हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन और धन्यवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  सृजन और धन्यवाद

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम, अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

आपका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 13 ☆ मेलुहा के मृत्युंजय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “मेलुहा के मृत्युंजय ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा .  श्री विवेक जी द्वारा प्रेषित  विगत पुस्तक चर्चाएं वास्तव में “बैक टू बैक ” पढ़ने लायक पुस्तकें हैं ।श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट  एवं विश्व प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 13  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मेलुहा के मृत्युंजय   

पुस्तक – मेलुहा के मृत्युंजय 

हिन्दी अनुवाद –  The Immortals of Meluha 

लेखक – अमीष त्रिपाठी 

मूल्य –  195 रु

प्रकाशक –  वेस्टलैंड लिमिटेड

ISBN 978-93-80658-82-7

 

☆ मेलुहा के मृत्युंजय – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

पौराणिक साहित्य पर अनेक उपन्यास , महाकाव्य आदि लिखे गये हैं. अमीश त्रिपाठी ऐसे महान लेखक हैं जिन्होने भारतीय जनमानस में व्याप्त आध्यात्मिक कथाओ को एक सूत्र में पिरोकर अपनी लेखनी से चित्रमय झांकी बनाकर प्रस्तुत करने में सफलता पाई है.

उनके लिखे उपन्यास मेलूहा के मृत्युंजय भगवान शिव की भारतीय कल्पना को साकार रूप देकर एक महानायक के रूप मे वर्णित करती है. आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत का पश्चिमोत्तर भाग जहां सरस्वती नदी बहा करती थी मेलूहा भू भाग के रूप में वर्णित है. इस कथानक में अमीश जी ने साहसिक लेखन करते हुये शिव को भावुक प्रेमी, भीषण योद्धा, चमत्कारी मार्गदर्शक, प्रबल नर्तक के रूप में एक सच्चरित्र शक्तिमान व्यक्ति के रूप में  केंद्र में रखते हुये ३ उपन्यास लिख डाले हैं. इसी श्रंखला के अन्य दो उपन्यास हैं नागाओ का रहस्य व वायुपुत्रो की शपथ. किताबें मूलतः सरल अंग्रेजी में लिखी गई थी फिर उनके अनुवाद हिन्दी सहित कई भाषाओ में हुये और पुस्तकें बेस्ट सेलर रही हैं.

मैंने गहराई से तीनो ही पुस्तकें पढ़ी.  १९०० ई पू की देश काल परिस्थिति में स्वयं को उतारकर धार्मिक विषय पर लिख पाना कठिन कार्य था जिसे अमीश ने बखूबी कर दिखाया है.

आज जब अदालतें ये सबूत मांगती हैं कि राम हुये थे या नही? ये उपन्यास एक जोरदार जबाब हैं, जिनमें ४००० वर्ष पहले शिव को एक भगवान नही एक महान व्यक्ति के रूप में कथानायक बनाया गया है. पुस्तक  पठनीय व संग्रहणीय है

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता / ग़ज़ल ☆ क्यूँ भूल जाती हूँ ? ☆ – डाॅ मंजु जारोलिया

डाॅ मंजु जारोलिया

 

(संस्कारधानी जबलपुर से सुप्रसिद्ध लेखिका  डाॅ मंजु जारोलिया जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्य साधना में लीन हैं एवं आपकी रचनाएँ विभिन्न स्तरीय पात्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आशा है हम भविष्य में आपकी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करते रहेंगे।)   

 

 ☆ क्यूँ भूल जाती हूँ ?☆

 

तुझे पाने की कोशिश में

मैं अक्सर भूल जाती हूँ

तुझे मुझसे मोहब्बत है नहीं

ये भूल जाती हूँ

रात खामोश होकर के

चाँद तारों से ये कहतीं

सुबह होते ही तुम जाओगे

ये अक्सर भूल जाती हूँ

मोहब्बत करती हूँ तुमसे

ये बता नहीं पाती

वो शोखियाँ वो अदाएँ

दिखाना भूल जाती हूँ

सारी उम्र इसी एहसास में

गुज़र रही मेरी

उसे मुझसे मोहब्बत है नहीं

क्यूँ भूल जाती हूँ .

