हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बिटवीन द लाइन्स ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – बिटवीन द लाइन्स

 

वे समझते रहे-
मेरी माँ
समझ नहीं पाती
कविता में प्रयुक्त
मेरे भारी-भरकम
शब्दों के अर्थ,
मैंने उन्हें
कुछ जताया नहीं
कभी कुछ
समझाया भी नहीं..,
अलबत्ता उस रोज
मेरे काव्यपाठ के समय
श्रोताओं की वाह के बीच
माँ की आँखों से
प्रवाहित आह ने
उन्हें झूठा साबित कर दिया,
सारी भीड़
मेरी ‘पोएटिक लाइन्स’
पढ़ती रही,
केवल मेरी माँ
‘बिटवीन द लाइंस’
समझती रही।

(जब पढ़ो,’बिटवीन द लाइन्स’ पढ़ो।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है जल की महत्ता पर आधारित श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  का आलेख  पानी कहीं कहानी ना बन जाए.)

 

पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆

 

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

पानी बिना ना ऊबरे मोती मानुष चून।।

 

बचपन से पढते आए हैं और पानी के महत्व को समझकर भी नासमझी का ढोंग करते आए हैं। मगर आज ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका और उससे होने वाले दुष्प्रभावों ने  सोचने पर मजबूर कर दिया है कि “पानी कहीं कहानी ना बन जाए”कुछ उसी तरह जिस तरह आज वह ” पानी” भी लुप्तप्राय है – – भारत से ही नहीं पूरी पृथ्वी पर से – – – वह है इंसानियत का पानी, सद्भाव का पानी, निःस्वार्थ भाव- विभाव – अनुभाव का पानी, एक दूसरे के लिए मर मिटने की लगन का पानी, मानवता के नाम निष्ठा का पानी, सृष्टि के प्रति नैतिक जिम्मेदारी का पानी- – – और जिस दिन उपरोक्त सारे आब उर्फ पानी को हम बचा लेंगे निःसंदेह गले की प्यास बुझाने वाला पानी स्वयंमेव हमारे आंगनों, हमारे घरों और हमारे होठों की पहुंच में होगा।

भौतिकता की दौड़ में मानव-जाति जिस तरह कांक्रीट के जंगल निर्माण कर रही है – -पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है कि–

कटी हुई हर शाख से, चीखा एक कबीर!

मूरख आज इस आरी से, अपना कल मत चीर।!

कबीर की सीखों पर चलते हुए समाज में बहुत सकारात्मक बदलाव आए हैं अतः आज कबीर के नाम पर पुनः इस ईश सीख को अपना लें तो इस धरती पर  पानी कहानी नहीं जीवन की रवानी बन कर प्रवाहित रहेगा— हमेशा हमेशा हमेशा– आदि से अनादि तक, शून्य से अनंत तक, अणु से विराट तक, कण से ब्रम्हांड तक – और जल है तो जीवन है  की कहानी चलती रहेगी, चलती रहेगी अनवरत मानव जाति के साथ क्योंकि पंचभूतात्मक सत्य है – – कि क्षिति जल पावक गगन समीरा पंचतत्व विधि रची सरीरा!!—“और पानी कभी कहानी नहीं बनेगा “

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 18 ☆ मन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  एक अतिसुन्दर आलेख  “मन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ मन

 

“मन” क्या है?

मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.

मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.

सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.

जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है.  एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.

कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.

कबीरदास जी  का यह कथन याद आता है  .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆ वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆

☆  वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆

होती है इंसान की,वाणी से पहचान ।

वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ।।

 

मीठी वाणी से मिले,सामाजिक सम्मान ।

जीवन में रक्खें सदा,इसका समुचित ध्यान ।।

 

सोच समझ कर खोलिये,अपना मुँह श्रीमान ।

वाणी कभी न लौटती, रखें हमेशा ध्यान ।।

 

मीठी वाणी संग जो,रखे मधुर मुस्कान ।

दुश्मन भी अनुकूल हो, करता है सम्मान।।

 

वाणी से ही पनपता,सामाजिक सद्भाव।

वाणी से झगड़ा,कलह,वाणी से विलगाव ।।

 

मृदु वाणी ही कराती,सबसे अपना मेल ।

जिसके सहज प्रभाव से,चलते जीवन-खेल ।।

 

मधुर बोल ‘संतोष’ के,लगते विनत प्रणाम।

रिश्तों में भी मधुरता,आती है अभिराम।।

 

