Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 15 – Change ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Change.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 15

 

☆ Change ☆

 

Things don’t really change.

 

The nature is perpetual and complete-

If one bird or animal dies,

Another is born;

In totality,

Things don’t really change.

 

Certain flowers bloom

In a particular season,

When you cross the clock of time,

And touch the base again,

They shall blossom once more.

Things don’t really change.

 

The rivers keep flowing

Year after year

And if you touch the shore of Ganga

At a particular spot

Again, after decades,

You will find the same

Turbulence or calm,

Things don’t really change.

 

The human nature

Is also steady.

Rarely do you see an arrogant person

Turn humble,

Or a crooked mindset

Change into noble.

Things don’t really change.

 

Or at least, it appears,

That things don’t change.

 

If you want change,

You have to be the agent of change;

You can really do wonders!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।’

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 6 ☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

बाल दिवस विशेष 

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक बाल लघुकथा “बाँटने से बढ़ता है”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 6 ☆

☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है ☆ 

 

ओंकार प्रतिदिन सूर्योदय के पहले ही उठ जाता और उगते हुए सूरज को प्रणाम करता था। उसके माता – पिता ने समझाया था कि हमें प्रकृति के तत्वों – धरती, सूर्य, चंद्रमा, नदी, समुद्र, पेड़-पौधों सबकी रक्षा करनी चाहिए। हमें इनका आभार मानना चाहिए क्योंकि ये ही प्राणियों के जीवन को स्वस्थ तथा सानंद बनाते हैं। जब सर्दियों में धूप नहीं निकलती तब हमें कैसा लगता है ? बारिश नहीं होती तो किसानों के खेत सूखने लगते हैं, तब हम सब कितना परेशान होते हैं। क्यों ना हम प्राणदायी प्रकृति की रक्षा करें।

ओंकार सातवीं कक्षा में पढ़ता था। वह बहुत समझदार था। उसने अपने मित्रों को भी ये बातें बताई, सब खुश हो गए। सबने तय कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचे।

ओंकार रोज सुबह होते ही घर की छत पर पहुँच जाता। सुबह की ताजी हवा उसे बहुत भाती। ऐसा लगता मानों ऑक्सीजन सीधे फेफड़ों में भर रही हो। सूरज निकलने तक वह पूरब दिशा की ओर मुँह करके, हाथ जोड़कर खड़ा रहता। आकाश में सूरज की लालिमा झलकने लगती। सूर्योदय का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। सफेद – नीला आकाश और उसमें सूर्य – किरणों की लालिमा ! रंगों का कैसा सुंदर मेल, ऐसा लगता मानों किसी कलाकार ने सिंदूरी रंग आकाश में बिखेर दिया हो। पल भर में ही सूरज का प्रकाश पूरे आकाश में पसर जाता। तेज रोशनी से धरती जगमगा उठती है। चिड़िया चहचहाने लगतीं। पशु – पक्षी मनुष्य सभी उत्साहपूर्वक काम में लग जाते।

ओंकार अक्सर सोचता – सूर्य भगवान के पास प्रकाश का भंडार है क्या ? संपूर्ण विश्व को प्रकाश देते हैं पर रोज सुबह वैसे ही चमचमाते आकाश में विराजमान। तेज इतना कि सूरज की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन।

एक दिन ओंकार ने सूरज से पूछ ही लिया – आपके पास इतना प्रकाश, इतना तेज कहाँ से आता है ? चंद्रमा घटता – बढ़ता रहता है लेकिन आप तो रोज एक जैसे ही दिखते हो?

सूर्यदेव मुस्कुराए – बड़े प्रेम से अपनी सुनहरी किरणों से ओंकार के सिर पर मानों हाथ फेरते हुए बोले – बेटा। मेरा प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यह संपूर्ण विश्व के प्राणियों को जीवन देता है, उनमें चेतना जगाता है। जब मैं बादलों से ढंका रहता हूँ तब भी तुम सबके पास ही रहता हूँ। प्रकाश, तेज, ज्ञान, विद्या, इन्हें नाम चाहे कुछ भी दो, ये ऐसा धन है जो बाँटने से बढ़ता है। जितना ज़्यादा  दूसरों के काम आता है उतना बढ़ता जाता है।

ओंकार प्रफुल्लित हो गया। सूर्य के प्रकाश के भंडार का राज उसे समझ में आ गया था। ओंकार ने यह बात गाँठ बाँध ली थी कि हमें जीवन में खूब मेहनत से पढ़ाई कर, ज्ञान प्राप्त कर समाज की सेवा करनी चाहिए। जैसे सूरज करता है अनंत काल से पृथ्वी की।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ जीत ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावुक लघुकथा   “जीत ”.)

