हिन्दी साहित्य- आलेख – ☆ सुविधाओं में सिमटते रिश्ते ☆ सुश्री मालती मिश्रा ‘मयन्ती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

☆ सुविधाओं में सिमटते रिश्ते ☆

 

विधा- रेखाचित्र

आज जिंदगी चलती नहीं दौड़ती है, लोग  बोलते नहीं बकते हैं, आज के दौर में मानव जितनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, उतनी ही तेजी से अपना बहुत कुछ पीछे छोड़ता जा रहा है और विडंबना यह है कि उसे इसका आभास तक नहीं। जब सुविधाएँ कम थीं तब आपसी मेलजोल अधिक था, जैसे-जैसे सुविधाएँ बढ़ती गईं वैसे-वैसे मनुष्य अपने आप में सिमटता गया। पहले चाहे आवश्यकताओं के कारण ही सही पर एक-दूसरे से मेल-जोल, आपसी सौहार्द बना रहता था।

आज जब घर-घर में रंगीन टेलीविजन देखती हूँ, जिसपर सैकड़ों चैनल आते हैं, न जाने कितने सीरियल, रियलिटी शो, कॉमेडी शो और न जाने क्या-क्या आता है, तब वो समय याद आ जाता है जब टेलीविजन रखना सिर्फ संपन्न परिवारों की पहचान हुआ करती थी। बल्कि उस समय अधिकतर लोगों की यह सोच थी कि टेलीविजन रखना तो पैसे वालों के ही बस की बात है और उस समय श्वेत-श्याम टेलीविजन में दूरदर्शन चैनल आया करता था जिस पर कुछ ही गिने-चुने सीरियल और सप्ताह में दो दिन फिल्में वो भी देर रात ग्यारह बजे आती थीं। मुझे याद है हम तब फिल्में देखने के लिए कितने व्यग्र हुआ करते थे। देर रात को आने वाली फिल्म के लिए भी जागते रहते थे। रविवार को छुट्टी होने के बावजूद जल्दी इसलिए जाग जाते थे क्योंकि सुबह सात बजे से फिल्मी गीतों का कार्यक्रम ‘रंगोली’ आता था। उस समय हमारे घर में टी. वी. नहीं था तो हम पड़ोस के चाचा जी के घर टी. वी. देखा करते थे और दिन हो या रात सुबह हो या शाम, सभी कार्यक्रम वैसे ही देखते जैसे आजकल अपने घर में। उनके टी. वी. खरीदने का किस्सा मुझे अब भी याद है, एक दिन चाची ने कहा- “मालती मेरे पास कुछ पैसे हैं, जिसे मैंने सोने की चेन खरीदने के लिए जोड़े हैं, पर कभी सोचती हूँ कि टी. वी. खरीद लूँ, तुम्हारे चाचा तो चेन खरीदने को ही कह रहे हैं, पर तुम बताओ क्या खरीदना चाहिए?”

फिर क्या था! टी. वी. का नाम सुन मेरी तो बाँछें खिल गईं और मैं इतनी समझदार तो थी ही कि उनकी इच्छा क्या है ये समझ सकती। मैंने बड़े बुज़ुर्ग की तरह उन्हें समझाना शुरू किया। मैंने कहा-

“चाची चेन मँगवा कर किसे खुश करोगी? सिर्फ खुद को, हमेशा पहनोगी भी नहीं, बक्से में पड़ी रहेगी, सिर्फ मन ही मन में सोचकर खुश हो लोगी कि मेरे पास तो सोने की चेन है। न लोग जानेंगे न घर के किसी सदस्य को कोई संतुष्टि मिलने वाली है, जबकि टी. वी. लाओगी तो खुद भी खुश होगी, चाचा भी, आपके बच्चे भी खुश होंगे और हम लोग भी खुश होंगे, साथ-साथ स्टेटस भी बढ़ेगा वो अलग, तो खुद सोचो कि किस चीज़ की उपयोगिता अधिक है?” मेरा साथ उनके बच्चों ने भी दिया हाँ मम्मी.. हाँ मम्मी करके।

“तो अपने बाबूजी से क्यों नहीं कहती कि एक टेलीविजन ले लें? तुम्हारा भी स्टेटस बढ़ जाएगा, पैसे तो हैं ही उनके पास।” उन्होंने ने कहा।

“आप जानती हो बाबूजी से कहने की हिम्मत हम लोगों की नहीं है, नहीं तो आपसे न कहते।” मैंने कहा।

फिर क्या था! मेरी बात उनकी समझ में आ गई और उनके घर एक ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. आ गया।

अब जो भी कार्यक्रम हमें भाता हम जाकर टी. वी. चलाकर अपने आप देखते। उस समय रामानंद सागर द्वारा प्रस्तुत धारावाहिक ‘रामायण’ समाप्त हो चुका था पर उसका नशा लोगों के मस्तिष्क पर से अभी उतरा नहीं था, इसलिए नया पौराणिक धारावाहिक शुरू हुआ ‘महाभारत’। उस समय चाची का खपरैल की छत और मिट्टी की दीवारों वाला तीन कमरों और बड़े से आँगन और कच्ची लेकिन एक कमरे जितनी बड़ी रसोईघर वाला घर हुआ करता था। उनके कमरे के सामने की दीवार पर अन्य देवी-देवताओं के साथ सीता राम बने अरुण गोविल और दीपिका की फोटो भी उतनी ही श्रद्धा व भक्ति भाव से टँगी थी जितनी अन्य। उस समय लोग टेलीविजन या फिल्मों में जिसे भगवान के रूप में देखते थे उसे ही भगवान की तरह पूजने लगते थे। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें सत्य ज्ञात न हो, पर सब कुछ जानते हुए भी वो पत्थर में भी भगवान को मान कर पूजने वाली भावना के वशीभूत थे। कहते हैं न! मानों तो देव नहीं तो पत्थर, इसीलिए वे उन कलाकारों को ही भगवान मान लेते थे।

