हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 7 – विशाखा की नज़र से ☆ रंगरेज़ ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना रंगरेज़ अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 7 – विशाखा की नज़र से

 

☆ रंगरेज़ ☆

 

तुम बन गए हो ,

मेरी यादों में पपड़ी के परत से

बन गई हूँ मैं रंगरेज़,

रंगती हूँ, यादों को

मनचाहे रंग से ।

 

ढकती हूँ तुम्हे हर बार,

कुरेदकर गहरे रंग से

कि मेरे जीवन का हल्का रंग,

न शामिल हो,

तेरे गहरे रंग में ।

 

कल, आज और कल को,

मैंने रंगा है सुनहरे रंग से

तुम थे शामिल,

उथले कभी गहरे नीले रंग से ।

 

लगी मोर के पंख सी

मेरी यादें,

इन सारे रंगों से

 

सजा लिया इसे कभी,

अपने मुकुट पर

या रच दिया “मेघदूतम”

बन कालिदास यादों के पंख से

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #26 – ☆ घर की घरघर…☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी घर की घरघर…  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  सुश्री आरुशी  जी  ने बिलकुल सत्य कहा है। प्रत्येक व्यक्ति का स्वप्न होता है अपने स्वयं के घर का।  सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रवीण दवणे जी के कथन सहसा सत्तर अस्सी के दशक के और शायद वर्तमान  में भी  घर की  चार दीवारों  के भीतर  की एक एक वस्तुओं से हमारी आत्मीयता को दर्शाते हैं।  यहाँ तक कि मन में चल रहे  किसी भी तरह के द्वंद्व (घर घर ) का समाधान भी घर पर ही आकर मिल पाता है। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #26 ☆

 

☆ घर की घरघर…  ☆

 

अत्यंत जिव्हाळ्याचा विषय. आयुष्यभर कष्ट करायचे आणि आपलं स्वतःच घर बांधायचं, असं प्रत्येकच स्वप्न असतं. पण घर म्हणजे नीसत्य चार भिंती नाहीत हेही विसरून चालत नाही. हे सांगत असताना प्रवीण दवणे म्हणतात, आपली घरातील बारीकसारीक गोष्टीशी आपले केवढे भावतंतू जडलेले असतात, ते घर दूर गेल्याशिवाय काळात नाही. त्या तंतूंना ताण बसल्याशिवाय घराची ऊब कळतच नाही. अगदी नेहमी झोपायची जागा, जवळची भिंत, नेहमीची अभ्र हरवलेली, उजव्या कोपऱ्याला कापूस बाहेर पडता पडता सावरणारी उशी – या सर्वांशी आपलं केवढं गहनगूढ नातं असतं.

ते असंही म्हणतात की, आपल्या घरात आपण किती मोकळे असतो. हवं ते हवं तितकं गुणगुणतो. मोठ्याने गडगडून हसतो. राग आल्यावर न आवरता चिडतो. हट्टी होतो, रुसतो. केव्हा प्राजक्ताचा बहर होऊन देठादेठात बहरतो.

या सगळ्या मनमोकळ्या अभिव्यक्तीला जिथं आवराव लागतं, ते घर उसन्या दागिन्यांसारखं वाटतं.

अशाच अनेक अनुभूतींना आपलंसं करता येतं ते घर आपलं असतं, आणि आपणच त्याला आपलंसं करायचं असतं, एकाने पसरलं तर दुसऱ्याने आवरायचं, सावरायचं असतं. मनातली घरघर घरात आलं की दूर होते, हे नक्की, आणि ह्याला पर्याय नाही…

 

© आरुशी दाते, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।8।।

 

जल में रस, शशि सूर्य में प्रभा,वेद ओंकार

हूँ नभ में , मैं शब्द नर में पौरूष आधार।।8।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।8।।

 

I am the sapidity in water, O Arjuna! I am the light in the moon and the sun; I am the syllable Om in all the Vedas, sound in ether, and virility in men.।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 2. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  2.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।

लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है।  इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,

