हिन्दी साहित्य – ☆ सरदार वल्लभ भाई पटेल जन्मदिवस विशेष ☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’ ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(आज प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी  द्वारा रचित स्व वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस पर विशेष आलेख  “विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी'”।)

 

☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’☆

 

पंद्रह अगस्त 1947 को जब देश अंग्रेजो से आजाद हुआ तो, भारत की राजनैतिक व सामाजिक स्थिति अत्यंत छिन्न भिन्न थी. देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हो चुका था, पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम देश के रूप में हुआ था. किन्तु, सारे भारत में छोटे बड़े शहरो, कस्बों व गांवो में बसी हुई मुसलमान आबादी न तो इतनी सुशिक्षित थी और न ही इतनी सक्षम कि वह इस विभाजन को समझ सके और स्वयं के पूर्वी या पश्चिमी पाकिस्तान में विस्थापन के संबंध में कोई निर्णय ले सके. तब  संचार व आवागमन के पर्याप्त संसाधन भी नही थे. पीढ़ियों से  बसे हुये परिवार भी नेताओ के इशारो पर, घबराहट में पलायन कर रहे थे. सारे देश में आपाधापी का वातावरण बन गया था.

अंग्रेजी सरकार के पास जो भूभाग था उसका सत्ता हस्तांतरण तो हो गया किन्तु, भारतीय भूभाग में तब लगभग 565 छोटी-बड़ी रियासतें भी थी जिनमें राजा राज्य कर रहे थे. यहाँ रहने वाली बड़ी आबादी मानसिक रूप से अंग्रेजो के विरुद्ध भारत के साथ आजादी के आंदोलन में साथ थी और देश की आजादी के बाद लोकतांत्रिक सपने देख रही थी किन्तु क्षेत्रीय राजा महाराजा अपने व्यैक्तिक हितों के चलते जनता की आवाज को अनसुना करने के यत्न भी कर रहे थे.

देश आजाद तो हो गया था पर न तो कोई संविधान था न विधि सम्मत समुचित शासन व्यवस्था बन पाई थी. ऐसे दुरूह राजनैतिक, सामाजिक संधिकाल में आपाधापी और अराजकता के वातावरण में शासन के सीमित संसाधनो के बीच भारत के पहले उप प्रधान मंत्री के रूप में गृह, रियासत व सूचना मंत्री की कौशलपूर्ण जबाबदारी सरदार पटेल ने संभाली. और उन्होने जो करिश्मा कर दिखाया वह आज तो नितांत अविश्वसनीय ही लगता है. सरदार पटेल ने छोटी बड़ी सारी रियासतो का भारत के गणतांत्रिक राज्य में संविलयन कर दिखाया. राजाओ से प्रिविपर्स की शर्ते तय करना जटिल चुनौती भरा कार्य था. देश के धार्मिक आधार पर विभाजन के चलते हिन्दू मुस्लिम  कटुता भी वातावरण में थी, जिन रियासतो के शासक मुस्लिम थे, विशेष रूप से  भोपाल के नवाब, जूनागढ़ या हैदराबाद के निजाम उन्हें भारत में मिलाना किसी भी अन्य नेता के बस में नही था. इतिहास के जानकार बताते हैं कि काश्मीर के राजा यद्यपि हिन्दू थे  व वहां बहुत बड़ी आबादी हिदुओ की ही थी किन्तु फिर भी चूंकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल को वहां हस्तक्षेप नही करने दिया इसीलिये काश्मीर आज तक समस्या बना हुआ था.

सरदार पटेल ने न केवल भारत के संघीय नक्शे को अपनी कार्य कुशलता से एकीकृत रूप दिया वरन देश के धार्मिक आधार पर विभाजन से उपजी हिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता को समाप्त कर सामाजिक समरसता का वातावरण पुनर्स्थापित करने के ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं कि उन कार्यो के स्मरण स्वरूप कृतज्ञ राष्ट्र का “स्टेच्यू आफ यूनिटी” के रूप में उनकी विश्व की सबसे उंची मूर्ति स्थापना का कार्य  उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली है. युगो युगो तक हर नई पीढ़ी इस भव्य विशाल मूर्ति के माध्यम से उनके राष्ट्र के एकीकरण के असाधारण कार्य का स्मरण करेगी और उनसे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की प्रेरणा लेती रहेगी.

