योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Three deep breaths ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Three deep breaths 

Video Link : Three deep breaths 

 

FOR VITALITY, IMMUNITY AND STRESS RELIEF

Take a deep breath through the nose

Exhale slowly through the mouth

Exhalation must be longer than the inhalation

Take 3 deep breaths

The body gets more oxygen, immunity improves and stress is reduced

Repeat the process several times during the day

THREE DEEP BREATHS FOR VITALITY, IMMUNITY AND STRESS RELIEF

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings. Email: [email protected]

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।11।।

 

जो मुझ को जैसा भजते हैं उन्हें वही फल देता हूँ

मेरे पथ का पार्थ ! अनुगमन करे जो ,उनको सबंल देता हूँ।।11।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।।11।।

 

In whatever way men approach Me, even so do I reward them; My path do men tread in all ways, O Arjuna! ।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भूखे भजन न होय गोपाला”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ 

 

☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆

 

शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है.  सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में  प्रयोग किया जाता है. जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा  बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य भले ही बनाया है पर इसमें दो राय नही हैं कि उनके स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.

भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है. भजन का गूढ़ अर्थ होता है,  प्रीति पूर्वक सेवा.  प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहाँ मन लगाता है.

चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें,  भजन दरअसल प्रीति है.  प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को  ही भजन मानते हैं . चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.

“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब,  आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.

गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से  एकाकार होने जैसा एटर्नल  लव  गजल को जन्म देता.  कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है.

कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर रुक्मणी में ही उलझ जाता है.

यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो. वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढूँढकर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.

कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूँढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत की जगह, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले.

जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा  पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा  माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव.  पर यह सत्य जानकर भी   अधिक  समझ नही पाते।

जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं,  वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई  रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है ।

जनता के लिए “भूखे भजन न होय गोपाला” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है. लेकिन, जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा  मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆ सिंदूर ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆

 

☆ सिंदूर ☆

 

मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.

“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”

मोहन भी पूरा जिद्दी था.  “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही.  एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”

मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.

वही मोहन आज उज्जैन से आया था.  ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”

“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.

मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.

सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 6 – सांजवारा ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “सांजवारा”)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #6☆ 

 

☆ सांजवारा☆ 

 

अताशा अताशा जगू वाटते

तुझा हात हाती धरू वाटते.

 

नदीकाठ सारा खुणा बोलक्या

तुझ्या सोबतीने फिरू वाटते.

 

किती प्रेम आहे,  नको सांगणे

तुझी भावबोली,  झरू लागते.

 

कितीदा नव्याने तुला जाणले

तरी स्वप्न तुझे बघू वाटते.

 

छळे सांजवारा,  उगा बोचरा

नव्याने कविता,  लिहू वाटते. . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Yoga Asanas : Standing Postures ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ Yoga Asanas : Standing Postures

 

Video Link : Yoga Asanas : Standing Postures 

In this video, we have demonstrated yoga asanas in the standing posture including Tadasana, Tiryak Tadasana, Trikonasana, Virbhadrasana, Parsakonasana, Padottanasana, Utkatasana, Parshvotannasana, Padangushtasana, Padahastasana, Uttanasana, Utthita Hasta Padangusthasana, Mukta Hastasana, Vrikshasana and Natrajasana.

(This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.)

Music:

I Don’t See the Branches, I See the Leaves by Chris Zabriskie is licensed under a Creative Commons

Attribution licence (https://creativecommons.org/licenses/…)

Source: http://chriszabriskie.com/dtv/

Artist: http://chriszabriskie.com/

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।।10।।

 

राग-द्वेष भय क्रोध रहित वे,मुझमें ही मिल जाते हैं

बहुत ज्ञान तप से पवित्र हो,मुझे प्राप्त कर पाते हैं।।10।।

 

भावार्थ :  पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।।10।।

 

Freed from attachment, fear and anger, absorbed in Me, taking refuge in Me, purified by the fire of knowledge, many have attained to My Being. ।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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English Literature ☆ Moksha –the salvation ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

(We welcome Captain Pravin Raghuvanshi ji to e-abhivyakti. We are also thankful to Shri Sanjay Bhardwaj ji who has given us an opportunity to share an excellent literary work of Capt. Pravin Raghuvanshi ji. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. We request Capt. Pravin ji to share his inspirational  journey of life with our readers. Today, we present the translation of an article of Shri Sanjay Bhardwaj ji “Moksha – the salvation”.)

