English Literature – Poetry – ☆ The Epic ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry “महाकाव्य ” published in today’s edition as संजय दृष्टि  – महाकाव्य  ☆ We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ The  Epic ☆

 

Your silence

My silence

Silently got prolonged,

Your one word

My one word

Created the epic altogether!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – देवउठनी एकादशी विशेष – तुलसी विवाह ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

देवउठनी एकादशी विशेष

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  देवउठनी एकादशी एवं  तुलसी विवाह  के पावन पर्व पर उनकी एक सामयिक कविता   “तुलसी विवाह”। ) 

 

☆ तुलसी विवाह

 

तुलसी विवाह की प्रथा,

युगों युगों के साथ।

मंगलमय जीवन हुआ,

है हाथों में हाथ।।

 

दिन एकादशी आज है,

शुरू हो रहा विवाह।

नवविवाहित ही करते,

जीवन  वहीं निर्वाह।

 

ग्यारस है देवउठनी ,

पावन कार्तिक माह।

जागे सारे देवता ,

रचा तुलसी विवाह।

 

डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 23 ☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ”इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 23 ☆

 

☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण 

 

खुश होना है, तो तारीफ़ सुनिए। और बेहतर होना है तो निंदा। क्योंकि लोग आपस में नहीं,आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं…यह जीवन का कटु सत्य है। मानव का स्वभाव है…अपनी तारीफ़ सुनकर प्रसन्न रहना। यदि प्रशंसा को मीठा ज़हर कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह क्षणिक सुख व आनंद तो प्रदान करता है और अंततः हमें गहन अंधकार रूपी सागर में छोड़ तमाशा देखता है। ऐसे चाटुकार लोगों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि वे कभी आपके मित्र नहीं हो सकते, न ही वे आपकी उन्नति देख कर, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। वे मुखौटाधारी मुंह देखकर तिलक करते हैं। वास्तव में वे आस्तीन के सांप, आपके सम्मुख तो आपकी प्रशंसा के पुल बांधते हैं तथा आपके पीछे भरपूर निंदा कर सुक़ून पाते हैं। आश्चर्य होता है, यह देख कर कि वे कितनी आसानी से दूसरों को मूर्ख बना लेते हैं। ऐसे लोग निंदा रस में अवगाहन कर फूले नहीं समाते, क्योंकि उन्हें भ्रम होता है अपनी विद्वत्ता, योग्यता व कार्य- क्षमता पर…परंतु वे उस स्थिति में भूल जाते हैं कि अन्य लोग आपके गुण-दोषों से वाक़िफ हैं…आपको बखूबी समझते हैं।

सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों से दूरी बना कर रखनी चाहिए। वे घातक होते हैं, आपकी उन्नति रूपी सीढ़ी को किसी पल भी खींचने का उपक्रम कर सकते हैं, अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकते हैं, आप के पथ में अवरोधक उत्पन्न कर सकते हैं, जिसे देख कर आपका हृदय विचलित हो उठता है। इसके फल- स्वरूप आपका ध्यान इन शोहदों की कारस्तानियों की ओर स्वतः केंद्रित हो जाता है। इस मन:स्थिति में आप अपना आपा खो बैठते हैं और उन्हें सबक सिखलाने के निमित्त निम्नतर स्तर पर उतर आते हैं तथा दांवपेंच लड़ाने में इतने मशग़ूल हो जाते हैं कि आपमें लक्ष्य के प्रति उदासीनता घर कर लेती है। सो! आप प्रतिपक्ष को नीचा दिखलाने के उपाय खोजने में मग्न हो जाते हैं। परंतु सफलता प्राप्त होने के पर मिलने वाली यह खुशी अस्थायी होती है और उसके परिणाम भयंकर।