वर्तमान में विश्व की सबसे ऊँची स्टैच्यू या मूर्ती 152 मीटर की चीन में स्प्रिंग टैम्पल बुद्ध की मूर्ति है. मूर्ति की ऊँचाई की दृष्टि से दूसरे स्थान पर सन् 2008 में म्याँमार सरकार की बनवाई गई 120 मीटर ऊंची बुद्ध के तथागत रूप की प्रतिमा  और विश्व की तीसरी सबसे ऊँची मूर्ती भी  भगवान बुद्ध की ही है,जो जापान में है इसकी ऊँचाई 116 मीटर हैं. अमेरिका की सुप्रसिद्ध स्टेच्यू आफ लिबर्टी की ऊँचाई 93 मीटर है. रूस की सुप्रसिद्ध ऊंची प्रतिमा मदर लैंड काल्स की ऊंचाई 85 मीटर तथा ब्राजील की प्रसिद्ध प्रतिमा क्राइस्ट द रिडीमर की ऊँचाई 39.6 मीटर है. इस तरह 182  मीटर ऊँची यह स्टेच्यू आफ यूनिटी अर्थात एकता की प्रतिमा भारत में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है.

इस मूर्ति स्थापना का कार्य नर्मदा नदी पर बने विशालकाय सरदार सरोवर बांध के जलाशय में बांध से लगभग 3.5 किलोमीटर दूर साधु बेट नाम के टापू पर अंतिम स्थिति में है. इसकी नींव 31 अक्तूबर 2013 को राखी गई थी एवं 31 अक्टूबर 2018 को सरदार पटेल के जन्मदिन पर इस गौरवशाली स्मारक का उद्घाटन प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया।

होना है.  स्मारक की कुल ऊँचाई आधार से लेकर शीर्ष तक 240 मीटर है, जिसमें आधार तल की ऊँचाई 58 मीटर  और सरदार पटेल की प्रतिमा 182 मीटर ऊँची है. प्रतिमा का निर्माण इस्पात के फ्रेम, प्रबलित सीमेण्ट कंक्रीट और इस तरह निर्मित मूर्ति के ढ़ांचे पर काँसे की परत चढ़ाकर किया गया. तकनीकी निर्माण की दृष्टि से इस मूर्ति का निर्माण जलाशय के बीच एक ऊँची इमारत के निर्माण की तरह ही तकनीकी चुनौती का कार्य है. यही नही चुंकि इस प्रतिमा के साथ विश्व पटल पर  देश का सम्मान भी जुड़ा है अतः यह निर्माण  इंजीनियर्स के लिये और भी चुनौती भरा कार्य था. समय बद्ध निर्माण, वैश्विक परियोजना के रूप में  पूरा किया गया. व्हेदरिंग के बीच स्टेच्यू की आयु अनंत समय की होगी अतः निर्माण की गुणवत्ता के समस्त मापदण्डो के परिपालन व संरक्षण व अनुरक्षण की समुचित सुरक्षात्मक व्यवस्थायें वैश्विक स्तर पर सुनिश्चित की गई हैं. ऐसी परियोजनाओ में तड़ित के निस्तारण,तीव्र गामी हवाओ, तूफान, आंधी, चक्रवात, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओ के बीच मूर्ति को निरापद बनाये रखने हेतु समुचित उपाय किये जाना अति आवश्यक होता है, जिस हेतु अतिरिक्त फैक्टर आफ सेफ्टी का विशेष प्रावधान रखा गया है.

