डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ”. इस महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) .
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 23 ☆
☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ☆
खुश होना है, तो तारीफ़ सुनिए। और बेहतर होना है तो निंदा। क्योंकि लोग आपस में नहीं,आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं…यह जीवन का कटु सत्य है। मानव का स्वभाव है…अपनी तारीफ़ सुनकर प्रसन्न रहना। यदि प्रशंसा को मीठा ज़हर कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह क्षणिक सुख व आनंद तो प्रदान करता है और अंततः हमें गहन अंधकार रूपी सागर में छोड़ तमाशा देखता है। ऐसे चाटुकार लोगों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि वे कभी आपके मित्र नहीं हो सकते, न ही वे आपकी उन्नति देख कर, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। वे मुखौटाधारी मुंह देखकर तिलक करते हैं। वास्तव में वे आस्तीन के सांप, आपके सम्मुख तो आपकी प्रशंसा के पुल बांधते हैं तथा आपके पीछे भरपूर निंदा कर सुक़ून पाते हैं। आश्चर्य होता है, यह देख कर कि वे कितनी आसानी से दूसरों को मूर्ख बना लेते हैं। ऐसे लोग निंदा रस में अवगाहन कर फूले नहीं समाते, क्योंकि उन्हें भ्रम होता है अपनी विद्वत्ता, योग्यता व कार्य- क्षमता पर…परंतु वे उस स्थिति में भूल जाते हैं कि अन्य लोग आपके गुण-दोषों से वाक़िफ हैं…आपको बखूबी समझते हैं।
सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों से दूरी बना कर रखनी चाहिए। वे घातक होते हैं, आपकी उन्नति रूपी सीढ़ी को किसी पल भी खींचने का उपक्रम कर सकते हैं, अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकते हैं, आप के पथ में अवरोधक उत्पन्न कर सकते हैं, जिसे देख कर आपका हृदय विचलित हो उठता है। इसके फल- स्वरूप आपका ध्यान इन शोहदों की कारस्तानियों की ओर स्वतः केंद्रित हो जाता है। इस मन:स्थिति में आप अपना आपा खो बैठते हैं और उन्हें सबक सिखलाने के निमित्त निम्नतर स्तर पर उतर आते हैं तथा दांवपेंच लड़ाने में इतने मशग़ूल हो जाते हैं कि आपमें लक्ष्य के प्रति उदासीनता घर कर लेती है। सो! आप प्रतिपक्ष को नीचा दिखलाने के उपाय खोजने में मग्न हो जाते हैं। परंतु सफलता प्राप्त होने के पर मिलने वाली यह खुशी अस्थायी होती है और उसके परिणाम भयंकर।
‘निंदा सुनना बेहतर क्यों व कैसे होता है’…मननीय है, विचारणीय है।वास्तव में निंदक स्वार्थी न होकर परहितकारी होता है। वह नि:स्वार्थ भाव से आपके दोषों का दिग्दर्शन कराता है, आपको गलत राह पर चलने के प्रति आग़ाह करता है। वह स्वयं से अधिक आपके हित के बारे में सोचता है,चिंतन करता है। सचमुच महान् हैं वे व्यक्ति,जो संतजनों की भांति प्राणी-मात्र को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे अपना सारा ज्ञान व दर्शन परार्थ उंडेल देते हैं।शायद इसीलिए कबीर दास जी ने निंदक के स्वभाव से प्रेरित होकर अपने निकट उसकी कुटिया बना कर रहने का सुझाव दिया है। धन्य हैं, वे महापुरुष जो उम्र भर कष्ट सहन कर दूसरों का जीवन आलोकित करते हैं। परिणामत: निंदा सुनना, प्रशंसा सुनने से बेहतर है, जिसके परिणाम शुभ हैं, मंगलमय हैं।