‘निंदा सुनना बेहतर क्यों व कैसे होता है’…मननीय है, विचारणीय है।वास्तव में निंदक स्वार्थी न होकर परहितकारी होता है। वह नि:स्वार्थ भाव से आपके दोषों का दिग्दर्शन कराता है, आपको गलत राह पर चलने के प्रति आग़ाह करता है। वह स्वयं से अधिक आपके हित के बारे में सोचता है,चिंतन करता है। सचमुच महान् हैं वे व्यक्ति,जो संतजनों की भांति प्राणी-मात्र को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे अपना सारा ज्ञान व दर्शन परार्थ उंडेल देते हैं।शायद इसीलिए कबीर दास जी ने निंदक के स्वभाव से प्रेरित होकर अपने निकट उसकी कुटिया बना कर रहने का सुझाव दिया है। धन्य हैं, वे महापुरुष जो उम्र भर कष्ट सहन कर दूसरों का जीवन आलोकित करते हैं। परिणामत: निंदा सुनना, प्रशंसा सुनने से बेहतर है, जिसके परिणाम शुभ हैं, मंगलमय हैं।

‘लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…यह कटु सत्य है,जिससे अक्सर लोग अवगत नहीं होते।मानव निपट स्वार्थी है,जिसके कारण वह प्रतिपक्षी को अधिकाधिक हानि पहुंचाने में भी संकोच नहीं करता, बल्कि सुख व आनंद प्राप्त करता है। परंतु मूर्ख इंसान उन उपलब्धियों को कृपा-प्रसाद समझ फूला नहीं समाता..सबसे बड़ा हितैषी मानता है।वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता, कि लोग आप की स्थिति, पद व ओहदे को महत्व देते हैं, सलाम करते हैं, सम्मान करते हैं। वे भूल जाते हैं कि पद-प्रतिष्ठा, ओहदा, मान-सम्मान आदि तो रिवोल्विंग चेयर  की भांति हैं, जो उसके रुख बदलते ही पेंतरा बदल लेते हैं।’ नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ अर्थात् पदमुक्त होते ही उनका वास्तविक रूप उजागर हो जाता है।वे अब दूर से नज़रें फेर लेते हैं,जैसे वे पहचानते ही नहीं। शायद वे विश्व की सबसे शानदार प्रजाति के वाशिंदे होते हैं, जो व्यर्थ में किसी को दाना नहीं डालते, न ही किसी से संपर्क रखते हैं। बदलते परिवेश में वे उसके लिए पल भर भी नष्ट करना पसंद नहीं करते।

सो! ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में ही सबका मंगल है, क्योंकि वे किसी के हितैषी हो ही नहीं सकते।प्रश्न  उठता है कि ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे बचा जाए? सो!हमें स्वयं को आत्मकेंद्रित करना होगा। जब हम स्व में केंद्रित हो जाते हैं,तो हम किसी का चिंतन नहीं करते। उस स्थिति में हमारा सरोकार केवल उस ब्रह्म से रह जाता है,जो सृष्टि-नियंता है,अनश्वर है,निराकार है, निर्विकार है, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है… स्व-पर,राग-द्वेष व मान-सम्मान से बहुत ऊपर है, जिसे पाने के लिए मानव को अपने अंतर्मन में झांकने की आवश्यकता है।जब मानव स्व में स्थित हो जाता है, उसे किसी दूसरे के साथ-सहयोग की दरक़ार नहीं रहती, न ही उसे किसी से कोई अपेक्षा रहती है। अंत में वह उस स्थिति में पहुंच जाता है… जहां किसी को देखने की तमन्ना ही कहां महसूस होती है?’ नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं। न हौं देखौं और को,न तुझ देखन देहुं।’ कबीर दास जी आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति को सर्वोत्तम मानते हैं, जहां पहुंच कर सब तमन्नाओं व क्षुद्र वासनाओं का स्वत: अंत हो जाता है, मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाता है। यह अनहद नाद की वह स्थिति है, जहां पहुंचने के पश्चात् मानव असीम सुख अलौकिक आनंद को प्राप्त होता है।