अब रामायण की लोकप्रियता के बाद महाभारत का दौर चला। हम बच्चे सुबह चाय-नाश्ता, नहाने-धोने आदि के कार्यों से निवृत्त होकर ठीक नौ बजने से दो-चार मिनट पहले ही चाची के घर में टी.वी. के सामने आलथी-पालथी मारकर बैठ जाते। मुझे याद है इससे पहले रामायण देखने मैं लगभग आधा किलोमीटर से थोड़ी ही कम दूरी होगी, हमारे जान-पहचान के एक ठाकुर जी का परिवार था, उनके घर जाया करती थी। पहले टी.वी. जैसी चीज कम घरों में होती थी पर वो घर सभी के लिए खुले होते थे। न ही कोई मना करता था और न ही नाक-भौं चढ़ाते थे, दरअसल पहले रिश्ते और आपसी व्यवहार भौतिक वस्तुओं से अधिक मूल्यवान समझे जाते थे।

उस समय इन धार्मिक सीरियल के प्रति लोग भावनात्मक रूप से जुड़ चुके थे, इसीलिए लोगों के विरोध के भय से KESA विभाग ने भी चाहे चौबीस घंटे बिजली काट रखी हो पर महाभारत के समय बिजली जरूर आती, फिर चाहे महाभारत खत्म होते ही चली जाती। हमने अप्रैल के अंत तक तो निर्बाध रूप से महाभारत देखा परंतु ग्रीष्मावकाश में हम हर वर्ष की भाँति  गाँव चले गए। अब हमारा महाभारत सीरियल छूट जाएगा, इस बात की चिंता होने लगी थी।

गाँव में मेरा पहला रविवार था, सुबह से रह-रहकर मन उदास हो जाता कि आज महाभारत नहीं देख पाएँगे और आज ही क्यों कम से कम जुलाई के आधे माह तक तो हमारा पूरा परिवार गाँव में ही रहते थे, जब धान की रोपाई खत्म हो जाती थी तब बाबूजी हमें लेकर कानपुर वापस जाते थे। वैसे तो हर बार की तरह सबकुछ अच्छा था बस एक टी.वी. और होता तो मजा आ जाता। हम भाई-बहन आने से पहले भी यही चर्चा कर रहे थे और अब सचमुच इस एक कमी ने सारा मजा किरकिरा कर दिया था। लगभग साढ़े आठ बज चुके थे कमबख्त दिमाग था कि कितना भी इधर-उधर के कामों में मन लगाने की कोशिश करती पर घूम-फिर कर बार-बार सोच की सुई महाभारत पर ही जाकर अटक जाती। गाँव की ही एक महिला आईं जिन्हें मैं दादी कहती थी, मुझे पुकार कर बोलीं- “महाभारत देखने चलोगी?” मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, पर अम्मा बोलीं- “हाँ ले जाओ, ये भी मन ही मन महाभारत देखने के लिए बेचैन हो रही है।”

“क्या सचमुच गाँव में किसी के घर टी.वी. है?” मैं आश्चर्यचकित होकर बोली।

“नहीं गाँव में नहीं है, बेलपोखरी स्कूल में है, सब वहीं जाते हैं देखने।” अम्मा बोलीं।

