हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 4. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  4.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चारवाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद भय, प्राणरक्षा और सत्तालिप्सा के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति श्रावण मास में कई मुस्लिमों से शिव जी का जलाभिषेक कराती है। अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। गैर हिंदू घरों की अनेक महिलाएँ पारिवारिक समस्याओं के निदान के लिए हिंदू तीज त्यौहार प्रत्यक्ष या छिपे तरीके से मनाती हैं और मंत्र, श्लोक, सूक्त का पाठ करती हैं। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी मिशनरियों के इसी एजेंडा का शिकार हुआ। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…….5

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(विगत सफरनामा -नर्मदा यात्रा प्रथम चरण  के अंतर्गत हमने  श्री सुरेश पटवा जी की कलम से हमने  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा किया था। इस यात्रा की अगली कड़ी में हम श्री सुरेश पटवा  जी और उनके साथियों द्वारा भेजे  गए  ब्लॉग पोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। इस श्रंखला में  आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण के शुभारम्भ   पर श्री सुरेश पटवा जी का आह्वान एक टीम लीडर के अंदाज में ।  साथ ही आज के ही अंक में पढ़िए श्री अरुण डनायक  जी का भी आह्वान  उनके अपने ही अंदाज में । )  

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ 

(झाँसी घाट से बरमान घाट (86 किलोमीटर))
नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर डिंडोरी-मंडला से आगे बढ़कर पहाड़ों को छोड़कर दो पर्वत शृंखलाओं दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में कैमोर से आते विंध्य के पहाड़ों के समानांतर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी बनाकर अरब सागर की तरफ़ कहीं उछलती-कूदती, कहीं गांभीर्यता लिए हुए, कहीं पसर के और कहीं-कहीं सिकुड़ कर बहती है। उसके अलौकिक सौंदर्य और उसके किनारे स्निग्ध जीवन के स्पंदन की अनुभूति के लिए पैदल यात्रा पर निकलना भाग्यशाली को नसीब होता है।
यह यात्रा वानप्रस्थ के द्वारा सभ्रांत मोह से मुक्ति का अभ्यास भी है। जिस नश्वर संसार को एक दिन अचानक छोड़ना है । क्यों न उस मोह को धीरे-धीरे प्रकृति के बीच छोड़ना सीख लें और नर्मदा के तटों पर बिखरे अद्भुत जीवन सौंदर्य का अवलोकन भी करें।
एक जींस या पैंट के साथ फ़ुल बाहों की शर्ट पहन कर चलें। एक पेंट और तीन-चार शर्ट, एक जोड़ी पजामा कुर्ता, एक शाल, एक चादर टोवेल और अंडरवेयर, साबुन तेल के अलावा कोई अन्य सामान न रखें। बैग पीछे टाँगने वाला हल्का हो।
वैसे तो आश्रम और धर्मशालाओं में भोजन की व्यवस्था हो  जाती है फिर भी रास्ते में ज़रूरत के लिए समुचित मात्रा में खजूर, भूनी मूँगफली, भुना चना और ड्राई फ़्रूट रखें। पानी की बोतल और एक स्टील लोटा के साथ एक छोटा चाक़ू भी रखें। कहीं कुछ न मिले तो परिक्रमा वासियों का मूलमंत्र  “करतल भिक्षु-तरुतल वास” भी आज़माना जीवन का एक विलक्षण अनुभव होगा।
06.11.19  – झाँसी घाट-बेलखेडी-करैली (6 km)
07.11.19  – करैली-मूंगरघाट-ब्रह्म कुण्ड  (8 km)
08.11.19  – ब्रह्म कुण्ड-साँकल घाट      (7 km)
09.11.19   – साँकल घाट-पिपरिया        (9 km)
10.11.19    – पिपरिया-चींकी-पीपहा      (11 km)
11.11.19  – पीपहा-सप्तधारा-बरमान     (11 km)
12.11.19  – आराम
14.11.19  – बरमान-ढाना-भटेरा        (8 km)
15.11.19  – भटेरा-शोकलपुर           (10 km)
16.11.19  – शोकलपुर-खैराघाट         (9 km)
17.11.19  – खैराघाट-साँडिया           (7 km)
                            कुल यात्रा            (86 km)
 

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆ – अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण के शुभारम्भ   पर  प्रस्तुत है  श्री अरुण डनायक  जी का नर्मदा यात्रा के आह्वान का आनंद लें उनके अपने ही अंदाज में । ) 

 

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री अरुण डनायक  जी की कलम से ☆ 

(झाँसी घाट से बरमान घाट (86 किलोमीटर))

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण  – श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से ☆

प्रिय जगमोहन लाल,

जोग लिखी ग्रीन हाइट्स भोपाल से अरुण कुमार ने, और पहले कही राम राम, सो ध्यान से बांचना, थोड़ी लिखी बहुत समझना और घरवालों तथा दोस्तों को भी पढने देना। सुना है नर्मदा की परकम्मा में फिर से जा रहे हो, सो ऐसा करना कि 06.11.2019 दिन बुधवार को सुबह सबेरे सोमनाथ एक्सप्रेस में बैरागढ़ से बोगी नंबर चार  बर्थ नंबर सात पर बैठ जाना। आगे हबीबगंज में तीन  और साथी मिलेंगे तो उन्हें भी अपने बगल में प्रेम से बिठाना और वे आपको एक गत्ता के डिब्बा में 10 पूरी और आलू की सब्जी देंगे सो इसका कलेवा और ब्यारी कर लेना। वे लोग आपको एक बांस का डंडा भी देंगे सो उसे भी रख लेना। आगे दुपहरी में श्रीधाम स्टेशन में उतर कर भैया टेम्पो कर झांसीघाट पहुँच जाना और नर्मदा मैया की  अगरबती पूजाकर, नारियल फोड़ यात्रा शुरू कर देना।