स्टेच्यू आफ यूनिटी सही अर्थो में एकता की प्रतिमूर्ति है क्योकि इसका निर्माण शासन के साथ जन भागीदारी से किया गया है.  न केवल आर्थिक सहयोग वरन मूर्ति हेतु उपयोग किये जाने वाला लोहा भी आम किसानो से उनके कृषि उपकरणो से जन आंदोलन के रूप में एकत्रित किया गया, इसके पीछे भावना यह थी कि आम किसानो व नागरिको का भावनात्मक लगाव मूर्ति के साथ सुनिश्चित हो सके,  चूंकि सरदार पटेल एक किसान पुत्र थे अतः गांवो से एकत्रित लोहे के रूप में उस लौह पुरुष के प्रति सम्मान व्यक्त करने का भी यह एक अभियान था. जन अभियान के रूप में “रन फार यूनिटी” तथा “डिजिटल कैंपेन” चलाकर भी जन सामान्य को दुनियाभर में इस एकता के अभियान में जोड़ा गया है. परियोजना पूरी होने पर श्रेष्ठ भारत भवन, म्यूजियम व ध्वनि संगीत गैलरी, लेजर शो, व अनुसंधान केंद्र के रूप में पर्यटको के बहुमुखी आकर्षण केन्द्र के रूप में स्थल विकास किया गया है. फेरी के द्वारा सरदार सरोवर में पर्यटको के भ्रमण की नियमित व्यवस्थायें की गई हैं. यह परियोजना देश के सम्मान, एकता, फ्रीडम का संयुक्त व बहुआयामी केंद्र है जहाँ पहुंचना प्रत्येक भारतवासी के लिये गौरवशाली क्षण बन चुका है.

 

इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव

फैलो आफ इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स

ए 1, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर 482008

मो 7000375798

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 21 – बालपण…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है बाल्यपन  पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता बालपण…! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #21☆ 

 

☆  बालपण…! ☆ 

 

मी गात असताना

लेकराची

हार्मोनियम वर सफाईदारपणे

फिरणारी

बोटं पाहिली की

ओठांवर येणारे

शब्द शहारतात

थरथरतात…

ऐकत रहावसे वाटतात

फक्त त्याच्या

इवल्या इवल्या बोटांमधून

ऐकू येणारे सूर

डोळ्यांच्या पाणवठ्यावर

येऊन मी उभा राहतो

साठवून घेतो…

त्याची प्रत्येक हरकत,नजाकत

त्याचा प्रसंन्न चेहरा

आणि बरंच काही

माझ्या ओठांमधून येणा-या

बोथड शब्दांना तो

तो देत असतो जगण्याची

सुंदर लय….

आणि मी मात्र त्यांच्यामध्ये

शोधत राहतो माझ

प्रौढ होत गेलेलं बालपण…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (4-5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।4।।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ।।5।।

 

भूमि,अनल ,जल वायु नभ अंहकार ,मन बुद्धि

इन आठों में है बॅटी,प्रकृति सकल संमृद्धि।।4।।

किन्तु पार्थ! यह प्रकृति जो कारक है संसार

मेरा जीवन रूप है सच में एक प्रकार।।5।।

 

भावार्थ :  पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।।4-5।।

 

Earth, water, fire, air, ether, mind, intellect and egoism-thus is My Nature divided  eight fold.।।4।।

 

This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna)! Know thou as different from it my higher Prakriti (Nature), the very life-element by which this world is upheld.।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज तीसरा शब्ददीप ☆

आज भाईदूज है। प्रातःभ्रमण पर हूँ। हर तरफ सुनसान, हर तरफ सब कुछ चुप। दीपावली के बाद शहर अलसाया हुआ है। सोसायटी का चौकीदार भी जगह पर नहीं है। इतनी सुबह दुकानें अमूमन बंद रहती हैं पर अख़बार वालों, मंडी की ओर जाते सब्जीवालों, कुछ फलवालों, जल्दी नौकरी पर जाने वालों और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से सड़क ठसाठस भरी रहती है। आज सार्वजनिक छुट्टी है। नौकरीपेशा, विद्यार्थी सब अपने-अपने घर पर हैं। सब्जी मंडी भी आज बंद है। अख़बारों को कल प्रतिपदा की छुट्टी थी। सो आज अख़बार विक्रेता भी नहीं हैं। वातावरण हलचल की दृष्टि से इतना शांत जैसे साइबेरिया में हिमपात के बाद का समय हो।

वातावरण का असर कुछ ऐसा कि लम्बे डग भरने वाला मैं भी कुछ सुस्ता गया हूँ। डग छोटे हो गये हैं और कदमों की गति कम। देह मंथर हो तो विचारों की गति तीव्र होती है। एकाएक इस सुनसान में एक स्थान पर भीड़ देखकर ठिठक जाता हूँ। यह एक प्रसिद्ध पैथालॉजी लैब का सैम्पल कलेक्शन सेंटर है। अलसुबह सैम्पल देने के लिए लोग कतार में खड़े हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें वृद्धों के साथ-साथ मध्यम आयु के लोग काफी हैं। मुझे स्मरण हो आता है, ‘ शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदा।’