सो!मानव को निंदा व आलोचना सुनकर हताश- निराश नहीं होना चाहिए… यह तो आत्मोन्नति का सोपान है…आत्म-प्रक्षालन का माध्यम है।यह हमें दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा,आत्मावलोकन का मार्ग दर्शाता है, जिसके द्वारा हम साक्षात्कार कर सकते हैं। निंदकों द्वारा की गई आलोचनाएं इस संदर्भ में सार्थक दायित्व का वहन करती हैं…हमारा पथ- प्रशस्त कर निर्वाण-मोक्ष प्रदान करती हैं। दूसरी ओर हमें ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए क्योंकि सुख के साथी अक्सर दु:ख में, अर्थात् स्थिति परिवर्तन होने के साथ मुंह फेर लेते हैं और दूसरा मोहरा तलाशने में रत हो जाते हैं। इतना ही नहीं,वे आगंतुक को आपकी गतिविधियों से परिचित करवा कर, उसके विश्वास- पात्र बनने के निमित्त एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। इन विषम परिस्थितियों में हमें आलोचनाओं से विचलित होकर, अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, बल्कि ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए और भविष्य में उन की परवाह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकारात्मक सोच के लोगों को ढूंढना अत्यंत कठिन होता है। परंतु जिसे जीवन में ऐसे मित्र मिल जाते हैं, उनका जीवन सार्थक हो जाता है, क्योंकि वे आपकी अनपस्थिति में भी ढाल बन कर आपकी सुरक्षा के निमित्त तैनात रहते हैं, सदैव आपका पक्ष लेते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #3 – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(विगत सफरनामा -नर्मदा यात्रा प्रथम चरण  के अंतर्गत हमने  श्री सुरेश पटवा जी की कलम से हमने  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा किया था। इस यात्रा की अगली कड़ी में हम श्री सुरेश पटवा  जी और उनके साथियों द्वारा भेजे  गए  ब्लॉग पोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। इस श्रंखला में  आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण के शुभारम्भ   पर श्री सुरेश पटवा जी का आह्वान एक टीम लीडर के अंदाज में । )  

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #3  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ 

☆ 07.11.2019 बेलखेडी से गंगई ☆
(10.5 किलोमीटर 17846 क़दम) 

बेलखेडी के मंदिर के खुले प्रांगण में रात गुज़ारी, वहाँ चार-पाँच सेवक चाय भोजन की व्यवस्था करते रहे। दाल चावल रोटी का सेवन किया। उसके बाद आठ-दस लोग प्रांगण में आकर बैठे, उनसे सनातन धर्म में दीपक की महत्ता पर चर्चा हुई कि हम रोज़ दीपक क्यों जलाते हैं। हमारी देह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के पंचभूत से अस्तित्व में आती है और आत्मा की ज्योति जीव रूप में प्रतिष्ठित होती है। दीपक पृथ्वी की मिट्टी से बनता है, उसमें तेल रूप में जल, और वायु  व आकाश के खुलेपन में अग्नि प्रज्वलित करके दीपक जलाया जाता है। इस प्रकार दीपक जीवंत देह का प्रतीक है। पंचभूत और आत्मा के सम्मान स्वरुप दीपक जलाया जाता है।

उसके बाद गांधी जी के जीवन पर बातचीत हुई लोगों को स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं और गांधी जी की भूमिका पर संवाद हुआ।

(नर्मदा यात्रा द्वितीय चरण का शुभारम्भ – प्रथम दिवस)

सुबह एक-एक गिलास दूध पीकर आठ बजे गाँव से नर्मदा की गोदी में उतर कर चल पड़े। रास्ता बड़ा कठिन था, किसानों ने खेतों को गोड़ दिया है या फ़सल बोकर स्प्रिंकलर चलने से रास्ते पर कीचड़ हो जाने से जूतों में दो-दो किलो मिट्टी चिपकने से चलना दूभर था। बड़ी मुश्किल से रुक-रुक कर चलते रहे।  क़रीबन तीन बजे धुरन्धर बाबा के आश्रम में पहुँचे। धुरन्धर बाबा बिहार से आकर नर्मदा के किनारे एक पहाड़ी पर आश्रम बनाकर रहने लगे हैं। गाँजे की पत्ती और चाय उनका भोजन है।