 भैया, नरसिंहपुर जिले में नर्मदाजी की इस यात्रा में आपको  तीन सहायक नदियाँ मिलेंगी, सनेर से तो आप झांसीघाट से पहले ही मिल चुके हो, आगे चलोगे तो शेर नदी मिलेगी यहाँ टोन घाट पर छोटा सा जलप्रपात मिलेगा , इसे देखकर आगे बढना शोकलपुर के पास शक्कर नदी का संगम  नर्मदा से होगा। यहाँ  भगवान शिव ने तपस्या की थी और इसका पुराना नाम शुक्लेश्वर घाट है, पूर्वी तट पर देखोगे तो नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन होंगे। यह स्थान प्रसिद्ध है पूर्णिमा का मेला भरता है और संस्कृत पाठशाला में रुकने  ठहरने की व्यवस्था है। जब नर्मदा में दूधी नदी मिलेगी तो समझना की नरसिंहपुर जिले की सीमा खतम और होशंगाबाद जिला शुरू।

अगरवालजी, पूरी यात्रा में आपको नर्मदा तट पर कोई सत्रह बड़े सुन्दर घाट मिलेंगे। मुआर तट पर भैसासुर का वध हुआ था तो चिनकी घाट पर नर्मदा संगमरमर की चट्टानों के बीच बहती है इसे लघु भेडाघाट भी कहते हैं, यहाँ पांच सौ साल पुराने शिव मंदिर के दर्शन करना न भूलना। आगे चलोगे तो गरारु घाट मिलेगा जहाँ गरुणदेव ने तपस्या की थी, राम जानकी मंदिर के दर्शन कर आगे बढना, करहिया घाट पर बरगद का पेढ़ देखकर घाट पिपरिया की ओर चले जाना, वहाँ शंकरजी के मंदिर की परिक्रमा किये बगैर आगे न जाना। फिर चट्टानों के बीच बहती, शोर मचाती नर्मदा के दर्शन तुम घुघरी घाट और बुध घाट पर करना और  सांकल घाट पहुंचना। मित्र, सांकल घाट की महिमा बहुत है, कहते हैं की आदि शंकराचार्य ने यहीँ तपस्या की थी। अगर मकर संक्रान्ति पर आते यहाँ तो गँवई गाँव के मेले का सुख पाते। सांकल घाट के आगे ब्रह्मकुंड है, देवासुर संग्राम का साक्षी। यहीँ शेर नदी और सतधारा मिलेगी जिसे पार करते ही आप बरमान पहुँच जाओगे। ब्रह्मा के यज्ञ स्थल, बरमान की शान निराली है।  यहाँ प्रेम से मीठे भुट्टे खाना और गन्ना चूसना। यहीँ पर आपकी भेंट हमारे फुफेरे भाई अविनाश दवे से होगी। भईया, अविनाश दवे से  हमारी राम राम कहना और बताना कि कभी उनके पुरखा गंगादत्त महेश्वर दवे तथा ननिहाल पक्ष के सोमदत्त शिवदत्त डनायक गुजरात के खेड़ा और उमरेठ से कोई तीन सौ साल पहले नर्मदा के तीरे तीरे चलकर बरमान से सागर होते हुए पन्ना बसने गये थे। मित्र न जाने वे किस घाट पर बैठे होंगेकहां  स्नान ध्यान और पूजन किया होगा। तुम्हें अगर कोई पंडा मिले तो उसकी पुरानी बहियों को जरुर खंगालना और हमारे  इन पुरखों का नाम जरूर खोजना। दोस्त, अगर संभव हो तो बरमान घाट की किसी कुटिया में हमारे इन पुरखों की स्मृति में दो चार पौधे लगाने अविनाश दवे को प्रेरित करना।  बरमान घाट पर बारहवीं सदी की वाराह मूर्ति, रानी दुर्गावती का बनवाया हुआ ताज महल की आकृति जैसा मंदिर, सत्रहवीं सदी का राम जानकी मंदिर, हाथी दरवाजा, खजुराहो जैसा सोमेश्वर मंदिर है, यह सब देखना न भूलना। मित्र, बरमान में एकाध दिन जरूर रुकना फिर आगे चलना तो बिल्थारी घाट पड़ेगा जहाँ बाली की राजधानी थी और महाभारत काल में पांडव यहीँ रुके थे। आगे बचई गाँव मिलेगा कहते हैं यह राजा विराट की नगरी थी इधर एक मानवाकार शिला दिखेगी जिसे लोग कीचक शिला भी कहते हैं।ककराघाट भी कम भाग्यशाली नहीं है, शिवानन्द की तपस्थली पर आप पारद शिवलिंग के दर्शन करना, फिर ककरा महराज की तपस्या के किस्से सुनना। कोई सज्जन आपको यह भी बताएगा कि यहीँ तिमार ऋषि ने जलसमाधि ली थी तो आगे रिछावर घाट पर जामवंत ने तपस्या की थी। यहाँ से कीटखेडा होते हुए रामघाट पहुंचना लोग बताते हैं कि यहीँ भगवान राम ने तप किया था। इधर शिव मंदिर और हनुमान मंदिर के दर्शन करना मत भूलना। भैया राम घाट के आगे ही शोकलपुर है जिसका बखान हमने ऊपर कर ही दिया है।

