हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆ कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक  भावुक एवं अनुकरणीय लघुकथा “कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆

 

☆ लघुकथा – कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ……….  ☆ 

 

उल्टी गंगा मत बहाया कर गुड्डो ! मायके से लड़कियों को गहना – कपड़ा मिलना चाहिए।  लड़कियों को देते रहने से मायके का मान बना रहता है और ससुराल में लड़की की इज्जत भी बनी रहती है।  हम तो तुझे कुछ दे नहीं पाते और तेरे घर में पड़े मुफत की रोटी तोड़ रहे हैं। दामाद जी क्या सोचेंगे भला।

कुछ नहीं सोचेंगे दामाद जी। तुम इस बात की चिंता मत किया करो। और फिर तुम मेरे पास आई हो, मेरा मन भी करता है ना अपनी अम्मा के लिए कुछ करने का। तुमने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया, समर्थ बनाया और ये क्या लड़की–लड़का लगा रखा है ? आज के ज़माने में ये सब कोई नहीं सोचता।  लड़की है तो क्या माता–पिता के लिए कुछ करे ही नहीं ?

ये तेरी सोच है बेटी ! जमाने की नहीं। समाज में लड़की–लड़के में अंतर कभी मिट ही नहीं सकता।  दो महीने से लड़की–दामाद के घर का खाना खा रही हूँ। लेने–देने के नाम पर ठन–ठन गोपाल। तू मेरे सिर पर बोझ लाद रही है ये कपड़े, मिठाई देकर।

गुड्डो कितना चाहती थी कि अम्मा भी सास–ससुर की तरह ठसके से रहे उसके पास, जो चाहिए वो मंगाए, जो कुछ ठीक ना लगे वह मुझे बताए। लेकिन कहाँ, वह तो मानों झिझक और संकोच से अपने में ही सिकुड़ती चली जा रही है।  इलाज के लिए वह गुड्डो के पास चली तो आई लेकिन ‘ये लड़की का घर है। लड़की के माँ–बाप लड़की के ससुराल जाकर नहीं रहते’ – यह बात उसके मन से हटती ही नहीं थी।  खाने–पीने से लेकर उसकी हर बात में हिचकिचाहट दिखाई देती।  हाथ में रुपए–पैसे का ना होना भी उसे दयनीय बना देता था।

गुड्डो समझ रही थी कि अम्मा किसी उलझन में है। तभी झुकी हुई पीठ को सीधी करने की कोशिश करते हुए कमर पर हाथ रखकर अम्मा बोली – “ऐसा कर गुड्डो तू ये रुपए रख बच्चों के लिए मिठाई मंगवा ले,  यह कहकर वह ब्लाउज में बड़ी हिफाजत से रखा बटुआ निकालने लगीं।“

बटुआ निकालकर अम्मा उसे खोलकर देखे इससे पहले ही गुड्डो ने उसका हाथ पकड़ लिया – “रहने दो अम्मा ! मैं तुम्हारे पास आऊंगी तब दे देना।”

“तब ले लेगी तू ?”

“हाँ।”

“मना मत करना यह कहकर कि बस ग्यारह रुपए से टीका कर दो।”

“नहीं करूंगी बाबा ! अभी रखो अपना बटुआ संभालकर।”

अम्मा अपना बटुआ जतन से संभालकर रख लेती इस बात से अनजान कि बटुए में रुपए हैं भी या नहीं। बढ़ती उम्र के कारण वह अक्सर बहुत – सी बातें भूल जाती थी।  गुड्डो को मालूम था कि बटुए में सिर्फ दो सौ रुपए पडे हैं। बटुआ खोलने के बाद दो सौ रुपए देखकर उसके चहरे पर जो बेचारगी का भाव आएगा गुड्डो उसे देखना नहीं चाहती थी इसलिए वह हर बार कुछ बहाना बनाकर ऐसी स्थिति टाल देती। माँ का मन बहलाने के लिए वह बोली – “अम्मा ! तुम्हें कलकत्ता की ताँतवाली साड़ी बहुत पसंद है, ना चलो दिलवा दूँ।”

“हाँ चल, पर साड़ी के पैसे मैं ही दूंगी।”

“हाँ – हाँ, तुम्हीं देना, चलो तो।”