बिन बोले होती नहीं,बोली की पहचान ।

कोयल के हैं मधुर स्वर,कर्कश काक-समान।।

 

धन-दौलत फीकी समझ,होते शब्द महान ।

पीर पराई जो पढ़े जीते सकल जहान ।।

 

वाणी कटु जो बोलता,मिले न उसको मान ।

मधुर वचन अति प्रिय लगें,रखें हमेशा ध्यान ।।

 

बोलें सोच विचार कर,वाणी तत्व महान ।

इससे ही कटुता बढ़े, मिलता इससे मान ।।

 

कच्चा धागा प्रेम का,रहे हमेशा ख्याल।

वाणी से यह टूटता,वाणी रखे सँभाल।।

 

वशीकरण का मंत्र है,मीठे रखिये बोल ।

जीवन में “संतोष” नित तोल मोल के बोल ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प एकोणिसावा # 19 ☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी  का आलेख है  “वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट”। ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकोणिसावा# 19 ☆

 

☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆

 

 

काळ बदललाय, माणूस बदललाय , जमाना बदललाय. . . नेहमी ऐकतो  आपण. कोणी घडवले हे बदल? माणसानच आपली विचारसरणी बदलली  आणि दोष बदलत्या काळाला देऊन मोकळा झाला. आपण समाजात रहातो. . . समाजाचे देणे लागतो. . .

ही संकल्पना प्रत्येकाने सोइस्कर अर्थ लावून बदलून घेतली. स्वतःची जीवनसंहिता ठरवताना प्रत्येकाने माणसापेक्षा पैशाला  अधिक महत्त्व दिले  अन तिथेच नात्यात परकेपणा आला.

चार पायाच्या प्राण्यांना

हौसेने पाळतात माणसं

दोन पायाच्या  आप्तांना

मोलान सांभाळतात माणसं

हे आजचं वास्तव.  विभक्त कुटुंब पद्धतीतून जन्माला आलेली ही विचार सरणी. आज ”हम दो हमारा  एक”  चा नारा लावणारे सुशिक्षित पाळीव, मुक्या प्राण्यांवर अतोनात भूतदया दाखवतात.  अन जन्मदात्या आईवडिलांना मात्र वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवतात. मी मी म्हणणारे सुशिक्षित पतीपत्नी दिवसरात्र घराबाहेर रहातात. नवी पिढी सोशल मिडिया नेटवर्किंग मधून स्वतःचे भविष्य साकारताना दिसते.  एकविसाव्या शतकातील घर संवाद साधताना कमी पण वाद घालताना जास्त दिसतात.  वाद वाढले की माणस माणसांना टाळायला लागतात. अशी नात्यातली अंतरेच नात्यात विसंवाद  आणि दरी निर्माण करतात.

 आज प्रत्येकाला पैसा हवा आहे. पैशामुळे माणसाला दुय्यम ठरवणारी स्वार्थी विचारसरणी जीवनाचा अविभाज्य भाग बनली आहे.

इथे कोण लेकाचा कुणाची देशसेवा पाहतो

तू मला ओवाळ आता, मी तुला ओवाळतो.

हे ओवाळणं ,  एकमेकांची तळी उचलून धरणं या प्रवृत्तीतून माणूस माणसाशी स्पर्धा करतो आहे. आर्थिक दृष्ट्या दुर्बल घटकात  आता ज्येष्ठ नागरिकांचा समावेश होतो हे आपले दुर्दैव म्हणावे लागेल. वास्तल्य , ममत्व या भावनेने ज्येष्ठ ,आपल्या  अपत्यांना  आपल्या जवळील आर्थिक धन देऊन टाकतात.  आपला लेक वृद्धापकाळी आपला सांभाळ करील,  आपल्या म्हातारपणाची काठी बनेल या संकल्पना आता कालबाह्य बनू पहात आहेत.

वृद्धाश्रम काळाची गरज हा विचार पुढे आला आणि मग नवीन पिढीला रान मोकळे झाले.