मित्र , बरमान घाट में कोई गवैया मिल जाए तो उससे बबुलिया गीत जरुर सुनना। नर्मदा मैया की श्रद्धा में  गाये जाने वाले इस गीत की महिमा निराली है और 1300 किमी की नर्मदा परिक्रमा में यह भजन गीत आपको यहीँ सुनने-सुनाने मिलेगा।

किसी ने हमें बताया कि गाडरवाड़ा के पास मोहपानी है। इधर एक गुफा , अंग्रेजों के जमाने का पुल और रानी दहार देखने लायक है। गाडरवाड़ा स्टेशन से कोई चौदह किमी दूर चौरागढ़ का किला है। इस किले से दुर्गावती के पुत्र वीर नारायण की वीरता के किस्से जुढ़े हैं और यहीँ किले के निकट नौनियाँ गाँव  में छह विशालकाय मूर्तियाँ देखने मिलेंगी। गाडरवाड़ा स्टेशन से कोई पांच किमी दूर डमरू घाटी है जहाँ भगवान् शिव की विशाल मूर्ती है।

दोस्त जब झाँसीघाट से चलोगे तो पहला विश्राम झालोन घाट पर करना और रात्रि बेलखेडी में रुकना। अगली रात मुआर के मंदिर में ठौर मिलेगी तो आगे जमुनियां गाँव के बाद सांकल पडेगा उधर रात में रुक जाना। आगे आप बढोगे तो पिपरिया और चिनकी में भी रात रुकने मिलेगी फिर बरमान में तो आनंद बरसने वाला है। बरमान से जब आप आगे चलोगे तो ज़रा संभलकर चलना। इधर पगडंडी सकरी और फिसलन भरी है ज़रा सी लापरवाही से नदी में गिरने का डर रहता है। आगे बारिया गावं पडेगा वहाँ रात बिता कर दूसरे दिन भदेरा के लिए चल देना। बस एक रात रुके तो शोकलपुर आ जाएगा। शोकलपुर में संस्कृत पाठशाला है जहा रात प्रेम से बिताना। शोकलपुर से जब आप चलोगे तो सांडिया पडेगा यहीँ अंजनी  नदी नर्मदा से मिलती दिखेगी।

मित्र, भोजन पानी की तो तुम चिंता न करना। नरसिंहपुर जिला तो कृषि और दुग्ध  प्रधान है और फिर कार्तिक का महीना  शुरू हो गया है सो दही से परहेज करना, बुंदेलखंड में लोकोक्ति है कि “क्वार करेला कार्तिक दही मरहो नई तो परहो सई”। अब तो खेतों में भटा, टमाटर, मिर्ची की फसल आ गई होगी और गुड़ घी तो खूब मिलेगा सो बढ़िया गक्कड, भरता घी गुड़ के साथ खाना और सीताफल, बेर, मुकईया और आँवला के साथ गन्ने को चूसना। नर्मदा मैया न तो तुम्हे भूखा रहने देंगी और न कष्ट में रहने देंगी। मित्र जब कभी  थक जाओ तो नर्मदा  तट के किनारे की रेत को  मैया का  आँचल समझ प्रेम सो जाना।    

दोस्त थोड़े में लिखा है इसे पढ़कर  सुरेश पहलवान और मुंशीलाल जी को जरूर सुनाना। अगर प्रयास जोशी कहीं मिल जायँ तो उन्हें भी यह चिट्ठी पढने को दे देना शायद वह भी साथ चलने को तैयार हो जाएँ।

अंत में  भईया नर्मदे हर ! हर हर नर्मदे ! 

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 19– यात्रा वृत्तांत – विकास की राह में आदर्श ग्राम योजना के वेदनामय स्वर ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  एक यात्रा वृत्तांत “विकास की राह में आदर्श ग्राम योजना के वेदनामय स्वर” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 19☆

 

☆ यात्रा वृत्तांत –  विकास की राह में आदर्श ग्राम योजना के वेदनामय स्वर  

 

प्रधान मंत्री ने लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर 11 अक्टूबर 2014 को “आदर्श ग्राम योजना” लांच की थी इस मकसद के साथ कि सांसदों द्वारा गोद लिया गांव 11 अक्टूबर 2016 तक सर्वांगीण विकास के साथ दुनिया को आदर्श ग्राम के रूप में नजर आयेगा परन्तु कई जानकारों ने इस योजना पर सवाल उठाते हुए इसकी कामयाबी को लेकर संदेह भी जताया था जो आज सच लगता है। गांव की सूरत देखकर योजना के क्रियान्वयन पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री का मकसद इस योजना के जरिए देश के छह लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना है जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी है।

प्रधानमंत्री की अभिनव आदर्श ग्राम योजना में अधिकांश ग्रामों को गोद लिए पांच साल से ज्यादा गुजर गये है पर कहीं कुछ पुख्ता नहीं दिख रहा है।  ये भी सच है कि दिल्ली से चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के प्रधान के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं। एक पिछड़े आदिवासी अंचल के गांव की सरपंच हल्की बाई बैगा घूंघट की आड़ में कुछ पूछने पर इशारे करती हुई शर्माती है तो झट सरपंच पति मनीराम बैगा एक टोला में पानी की विकट किल्लत की बात करने लगता है – इसी टोला में नल नहीं लगे हैं, हैंडपंप नहीं खुदे और न ही बिजली पहुंची। आदर्श ग्राम योजना के बारे में किसी को कुछ नहीं मालुम…… ।

क्या है आदर्श ग्राम योजना? 

