो.

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

11-05-2020

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ धरा – अंबरा ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ धरा – अंबरा ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर

कैवल्यदानीच्या दोन पोरट्या धरा,अंबरा

समंजस हि धरा,अंबरा परि खळखळणारी॥

 

म्हणे अंबरा, ” नेसू माझे कधी काळे तर कधी राखाडी

क्वचितच असते रेष त्यावरी लखलखणारी”॥

 

नच खळेना डोळ्यामधले पाणी हळवे

कधी करी आकांत तर कधी मुसमुसणारी॥

 

रंगबिरंगी फुलवेलींची नक्षी रेखली

धरेस मिळते हिरवी साडी झगमगणारी॥

 

अखेर थोडी हसली गाली आज अंबरा,

नेसून दावी पिवळी साडी सळसळणारी॥

 

चैतन्याने रात भारली प्रणयरंगी

काळी साडी, खडी त्यावरी चमचमणारी॥

 

मनोमनी तो आज लाजला, चकोर भोळा

लख्ख प्रकाशी, बघून अंबरा थरथरणारी॥

 

© सौ.मंजिरी येडूरकर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तिबेटी लोककथा – समुद्र खारा नव्हता तेव्हा ☆ डॉ. मंजुषा देशपांडे ☆

☆ जीवनरंग ☆ तिबेटी लोककथा – समुद्र खारा नव्हता तेव्हा ☆ डॉ. मंजुषा देशपांडे

खूप वर्षांपूर्वी…जेव्हा समुद्र खारट नव्हता.  पृथ्वीचा बराचसा भाग घनदाट जंगलाने व्यापला होता.  त्यावेळी एका जंगलाने वेढलेल्या विस्तीर्ण डोंगर पठारावर  सूर्य देवाचे राज्य होते. राजा प्रजेचा आवडता होता. राजाची प्रजा शहाणी होती.  मंत्रीमंडळ राजाची आज्ञा मोडत नव्हते. कोणीही बंडखोर अजून पैदा झाला नव्हता.

बायको एकच होती. सोन्यासारख्या दोन राजकन्या होत्या आणि एकापेक्षा एक बुध्दीमान आणि धाडसी तीन राजपुत्र होते. वेळेवर पाऊस पडे.  शेती पिके.  फळाफूलांचे हंगाम भरपूर असत. लोक उत्सवप्रिय होते.  राज्यातला प्रत्येक जण कोणत्या ना कोणत्या कलेत निपुण होता. त्यामुळे गाणे,  बजावणे,  नाच, नाटके यासारख्या कार्यक्रमांनी रात्री उजळलेल्या असत.

अर्थातच लोक आरोग्याने मुसमुसलेले आणि अतिशय आनंदी होते. सगळं कसं हवं तसं.  देखणं आणि रेखीव.

एका संध्याकाळी एक देवदूत आणि त्याची पत्नी आकाशातून विहरत चाललेले होते. त्या दिवशीही गावात कसलासा उत्सव होणार होता. सगळीकडे मोगरा आणि गुलाबाच्या माळा लावल्या होत्या. गरमागरम मिष्टान्नांचा घमघमाट सुटलेला होता.  रंगीबेरंगी कपडे आणि फूलांच्या माळांनी सजलेले लहान थोर लगबगीने उत्सवाच्या ठिकाणी निघाले होते.

आज राजदरबार आणि गावातील मुले विविध प्रकारे मनोरंजनाचे कला प्रकार सादर करणार होते.  ती मुले संगीत, वादन,  नर्तन आणि नाटक या सर्वातच प्रवीण होती.  दरवर्षी हा उत्सव अभिनव पध्दतीने सादर करण्याची त्या गावातली प्रथा असल्याने, सर्वजण अतिशय उत्सुकतेने कार्यक्रमाची वाट पहात होते.

राजा राणीचे आगमन होताच कार्यक्रमाला सुरूवात झाली. पहिल्याच नांदीला लोकांनी माना डोलावल्या.