 

©  डाॅ मंजु जारोलिया
बी-24, कचनार सिटी, जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #23 – उध्वस्त जगणे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “उध्वस्त जगणे”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 23 ☆

 

☆ उध्वस्त जगणे ☆

 

जे लिहावे वाटले ते, मी लिहू शकलो कुठे ?

आशयाच्या दर्पणातुन, मी खरा दिसलो कुठे

 

कायद्याच्या चौकटीचे, दार मी ठोठावले

आंधळ्या न्यायापुढे या, सांग मी टिकलो कुठे ?

 

मी सुनामी वादळांना, भीक नाही घातली

जाहले उध्वस्त जगणे, मी तरी खचलो कुठे

 

गजल का नाराज आहे, शेवटी कळले मला

जीवनाच्या अनुभवाला, मी खरा भिडलो कुठे

 

एवढ्यासाठीच माझी, जिंदगी रागावली

मी व्यथेसाठी जगाच्या, या इथे झटलो कुठे

 

टाकले वाळीत का हे, सत्य माझे लोक हो

सांग ना दुनिये मला तू, मी इथे चुकलो कुठे

 

सरण माझे पेटताना, शेवटी कळले मला

जगुनही मेलो खरा मी, मरुनही जगलो कुठे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 23 – राम और राम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  एवं भावुक लघुकथा “राम और राम”। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 23 ☆

 

☆ राम और राम ☆

 

‘लक्ष्मी चरण’ दीपावली के दिन पैदा होने के कारण माँ पिताजी ने प्यार से नाम रखा। खेती बाड़ी का काम और अपने छोटे से परिवार को लेकर बहुत खुश रहते थे। आम के बगीचे में घंटों काम करना, जो दादा परदादा लगाकर गए थे। अपनी जिंदगी से बहुत खुश थे।

लक्ष्मी चरण के यहां एक छोटा सा मंदिर श्री राम दरबार था। पूजा पाठ में ज्यादा मन नहीं लगाते थे। उनका अपना परिवार पत्नी, तीन पुत्रियां और एक पुत्र। पुत्र की मोह उन्हें राजा दशरथ जैसे थी। उन्होंने अपने बेटे का नाम रामकुमार रखा।

नित्य प्रति सभी काम होता रहा। सभी अपने अपने परिवार में खुश थे। अपने बेटे को भगवान राम से भी बड़ा मानते थे। धीरे धीरे समय गुजरता गया। लक्ष्मी चरण भी सयाने हो गए। नाती पोते वाला घर हो गया। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी।

अक्सर उनके हमउम्र आकर मंदिर में रामायण का पाठ करते परंतु उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। सभी कहते कुछ तो कर लिया करो भगवान के लिए आखिर समय में काम आएगा। परंतु लक्ष्मी चरण हंस कर टाल जाते थे। बेटे से मोह इतना कि भगवान की प्रतिमा से पहले अपने बेटे का मुंह देखना पसंद करते थे। बेटा भी बहुत ही होनहार हर तरह से पिताजी माताजी का ध्यान रखने वाला।

एक समय रामकुमार शहर से बाहर गया हुआ था। घर में पूजन त्यौहार के समय राम दरबार में भोग लगाते समय सभी ने कहा- कि भगवान को भोग लगा दो। भोग लगाया गया। सभी से प्रेम पूर्वक भोजन करने के लिए कहा गए। परंतु लक्ष्मी चरण भोजन को हाथ नहीं लगाए, कहे आज इस त्यौहार पर मेरे राम को खाना नहीं मिला है मैं भोजन नहीं करूंगा। घर के सभी सदस्यों ने कहा कि भगवान को भोग लगा दिया गया है। परंतु लक्ष्मी चरण नहीं माने। उन्होंने जिद्द ठान ली कि जो बना है सब थाली में मेरे राम के लिए निकाल कर रख दो बाकी सब लोग खाना खा लें। सयानी अवस्था के कारण हाँ कह कर सभी ने भोजन थाली में निकाल कर रख दिए। रात हुई तब तक लक्ष्मी चरण भोजन को हाथ नहीं लगाए।

सुबह भोर होते होते उनका बेटा घर वापस आया। पूछने पर पता चला दिन भर से जिस गांव गया था वहां पर खाने का कोई इंतजाम नहीं हो पाया। सारा दिन भूखा रहना पड़ा। पिताजी थाली में भोजन निकाल रखे हैं। ऐसा बताया गया। सभी को बहुत आश्चर्य हुआ कि उनका राम अभी तक खाना नहीं खा पाया है। दिन भर का भूखा प्यासा घर आकर सब बातें सुनकर अधीर हो वह रोने लगा। लक्ष्मी चरण कहने लगे मैं कहता था ना कि आज मेरे राम को भोग नहीं लगाया गया है।