‘प्रकृति पंचभूतानि ग्रहा लोका: स्वरास्तथा/ दिश: कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।’

एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं।  लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव  में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।

इसी अनुक्रम में एक और परंपरा देखें। बरात जिस गाँव में जाती, दूल्हे के पिता के पास इस गाँव में ससुराल कर चुकी अपने गाँव की ब्याहताओं की सूची होती। ये लड़कियाँ किसी भी जाति या धर्म की हों, दूल्हे का पिता हरेक के घर एक रुपया और यथाशक्ति ‘लावणा’ (मंगलकार्यों में दी जानी वाली मिठाई) लेकर जाता। लड़की प्रतीक्षा करती कि उसके गाँव से   से कोई ताऊ जी, काका जी, बाबा जी आये हैं। मायके से (यहाँ गाँव ही मायका है) किसीका आना, ब्याहता को जिस आनंद से भर देता है, वह किसी से छुपा नहीं है। मंगलकार्यों (और अशुभ प्रसंगों में भी) बहु-बेटियों को मान देने का यह अमृत, लोक-परम्परा को चिरंजीव कर देता है। विष को गले में रोककर नीलकंठ महादेव कालातीत हैं, लोक की नीलकंठी परम्परा भी महादेव की अनुचर है।

वस्तुत: लोक में किसी के लिए दुत्कार नहीं है, अपितु सभी के लिए सत्कार है। जाति प्रथा का अस्तित्व होने पर भी सभी जातियों के साथ आने पर ही ब्याह-शादी, उत्सव-त्यौहार संपन्न हो सकते थे। महाराष्ट्र में 12 बलूतेदार परंपरा रही। कृषक समाज के केंद्र में था। उसके बाद बलूतेदारों का क्रम था। बलूतेदार को ‘कारू’ या कार्यकारी अर्थात जिनके सहारे काम चलता हो, भी माना गया। इनमें कुंभार (कुम्हार), कोळी (कोली या मछुआरा), गुरव, चांभार(चर्मकार), मातंग, तेली, न्हावी ( नाभिक), भट, परीट, महार, लोहार ( लुहार), सुतार को प्रमुखता से स्थान दिया गया। क्षेत्रवार इनमें न्यूनाधिक अंतर भी मिलता है। 12 बलूतेदारों के साथ 18 नारू अर्थात जिनकी आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, का उल्लेख भी है। इनमें कलावंत, कोरव, गोंधळी, गोसावी, घडसी, ठाकर, डवरया, तराळ, तांबोली, तेली, भट, माली, जंगम, वाजंत्री. शिंपी, सनगर, साळी, खटीक, मुलाणा का संदर्भ सामान्यत: मिलता है। इनके सिवा बनजारा और अन्यान्य घुमंतू जनजातियों और उपरोक्त उल्लेख में छूट गई सभी जातियों का योगदान रहा है।

जैसाकि कहा जा चुका है, समाज के केंद्र में किसान था। कोई माने न माने पर शरीर के केंद्र में जैसे पेट था, है और रहेगा, वैसे ही खेती सदा जीवन के केंद्र में रहेगी। किसान के सिवा कारू और नारू की आवश्यकता पड़ती थी। भारतीय समाज को विभाजन रेखा खींचकर देखनेवाली आँखें, अपने रेटीना के इलाज की गुहार करती हैं।  सत्य कहा जाये तो ग्राम्य जीवन लोक को पढ़ने, समझने और अपनी समझ को मथने का श्रेष्ठ उदाहरण है।

क्रमशः…….3

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता / ग़ज़ल ☆ वजूद ☆ – डाॅ मंजु जारोलिया

डाॅ मंजु जारोलिया

 

(संस्कारधानी जबलपुर से सुप्रसिद्ध लेखिका  डाॅ मंजु जारोलिया जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्य साधना में लीन हैं एवं आपकी रचनाएँ विभिन्न स्तरीय पात्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आशा है हम भविष्य में आपकी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करते रहेंगे।)   

 

 ☆ वजूद ☆

 

