आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌।।18।।

 

ये सब ही तो श्रेष्ठ हैं,ज्ञानी मेरे प्राण

योगी मेरे आसरे कर गति विधि अनुमान।।18।।

 

भावार्थ :  ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात्‌मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।।18।।

 

Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in mind, he is established in Me alone as the supreme goal.।।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अमृत की धार ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अमृत की धार

 

एक ओर

चखनी पड़ी

प्रशंसा की

गाढ़ी चाशनी,

दूसरी ओर

निगलना पड़ा

आलोचना का

नीम काढ़ा,

वह मीठा ज़हर

बाँटेगा या फिर

लपटें  उगलेगा?

उसने कलम उठाई

मथने लगा आक्रोश,

बेतहाशा खींचने लगा

आड़ी-तिरछी रेखाएँ,

सृजन की आकृति

बनने, दिखने लगी,

अमृत की धार

बिछने, जमने लगी…!

 

आपका दिन अमृत चखे। गुरु नानकदेव जी की जयंती की हृदय से बधाई।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( प्रात: 4.40 बजे, 12 नवम्बर 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 23 – कोजागरी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “कोजागरी.  सुश्री प्रभा जी की  इस कविता में  कोजागरी का तात्पर्य शरद पूर्णिमा की कोजागरी  से नहीं अपितु इसे एक उपमा के रूप में लिया गया है। आप इसे संयोग एवं सामयिक कह सकते हैं क्यूंकि आज भी पूर्णिमा है। कार्तिक पूर्णिमा अथवा त्रिपुरारी पूर्णिमा जिस दिन भगवान् शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था जिसके कारण इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है।  सुश्री प्रभा जी ने अपनी सखी  की प्रत्येक क्रिया कलापों को विभिन्न उपमाओं से अलंकृत किया है और उनमे पूर्णिमा के चन्द्रमा का विशेष स्थान है। विभिन्न उपमाएं एवं शब्दों का चयन अद्भुत है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 23 ☆

 

☆ कोजागरी ☆ 

 

माझ्या सखीचे बोलणे

कोजागरी चे चांदणे

तिच्या अलवार मनी

सदा प्रीती चे नांदणे

 

तिच्या मनात मनात

एक अथांग सागर

कटू क्षणांवर घाली

सखी मायेची पाखर

 

तिच्या अवघेपणात

एक खानदानी डौल

सोनसळी स्वभावाला

हि-या माणकाचे मोल

 

अशा प्रांजळ नात्याचे

कसे फेडायचे पांग

शुभ्र चांदणरात ती

तिचा मोतियाचा भांग

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक एवं सटीक  व्यंग्य  मालवी भाषा की मिठास के साथ   “प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस।  मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ प्राईम-टाईम के बिजनेस में पेलवान का परवेस ☆☆

 

मालगंज चौराहे पे धन्ना पेलवान से मुलाक़ात हुई. बोले – ‘अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गिये आप. कार्ड देना था आपको. क्या है कि अपन ने पेली तारीख से अखाड़ा बंद कर दिया है. उसी जगह पे न्यूज़ चैनल डाल रिये हेंगे. उसकी ओपनिंग में आना है आपको.’

‘जरूर पेलवान, पन ये क्या नई सूझी है आपको? दंगल कराने में मज़ा नहीं आ रहा क्या?’

‘बात क्या है भिया कि आजकल मिट्टी के अखाड़े में लड़ना कोई पसंद नी करता है. सो दंगल अपन प्राईम-टाइम के पेलवानों में करा लेंगे. आपको तो मालम हे के बब्बू को अपन ने एमबीए करई है. तो वो बोला कि पापा मैं तो माडर्न ऐरेना डालूँगा. तो ठीक है अपन पुराना बंद कर देते हेंगे….बब्बूई कर रिया है सब, नी तो अपने को क्या समझे ये चैनल, एंकर, प्राईम-टाइम, पेनलिस्ट, एडिटर जने क्या क्या?’

‘डिसीजन सई है पेलवान.’

‘सांतिभिया, एयर-कंडीसन स्टूडिओ में कुश्ती कराने का एक अलग मजा है. एक मसला रोज़ फैंक के सेट के पीछे चप्पल उल्टी कर दो. झमाझम दंगल की फुल ग्यारंटी. इनका घोटाला बड़ा कि उनका स्कैम बड़ा. इनकी पाल्टी में बलात्कारी ज्यादा कि उनकी पाल्टी में. हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, ये ई चल रिया हेगा आजकल. लोग दंगल देखते हैं, सुनता कौन है? इत्ते पेलवान एक साथ दांव लगायेंगे तो सुनाई थोड़ी देगा कुछ. पेलवान भी एक बार में कम-से-कम बीस. स्क्रीन पे अखाड़ा दिखे तो पूरा भरा-भरा दिखे. बोलें तो लगे कि तोपें चलरी हैं. पेनल में औरतें भी रखेंगे. पेले तो वो जम के रोये, फिर किसी को सेट पेई तमाचा मार दे तब तो दंगल सक्सेज़, नी तो फेल है सांतिभिया, नी क्या?‘

‘सई है पेलवान.’