“पर बाबूजी? वो जाने देंगे? मैंने अपना डर व्यक्त किया।

“वो कुछ नहीं कहेंगे, अगर तुम जाना चाहती हो तो जाओ।” अम्मा बोलीं।

ये वही स्कूल है जहाँ मैंने कक्षा तीसरी और चौथी की पढ़ाई की थी, उसके बाद मैं फिर कानपुर चली गई थी। मैं खुशी-खुशी तैयार हो गई, मेरे साथ मेरी दादी और छोटी दादी (बाबू जी की चाची) भी गईं। वह स्कूल हमारे घर से कोई पंद्रह-बीस मिनट की दूरी पर था पर जब कई लोग एक साथ होते हैं तो चलने की गति स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है। लिहाज़ा हम लोग लगभग २५-३० मिनट में पहुँचे। पर स्कूल अब वहाँ बगीचे में नहीं था, जहाँ पहले हुआ करता था, वहाँ तो उसकी कच्ची दीवारों के खंडहर ही थे। मुझे बड़ी हैरानी हुई वहाँ की बोलती खामोशी को देखकर। हम यहाँ महाभारत देखने आए हैं और यहाँ तो शांति की की भी आवाज सुनाई दे रही है। टूटी-फूटी दीवारें कुछ अलग ही महाभारत की कहानी बयाँ कर रही हैं। मैं हतप्रभ थी, मैंने दादी से पूछा कि “ये सब क्या है? स्कूल कहाँ है? यहाँ तो कुछ भी नहीं है।” तब दादी ने बताया कि स्कूल अब गाँव में चला गया है, मैं भी उन सभी का अनुसरण करते हुए बेलपोखरी गाँव तक गई, जो इस बगीचे से मात्र ५ मिनट का रास्ता था। गाँव के बाहर ही स्कूल था भीड़ इतनी थी कि किसी फिल्म हॉल में भी क्या होगी। जगह-जगह लोग बैठे थे कुछ लोग पुआल के ऊँचे ढेरों पर चढ़कर बैठे थे तो जितने आ सकते थे उतने वहाँ खड़े ट्रैक्टर और ट्रॉली पर चढ़कर बैठे थे, कितने ही लोग जगह-जगह खाट डालकर उनपर बैठे थे। टी.वी. स्कूल के बरामदे में ऊँचाई पर इस तरह रखी हुई थी कि दूर-दूर तक बैठे लोगों को दिखाई पड़ सके। नीचे कम से कम सौ-सवा सौ के आस-पास महिलाएँ और बच्चे अपने घरों से लाई बोरियाँ बिछाकर बैठे थे। महाभारत शुरू हो चुका था “मैं समय हूँ…” चल रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कहाँ बैठूँ…जगह ही नहीं थी, दादी लोग तो भीड़ में घुसकर वहीं मिट्टी में जहाँ जगह मिली बैठने लगीं, मुझे भी कहा “यहीं कहीं जगह बनाकर बैठ जाओ” पर मैं उस जगह पर अपने आप को गँवार महसूस कर रही थी और खड़ी होकर इधर उधर जगह देखने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी मेरे आगे से आवाज आई, “अरे मालती तुम यहाँ! आओ..आओ..यहाँ बैठो।” और मैं हतप्रभ हो अपनी जगह से हिले बिना उस लड़की को देखने लगी जिसने पलक झपकते ही अपने आस-पास की लड़कियों को खिसका कर मेरे लिए अपनी ही बोरी पर जगह बना दिया था। “क्या हुआ, तुम पहचानी नहीं हमको? हम लोग तुम्हारे साथ ही तो इसी स्कूल में पढ़ते थे, आओ पहले बैठो।” उसने हाथ से अपने बराबर में खाली की गई जगह पर हथेली मारते हुए संकेत करते हुए कहा। मैं अपने दिमाग पर जोर डालती हुई महिलाओं के बीच से जगह बनाती हुई उस लड़की के पास जाकर बैठ गई। उसने अपने साथ बैठी कुछ लड़कियों का और अपना नाम बताकर खुद का परिचय करवाया और दूसरी अन्य मेरे गाँव की लड़कियों के बारे में पूछा तो मैंने बता दिया कि मैं यहाँ नहीं कानपुर में रहती हूँ, इसलिए किसी के विषय में पता नहीं। छोटे से औपचारिक परिचय के बाद हम चुपचाप महाभारत देखने में खो गए। महाभारत के खत्म होते ही भीड़ रूपी ग्रामीण पुरुष महिलाएँ बच्चे सभी अपनी-अपनी जगह से खड़े हुए और अपने-अपने रास्ते चल दिए। मैं भी जाने को उद्यत हुई तब उस लड़की ने मुझे हर सप्ताह वहीं आकर महाभारत देखने का आमंत्रण देते हुए मेरे लिए जगह सुरक्षित रखने का वादा किया। मैंने भी पुन: आने का वादा किया। भीड़ को देखकर मुझे कानपुर के उस सिनेमा हॉल की याद आ गई जो मिलिट्री कैंट में था और संध्या समय फिल्म खत्म होते ही लोग अपने-अपने घरों के लिए जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे जैसे गाँव में गोधूलि के समय खेतों और चारागाह से घरों की ओर लौटते हुए पशु झुंड के झुंड किंतु एक सीधी कतार में चलते थे’ वैसे ही धनुषाकार  पगडंडी पर चलते हुए लोग दिखाई दे रहे थे मानों दूर तक एक धनुषाकार रेखा सी खिंच गई हो।

अब तो गाँव में भी मेरा मन लग गया क्योंकि अपना प्रिय सीरियल अब छोड़ना नहीं पड़ेगा बल्कि लाइट का भी कोई समस्या नहीं थी क्योंकि टी.वी. जनरेटर से चलती है, और तो और दूर से जाने के कारण बैठने की जगह नहीं मिलेगी यह सोच भी खत्म, अब न सिर्फ जगह मिलेगी बल्कि धूल मिट्टी में भी नहीं बैठना पड़ेगा बल्कि बोरी या चटाई बिछी-बिछाई मिलेगी। दादी लोग भी मेरी उस अंजान सहेली की चर्चा कर रही थीं कि किस प्रकार उसने मेरे लिए जगह बनाई। उनकी बातें सुनकर एक ओर तो मुझे गर्वानुभूति हो रही थी तो दूसरी ओर मस्तिष्क में उहा-पोह मची हुई थी कि आखिर वो लड़की कौन थी? उसने मुझे पहचान लिया पर मुझे वो क्यों याद नहीं आ रही थी? मुझे उस समय अपनी कक्षा की सिर्फ वे लड़कियाँ याद आ रही थीं जो हमारे ही गाँव के दूसरे पुरवा से आती थीं। बेलपोखरी से भी लड़कियाँ पढ़ती थीं पर मुझे उनमें से कोई भी याद नहीं और ये लड़की भी उन्हीं में से थी। मैं हतप्रभ हो रही थी कि लगभग चार-पाँच सालों के बाद भी मैं उन लोगों को अच्छी तरह से याद थी पर अफसोस कि लाख कोशिशों के बाद भी मैं आज तक उन लड़कियों को पहचान नहीं पाई। मैं जब भी सोचती हूँ मन ही मन उन लड़कियों की याददाश्त, उनकी सहृदयता और स्नेह  के प्रति नतमस्तक हो जाती हूँ साथ ही आज भी ग्लानि का अनुभव होता है कि मुझपर शहर में रहने का इतना प्रभाव पड़ा कि मैं हृदयहीन हो अपने साथ पढ़ने वाली उन सहपाठिनों को पहचान भी न सकी।