आदर्श ग्राम योजना के तहत गांव के विकास में वैयक्तिक, मानव, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलनी चाहिए। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना और दांत साफ करने की आदतों की सीख, मानव विकास के तहत बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, लिंगानुपात संतुलन, स्मार्ट स्कूल परिकल्पना, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हॉस्टल, हेल्थ कार्ड आदि आते हैं।

आंखन देखी –  

मध्यप्रदेश के सुदूर प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच आदिवासी जिला के एक बैगा बाहुल्य गांव  के पड़ोस से कल – कल बहती पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी भरी पहाडि़यों से घिरा यह गांव एक पर्यटन स्थल की तरह महसूस होता है परन्तु गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी गांव में इस कदर पसरी है कि उसका कलम से बखान नहीं किया जा सकता है। करीब 1400 की आबादी वाले इस गाँव में 80% गरीब बैगा परिवार रहते हैं। साक्षरता का प्रतिशत बहुत कमजोर और चिंतनीय है इस गाँव की बैगा बस्ती दिन के उजाले में भी सायं – सायं करती नजर आती है।

क्या कहते हैं ग्रामवासी ?  

प्रधानमंत्री की इस योजना में गांव के लोगों को कहा गया है कि वे अपने सांसद से संवाद करें। योजना के माध्यम से लोगों में विकास का वातावरण पैदा हो, इसके लिए सरकारी तंत्र और विशेष कर सांसद समन्वय स्थापित करें, इस बात पर सरपंच पति मनी बैगा बताते हैं कि सांसद बेचारे बहुत व्यस्त रहते हैं और प्रधानमंत्री ज्यादा उम्मीद करते हैं बेचारे सांसद साल डेढ़ साल तक ऐसे गांव नहीं पहुंच पाते तो इसमें सांसदों का दोष नहीं हैं उनके भी तो लड़का बच्चा हैं। बैगा बाहुल्य गांव में घर में शराब बनाने की छूट रहती है और महुआ की शराब एवं पेज पीकर वे अपना जीवन यापन करते हैं पर गांव भर के लोगों को सरकार की मंशा के अनुसार नशा नहीं करने की शपथ दिलाई गई है। गांव के झोलटी बैगा  बताते हैं कि जनधन खाता गांव से 45 किमी दूर के बैंक में खुला है गांव से करीब 20-25 किमी के आसपास कोई बैंक या कियोस्क नहीं है। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा में 12-12 रुपये दो बार जमा किया कोई रसीद वगैरह नहीं मिली। बैंक ऋण के सवाल पर झोलटी बैगा ने बताया कि एक बार लोन से कोई कंपनी 5000 रुपये का बकरा लोन से दे गई ब्याज सहित पूरे पैसे वसूल कर लिए और बकरा भी मर गया, गांव भर के कुल नौ गरीबों को एक एक बकरा दिया गया था, बकरी नहीं दी गई। सब बकरे कुछ दिन बाद मर गए।।

तुलसीराम बैगा पांचवीं फेल हैं कोई रोजगार के लिए प्रशिक्षण नहीं मिला मेहनत मजदूरी करके एक टाइम का पेट भर पाते हैं, चेंज की भाजी में आम की अमकरिया डालके “पेज “पी जाते हैं। सड़क के सवाल पर तुलसी बैगा ने बताया कि गांव के मुख्य गली में सड़क जैसी बन गई है कभी कभार सोलर लाइट भी चौरस्ते में जलती दिखती है। कभी-कभी पानी भी नल से आ जाता है पर नलों में टोंटी नहीं है।

दूसरी पास फगनू बैगा जानवर चराने जंगल ले जाते हैं खेतों में जुताई करके पेट पालते हैं जब बीमार पड़ते हैं तो नर्मदा मैया के भजन करके ठीक हो जाते हैं।

पढाई – लिखाई के हालचाल – 

प्रायमरी, मिडिल और हाईस्कूल की दर्ज संख्या के अनुसार स्कूल में शिक्षकों का भीषण अभाव है “स्कूल चलें हम” सन्तोषजनक नहीं है। पहली से दसवीं तक के अधिकांश बच्चे जंगल और नर्मदा नदी के इस पार और उस पार से कई मील चलकर आते हैं कई गांव के बच्चे जान जोखिम में डाल कर नाव से स्कूल पढ़ने आते हैं बरसात में नहीं भी आते। यातायात के साधन न के बराबर हैं अधिकांश बच्चे बैगा जाति के हैं बच्चों से बातचीत से पता चला कि वे बड़े होकर देश की रक्षा करेंगे।

वित्तीय समावेशन – 

रिजर्व बैंक एवं भारत सरकार के निर्देश हैं कि हर व्यक्ति को पांच किलोमीटर के दायरे में बैंकिंग सुविधाएं मिलनी चाहिए परन्तु इस गाँव में 45 किमी दूर बैंक है एवं 20 किमी के दायरे में कियोस्क बैंक सुविधाएं उपलब्ध होने में संदेह लगता है।

योजनाओं की बिलखती दास्तान – 

सरपंच पति ने बताया कि गांव में 50-60% के लगभग जनधन खाते खुल पाए हैं सुरक्षा बीमा के हाल बेहाल हैं। उज्जवला योजना में गरीब दो चार महिलाओं को मुफ्त एल पी जी कनेक्शन मिले हो सकते हैं पर सभी गरीबी रेखा की महिलाएं हर महीने सिलेंडर खरीदने 800 रुपये कहाँ से पाएंगी ? फसल बीमा के बारे में गांव में किसी को जानकारी नहीं है। कुछ शौचालय बने हैं पर खुले में शौच लोग जाते रहते हैं।

डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखाता गांव में दूर दूर तक किसी भी प्रकार की दूरसंचार सेवाएं उपलब्ध नहीं है 15-20 किमी के दायरे में मोबाइल के संकेत नहीं मिलते, गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक खास पेड़ में चढ़ने से मोबाइल के लहराते संकेत मिलते हैं कलेक्टर के कहने पर गांव में एक दिन स्वास्थ्य विभाग का एक स्टाफ कभी कभार आ जाता है। कुपोषण की आदत गांव के संस्कारों में रहती है देर से ही सही पर अब गांव के विकास में प्रशासन अपनी रुचि दिखाने जैसा कुछ कर रहा है। पर यह भी सच है कि गांधी के सपनों का गांव बनाने के लिए पारदर्शिता सच्ची जवाबदेही और ईमानदार कोशिश की जरूरत होगी।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #22 – भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 22 ☆

 

☆ भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई 

 

नये नये विकास मंत्री विकास के गुर सीखने  अमेरिका गये, स्वाभाविक था कि वहां के विकास मंत्री ने उनका स्वागत सत्कार किया,मंत्री जी ने उनसे कहा कि वे उन्हें विकास के गुर सिखा दें, उन्होंने अमेरिकन मंत्री को आश्वस्त किया कि जो भी वे सिखायेंगे, उसे शत प्रतिशत तरीके से क्रियान्वित करके दिखायेंगे. अमेरिकन मंत्री  आग्रह पूर्वक उन्हें अपने घर ले गये,नदी के तट पर बने उनके शानदार बंगले की  शानशौकत देखकर  मंत्री जी ने इस सबका राज जानना चाहा, तो अमेरिकन मंत्री  उन्हें नदी की ओर खुलने वाली खिड़की की तरफ ले गये, खिड़की से बाहर नदी दिखाते हुये उन्होंने पूछा , वह पुल देख रहे हैं ? जबाब मिला जी हाँ ! तो अमेरिकन मंत्री जी ने शानदार बंगले का राज बताया बस २ प्रतिशत एडजस्टमेंट.

कोई दो बरस बाद अमेरिकन मंत्री भारत यात्रा पर आये इस बार हमारे मंत्री जी उन्हें अपनी कोठी पर ले गये, कोठी की लाजबाब रौनक देखकर अमेरिकन मंत्री जी ने इसका राज पूछा, तो हमारे मंत्री जी ने यमुना के तट पर बनी अपनी कोठी की यमुना की ओर खुलने वाली खिड़की खोली, पूछा वह पुल देख रहे हैं ? अमेरिकन मंत्री जी ने आंखें मली, चश्मा साफ किया, पर फिर भी जब उन्हें कुछ नही दिखा तो उन्होंने कहा कि पुल तो कहीं नही दिख रहा है ! मंत्री जी ने मुस्करा कर जबाब देते हुये कोठी का राज बताया १०० प्रतिशत एडजस्टमेंट…

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार शायद इस चुटकुले से स्पष्ट हो.

भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक बड़े विशेष अंदाज में कहते हैं अरे, काम हम तुम कहां करते हैं ? सारा काम तो गांधी जी ही करवाते हैं, उनका आशय नोट पर मुद्रित गांधी जी की तस्वीर से होता है.

१८० देशो के बीच ट्रास्परेसी इंटरनेशनल ने जो रैंकिग की है उसके अनुसार भारत को १० में से ३.४ अंक देते हुये भ्रष्टाचार में ८४ वें स्थान पर रखा गया है  ..सेवानिवृत  केंद्रीय विजिलेंस कमिश्नर प्रत्यूश सिंहा ने कहा है कि लगभग ३० प्रतिशत भारतीय भ्रष्ट हैं, किंतु  आज भी  २० प्रतिशत लोग भ्रष्टाचार से मुक्त हैं. शेष ५० प्रतिशत अधबीच में हैं.

राजीव गांधी ने कहा था कि विकास हेतु केंद्र से दिया गया मात्र १५ प्रतिशत धन ही वास्तविक विकास कार्यों में लग पाता है शेष भ्रष्ट राजनैतिज्ञों, अफसरशाही , पत्रकारों, ठेकेदारो, व भ्रष्ट व्यवस्था में गुम हो जाता है.स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी ” भ्रष्टाचार को स्वीकार करते हुये कहा था ” घी कहां गया खिचड़ी में “.

अनेक विदेशी कंपनियां भारत में उद्योग खोलने आती हैं पर हमारी राजनैतिक भ्रष्ट व्यवस्था, तथा ब्युरोक्रेसी, मल्टिपल विंडो चैकिंग उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाती हैं कि वे अपने साजो सामान समेट कर भाग खड़ी होती हैं. महाराष्ट्र की दाभौल नेप्था विद्युत उत्पादन परियोजना सहित अनेक विदेशी कंपनियो व निवेशको का यही हश्र हुआ है. सैनिक साजो सामान की खरीदी में विदेशी कंपनियों से लेनदेन के अनेक प्रकरण सुर्खियों में रहे हैं.

आज बढ़ती आबादी और भ्रष्टाचार,दोनों ही तो देश की सबसे बड़ी समस्यायें हैं. हमेशा से ही समाज किसी न किसी के डर से ही नियम कायदो का परिपालन करता रहा है तुलसीदास ने लिखा भी है ” भय बिन होई न प्रीति “.  एक समय था जब लोग “उपर पहुंचकर परमात्मा को मुंह दिखाना है” इस तरह ईश्वर के डर से,  या राजा के कठोर दण्ड के डर से, या समाज से निकाल दिये जाने के डर से, या सत्य की राह पर चलते हुये स्वयं अपने आप से डरकर नियमानुसार काम करते थे, पर अब जितनी ज्यादा नैतिक शिक्षा पढ़ाई जा रही है नैतिकता का उतना ही ह्रास हो रहा है.धर्म अब लड़ने मारने और सामूहिक प्रतिष्ठा का विषय बन चुका है. राजा का डर रहा नही, लोग जान गये हैं कि कम या ज्यादा कीमत हो सकती है पर वर्तमान भौतिकवादी संग्रह के युग में शासन का हर प्रतिनिधि  बिकाऊ है, स्वयं अपने आप से अब आदमी डरता नही है वह वर्तमान का भौतिक सुख भोगना चाहता है, उसे मरकर अल्लाताला के कब्र  खोलने तक का इंतजार मंजूर नही है.

जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी पाठशाला हमारे पुलिसथाने, पटवारी से प्रारंभ  विभिन्न सरकारी कार्यालय  हैं.हमारे टूरिस्ट विदेशी भाईयों के लिये दर्शनीय स्थानो की सिक्यूरटी, उनकी यात्रा के दौरान, उनके रुकने, खाने पीने की व्यवस्थाओ के स्थानो के प्रभारी, विदेशियों की खरीददारी के दौरान उन्हें लूट लेने के अंदाज में बैठे हमारे शाप कीपर्स आदि सभी शार्ट कट का थोड़ा थोड़ा पाठ सिखा कर भ्रष्ट व्यवस्था और “सब चलता है” की शिक्षा उन्हें दे ही देते हैं.   उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार राजधानियों में मंत्रालयों, सचिवालयों, विभाग प्रमुखों जैसे सफेद झक लोगों द्वारा वातानुकूलित कमरों में खादी के पर्दो के भीतर होता है.इस तरह खाकी और खादी की वर्दी वाले भ्रष्टाचार की द्विस्तरीय शालाओ के शिक्षक हैं. अब हमारे विदेशी मेहमानो को यदि भ्रष्टाचार का क्रैश  कोर्स कराना हो उन्हें इन दफ्तरों का कोई  काम एक निश्चित समय सीमा के साथ सौंप दिया जावे, यदि वे काम करके आ जाते हैं तो समझ लें कि वे भ्रष्टाचार के क्रैश कोर्स में उत्तीर्ण हैं. क्योंकि इन कार्यालयों से काम निकालने का और कोई तरीका अब तक खोजा नही जा सका है.

इन दुरूह सामाजिक स्थितियो में जब सबने भ्र्ष्टाचार के सम्मुख घुटने टेक दिये हैं, युवा ही  रोशनी की किरण हैं. देश हित में हमें यह लड़ाई जीतनी ही होगी.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 21 – स्त्री जन्म  ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  स्त्री जन्म  और उससे  जुडी हुई विसंगतियों पर आधारित एक भावप्रवण कविता  – “स्त्री जन्म । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 22☆ 

 

 ☆ स्त्री जन्म  ☆

 

लाभलासे स्त्री जन्म हा

लेक तुझी मी भाग्याची।

दोन्ही कुळं उद्धरीन

जाण मनी तव कार्याची।

 

शिक्षण रुपी रसाचे

करीन नित्य  मंथन।

स्वत्व लेणे उजळीन

करून मनी चिंतन।

 

आदर्श संसार जणू

वान घेतले सतीचे।

कर्तृत्वाने मिरवीन

नाव माझिया पतीचे।

 

काम क्रोध लोभ सारे

जसे मायावी हरिण।

सद्बुद्धी हात हाती

अखंडीत मी धरीन ।

 

मद मोह मत्सराने

खीळ तुटते नात्याची।

पाजता ग प्रेमामृत

बाधा टळली वैऱ्यांची।

 

सत्कर्माच्या वृंदावनी

दारी लाविते तुळस।

उद्योगाचे घाली पाणी

नित्य सोडून आळस।

 

स्त्री जन्माच्या कळसाला

असे त्यागाचा आधार।

उमगता संसाराचे

होई स्वप्न हे साकार।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।9।।

 

पृथ्वी की शुभ गंध हूँ, तेज सूर्य का जान

तपस्वियों की तपस्या ,सकल विश्व का प्राण।।9।।

 

भावार्थ :  मैं पृथ्वी में पवित्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप तन्मात्राओं का ग्रहण है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए उनके साथ पवित्र शब्द जोड़ा गया है।) गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।।9।।

 

I am the sweet fragrance in earth and the brilliance in fire, the life in all beings; and I am  austerity in ascetics.।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 22 – व्यंग्य – शोधछात्र का ज्ञानोदय ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने  एक ऐसे शोध छात्र  के  चरित्र का विश्लेषण किया है जो अपने गाइड  का झोला थामे आपके आस पास ही भरे बाजार मिल  जायेगा।  झोला मात्र  सांकेतिक वस्तु है  और इस  संकेत के पीछे भी एक दुनिया है। हम कुछ बिरले शोध छात्र  एवं गाइड को इस श्रेणी में नहीं रखते  किन्तु, समाज में यह छवि ऐसे ही नहीं बन पड़ी है।  फिर डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “शोधछात्र का ज्ञानोदय ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 22 ☆

 

☆ व्यंग्य  – शोधछात्र का ज्ञानोदय  ☆

 

पता नहीं कहाँ से पूछता-पाछता वह मेरे घर आया।पुराने संस्कारों का युवक दिखता था। मैला सा कुर्ता-पायजामा, बढ़ी हुई दाढ़ी, और चेहरे पर ईमानदारी और सादगी का भाव।बैठकर भक्तिभाव से कहने लगा, ‘सर, मैं शोध करना चाहता हूँ। आपकी विद्वत्ता की बहुत प्रशंसा सुनी इसलिए आपके पास चला आया। मुझे अपने निर्देशन में ले लीजिए। आपकी कृपा से मेरा कल्याण हो जाएगा।’