 

☆ लघुकथा – जीत ☆ 

 

“यह मार्मिक छायाचित्र हमारे देश के उच्च कोटि के फोटोग्राफर रोशन बाबू ने लिया है, इसमें पंछियों के जोड़े में से एक की मृत्यु हो गयी है और दूसरा चीत्कार कर रहा है।“
नेपथ्य से आती आवाज़ के साथ मंच में पीछे रखी बड़ी सी स्क्रीन पर रोते हुए एक पंछी का चित्र दिखाई देने लगा जिसका साथी मरा हुआ पड़ा था।

अब फिर से आवाज़ गूंजी, “मित्रों, यह लव-बर्ड हैं, इनके जोड़े में से जब कोई भी एक पंछी मर जाता है, तो दूसरा भी जीवित नहीं रह सकता। एक सच्चा कलाकार ही इस दर्द का चित्रण कर सकता है। निर्णायकों द्वारा इसी चित्र को इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ छायाचित्र घोषित किया गया है। रोशन बाबू को बहुत बधाई।”

घोषणा होते ही पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा, रोशन बाबू का पिछले कई वर्षों का सपना पूरा हो गया था, और उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं था।

हॉल में पहली पंक्ति पर बैठा रोशन बाबू के परिवार के हर सदस्य का चेहरा खिल उठा था, लेकिन वह चित्र देखते ही वहीँ बैठी उनकी बेटी की भी रुलाई छूट गयी। तीन महीने तक वह उन पंछियों के साथ खेली थी, और एक दिन रोशन बाबू ने उनमें से एक का गला घोंट दिया।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के संस्मरण – # 21 ☆ मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” स्थान पर आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं  “विवेक के संस्मरण “. इस सन्दर्भ में हम श्री विवेक जी के अपनी माताजी के अविस्मरणीय संस्मरण  “मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण” आपसे साझा करना चाहेंगे जो हम सबके लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के संस्मरण – # 21 ☆ 

 

☆ मेरी माँ प्राचार्या पिछली पीढ़ी की नारी सशक्तिकरण की उदाहरण ☆

 

मैं अपनी माँ श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के साथ जब भी कहीं जाता तो मैं तब आश्चर्य चकित रह जाता , जब मैं देखता कि अचानक ही कोई युवती , कभी कोई प्रौढ़ा ,कोई सुस्संकृत पुरुष आकर श्रद्धा से उनके चरणस्पर्श करता है .मैम, आपने मुझे पहचाना ? आपने मुझे फलां फलां स्कूल में , अमुक तमुक साल में पढ़ाया था ….! प्रायः महिलाओ में उम्र के सा्थ हुये व्यापक शारीरिक परिवर्तन के चलते माँ अपनी शिष्या को पहचान नहीं पाती थी , पर वह महिला बताती कि कैसे उसके जीवन में यादगार परिवर्तन माँ  के कठोर अनुशासन अथवा उच्च गुणवत्ता की सलाह या श्रेष्ठ शिक्षा के कारण हुआ …. वे लोग पुरानी यादों में खो जाते . ऐसे १, २ नहीं अनेक संस्मरण मेरे सामने घटे हैं .कभी किसी कार्यालय में किसी काम से जब मैं माँ के साथ गया तो अचानक ही कोई अपरिचित उनके पास आता और कहता, आप बैठिये , मैं काम करवा कर लाता हूँ …वह माँ का शिष्य होता .