According to Shri Sanjay Bhardwaj – “‘संजय उवाच’  को अनेक मित्र अपने-अपने तरीके से समर्थन देते हैं। मित्र कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने रविवार  के उवाच का अँग्रेजी में उत्कृष्ट अनुवाद किया है। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।”

 

☆ Moksha –the salvation ☆

 

*Moksha* –the salvation, an illusive word, which as a wish is embedded in every human being in the world.  With growing age, it becomes increasingly overpowering.  While forgetting the rare achievement of being born in human body on the paradise-like-earth, the creature often indulges in myriad ways of seeking salvation in different cults, attires, praying systems, ethos and so on.  This chain of discovery creates an everlasting illusive disorientation.

I’ll narrate you an incident.  In the quest of highway to salvation, in perennial confused state, I was going on a city road. Had to stop as the sound of a crying dog ​​in the atmosphere was disturbingly echoing around, but the dog was not to be visible anywhere.  Suddenly, a hard object collided with my foot.  Distressed with pain, I saw, it was a ball.  Children were playing cricket across the street.  After hitting my foot, it rolled over and stopped next to an open manhole of a drainage.

A young child of eight or ten years came running and picked up the ball.  He too heard the wailings of the crying dog.  He peeped in the manhole and saw a puppy lying inside, which was desperately crying for help.  Without wasting time, in a jiffy, he put the ball in his pocket, and jumped into the drainage.

Took out the puppy, as he got wet in knee-deep slushy water. He put the puppy on ground, who kept on wagging his tail vigorously with gratitude, and started rolling in the child’s feet.

Before I could converse with the child, suddenly one of his group members called, “Hey Moksha, where have you stopped?  Get the ball quickly.”  The child ran back to his way…

The eternal confusion was sorted.  The path of liberation was found as the illusive fog got dispelled off…

Respect the salvation of the earth; Bliss of the heavenly Mokshadham will welcome you with open arms.

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #5 – छोटा मुंह बड़ी बात….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही शिक्षाप्रद लघुकथा  “छोटा  मुँह बड़ी बात….. ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #5 ☆

 

☆ छोटा मुँह बड़ी बात….. ☆

 

पांच वर्षीय मेरा चुलबुला पोता दिव्यांश स्कूल व अपने गृहकार्य के बाद अधिकांश समय मेरे कमरे में ही बिताता है। कक्ष में बिखरे कागज व पत्र-पत्रिकाएं ले कर पढ़ने का अभिनय करते हुए बीच-बीच में वह मुझसे कुछ-कुछ पूछता भी रहता है।

आज दोपहर फिर एक पत्रिका खोल कर पूछता है — “दादू ये क्या लिखा है? ये वाली कविता पढ़कर मुझे सिखाओ न दादू! ये कविता भी आपने ही लिखी है न ?”

“नहीं बेटू–ये मेरी कविता नहीं है।”

“फिर भी आप पढ़ कर सुनाएं मुझे।””

टालने के अंदाज में मैंने कहा- “बेटू जी आप ही पढ़ लो, आपको तो पढ़ना आता भी है।”

“नहीं दादू! मुझे अच्छे से नहीं आता पढ़ना। आप ही सुनाइए।”

“इसीलिए तो कहता हूँ बेटे कि, पहले खूब मन लगा कर अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लो, फिर बड़े हो कर अच्छे से कविताएं पढ़ना और सब को सुनाना भी।”