सबसे बड़ी सम्पदा स्वास्थ्य है। हम में से अधिकांश  अपनी जीवन शैली और लापरवाही के चलते प्रकृति प्रदत्त इस सम्पदा की भलीभाँति रक्षा नहीं कर पाते हैं। चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें कब होगा? कब हम अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप प्रज्ज्वलित करेंगे?  अपनी सुविधा के अर्थ ग्रहण करने की अंधेरी मानसिकता के आगे जिस दिन एक भी दीपक सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 2 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 2  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

गांधी जयन्ती 02 अक्टूबर 2019, को महात्मा गांधी पूरे 150 वर्ष के हो गए। उनके विचारों की झांकी हमें ‘हिन्द स्वराज’ से मिलती है। अपने सार्वजनिक जीवन में आगे चलकर गांधीजी  इन्ही विचारों पर अडिग रहे और समय समय पर उसकी व्याख्या करते रहे। यह पुस्तक उन्होंने कैसे लिखी इसकी कहानी सुनिए ;

गांधीजी और सावरकर 1906 में पहली बार लन्दन में मिले, उसके बाद दुबारा 1909 में फिर मिले जब गांधीजी दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका से इंग्लॅण्ड आये। 24 अक्टूबर 1909 को दशहरे के अवसर पर इंडिया हाउस में हुए एक कार्यक्रम में गान्धीजी  व सावरकर ने मंच साझा किया। गांधीजी ने रामायण को ऐसा ग्रन्थ बताया जो सच्चाई के लिए कष्ट सहने की सीख देता है। गांधीजी ने कहा कि सच्चाई के लिए इस तरह का त्याग और तपस्या ही भारत को स्वतन्त्रता दिला सकती है। इस मंच से सावरकर ने रामायण को दमन और अन्याय के प्रतीक रावण के वध से जोड़ा। गांधीजी के आग्रह के अनुरूप दोनों ने विवादस्पद राजनीति की चर्चा न करते हुए अपने अपने मत व नीतियों की चर्चा इस मंच से की। चूँकि हिंसा प्रेमी क्रांतिकारियों के विचारों से गान्धीजी दुखी थे, दूसरे बहुत से विवादास्पद राजनीतिक विषयों पर चर्चा इस मंच पर न करने का उनका आग्रह था अत: उन्होंने ऐसे सभी विषयों के प्रश्नों का उत्तर ‘हिन्द स्वराज’ में दिया है।

गांधीजी ने हिन्द स्वराज लन्दन से लौटते वक्त लिखी थी। 13 नवम्बर 1909 को गांधीजी इंग्लॅण्ड का अपना मिशन पूरा कर पानी के जहाज से जब दक्षिण अफ्रीका लौट रहे थे, तो लन्दन में रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे भारतीय नौजवानों की मानसिकता उनके मन में हिंसा की अनिवार्यता और अनेक क्रांतिकारी हिंसक विचारों के समर्थक नेतृत्व, जिनमे वीर सावरकर भी शामिल थे, से मिल रहा दिशा निर्देश, सबका गहरा बोझ उनके मन पर था। वे बेहद व्यथित थे। ऐसी ही मनोदशा में, एस एस किन्दोनन कासल नामक समुद्री  जहाज पर बैठकर दस दिनों के सतत लेखन से उन्होंने यह ऐतिहासिक किताब लिखी। इसे लिखते हुए उनके मन में विचारों का बदल उमड़ रहा था। वे जैसे किसी जूनून के साथ लिखते जा रहे थे। जब दाहिना हाथ थक जाता तो वे बाए हाथ से लिखने लगते थे और जब बायाँ हाथ थकता तो वे हाथ बदल लेते थे। हिन्द स्वराज अहिंसा के रास्ते आज़ादी पाने का गांधीजी का मौलिक घोषणा पत्र था। स्वराज का मतलब उनके लिए पश्चिमी सभ्यता से आज़ादी थी, जिसे वे ‘हिन्द स्वराज’ में शैतानी सभ्यता कहते हैं। और उनका निष्कंप निष्कर्ष यह बना कि ऐसी आज़ादी अहिंसा के रास्ते ही संभव है।

