हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆ मी वाट…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “मी वाट…..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆

 

☆ मी वाट…..!!

 

मी वाट आहे
थांबत नाही कधी
संपत ही नाही कधी
मी वाट आहे…

 

कुणाची ही वाट
पाहत नाही कधी
अनंतापर्यंत जाणारी
मी वाट आहे…

 

काट्याकुट्यातून जाणारी
फुला मनातून जाणारी
मोक्ष मिळवून देणारी
मी वाट आहे….

 

मला वाट नाही दिली
तरी वाट करून जाणारी
स्वतःची वाट स्वतः शोधणारी
मी वाट आहे……

 

मी मुकलेल्यांना आणि
मी चुकलेल्यांना पण
वाट दाखवणारी
मी वाट आहे…

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 13 ☆ अमृत महोत्सव विशेष – वाढदिवसाची सप्तपदी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

अमृत महोत्सव विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  वाढदिवसाची सप्तपदी  जो उन्होंने  अपने इकसाठवें जन्मदिवस पर लिखी थी ।  

श्रीमती उर्मिला जी को  आज उनके 75 वें  जन्मदिवस  8-11-2019 ( अमृत महोत्सव ) पर हम सबकी ओर से  हार्दिक शुभकामनाएं। 

इस वय में भी  समय के साथ सजग रह कर सीखने की लालसा रखने वाली श्रीमती उर्मिला जी हमारी प्रेरणा स्त्रोत हैं।  वे

सदैव स्वस्थ रहें, शताधिक वर्षों तक हम सबका ऐसे ही उत्साहवर्धन करती रहें ऐसी ईश्वर से कामना है। 

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 13 ☆

 

☆ वाढदिवसाची सप्तपदी ☆

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

आयुष्यातल्या नव्या उगवत्या भास्कराच्या

प्रफुल्ल तेजाने ओजाने

प्रकाशमान होण्यासाठी !!१!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

सायंकाळचे सूर्यास्ताचे

विहंगम दृश्य पाहून मन

प्रसन्नचित्त होण्यासाठी !!२!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

चंद्रप्रकाशात पुसट होत

जाणाऱ्या गतायुष्यातील

स्मृतींना उजाळा देण्यासाठी!!३!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

पतिपत्नींमधील रुसवे फुगवे जाऊन

त्यांच्यातील अनुबंध अधिक दृढ होण्यासाठी !!४!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

मित्रमैत्रिणींच्या मेळाव्यात

अन् स्नेहीजनांच्या समुदायात

स्वत:ला अगदी हरवून जाण्यासाठी !!५!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

निरांजनातील वातीप्रमाणे

स्वजनांसाठी व सर्वांसाठी

शांत वृत्तीने तेवत रहाण्यासाठी !!६!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

चैतन्य चक्रवर्ती परमेश्र्वराच्या कृपेने

बोनस आयुष्य लाभले म्हणून

त्याचे ऋणाईत होण्यासाठी !

ऋणाईत होण्यासाठी !!

ऋणाईत होण्यासाठी !!!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक: 8-11-2019

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ।।13।।

 

यह सारा संसार है तीन गुणों से युक्त

मै अविनाशी किन्तु नित उनसे परम विमुक्त।।13।।

 

भावार्थ :  गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता।।13।।

 

Deluded by these Natures (states or things) composed of the three qualities of Nature, all this world does not know Me as distinct from them and immutable.  ।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 14 – Calmness and Strength ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Calmness and Strength.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 14

 

☆ Calmness and Strength ☆

 

When the stream falls down

From the slope of the mountains,

And flows in the plains with pain,

It maintains its calm

Despite the turbulence of abandonment.

 

The breeze, after the cyclone,

Learns to gain back its gentleness,

And silent becomes its tone;

The world gathers courage from its repose,

Reclaiming its energy.

 

The tree, after being wrapped in snow for long,

Removes the frostiness from its mind

And slowly its leaves grow back again;

The world watches in awe its colourfulness

As it waves its branches full of bloom!

 

O Lord!