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

 

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 9 – सरोजिनी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में   उनका आलेख सरोजिनी।  यह आलेख पढ़ कर मुझे भी लगा कि बात तो सही है। हमारी उम्र गुजर जाती है  किन्तु, हम तय नहीं कर पाते कि ऐसे कौन से  व्यक्ति  हमें जीवन में मिले जिन्हें हम गुरु कह सकें या मान सकें। सुश्री प्रभा जी ने इस विषय पर  अत्यंत सहजता से बता दिया कि हमें शिक्षा तो किसी से भी मिल सकती है।  कई बार हम अपने अनुभवों से भी सीखते हैं। किन्तु, जिन्हें हम गुरु मानते हैं वे  हमारे हृदय पर अमिट होते हैं, अविस्मरणीय होते हैं। 

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 9 ☆

 

☆ सरोजिनी ☆

 

मी सहज  विचार करायला लागले की गुरू म्हणावं असं आपल्याला आयुष्यात कोण भेटलं?

गेली अनेक वर्षे मी लिहितेय अगदी शाळेत असल्यापासून,लेखन, संपादन यात मला कुणीही गुरू भेटला नाही, ते घडत गेलं…..

पण आयुष्याच्या शाळेत कसं जगावं, हे मी माझ्या मैत्रीणीच्या आईकडून शिकले….विशेषतः कामवाली बद्दलचा त्यांचा दृष्टिकोन, त्या म्हणायच्या कामवाली च्या फार मागे लागू नये, तिला करायचं तेवढंच ती करते, त्यांच्याकडे हीरा नावाची बाई कामाला होती,ती फारच कामचुकार होती, मैत्रीणीची मोठी बहिण  लग्न झालेली, ती माहेरी आली तेव्हा हिराला बोलली, “आई.

बोलत नाही म्हणून तू काहीच करत नाही,आम्ही काय चिंचोके मोजतो का?”

मैत्रीणीच्या आईचं नाव सरोजिनी गायकवाड, त्या स्वतः खुप नीट नेटक्या आणि कष्टाळू होत्या! तरूणपणी त्या शिस्तप्रिय पण प्रेमळ आई होत्या!

त्यांच्यातला एक गुण मला खुप आवडायचा, आपल्यामुळे इतरांना त्रास होऊ नये, मीही ती दक्षता नेहमी घेत असते, शेवटपर्यंत त्या निरपेक्ष जगल्या! दुस-याला त्रास न देता आणि स्वतःला त्रास न करून घेता!

आम्ही शिरूर मध्ये असताना माझी आई आणि इतर दोन सरोजिनी शिरूर मध्ये होत्या, मी त्यांच्यावर “तीन सरोजिनी” असा लेख ही लिहिला होता,या तीन सरोजिनी आज नाहीत, त्यांची आयुष्य मला बरंच काही शिकवून गेली!

सरोजिनी म्हणजे कमळ ! या तिन्ही सरोजिनींचे जन्म स्वातंत्र्यपूर्व काळातले, त्या काळात “सरोजिनी नायडू” या स्वातंत्र्यलढ्यातील थोर कार्यकर्तीचा प्रभाव असल्यामुळे सरोजिनी हे नाव ठेवलं जात असावं!

 

तीन सरोजिनी पाहिल्या मी

माझ्या अवती भवती,

एक माझी मम्मी दुसरी

मैत्रीणीची आई आणि

तिस-या होत्या काकी,

तिन्ही करारी, खंबीर ,प्रभावी ललना

आठवणीतील त्या प्रतिमांना हीच मानवंदना !

(सरोजिनी जगताप, सरोजिनी गायकवाड, सरोजिनी पवार )

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ निसर्गाचं अमोल दान ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  एक रेखाचित्र उनके गाँव का जो निश्चित ही  निसर्गाचं अमोल दान (निसर्ग का अमोल दान )है। 

 

☆ निसर्गाचं अमोल दान☆

 

सातारा आमचं गाव.आमचं घर अजिंक्यताऱ्याच्या पायाशी परळी-सजजनगड-कास रस्त्यावर.पहाटे फिरायला गेलं अन् बोगद्याबाहेर पडलं की,डावीकडं खिंडीतला गणपती-कुरणेश्वर,तर उजवीकडे परळीचा डोंगर अर्थात “सज्जनगड “अन् समोर पसरलेला हिरवागार देखण्या डोंगरांनी सजलेला नयनरम्य परिसर! सारंच सुंदर !!

अजिंक्यताऱ्याच्या दक्षिण बाजूस सोनगावच्या दिशेनं चालायला लागलं की उतारावरुन रात्रभराच्या मुक्कामाला आलेले निळे निळे मोर शेतातले दाणे खाण्यासाठी म्याव,म्याव आवाज करत उतरत असतात,माणसांच्या चाहुलीने ते पुन्हा ओरडत वरच्या दिशेनं पळत सुटतात.