अपने हयात से रूसवा कर दो,

अपने ख्वाबों से तुम रिहा कर दो

तेरी बातों में मेरा ज़िक्र नहीं

अपनी बातों से तुम ख़फा कर दो

 

तूने सौदा मेरा किया था कभी

मेरे नुकसान का नफ़ा कर दो

मुझको तुने जो बेवफ़ा था कहा

अपने जुमले में तुम वफ़ा कर दो

 

तेरी फ़ितरत ही कुछ ऐसी है

मेरे रकीबों पे जफ़ा कर दो

गज़ल में तेरी मिरा वजूद नहीं

अपने ख्यालों से तुम दफ़ा कर दो

 

©  डाॅ मंजु जारोलिया
बी-24, कचनार सिटी, जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – लघुकथा – ☆ आगे क्या होगा ? ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “आगे क्या होगा ? ”.)

 

☆ लघुकथा – आगे क्या होगा ?

 

सुषमा ने बहू को अपने  लड़के के साथ हाथ में हाथ दिये बाहर जाते देखा तो वह बड़बड़ाई – ‘ बहु को देखो कैसे सलवार सूट में मटकती हुई जा रही है । आजकल तो सिर पर पल्ला लेने का रिवाज ही नहीं है । हमारे समय में तो सिर से जरा सा पल्ला खिसकने पर हमारी सास हमें काफी खरी खोटी सुना देती थी । ‘

सुरेश  ने अपनी पत्नी को बड़बड़ाते हुए सुना तो वह बोले – ” अरी भागवान , क्यों अपना खून जला रही हो । अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा , जमाना बदल गया है और बदलते जमाने के साथ हमें भी बदलना होगा इसी में हमारी भलाई है । ”

रामेश्वरी नें कुछ सोचते हुए कहा – ” आज की बहुएं सलवार सूट और जींस टाप पहन रही हैं। जब ये 25 -30 वर्ष बाद सास बनेंगी , तब इनकी बहुएं क्या पहनेंगी ?

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 – आघात ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “आघात।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 ☆

 

☆ आघात

 

भगवान राम ने गरुड़ को वरदान दिया कि “आपने मेरी जिंदगी बचाई है, और आज से लोग जो अपने रिश्तेदारों और दोस्तों की मृत्यु होने के बाद डरते और उदास अनुभव करते है, मृत्यु के विषय में गुप्त ज्ञान सुनने के बाद निडर और शाँत अनुभव करेंगे और आज से इस ज्ञान को ‘गरुड़ पुराण’ के नाम से जाना जायेगा जो जीवों को भौतिक दुनिया से दिव्य दुनिया तक ले जायेगा”

भगवान राम को प्रणाम करने के बाद गरुड़ वैकुण्ठ वापस चले गए। तब भगवान हनुमान ने सभी को बताया कि नागपाश से भगवान राम और लक्ष्मण को बचाने के लिए भगवान गरुड़ को बुलाने के लिए यह सुझाव जाम्बवन्त जी ने दिया था।

सुग्रीव ने भगवान राम से पूछा, “मेरे भगवान कैसे यह संभव है? आप अचेत कैसे हो सकते हो?, और कौन आपको बंधी बना सकता है?”

तब जाम्बवन्त ने कहा, “ऋषि कश्यप की दो पत्नियां कद्रू और विनीता (अर्थ : ज्ञान, लज्जावान) थीं। कद्रू ने हजारों नागो को जन्म दिया जिन्हें पृथ्वी पर साँपो केपूर्वजमाना जाता है। विनीता ने शक्तिशाली गरुड़ को जन्म दिया।

एक बार कद्रू और विनीता घोड़े उच्चैहश्र्वास (अर्थ : लंबे कान या जोर का झुकाव) की पूंछ के रंग पर एक शर्त लगाती है । उच्चैहश्र्वास सात सिरों वाला, उड़ने वाला एक समुद्री घोड़ा था जो महासागर मंथन के या समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ था।