……तर त्या आकाशातल्या देवदूताची पत्नी त्या गावातला आनंद पाहून स्वतःही खुदुखुदू हसू लागली आणि ते विमान गदागदा हलायला लागलं.  देवदूताला फारच राग आला, तो तिरसटल्या स्वरात म्हणाला, “गप बस ग ए.. विमान पडेल तुझ्या हसण्याने… पृथ्वीवर कोणताही आनंद फार काळ टिकत  नाही, लक्षात आहे ना!”  त्यावर ती पत्नी ठासून म्हणाली,  “काळ बदलतो.  माणसंही बदलतात.” त्यावर देवदूताने एक सुस्कारा सोडून विमान आणखी उंचावर नेत म्हटले, ” माणसे आहे त्यात समाधानी नसतात आणि त्यांना नेहमीच अधिकचे काहीतरी हवे असते.  त्यामुळेच ते स्वतःबरोबर

दुस-यांचाही नाश ओढवून घेतात.”

मी म्हणतोय त्याचा प्रत्यय तुला लवकरच येईल.” देवदूत काहीशा विषादाने म्हणाला.

कदाचित केवळ त्यामुळेच त्या उत्सवानंतर मधल्या रिकाम्या काळात त्या राणीला एक व्रत करायची बुध्दी झाली असावी.  ते व्रत म्हणे राज्य हजार वर्ष पर्यन्त टिकण्यासाठी होते.  प्रथम राजाने ती कल्पना हसण्यावारी नेली.  तो म्हणाला,  ” आपण शंभर वर्षापुढे जगणार नाही,  आपली मुले,  नातवंडे,  पंतवंडेही हजार वर्षापर्यन्त जगत नाहीत. आपल्यानंतर आपला वंश हजार वर्षापर्यंत टिकतो का नाही याची आपल्याला कशाला चिंता!

राणीला ते मुळीच आवडले नाही. ती अगदी हट्टालाच पेटली.  ते 15 दिवसाचे आणि अगदी सोपे व्रत होते.

रात्रीला दिवस मानायचा आणि दिवसाची कामे रात्री करायची आणि रात्रीची कामे दिवसा.  असे 15 दिवस केले की संध्याकाळी देवीची पूजा करून लोकांना मेजवानी द्यायची.

रात्री जागरण करायचे. यज्ञ करायचा. देवीला संतुष्ट करायचे.. ..

आणि सोळाव्या दिवसापासून परत सगळे पूर्वीसारखे…

राजा काही त्याला तयार नव्हता.

राणी सतत राजाच्या मागे भुणभुण करी आणि राजा तिला उडवून लावी.

मग राणीने ही कल्पना प्रधान आणि सेनापती यांच्या बायकांसमोर बोलून दाखवली.

त्या राज्यात सेनापतीला युध्दाचा पोशाख घालून आपल्या शिपायांसह रस्त्यावरून मिरवत जाण्याव्यतिरिक्त काही काम नसे. त्यामुळे सेनापती आणि त्याची बायको सतत सोंगट्यांचा खेळ मांडून हास्य विनोद करत बसलेली असत.

सेनापतीण बाईंनी या व्रताची गोष्ट  नव-याच्या कानावर घातली. सेनापतीलाही थोडे विचित्रच वाटले…’असले कसले व्रत… ते सुध्दा वंश 1000 वर्षे राज्यावर असावा… म्हणून..’

पण बाईंनी बसता उठता त्याच्या डोक्याशी कटकट केल्यामुळे तो राजाशी त्याबद्दल बोलायला तयार झाला.  इकडे प्रधानाचेही तेच झाले.

सेनापती आणि प्रधानजी दोघांनीही राजाकडे त्या व्रताचा विषय काढला आणि मुत्सद्दीपणे त्यांनी राजाचे मन त्यासाठी  वळवले.

राजा म्हणाला.. ” त्या व्रतामध्ये रोज देवीची पूजा करावी लागेल. ” हे माहिती आहे ना.. रोजच्या पूजेसाठी डोंगरापलिकडच्या राजाच्या तळ्यातली 100 कमलपुष्पे आणायची आहेत,  ती देखील त्यांच्या नकळत!

हे मात्र सेनापतीला भारी आवडलं.  सेनापती म्हणाला.. “अहो रोज नव्या दमाच्या शिपायांची तुकडी पाठवेन आणि कमळं आणवेन. ” लेकाच्यांना काहीच काम नसल्याने सोदे झालेत नुसते…..

खरे तर त्या तिघांनाही त्या व्रतात ना दम वाटत होता ना रस!

पण असो… व्रताची तयारी जोरात सुरू झाली.  विणकर, सोनार आणि माळी भराभर कामाला लागले.  चहूबाजूंनी मंडप घातले. पताका लावल्या.