ताँत की रंग – बिरंगी साड़ियों को देखकर अम्मा खिल उठी।  अपने लिए उसने हल्के हरे रंग की साड़ी पसंद की।  मुझसे बोली – “गुड्डो ये पीली साड़ी तू ले ले।  बहुत जंचेगी तुझ पर।  सूती साड़ी की बात ही कुछ और है।  मैं तेरे लिए कुछ नहीं लाई, यह साडी तू मेरी तरफ से ले लेना।  आज मना मत करना। लड़की को कुछ दो ना, उससे लेते रहो, ऐसा पाप ना चढाओ बेटी मेरे सिर।”  ये कहते – कहते अम्मा ने बटुआ निकाल लिया।  बटुए में सौ – सौ के सिर्फ दो नोट देखकर उसका चेहरे का रंग उतर गया।  दबी आवाज में बोली – “गुड्डो बिल कितना हुआ ? ” गुड्डो झिझकते हुए बोली – इक्कीस सौ रुपए अम्मा।”

“अच्छा” – उसने एक बार हाथ के दो नोटों की ओर देखा,  उसके चेहरे पर दयनीयता झलकने लगी।  घबराए से स्वर में बोली – “तू – तू — ये दो सौ तो रख ले बाकी मैं तुझे बाद में दे दूंगी।”

“ठीक है अम्मा, मैंने दिया, तुमने दिया, एक ही बात है।” गुड्डो अपने घर में माँ को जिस स्थिति से बचाना चाह रही थी अब वह मुँह पसारे खडी थी। अम्मा हँस रही थी पर उदासी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।  अपनी उदासी को छुपाने का उसका यह बहुत पुराना तरीका था।

घर पहुँचते ही अम्मा ने साड़ी के बैग एक तरफ डाले और जल्दी से रसोई में जाकर सिंक में पड़े कप – प्लेट धोने लगी।  वह अपने – आप से बोले जा रही थी – “गुड्डो दो महीने से तेरे घर में पड़ी खटिया तोड़ रही हूँ।  तेरे किसी काम की नहीं।  तुझे जो – जो काम करवाने हों मुझे बता।  गरम मसाला, हल्दी, लाल मिर्च सब मंगवा ले।  मैं कूट, छानकर रख दूंगी।  साल भर काम देंगे।  बाजार की हल्दी तो कभी ना लेना।  पता नहीं दुकानदार कैसा रंग मिलाते हैं उसमें।  घर की हल्दी हो तो बच्चों को रात में दूध में डालकर दो, सर्दी में बहुत आराम देती है।  तू भी पियाकर हड़डियों के लिए अच्छी होती है।  खूब आराम कर लिया मैंने।  तबियत भी ठीक हो गई है।  सब काम कर सकती हूँ मैं अब।”

झुकी पीठ लिए अम्मा जल्दी‌ – जल्दी काम निपटाना चाह रही थी।  गुड्डो दूर खड़ी  अम्मा के मन में उपजे अपराध – बोध को महसूस कर रही थी।  वह उसे समझाना चाहती थी कि अम्मा ! तुम अपनी बेटी के घर में हो, तुमने यहाँ आकर कुछ गलत नहीं किया।  तुम मुझे साड़ी नहीं दिला सकी तो कोई बात नहीं।  बचपन में कितनी बार तुमने मुझे अच्छे कपड़े दिलवाए और अपने लिए कुछ नहीं लिया।  कितनी बार मेरी जरूरतें पूरी करके ही तुम खुश हो जाती थीं।  मैं बेटा नहीं हूँ, कुलदीपक नहीं हूँ तुम्हारे परिवार का ? पर बेटी तो हूँ तुम्हारी।  मेरे पास उतने ही अधिकार से रहो, जितना तुम्हारे अगर बेटा होता तो तुम उसके पास रहतीं।  किस अपराध बोध से इतना झुक रही हो अम्मा ?

गुड्डो की आँखों से झर – झर आँसू बह रहे थे। वह कुछ कह ना सकी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – स्व आर के लक्ष्मण जी के जन्मदिवस पर विशेष – ☆ ‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’ ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

 

(आज 24 अक्तूबर 1921 को मैसूर कर्नाटक में जन्में महान स्वर्गीय आर के लक्ष्मण जी का 98 वाँ जन्मदिन हैं।   उन्हें उनकी कृति ‘आम आदमी’ ‘Common Man’) के कारण सारा विश्व जानता है। अक्सर मेरे मन यह प्रश्न उठता है कि क्या कृतिकार की कृति  की आयु,  कृतिकार की आयु तक ही सीमित रहती है?  और क्या कोई अन्य कृतिकारउस कृति के पदचिन्हों पर आगे नहीं बढ़ सकता ?  आप ही निर्णय करें।  मेरी एक रचना स्व. आर के लक्ष्मण जी एवं उनकी कृति ‘आम आदमी’ के लिए समर्पित।)