उगवतीला पसरलेली तांबूस छटा पाहून पक्षांचा किलबिलाट सुरू झालेला असतो.मधूनच भारद्वाज पक्षांचा हूं  हूं असा आवाज ऐकू येतो, आणि त्याच दर्शन झालं तर खूप छान!अन् त्याचं समोरुन फ्लाईंग दर्शन तर एकदमच भारी !!लहानपणी तर आमच्यासाठी ते खूप अप्रूप वाटायचं !!

पण आज आम्ही फिरायला आलो ते दुपारी,कारण पुण्याचा मुलगा नातू सगळेजण गणपतीसाठी आलेले.म्हणाले चला आपण कासला जाऊया.आणि हा सीझन फुलांचा त्यामुळे पर्वणीच !

कासच्या फुलांचा बहर सुरू झालेला सगळीकडे विविध रंगछटांची सुंदर फुलं बहरलेली दिसत होती.

कास पठार सुरू होण्यापूर्वी रस्त्याकडेच्या दोन्ही बाजूंची शेतं व पठारी भागावर जिकडं नजर जाईल तिकडं पिवळी हडूळ “सोनकीची “फुलं फुललेली दिसत होती.जणूं धरतीनं हळदुल्या रंगाची दुल ई पांघरल्यासारखी वाटत होती.

आम्ही जिथे गाडी थांबवून उभे होतो तिथून डावीकडं उरमोडी जलाशयाच्या लक्ष दर्पणातून सज्जनगडाचं पावन प्रतिबिंब खुणावत होतं,तर उजवीकडं कण्हेर धरणाचं आरस्पानी सौंदर्य डोळे दिपवीत होतं.दोन्ही बाजूंचे डोंगर उनसावलीच्या खेळामुळं हिरव्या-पोपटी रंगाचे रेशमी शेले पांघरुन बसलेत असं वाटतं होतं.किती पहावं आणि काय-काय पहावं असं होतं इथं आलं की !

डोंगर उतारावरुन खाली नजर टाकली की,गावकुसातल्या श्रमदान्यांनी खोदलेल्या चरांची सुंदर नक्षीदार  रांगोळी अन् त्यातून खाली वाहून गेलेल्या पावसाच्या पाण्याने तुडुंब भरलेले पाझर तलाव, छोटीमोठी तळी , हिरवीगार भातशेती,असं निसर्गाचं मनोहारी दृश्य दिसत होतं.

खरोखरी निसर्गदेवता मानवाला किती भरभरून देत असते.पण त्यानं ते जपलं नाही, वृक्षतोड,वणवे लावणं असं केलं तर आपणच आपल्या हातानं आपला ” केरळ  उत्तरांचल “करु हे प्रत्येकानं लक्षात घ्यावं व निसर्गाच्या या अनमोल ठेव्याला अबाधित राखावं हे आपलं सर्वांचं आद्य कर्तव्य आहे.!

दिवस मावळायला आला होता म्हटलं आता निघायला हवं तेवढ्यात भटकंतीला गेलेले माझे नातू मुलगे सुना सगळे आले अन् मला मोबाईलमध्ये काढलेले सुंदर कासची फुलं, सूर्यास्ताचे फोटो दाखवूलागले मी पाहिले तुम्हीही पहा..!!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

 

image_print

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Graduation Ceremony ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Graduation Ceremony ☆

Video Link : Laughter Graduation Ceremony

 

Laughter Yoga professionals receive their certifications from the Laughter Yoga University in a glittering function on completion of the course.

Radhika Bisht and Jagat Singh Bisht, Founders: LifeSkills, completed their CERTIFIED LAUGHTER YOGA TEACHER training in October 2010 at the School of Ancient Wisdom in Bengaluru. They served as laughter professors at the Laughter Yoga University during the year 2015 and were honoured as LAUGHTER YOGA MASTER TRAINERS by Madhuri Kataria and Dr Madan Kataria, founders of Laughter Yoga, in July 2015.

Laughter Yoga is a unique concept where anyone can laugh for no reason without relying on humour, jokes or comedy. The concept is based on a scientific fact that the body cannot differentiate between real and fake laughter if done with willingness. One gets the same physiological and psychological benefits.

Dr Madan Kataria, a medical doctor, founded the first Laughter Club with just five members in Mumbai in the year 1995. Today there are thousands of laughter clubs all over the world where laughter is initiated as an exercise in a group but with eye contact and childlike playfulness, it soon turns into real and contagious laughter.

It is called Laughter Yoga because it combines laughter exercises with yoga breathing. This brings more oxygen to the body and the brain which makes one feel more energetic and healthy.

When we laugh, our body generates feel good hormones called endorphins which improve our mood and general outlook. During laughter exercises, all the stale air inside the lungs is expelled and our system gets more oxygen which enhances the immune system. In the long run, the inner spirit of laughter helps you build more caring and sharing social relationships, and laugh even when the going in not good.

Laughter Yoga University conducts trainings to certify laughter yoga professionals. The participants flock from all over the world for the training. After completing the training, the participants are awarded certificates in a ceremony at the end of the programme. The participants carry home everlasting sweet memories of the golden moments of glory and joy.