देवीचे देऊळ रंगवले.  रांगोळ्या काढल्या. या व्रतामध्ये दिवसाची कामे रात्री करायची होती आणि सूर्य उगवल्याबरोबर झोपायचे होते. सूर्य मावळायच्या सुमाराला उठून प्रथम देवीची पूजा करून नित्य कामांना सुरुवात करायची होती.  मध्यरात्री आरती झाली की जेवून पुन्हा पहाटे शेजारती करून घरी जाऊन झोपायचे..

कसलं हे विचित्र व्रत!  प्रजाजन म्हणाले.  पण त्यांचा राजावर विश्वास.  त्यामुळे कोणी काही उघड बोलले नाही. अखेरीस व्रताच्या रात्रीचा दिवस उजाडला. शिपायाची एक तुकडी डोंगरापलिकडे आदल्या दिवशीच रवाना झाली होती.

तिथल्या एका सुंदर तळ्यात असंख्य कमळे फूलली होती.  शिपायांनी भराभर शंभर कमळे तोडली आणि परतायला निघाले.  शंभर कमळावर एका फूलाला हात लावायचा नाही अशी त्यांना सक्त ताकीद होती.

पहिल्या रात्री कमळांसकट सांग्रसंगीत पूजा झाली पण मध्यरात्री कुणाला जेवण जाईना.  अंधार असल्यामुळे दिवसाची कामेही होईनात.

पहाटे पटापट लोक अंथरूणात शिरले.  दुपार नंतर जागे झाले तर बहुतेकांचे पोट बिघडलेले. डोकेही दुखत होते.  कसेतरी सगळेजण देवळातल्या सायंपूजेला गेले उत्साह तर नव्हताच.

त्या दिवशीही मध्यरात्रीचे जेवण जवळ जवळ वायाच गेले.  खुद्द राणीला झोप आवरेना पण आपल्या वंशाचे राज्य हजार वर्षे टिकणार…या आशेने… तिने मनाला ढळू दिले नव्हते.

आता शिपायांनी कमळे आणली खरी… पण त्या राजाच्या शिपायांना चोरीचा पत्ता लागल्याने त्यांची आणि या शिपायांची चकमक झाली.

त्यात यांचे दोघे आणि त्यांचे तिघे जखमी झाले. पण ती ही रात्र पार पडली.  रात्री झोप न झाल्याने लोक चीडचीड करायला लागले.  एकमेकांवर डाफरू लागले.

राजा तर भयंकर वैतागला होता. पूजेच्या वेळी त्याने राणीचा हात जोरात हिसडला.. राणीच्या डोळ्यात पाणीच आले.

तिस-या दिवशी दुपारी  या गावातले सगळे गाढ झोपेत आणि पहा-यावरील शिपाई पेंगत असताना त्या राज्यातले काही सैनिक त्यांच्या सेनापतीसह या राज्यात आले त्यांनी त्या पेंगुळलेल्या शिपायांच्या मुसक्या आवळल्या आणि ते राजाच्या गुलाबाच्या बागेत शिरले.  फूले तर सगळी तोडलीच वर बागेची नासधूसही करून ठेवली.

प्रमुख  माळ्याला बांधून ठेवले माळीणबाई राजाकडे पळत सुटल्या.  त्यांना पळण्याच्या शर्यतीत मिळालेली बक्षिसे अशी कामी आली.

राजा डोळे चोळत उठला.  भूपाळी नाही तरीही भाटही जागे झाले.

यांचे सेनापती लगबगीने शिपायांना घेऊन निघाले.  अगोदरचे आळशी बनलेले शिपाई आणि त्यात झोपाळलेले.

त्यांच्या नव्या दमाच्या शिपायांना अगदी सहज यांच्या सेनापतीलाच कैद करता आले.  राजा तसा चतुर होता.  त्याने त्यांच्या सेनापतीला बोलणी करण्याचे निमंत्रण दिले.  त्या वेळेला फारशा लढाया होत नसत. त्यामुळे तो सेनापतीही फार तंदुरुस्त नव्हता. शिवाय डोंगरावरून दौडत आल्याने त्याला तहान भूकही जबरीची लागली होती.

त्याने यांच्या सेनापतीला काटेरी बुंध्याला बांधून ठेवले आणि तो त्याच्या शिपायांसकट राज्याकडे गेला.