‘हिंद स्वराज’, में जगह जगह बिखरे मोतियों मे से कुछ मोती मैं लिखता हूँ, जो हमें यह बताने पर्याप्त हैं कि इस महामानव के विचार आज से 110 वर्ष पूर्व कैसे थे।

“ मेरे विचार सब लोग तुरंत मान लें ऐसी आशा मैं नहीं रखता। मेरा फर्ज इतना ही है कि आपके जैसे लोग जो मेरे विचारों को जानना चाहते हैं, उनके सामने अपने विचार रख दूं। यह विचार उन्हें पसंद आयेंगे या नहीं आयेंगे, यह तो समय बीतने पर ही मालूम होगा।“

“हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिमी सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर में मानने वाली है।“

“ अंग्रेज जैसे डरपोक प्रजा हैं वैसे बहादुर भी हैं। गोला बारूद का असर उनपर तुरंत होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। संभव है, लार्ड मार्ले ने हमें जो कुछ दिया वह डर से दिया हो। लेकिन डर से मिली हुई चीज जबतक डर बना रहता है तभी तक टिक सकती है।“

“ अच्छे नतीजे लाने के लिए अच्छे ही साधन चाहिए। और नहीं तो ज्यादातर मामलों में हथियार बल से दयाबल ज्यादा ताकतवर साबित होता है। हथियार में हानि है, दया में कभी नहीं।“

“अर्जी के पीछे के बल को चाहे दयाबल कहें, चाहे आत्मबल कहें, या सत्याग्रह कहें। यह बल अविनाशी है और इस बल का उपयोग करने वाला अपनी हालत को बराबर समझता है। इसका समावेश हमारे बुजुर्गों ने ‘एक नहीं सब रोगों की दवा में किया है। यह बल जिसमे है उसका हथियार बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।“

“ हिंदुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमे सुधार बिगाड़, उन्नति, अवनति समय के अनुसार होते रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जाएगा”

“ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढे हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।“

“अब ऊँची शिक्षा को लें। मैंने  भूगोल-विद्या सीखा,खगोल-विद्या सीखा, बीज गणित  भी मुझे आ गया, रेखागणित का ज्ञान भी मैंने हासिल किया भूगर्भ-विद्या को मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से वह भला किया? किस मकसद से वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फ़ायदा हुआ?”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 21 – जिद्द ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “जिद्द.  इस कविता को मैंने कई बार पढ़ा और जब भी पढ़ा तो  एक नए  सन्दर्भ में।  मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि  हूँ ” की बरबस याद आ गई।  यदि आप पुनः मेरी कविता के शीर्षक को पढ़ें तो कहने की आवश्यकता नहीं,  यह शीर्षक ही एक कविता है।  मैं कुछ कहूं इसके पूर्व यह कहना आवश्यक होगा कि अहंकार एवं स्वाभिमान में एक बारीक धागे सा अंतर होता है।  सुश्री प्रभा जी की कविता  “जिद्द” में मुझे दो तथ्यों ने प्रभावित किया। कविता में उन्होंने  जीवन की लड़ाई में सदैव सकारात्मक तथ्यों को स्वीकार किया है और नकारात्मक तथ्यों  को नकार दिया है। सदैव वही किया है, जो  हृदय ने  स्वाभिमान से स्वीकार किया है । अहंकार का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं है।  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 21 ☆

☆ जिद्द 

 

ही जिद्दच तर होती,

जीवनाची प्रत्येक लढाई

जिंकण्याची!

हवे ते मिळविण्याची !

किती मिळाले, किती निसटले

आठवत नाही ….

पण आठवते,

अथांगतेचा तळ गाठल्याचे,

आकाशात मुक्त विहरल्याचेही !

 

कोण काय बोलले,

कोण काय म्हणाले, आठवत नाही….

पण किती तरी क्षण

कुणी कुणी—

डोक्यावर ताज ठेवल्याचे,

आठवतात, आठवत रहातात!