LAUGHTER YOGA GRADUATION CEREMONY IS DAZZLING!

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/SPIRITUAL – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।28।।

 

कोई कठिन व्रत से या द्रव्य से , तप से यज्ञ करते संपन्न

कोई योगकर स्वाध्याय से ,ज्ञान से यति रखते संबंध।।28।।

 

भावार्थ :  कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं।।28।।

 

Some again  offer  wealth,  austerity  and  Yoga  as  sacrifice,  while  the  ascetics  of self-restraint and rigid vows offer study of scriptures and knowledge as sacrifice. ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1 ☆ अकेला ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “अकेला”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1

 

☆ अकेला ☆

 

उस गुज़रे ज़माने में,

गर्मियों की दोपहरी में,

राहों पर चलते हुए दो मुसाफ़िर

अक्सर एक ही बरगद की ठंडी छाँव में

कुछ पल को रुक जाते थे,

कुछ बातें कर लिया करते थे,

साथ लाई रोटियाँ और अचार

मिल-बांटकर खा लिया करते थे

और फिर तनिक सुस्ताकर,

निकल पड़ते थे

अपने-अपने रास्तों पर

अपनी-अपनी मंजिलों की खोज में!

 

उन पलों को

जब वो साथ बैठे थे,

बड़ा ही खूबसूरत मानते थे

और इन्हीं मीठी यादों के सहारे

ज़िंदगी काट लिया करते थे!

 

शायद

इस एयर-कंडीशनर के युग में

दरख्तों के नीचे बैठने का सुकून

तो मिल ही नहीं सकता,

हर कोई

अपने-अपने हिस्से की ठंडी

अपने-अपने एयर-कंडीशनर से लेता है,

न कोई दर्द बांटता है, न ख़ुशी,

बस यही एक विचार

मन में मकाँ बना लेता है

कि कैसे मंजिलों को पाया जाए

और इसी डर के मारे

वो रह जाता है

अकेला भी और बेचारा भी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ व्यंग्य ♥ इंस्पेक्टर मातादीन की सफलता का बैकग्राउंड ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के सामयिक व्यंग्य को  समय प्रकाशित न करना निश्चित रूप से इस व्यंग्य रचना के साथ अन्याय होगा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने बखूबी स्व हरीशंकर पारसाईं जी के पात्र मातादीन का उपयोग सामयिक और सार्थक तौर पर किया है और इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। तो लीजिये प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य –  “इंस्पेक्टर मातादीन की सफलता का बैकग्राउंड”

 

♥ इंस्पेक्टर मातादीन की सफलता का बैकग्राउंड

 

आज की बड़ी खबर है कि भारत के वैज्ञानिक  चांद पर रोवर “प्रज्ञान” भेज रहे हैं,देश के लिये बड़े ही गर्व की बात है .स्वाभाविक है मुझे भी गर्व है.  पर कहते हैं न कि जहां न पंहुचें रवि वहां पहुंचे कवि, व्यंग्यकार होने के नाते  मुझे ज्यादा गर्व है कि इसरो जब किसी भारतीय को चांद पर पहुंचायेगा तब पहुंचायेगा, परसाई जी ने तो उनके जमाने में ही  इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर पहुंचा दिया था.

परसाई जी के इंस्पेक्टर मातादीन ने  क्यो और कैसे चांद के हर थाने के सम्मुख हनुमान जी की मूर्ति स्थापित करवा दी थी या कैसे इंस्पेक्टर मातादीन ने चांद पर चश्मदीद गवाह ढ़ूंढ़ निकाले थे यह समझना हो तो यह जानना बहुतै जरूरी  है कि मातादीन का बैकग्राउंड क्या था ? वे इंस्पेक्टर बने कैसे थे ?

मातादीन का जन्म ग्राम व पोस्ट डुमरी तलैया  थाना  ककेहरा जिला होनहारपुर में हुआ था.  उनका घर थाने के लगभग सामने, आम के पेड़ के पास ही था. जब मातादीन नंग धड़ंग बैखौफ आम की केरियां तोड़ने के लिये आम के पेड़ पर सरे आम पत्थर बाजी किया करते थे तभी कभी वर्दी के रौब को समझते हुये उनके बाल मन में खाकी वर्दी धारण करने की प्रेरणा का भ्रूण स्थापित हो गया था. आम के पेड़ के नीचे चबूतरा बना हुआ था, जिस पर थाने आने वाले लोगो के परिजन बैठकर धड़कते दिल से इंतजार करते थे. चबूतरे पर आम के वृक्ष के तने के सहारे हनुमान जी की एक मूर्ति टिकी हुई थी, जिस पर चढ़ाये गये प्रसाद और सिक्को पर  मातादीन और उनके बाल सखा निधड़क अपना अधिकार मानते थे .मातादीन कभी भी हनुमान जी की चढ़ौती में मिली मुद्रायें और प्रसाद अकेले न खाते थे,  हमेशा उसे अपने दोस्तो में बराबर बांटते.  इस तरह बचपन से ही मातादीन हनुमान जी पर अगाध श्रद्धा रखने लगे थे. हम समझ सकते हैं कि यही कारण रहा कि चांद पर उन्होने हर थाने के सम्मुख हनुमान जी की मूर्ति स्थापना का महान कार्य किया. घर के सामने ही थाना होने के कारण मातादीन के घर पोलिस वालों का  कुछ कुछ आना जाना बना रहता था. जैसे जैसे मातादीन युवा हुये उन्हें कुछ कुछ भान होने लगा कि अनेक प्रकरणो में बिना घटना के समय उपस्थित रहे भी कैसे उनके पिता चश्मदीद गवाह दर्ज हो जाते थे. बस यहीं से उन्हें वह महान गुर पुस्तैनी रूप से अपने खून में समाहित मिला कि वे सफलता पूर्वक चांद पर अनेक चस्मदीद गवाह ढ़ूंढ़ सके. कक्षा ११ वीं की परीक्षा ग्रेस मार्कल्स के साथ पास होते ही युवा मातादीन ने पोलिस मुहकमें में भर्ती होने की ठान ली. जहां चाह वहां राह. रोजगार समाचार के एक विज्ञापन ने मातादीन की किस्मत ही बदल दी. आरक्षक बनने की लिखित परीक्षा  श्रेय मातादीन निसंकोच अपने सामने बैठे उस अपरिचित लड़के को देते हैं जो मैदानी दौड़ में पास न हो सका था, पर बचपन की सारी आवारागर्दी, आम के पेड़ पर चढ़ना, वगैरह मातादीन के बहुत काम आया और वे मैदानी परीक्षा में भी सफल हो गये .उनकी इन सफलताओ को देख पिताजी ने माँ के कुछ गहने बेचकर उनके आरक्षक बनने की शेष अति वांछित आवश्यकतायें यथा विधि पूरी कर दी थीं. और इस तरह मातादीन आरक्षक मातादीन बन गये थे.