कद्रू ने दावा किया कि उच्चैहश्र्वास की पूंछ का रंग काला है और विनीता ने दावा किया कि यह सफेद है।तो यह शर्त रखी गई की जिसकी बात झूठी निकलेगी वह दूसरे की सेवा करेगी।कद्रू ने अपने पुत्रोंनागोंको उच्चैहश्र्वास की पूंछ पर लटक कर छल से उसे काला दिखाने का आदेश दिया । इस प्रकार, दैवीय घोड़े की सफेद पूंछ काली प्रतीत होने लगी क्योंकि उस पर कद्रू के पुत्र नाग लटक गए थे । इस प्रकार विनीता और गरुड़ को कद्रू की सेवा करने के लिए मजबूर किया गया । उनके साथ कद्रू और उनके पुत्रो ने बहुत बुरी तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया।

बाद में नाग, गरुड़ और उनकी माँ को मुक्त करने को इस शर्त पर सहमत हुए, यदि गरुड़ देवताओं के राजा इंद्र के कब्जे में स्थित अमृत, को लाकर उन्हें देगा।गरुड़ ने स्वर्ग से अमृत प्राप्त किया और स्वयं और अपनी माँ को कद्रू और उनके पुत्र नागों की दासता से मुक्त करा दिया। लेकिन धोखाधड़ी और अपमान ने गरुड़ को नागों/सांपों का प्रतिद्वंद्वी बना दिया।

जब गरुड़ ने इंद्र से अमृत के बर्तन को चुराया, तो इंद्र शक्तिशाली पक्षी गरुड़ की ताकत से ईर्ष्यावान था, परन्तु भगवान विष्णु गरुड़ की अखंडता से प्रभावित थे क्योंकि गरुड़ ने खुद के लिए अमृत की एक बूंद भी नहीं ली थी तो भगवान विष्णु ने गरुड़ से वरदान माँगने को कहा।

गरुड़ ने तुरंत कहा कि वह भगवान विष्णु सेउच्चपद चाहते हैं। भगवान विष्णु, जो सभी चालकियों के स्वामीहैं, उन्होंने गरुड़ से अपने ध्वज को सजाने के लिए ध्वज पर हमेशा बने रहने को कहा क्योंकि ध्वज हमेशा जीव से ऊपर ही होता है।

इसके अतरिक्त भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा, “भविष्य में जब मैं राम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लूँगा तो आप एक बार मेरा जीवन बचायेंगे, और उस दिन आप निश्चित रूप से मेरे से उच्च पद पर होंगे क्योंकि जीवन बचाने वाला व्यक्ति हमेशा उससे ऊपर रहता है जिसका जीवन उसने बचाया है”

गरुड़ की भक्ति से भगवान विष्णु इतने प्रभावित हुए की उन्होंने गरुड़ को अपना स्थायी वाहन बना लिया।

गरुड़ की शादी उन्नति (अर्थ : प्रगति की भावना) से हुई, उनके दो बेटे हुए सम्पती जिनसे हम देवी सीता की खोज के समय समुद्र तट पर मिले थे, और दूसरे जटायु थे जिन्होंने रावण से देवी सीता को बचाने के लिए अपना जीवन खो दिया”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 12 ☆ मी कवी हुनार  ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  मी कवी हुनार है।  श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 12 ☆

 

☆ मी कवी हुनार ☆

(काव्यप्रकार -विडंबन.)

 

लयी लयी वाटायचं कराव्यात मस्त कविता !

पन् काय करु ,काय करू…?..

 

ईचार केला किती बी  तरी सुचतच न्हाई वो कविता !

स्पर्धा तर सोडाच पन् कविता वाचन्याजोगी तरीहवी !

आन् रोज रोज म्हन्ते …मी हुईन कवी ! मी हुईन कवी!!

 

पन् घोडंच कुठं पेंड खातंयं ते काई कळंना !

आन् आजपावतूर मला काही कविता कराया जमना !!

नवस केलं सायास केलं केलं देवदेव !

पन् न्हाई आली कुनालाच माजी वं कीव !!