मैं अभिभूत हो गया। सोचा, अभी भी विद्वत्ता के कद्रदाँ हैं; अभी भी ऐसे शोध छात्र हैं जो नाम के पीछे नहीं जाते, काम देखते हैं। मैंने उसका शोध विषय देखा, ‘सिनाप्सिस’ बनवायी और विषय पर विस्तार से चर्चा की। शोध की विधि और सम्बन्धित पुस्तकों के बारे में खूब चर्चा हुई।

उसने मेरे निर्देशन में पंजीकृत होने के लिए आवेदनपत्र विश्वविद्यालय में भेज दिया। फिर वह लगभग रोज़ ही मेरे पास आने लगा। हम सिर से सिर जोड़कर घन्टों चर्चा करते।वह रोज़ कुछ न कुछ लिखकर लाता और मुझे दिखाता। कभी कोई  पुस्तक लेकर आ जाता और शंका निवारण करता। हमारा काम तेज़ी से चल रहा था। वह बीच बीच में अभिभूत होकर मेरी तरफ हाथ जोड़ देता, कहता, ‘वाह सर, क्या ज्ञान है आपका! मुझे विश्वास है, आपके सहारे मेरी नैया पार हो जाएगी।’ मेरा सिर भी तब आकाश में था।

लगभग एक माह बाद मुझे लगा, मेरा शिष्य कुछ अन्यमनस्क रहता है। एक दिन मुझसे पूछने लगा, ‘क्यों सर! क्या केवल काम के बल पर डिग्री मिल जाती है?’ मैंने उसे पूरी तरह आश्वस्त किया, लेकिन मुझे लगा कहीं कोई गड़बड़ी है।

दो चार दिन बाद वह फिर पूछने लगा, ‘सर, सुना है जो विभागाध्यक्ष होते हैं उनके निर्देशन में काम करने से सफलता प्राप्त करने में आसानी होती है क्योंकि उनके नाम का प्रभाव होता है।’  मैंने उसे फिर काफी समझाया लेकिन अब मेरी आवाज़ कमज़ोर पड़ रही थी। मेरी हालत कुछ उस दुकानदार की सी हो रही थी जिसका ग्राहक बार बार बगल वाली दुकान के चटकीले माल पर नज़र डाल रहा हो।

कुछ दिन बाद मेरा छात्र गायब हो गया। मैं समझ गया कि उसका ज्ञानोदय हो गया। फिर एक दिन वह मेरे पास आया। हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, क्षमा करें। लोगों ने मुझे समझाया है कि एक साधारण व्याख्याता के निर्देशन में शोध करने से मेरी लुटिया डूब जाएगी। कहते हैं, विभागाध्यक्ष का पल्ला थामो तभी वैतरणी पार होगी। मुझे क्षमा करें सर, मैं मुटुरकर साहब को अपना निर्देशक बना रहा हूँ।’ यह कहकर अपने सब पोथी-पत्रा समेटकर वह चला गया और मैं ग़ुबार देखता बैठा रह गया।

कुछ दिन बाद वह मेरा भूतपूर्व शोध छात्र मुझसे बाज़ार में टकराया। आगे आगे श्री मुटुरकर चल रहे थे और पीछे पीछे वह एक हाथ में थैला और दूसरे में मुटुरकर जी के छोटे पुत्र की अंगुली थामे चल रहा था। मैंने देखा उसके चेहरे से आत्मज्ञान की आभा फूट रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ ईकॉनोसेव मोड में खातून-ए-अव्वल ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ईकॉनोसेव मोड में खातून-ए-अव्वल।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ ईकॉनोसेव मोड में खातून-ए-अव्वल ☆☆

 

वाह इमरान भाई ! हमने अखबार में पढ़ा है कि हमारी नई भाभीजान बुशरा बीबी का अक्स आईने में उभरता नहीं है. कसम से भाईजान जिसकी बीवी अपने आप को आईने में निहार न सके उसका क्या तो कपड़ों पे खर्चा और क्या लाली-पौडर पे. ऐसे खाविंद का घर खर्च तो रूपये में चार आने सेई चल जाता होगा. उपर से ऐसी बीवी के पास घर के काम करने के लिये कित्ता तो समय बचता होगा!! हमें पक्का यकीन है जब आप भाभीजान के साथ अमेरिका के लिये निकले होंगे तो तैयार होने में दस मिनिट से ज्यादा तो क्या लगे होंगे. अपन के इधर तो पार्टी में बैरागढ़ जाना हो तो तिरेपन मिनिट तो येई डिसाईड करने में लग जाते हैं कि साड़ी पहननी कौनसी है ? वार्डरोब में हेंगर पर टंगी हर साड़ी अपने दूसरी बार पहने जाने की अंतहीन प्रतीक्षा में है और ख़वातीन तय नहीं कर पा रही, क्या पहनूँ ? वर्कवाली कि कॉटन, चँदेरी कि पोचमपल्ली, टसर सिल्क कि कोटा चेक, भारी वर्कवाली कि बार्डर पर सिम्पल डिझाईन भी चलेगी. अनिवार्य शर्त ये जनाब कि साड़ी रिपीट नहीं होना चाहिये. दस बीस साड़ियाँ कंधे पर लटका लटका के आईने में देखना पड़ता है भाईजान. परमाणु बम फोड़ने का डिसिजन लेना आसान है, बनिस्बत ‘साड़ी कौन सी पहनूँ?’  के.