इकडे सेनापतीच्या बायकोने तिच्या नव-यावर पहारा करणा-या दहा शिपायांना जेवायला बसवून तिच्या मैत्रिणींना आग्रह करायला लावला आणि स्वतः जाऊन

नव-याला सोडवले. त्याला ठिकठिकाणी काटे टोचल्यामुळे त्याचे शौर्य जागे झाले त्याने एकट्याने त्या जेऊन ढेकर देत असलेल्या शिपायांना असे धोपटले म्हणता की राजवाड्यात चर्चेसाठी गेलेल्या त्यांच्या सेनापतीच्या कानावर त्यांच्या किंकाळ्या पोचल्या.

तो सेनापती त्याच्या शिपायासह या सेनापतीशी लढायला लागला.  राजा डोके धरून बसला आणि राणीवर कावायला लागला.  ते शिपाई आणि सेनापती पळून गेले खरे पण सापाच्या शेपटीवर पाय पडलाच होता.

एवढे होईपर्यंत संध्याकाळ झाली.  आज लोकांना दिवसाही जागरण झालं.

पर-राज्यातून कमळे तर आली पण पूजेसाठी कोणाची मनःस्थिती असणार.. पहा! सगळं चांगलं चाललं असताना राणीला खुळचट व्रत करायची दुर्बुध्दी सुचली.

साध्या कमळावरून शेजारच्या राजाशी वैर घ्यावं लागलं.  शेवटी ते वैर संपावं म्हणून त्या राजाच्या दोन बावळट राजपुत्रांशी राजाला त्याच्या गोड राजकन्यांचा विवाह करावा लागला.  पण कायम कुरबुरी… वैर धुमसतच राहिलं.  सतत चकमकी,  असुरक्षित आयुष्य…त्यामुळे लोक चिडचिडे बनले.  बायका पोरांच्या रडण्यामुळे समुद्र खारट बनला.

परत काही वर्षानंतर जेव्हा देवदूत …आकाशात त्याच्या बायकोबरोबर फिरत होता तेव्हा डोंगर बोडके झाले होते आणि जंगले उजाड,  माणसे चिडचिडी आणि राजा राणी वैतागलेले… कुठे निषेधाच्या घोषणा… कुठे कसल्या तरी फालतू कारणामुळे सत्कार… असे सगळे अराजक माजलेले होते…

देवदूत म्हणाला… पहा!  सगळे सुरळीत चाललेले असताना राणीला वंश हजार वर्षे टिकवावासा वाटला.. इकडे स्वतःचे आयुष्य किती ते माहिती नाही.

माणसाच्या क्षुधांना अंतही नाही आणि पारावार नाही… देवदूताच्या पत्नीने खिन्नपणे मान हलवली.

आणखी काय करणार!

 

©  डॉ. मंजुषा देशपांडे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बकुळ ☆ सौ.दीपा पुजारी

ई-अभिव्यक्ती परिवारातर्फे हार्दिक अभिनंदन’?

 

☆ विविधा ☆ बकुळ ☆ सौ.दीपा पुजारी 

ते एक बकुळीचे झाड.

लहानपणीचं

छे! झाड कसलं? तो तर आमचा कल्पवृक्ष!!

किती आठवणी,किती रेशीमबंध विसावलेत   याच्या सावलीत.

अल्लड बालपण,खेळकर किशोरपण आणि हो  चैतन्यानं भारलेलं तरुण मनही यानंच जाणलं.

किती आनंद दिला या बकुळीनं!

किती गोष्टी शिकवल्या त्या गर्द हिरव्या पानपिसार्‍यानं.

रोज संध्याकाळी आई आम्हांला घेऊन बकुळीखाली जायची.माझ्या हातात सुईत ओवलेला दोरा असायचा. खाली पडलेली बकुळीची फुलं दोर्‍यात ओवली जायची.फुलाच्या सूक्ष्म छिद्रातून सुई ओवणं हे त्या वयात खूपच आव्हानात्मक होतं. एकाग्रता,कोऑर्डिनेशन, संयम आणि इतर अनेक.

या झाडानं कायकाय नाही शिकवलं?किंबहुना

बकुळीच्या रुपात आईनं शिकवलं. फारसं न बोलता, सुवासाची मुक्त उधळण करत बोलणार्‍या बकुळीनं मुग्ध संवाद शिकवला. नाजूक रेघांसारख्या पाकळ्यांनी संयोजनातून नियोजन करण्याचं कसब सांगितलं. वर्षभर हिरवी सावली देताना सोबत्यांना सावली  देणारं  शांतचित्त दिलं . वार्‍याच्या झोताबरोबर सलगी करून नागमोडी कड असलेल्या पानांनी सळसळणारी हास्यलहर चेहर्‍यावर आणण्याचं कौशल्य दिलं.