‘सांतिभिया, अपन ने जो चीफ एडिटर रखा है उससे मिलवऊंगा आपको. क्या गला है उसका!! ऐसा ज़ोर से चिल्लाता है कि कान के पर्दे फाड़ डालता है. आप बिस्वास नी मानोगे भिया, ट्रायलवाले दिन ही इत्ती ज़ोर से चिल्लाया कि इम्मिजेटली इस्लामाबाद से फोन आ गिया. बोले – वज़ीर-ए-आज़म जनाब इमरान खान साब डर के मारे थरथरा रिये हैं और के रिये हैं कि आप जो बोलोगे वो मान लेंगे बस चिल्लाओ थोड़ा धीमे. ऐसेई चीखने-चिल्लाने वाले दस जूनियर एडिटर और भी रखे हैं.’

‘बधाई का आपको हक बनता है पेलवान.’

‘बधई वांपे आके देना भिया. बने तो ओपनिंग से पेले एक चक्कर लगाओ स्टूडिओ का. कोई कमी हो तो बताओ. वैसे अपन ने वेवस्था पूरी रखी है, मौलाना की, संतों की, पादरी की, मिलेट्री की, सब तरह की ड्रेसें रखी है. बुर्के रखे हैं, कभी तलाक-वलाक पे कराना हो दंगल. बंकर के, टैंक के, मिसाईल के, सेटेलाईट के सेट बनवा रिये हैं. आपकी सोगन सांतिभिया, फुल पैसा लगा रिये हैं पास से. मौका-जरूरत चलाने के लिये घूँसे के ग्लव्स, पुराने जूते-चप्पल, तेल पिलाये लट्ठ भी रखे हेंगे. बब्बू बोल रिया था कि पापा कांप्टीशन भोत है, चीखने-चिल्लाने, तमाचा मारने भर से आगे काम चलेगा नी. बहस में एक-दो का घायल होना जरूरी है. सो अपन ने टिंचर, सोफ्रामाईसिन, मल्लम-पट्टी का इंतजाम भी रखा है. सांतिभिया आना जरूर, भाभी के साथ.’

‘जरूर पेलवान, बब्बू को बेस्ट-ऑफ-लक बोलना.’ – मैंने विदा ली.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 21 – मौन मन का मीत ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  मन  पर एक कविता   “मौन मन का मीत। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 21☆

☆ मौन मन का मीत ☆  

 

मौन मन का मीत,

मौन परम सखा है

स्वाद, मधुरस मौन का

हमने चखा है।

 

अब अकेले ही मगन हैं

शून्यता,  जैसे  गगन है

मुस्कुराती  है, उदासी

चाहतों के,शुष्क वन है

जो  मिले एकांत  क्षण

उसमे स्वयं को ही जपा है, मौन…….

 

कौन है किसकी प्रतीक्षा

कर रहे खुद की समीक्षा

हर घड़ी, हर पल निरंतर

चल रही, अपनी  परीक्षा

पढ़ रहे हैं, स्वयं को

अंतःकरण में जो छपा है, मौन…..

 

हैं, वही  सब चाँद तारे

हैं, वही प्रियजन हमारे

और हम भी तो वही हैं

आवरण, कैसे उतारें

बाँटने  को  व्यग्र हम

जो, गांठ में बांधे रखा है,मौन…..

 

मौन,सरगम गुनगुनाये

मौन, प्रज्ञा को  जगाये

मौन,प्रकृति से मुखर हो

प्रणव मय गुंजन सुनाये

मौन  की  तेजस्विता से

मुदित हो तन मन तपा है..

स्वाद मधुरस मौन का

हमने चखा है

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

प्रश्न :- अब तो मुसलामानों,पारसियों, ईसाईयों की हिन्दुस्तान में बड़ी संख्या है। वे एक राष्ट्र नहीं हो सकते। कहा जाता है कि हिन्दू-मुसलमानों में कट्टर वैर है। हमारी कहावते भी ऐसी हैं । ‘मियां और महादेव की नहीं बनेगी’। हिन्दू पूर्व में ईश्वर को पूजता है तो मुस्लिम पश्चिम में पूजता है।  मुसलमान हिन्दू को बुतपरस्त – मूर्तिपूजक- मानकर उससे नफरत करता है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, मुसलमान मूर्ति को तोडनेवाला है। हिन्दू गाय को पूजता है, मुसलमान उसे मारता है। हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। यो पग-पगपर जो विरोध है, वह कैसे मिटे और हिन्दुस्तान एक कैसे हो?