आरक्षक से इंस्पेक्टर बनने का उनका सफर  उनकी स्वयं की टेक्टफुलनेस, व्यवहार कुशलता, किंचित चमाचागिरी,बड़े साहब की किचन तक पहुंचने की उनकी व्यक्तिगत योग्यता तथा  बचपन से ही कभी भी हनुमान जी का प्रसाद और चढ़ौत्री अकेले न खाने की उनकी आदत का परिणाम रहा. आरक्षक मातादीन कभी भी यातायात थाने में अटैच न रहे, बीच में कुछ दिनो के लिये अवश्य उन्हें पासपोर्ट और नौकरी के लिये पोलिस वेरीफिकेशन का लूप लाइन वाला काम दिया गया था पर उसका सदुपयोग भी मातादीन ने कुछ बड़े लोगों से संबंध बनाने में कर लिया जिसका लाभ उन्हें मिला और इंस्पेक्टर के रूप में जब उनका साक्षात्कार होना था तो उन्होने इंटरव्यू बोर्ड में किसी को फोन करवाने में सफलता अर्जित की. परिणाम यह रहा कि ग्राम व पोस्ट डुमरी तलैया  थाना  ककेहरा का मातादीन यथा समय इंस्पेक्टर मातादीन बन सका और उसकी भेंट  जबलपुर कोतवाली के बाहर पान ठेले पर तत्कालीन सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई से अनायास हो सकी. जिन्होनें उन्हें अपने शब्द यान में बैठाकर तब ही चांद पर पहुंचा दिया जब नील आर्मस्ट्रांग  भारी भरकम अंतरिक्ष पोशाक में फंसे हुये डरते डरते चांद पर उतरे थे. खैर मातादीन के इंस्पेक्टर बनने की कहानी समझकर आप को मातादीन की असाधारण योग्यता, उनकी कार्यक्षमता पर संदेह कम हुआ होगा. अब जब इसरो चांद के उस हिस्से पर प्रज्ञान उतारने वाला है, जहां आजतक किसी अन्य देश का कोई चंद्रयान नहीं पहुंचा मुझे पूरा भरोसा है कि वहां हमारे प्रेरणा पुरुष परसाई जी के इंस्पेक्टर मातादीन के थानो के कोई न कोई अवशेष अवश्य मिल ही जायेंगें.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #9 – कृतज्ञता ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक भावप्रवण लघुकथा    “कृतज्ञता ”। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 9 ☆

 

☆ कृतज्ञता ☆

 

लगभग अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का।  पीछे बैग टांगे अपने सफर पर था। शायद कहीं परीक्षा देने जा रहा था। एक लंबी यात्रा पर हम भी निकले थे। बड़े स्टेशन पर ट्रेन के रूकते ही सभी अपने अपने जरूरत का सामान पानी, नाश्ता, भोजन, चाय और किताबें लेने के लिए चल पड़े। किताब की दुकान पर किताब देख ही रहे थे कि वो लड़का भी आकर ‘प्रतियोगिता  दर्पण’ देखने लगा। दुकान वाले ने जोर की डांट लगाई “फिर आ गये चलो भगो!!!!”

ट्रेन छूटने की जल्दी और उसकी मासूमियत देख हमने कहा “चलो लेकर जाओ।“ उसकी ट्रेन चलने का संदेश दे रही थी। किताब हाथ में लेकर दूसरे हाथ की  मुट्ठी  में बन्द मुड़ा तुड़ा नोट फेंका और दौड कर ट्रेन पर चढ गया।

जाते समय उसके चेहरे पर जो संतुष्टि और क्रृतज्ञता के भाव थे। शायद वह हजारों रू दान करने से भी नहीं मिल पाते।

बाद में पता चला कि रू 35 कम पड़ रहे थे उस किताब को लेने के लिए ।

एक छोटा सा सहयोग; हो सकता है उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण और उपयोगी बन गया हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #9 – सेल्फी संन्याशी  ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “सेल्फी संन्याशी ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #  9 ☆

? सेल्फी संन्याशी ?