☆ ‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’ ☆
‘समय’
बड़े-बड़े जख्म
भर देता है।
आज
आर के लक्ष्मण के
‘कॉमन मेन’ का प्रतीक।
सिंबॉयसिस परिसर पुणे में खड़ा
देख रहा है
अवाक।
समय का चलता चक्र।
पुराने होते कार्टूनों में
अपना अस्तित्व।
उस पर
जमती जा रही
समय की धूल।
क्या
दुनिया के अन्य किरदारों की तरह
उसकी नियति भी
सीमित थी
यहीं तक ?
उसके रचियेता के
महाप्रयाण तक ?
नहीं ….. नहीं
वह छटपटाता है
हर रोज़
सूरज की
पहली किरण से आखिरी किरण तक
और
सारी रात घुप्प अंधेरे में भी।
वह होता है आतुर
दर्ज कराने
अपनी उपस्थिती
समसामयिक विषयों में
सामाजिक-राजनीतियक परिदृश्यों में
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्यों में
तत्संबंधित ‘रचनाओं में
कार्टूनों में
कविताओं में
व्यंग्यों में
और सामयिक स्तंभों में भी
हमेशा की तरह
मात्र तटस्थ रहकर
‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’
की मानिंद।
कहते हैं कि
‘समय’
बड़े-बड़े जख्म
भर देता है।

© हेमन्त बावनकर, पुणे

(इस कविता में वर्णित ‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’ आदरणीय स्वर्गीय आर के लक्ष्मण जी की कृति से संबन्धित मेरे व्यक्तिगत विचार हैं।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 12 – As frozen as ice ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem As frozen as ice.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 12

 

☆ As frozen as ice ☆

 

Sometimes,

The going gets tough,

Your soft feet get brutally exposed

To the harshness of the tarry roads,

The mighty sun of fate becomes fiercer

Charring your parched skin,

Thorns prick your naked feet

And grief pricks the corners of your red eyes,

You run madly

In the rough deserts of your broken heart,

And solace eludes you.

 

During such times,

You think

That you are as frozen as ice.

 

But if you do walk

Those rough terrains once,

You become flowing water

That knows how to carve its own path,

And no future journey is hard enough.

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – जीवाश्म ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – जीवाश्म

 

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं। धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा।’

..पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

आँख में पानी बचा रहे।…आमीन!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 2:17 बजे, 30.8.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ दीपावली विशेष ☆ पटाख साले ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  अब लीजिये दीपावली का रंग बिरंगे   उत्सव का  भी शुभारम्भ हो चूका है. आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “पटाख साले”.  श्री विवेक रंजन जी का यह व्यंग्य शुभ दीपावली पर विभिन्न  रिश्तों को विभिन्न पटाखों  की उपमाएं देकर सोशल मीडिया पर ई -दीपावली में ई-पाठकों के साथ  ई-मिठाई  का स्वाद देता है . श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गहन शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ 

 

☆ पटाख साले ☆

 

कल एक पार्टी में मेरे एक अभिन्न मित्र मिल गये. उनके साथ जो सज्जन थे उनसे उन्होने मेरा परिचय करवाते हुये कहा, इनसे मिलिये ये मेरे पटाख साले हैं. मैने गर्मजोशी से हाथ तो मिलाया, पर प्रश्नवाचक निगाहें डाली अपने मित्र की ओर. “पटाख साले” वाला रिश्ता समझना जरुरी था. मित्र ने मुस्कराते हुये खुलासा किया हम साले साहब के साले जी को पटाख साला कहते हैं. मैं भी हँसने लगा. दीपावली के मौके पर एक नये तरह के रिश्ते को समझने का अवसर मिला,  रिश्ते की ठीक ही विवेचना थी साला स्वयं ही बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योकि  “जिसकी बहन अंदर उसका भाई सिकंदर”, “सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ”. फिर ऐसे साले के साले जी को पटाख साले का खिताब दीपावली के मौके पर स्वागतेय है.