Let me be the calmness of that river,

Let me be the gentleness of that breeze

And let me be the strength of that tree!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆ झूठी आधुनिकता ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही सत्य के धरातल पर लिखी गई लघुकथा “झूठी आधुनिकता”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆

☆ लघुकथा – झूठी आधुनिकता ☆ 

गणपति पूजा का अंतिम दिन। गणपति विसर्जन की धूमधाम थी, शॉर्ट्स, टी शर्ट और हाई हील सेंडिल में वह ढ़ोल की ताल पर थिरक रही थी। पास ही उसकी बड़ी बहन भी थी, जो एअर होस्टेज है। दोनों बहनें गणपति उत्सव के लिए छुट्टी लेकर घर आई हैं। वेशभूषा से दोनों  आधुनिक लग रही थीं। लड़कियों के आधुनिक पहनावे को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं का विकास हो रहा है? समाज में कुछ बदलाव आ रहा है?

ढ़ोल तासे की आवाज थोड़ी कम होने पर पड़ोस की एक महिला ने पूछा- “मिनी! कब आई तुम लंदन से?”

“आज ही आई हूँ आँटी।“

“अच्छा गणपति विसर्जन के लिए आई होगी? गणपति बैठाले (स्थापना) हैं ना?”

“अरे नहीं आंटी। हम दो बहनें ही हैं, भाई तो है नहीं, इसलिए हम घर पर गणपति स्थापना नहीं करते। मॉम मना करती हैं ………………।”

नकली आधुनिकता की चादर सर्र………… से सरक गई। वास्तविकता उघड़ी पड़ी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 7. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख की यह अंतिम कड़ी है ।  हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  7.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

लोकसंस्कृति, सृष्टि को युग्मराग मानती है। सृष्टि, प्रकृति और पुरुष के युग्म का परिणाम है। स्त्री प्रकृति है। स्त्री एकात्मता की दूत है। मायके से ससुराल आती है, माँ से, मायके से स्वाभाविक रूप से एकात्म होती है। इसी एकात्म भाव से ससुराल से एकरूप हो जाती है। स्त्रियाँ केवल समझती नहीं अपितु माँ बनकर विस्तार करती हैं एकात्मता का। लोक में वस्तुओं के विनिमय की पद्धति का विकास महिलाओं ने बहुतायत से किया। आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से छिपकर ही सही, कथित निचले वर्ग  या विजातीय स्त्रियों के साथ लेन-देन किया। त्योहारों में मिठाई के आदान-प्रदान में विधर्मियों के साथ व्यवहार की वर्जना को स्त्रियों ने सूखे अनाज के बल पर कुंद किया। तर्क यह कि अनाज, धरती की उपज है और धरती तो सबके लिए समान है। यह अद्वैत दृष्टि, यह एकात्मता अनन्य है।

मनुष्य विकारों से मुक्त नहीं हो सकता। स्वाभाविक है कि लोक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता लेकिन वह गाँठ नहीं बांधता। किसी कारण से किसी से द्वेष हो भी गया तो उसकी नींव पक्की होने से पहले विरोधी से होली पर गले मिल लेता है, दिवाली पर धोक देने चला जाता है। जैन दर्शन का क्षमापना पर्व भी इसी लोकसंस्कृति का एक गरिमापूर्ण अध्याय है।

लोक और प्रकृति में समरसता है, एकात्म है। लोक ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, सरीरा, पंचतत्व से बना सरीरा’ के अनुसार इन्हीं तत्वों को सृष्टि के विराट में देखता है। सूक्ष्म को विराट में देखना, आत्मा को परमात्मा का अंश मानना, एकात्मता की इससे बेहतर कोई परिभाषा हो सकती है क्या?

प्रकृति के साथ की इसी एकात्मता के चलते महाराष्ट्र में ‘देवराई’ अर्थात संरक्षित वनों की परंपरा बनी। कोंकण और अन्य भागों में देवराई के वृक्षों को हाथ नहीं लगाया जाता। देश के पहाड़ी अंचलों में भी ‘देव-वन’ हैं, जिनमें रसोईघर की तरह चप्पल पहन कर आना वर्जित है।

राजस्थान का बिश्नोई समाज काले मृग के रूप में अपने पूर्वज का पुनर्जन्म देखता है। प्राणी को हत्या से बचाने का यह विश्वास प्रकृति के घटकों के संरक्षण में अद्भुत भूमिका निभाते हैं।