नवीन पिढीला  आता संस्कारापेक्षा व्यवहार जास्त महत्वाचा वाटतो. पैसा  असेल तर माणूस ताठ मानेने जगू शकतो हा  अनुभव त्याला  आपल्या माणसात दुरावा निर्माण करायला भाग पाडतो. जुन्या पिढीतील नातवंडे सांभाळणारी जुनी पिढी ,त्यांचे विचार ,  नव्या पिढीला नकोसे वाटतात. ”पैसा फेको तमाशा देखो ”

हे ब्रीद वाक्य घेऊन नवीन पिढी माणुसकी पेक्षा  मतलबी पणाला प्राधान्य देताना दिसते.

जुन्या पिढीचा स्वभाव दोष हे कारण पुढे करून ज्येष्ठ नागरिकांना वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवला जातो. पण नवी पिढी स्वतःच्या पायावर उभे करण्यासाठी त्यांनी केलेले कष्ट, जबाबदारी नवी पिढी व्यवहारी दृष्टीने तोलते. आमच पालन पोषण करण त्यांची जबाबदारी होती त्यात जगावेगळे  असे काय केले?  अशी मुक्ताफळे  उधळली जातात.  घर  उभे करताना घरातल्या माणसाला  आपलेस करण्याचा संस्कार पैसा नामक द्रव्याने काबीज केल्याने ही वैचारिक दरी निर्माण झाली आहे.  आणि या दरीवर सेतू बंधनाचे कार्य वृद्धाश्रमाने केले आहे.

वृद्धापकाळी हवा  असलेला मायेचा  ओलावा, समदुःखी ,  समवयस्क व्यक्ती कडून मिळाल्यावर  एकटा जीव वृद्धाश्रमात आपोआप रुळतो. स्वतःच दुःख विसरायला शिकतो.  प्रत्येक व्यक्ती  आपला राग  आपल्या व्यक्ती वर किंवा पगारी नोकरावर काढू शकते. .वृद्धाश्रमात या दोन्ही गोष्टी शक्य नसल्याने माणूस नव्याने जगायला शिकतो. स्वतःच्या विश्वात रममाण होण्यासाठी स्वतःच्या भावनांना  आवर घालतो आणि हा नवा घरोबा स्विकारतो.

नवीन पिढीला घडविण्यात  आपण कुठेतरी कमी पडत  आहोत का? याचा विचार करण्याची गरज  आता निर्माण झाली आहे. कारण  आईवडिलांना सांभाळण्याचे दायित्व नाकारून नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट कुटुंब व्यवस्थेला हानीकारक आहे. आज  आई बापांना वृद्धाश्रमात पाठविण्याचा आदर्श पुढील पिढीने घेतला तर  नातेसंबंध अजूनच मतलबी होतील.

या स्पर्धेच्या युगात स्वतःचा निभाव लागण्यासाठी नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट नातेसंबंधाला सुरूंग लावणारी आहेच पण त्याच बरोबर दिखाऊ पणाचे समर्थन करणारी आहे.  आज  आई बाबा वृद्धाश्रमात रहातात ही गोष्ट ताठ मानेने सांगितली जावी यासाठी काही समाज कंटक प्रयत्न शील आहेत.  आपण वृद्ध झाल्यावर  आपल्याला सन्मानाने जगता यावे यासाठी शोधलेली वृद्धाश्रमाची पळवाट नात्यातले स्नेहबंध कमी करीत आहे हेच खरे  आहे.

आपण कुणाचा  आदर्श घ्यायचा? कुणाचा आदर्श समोर ठेवायचा?  आपली जबाबदारी ,आपली कर्तव्ये हे सारे जर  आपण  आपल्या  आर्थिक परिस्थितीशी निगडीत केले तर हा गुंता सोडवायला  अतिशय कठीण जाईल.

आपण  आणि आपली जबाबदारी यात जोपर्यंत  ”आई बाबा ‘, यांचा समावेश होत नाही तोपर्यंत ही पळवाट आडवाटेन या समाजव्यवस्थेला ,  कुटुंब व्यवस्थाला दुर्बल करीत रहाणार यात शंका नाही.

मी माणसाचा  आहे,  माणूस माझ्या  आहे त्याच मन जपणे ही माझी जबाबदारी  आद्य कर्तव्य आहे हे जोपर्यंत नवीन पिढी मान्य करीत नाही तोपर्यंत ही पळवाट अशीच निघत रहाणार.