यूँ हमारे संस्कारो में रिश्तो को पटाखो से साम्य दिया ही जाता है. प्रेमिकाओ को फुलझड़ी की उपमा दी जाती है. पत्नी शादी के तुरंत बाद अनार, फिर क्रमशः चकरी और धीरे धीरे अंततोगत्वा  प्रायः बम बन जाती  हैं. वो भाग्यशाली होते हैं जिनकी पत्नियां फुस्सी बम होती हैं. वरना अधिकांश पत्नियां लड़लड़ी, कुछ लक्ष्मी बम तो कुछ रस्सी वाला एटमबम भी होती हैं. साली से रंगीन दियासलाई वाला बड़ा प्रेमिल रिश्ता होता है. हाँ, सासू माँ के लिये फटाखो में से समुचित उपमा की खोज जारी है. मायके का तो कुत्ता भी बड़ा प्यारा ही होता  है.

इसी क्रम में देवर को तमंचा और जेठ को बंदूक कहा जा सकता है. बच्चे तो फटाको का सारा बाजार लगते हैं बिटिया आकाश में  प्यारा रंगीन नजारा बना देती है और बेटा हर आवाज हर रोशनी होता है.पतिदेव बोटल से लांच किये जाने वाले राकेट से होते हैं. ससुर जी को  आकाश दीप सा सुशोभित किया जा सकता है.  हाँ, ननद जी वो मोमबत्ती होती हैं जिसकी लौ  हर फटाके को फोड़ने में उपयोग होती है और जिसके पिघल कर बहते ही पति सहित  फटाको का पूरा पैकेट रखा रह जाता है.  सासू माँ जो कितना भी प्रयास कर लें कभी भी माँ बन ही नही पातीं, रोशनी और बम के कॉम्बिनेशन वाला फैंसी फटाका होती हैं  या फिर कुछ सासू जी देसी मिट्टी वाले अनार कही जा सकती हैं जो कभी कभी बम की तरह आवाज के साथ फूट भी जाती हैं.

यूँ अब ग्रीन फटाखो का युग आने को है, जिसके स्वागत के लिये मीलार्ड ने भूमिका लिख डाली है. आईये निर्धारित समय पर मशीन की तरह फटाके फोड़ें और व्हाट्सअप पर बधाई, देकर ई-मिठाई खाकर दीपावली मना लें. प्रार्थना करें कि  माँ लक्ष्मी की जैसी कृपा राजनीतिज्ञों पर रहती है वैसी ही वोटरो पर भी हो.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – बुंदेली लघुकथा – ☆ आस का दीपक ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक भावुक बुंदेली लघुकथा  “आस का दीपक”.)

 

☆ लघुकथा – आस का दीपक  

 

“आए गए कलुआ के बापू, आज तो अपन का काम होइ गओ हुईए –” कहत भई कमली  बाहर आई  तो आदमी के मुँहपर छाई मुर्दनी देखी तो किसी अज्ञात खुशी से खिला उसका चेहरा पीलो पड़ गओ।

रघुवा ने उदास नजरों से अपनी बीवी को देखा और बोला – “इत्ते दिना से जबरनई तहसीलदार साहब के दफ्तर के चक्करवा लगाए रहे, आज तो ऊ ससुरवा ने हमका दुत्कार दियो और कहि कि तुमको मुआवजा की राशि मिल गई है, ये देखो तुम्हारा अंगूठा लगा है इस कागज़ पर और लिखो है कि  रघुवा ने 2500 रुपया प्राप्त किये।”

जिस दिन से बाबू ने आकर रघुवा से कागद में अंगूठा लगवाओ हतो  और कहि हती कि सरकार की तरफ से फसल को भये नुकसान को मुआवजा मिल हे, तभई से ओकी बीवी और बच्चे  के मन में दिवाली मनावे हते एक आस का दीपक टिमटिमाने लगा था, लेकिन बाबुओं के खेल के कारण उन आंखों में जो आस का दीपक टिमटिमा रहा था  वह जैसे दिए में तेल सूख जाने के कारण एकाएक ही बुझ गया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆ पुनरावृत्ति ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “पुनरावृत्ति”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆

 

☆ पुनरावृत्ति ☆

 

मंगलेश ने कमल की ओर देख कर मन ही मन कहा, “एक बार, रिश्तेदार की शादी में इस ने मुझे अपनी कार में नहीं बैठाया था, आज मैं इसे अपनी कार में नहीं बैठाऊंगा. ताकि इसे अनले किए का मजा चखा सकूँ.”