आदिवासियों की अनेक जनजातियाँ, पेड़ की नीचे गिरी सूखी लकड़ी और टपके फल के सिवा पेड़ से कुछ नहीं लेतीं।  कैम्प फायर में पेड़ की हरी डाली तोड़कर डालने वाले और शौकिया शिकार कर किसी भी प्राणी को भूनकर खाने के शौकीन ‘आदिवासी बचाओ’ के कथित प्रणेता इस लोक-संस्कृति की सतह तक भी नहीं पहुँचते, तल तो बहुत दूर की बात है।

मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य के मानसपटल पर जमेे चित्र उसके व्यवहार में दीखते हैं। जैसे लेखक अपने शब्दों या चित्रकार अपने मन के चित्रोेंं को कैनवास पर उतारता है। इसे सीधे लोकवास में देखिए। छोटे-बड़े हर घर के आगे गेरू-चूने से प्रकृति के पात्रों के चित्र बने हैं। जो पिंड में, वही बिरमांड में।
इसी की अगली प्रचिती है कि लोक के व्यवहार में  सकारात्मकता दिखती है। लोकसंवाद में कुछ वाक्यांशों/ वाक्यों का प्रयोग देखिये- दीपक के अस्त होने को ‘दीया बड़ा होना’ कहना, दुकान बंद करने को ‘दुकान बढ़ाना’ कहना, प्रस्थान के समय जाने का उल्लेख न करते हुए ‘ आता हूँ’ कहना आदि।

संस्कृति अंतर्चेतना है, सभ्यता वाह्य व्यवहार। वस्त्र, खानपान, नृत्य, गीत, सब अलग पर भीतर से जुड़ा हुआ है। लोकसभ्यता, संस्कृति से अनुप्रेरित होती है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि सभ्य आदमी चम्मच से भोजन तो करने लग गया पर स्वाद से वंचित हो गया। संस्कृति को सभ्य/असभ्य नहीं किया जा सकता। संस्कृति स्थिर मूल्य है। परंपराएँ परिवर्तित होती रहती हैं। सतयुग से सत्य बोलना आदर्श या स्थिर मूल्य है। आज भी मूल्य वही है। हाँ कालानुसार नैतिकता बदलती रहती है। जैसे द्वापर में युधिष्ठिर ने ‘अश्वत्थामा मारा गया किंतु हाथी’ कहते समय ‘किंतु हाथी’इतना धीमा कहा कि द्रोणाचार्य तक उनका स्वर न पहुँच सके। यह नैतिकता का अवमूल्यन था, अलबत्ता सत्य कहना तब भी स्थिर मूल्य था। यही कारण रहा कि युधिष्ठिर के भय ने उन्हें प्रत्यक्ष असत्य वचन न कहलाते हुए चालाकी बरतने को विवश किया। यह परोक्ष असत्य परिवर्तित नैतिकता का द्योतक था।

वस्तुत: लोकसाहित्य उतना ही पुराना है, जितना कि मनुष्य। साहित्य पर समाज का प्रभाव होता है, फलत: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लोक को जहाँ से जो उदात्त मिलता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है। साहित्य, संस्कृति से उपजता है। अध्ययन और अनुसंधान के केंद्र में संस्कृति होनी चाहिए न कि सभ्यता।

शिक्षा और सभ्यता के विकास का प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध सामान्यत: स्वीकृत है जिसके चलते स्थूल रूप में शिक्षा को अक्षरज्ञान का विकल्प समझ लिया गया है। अक्षर की समझ साक्षर भले ही करे, शिक्षित बनाये, यह आवश्यक नहीं। दीक्षित तो कागज़ी ज्ञान से हुआ ही नहीं जा सकता। हर आदमी का जीवन एक उपन्यास है। इस संदर्भ में देखें तो साक्षर हो या निरक्षर, हर क्षण कुछ नया रच रहा होता है। अत: मात्र अक्षर ज्ञान किसीको सभ्य, असभ्य, शिक्षित जैसे विशेषणों से जोड़े तो यह बेमानी होगा। पढ़ना, बाँचना भी दो तरह का होता है। एक आदमी पर लिखी किताबों को, दूसरा आदमी को। इस सम्बंध में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता प्रासंगिक है-

उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें
मैं आदमी को पढ़ता रहा,
होना ही था
उसके पास लग गया ढेर
कागज़ी डिग्रियों का
मैं रहा खाली हाथ,
पर राज़ की बात बताऊँ
उसे जब कुछ
नया जानना हो
वह, मुझसे मिलने
आता ज़रूर है!