बड़े हो कर नहीं दादू! मुझे तो अब्बी छोटे हो कर ही कविता पढ़ना और सुनाना भी है, आप तो पढ़ाइए ये कविता।”

“आपसे सीख कर अभी छोटा हो कर ही कविता सुनाते-सुनाते फिर जल्दी मैं बड़ा भी हो जाऊंगा”।

पोते को कविता पढ़ाते-सुनाते हुए मैं खुश था, आज उसने अपनी बाल सुलभ सहजता से  जीवन में बड़े होने का एक सार्थक  सूत्र  मुझे दे दिया था।

“छोटे हो कर कविता सुनाते-सुनाते बड़े होने का।”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #6 – रिमझिम के तराने ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  वर्षा ऋतु से संबन्धित कवितायें और उनसे जुड़ी हुई यादें। निःसन्देह यादें विस्मरणीय होती हैं किन्तु,  मैं विस्मित हूँ!  सुश्री प्रभा जी के पास तो वर्षा ऋतु से संबन्धित कविताओं के संस्मरणों का एक इतिहास है १९७८ से लेकर सतत प्रकाशित रचनाएँ, मानधन, अग्रज साहित्यकारों का स्नेह और पाठकों का सम्मानधन । प्रत्येक रचना के साथ कुछ न कुछ तो जुड़ा ही है। उन्होने इस सुदीर्घ साहित्यिक अविस्मरणीय इतिहास को सँजो कर रखा और हमारे पाठकों के साथ साझा किया इसके लिये उनका आभार और लेखनी को नमन।

उनके अविस्मरणीय स्वर्णिम संस्मरणों के प्रति उनके विचारउनके ही शब्दों में –

“ पाऊस खुप आवडता ऋतू, आयुष्यातल्या अनेक पावसाळ्यांच्या अनेक आठवणी …..मागच्या पावसाच्या आठवणी जाग्या झाल्या  त्या आजच्या  # *कवितेच्या प्रदेशात*  मध्ये सादर करते….” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 6 ☆

 

 ☆ रिमझिम के तराने ☆

 

पावसाळ्यात  पावसाच्या कवितांना  उधाण येतं! अनेक संस्थां वर काम करत असताना, जुलै  ऑगस्ट मधे  पावसाच्या कवितांचे  आयोजन केले आहे.

परवा स्वतःच्या पावसाच्या  कविता  एकत्र वाचल्या आणि किती तरी पावसाळे आठवले.

माझ्या *अनिकेत* या संग्रहातील कवितांमधून पावसाच्या कविता निवडायला सुरुवात केली. हा माझा १९७८ पासून चा पाऊस आहे.

ही कविता १९८० साली  *स्वराज्य* साप्ताहिकात सचित्र प्रकाशित झाली होती आणि या कवितेचे दहा रूपये मानधन ही मिळाले होते. ती ही कविता–

 

*सखी मेघ बरसती रिमझिम रिमझिम*

*जणू छेडते कुणीतरी सुरेल सरगम*

          (*अनिकेत*-   बालमैत्रिणीस)

 

त्याच काळात लिहिलेली ही पुढची रचना-

 

*रिमझिम बरसली धारा*

*अंगाला झोंबे वारा*

(*अनिकेत* –गीत )

 

*पाऊस असा पाऊस तसा*

*पाऊस आहे कसा कसा* ?

 

ही आणि पुढच्या ब-याच रचना  अनिकेत मधल्या च आहेत. पाऊस शिर्षकाची ही कविता पहिल्यांदा टिळक स्मारक मंदिरात सादर केली तेव्हा कविसंमेलनाचे अध्यक्ष-न.म.जोशी  यांनी या कवितेचं कौतुक केलं होतं.

दुसरी  एक गोष्ट या कवितेच्या बाबतीतली अशी की,या कवितेची चोरी झाली होती.