ऐसा पुत्र मोह अब देखने सुनने को भी नहीं मिलता है। लक्ष्मी चरण कहते थे यह पत्थर की मूरत खड़े-खड़े क्या करेंगे? जो करेगा मेरा राम करेगा। मेरी गति मुक्ति और मेरा सारा ध्यान मेरा राम ही तो रखता है। बाकी सब तो देखने वाले हैं। धन्य हैं उनका पुत्र मोह और राम पर विश्वास। जय श्री राम।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।16।।

 

चार तरह के लोग हैं,करते मेरी भक्ति

आर्त,ज्ञानी जिज्ञासु औ” जो चाहें धन शक्ति।।16।।

 

भावार्थ :  हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं।।16।।

 

Four kinds of virtuous men worship Me, O Arjuna! They are the distressed, the seeker of  knowledge, the seeker of wealth, and the wise, O lord of the Bharatas!।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभिभावक और अध्यापक ☆ डॉ सलिल समधिया

डॉ सलिल समधिया

( ई- अभिव्यक्ति में युवा विचारक एवं योगाचार्य डॉ सलिल समधिया जी का हार्दिक स्वागत है। संयोगवश डॉ सलिल जी के फेसबुक पेज पर आलेख “अभिभावक और अध्यापक” पढ़कर  स्तब्ध रह गया। डॉ सलिल जी ने  सहर्ष ई – अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ अपने इस आलेख को साझा करने  के आग्रह को स्वीकार कर लिया । इसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। यह आलेख मात्र अभिभावकों और अध्यापकों के लिए ही नहीं अपितु, उस प्रत्येक  मनुष्य के लिए है जो जीवन में अपने बच्चों के प्रति कई स्तर पर कई प्रकार के भ्रम पाल कर जी रहे हैं। एक बार पुनः डॉ सलिल जी का आभार एवं भविष्य में उनसे ऐसे ही और आलेखों की अपेक्षा रहेगी।)

 

☆ अभिभावक और अध्यापक ☆

 

“हमारे स्कूल में आईए और बच्चों को एक मोटिवेशनल लेक्चर दीजिए !”

बहुत से टीचर्स/प्रिंसिपल अक्सर ये आमंत्रण देते हैं !

मैं उनसे कहता हूँ कि बात करने की ज़रूरत बच्चों से नही, बल्कि अभिभावकों से  है !

और वो ये कि- बच्चों को लेक्चर देना बंद कीजिए !

आपके लेक्चर, आदेश और कमांड की ओवरडोज से बीमार हुए जा रहे हैं बच्चे !!

आपके ..उपदेशों का अतिरेक मितली पैदा कर रहा है उनमें  !

यह अति उपदेश,  विष बन कर  उनकी चेतना को निस्पंद किए दे रहा है !!

हर शिक्षक बच्चे को ज्ञान बांट रहा है !

प्रत्येक रिलेटिव, माता-पिता,  परिचित,  मित्र ..जिसे देखो ..बच्चों को प्रवचन सुना  रहा है !

..वो तॊ अच्छा है कि बच्चे हमें ध्यान से सुनते  नही, और हमारे कहे  को अनसुना  कर देते  है !

वर्ना अगर वह हमारे  हर उपदेश पर विचार करने लगें, तॊ गंभीर मस्तिष्क रोग से पीड़ित हो सकते हैं !

हम  जानते ही क्या हैं, जो बच्चे को बता रहे हैं ??

ज़्यादातर पिता और शिक्षक बच्चों के सामने सख़्ती से पेश आते हैं !

उन्हें डर होता है कि कहीं बच्चा मुँह न लग जाए !

अपना नकली रूआब क़ायम रखने की वज़ह से वे ,  ज़िंदगी भर उन बच्चों के मित्र नही बन पाते !

वे सदैव एक उपदेशक और गुरु की तरह पेश आते हैं !

अच्छे-बुरे की स्ट्रॉन्ग कमांड, ब्लैक एंड व्हाईट की तरह उसके अवचेतन में ठूंस देते हैं !