शिक्षा, केवल अक्षरज्ञान तक सीमित रहे तो व्यर्थ है। ‘साक्षरा’ शब्द के वर्ण उल्टे क्रम में लगाएँ तो ‘राक्षसा’ बनता है। शिक्षा को दीक्षा का साथ न मिले तो साक्षरा और राक्षसा में अंतर नहीं होता। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि न्यूक्लिअर तकनीक सीखना साक्षरता है। इस तकनीक से बम बनाकर निर्दोषों का रक्त बहाना दीक्षा का अभाव है।

शिक्षा और दीक्षा का विरोधाभास ‘ग’ से ‘गणेश’ को  हटाने की सोच में ही दृष्टिगोचर होती है। ‘श्री गणेश’ सांस्कृतिक प्रतीक हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से दूर जाना नहीं अपितु अध्यात्म सापेक्षता है। दुनिया का सबसे बड़ा सच विज्ञान है और विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत सापेक्षता का है। हर मत-संप्रदाय के प्रति समभाव, धर्मनिरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता नास्तिक होना नहीं है, धर्मनिरपेक्षता हरेक के लिए आस्तिक होना है। बेहतर होता कि ‘ग’ से ‘गणेश’ के साथ बारहखड़ी में ‘खु’ से ‘खुदा’, ‘बु’ से ‘बुद्ध’, ‘म’ से महावीर, ‘न’ से ‘नानक’, ‘जी’ से ‘जीजस’ भी पढ़ाये जाते। विडंबना है कि छोटी त्रिज्या वाली आँखों की परिधि, शिक्षा को और छोटी करती चली गई।  अलबत्ता ताल ठोंककर खड़ा लोक अनंत त्रिज्या वाली अपनी आँखों की परिधि से दीक्षा का निरंतर विस्तार करता रहा। किसी पाखंड में पड़े बिना वह आज भी बच्चे की शिक्षा का ‘श्रीगणेश’, ‘श्री गणेश’ से ही करता है। यही लोक की दृढ़ता  है, यही लोकत्व का विस्तार है। लोक का बखान पारावार है, लोक की महिमा अपरम्पार है।

प्रकृति ही लोक है, लोक ही प्रकृति है। प्रकृति का अपना लोक है, लोक की अपनी प्रकृति है। प्रकृति की प्रकृति ही मनुज की संस्कृति है। संस्कृति और मनुज का सम्बंध आत्मा और परमात्मा का सम्बंध है, एकात्मता का सम्बंध है।  यह एकात्मता ही लोक का जीवन है, लोकजीवन है। लोकजीवन अथाह सिंधु है। इसे समझने के लिए दूर से देखने या बाहर खड़े रहने से काम नहीं चलेगा। सिंधु में उतरना होगा, इसके साथ एकात्म होना होगा।

समाप्त

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2 – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(विगत सफरनामा -नर्मदा यात्रा प्रथम चरण  के अंतर्गत हमने  श्री सुरेश पटवा जी की कलम से हमने  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा किया था। इस यात्रा की अगली कड़ी में हम श्री सुरेश पटवा  जी और उनके साथियों द्वारा भेजे  गए  ब्लॉग पोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। इस श्रंखला में  आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण के शुभारम्भ   पर श्री सुरेश पटवा जी का आह्वान एक टीम लीडर के अंदाज में ।  साथ ही आज के ही अंक में पढ़िए श्री अरुण डनायक  जी का भी आह्वान  उनके अपने ही अंदाज में । )  