 

ती जिद्दच तर होती—

उंबरठ्याच्या बाहेर पडण्याची,

नको ते नाकारण्याची,

 

हातातली कांकणे,पायातली पैंजणे,

किणकिणत राहिली, छुमछुमत राहिली…

पण ही जिद्दच होती

‘माणूसपण’ जपण्याची,

‘स्व’त्व टिकवण्याची…

सारे पसारे मांडून,

सम्राज्ञी सारखं जगण्याची!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 19 – बेटियाँ…..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बेटियों पर आधारित एक भावपूर्ण रचना   “बेटियाँ…..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 19☆

 

☆ बेटियाँ….. ☆  

 

है अनन्त आकाश बेटियां

उज्ज्वल प्रखर प्रकाश बेटियां

और धरा सी जीवनदायी

जीवन का मधुमास बेटियां।

 

बिटिया से घर-आंगन महके

बिटिया गौरैया सी चहके

सबको सुख पहुंचाती बिटिया

स्वयं वेदनाओं को सह के।

 

बिटिया दर्दों का मरहम है

सृष्टि की कृति सुंदरतम है

निश्छलता करुणा की मूरत

मोहक मीठी सी सरगम है।

 

बिटिया है पावन गीता सी

सहनशील है माँ सीता सी

नवदुर्गा का रूप बेटियाँ

निर्मल मन पावन सरिता सी।

 

बिटिया घर की फुलवारी है

बिटिया केशर की क्यारी है

चंदन की सुगंध है बिटिया

बिटिया शिशु की किलकारी है।

 

बिटिया है आँखों का पानी

कोयल की मोहक मृदु वाणी

बिटिया पहली किरण भोर की

गोधूलि बेला, सांझ सुहानी।

 

संस्कारों की खान बेटियां

दोनों कुल का मान बेटियां

जड़-चेतन सम्पूर्ण जगत का

ज्ञान ध्यान विज्ञान बेटियां।

 

बिटिया चिड़ियों का कलरव है

बिटिया जीवन का अनुभव है

माँ की ममता प्यार पिता का

बिटिया में सब कुछ सम्भव है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ सब्जी मेकर ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर लघुकथा   “सब्जी मेकर ”.)

 

☆ लघुकथा – सब्जी मेकर ☆ 

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!”

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…”

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।”

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी।

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, “क्या है?”

भाई धीरे से बोला, “पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।”

उसने हैरानी से पूछा, “क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?”

भाई ने उत्तर दिया, “क्रैकर्स के रुपयों से… थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा… और क्यूँ लाया!”

अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 9 – फुलवारी की पुकार ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता फुलवारी की पुकार

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 9 ☆

☆  फुलवारी की पुकार

(विधा:मुक्तक कविता)

 

काश ! यह स्कूल उपवन होता,

बनते हम इसकी फुलवारी,

एक ही अर्ज है,

सुनो मन की बात अब हमारी।

 

बालवर्ग मिले दोस्त प्यारे,

ना थी कोई आपसी तकरार,

खेलते-कूदते बीत रहा था समय,

थी एक समय की गुहार,

चल आगे बढ़ प्यारे,

बहुत मिलेगा प्यार और कई फ़नकार

मुडकर ना देख पीछे,

देख आगे और जी ले दुनिया दुलारी,

सुन गुहार समय की,

बढ़ने को आगे हमने की तैयारी।

 

ककहरा से हुई शुरुआत,

फिर आई गणित की बारी,

रटना, याद करना, फिर पाठ पढ़ना,

लगने लगा भारी,

बस्ते के बोझ से,

बचपने की भूल रही है हँसी सारी, क्या करें

ना पढ़ना और ना ही हँसाना,

हुई अनचाही ऐसी लाचारी,

सिसकने-मुरझाने लगी है गुरूजी,

बचपने की आज यह फुलवारी।

 

आज हमें बचपन जीने दो,

मन आप विचारों से उड़ने दो,

कमल से बनती हैं तितलियाँ,

आप ही आप में,

सीखना, खेलना और गाना चाहती है

आप ही आप में,

बनाना चाहती हैं तितलियाँ जैसा

चाहे आप ही आप में,

हाल बहुत बुरा हैं गुरूजी,

दिमाग अब बंद, नहीं मिलती हलकारी।

 

बोझ बने जब पढाई,

फिर कैसे न होगी मन ही मन लड़ाई,

कहते हैं बच्चे फूल होते हैं,

पर क्या हुआ आज यह बेहाल,

बचपन छीना गया हमसे,

कैसे उभरे हम समय के ताल,

फिर से बचपन जीना चाहते है,

सुनाती है यह सारी फुलवारी,

गुरूजी, उजड़ने से पहले फिर एक बार,

खिलना चाहती है बचपन यह फुलवारी।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares