हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ वही की वही बात ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ वही की वही बात 

…सुनो, शहर में नई फिल्म लगी है। शनिवार की शाम को तैयार रहना।  ऑफिस से आते हुए मैं टिकट लेते आऊँगा…, जूते उतारते हुए उसने पत्नी से कहा।

…नहीं, शनिवार को नहीं चल सकती। इतवार को बबलू का जी.के. का टेस्ट है। मुझे उसकी तैयारी करानी है।

…कभी, कहीं भी जाने का मन हो, तुम्हारे बबलू का कोई न कोई अड़ंगा रहता ही है। ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!

बबलू, उन दोनों की एकमात्र संतान। लाड़ला, थोड़ा नकचढ़ा। दोनों बबलू की परवरिश पर बहुत ध्यान देते। माँ, बबलू को दुनिया में सबसे ऊँचा देखना चाहती थी तो बाप उस ऊँचाई पर जाने की सीढ़ी के लिए लगने वाला सामान जुटाता रहता।

अब ज़्यादातर ऐसा ही होने लगा था। दोनों में से किसी एक की या दोनों की जब कहीं जाने, घूमने-फिरने की इच्छा होती, बबलू बीच में आ ही जाता। वैसे दोनों को अपनी इच्छाएँ मारने का कोई रंज़ न होता। होता भी भला कैसे?

बबलू बड़ा होता गया और उनकी इच्छाओं का कद छोटा। कुछ इच्छाओं ने दम तोड़ दिया, कुछ ने रूप बदल लिया। अब मेले में झूले पर साथ बैठी पत्नी का डरकर सार्वजनिक रूप से उसके पहलू में समा जाना,बाहों में बाहें डालकर सिनेमा देखना, पकौड़ेे वाली तंग गली में एक-दूसरे से सटकर एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाना, पति के साथ स्कूटर पर चिपक कर बैठना जैसी सारी इच्छाएँ कालातीत हो गईं। बबलू को ऊँचा बनाने की जद्‌दोज़हद के तरीके बतानेवाली किताब में उनकी अपनी इच्छाओं के लिए कोई पन्ना था ही नहीं।

एकाएक एक दिन पत्नी बोली-सुनोजी, चौदह-पंद्रह बरस हो गए शहर से निकले। अगले महीने से बबलू की बीस दिन की छुट्‌टी शुरू हो रही हैं। क्यों न हम वैष्णोदेवी हो आएँ?…..विचार तो तुम्हारा अच्छा है; पर बबलू की माँ, बबलू की इंजीनियरिंग की फीस बहुत ज्यादा है। बीस दिन बाद कॉलेज खुलेगा तो पूरा पैसा एक साथ भरना पड़ेगा। अभी वैष्णो देवी चले गए तो….!….अरे तो क्या हो गया? दिल छोटा क्यों करते हो? हम तो बस यूँ ही…और देवी माँ तो मन में बसती है…अपने पूजा घर में रोज दर्शन करते ही हैं न…!…वो तो ठीक है फिर भी बबलू की माँ मैं तुम्हारी इच्छा….!…क्या बात लेकर बैठ गए! हम माँ-बाप हैं बबलू के। बबलू पहले या हमारी इच्छा?…..सचमुच वे पति-पत्नी कहाँ रह गए थे, वह बाप था बबलू का, वह माँ थी बबलू की।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। बाप रिटायर हो चुका। माँ भी घर का काम करते-करते थक चुकी। अलबत्ता बबलू अब इंजीनियर हो चुका। ये बात अलग है कि उसे इंजीनियर बनाने की जुगाड़ में माँ-बाप के पास बचत के नाम पर कुछ भी नहीं बचा। फिर भी दोनों खुश थे क्योंकि बबलू को इंजीनियर देखना, उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी। दो साल हुए, बबलू की शादी भी हो गई। बेटे का ध्यान रखनेवाली आ गई, सो माँ-बाप के पति-पत्नी होने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई।

…सुनोजी, वैष्णोे माँ की दया से बबलू के लिए जो चाहा, सब हो गया। अब तो कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं रही, वैष्णोेदेवी के दर्शन करने चलें?…हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मैं आज ही बबलू से बात कर लेता हूँ। थोड़ा पैसा तो उससे लेना पड़ेगा….अगर वो हाँ कहेगा तो….तो मेरा बबलू क्या माँ-बाप को तीरथ भी नहीं करायेगा?

…..बाऊजी! आपकी और अम्मा की ये उमर है क्या घूमने-जाने की? कल कोई चोट-वोट लग जाए तो?..पर बेटा हम तो तीरथयात्रा!…अम्मा क्या फ़र्क पड़ता है, और देवी माँ तो मन में बसती है। अपने पूजाघर में रोज दर्शन करती ही हैं न आप …., उत्तर बहू ने दिया था।

माँ-बाप खिसिया गए। पति-पत्नी होने की प्रक्रिया को झटका लगा।…..”मैं कहता था न बबलू की अम्मा! ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!”..ज़बर्दस्ती हँसने की कोशिश में माँ-बाप बने पति-पत्नी ने अपने चेहरे विरुद्ध दिशा में घुमा लिए ताकि दोनों एक-दूसरे की कोरों तक आ चुका खारा पानी ना देख सकें।

 

#आपका समय सार्थक हो। 

©  संजय भारद्वाज 

( लगभग 15 वर्ष पूर्व लिखी कहानी।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान-3 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान – 3 ☆

महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना के बाद उन्होंने कई चर्चित फिल्में बनाईं। इनमें अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, अंदाज, आन, अमर, मदर इंडिया, सन ऑफ इंडिया आदि शामिल हैं। अनमोल घड़ी में एक साथ सुरेंद्र, नूरजहाँ, सुरैया जैसे कलाकार थे वहीं अंदाज जमाने से आगे की फिल्म थी। प्रेम त्रिकोण पर आधारित यह फिल्म स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर सवाल खड़ा करती है। ‘आन’ उनकी पहली रंगीन फिल्म थी, जबकि ‘अमर’ में नायक की भूमिका एंटी हीरो की थी। महबूब ने फ़िल्मी दुनिया को उन्हें पहले मौक़े देकर कई शानदार कलाकार दिए। सुरेंद्र, दिलीप कुमार, राज कपूर, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राज कुमार, नरगिस, निमि और नादिरा चालीस सालों तक रजत पट पर चमकने वाले किरदार रहे।

महबूब ख़ान की दो शादियाँ हुईं थीं। पहली बीबी फ़ातिमा से आयुब इक़बाल और शौक़त दो लड़के थे। उन्होंने पहली बीबी से अलग होने के बाद दूसरी शादी 1942 में प्रसिद्ध फ़िल्मी कलाकार सरदार अख़्तर से की थी। सरदार अख़्तर उनकी फ़िल्म “औरत” की हीरोईन थीं जिसे उन्होंने बाद में मदर इंडिया के रूप में बनाया था।

महबूब की सर्वाधिक चर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ तो कई मामलों मे विलक्षण थी। मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्म के निर्माता महबूब खान हिन्दी फिल्मों के आरंभिक दौर के उन चुनिंदा फिल्मकारों में से एक थे, जिनकी नजर हमेशा अपने समय से आगे रही और उन्होंने मनोरंजन से कोई समझौता किए बिना सामाजिक सरोकारों को इस सशक्त ढंग से पेश किया कि उनकी कई फिल्में आज भी प्रासंगिक लगती हैं।

अब तक 3 भारतीय फिल्मों ने Best Foreign Language Film (बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म) की कैटेगरी में ऑस्कर नामांकन हासिल किया है। उसमें से एक है मदर इंडिया। विदेशी भाषा में बनी श्रेष्ठ फिल्म श्रेणी में भारत की ओर से ‘मदर इंडिया’ भेजी गई थी। फिल्म के तकनीकी पक्ष और निर्देशक द्वारा बनाई भावना की लहर से चयनकर्ता प्रभावित थे परंतु उन्हें यह बात खटक रही थी कि पति के पलायन के बाद महाजन द्वारा दिया गया शादी का प्रस्ताव वह क्यों अस्वीकार करती है जबकि सूदखोर महाजन उसके बच्चों का भी उत्तरदायित्व उठाना चाहता है।

दरअसल, चयनकर्ता को यह किसी ने नहीं स्पष्ट किया कि भारतीय नारी अपने सिंदूर के प्रति कितनी अधिक समर्पित होती है। फिल्म भारत के सदियों पुराने आदर्श के प्रति समर्पित थी। ऑस्कर जीतने के लिए फिल्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने के लिए वहां एक प्रचार विभाग नियुक्त किया जाना चाहिए था।

फिल्म के अंतिम दृश्य में एक मां अपने सबसे अधिक प्रिय पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ अपहरण कर रहा था। बताया जाता है कि ‘मदर इंडिया’ नरगिस द्वारा सुझाया गया नाम था।

बता दें कि मदर इंडिया तीसरे पोल के बाद महज एक वोट से ऑस्कर अवॉर्ड जीतने से चूक गई थी। उस साल बेस्ट फॉरेन फिल्म का अवॉर्ड इटालियन प्रोड्यूसर डीनो डे लॉरेन्टिस की फिल्म ‘नाइट्स ऑफ केबिरिया’ को मिला था। इसके बाद जो फिल्म ऑस्कर्स में फाइनल पांच में पहुंच पाई थी उनमें 1988 में आई मीरा नायर की फिल्म सलाम बॉम्बे और आमिर खान की 2001 में आई फिल्म लगान थी।

‘सन ऑफ इंडिया’ उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। इसके बाद वे अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे कि मात्र 57 साल की उम्र में 28 मई 1964 को उनका निधन हो गया।

भारत सरकार ने 2007 में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया था। उनकी मदर इण्डिया को अकडेमी अवार्ड के लिए नामित किया गया था। 1958 में ही मदर इण्डिया को बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट निर्देशन का सम्मान मिला था। वे दूसरे अंतर्राष्ट्रीयफ़िल्म फ़ेस्टिवल 1961 के ज्यूरी मेम्बर रहे थे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 45 ☆ गणेश पठवनि ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगणी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  गणेश पठवनि। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 45 ☆

गणेश पठवनि 

 

आज पठवनि गणेश तुम्हारी।

मम हृदय लगे हर क्षण भारी।।

 

जै भी पूजा जैसे भी कीन्हा ।

तुम हर भूल को उदर में लीन्हा।।

 

हौ कछु जानत नाही कोई विधि।

बस तुम्हारी भक्ति करी लिधी।।

 

तुमको अति प्रिय लागत दूर्वादल।

मूषक संग मोदक, फूल कमल।।

 