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ 

☆ 06.11.2019 झाँसी घाट से बेलखेडी☆
हम राजकोट एक्सप्रेस से एक बैकपेक में एक पैंट, दो शर्ट, अण्डरवेयर तौलिया, स्लीपिंग बेग, वॉर्मर इनर, अतिरिक्त मोज़े व रुमाल, स्लीपर, तेल साबुन, कुछ नक़द राशि और सूखे मेवे खजूर रखकर भोपाल से श्रीधाम पहुँचने हेतु चल पड़े। अगले 12 दिन बस यही हमारी सम्पत्ति है।
जीवन यात्रा में बहुत सारा सामान घर में, रक़म बैंक में, मकान शहर में इकट्ठे किए है लेकिन इतना  सामान जीवन जीने के लिए काफ़ी है। रिश्तों को निभाने में बहुत सारे अच्छे-बुरे भाव मन में गाँठ बाँधकर रखे. आज  न सिर्फ़ सारा सामान, आराम छोड़कर निकले अपितु अगले बारह दिन जब थके माँदे शरीरों को खुले आकाश के नीचे ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर फेंकेंगे तो मन की गाँठे भी ख़ूब खुलेंगी। भिक्षा से भोजन प्राप्ति में अहंकार की गाँठे भी अवचेतन से ढीली होकर चेतन पटल पर आएँगी।  जिन्हें ध्यान लगाकर खोला जा सकेगा। आज सुबह ध्यान के बाद कवित्व जागा।
इसके पहले
लोग तुम्हें छोड़ दें
रिश्ते तुम्हें तोड़ दें
तुम सीख लो उन्हें छोड़ना।
सुबह का सूरज सीखता
रोज़ पृथ्वी को घुमाकर
दिन-रात सजाकर
अपनी राह छोड़ना।
पेड़  सिखाता नियम से
ख़ूब खिले
फूलों-फलों को
शाख़ से छोड़ना।
रिश्ते-नाते,माया-मोह,
धन सम्मोहन, यश-यौवन
सीख लो दिल से
सब यहीं छोड़ना।
पहले भी
करोड़ों-अरबों-खरबों को
निश्चित पड़ा था
ये जहाँ छोड़ना।
छूटते सभी एक न एक दिन
आत्मा से देह, अपनो से नेह
भला-बुरा सब कुछ
यहीं है छोड़ना।
समय की दीवार में टंगे
कैलेण्डर हो तुम
खील को तुम्हें भी
पड़ेगा छोड़ना।
नियति के सर्कस
का अटल नियम
समय पर झूला पकड़ना
समय पर छोड़ना।
आज से बारह दिन नर्मदा मैया के दामन में जीवन नैया खैबेंगे, वही पार लगाएगी-वही डुबाएगी, वही पलनहार, वही रुलाएगी-वही हँसाएगी।
राजकोट एक्सप्रेस से दिन के दो बजे श्रीधाम पहुँचे। ख़बर मिली कि एक परकम्मा वासी मुंशीलाल को ख़बर मिली कि उनकी बेटी की सासु जी को निधन आमला में हो गया है जिनकी रसोई ग्यारह तारीख़ को रखी गई है इसलिए निर्णय हुआ कि वे यात्रा जारी रखेंगे। वे बरमान घाट से करेली पहुँच कर रेलगाड़ी से आमला जाएँगे। रसोई में सम्मिलित होकर वे आगे की यात्रा बारह तारीख़ को हेतु वापस बरमान आ जाएँगे। बाक़ी यात्री तब तक बरमान में रुके रहेंगे।
एक ऑटो से झाँसी घाट पहुँचे। वहाँ चाय पानी करके नर्मदा मैया को नारियल चढ़ाया। घाट पर समूह की मोबाईल से फ़ोटो उतारने को कहा तो उसने कहा उसे फ़ोटो निकालना नहीं आता, हमने उसका नाम पूछा, उसने भैरव बताया। हमने कहा भैरव बाबा को दारू चढ़ती है तो उसकी आँखों में चमक आ गई। फिर हमने फ़ोटो निकालने को कहा तो झट तैयार हो गया, उसके बाद दारू के वास्ते सौ रुपए माँगने लगा तो हमने उसे दस रुपए दिए। पाँच किलोमीटर की यात्रा पर बेलखेडी की तरफ़ नर्मदा को दाहिनी किनारे रखकर चल पड़े। किसान कछारी खेतों में मैथी, मिर्ची, गाजर और बेंगन उगा रहे थे जिसकी नक़द रक़म लेकर बाद में उन्ही खेतों में गेहूँ बो देंगे।
तीन घंटों में 5.5 किलोमीटर की यात्रा करके बेलखेडी पहुँचे। बेलखेडी 250 घरों का गाँव है। 60 घर बर्मन यानि ढीमर के, चार-छः घरों के दीगर समाज और बाक़ी सब लोधियों के घर हैं। पूरा नरसिंहपुर का ग्रामीण इलाक़ा लोधियों भरपूर है। जिनकी बसावट की अपनी कहानी है।
 © श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ संभालिये अपना …… ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “संभालिये अपना …… ”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  हमें आतंक और आतंकियों के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करता है। साथ ही यह भी कि आतंक के प्रतीक के अंत की कहानी क्या होती है और यह भी कि आतंक कभी मरता क्यों नहीं है ? श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेबाक  व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ 