एक बार सरकारी आबकारी विभाग ने धुरन्धर बाबा को गाँजे के पौधे साक्ष्य स्वरुप लेकर नरसिंहपुर कलेक्टर के सामने  पेश किया। धुरन्धर बाबा ने दलील रखी कि गाँजे की पत्तियाँ मेरा भोजन है, नहीं खाऊँगा तो मर जाऊँगा और हत्या का आरोप आपके माथे पर आएगा। कलेक्टर साहब ने आबकारी अधिकारी को धुरन्धर बाबा की पेशकारी पर डाँट पिलाई। उस दिन के बाद धुरन्धर बाबा निर्विघ्न गाँजे की खेती करके पत्तियों को भोजन और चाय सेवन से ज़िंदा हैं। उनके बाल दस फ़ुट लम्बे हैं, बाबा का कहना है की  जिन लड़कियों या औरतों को केश की लम्बाई बढ़ानी है वे गाँजे की पत्तियों का नियमित सेवन करें। बाबा मज़बूत पाए के काऊच पर आसन जमाए रहते हैं, गाँजा रगड़ते और बाँटते हैं उनके पास आठ-दस कुत्ते पले हैं जिनको भी गाँजे के धुएँ और पत्तियों के सेवन की आदत पड़ गई है।

(नर्मदा यात्रा द्वितीय चरण का शुभारम्भ – दूसरा दिवस)

पहले हमारा सामना उनके एक धूर्त सेवक से हुआ, जो खींसे निपोरकर  किसी भी बात का मुंडी हिलाकर जबाव देता था। पहले बोला आश्रम में दाल-चावल भर हैं। रात में केवल दाल-चावल खाने से रात में बार-बार पेशाब  से नींद टूटती है और अच्छी नींद  नहीं होने से शरीर टूटने लगता है जबकि हमें रोज़ दस किलोमीटर चलना होता है। हम गाँव से आलू, भटे और टमाटर ख़रीद लाए तो वह बोला आपही बना लो, जब धुरन्धर बाबा को पता चला तो उन्होंने स्वयं सब्ज़ी और हमारी आठ चपाती के बराबर एक 10-12 mm मोटाई का टिक्क बनाकर परसा जिसे मुश्किल से खपा पाए।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 – संजीवनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “संजीवनी।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 ☆

 

☆ संजीवनी

 

रावण ने उत्तर दिया, “एक राक्षस है जो यह कर सकता है और वह है मेरा चाचा कालनेमि (अर्थ : काल का अर्थ है समय और नेमि का अर्थ नियम है, इसलिए कालनेमि का अर्थ हुआ काल का शासक या जो काल या समय के नियमों को बदल सकता है)

रावण स्वयं ही कालनेमि के महल की ओर गया, और पहुँचने के बाद, उसने कालनेमि से कहा, “चाचा कालनेमि, आप बहुत विशेष प्रकार के राक्षस हैं। समय के नियम आपको बांध नहीं सकते हैं। आप समय से परे जाने के लिए अपने नियम स्वयं बना सकते हैं। आप वायुमंडल की समानांतर परतों के बीच उड़ान भर सकते हैं। आप दूर स्थानों पर खुद को परिवहन कर सकते हैं । संक्षेप में, आप समय को पूर्ण रूप से नियंत्रण कर सकते है क्योंकि आपके नाम ‘कालनेमि’ का अर्थ ही है वह जो अपने लिए समय के अलग नियम बना सके? आज लंका को आपकी सहायता की आवश्यकता है। आप जानते हैं कि हमने आज तक आपको परेशान नहीं किया है, और अब हमारे और राम के बीच युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण चरण में है । लंका के लगभग सभी योद्धा मर चुके हैं, और अब केवल मेघनाथ और मैं ही जीवित हैं । मेघनाथ ने राम के भाई लक्ष्मण को मार दिया है। लेकिन उस दोषपूर्ण विभीषण और सुषेण वैद्य ने हनुमान को कुछ सुझाव दिया है जो लक्ष्मण के जीवन को बचा सकता है और वापस ला सकता है। हनुमान पहले ही सुषेण वैद्य द्वारा बतायी हुई जड़ी बूटी लेने के लिए हिमालय की ओर कूच कर चूका है। समय के नियमों को बदलने के लिए विशेष गुणों के कारण आप हनुमान से तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं। तो यह हमारा आदेश है आप सूर्योदय तक वहीं कहीं हनुमान को रोक कर रखें। आपको उसके साथ लड़ने की आवश्यकता नहीं है। आपको बस उसे कुछ समय के लिए रोकना होगा”