१९५१ में जब मण्डला जैसे छोटे स्थान में मम्मी पापा का विवाह लखनऊ में हुआ , पढ़ी लिखी बहू मण्डला आई तो , दादी बताती थी कि मण्डला में लोगो के लिये इतनी दूर शादी , वह भी पढ़ी लिखी लड़की से ,यह एक किंचित अचरज की बात थी .उपर से जब जल्दी ही मम्मी ने विवाह के बाद भी अपनी उच्च शिक्षा जारी रखी तब तो यह रिश्तेदारो के लिये भी बहुत सरलता से पचने जैसी बात नहीं थी . फिर अगला बमबार्डमेंट तब हुआ जब माँ ने शिक्षा विभाग में नौकरी शुरू की . हमारे घर को एतिहासिक महत्व के कारण महलात कहा जाता है , “महलात” की बहू को मोहल्ले की महिलाये आश्चर्य से देखती थीं . उन दिनों स्त्री शिक्षा , नारी मुक्ति की दशा की समाज में विशेष रूप से मण्डला जैसे छोटे स्थानो में कोई कल्पना की जा सकती है . यह सब असहज था .

अनेकानेक सामाजिक , पारिवारिक , तथा आर्थिक संघर्षों के साथ माँ  ने मिसाल कायम करते हुये नागपुर विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेज्युएशन तक की पढ़ाई स्व अध्याय से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में साथ साथ बेहतरीन अंको के साथ पास की . तब सीपी एण्ड बरार राज्य था , वहाँ हिन्दी शिक्षक के रूप में नौकरी करते हुये , घर  के लिये रुपये भेजते हुये , स्वयं पढ़ना , व अपना घर चलाना , तब तक मेरी बड़ी बहन का जन्म भी हो चुका था , सचमुच मम्मी की  समर्पण , प्यार व कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति , ढ़ृड़ निश्चय का ही परिणाम था .मां बताती थी कि एक बार विश्वविद्यालय की परीक्षा फीस भरने के लिये उन्होंने व पापा ने तीन रातो में लगातार जागकर संस्कृत की हाईस्कूल की टैक्सट बुक की गाईड लिखी थी, प्रकाशक से मिली राशि से फीस भरी गई थी …सोचता हूँ इतनी जिजिविषा हममें क्यों नहीं … प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय तत्कालीन पीएसएम से ,  बी.टी का प्रशिक्षण फिर म.प्र. लोक सेवा आयोग से चयन के बाद म.प्र. शिक्षा विभाग में व्याख्याता के रूप में नौकरी ….मम्मी की जिंदगी जैसे किसी उपन्यास के पन्ने हैं …. अनेक प्रेरक संघर्षपूर्ण , कारुणिक प्रसंगों की चर्चा वे करते हैं , “गाड हैल्पस दोज हू हैल्प देम सेल्फ”.आत्मप्रवंचना से कोसो दूर , कट्टरता तक अपने उसूलों के पक्के , सतत स्वाध्याय में निरत वे सैल्फमेड थीं ..

माँ के प्रति अपनी आदरांजली अर्पित करते हुये मुझे लगता है , वे हृदयाघात से अचानक हमसे पार्थिव रूप से जरूर बिछड़ गईं हैं , पर वे उनके उसूलों से मुझे जीवन पथ पर मार्ग दिखातीं सदैव सूक्ष्म रूप में मेरे साथ हैं .

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #23 ☆ सौतेली बेटी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “सौतेली बेटी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #23 ☆

 

☆ सौतेली बेटी ☆

 

“बाबा ! ऐसा मत करिए. वे जी नहीं पाएंगे” बेटी ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की.

“मगर, हम यह कैसे बरदाश्त कर सकते हैं कि हमारी बेटी अलग रीतिरिवाज और संस्कार में जीए. हम यह सहन नहीं कर पाएंगे. इसलिए तुम्हें हमारी बात मानना पड़ेगी.”

“नहीं बाबा ! मैं आप की बात नहीं मान पाऊंगी. मैं अब नौकरी पर लग चुकी हूं. उन के सुखी रहने के दिन अब आए है. उन्हें नहीं छोड़ सकती हूं.”

पर, पिताजी नहीं माने, “तुम्हें हमारे साथ चलना होगा. अन्यथा हम मुकदमा लगा देंगे. आखिर तुम हमारी संतान हो ?”