यही कारण है कि थोड़ा बड़ा होने पर बच्चा ..अगर शराब पीता है ..तॊ उन्हें नही बताता !

वह सिगरेट पी ले,  या किसी लड़की के प्रेम में पड़ जाए ..या अन्य किसी नए अनुभव से गुज़रा हो तॊ उनसे शेयर नही करता  !

इस तरह बच्चे में एक दोहरा व्यक्तिव पैदा होता है !

हम इतना भय और दिखावा उसमें कूट-कूट कर भर देते हैं कि वयस्क होते-होते बच्चा अपना  स्वतंत्र व्यक्तित्व खो बैठता है !

उसका  कैरियर तॊ बन जाता है मगर  व्यक्तित्व नही बन पाता !

हम सिर्फ उसके  शरीर और सामाजिक व्यवहार को पोषित करते  हैं , लेकिन आत्मिक स्तर पर उसके स्वतंत्र विकास की सारी संभावनाओं को मसल कर  ख़त्म कर देते हैं !

दरअसल, हम सब असुरक्षित और डरे हुए लोग हैं !

हम उनके बाल मन पर अपनी मान्यताओं, परंपराओं और नियम क़ानून का ऐसा पक्का लेप लगा देते हैं कि बच्चे की सारी मौलिकता ही ख़त्म हो जाती है !

और वो जीवनभर अपनी आत्मा का मूल स्वर नही पकड़ पाता !!

हम निपट स्वार्थी मां-बाप , अपने बच्चों को अपने आहत अहं , अतृप्त कामनाओं और अधूरी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना लेते हैं !

और अंततः हमारा बच्चा एक आत्महीन किंतु मार्कशीट और डिग्रियों से सुसज्जित प्रोडक्ट बन जाता है ..जिसे सरकारी/प्राईवेट  संस्थान ऊंची से ऊंची क़ीमत पर खरीद लेते हैं !!

नही , डरें नही !!

बच्चे को इतना बांधकर न रखें !

उसका अपना अलग जीवन है, उसे अपने अनुभव लेने दें !

उसे अपने जीवन की एक्सटेंशन कॉर्ड नही बनाएं !

उसे ,  उसकी निजता में खिलने दें !

उसे तेज धूप, आंधी, बारिश, सूखा …हर मौसम की मार से जूझने दें !

वर्ना उसका दाना पिलपिला और पोचा रह जाएगा !

उसमें प्रखरता और ओज का आविर्भाव नही होगा !

बच्चे को बुढ़ापे की लाठी ना समझें  !

बुढ़ापे की लाठी अगर बनाना है तॊ  “बोध” और  “जागरण” को बनाएं !

क्योंकि पुत्र वाली लाठी तॊ आपसे पहले भी टूट सकती है !

और आप भी बूढ़े हुए बिना विदा हो सकते हैं !

इसलिए अपने बुढ़ापे की फ़िक्र न करें ,

अपने जागरण की फ़िक्र करें !!

अपने बच्चे पर बोझ न डालें बल्कि अपने “बोध” पर ज़ोर डालें !

बच्चे को समझाईश देने से पहले अपनी ‘अकड़’ और  ‘पकड़’ को समझाइश दें !

सिर्फ बच्चा पैदा करने से आप ‘अभिभावक’ नही हो जाते ….और सिर्फ पढ़ाने से आप ‘अध्यापक’ नही हो जाते !

आपका निर्माण ही बच्चे का निर्माण है ..और आपका निदिध्यासन ही बच्चे का अध्यापन है !

समझाइश की ज़रूरत बच्चों को नही, अभिभावकों को है !

 

© डॉ सलिल समधिया

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – उत्सवधर्मी ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  उत्सवधर्मी

जीवन की अंतिम घड़ी

श्यामल छाया सम्मुख खड़ी,
चित्र चक्र-सा घूमा
क्षण भर भी विहँसा
छाया के संग चल पड़ा,
छाया विस्मित..!
जीवन से वितृष्णा
या जीवन से प्रीत?
न वितृष्णा न प्रीत
ब्रह्मांड की सनातन रीत,
अंत नहीं तो आरंभ नहीं
गमन नहीं तो आगमन नहीं,
मैं आदि सूत्रधार हूँ
आत्मा का भौतिक आकार हूँ
सृष्टि के मंच का रंगकर्मी हूँ
सृजन का सनातन उत्सवधर्मी हूँ!

उत्सवधर्मिता बनी रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 20 – कथा कहानी – नोटों वाली कथरी ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कहानी “नोटों वाली कथरी। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 20☆

 

☆ कथा कहानी – नोटों वाली कथरी  

 

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की कथरी होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है, ऐसी  पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी कथरी के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और भूखे पेट गंगू के दांत कटकटाने लगते थे। गंगू का एक मात्र साथी भूखा कुत्ता ठंड से कूं… कूं करते हुए कथरी के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर इस साल ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी कथरी सिल ली थी नयी कथरी में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी। इस कथरी से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था।

डर के मारे गंगू ने थानेदार को चिठ्ठी लिखी कि साहब हमारी गलती नहीं है, कड़कड़ाती ठंड की रात में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया, तब से डर के मारे नींद नहीं आती रात दिन चिंता सताती है कि थानेदार साहब हमको जेल में बंद करके ठुकाई न कर दें इसीलिए जे चिठ्ठी में साफ साफ लिख रहे हैं कि हमारा कोई दोष नहीं है और न हमारे ये नोट हैं। हाँ जे जरूर है कि नोट चोरी न जाऐं इसलिए हमने इनको छुपा के कथरी के अंदर सिल लिया। सच में थानेदार साब पूस की ठंड में जे कथरी ओढ़ने में गजब की गरमी देती है पर आपके डण्डे से पिटने का डर और मंहगाई डायन खाये जात है।

एक दिन गांव की चौपाल में चर्चा चल रही थी…. कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। इसीलिए हमने जे बात जे चिठ्ठी में लिख दई है अब आपके समझ में आये चाहे न आये। हमारी कहीं से कोई गलती नहीं है लिख दिया तो सनद रहे और वक्त जरूरत पे काम आये। और साहब एक बात और है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी, और फिर जबरदस्ती में हमारो नाम लग जाहे सो हम बार बार बताये दे रहे हैं कि जे नोट हमारे नहीं आयें न इन नोटों को हमने कभी जमीन में गाड़ा भी नहीं। थानेदार साहब हम गरीबी में पैदा भये और लंगोटी लगाये अभी भी आपके एरिया में रह रहे हैं आपको विश्वास न होय तो दो डण्डा मारके हमारी लंगोटी भी छुड़ाय लो, पर हम साफ बताय दे रहे हैं कि इतने सारे नोट हम पहली बार देखें हैं।

सरकार बाकी सब खैरियत है। आप खुद समझदार हैं। मोर गरीब को ध्यान रखियो मोरी कोई गलती नहीं आं।

आपका सेवक

गंगू

सुबह-सुबह खेत की मेढ़ में गंगू की लाश के सिरहाने मिली चिठ्ठी से गांव में हड़कंप मचा हुआ है और थानेदार कथरी में भरे नोट देख-देखकर गांव के सेठ पर शक कर रहे हैं…..

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ सोच ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “सोच”.)

☆ लघुकथा – सोच

मेहता जी बदहवास से हांफते हुए आये और बोले — “सिंह साहब मेरे साथ थाने चलिये , रिपोर्ट लिखवाना है।”

सिंह साहब ने उनकी ओर आश्चर्य से देखते हुए पूछा – “रिपोर्ट किस बात की?”

“लड़के की मोटर साइकिल चोरी हो गयी है। वह कलेक्ट्रेट किसी काम से गया था , उसने मोटरसाइकिल, वाहन स्टैंड पर खड़ी न करके बाहर ही खड़ी कर दी थी । पांच मिनिट का ही काम था , बस गया और आया । इतने में ही गाड़ी चोरी हो गयी।”

मेहता जी ने अभी दो महीने पहले ही प्राविडेंट फंड से पचास हजार रुपये निकाल कर लड़के को मोटरसाइकिल खरीदकर दी थी ।

अक्सर वाहन स्टैंड वाले  के साथ पांच -दस रुपये देने के नाम पर आम लोगों से किचकिच होते सिंह साहब ने देखी है । स्टैंड के पांच -दस रुपये बचाने के चक्कर में उसने  पचास हजार रुपये की बाइक  खो दी । यह आम लोगों की  कैसी सोच है ?

सिंह साहब  इसी सोच में डूबे मेहता जी के साथ रिपोर्ट लिखवाने थाने की ओर चल दिये ।

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