कालनेमि ने उत्तर दिया, “हवा के प्रवाह अर्थात हनुमान को कौन रोक सकता है? लेकिन मैं विभीषण की तरह आपको और लंका को धोखा नहीं दे सकता, मैं जाऊँगा और हनुमान को रोकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूँगा”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 21 ☆ लघुकथा – छोटा सा घर ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  की एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद लघुकथा  “छोटा सा घर ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 21 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ लघुकथा – छोटा सा घर

स्वाति जब शादी करके गई तब सब लोग किराए के मकान में रहते थे। बस हर महीने किराए की तारीख आती वहीं चर्चा उखड़ती जाने कब होगा हमारा छोटा सा घर ।मां बाबू तो कहते बेटा अब सब तुम पर ही निर्भर है हम लोगों की जिंदगी तो कट गई किराए के मकान में।

यही सब स्वाति देख रही थी मन ही मन सोच रही थी  कि मैं ही इन सबके सपने पूरा करूंगी तभी मुझे सुकून मिलेगा। स्वाति सोच रही थी लेकिन  कैसे पूरा करूं अभी मुझे यहां आए कुछ ही महीने हुए हैं। स्वाति की लिखने पढ़ने में रुचि थी। तभी घर पर राजस जी आए उनकी बाते सुनकर स्वाति को लगा इनकी साहित्य में रुचि है। लेकिन वो केवल चाय नाश्ता रखकर चली गई मन ही मन सोचने लगी इनसे बात करने का मौका लगे तो कुछ परामर्श मिल जाए। स्वाति की इच्छा जैसे पूरी होते नजर आईं वो बाबू के गांव के थे उनका ट्रांसफर हुआ था घर तलाश रहे थे उनको भी बाबू ने हमारे ही ऊपर  वाला घर दिलवा दिया। अंततोगत्वा मौका मिल ही गया। और उनकी मदद से स्वाति पत्र पत्रिकाओं में लिखने लगी। साथ ही कई संग्रह भी आ गए और तो और एक उपन्यास पर एक बड़े पुरस्कार की घोषणा हुई और उसे राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिल गया जिसमें 3 लाख की धनराशि मिली। इसके साथ ही स्वाति को प्रायमरी स्कूल में टीचिंग भी मिल गई  उसे ऐसा लगा जैसे सब एक साथ होने के लिए ही रुका था। उसने सोचा अब सभी  के मन की इच्छा पूरी करेंगे। स्वाति ने अपने पति से परामर्श किया और कुछ रकम जमा की और कुछ लोन  लेकर “छोटा सा घर” खरीद लिया। मां बाबू को जब ग्रह प्रवेश करना था तभी सरप्राइज दिया। उनकी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। स्वाति ने बताया इस मुकाम तक पहुंचने में दादा राजस  जी की अहम भूमिका है आज इनके सहयोग से ही हमने सपने बुने और आप सब के “छोटा सा घर” के सपने को पूरा किया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 10 ☆ चलो प्रकृति की ओर चलें ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण रचना  “चलो प्रकृति की ओर चलें ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 10 ☆

☆  चलो प्रकृति की ओर चलें ☆

 