“आप नहीं मानेगे,”’ बेटी की आंख में आंसू आ गए. वह बड़ी मुश्किल से बोल पाई, “बाबा ! यह बताइए, जब आप ने दो भाई और चार बेटियों में से मुझे बिना बच्चे के दंपत्ति को सौंप दिया था, तब आप का प्यार कहां गया था?” न चाहते हुए वह बोल गई, “मेरे असली मातापिता वहीं है.”

“वह हमारी भूल थी बेटी,” बाबा ने कहा तो बेटी उन के चरण स्पर्श करते हुए बोल उठी, “बाबा! मुझे माफ कर दीजिएगा. मगर, यह आप सोचिएगा, यदि आप मेरी जगह होते और आप के जैविक मातापिता आप को जन्म ​देने के बाद किसी के यहां छोड़ देते तो आप ऐसी स्थिति में क्या करते?” कहते हुए बेटी आंसू पौंछते हुए चल दी.

बेटी की यह बात बाबा को अंदर तक कचौट गई. वे कुछ नहीं बोल पाए. उन का हाथ केवल  आशीर्वाद के लिए उठ गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌।।18।।

 

ये सब ही तो श्रेष्ठ हैं,ज्ञानी मेरे प्राण

योगी मेरे आसरे कर गति विधि अनुमान।।18।।

 

भावार्थ :  ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात्‌मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।।18।।

 

Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in mind, he is established in Me alone as the supreme goal.।।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अमृत की धार ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अमृत की धार

 

एक ओर

चखनी पड़ी

प्रशंसा की

गाढ़ी चाशनी,

दूसरी ओर

निगलना पड़ा

आलोचना का

नीम काढ़ा,

वह मीठा ज़हर

बाँटेगा या फिर

लपटें  उगलेगा?

उसने कलम उठाई

मथने लगा आक्रोश,

बेतहाशा खींचने लगा

आड़ी-तिरछी रेखाएँ,

सृजन की आकृति

बनने, दिखने लगी,

अमृत की धार

बिछने, जमने लगी…!

 

आपका दिन अमृत चखे। गुरु नानकदेव जी की जयंती की हृदय से बधाई।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( प्रात: 4.40 बजे, 12 नवम्बर 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 23 – कोजागरी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “कोजागरी.  सुश्री प्रभा जी की  इस कविता में  कोजागरी का तात्पर्य शरद पूर्णिमा की कोजागरी  से नहीं अपितु इसे एक उपमा के रूप में लिया गया है। आप इसे संयोग एवं सामयिक कह सकते हैं क्यूंकि आज भी पूर्णिमा है। कार्तिक पूर्णिमा अथवा त्रिपुरारी पूर्णिमा जिस दिन भगवान् शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था जिसके कारण इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है।  सुश्री प्रभा जी ने अपनी सखी  की प्रत्येक क्रिया कलापों को विभिन्न उपमाओं से अलंकृत किया है और उनमे पूर्णिमा के चन्द्रमा का विशेष स्थान है। विभिन्न उपमाएं एवं शब्दों का चयन अद्भुत है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 23 ☆

 

☆ कोजागरी ☆ 

 

माझ्या सखीचे बोलणे

कोजागरी चे चांदणे

तिच्या अलवार मनी

सदा प्रीती चे नांदणे

 

तिच्या मनात मनात

एक अथांग सागर

कटू क्षणांवर घाली

सखी मायेची पाखर

 

तिच्या अवघेपणात

एक खानदानी डौल

सोनसळी स्वभावाला

हि-या माणकाचे मोल

 

अशा प्रांजळ नात्याचे

कसे फेडायचे पांग

शुभ्र चांदणरात ती

तिचा मोतियाचा भांग

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक एवं सटीक  व्यंग्य  मालवी भाषा की मिठास के साथ   “प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस।  मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस ☆☆

 

मालगंज चौराहे पे धन्ना पेलवान से मुलाक़ात हुई. बोले – ‘अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गिये आप. कार्ड देना था आपको. क्या है कि अपन ने पेली तारीख से अखाड़ा बंद कर दिया है. उसी जगह पे न्यूज़ चैनल डाल रिये हेंगे. उसकी ओपनिंग में आना है आपको.’