☆ संभालिये अपना …… ☆

ब्रेकिंग न्यूज़ में घोषणा हुई कि आतंकी सरगना मारा गया, दुनियां भर में इस खबर को बड़ी उत्सुकता से  सुना गया. सरगना आतंक का पोषक था. पहले भी उसे मारने के कई प्रयास हुये. हर बार उसे मारने की गर्वोक्ति भरी घोषणायें भी की गईं, किन्तु वे घोषणायें गलत निकलीं. सरगना  फिर से किसी वीडीयो क्लिप के साथ अपने जिंदा होने के सबूत दुनिया को देता रहा है, पर इस बार डी एन ए मैच कर पुख्ता सबूत के साथ उसके मौत की घोषणा की गई है, तो लगता है कि सचमुच ही सरगना मारा गया है. सरगना की मौत की पुष्टि के लिये डी एन ए मैच करने के लिये उसका अंतरवस्त्र चुरा लिया गया था. इस घटना से दो यह  स्पष्ट संदेश मिलते हैं पहला तो यह कि सबको अपना अंतरवस्त्र संभाल कर ही रखना चाहिये. और दूसरा यह कि घर का भेदी लंका ढ़ाये यह तथ्य राम के युग से लेकर आज तक प्रासंगिक एवं शाश्वत सत्य है. विभीषण की मदद से ही राम ने रावण पर विजय पाई थी. सरगना के विश्वसनीय ने ही उसका अंतरवस्त्र अमेरिकन एजेंसियो को सौंपा और मुखबिरी कर उसे कुत्ते से घेर, कुत्ते की मौत मरने के लिये मजबूर कर दिया.

यूं यह भी शाश्वत सत्य है कि आतंक का अंत तय है देर सबेर हो सकती है. बड़े समारोह के साथ रावण वध तो हर बरस किया  जाता है, पर फिर भी रावणी वृत्ति जिंदा बनी रहती है. यही कारण है कि कितने भी आतंकी सरगना मार लें पर आतंक जिंदा है. जरूरत है कि जिहाद की सही व्याख्या हो, इस्लाम तो सुकून, तहजीब और मोहब्बत का मजहब है, उसकी पहचान आतंक के रूप में न बने इस दिशा में काम हों.

यूं आतंकी सरगना के बार बार मारे जाने की खबरो और रावण के हर बरस मरने या यूं कहें कि राक्षसी वृत्ति के अमरत्व को लेकर दार्शनिक चिंतन किया तो लगा कि ये भले ही बार बार मर रहे हों पर हममें से ना जाने कितने ऐसे हैं जो हर दिन बार बार मरने को मजबूर हैं, कभी मन मारकर, कभी थक हारकर. कभी मजबूरी में तो कभी समझौते के लिये आत्मा को मारकर लोग जिंदा हैं. कोई किसान कर्ज के बोझ तले फसल सूख जाने, या बाढ़ आ जाने पर हिम्मत हारकर फांसी पर लटक जाता है तो कोई प्रेमी प्रेयसी की बेवफाई पर पुल से नदी की गहरी धारा में कूद कर आत्म हत्या कर लेता है. कोई गरीब बैंक या फाईनेंस कम्पनी के डूब जाने पर खुद को लुटा हुआ मानकर जीवन से निराश हो जाता है. दुर्घटना में मरने पर सरकारें सहायता घोषित करती हैं, जाने वाला तो चला जाता है पर वारिसो का भविष्य संवर जाता है, परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी मिल जाती है, मौत का मुआवजा मिल जाता है, गरीबी रेखा के बहुत नीचे से परिवार अचानक उछल कर पक्के मकान तक पहुंच जाता हैं.