चलो प्रकृति की ओर चलें ।
गाँव-गली की ओर चलें ।।
खुशियों की तस्वीर वहाँ ।
चाहत की जागीर जहाँ ।।
सुषमा खूब बटोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
हो अनुभूति जहाँ पावन।
दिव्य प्रेम का अपनापन।।
वंदन-नमन निहोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
बहती ताजी जहाँ हवा ।
सेहत की प्राकृतिक दवा ।।
बंधन तोड़-मरोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
मधुर पंछियों का कलरव ।
होते हैं रुचिकर उत्सव ।।
हर्षित भाव विभोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
सोंधी माटी की संपति।
रिद्धि-सिद्धि,पूजा पद्धति।।
शीतल सुरभि-झकोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
पर्यावरण जहाँ रक्षित।
मन ‘संतोष’ बदन पुलकित।।
अंतस् प्रेम-हिलोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
गाँव-गली की खोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆ मी वाट…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “मी वाट…..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆

 

☆ मी वाट…..!!

 

मी वाट आहे
थांबत नाही कधी
संपत ही नाही कधी
मी वाट आहे…

 

कुणाची ही वाट
पाहत नाही कधी
अनंतापर्यंत जाणारी
मी वाट आहे…

 

काट्याकुट्यातून जाणारी
फुला मनातून जाणारी
मोक्ष मिळवून देणारी
मी वाट आहे….

 

मला वाट नाही दिली
तरी वाट करून जाणारी
स्वतःची वाट स्वतः शोधणारी
मी वाट आहे……

 

मी मुकलेल्यांना आणि
मी चुकलेल्यांना पण
वाट दाखवणारी
मी वाट आहे…

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 13 ☆ अमृत महोत्सव विशेष – वाढदिवसाची सप्तपदी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

अमृत महोत्सव विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  वाढदिवसाची सप्तपदी  जो उन्होंने  अपने इकसाठवें जन्मदिवस पर लिखी थी ।  

श्रीमती उर्मिला जी को  आज उनके 75 वें  जन्मदिवस  8-11-2019 ( अमृत महोत्सव ) पर हम सबकी ओर से  हार्दिक शुभकामनाएं। 

इस वय में भी  समय के साथ सजग रह कर सीखने की लालसा रखने वाली श्रीमती उर्मिला जी हमारी प्रेरणा स्त्रोत हैं।  वे

सदैव स्वस्थ रहें, शताधिक वर्षों तक हम सबका ऐसे ही उत्साहवर्धन करती रहें ऐसी ईश्वर से कामना है। 

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 13 ☆

 

☆ वाढदिवसाची सप्तपदी ☆

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

आयुष्यातल्या नव्या उगवत्या भास्कराच्या

प्रफुल्ल तेजाने ओजाने

प्रकाशमान होण्यासाठी !!१!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

सायंकाळचे सूर्यास्ताचे

विहंगम दृश्य पाहून मन

प्रसन्नचित्त होण्यासाठी !!२!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

चंद्रप्रकाशात पुसट होत

जाणाऱ्या गतायुष्यातील

स्मृतींना उजाळा देण्यासाठी!!३!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

पतिपत्नींमधील रुसवे फुगवे जाऊन

त्यांच्यातील अनुबंध अधिक दृढ होण्यासाठी !!४!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

मित्रमैत्रिणींच्या मेळाव्यात

अन् स्नेहीजनांच्या समुदायात

स्वत:ला अगदी हरवून जाण्यासाठी !!५!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

निरांजनातील वातीप्रमाणे

स्वजनांसाठी व सर्वांसाठी

शांत वृत्तीने तेवत रहाण्यासाठी !!६!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

चैतन्य चक्रवर्ती परमेश्र्वराच्या कृपेने

बोनस आयुष्य लाभले म्हणून

त्याचे ऋणाईत होण्यासाठी !

ऋणाईत होण्यासाठी !!

ऋणाईत होण्यासाठी !!!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक: 8-11-2019

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ।।13।।

 

यह सारा संसार है तीन गुणों से युक्त

मै अविनाशी किन्तु नित उनसे परम विमुक्त।।13।।

 

भावार्थ :  गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता।।13।।

 

Deluded by these Natures (states or things) composed of the three qualities of Nature, all this world does not know Me as distinct from them and immutable.  ।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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