मैं बस रजकण तुम्हारे पाँवन की।

नैनन में लगी लड़ी  आँसुवन की।।

 

अकुलाये मन का हर कोना।

सदन रिक्त करी जाये क्यों दीना।।

 

कृपा दृष्टि रखो बुद्धि के नाथा।

अब जायिके आओ फिरी दाता।।

 

© सुजाता काळे

1/9/20

पंचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature ☆ Stories ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 6 Hurdles and failed attempts☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  We are pleased to begin a series on excerpts from his well acclaimed book  “Samudramanthanam” .  According to Mr Ashish  “Samudramanthanam is less explained and explored till date. I have tried to give broad way of this one of the most important chapter of Hindu mythology. I have read many scriptures and take references from many temples and folk stories, to present the all possible aspects of portrait of Samudramanthanam.”  Now our distinguished readers will be able to read this series on every Saturday.)    

Amazon Link – Samudramanthanam 

 ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 6  Hurdles and failed attempts ☆ 

Vasuki roles itself around mount Mandara and then slide his mouth side up in the sky. He makes seven turns around mount Mandara. And start sliding his body over it. From this sliding many new types of herbs start nurturing from the skin of mount Mandara which was the combine effect of Vasuki venom and minerals of mountain surface.

Vauski has made a bend shape from his hood side so that Asuras can easily hold him and his mouth remains open towards sky.

As Indra and other Sura approach towards tail side of Vasuki, they saw many birds start falling from sky and die.

Narada said, “Narayana, Narayana, these birds are dying because now venom of Vasuki is going towards sky with the flow of air. King of Devta Indra now you can only help. You throw your vajra in the sky and other god will create clouds over Vasuki mouth. When your vajra will collide with those clouds soon rain start falling and essence of Vasuki venom fall down here in this ‘Kshirasāgara’”

Indra and other demigods start doing same and rain mixed with poison start falling in ‘Kshirasāgara’. It was rain which keep falling for two years.

After around two years when all the venom of Vasuki was left his body and mixed in ocean of ‘Kshir’ Sura and Asura are ready to do churning of great ocean.

Sura are holding tail side of Vasuki and Asura the mouth side. They start pushing and pulling of Vasuki body. First Asura pull Vasuki body towards them and Sura push it away from them but before completing the first round of push and pull, mount Mandara slide at the base of ‘Kshirasāgara’ because of it the body of Vasuki start slipping over mount Mandara surface, which create heave jerk on the body of Vasuki and it start going away from center from Asura side where it was surrounding on mount Mandara and suddenly come close to mount Mandara and Sura king ‘Indra’ collide with Mandara surface with great force. Crown of Indra fall down in ‘Kshirasāgara’. Which then reappear as the wild ocean plant called ‘Indrajaal’.

At the other end Bali fall over ‘Kshirasāgara’, but many other Asuras start flaying away with great force from that location and then some fall over Himalayas other on ground and lost their life.

Then Lord Brahma said, “we have forgotten to make base over which mount Mandara can be fixed because base of ‘Kshirasāgara’ is very wild and not gentle”

Soon a light blink on space and Lord Vishnu appear.

All do salute to Lord Vishnu. Then Lord Vishnu says, “base is required to hold anything strongly. I will be going to incarnate as a kashyap or tortoise, who contains strongest back in nature. Then mount Mandara need to fix his bottom over my tortoise incarnation back and it will keep holding the mount Mandara even at the time of heavy movement during churning of ‘Kshirasāgara’.

Soon a light emerges from the body of Lord Vishnu and a shape of tortillas start appearing from that light.

All Sura and Asura surround tortoise, and mount Mandara base kept over tortoise back. Just for test Naga ‘Vasuki’ loop around mount Mandara and gives a quick jerk but as this jerk reaches at the bottom of mount Mandara soon its balance disturbed and it slide towards one end and fall in ‘Kshirasāgara’.

Again, all are silence and thinking, how to fixed mount Mandara on the back of Lord Vishnu’s tortoise incarnation.

Sage kashyapa says, “the back of this Vishnu tortoise is very flat and slippery. So, we have to make it rough so that mount Mandara back can fixed over it strongly.

Saptrishi join there and makes seven holy patters and symbols over the back of tortoise. One by each rishi.

So finally, all things are perfect to start churning of ‘Kshirasāgara’.

© Ashish Kumar

New Delhi

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हा सृष्टी नेम आहे…. ☆ प्रा.सौ.सुमती पवार 

प्रा.सौ. सुमती पवार

?ई-अभिव्यक्ती परिवारातर्फे हार्दिक अभिनंदन’?

☆ कवितेचा उत्सव ☆ हा सृष्टी नेम आहे…. ☆ प्रा.सौ.सुमती पवार ☆

सांगू किती तुला मी फुल येते ग फुलून

रात्रीतली कळी ती पहाटेस उमलून

होती फुले कळ्यांची हा सृष्टी नेम आहे

थांबला ना कधीच चुकला कधी न आहे…

 

येणार ढग काळे कडकडाट ही विजांचा

ताशा ही वाजणार आकाशी तो ढगांचा

धो धो बरसूनी तो होणार रिक्त आहे

पडणार ऊन स्वच्छ हा सृष्टीनेम आहे….

 

क्षितीजावरी धुक्यात पटलात सूर्य जाई

लोपून डोंगरात तो दृष्टी आड होई

येणार रात्र काळी टळणार ते का आहे

प्राचीवरी पहाटे रवी प्रकटणार आहे…

 

ऊन तप्त तापलेले काहील ही जीवाची

झेलून दु:ख्ख घ्यावे वहिवाट ही जगाची

सुखदु:ख्ख समेकृत्वा ही भोगयात्रा आहे

चुकणार नाहीच ती हा सृष्टीनेम आहे….

 

हासून ते जळावे दुज्यास ना कळावे

जे जे जमेल तितके सोसत हो रहावे

जे भोगणेच प्राप्त का व्यर्थ हो कुढावे

प्राक्तन सोबतीला हा सृष्टी नेम आहे …..

 

© प्रा.सौ.सुमती पवार ,नाशिक

दि : ०७/०८/२०२० वेळ : रात्री ११:०४

(९७६३६०५६४२)

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दृष्टी ☆ सुश्री प्रियदर्शिनी तगारे

☆ जीवनरंग ☆ दृष्टी ☆ सुश्री प्रियदर्शिनी तगारे

 

मोबाईल वाजला. गुडघ्यावर हात चोळत उमाताई उठल्या. आशिषचा फोन होता.

“हॅलो .आई , कशी आहेस ?” त्याचा आवाज ऐकून क्षणभर त्यांच्या मनाला टवटवी आली.

“मी बरी आहे रे. तू कसा आहेस?मुलांचं काय चाललंय? रश्मीची नोकरी…..”

हळूहळू आपला आवाज निर्जीव होत चाललाय असं उमाताईंना वाटलं.त्या नुसत्या “हूं….हूं ” करीत राहिल्या.

फोन ठेवताच एकाकीपण दाटून आलं. अशोकराव होते तोपर्यंत असं कधीच वाटलं नव्हतं.बाहेर जाणंही कमी होत गेलं. जवळपासच्या फ्लॅटमधल्या सगळ्या नोकरीला गेल्या सारं सामसूम ! घरातलं काम करायला सुशी यायची तेवढीच काय ती घराला जाग.

आताशा संध्याकाळ बरोबर उदासी दाटून येते. टी. व्ही. बघण्यातही मन रमत नाही. रात्री ची अवेळी जाग येते. उगाचच घुसमटतं. जीव घाबरतो.

आज आशिषचा फोन येऊन गेल्यावर रात्रभर झोप लागली नाही.पहाटे पहाटे डोळा लागला.दहा वाजता सुशी आली.तिच्या पाठोपाठ एक काळी सावळी बाई आत आली , साडीचा पदर डोक्यावरून घेतलेली.

” ही माझी आई. कालच्याला आलीय. म्हनलं चल ,घरात बसून कट्टाळशील.”

तोंडभरून हसत ती बाई सुशीच्या मागोमाग किचनमध्ये गेली.थोडावेळ सुशीला मदत करुन हॉलमध्ये आली.

“बसा” असं उमाताईंनी म्हणताच जमिनीवर टेकली.

“कुठं असता तुम्ही ? ”

“मी व्हय तकडं सांगुल्यात  ”

“कोण कोण असतं घरात ?”

“म्या येकलीच की ! पोरी लगीन हून गेल्या. पोरगं तकडं म्हमईला नालासुपारीत कामाला हाय.  ”

” एकट्यानं रहायला भीती नाही वाटत ?”

” भ्या ? कशाचं वो ?”

“भीती हीच की आजारपणाची ,मरणाची .”

त्यावर ती खळखळून हसली.

“त्येचं कसलं आलंय  भ्या? पांडुरंगानं दिलाय ह्यो जीव. समदं त्येच्याच हाती. त्यो चल  म्हनला का जायाचं !” असं म्हणून तिनं गळ्यातली तुळशीची माळ चाचपली.

उमाताई क्षणभर तिच्याकडं बघत राहिल्या. एकाएकी त्यांना वाटलं ;घरात लख्ख् प्रकाश भरुन राहिलाय

 

©  सुश्री प्रियदर्शिनी तगारे

मो :9246062287

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कप्पा  ☆ श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

☆ विविधा ☆ कप्पा  ☆ श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

जन्म: कोल्हापुर ९ ऑगस्ट १९६१.

शिक्षण: पदवीधर: शास्त्रशाखा, पदव्युतर : मनुष्यबळ संसाधन विकास.

वेगवेगळ्या औषधनिर्माण आस्थापनांमधे मनुष्यबळ  संसाधन विकास अधिकारी म्हणून ३४वर्षाचा अनुभव.

सध्या वेगवेगळ्या शैक्षणिक संस्था मधे जाऊन  व्यक्तीमत्व विकास, वेळेचे नियोजन, मुलाखतीचे तंत्र, आयुष्यात  सुरक्षिततेचे महत्व इ.विषयांवर विद्यार्थ्यांना मार्गदर्शन.

शाळा- कॉलेजमध्ये सांस्कृतिक क्षेत्रात विशेषतः नाट्याभिनयामधे प्रावीण्य.  सध्या  बदलापूरमधे वास्तव्य. बदलापूर कलासंगम ह्या स्वतःच्या संस्थेमार्फत बालकलाकारांना भारतीय अभिजात कलामधे व्यासपीठ उपलब्ध करून देण्याचा उपक्रम सुरू केला आहे. मराठी साहित्यात विशेष अभिरूची.

☆ विविधा ☆ कप्पा  ☆ श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

शाळेत कॉलेजमधे असताना वह्या,पुस्तके,प्रयोगवह्या, dissection box…खास डायरी हे सारं एकत्र ठेवणारा कपाटातली एक कप्पा….रोज हव्या त्याच विषयाची वही,पुस्तक  घेऊन शाळेत वा  कॉलेजला नेणे..बाकी सारं त्या कप्प्यात एकदम सुरक्षित…दोन तीन महिन्यातून एकदा तो विस्कळीत कप्पा पुन्हा आवरला जायचा….. एकाच कपाटात खाली-वरती असे एकमेकांचे कप्पे असले तरी खरंतर आपला कप्पा विस्कळीत करण्याचं काम ही आपलंच असायचं.

मोठी बहीण ग्रॅजूएट झाली….एक कप्पा रिकामा झाला. पण ती जागा तिच्या वाचनाच्या इतर पुस्तकांनी घेतली. दुसरी बहीण ही ग्रॅजूएट झाली पण पी.जी.च्या reference books नी ती जागा व्यापली. अस्मादिकांनी पदवी गळ्यात पाडून घेतली नि शिक्षणापासून सुटका करून घेतली नि कप्पा रिकामा करून टाकला आणि त्यात माझ्यासाठी अशा मराठी मधील वेगवेगळ्या नाटकांच्या संहितानी स्थान पटकावलं.

बंधूराजांचा कप्पा नेहमीच ड्रॉईंग पेपर, वेगवेगळ्या शिसपेन्सीली, खडूच्या रंगपेट्या, वॉटर कलर, कॅनवास पेंट,ऑईल पेंट… असल्या काहीच्या काही..मला अनाकलनीय गोष्टींनी खच्च भरलेला….तो काही कधी रिकामा झाला नाही.

मोठ्या बहिणीच्या लग्नानंतर मराठी साहित्याचा संभाळ करण्याची जबाबदारी आम्हाला घ्यावी लागली. त्यात केशवसुत, बालकवी, वि.दा.करंदीकर,वसंत बापट,मंगेश पाडगावकर, पु.लं. देशपांडे, प्र.के.अत्रे, वि.स.खांडेकर कुसुमाग्रज, बा.भ.बोरकर, दुर्गाबाई भागवत या आणि बर्याच मराठी सारस्वतांच्या ओजस्वी लेखणीतून साकारलेल्या साहित्याचा सहभाग होता.

मी जरी सायन्स ग्रॅजूएट झालो तरी घरात असलेल्या या  अथांग मराठी साहित्य सागरात आजही  डूंबत राहिलो आहे. मूळातच, जीवशास्त्रात, प्रचंड गोडी असल्याने दूसर्या बहिणीच्या, किटकशास्त्राचेही खूप आकर्षण राहिले.

घरच्या अध्यात्मिक वातावरणामुळे सार्थ दासबोध,अभंग ज्ञानेश्वरी, इतर संतमहात्म्यांचे साहित्य तर वडिलांची वैद्यकीय क्षेत्रातील वाग्भट,चरकसंहिता, धूतपापेश्वर, medical dictionary अशी बरीच साहित्य संपदा होती (आजही जपली आहे.)

माझ्या नोकरीच्या निमित्ताने human resources वरील कित्येक संदर्भपुस्तकांची माझ्या कप्प्यात भर पडली. आज  माझ्या मुलाच्या आवडीनूसार नी व्यवसायानूसार हिंदी, इंग्रजी, मराठीतील नाट्य,चित्रपट, वगैरे संबंधीत,तसेच त्याच्या खास आवडीच्या उर्दू गझला, उमर खय्याम, गालिबसाहब, कैफी आझमी साहब यांच्या सह मराठी गझलकार कवी सुरेश भटांच्या साहित्याचा समावेश आहे.

थोडक्यात काय तर तीन पिढ्यांच्या वेगवेगळ्या साहित्यसंपदेने कपाटातील कप्पे आजही सजलेले आहेत .

कपाटातले कप्पे जसे भिन्न भिन्न पुस्तकांनी  भरलेले … तसेच मनातले,हृदयांतील कप्पेही आयुष्यात वेगवेगळ्या मार्गांवर,वळणावर भेटलेल्या व्यक्ती आणि वल्लीनी भरलेलंही आहे नि भारलेलं ही आहे..जन्मांला आल्यापासून अगदी बालक मंदीर, प्राथमीक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक, कॉलेज , नुकत्याच सरलेल्या क्षणापर्यंत जे जे कोणी मित्र,मैत्रिणी,सगे,सोयरे,हितचिंतक, काही प्रमाणात दुरावलेलेही हे सारे मनाच्या,हृदयाच्या कप्प्यात विसावलेले असतात.

जशी काही पुस्तकं आपल्याला आवडत नाहीत तरीही ती आपण कप्प्यात ठेऊन देतो तशा काही व्यक्ती आवडत नसल्या तरीही मनाच्या कप्प्यात एका कोपर्यातली जागा  पकडून बसतात. कालांतराने अशीच एखादी दुरावलेली  व्यक्ती पुनः आपल्या आयुष्यात येते नि दोघांचंही परिपक्व झालेलं मन एकमेकांना वाचतं नि मग आपण समजतो …

अरे त्यां पुस्तकासारखंच झालं…पूर्वी वाचलं तेव्हा कळलं नाही नि आता नीट कळलं?..म्हणजे फरक वाचण्यात होता  कि  समजण्यात??

कपाटातली कप्प्यातली विस्कळीत झालेली पुस्तकं व्यवस्थित करता येतात पण विस्कळीत झालेली नाती व्यवस्थित करणं मात्र खूप अवघडच!!!!

काही पुस्तकातील चांगल्या ओळी,विचार आपण आवडल्या नंतर लिहूनही ठेवतो नि स्मरणातही…तसंच चांगल्या व्यक्ती बद्दल आपण आपल्या मनात कोरून ठेवतो.

पुस्तकं खूप झाली.. तर एक कप्पा भरला कि दूसरा….एक कपाट भरलं कि दुसरं…..

आपले खूप मित्र,सवंगडी झाले अगदी…..अगणित झाले तरी मनाचा,हृदयाचा कप्पा तेवढाच असतो. तरीही सारे जण त्यात सामावतात. तिथं कधीच दाटीवाटीनी सारे बसत नाहीत मुंबईच्या लोकलच्या गर्दीसारखे…….

सगळीच पुस्तक सतत आपल्या बरोबर नसतात………

मिळवलेला पैसा तो ही कायमच आपल्या सोबत असतो असं नाही….थोडा घरी…थोडा बॅंकेत….थोडा खिशात…..पण मनात नि हृदयांतील सखे पावलोपावली आपल्या सोबत असतात…..म्हणूनच….कपाट किती मोठं असावं,खिसा किंवा बॅंक किती मोठी असावी याला मर्यादा आहेत, पण मन आणि  हृदय किती मोठं असावं याला मात्र मर्यादा नाही.

 

© राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

बदलापूर(ठाणे)

फोन:९६१९४२५१५१

वॉट्स ऍप :८२०८५६७०४०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मनोबल ☆ सुश्री अनुराधा फाटक

☆ मनमंजुषेतून ☆ मनोबल ☆ सुश्री अनुराधा फाटक

मन हे माणसाचे सहावे इंद्रिय आहे.नाक,कान,डोळे, रसना आणि त्वचा या पाच ज्ञानेंद्रियांना माणूस जेवढा ओळखतो त्याच्या पावपटही तो या सहाव्या इंद्रियाला ओळखत नाही.त्याचे सर्वात महत्वाचे कारण ही पाच ज्ञानेंद्रिये शरीरबाह्य आहेत आणि मन हे देहान्तर्गत आहे.जशी पाच ज्ञानेंद्रिये आपण दाखवू शकतो तसे मन दाखविता येत नाही.

मन दिसत नसले तरी सर्व इंद्रियामध्ये ते बलवान असते.सर्वावर त्याची सत्ता असते.जेव्हा माणसतली राक्षसी वृती जागृत होते माणसाचे मनोबल त्याला दुष्कृत्य करण्यास भाग पाडते.ही मानवी जीवनाच्या

विनाशाची सुरवातच म्हणावी लागेल.माणसाचे पहिले दुष्कृत्य म्हणजे सुधाकराचा एकच प्याला असतो.

हे लक्षात घेऊन आपण आपले मनोबल विधायक कामासाठी वापरले पाहिजे.विधायक कामासाठी मनही सदाचारी होणे महत्वाचे!

मन सदाचारी बनवायचे असेल तर आपल्या सहा शत्रूंना आपण जिंकले पाहिजे.हे सहा शत्रू म्हणजे काम,क्रोध, मद, मत्सर, लोभ! त्याना जिंकणे तसे सोपे नसते तरीही प्रतत्नपूर्वक सोपे करण्याचा प्रयत्न अशक्य नसतो. भूतकाळातील चांगल्या घटना, आठवणीना उजाळा देत आपण सकारात्मक विचार करू शकतो,आपल्या शत्रूंना आपल्यापासून दूर करण्याच्या प्रयत्नात हळूहळू यशस्वी होऊ शकतो.अशा यशस्वी होण्याने आपोआपच आपले मनोबल वाढते.

आनंद हे सुध्दा मनोबल वाढविण्याचे महत्वाचे कारण होऊ शकते.त्यामुळेच आपली आनंदीवृत्ती सहजपणे संकटाशी सामना करू शकते .प्रत्येकाने आनंदीवृत्ती जोपासून आपले मनोबल वाढविले जगणे सोपे होईल.अर्थात प्रत्येकाचे आनंद मिळवण्याचे मार्ग निश्चितच वेगळे असतात.

मनोबल वाढण्यासाठी सकारात्मक दृष्टीकोन फार महत्वाचा असतो.एखादा पाण्याने अर्धा भरलेला पेला बघताना तो अर्धा भरला आहे म्हणायचे की अर्धा रिकामा आहे म्हणायचे हे जसे त्या पेल्याकडं बघण्याच्या दृष्टीकोनावर अवलंबून असते तसेच मनोबलाचे असते.मानवी जीवनाच्या विकसासाठी सकारात्मक मनोबल उपयोगी पडते.जगायचेच आहे तर स्वप्नपूर्तीच्या मनोरथावर स्वार व्हावे म्हणजे जीवन यशस्वी होईल.

 

©  सुश्री अनुराधा फाटक

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (13) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।।13।।

 

मंत्रहीन, दक्षिणा रहित, श्रद्धा रहित जो यज्ञ

उसे तामसी मानते सभी विज्ञ, शास्त्रज्ञ ।।13।।

 

भावार्थ :   शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।।13।।

 

They declare that sacrifice to be Tamasic which is contrary to the ordinances of the scriptures, in which no food is distributed, which is devoid of Mantras and gifts, and which is devoid of faith. ।।13।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 61 ☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रतिशोध नहीं परिवर्तन। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 61 ☆

☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆

 

‘ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे, जो प्रतिशोध के बजाय परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ प्रतिशोध उन्नति के पथ में अवरोधक का कार्य करता है तथा मानसिक उद्वेलन व क्रोध को बढ़ाता है; मन की शांति को मगर की भांति लील जाता है… ऐसे व्यक्ति को कहीं भी कल अथवा चैन नहीं पड़ती। उसका सारा ध्यान विरोधी पक्ष की गतिविधियों पर ही केंद्रित नहीं होता, वह उसे नीचा दिखाने के अवसर की तलाश में रहता है। उसका मन अनावश्यक उधेड़बुन में उलझा रहता है, क्योंकि उसे अपने दोष व अवगुण नज़र नहीं आते और अन्य सब उसे दोषों व बुराइयों की खान नज़र आते हैं। फलत: उसके लिए उन्नति के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। उन विषम परिस्थितियों में अनायास सिर उठाए कुकुरमुत्ते हर दिन सिर उठाए उसे प्रतिद्वंद्वी के रूप में नज़र आते हैं और हर इंसान उसे उपहास अथवा व्यंग्य करता-सा दिखाई पड़ता है।

ऊंचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत पक्षियों को पड़ती है। परंतु मानव जितना विनम्रता से झुकता है; उतना ही ऊपर उठता है। सो! विनम्र व्यक्ति सदैव झुकता है; फूल-फल लगे वृक्षों की डालिओं की तरह… और वह सदैव ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहता है। उसे सब मित्र-सम लगते हैं और वह दूसरों में दोष-दर्शन न कर, आत्मावलोकन करता है… अपने दोष व अवगुणों का चिंतन कर, वह खुद को बदलने में प्रयासरत रहता है। प्रतिशोध की बजाय परिवर्तन की सोच रखने वाला व्यक्ति सदैव उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुंचता है। परंतु इसके लिए आवश्यकता है– अपनी सोच व रुचि बदलने की; नकारात्मकता से मुक्ति पाने की; स्नेह, प्रेम व सौहार्द के दैवीय गुणों को जीवन में धारण करने की; प्राणी-मात्र के हित की कामना करने की; अहं को कोटि शत्रुओं-सम त्यागने की; विनम्रता को जीवन में धारण करने की; संग्रह की प्रवृत्ति को त्याग परार्थ व परोपकार को अपनाने की; सब के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति भाव जाग्रत करने की… यदि मानव उपरोक्त दुष्प्रवृत्तियों को त्याग, सात्विक वृत्तियों को जीवन में धारण कर लेता है, तो संसार की कोई शक्ति उसे पथ-विचलित व परास्त नहीं कर सकती।

इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें धोखा देती हैं; जो वह दूसरों से करता है। इससे  संदेश मिलता है कि हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इंसान ही नहीं, हमारी अपेक्षाएं व उम्मीदें ही हमें धोखा देती हैं, जो इंसान दूसरों से करता है। वैसे यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि ‘पैसा उधार दीजिए; आपका पक्का दोस्त भी आपका कट्टर निंदक अर्थात् दुश्मन बन जाएगा।’ सो! पैसा उधार देने के पश्चात् भूल जाइए, क्योंकि वह लौट कर कभी नहीं आएगा। यदि आप वापसी की उम्मीद रखते हैं, तो यह आपकी ग़लती ही नहीं, मूर्खता है। जिस प्रकार दुनिया से जाने वाले लौट कर नहीं आते, वही स्थिति ऋण के रूप में दिये गये धन की है। यदि वह लौट कर आता भी है, तो आपका वह सबसे प्रिय मित्र भी शत्रु के रूप में सीना ताने खड़ा दिखाई पड़ता है। सो! प्रतिशोध की भावना को त्याग, अपनी सोच व विचारों को बदलिए– जैसे एक हाथ से दिए गए दान की खबर, दूसरे हाथ को भी नहीं लगनी चाहिए; उसी प्रकार उधार देने के पश्चात् उसे भुला देने में ही आप सबका मंगल है। सो! जो इंसान अपने हित के बारे में ही नहीं सोचता, वह दूसरों के लिए क्या ख़ाक सोचेगा?

समय परिवर्तनशील है और प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी यथा-समय बदलते रहते हैं। सो! मानव को श्रेष्ठ संबंधों को कायम रखने के लिए, स्वयं को बदलना होगा। जैसे अगली सांस लेने के लिए, मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी मानव के लिए कष्टकारी होता है। सो! अपनी ‘इच्छाओं पर अंकुश लगाइए और तनाव को दूर भगाइए… दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि वह तनाव का कारण होती हैं।’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति ‘आवश्यकता से अधिक सोचना, संचय करना व सेवन करना– दु:ख और अप्रसन्नता का कारण है… जो हमें सोचने पर विवश करता है कि मानव को व्यर्थ के चिंतन से दूर रहना चाहिए; परंतु यह तभी संभव है, जब वह आत्मचिंतन करता है; दुनियादारी व दोस्तों की भीड़ से दूरी बनाकर रखता है।