‘लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…यह कटु सत्य है,जिससे अक्सर लोग अवगत नहीं होते।मानव निपट स्वार्थी है,जिसके कारण वह प्रतिपक्षी को अधिकाधिक हानि पहुंचाने में भी संकोच नहीं करता, बल्कि सुख व आनंद प्राप्त करता है। परंतु मूर्ख इंसान उन उपलब्धियों को कृपा-प्रसाद समझ फूला नहीं समाता..सबसे बड़ा हितैषी मानता है।वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता, कि लोग आप की स्थिति, पद व ओहदे को महत्व देते हैं, सलाम करते हैं, सम्मान करते हैं। वे भूल जाते हैं कि पद-प्रतिष्ठा, ओहदा, मान-सम्मान आदि तो रिवोल्विंग चेयर की भांति हैं, जो उसके रुख बदलते ही पेंतरा बदल लेते हैं।’ नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ अर्थात् पदमुक्त होते ही उनका वास्तविक रूप उजागर हो जाता है।वे अब दूर से नज़रें फेर लेते हैं,जैसे वे पहचानते ही नहीं। शायद वे विश्व की सबसे शानदार प्रजाति के वाशिंदे होते हैं, जो व्यर्थ में किसी को दाना नहीं डालते, न ही किसी से संपर्क रखते हैं। बदलते परिवेश में वे उसके लिए पल भर भी नष्ट करना पसंद नहीं करते।
सो! ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में ही सबका मंगल है, क्योंकि वे किसी के हितैषी हो ही नहीं सकते।प्रश्न उठता है कि ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे बचा जाए? सो!हमें स्वयं को आत्मकेंद्रित करना होगा। जब हम स्व में केंद्रित हो जाते हैं,तो हम किसी का चिंतन नहीं करते। उस स्थिति में हमारा सरोकार केवल उस ब्रह्म से रह जाता है,जो सृष्टि-नियंता है,अनश्वर है,निराकार है, निर्विकार है, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है… स्व-पर,राग-द्वेष व मान-सम्मान से बहुत ऊपर है, जिसे पाने के लिए मानव को अपने अंतर्मन में झांकने की आवश्यकता है।जब मानव स्व में स्थित हो जाता है, उसे किसी दूसरे के साथ-सहयोग की दरक़ार नहीं रहती, न ही उसे किसी से कोई अपेक्षा रहती है। अंत में वह उस स्थिति में पहुंच जाता है… जहां किसी को देखने की तमन्ना ही कहां महसूस होती है?’ नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं। न हौं देखौं और को,न तुझ देखन देहुं।’ कबीर दास जी आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति को सर्वोत्तम मानते हैं, जहां पहुंच कर सब तमन्नाओं व क्षुद्र वासनाओं का स्वत: अंत हो जाता है, मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाता है। यह अनहद नाद की वह स्थिति है, जहां पहुंचने के पश्चात् मानव असीम सुख अलौकिक आनंद को प्राप्त होता है।
सो!मानव को निंदा व आलोचना सुनकर हताश- निराश नहीं होना चाहिए… यह तो आत्मोन्नति का सोपान है…आत्म-प्रक्षालन का माध्यम है।यह हमें दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा,आत्मावलोकन का मार्ग दर्शाता है, जिसके द्वारा हम साक्षात्कार कर सकते हैं। निंदकों द्वारा की गई आलोचनाएं इस संदर्भ में सार्थक दायित्व का वहन करती हैं…हमारा पथ- प्रशस्त कर निर्वाण-मोक्ष प्रदान करती हैं। दूसरी ओर हमें ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए क्योंकि सुख के साथी अक्सर दु:ख में, अर्थात् स्थिति परिवर्तन होने के साथ मुंह फेर लेते हैं और दूसरा मोहरा तलाशने में रत हो जाते हैं। इतना ही नहीं,वे आगंतुक को आपकी गतिविधियों से परिचित करवा कर, उसके विश्वास- पात्र बनने के निमित्त एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। इन विषम परिस्थितियों में हमें आलोचनाओं से विचलित होकर, अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, बल्कि ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए और भविष्य में उन की परवाह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकारात्मक सोच के लोगों को ढूंढना अत्यंत कठिन होता है। परंतु जिसे जीवन में ऐसे मित्र मिल जाते हैं, उनका जीवन सार्थक हो जाता है, क्योंकि वे आपकी अनपस्थिति में भी ढाल बन कर आपकी सुरक्षा के निमित्त तैनात रहते हैं, सदैव आपका पक्ष लेते हैं।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878