एवढंसं चिमुरडं,सावळंस,नाजूक  रुप.कुठलाही आकर्षकपणा नसतांनाही सगळ्यांना वेड लावण्याचं सामर्थ्य त्याच्याकडं आहे . सुकलेली बकुळही आपला सुहास उधळतच राहते. या एव्हढ्याश्या फुलात एव्हढं सामर्थ्य कुठून येतं? जगण्याची सहज सुंदर अभिव्यक्ती आली कुठून?

केवळ स्वत:जगणं नाही तर;आनंदकंदाची उधळण करत जगणं,जगण्याचाही सोहळा व्हावा  असं जगणं !!! निसर्गानं आपल्या अवतींभोवती खूप गोष्टी पेरून ठेवल्या आहेत.आपण  यातून काय व किती घेतो यावर आपलं आयुष्य अवलंबून आहे. या सिमेंटचे जंगल निर्माण करण्याचा अट्टाहास असाच सुरु राहिला तर?मुलांना बागेत हुंदडण्याचा,मातीत खेळण्यातला आनंद कसा मिळणार ? मित्रांबरोबर खेळण्याची संधी मिळणार नाही का?ऑनलाइन शाळेत खडू फळ्याशी गट्टी कशी होणार ? खिडकितून दाखवायला चिमण्याच नाही राहिल्या तर काऊचिऊची गोष्ट कशी सांगावी या चिमुरड्यांना? मित्रांबरोबर पतंग उडवताना वार्‍यावर डोलणारं गवतफुलात भान विसरेल अशा रंगकळा असतात; त्या कशा दिसतील या बालचमूला? वार्‍याची पावरी वाजवणारं बांबूच बन कसं दाखवायचं या नव्या पिढीला?

डोंगर दर्‍या काय फक्त टी. व्ही वरच बघायच्या या मावळ्यांनी?

आज आलेला  कोरोनाचा रोना थांबेलही. आकाश स्वच्छ होइल ही!तरीही आपण खडबडून जागं होणं अत्यंत गरजेच आहे. जुन्याच विचारांची

नव्यानं पेरणी करायला हवी. निसर्गात रमण्याचं,निसर्गात खेळण्याचं, निसर्गासवे वाढण्याचं शिक्षण घ्यायला हवं . नाहीतर . . . .

“घनदाट इमारतींच्या

अल्याड वा पल्याड

थकलेल्या चांदोबाला

मिळेल का कडुलिंबाच झाड?”

या ओळींचा प्रत्यय यायला वेळ लागणार नाही. चांदोमामाच्या गोष्टी शिवायच ही पिढी मोठी झाली तर? ही मुलं स्मार्ट असतील,बुध्दिमान असतील पण सिमेंटचे जंगल यांना भावना देईल का? आजूबाजूला निसर्गाच्या ऐवजी गॅझेटस् असतील तर माणुसकी संपूनच जाईल.म्हणूनच

अंगण आणि तुळशी वृंदावनाशी असलेलं नातं जपलं पाहिजे .सावळी बकुळ गंधीत होऊन बहरली पाहिजे .

 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

फोन.नं    ९६६५६६९१४८

email :[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ सखी ☆ सौ. सुनिता अनंत गाडगीळ

☆ मनमंजुषेतून ☆ सखी ☆ सौ. सुनिता अनंत गाडगीळ ☆

कॅन्सर हॉस्पिटल मधला एक वॉर्ड. सेमी स्पेशल रूम मध्ये एका बेडवर मी आणि दुसऱ्या बेडवर कॅन्सर झालेल्या एक वयस्क बाई.

डोक्याचा गोटा, कातडी करपलेली. अंगातला तरतरीतपणा निघून गेलेला. अंगभर थकवा.डोळ्यावर ग्लानी. पुढची इंजेक्शन मागवण्यासाठी मी मोबाईल शोधत होते. माझ्या जवळ कोणी नव्हते. तो मोबाईल सापडेना.

त्यावेळी एक तरुणी माझ्याजवळ येऊन विचारत होती,” काय पाहिजे?” ती एक चिठ्ठी तिच्या हातात देत मी म्हटलं हे प्रिस्क्रिप्शन जरा धरुन ठेवा, जाईल कुठेतरी मोबाईलच्या नादात. “काकू, मी धरून ठेवते तुमच्या हातातली चिठ्ठी. तुमची औषध आणायची आहेत  ? कारण आईची आणायची आहेत.” ती तरुणी म्हणाली.