वास्तव में दूसरों से अपेक्षा करना हमें अंधकूप में धकेल देता है, जिससे मानव चाह कर भी बाहर निकल नहीं पाता। वह आजीवन ‘तेरी-मेरी’ में उलझा रहता है तथा ‘लोग क्या कहेंगे’… यह सोचकर अपने हंसते-खेलते जीवन को अग्नि में झोंक देता है। यदि इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध बढ़ता है और पूरी होती हैं तो लोभ। इसलिए उसे हर स्थिति में धैर्य बनाए रखना अपेक्षित है। ‘इच्छाओं को हृदय में मत अंकुरित होने दें, अन्यथा आपके जीवन की खुशियों को ग्रहण लग जाएगा और आप क्रोध व लोभ के भंवर से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे। कठिनाई की  स्थिति में केवल आत्मविश्वास ही आपका साथ देता है, इसलिए सदैव उसका दामन थामे रखिए। ‘तुलना के खेल में स्वयं को मत झोंकिए, क्योंकि जहां इसकी शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है… कोसों दूर चला जाता है।’ इसलिए जो मिला है, उससे संतोष कीजिए। स्पर्द्धा भाव रखिए, ईर्ष्या भाव नहीं। खुद को बदलिए, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने खुद को बदल लिया, वह जीत गया। दूसरों से उम्मीद रखने के भाव का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। सो! उस राह को त्याग दीजिए, जो कांटों से भरी है, क्योंकि दुनिया भर के कांटों को चुनना व दु:खों को मिटाना संभव नहीं। इसलिए उस विचार को समूल नष्ट करने में सबका कल्याण है। इसके साथ ही बीती बातों को भुला देना कारग़र है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए वर्तमान में जीना सीखिए। अतीत अनुभव है, उससे शिक्षा लीजिए तथा उन ग़लतियों को वर्तमान में मत दोहराइए, अन्यथा आपके भविष्य का अंधकारमय होना निश्चित है।

वैसे तो आजकल लोग अपने सिवाय किसी के बारे में सोचते ही नहीं, क्योंकि वे अपने अहं में इस क़दर मदमस्त रहते हैं कि उन्हें दूसरों का अस्तित्व नगण्य प्रतीत होती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो आप उसके बारे में जो जानते हैं; उस पर विश्वास रखें … न कि जो उसके बारे में सुना है’…  यह कथन कोटिश: सत्य है। आंखों-देखी पर सदैव विश्वास करें, कानों-सुनी पर नहीं, क्योंकि लोगों का काम तो होता है कहना… आलोचना करना; संबंधों में कटुता उत्पन्न करने के लिए इल्ज़ाम लगाना; भला-बुरा कहना; अकारण दोषारोपण करना। इसलिए मानव को व्यर्थ की बातों में समय नष्ट न करने तथा बाह्य आकर्षणों व ऐसे लोगों से सचेत रहने की सीख दी गयी है क्योंकि ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ इसलिए ज़रा संभल कर चलें, क्योंकि तारीफ़ के पुल के नीचे सदैव मतलब की नदी बहती है अर्थात् यह दुनिया पल-पल गिरगिट की भांति रंग बदलती है। लोग आपके सामने तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं, परंतु पीछे से फब्तियां कसते हैं; भरपूर निंदा करते हैं और पीठ में छुरा घोंपने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते।

‘इसलिए सच्चे दोस्तों को ढूंढना/ बहुत मुश्किल होता है/ छोड़ना और भी मुश्किल/ और भूल जाना नामुमक़िन।’ सो! मित्रों के प्रति शंका भाव कभी मत रखिए, क्योंकि वे सदैव तुम्हारा हित चाहते हैं। आपको गिरता हुआ देख, आगे बढ़ कर थाम लेते हैं। वास्तव में सच्चा दोस्त वही है, जिससे बात करने में खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए…केवल वो ही अपना है, शेष तो बस दुनिया है अर्थात् दोस्तों पर शक़ करने से बेहतर है… ‘वक्त पर छोड़ दीजिए/ कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे।’ समय अपनी गति से चलता है और समय के साथ मुखौटों के पीछे छिपे, लोगों का असली चेहरा उजागर अवश्य हो जाता है। सो! यह कथन कोटिश: सत्य है कि ख़ुदा की अदालत में देर है, अंधेर नहीं। अपने विश्वास को डगमगाने मत दें और निराशा का दामन कभी मत थामें। इसलिए ‘यदि सपने सच न हों/ तो रास्ते बदलो/ मुक़ाम नहीं/ पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं/ जड़ नहीं।’ सो! लोगों की बातों पर विश्वास न करें, क्योंकि आजकल लोग समझते कम और समझाते ज़्यादा हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़यादा हैं। दुनिया में कोई भी दूसरे को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होता। सो! वे उस सीढ़ी को खींचने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं तथा उसे सही राह दर्शाने की मंगल कामना नहीं करते।

इसलिए मानव को अहंनिष्ठ व स्वार्थी लोगों से सचेत व सावधान रहने का संदेश देते हुए कहा गया है, कि घमण्ड मत कर/ ऐ!दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं’…जीवन को समझने से पहले मन को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का साकार रूप है…’जैसी सोच, वैसी क़ायनात और वैसा ही जीवन।’ सो! मानव को प्रतिशोध के भाव को जीवन में दस्तक देने की कभी भी अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-परिवर्तन को अपनाना श्रेयस्कर है। सो! मानव को अपनी सोच, अपना व्यवहार, अपना दृष्टिकोण, अपना नज़रिया बदलना चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में है, नज़रिये का नहीं। ‘नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे। नज़रिया बदलो/ दुनिया के लोग ही नहीं/ वक्त के धारे भी बदल जाएंगे।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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