जैसा वह चाहता था वैसा ही हुआ. शादी में आए रिश्तेदार उस की कार में झटझट बैठ गए.  जैसे एक दिन मंगलेश बाहर खड़ा था वैसे ही आज कमल कार के बाहर खड़ा था. तभी मंगलेश की निगाहें अपने जीजाजी पर गई. वे भी कार के बाहर खड़े थे.

आज फिर वहीं स्थिति थी. जैसी मंगलेश जीजाजी और कमल साले जी के साथ हुई थी. फर्क इतना था कि आज मंगलेश ड्राइवर सीट पर बैठा था जब कि उस दिन कमल ड्राइवर सीट पर बैठा था. उस के सालेजी की जगह वह खड़ा था.

आज उसे भी वही खतरा सता रहा था जो किसी दिन कमल को सताया होगा. उस के जीजाजी बाहर खड़े थे. कार में जगह नहीं थी. यदि मंगलेश उन्हें कार में नहीं बैठाता तो वे नाराज हो सकते थे. कार से किसी रिश्तेदार को उतारा नहीं जा सकता था. असमंजस की स्थिति थी. क्या करें ? उसे कुछ समझ में नहीं आया.

तभी उस ने कार से उतर कर कमल की ओर चाबी बढ़ा दी.

“सालेसाहब ! आप इन्हें ले कर विवाह समारोह तक जाइए. मैं और मेरे जीजाजी किसी ओर साधन से वहाँ तक आते हैं.”

यह सुन कर कमल चकित और किकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था.  उस के मुँह से हूँ हाँ के सिवाय कुछ नहीं निकला.

मंगलेश का मन दुखी होने की जगह प्रसन्न था कि उस का बदला पूरा नहीं हुआ मगर मन बदल गया था. उस ने एक और पुनरावृति को होने से रोक लिया था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 20 – तू कोणी हो…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है भगवान् श्रीकृष्ण पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता तू कोणी हो…!  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #20☆ 

 

☆  तू कोणी हो…! ☆ 

तू कृष्ण हो
तू श्याम हो
साक्षी हरी
तू योगि हो
तू पुण्य हो
माधव, बलि
अच्युत तू
हो मुरली
मोहन हो तू
तू निरंजन
महेंद्र तू
हो निर्गुण
तू हो मदन
तू माधव
गोविंद हो
हो केशव
उपेंद्र तू
हो नारायण
अच्युत तू
हो सनातन
सुमेध हो
हो गोपाल
वासुदेव तू
हो ज्ञानेश्वर
सुदर्शन तू
हो सर्वेश्वर.
देवेश तू
हो श्यामसुंदर
अमृत तू
हो केशव
आदिदेव तू
हो रविलोचन
पुरूषोत्तम तू
जगद्गुरू हो
अपराजित तू
जगन्नाथ हो
पद्महस्त तू
मुरलीधर हो
विश्वमूर्ति तू
प्रजापति हो
संकर्षण तू
दामोदर हो
सर्व पालका
परमात्मा हो
पार्थसारथी
वैकुंठनाथ तू
मधुसूदन तू
कमलनाथ हो
देवकीसूत तू
नंदलाल हो
यशोदानंदन
पद्मनाभ हो
मिराप्रभू तू
हो गिरिधारी
मुरली मनोहर
हो संकटहारी
मयुर महेंद्रा
दयानिधि हो
रमापति तू
हो सुरेशम
कुशल सारथी
हो परमात्मा.
सहस्त्रजीत तू
सहस्रपात हो
स्वर्गपती तू
सत्यवचन हो
द्वारकाधीश तू
कमलनयन हो
गीतोपदेशक
वर्धमान हो
जगदीशा तू
उद्धारक हो
घनश्याम तू
तू कोणी हो
युगानुयुगे
राधेश्याम हो
युगानुयुगे
राधेश्याम हो
युगानुयुगे
राधेश्याम हो….