उत्तर :- हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी लिखते हैं : “आपका आखरी सवाल बड़ा गंभीर मालुम होता है। लेकिन सोचने पर वह सरल मालुम होगा।  हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमे दाखिल होते हैं वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगो का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी उतने धर्म मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दुसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं। अगर हिन्दू माने कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए, तो यह निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा माने कि उसमे सिर्फ मुसलमान रहें, तो उसे भी सपना ही समझिये। फिर भी हिन्दू, मुसलामान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक मुल्की हैं; वे देशी-भाई हैं; और उन्हें  एक दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पडेगा।“

“दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तान तो ऐसा था ही नहीं।“

दोनों कौमों के कट्टर वैर पर महात्मा गांधी कहते हैं कि; ”कट्टर वैर दोनों के दुश्मन ने खोज निकाला है। जब हिन्दू मुसलमान झगड़ते थे तब वे ऐसी बातें भी करते थे। झगडा तो हमारा कब का बंद हो गया है। फिर कट्टर वैर काहे का? और इतना याद रखिये कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारा झगडा बंद हुआ ऐसा नहीं है। हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आयें हैं। दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फ़ायदा नहीं; लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फैसला किया। झगडे तो फिर अंग्रेजों ने शुरू करवाए।“

“मियां और महादेव की नहीं बनती इस कहावत का भी ऐसा ही समझिये। कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावतों की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलामानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अन्दर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया उसमे लड़ाई काहे की” ?

“और ऐसी कहावते तो शैव और वैष्णवों में भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक राष्ट्र नहीं है। वेद्धर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है; फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गए इसलिए अपने झगड़े हम तीसरे के पास ले जाते हैं।“

“जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढेगा त्यों-त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे वैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं; हम उस पर जबरदस्ती न करें।”

टिप्पणी : मैं इतना योग्य नहीं हूँ कि बापू के इस कथन पर कुछ कहूं। शुरुआत का वह हिस्सा जिसमे बापू हिन्दू मुसलमान की इस फसाद का दोष रेल वकील और डाक्टर को देते हैं। इसे मैंने नहीं लिखा और न इसे मैं समझ पाया हूँ। मैं नहीं मानता कि रेलगाड़ी आने से हिन्दू मुस्लिम के बीच या इंसान इंसान के बीच खाई पैदा हुई, वरन आवागमन के साधनों ने तो मेलजोल बढाने में मदद की है। कोई गांधी दर्शन का ज्ञानी इस पर अपने विचार विश्लेषण के साथ रखे, तो हमें बापू की यह बात समझने में मदद मिलेगी। महात्मा गांधी कई महत्वपूर्ण बातें हमें बताते हैं, कुछ तो मैंने रेखांकित की हैं। महात्माजी जो बातें ११० वर्ष पहले कह गए हैं और वही बातें हम आज भी हिन्दू संगठनों के नेतृत्व से भी सुनते हैं, दोनों में अंतर नहीं है। प्रश्न यह है कि फिर गांधीजी की बात मुसलमान क्यों मानते हैं उसका प्रतिवाद वे क्यों नहीं करते जबकि हिन्दू संगठनों की यही बाते उन्हें इतनी बुरी लगती हैं कि आज भे टीव्ही डिबेट के दौरान मरने मारने की बातें होने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है कि सड़क पर कुछ लोग किसी धर्म विशेष के व्यक्ति को घेर लेते हैं और फिर दोनों पक्षों में फसाद शुरू हो जाता है। क्यों महात्मा गांधी नोआखाली में कोलकाता में शान्ति स्थापित करने में सफल हो जाते हैं और उधर पश्चिमी भारत में पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था भी हिन्दू-मुसलमानों का कत्ले आम नहीं रोक पाती। यह बड़े प्रश्न हैं और इसका उत्तर यही है कि गांधीजी के हावभाव (body language)  सरल व सामान्य थे, वे धमकी की भाषा के जगह प्रेम की वाणी बोलते थे, उन्होंने लोगों का दिल जीता जहाँ कहीं लगा ह्रदय परिवर्तन का मार्ग अपनाया और कभी किसी पर जबरदस्ती नहीं की, अपनी बात थोपने का प्रयास नहीं किया। लोगों को उन्होंने समझाने का प्रयास किया, लोग अगर सत्य को समझ गए और मान गए तो ठीक अन्यथा उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया, अनशन कर लोगों से सत्य को स्वीकार करने प्रेरित किया। हमेशा वे सफल हुए ऐसा भी नहीं है पर असफलताएँ उन्हें उनके मार्ग से डिगा नहीं सकी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।।17।।

 

इनमें ज्ञानी मुझे प्रिय,एक निष्ठ समज्ञान

नित्य भक्त जन को भी मैं,प्रिय हूँ उन्ही समान।।17।।

 

भावार्थ :  उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥

 

Of them, the wise, ever steadfast and devoted to the One, excels (is the best); for, I am exceedingly dear to the wise and he is dear to Me.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 16 ☆ पुरानी दोस्त ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पुरानी दोस्त”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 16 ☆

☆ पुरानी दोस्त

कभी

वो तुम्हारी पक्की सहेली हुआ करती होगी,

एक दूसरे का हाथ थामे हुए

तुम दोनों साथ चला करते होगे,

ढलती शामों में तो

अक्सर तुम उसके कंधों पर अपना सर रख

उससे घंटों बातें किया करते होगे,

और सीली रातों में

उसकी साँसों में तुम्हारी साँस

घुल जाया करती होगी…

 

तब तुम्हें यूँ लगता होगा

तुम जन्मों के बिछुड़े दीवाने हो

और बिलकुल ऐसे

जैसे तुम दोनों बरसों बाद मिले हो

तुम उसे अपने गले लगा लिया करते होगे…

 

तुम उसे दोस्त समझा करते थे,

पर वो तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन थी!

 

यह तो अब

तुमने बरसों बाद जाना है

कि तनहाई का

कोई अस्तित्व था ही नहीं,

ये तो तुम्हारे अन्दर में बसी थी

और तुम्हारे कहने पर ही निकलती थी…

 

सुनो,

एक दिन तुम उठा लेना एक तलवार

और उसके तब तक टुकड़े करते रहना

जब तक वो पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाए…

 

उसके मरते ही

तुम्हारे ज़हन में

जुस्तजू जनम लेगी

और तब तुम्हें

तनहाई नामक उस पुरानी सहेली की

याद भी नहीं आएगी…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन और धन्यवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  सृजन और धन्यवाद

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम, अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

आपका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 13 ☆ मेलुहा के मृत्युंजय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “मेलुहा के मृत्युंजय ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा .  श्री विवेक जी द्वारा प्रेषित  विगत पुस्तक चर्चाएं वास्तव में “बैक टू बैक ” पढ़ने लायक पुस्तकें हैं ।श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट  एवं विश्व प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 13  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मेलुहा के मृत्युंजय   

पुस्तक – मेलुहा के मृत्युंजय 

हिन्दी अनुवाद –  The Immortals of Meluha 

लेखक – अमीष त्रिपाठी 

मूल्य –  195 रु

प्रकाशक –  वेस्टलैंड लिमिटेड

ISBN 978-93-80658-82-7

 

☆ मेलुहा के मृत्युंजय – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

पौराणिक साहित्य पर अनेक उपन्यास , महाकाव्य आदि लिखे गये हैं. अमीश त्रिपाठी ऐसे महान लेखक हैं जिन्होने भारतीय जनमानस में व्याप्त आध्यात्मिक कथाओ को एक सूत्र में पिरोकर अपनी लेखनी से चित्रमय झांकी बनाकर प्रस्तुत करने में सफलता पाई है.

उनके लिखे उपन्यास मेलूहा के मृत्युंजय भगवान शिव की भारतीय कल्पना को साकार रूप देकर एक महानायक के रूप मे वर्णित करती है. आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत का पश्चिमोत्तर भाग जहां सरस्वती नदी बहा करती थी मेलूहा भू भाग के रूप में वर्णित है. इस कथानक में अमीश जी ने साहसिक लेखन करते हुये शिव को भावुक प्रेमी, भीषण योद्धा, चमत्कारी मार्गदर्शक, प्रबल नर्तक के रूप में एक सच्चरित्र शक्तिमान व्यक्ति के रूप में  केंद्र में रखते हुये ३ उपन्यास लिख डाले हैं. इसी श्रंखला के अन्य दो उपन्यास हैं नागाओ का रहस्य व वायुपुत्रो की शपथ. किताबें मूलतः सरल अंग्रेजी में लिखी गई थी फिर उनके अनुवाद हिन्दी सहित कई भाषाओ में हुये और पुस्तकें बेस्ट सेलर रही हैं.

मैंने गहराई से तीनो ही पुस्तकें पढ़ी.  १९०० ई पू की देश काल परिस्थिति में स्वयं को उतारकर धार्मिक विषय पर लिख पाना कठिन कार्य था जिसे अमीश ने बखूबी कर दिखाया है.

आज जब अदालतें ये सबूत मांगती हैं कि राम हुये थे या नही? ये उपन्यास एक जोरदार जबाब हैं, जिनमें ४००० वर्ष पहले शिव को एक भगवान नही एक महान व्यक्ति के रूप में कथानायक बनाया गया है. पुस्तक  पठनीय व संग्रहणीय है

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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