आपण घडायचं की आपण बिघडायचं हे  आता ज्याचं त्यानचं ठरवायचं.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।38।।

 

असफलता से कहीं हो छिन्न आत्म विश्वास

ब्रम्ह प्राप्ति के मार्ग पर पाता नहीं विनाश।।38।।

 

भावार्थ :  हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?।।38।।

 

Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman? ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11 – A butterfly woman ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “A butterfly woman”.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11

 

☆ A butterfly woman ☆

Let them

Keep looking at your bodily beauty-

The luminous colour of your skin,

The pretty patterns on your wings,

The magnificent gait while you fly!

 

You should concentrate

Only upon your wings

And its innate strength!

 

One day,

You will have touched the sky

And that’s what

A butterfly woman

Is meant to do!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – घटना नयी : कहानी वही ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – घटना नयी : कहानी वही

 

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेश  में थे। मुझे वेश और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4:57 बजे, 16.10.2019)

( एक पौराणिक कथासूत्र पर आधारित। अज्ञात लेखक के प्रति नमन के साथ।)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆ खरा सौदा ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक अनुकरणीय लघुकथा “खरा सौदा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆

 

☆ लघुकथा – खरा सौदा  ☆ 

 

गरीब किसानों की आत्महत्या की खबर उसे द्रवित कर देती थी।  कोई दिन ऐसा नहीं होता कि समाचार-पत्र में किसानों की आत्महत्या की खबर न हो।  अपनी माँगों के लिए किसानों ने देशव्यापी आंदोलन किया तो उसमें भी मंदसौर में कई किसान मारे गए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आश्वासन दिए लेकिन उनके कोरे वादे किसानों को आश्वस्त नहीं कर पाए और आत्महत्या का सिलसिला जारी रहा।

कई बार वह सोचता कि क्या कर सकता हूँ इनके लिए ? इतना धनवान तो नहीं हूँ कि किसी एक किसान का कर्ज भी चुका सकूँ ।  बस किसी तरह दाल – रोटी चल रही है परिवार की।  क्या करूं कि किसी किसान परिवार की कुछ तो मदद कर सकूं।  यही सोच विचार करता हुआ वह घर से सब्जी लेने के लिए निकल पड़ा।

सब्जी मंडी बड़े किसानों और व्यापारियों से भरी पड़ी  थी।  उसे भीड़ में एक किनारे बैठी हुई बुढ़िया दिखाई दी जो दो – चार सब्जियों के छोटे – छोटे ढेर लगा कर बैठी थी।  इस भीड़- भाड़ में उसकी ओर कोई देख भी नहीं रहा था।  वह उसी की तरफ बढ़ गया।  पास जाकर बोला सब्जी ताजी है ना माई ?

बुढ़िया ने बड़ी आशा से पूछा-  का चाही बेटवा ?  जमीन पर बिछाए बोरे पर रखे टमाटर के ढेर पर नजर डालकर वह बोला –  ऐसा करो ये सारे टमाटर दे दो, कितने हैं ये ? बुढ़िया ने तराजू के एक पलड़े पर बटखरा रखा और दूसरे पलडे पर बोरे पर रखे हुए टमाटर उलट दिए, बोली – अभी तौल देते हैं भैया।  तराजू के काँटे को देखती हुई   बोली –  2 किलो हैं।

किलो क्या भाव लगाया माई ?

तीस रुपया ?

तीस रुपया किलो ? एकबारगी वह चौंक गया।  बाजार भाव से कीमत तो ज्यादा थी ही टमाटर भी ताजे नहीं थे।  वह मोल भाव करके सामान खरीदता था।  ये तो घाटे का सौदा है ? पता नहीं कितने टमाटर ठीक निकलेंगे इसमें, वह सोच ही रहा था कि उसकी नजर बुढ़िया के चेहरे पर पड़ी जो कुछ अधिक कमाई हो जाने की कल्पना से खुश नजर आ  रही थी।  ऐसा लगा कि वह मन ही मन कुछ हिसाब लगा रही है।  शायद उसके परिवार के लिए शाम के खाने का इंतजाम हो गया था।  उसने कुछ और सोचे बिना जल्दी से टमाटर थैले में डलवा लिए।

वह मन ही मन मुस्कुराने लगा, आज उसे अपने को ठगवाने में आनंद आ रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ मानव-मूल्य ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “मानव-मूल्य”.)

संक्षिप्त  परिचय 

शिक्षा: पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्प्रति: सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्मान :

  • प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018,
  • ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर 2019 सहित कई अन्य पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत

 

 ☆  मानव-मूल्य ☆ 

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”

मित्र ने उत्तर दिया, “ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

 

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