ती तरुणी या बाईला आई म्हणत होती. दोघींमध्ये कसलं साम्य दिसत नव्हत. हा विचार माझ्या मनात घोळत होता. ती तरुणी गेली. नंतर त्या बाई जाग्या झाल्या आणि आजूबाजूला बघून रडायलाच लागल्या. मी त्यांना विचारलं,” काय झालं रडू नका” त्या म्हणाल्या ‘आमची सून पौर्णिमा कुठे गेली ?मला घाई लागली आहे संडासला आणि उठता येईना.’ एवढं बोलण्यानंच त्या खुप  दमल्या. .दोघींची औषध घेऊन पौर्णिमा परतली होती. यावेळी अंथरूण घाणीने भरलं होतं. ते बघून तिने नर्सला बोलवलं .मला रूम बाहेर बसवलं आणि नर्स च्या मदतीने सगळे स्वच्छ केलं .

आता रडत म्हणाली,” काकू सॉरी हा .आता तुम्ही आत येऊन बसा. पहिल्यांदाच झालं असं आईला”. त्या हुंदके देत होत्या. त्यांचे मन हलकं झालं होतं. गदगदत होत्या. “तुझ्यावर काय वेळ आली ग बाळा “असे म्हणून त्या पुन्हा पुन्हा डोळे पुसत होत्या .”आई ,तू जर चांगली असतीस तर मला करायला लागलं असतं का ? तुला होणारे त्रास जास्त आहेत . नाहीतर तू तरी माझ्याकडून कधी असं करून घेतलं असतं का? तू त्रास नको ना करून घेऊ ,असं म्हणत पौर्णिमा त्यांच्या पाठीवरून हात फिरवत त्यांना धीर देत होती .धीर देऊन झाला .आता त्यांना गोळ्या द्या असे नर्स सांगून गेली.”मी आता तुझ्यासाठी जेवायला घेऊन येते पटकन “असं म्हणत गोळ्या च्या पाकीट मधल्या गोळ्या काढून बाहेर  पडत पूर्णीमा म्हणाली की “मी तुम्हाला काहीतरी खायला आणून देते.”

आईचा आवाज व्याकुळ झाला होता. “नको मला नको काही खायला.”

“आई कसं चालेल ?जेवणापूर्वी च्या दोन गोळ्या आहेत, जेवायला पाहिजे ,” पौर्णिमा म्हणाली.  “असं कर ,फार नको अर्धी किंवा चतकोर भाकरी खाऊन घे. त्यावर पोर्णिमा म्हणाली ,अर्धी भाकरी करणारी बाई कोण मिळते ते विचारून येते थांब.

पौर्णिमा खळखळून हसत म्हणाली .त्यावर आई हसत म्हणाली ,”हसू नकोस ग बाई. हसताना दम येतो बर का.  .नुसती निजून आहे ना मी. कमी खायला हवं ” त्या मुलीला आपलं किती करावे लागत हे जाणवल्याने आई त्यामुळे खरंतर तसं बोलत होती. सलाईन लावलेला हात सुजला होता आणि नात्याच्या ऋणातून गुरफटून जात मी त्यांच्यात अडकत होते. मघाच्या  नर्स आल्या .इंजेक्शन देऊन त्यांनी सलाईनचा स्पीड कमी केला, तेव्हा मात्र इतका वेळ कसाबसा धरून ठेवलेला त्यांचा धीर सुटला हात सुजला होता. त्या रडू लागल्या.

पूर्णिमाने त्यांचा हात सलाईन मधून सोडवायला लावला आणि सोडवलेल्या सलाईन काढलेल्या नळीला दाबून दाबून ती आईला हसवण्यासाठी विचारत होती “इथं दाबू. आता इथं दाबू ? ” सलाईन काढलेल्या आईच्या हातात घेऊन ती बसली होती..आता खरं तर ती आईची आई झाली होती. सासू-सुनेचं ते मैत्र बघून मला अपूर्वाई वाटत होती.

आताशा अहो जाहो सोडून अग जगं सासूला म्हटलं जातं. आपल्या  सासूची सखी झालेली ती सून मी कशी विसरेन? तिथल्या वास्तव्यात आमच्या खूप गप्पा झाल्या ते मैत्र मी आजवर जपून ठेवले आहे.

 

© सौ. सुनिता अनंत गाडगीळ

9420761837

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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