माझी *सखी* ही कविता मला टीव्ही वर चा सिनेमा पहाताना झालेली… टीव्ही वर *तुमसा नहीं देखा* हा लागला होता..मी शाळेत असताना पाहिला होता….शाळेचे दिवस आठवले आणि ही कविता  जन्माला आली

 

*आयुष्यातचं पुस्तक  उघडलं की*

*पहिल्यांदा तू सामोरी येतेस*

*तुझा नितळ सावळा रंग*

*दाटलेल्या मेघाला सारखा*..

*बरसत रहातो पुस्तकभर*  !

 

यानंतर ची अष्टाक्षरी रचना ही याच मैत्रिणी वर केलेली..अकाली हे जग सोडून गेलेली ती….

 

*मेघ बरसला  आज*

*आल्या श्रावणाच्या सरी*

*तुझी आठवण येता*

*झाले कावरी बावरी*

 

ही कविता मी १९९२ साली लिहिली. आणि मैत्रिणी ला वाचून दाखवत असताना तिथे तिच्या बिल्डींग मधे रहाणारी अमराठी-पंजाबी शीख मुलगी आली होती. त्यानंतर ती पंजाबी मुलगी मला पंधरा सोळा वर्षांनी रस्त्यात भेटली..तेव्हा ती म्हणाली, “मुझे  आपकी कविता आज तक याद है जिसमे  आपने लिखा था, मेरी पाजेब कुछ बोल नही रही है”!

इतकी सुंदर दाद ऐकून मी अवाकच झाले….ते शब्द  असे आहेत….

 

*मेघ बरसला आज*

*सखे रिकामे अंगण*

*मुके झाले आहे आज*

*माझ्या पायीचे पैंजण*

आषाढात ब्रह्मकमळं उमलतात… माझी *ब्रह्मकमळ* ही एका आषाढातली ख-याखु-या घटनेची कविता. या कवितेला मला साहित्य प्रेमी भगिनी मंडळाचा कवी कालिदास पुरस्कार मिळाला होता आणि *आपले छंद* या अतिशय सुंदर दिवाळी अंकात ती प्रकाशित झाली होती आणि त्या काळात – वीस वर्षा पूर्वी या कवितेला मला दोनशे रुपये मानधन मला मिळाल॔ होतं  …

*रिमझिमत्या शीतल सांजेला*

*त्या राजस कळ्या*

*उघडू लागल्या चोची*

*जणू  आषाढ मेघांच्या*

*अमृत सरीच प्राशण्यासाठी* !

( *मृगचांदणी*- ब्रह्मकमळ )

 

एका पावसाळी संध्याकाळी बालगंधर्व च्या कट्ट्यावर मैत्रिणी बरोबर गप्पा मारत बसलो होतो. नंतर रविराज मध्ये जेवायला जायचं होतं! घरी जाताना रिक्षा डेक्कन काॅज वे वरून गेली. काही जुन्या आठवणी जाग्या झाल्या…. आणि रात्री कागदावर शब्द बरसले….

 

*सखे,निमित्त फक्त*

*आपल्या गाठी भेटीचे*

*पण आपल्या मनातला*

*पाऊस मात्र* ,

*किती वेगळा* ….

*तुझा तुझ्या पुरता*..

*माझा माझ्या पुरता*..

 

माझी “पाऊस प्रतिक्षा” ही कविता प्रेयसी चं हळवं दुःख सांगणारी..मला स्वतःला माझी ही कविता खुप आवडते…

 

*मी साधू पाहतेय संवाद* –

*पावसाशी*…  *तुझ्या शी*….

*आणि ऐकते  आहे*

*मोबाईल मधून येणारे*…

*नाॅट रिचेबल*….

*नाॅट रिचेबल*..

*हे उत्तर*….     *वारंवार*!

 

पावसाच्या काही गजल ही मी लिहिल्या आहेत. मृगाक्षी वृत्तातील या गजल च्या दोन  शेरांनी समारोप करते…

 

*किती दुष्काळ सोसावा धरेने*

*अता बरसायचे  आहे जरासे*

*मला या वेढती लाटा सुनामी*

*मरण टाळायचे  आहे जरासे*

( *मृगचांदणी*-जरासे )

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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