‘जरूर पेलवान, पन ये क्या नई सूझी है आपको? दंगल कराने में मज़ा नहीं आ रहा क्या?’

‘बात क्या है भिया कि आजकल मिट्टी के अखाड़े में लड़ना कोई पसंद नी करता है. सो दंगल अपन प्राईम-टाइम के पेलवानों में करा लेंगे. आपको तो मालम हे के बब्बू को अपन ने एमबीए करई है. तो वो बोला कि पापा मैं तो माडर्न ऐरेना डालूँगा. तो ठीक है अपन पुराना बंद कर देते हेंगे….बब्बूई कर रिया है सब, नी तो अपने को क्या समझे ये चैनल, एंकर, प्राईम-टाइम, पेनलिस्ट, एडिटर जने क्या क्या?’

‘डिसीजन सई है पेलवान.’

‘सांतिभिया, एयर-कंडीसन स्टूडिओ में कुश्ती कराने का एक अलग मजा है. एक मसला रोज़ फैंक के सेट के पीछे चप्पल उल्टी कर दो. झमाझम दंगल की फुल ग्यारंटी. इनका घोटाला बड़ा कि उनका स्कैम बड़ा. इनकी पाल्टी में बलात्कारी ज्यादा कि उनकी पाल्टी में. हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, ये ई चल रिया हेगा आजकल. लोग दंगल देखते हैं, सुनता कौन है? इत्ते पेलवान एक साथ दांव लगायेंगे तो सुनाई थोड़ी देगा कुछ. पेलवान भी एक बार में कम-से-कम बीस. स्क्रीन पे अखाड़ा दिखे तो पूरा भरा-भरा दिखे. बोलें तो लगे कि तोपें चलरी हैं. पेनल में औरतें भी रखेंगे. पेले तो वो जम के रोये, फिर किसी को सेट पेई तमाचा मार दे तब तो दंगल सक्सेज़, नी तो फेल है सांतिभिया, नी क्या?‘

‘सई है पेलवान.’

‘सांतिभिया, अपन ने जो चीफ एडिटर रखा है उससे मिलवऊंगा आपको. क्या गला है उसका!! ऐसा ज़ोर से चिल्लाता है कि कान के पर्दे फाड़ डालता है. आप बिस्वास नी मानोगे भिया, ट्रायलवाले दिन ही इत्ती ज़ोर से चिल्लाया कि इम्मिजेटली इस्लामाबाद से फोन आ गिया. बोले – वज़ीर-ए-आज़म जनाब इमरान खान साब डर के मारे थरथरा रिये हैं और के रिये हैं कि आप जो बोलोगे वो मान लेंगे बस चिल्लाओ थोड़ा धीमे. ऐसेई चीखने-चिल्लाने वाले दस जूनियर एडिटर और भी रखे हैं.’

‘बधाई का आपको हक बनता है पेलवान.’

‘बधई वांपे आके देना भिया. बने तो ओपनिंग से पेले एक चक्कर लगाओ स्टूडिओ का. कोई कमी हो तो बताओ. वैसे अपन ने वेवस्था पूरी रखी है, मौलाना की, संतों की, पादरी की, मिलेट्री की, सब तरह की ड्रेसें रखी है. बुर्के रखे हैं, कभी तलाक-वलाक पे कराना हो दंगल. बंकर के, टैंक के, मिसाईल के, सेटेलाईट के सेट बनवा रिये हैं. आपकी सोगन सांतिभिया, फुल पैसा लगा रिये हैं पास से. मौका-जरूरत चलाने के लिये घूँसे के ग्लव्स, पुराने जूते-चप्पल, तेल पिलाये लट्ठ भी रखे हेंगे. बब्बू बोल रिया था कि पापा कांप्टीशन भोत है, चीखने-चिल्लाने, तमाचा मारने भर से आगे काम चलेगा नी. बहस में एक-दो का घायल होना जरूरी है. सो अपन ने टिंचर, सोफ्रामाईसिन, मल्लम-पट्टी का इंतजाम भी रखा है. सांतिभिया आना जरूर, भाभी के साथ.’

‘जरूर पेलवान, बब्बू को बेस्ट-ऑफ-लक बोलना.’ – मैंने विदा ली.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

image_print

Please share your Post !

Shares