© सुजित कदम, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (44) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।।44।।

 

सहज पूर्व अभ्यास वश खिचंता उसका ध्यान

 केवल शाब्दिक ज्ञान से,जिज्ञासा बलवान।।44।।

 

भावार्थ :  वह (यहाँ ‘वह’ शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है ।।44।।

 

By that very former practice he is borne on in spite of himself. Even he who merely wishes to know Yoga transcends the Brahmic word. ।।44।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 1 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का प्रथम आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 1  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

यह वर्ष गांधीजी के 150वें जन्मोत्सव का वर्ष है। शासकीय और अशासकीय स्तरों पर अनेक कार्यक्रम हो रहे हैं और देश विदेश में लोग  अपनी अपनी तरह से महामानव का जन्मोत्सव मना रहे हैं, उन्हें याद कर रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहें है, उनके विचारों पर अमल करने की प्रतिज्ञा ले रहे हैं। मेरे स्टेट बैंक के साथी श्री जय प्रकाश पांडे ने मेरा परिचय श्री हेमन्त बावनकर के रचनात्मक कार्य, उनके ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ से अभी सितम्बर माह में ही करवाया और गांधीजी पर एक लेख इस पत्रिका को देने का आग्रह किया। मुझे प्रसन्नता हुयी कि श्री बावनकर ने मेरे लेख ‘चंपारण सत्याग्रह : एक शिकायत की जाँच’ को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के गांधी विशेषांक में स्थान दिया । कुछ ही दिनों बाद उनका प्रेम भरा  आग्रह था कि इस पूरे वर्ष  ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ में गांधी चर्चा का स्थायी कालम शुरू करने हेतु मैं कुछ लिख कर भेजूं। नेकी और पूंछ-पूंछ, मुझे उनका यह कहना तो मानना ही था अत: मैं वर्ष पर्यंत, हर बुधवार कुछ न कुछ गांधीजी पर लिखकर प्रकाशन हेतु भेजूंगा और यह सिलसिला 02 अक्टूबर 2020 तक सतत चलता रहेगा।

महात्मा गांधी का चिंतन उनके लिखे अनेक लेखों, संपादकीयों, पत्राचारों, पुस्तकों में वर्णित है। इन्हें पढ़ पाना एक सामान्य जन के लिए असंभव है। मैंने भी इस दिशा में कुछ किताबे पढने का प्रयास कर गांधीजी को समझने की कोशिश की है। फिर मैं कोई बड़ा लेखक या चिन्तक भी नहीं हूँ जो यह दावा कर सके कि गांधीजी के विचारों को पूर्णत: समझ लिया है। फिर भी मैं कोशिश कर रहा  हूँ कि आगामी कुछ सप्ताहों तक मैं गांधीजी द्वारा लिखित कुछ पुस्तकों ‘हिंद स्वराज’, ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्म कथा’, ‘मेरे सपनो का भारत’, ‘ग्राम स्वराज’, ‘अनासक्ति योग’, ‘आश्रम भजनावली’ आदि   के माध्यम से गांधीजी द्वारा व्यक्त विचारों से ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ के पाठकों को परिचित कराने का प्रयास करूं। यह भी सत्य है कि ‘हिंद स्वराज’ में लिखी कई बातें मुझे आसानी से समझ में नहीं आती और कई विचार मेरे गले भी नहीं उतरते  हैं। मुझे गांधी जी की लिखी दूसरी पुस्तक मेरे “सपनों का भारत” पढ़ना ज्यादा पसंद है। समय समय पर मुझे गांधीजी से जुड़े अनेक संस्मरण पढने का अवसर मिलता रहता है, मैंने उन्हें भी संकलित करने का प्रयास किया है। मैं इनसे भी गांधी चर्चा के दौरान अपने मित्रों को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के माध्यम से परचित कराने का प्रयास करूंगा।

हिंद स्वराज जिसे 1909 में लिखा गया था, जिसके अनेक संस्करण समय-समय पर प्रकाशित हुये, उनकी प्रस्तावना लिखते समय बापू ने अनेक रहस्योद्घाटन किये हैं।

प्रथम बार जब उन्होंने  22.11.2009 को किलडोनन कैसल समुद्री जहाज में  बैठकर  इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी तब उन्होंने  सबसे पहले कहा कि “इस विषय पर मैंने जो बीस अध्याय लिखे हैं, उन्हें मैं पाठकों के सामने रखने की हिम्मत करता हूँ ।”

आगे वे लिखते हैं कि “उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक़ बरतें, ऐसी देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी।”

जनवरी 1921 यंग इंडिया में वे लिखते हैं कि –

“इस किताब में ‘आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा।”

सेवाग्राम से 14.07.1938 को उन्होंने संदेश दिया कि ” पाठक इतना ख्याल रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे, मेरी जो बातें हुई थी, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी हैं। पाठक इतना भी जान लें कि दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने ही वाली थी, उसे इस पुस्तक ने रोका था”।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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