 

खरं सांगतो, मला सेल्फी काढायला

बिल्कूल आवडात नाही

कारण… तो टिपतो

माझ्या चेहर्‍यावर आणलेले

ते खोटे खोटे भाव

आणि मुखवट्यावर थापलेला

मेकअपचा थर

माझ्या आत वाहणारे रक्ताचे झरे

रक्तमांसाची हृदयात होणारी धडधड

त्याला कधी टिपताच आली नाही

कितीही क्लोजअप घेतला तरी

भावनांचे हिंदोळे, प्रतिभांचे कंगोरे

काही काहीच दिसत नाही त्याला

मग अशा सेल्फीचा काय फायदा

नद्या, दर्‍या, सागरात,

कड्यावर उभंं राहून

आपल्या धाडसाचंं

सेल्फिसाठी प्रदर्शन मांडणार्‍या तरुणांचाही

मला खूप राग येतो

चुकून पाय घसरून खाली पडल्यास

स्वतःच्या देहाचा

आणि आई-बापाच्या स्वप्नांचा

क्षणात चुराडा होईल

याची जाण सेल्फी काढना

तरुणांना असायला हवी

नाही तर त्यांनीही माझ्या सारखं

’सेल्फी संन्याशी’ व्हायला हरकत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

२३जुलै वनसंवर्धन दिन विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  23 जुलाई  वनसंवर्धन दिवस पर विशेष आलेख “ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे । इस विशेष आलेख के लिए श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  का विशेष आभार ) 

 

☆ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे ☆

 

सध्या सगळीकडे छान पाऊस पडल्याने वातावरण कसं धुंद झालंय.आणि वृक्षारोपणाचं महत्त्व पटलेल्या आपणा सर्वांनाच कधी एकदा झाडं लावतोय असं झालं असेल नां ? अगदी मलासुद्धा !

झाडं लावणं ती जगवणं हे तर पर्यावरणच्या दृष्टीनं अत्यंत महत्वाचे व काळाची गरज आहे, त्यामुळे निसर्ग प्रेमी , शाळा महाविद्यालयातली मुलं , विविध सामाजिक संस्था , कंपन्या वृक्षारोपणासाठी अगदी हिरिरीने पुढं येतील.

झाडं ही पर्यावरणाच्या दृष्टीने फायदेशीर आहेत.कारण आज आपल्याला श्र्वास घेणं ही अवघड होऊ लागलंय.! कारण हवेतल्या आॅक्सीजनच प्रमाण घटत चाललंय अन् ते फक्त झाडं आणि झाडांचं भरुन काढू शकतात.आपण कितीही पैसे दिले तरी आॅक्सीजन विकत घेऊ शकत नाही.

पण! हा पण शब्द फार महत्त्वाचा आहे.नुकताच एक व्हीडिओ व्हायरल झालाय,त्यात सांगितलंय की निसर्गातल्या मनुष्य प्राण्यांसाठी योग्य अशीच झाडं लावणं आवश्यक आहे.

त्यासाठी पुण्याच्या Holistic  Environment Activities & Learning Foundation, Pune (www.healngo.com now non-functional.  For more information you may contact their facebook page – https://www.facebook.com/healngopune/?rc=p)

यांनी व्हीडीओ पाठवलाय.त्यात त्यांनी म्हटलंय, कोल्हापूर जवळच एक गाव उंदीर व सापांनी व्यापून गेलं. घरात साप , बाहेर साप, विषारी,बिन विषारी.या गावात एवढे साप कां यावेत, याबाबत संशोधन केले तेव्हा समजलं की तिथं चुकीचं वृक्षारोपण करण्यात आले होते.

“गिरीपुष्प “अर्थात उंदीर मारी ही झाडं गावाच्या आसपास खूप मोठ्या प्रमाणात लावण्यात आली व ती पटापट वाढली.

ह्या झाडांची फुलें प्राण्यांसाठी विषारी असतात,

त्यामुळे झाडाच्या आसपासचे उंदीर गावात घुसले व त्यामागे साप.

ही झाडं लावताना कुणालाही एवढा घातक परिणाम होईल याची कल्पना ही नव्हती.

वृक्षारोपण करताना ते कोणत्या प्रदेशात म्हणजे माळरान कि, पठार किंवा टेकडी , तसेच त्या प्रदेशात पाऊस किती पडतो, कुठल्या प्रकारची वनस्पती तेथे जगू शकेल हे पहायचं महत्त्वाचे आहे नुसती झाडं लावणं नाही असे या व्हीडीओत म्हटले आहे.त्यात असेही म्हटले आहे की, काळजीपूर्वक झाडं नि्वडली तरच प्राणी,पक्षी,कीटक व आपल्यालाही मदतीची ठरतात.

तरी शासनाच्या संबंधित विभागाने याबाबतच्या वस्तुस्थितीची सत्यासत्यता पडताळून पाहावी व त्यात तथ्य असल्यास वृक्षारोपणात सहभागी होणाऱ्यांना आवश्यक त्या सूचना तातडीने. द्याव्यात,असे मला वाटते.

तुम्हाला काय वाटते जरुर कळवा.

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

 

image_print

Please share your Post !

Shares