साड़ी सिलेक्ट हो जाये तब भी बेचारे आईने को आराम कहाँ. वो ही तो है जो बताता चलता है कि चेहरे पर गुलाबी फ़ाउंडेशन थोड़ा ज्यादा हो गया है, आप प्राईमर से क्लीन करके पिंक में हल्का गोल्डन मिक्स करके फिर से लगाईये. चिक-बोन्स पर हल्का सा ब्लशर लगा लीजिये. लिपस्टिक बरगंडी कलर में फबेगी. आई-लाईनर करीने से यूज करें. इतना भी नहीं,  थिक हो गया है रामसे बंधु की फिल्मों की हिरोईन की तरह. थोड़ा नॉर्मल कीजिये. बेसिकली, ये गेस्ट की ज़िम्मेदारी है कि होस्ट के बच्चे डरें नहीं. एनिवे, चलिये आपने थोड़ा ठीक कर लिया मगर ये क्या साड़ी मेजेंटा और आई शैडो ग्रीन! कुछ जम नहीं रहा. बदलिये इसे. इस बीच खाविंद को जूते के फीते बांधे हुये बीस मिनिट हो गये हैं. कोई बात नहीं – वे तो इसके ‘यूज्ड टू’ हैं. आई शैडो बदलने का मन नहीं है इसलिए उन्होने साड़ी दूसरे कलर की निकाल ली है. फिर से पैंतालीस मिनिट लगेंगे, आठ मिनिट साड़ी लपेटने के, तेरह मिनिट पल्लू ठीक करके कॉलर बोन के पास सेफ़्टी पिन लगाने के, बीस मिनिट पटलियां जमाने के, चार मिनिट पटलियों पर साड़ी पिन लगाने के.

और खाविंद ! ‘दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है’. एफएम पर पंकज उधास को सुन रहा है कार में, स्टेयरिंग बैठा स्टार्ट करने की तैयारी में, तीन बार सामने के काँच पे कपड़ा लगा चुका. वो तो बॉस के घर पार्टी में जाना जरूरी है जनाब वरना ‘हम भी पागल हो जाएँगे’ वाली लाईन अब तक सच हो गई होती. आप नसीबवाले हो इमरान भाई, बुशरा भाभीजान से निकाह पढ़वाकर रोज़ रोज़ बाल नुचवाने से बच गये हो.

अब ख़वातीन चलने को ही है कि आईने ने फिर टोक दिया है – मेम साब, इयर रिंग्स और नेकलेस तो छूट ही गया. ओह माय गॉड ! ये भी ना इतनी हाय हाय मचा देते हैं कि मैं भूल ही जाती हूँ. (ज़ोर से) बोला ना – ‘आ रही हूँ अभी’. और नेकलेस भी क्या – समझ लीजिये कि नया नवलखा हार भी थोड़े दिन मेई जूना पड़ जाता है. इसी कारवांचौथ पे तुड़वाकर नया बनवाया है, जित्ते का गोल्ड है उससे ज्यादा तो मेकिंग चार्ज लग चुका. सोने से घड़ावन महंगी. बुशरा भाभीजान के साथ आसानी है – आईने में निहारना तो दूर झाँकने तक का भी टेंशन नहीं है. बस एक सफ़ेद बुर्का सर से पैर तक डाला और ‘रेडी टू गो’.

वैसे सच बताना भाईजान खातून-ए-अव्वल का भी मन तो करता होगा पंद्रह डिग्री से एक सौ पैंतीस डिग्री तक अलग अलग कोण से ट्विस्ट होकर आईने में अपने आप को निहारने का. जी करता होगा – दरवज्जा थोड़ा सा ठेल कर कैट वॉक करके देखा जाये. सरहद के इस पार तो हर घर में एक ड्रेसिंग टेबल है, उसमें एक आदमकद शीशा है, शीशे में मिनिमम सत्ताईस मिनिट निहारती एक बेटर हॉफ है, और उसे ताकते,  खीजते, खिसियाते, एक कप चाय के लिए ट्रायल सेशन खत्म होने का इंतेज़ार करते उनके खाविंद हैं. आईना थक जाता है भाईजान, खवातीनें थकतीं नहीं. परेशान हलकान आईने ख़वातीन को कभी मीना कुमारी कभी मधुबाला, कभी श्रीदेवी तो कभी कियारा आडवाणी होने का यकीन दिलाते-दिलाते हाँफ जाते हेंगे, कसम से. और भाईजान, जो ख़वातीनें कभी ललिता पँवार तक का मुकाबिला नहीं कर पाईं, आईना उनको प्रियंका चोपड़ा होने का यकीन दिला देता है. ये आईना ही है जो हर ख़वातीन को हर रोज़ एक लोकल मैट-गाला के लिये सज-संवर जाने का कांफिडेंस देता है.

इमरान भाई, आपके मुल्क में खातून-ए-अव्वल को लोग पीरनी मानते हैं, रूहानी ताकतवाली ऐसी महिला जो किसी का नसीब बदल सकती हैं. आपसे गुजारिश है भाईजान कि वे बस इतना कर दें कि अपन के इधर की खवातीनों के अक्स आईने में दिखना बंद हो जायेँ. सरहद के इस पार ईकॉनोसेव मोड में चलनेवाली बीवी की हसरत में लाईफ गुजर जाती है मगर कामियाबी मिलती नहीं, आपको मिली है तो हमारी मुबारकबाद कुबूल करें.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

इस लेख की पठनीयता में किसी प्रकार का प्रतिरोध न हो इस दृष्टि से आप इस सप्ताह के “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच” अगले रविवार से पूर्ववत पढ़ सकेंगे।  

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  3.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।

बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।

लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षत काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।

पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।

क्रमशः…….4

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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