 

 

म्हनलं जरा यावं भेटून फिल्मसिटीत ईनोदाच्या ईरांनला !

पन् कसलं काय आन् फाटक्यात पाय ,तितं

टाईमच हाय कुनाला. !!

 

भेटलं असतं कवी गुलजार !

पन् ते तरी म्हना काय कामाचं!

आपलं लिखान हाय इडंबन अन् हाय कि वो  ईनोदाचं !!

 

लयी डोस्कं खाजिवलं आन् केला मी ईचार !

 

बसले एकदाची लिव्हायला तर !

शेजापाजारच्या आयाबायांनी केलं की हो बेजार !

मंग म्हनलं हितं बसून आपली कविता न्हाई हुनार !!

 

तुकोबांनी आख्खी गाथा लिव्हली भंडाऱ्यावर !

आपनबी जावं की आपल्या डोंगरावर !

तडक उठले अन् तरातरा गेले अजिंक्यताऱा किल्ल्यावर ! !

घेतला भारी पेन आन् लिव्हायला लागले कागदावर. !

 

आली थंड झुळूक आन् कवा  लागला डोळा न्हाई मला कळ्ळं !

डरकाळी बिबट्याची ऐकून काळीजच माजं किवो हाल्लं !

 

आता कुटं पळू न् काय करु समजना मला !

पट्कन् उटूनशनी पळावं तर पायच लागलं कापायला !!

 

बिबट्या बिबट्या म्हनून जीव खाऊन वराडले !

 

आले आले म्हनून सुनबाईनं आवाज दिला !!

म्हनलं बरं झालं ती तरी आली माज्या मदतीला !!!

हात दिला तिच्या हातात न् लागले मी पळायला !

तर चहाची कपबशी घेऊन सुनबाई  उभी मला उठवायला !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सतारा

भ्रमण – ९०२८८१५५८५

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – ☆ पुरस्कृत कविता ☆ वेदनांची नोंद ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वपना अमृतकर

(यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि ई-अभिव्यक्ति  से प्रारम्भ से जुडी हुई पुणे की युवा मराठी साहित्यकार सुश्री स्वपना अमृतकर जी को इस वर्ष दीपावली पर्व के पूर्व 13 अक्तूबर को उनकी रचना “वेदनांची नोंद” (मराठी कविता) पर द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है। यह कविता हाल ही में सम्पूर्ण राष्ट्र में आई बाढ़ के ऊपर आधारित है। उन्होने इस संवेदनात्मक कविता के माध्यम से बाढ़ के भयावह संकट पर हुए जान माल की हानि  पर अपनी भवनाएं प्रकट की हैं। इस सम्मान के लिए सुश्री स्वप्ना जी को हार्दिक बधाई।)

 

☆ वेदनांची नोंद ☆

गाफिल होते सारे
विशाल निळाई खाली
विध्वंषक प्रलयाची
धावून लाट आली, १

संसार रेशीमचित्रे
पाण्यात वाहूनी गेली
आकांत करूनी सार्र्या
गेल्या विझूनी मशाली, २

गेल्या खचूनी भिंती
उरलाय फक्त गाळ
वेदनांची नोंदही नाही
हुंदक्यात पेटे जाळ , ३

पुसणार अश्रू येथे
दरबार शासकांचा
शब्दास आज खोटी
हरताळ फासे वाचा, ४….

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆ चेहरे ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “चेहरे”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆

☆ चेहरे

ओळखीचे वाटतात सगळेच चेहरे
अनोळख्या ठिकाणी जेव्हा मी जातो.

सारखेच भाव चेह-यावर असतात
सपाट शून्य मलूल चेहरा मी पाहतो.

तनावाने त्रस्त काळजीचे काहूर
भविश्याचे प्रश्न चेह-यावर पाहतो.

भूतकाळाचे गाठोडे पाठीवर लादून
ओझ्याने वाकलेला  कणा मी पाहतो.

चेह-यात चेहरे नित शोधतो मी
माझाच चेहरा जेव्हा मी पाहतो.

© सुजाता काळे,
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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