वैसे सच तो यह है कि जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, अपनी थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे. बड़ी बड़ी डील में केवल कागजी मुद्राओ का ही खेल नही होता, हसीनाओ की मोहक अदाओ और मादक नृत्य मुद्राओ का भी रोल होता है. सुरा और सुंदरी राजनीति व व्यापार में हावी होती ही हैं इसलिये डी एन ए से पहचान और अदृश्य कैमरो से बन रही फिल्मो के इस जमाने में अपना यही आग्रह है कि  अपना अंतरवस्त्र संभालिये वरना आपको कई कई तरह से कई कई बार मरना पड़ेगा.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆ मापदंड ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मापदंड”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆

 

☆ मापदंड ☆

 

“मैंने पहले ही कहा था. तुम्हें नहीं मिलेगा.” रघुवीर ने कहा तो प्रेमचंद बोले, “मगर, तुम ने यह किस आधार पर कहा था ? मैं यह बात अभी तक समझा नहीं हूँ?”

“मैं उन को अच्छी तरह जानता और पहचानता हूँ.” ‘ रघुवीर ने कहा.

“वे मेरे अच्छे मित्र है. मैं उन्हें नही जानता और तुम अच्छी तरह पहचानते हो ?” प्रेमचंद ने स्पष्टीकरण दिया,  “मेरी पुस्तक की भूमिका उन्हीं ने लिखी थी. उस का प्रकाशन भी उन्हीं ने किया था. इसलिए उस पुस्तक को पुरस्कार मिलना लगभग तय था. आखिर पुरस्कार भी वे ही दे रहे हैं.”

“हूँ.”  रघुवीर ने लंबी सांस ली. फिर धीरे से कहा, ‘”तुम बहुत अच्छा लिखते हो, इसलिए वे तुम से जुड़े हैं. मगर, वे पूरे व्यावसायिक लेखक हैं. अपना अच्छाबुरा अच्छी तरह समझते हैं. इसलिए तुम्हारी पुस्तक को…..”

“इस से उन्हें क्या फायदा मिलेगा ?”  प्रेमचंद ने बात बीच में काट कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “मेरे भाई, यह नया जमाना है. यहां अधिकांश वही होता है जो तुम्हारी फितरत में नहीं है. यानी तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूं.”

“मतलब !”  प्रेमचंद ने आंखें और हाथ ऊंचका कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “जिन का नाम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ है उन्हों ने पहले इन को पुरस्कृत व सम्मानित किया था. इसलिए तुम्हारा…” कह कर रघुवीर ने भी आंखें मटका दी.

यह सुन कर प्रेमचंद ने रघुवीर के सामने हाथ जोड़ कर कह दिया,  “वाह ! महाप्रभु ! आप और वे धन्य है. उन्हें और आप को अपनी पूछपरख का पता तो हैं. हम अनाड़ी ही भले.”  कह कर वे चुपचाप एक नई रचना लिखने के लिए अपने कक्ष में चले गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 22 – पांडुरंग…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता पांडुरंग  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #22☆ 

 

☆  पांडुरंग☆ 

 

कटेवरी हात उभा विटेवरी

दीनांचा कैवारी पांडुरंग…!

 

नाही राग लोभ नाही मोजमाप

सुख वारेमाप दर्शनात…!

 

रूप तुझे देवा मना करी शांत

जाहलो निवांत अंतर्यामी…!

 

कीर्तनात दंग भक्तीचाच रंग

रचिला अभंग आवडीने…!

 

भीमा नदीकाठ सार्‍यांचे माहेर

कृपेचा आहेर अभंगात…!

 

सुख दुःखे सारी भाग जगण्याचा

स्पर्श चरणांचा झाल्यावर…!

 

सुजा म्हणे आता सार्थक जन्माचे

नाम विठ्ठलाचे ओठी आले…!

 

© सुजित कदम, पुणे

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