हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ भीड़ के चेहरे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “भीड़ के चेहरे ”.  लोकतंत्र में कुछ शब्द सदैव सामयिक होते हैं जैसे भीड़तंत्र और भीड़तंत्र का कोई चेहरा नहीं होता है. श्री विवेक रंजन जी ने ऐसे ही  एक शब्द ‘भीड़तंत्र’ को सफलतापूर्वक एक सकारात्मक दिशा दी है और इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ 

 

 ☆ भीड़ के चेहरे ☆

 

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़तंत्र की रपट थी (कोई इस घटना को भीड़तंत्र का शिकार कहता है, तो कोई इसे मॉबलिंचिंग का), शक में घटित घटना बड़े बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है.

चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी मेरे कहे पर, कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करते पोलिस इंस्पेक्टर को ही मार डाला. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो बैठे. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा!  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है . इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला एंड आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है, तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के.

तब इस भीड़ को भीड़तंत्र कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने इंसानियत और इंस्पेक्टर बेबस हो जाते है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये.  गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति  बनी रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली  जुबान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो ताकि  कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में  न बदल सके.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ शब्द ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए. जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है.आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं.  शब्द चाहे कैसा भी क्यों न हो कविता का अंश तो होता ही है. कविराज विजय जी ने ऐसे ही कई शब्दों से इस अतिसुन्दर कविता “शब्द” की रचना की है.)  

 

☆ शब्द ☆

 

शब्द  असा

शब्द तसा

सांगू तुला

शब्द कसा?

माणुसकीच्या

ऐक्यासाठी

पसरलेला

एक पसा. .. . !

शब्द  अक्षरलेणे

देऊन जातो देणे

ह्रदयापासून

ह्रदयापर्यंत

करीत रहातो

जाणे येणे. . . . !

शब्द आलंकृत

शब्द सालंकृत.

मनाचा आरसा

जाणिवांनी

सर्वश्रृत.. . . . !

कधी येतो

साहित्यातून

तर कधी

काळजातून.. . !

शस्त्र होतो कधी

कधी श्रावण सर

शब्द म्हणजे

कवितेचे

हळवे ओले

माहेरघर.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆ नसीहत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नसीहत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆

 

☆ नसीहत ☆

 

थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, ” तू मेरी बात मान लें. तू रोज घुमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहां मानती है ?” मां ने नाराजगी व्यक्त की.

” वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.”

” अरे! मैं तूझे जलील कर रही हूं,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, ” तेरे भले के लिए कह रही हूं. इस से तेरे हाथ पैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.”

” तब तो तू भी इस के साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, ” आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आप को क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूं. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूं. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.”

” और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, ” आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है……. ”

बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, ” और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आप को मेरे अलावा कोई कामधंधा नहीं है क्या ?”

यह सुन कर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देख कर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, ” मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथ पैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएंगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.”

इस पर पत्नी चिढ़ पड़ी, ” आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इस पर पति के मुंह से अचानक निकल गया,” आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.

” क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखों  से अंगार बरसने लगे. मानों वह बेटी और पति से पराजित हो गई हो.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 18 – माणसं…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  क्या  वास्तव में  व्याकरण, शब्द, विराम चिन्हों की तरह ही होते हैं मनुष्य? यह प्रयोग निश्चित ही अद्भुत है.  इस कविता माणसं…. के लिए पुनः श्री सुजित कदम जी को बधाई. )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #18☆ 

 

☆ माणसं…. ☆ 

 

कधी काना,

कधी मात्रा.. .

कधी उकार ,

कधी वेलांटी.. .

कधी अनुस्वार ,

कधी स्वल्पविराम.. .

कधी अर्ध विराम,

कधी विसर्ग.. .

कधी उद्गगारवाचक,

तर कधी पुर्णविराम.. .

अक्षरांना ही भेटतात,

अशीच.. . .

काहीशी माणसं..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।30।।

 

लखते जो सब में मुझे,मुझमें सब संसार

मेरे लिये अमर हैं वे,मैं उनका आधार।।30।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।।30।।

He who sees Me everywhere and sees everything in me, he does not become separated  from me nor do I become separated from him.  ।।30।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 16 – तोल मोल कर बोल जमूरे ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर रचना  “तोल मोल कर बोल जमूरे। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 16 ☆

 

☆ तोल मोल कर बोल जमूरे ☆  

 

किसमें कितनी पोल जमूरे

तोल  मोल कर बोल  जमूरे।

 

कर ले बन्द बाहरी आँखें

अन्तर्चक्षु   खोल    जमूरे।

 

प्यास बुझाना है पनघट से

पकड़ो रस्सी – डोल जमूरे।

 

अंतरिक्ष  में   वे    पहुंचे

तू बांच रहा भूगोल जमूरे।

 

पेट पकड़कर अभिनय कर ले

मत कर टाल मटोल जमूरे।

 

टूटे हुए  आदमी से  मत

करना कभी मख़ौल जमूरे।

 

संस्कृति गंगा जमुनी में विष

नहीं वोट का, घोल  जमूरे।

 

कोयल तो गुमसुम बैठी है

कौवे करे,  मख़ौल  जमूरे।

 

है तैयार, सभी बिकने को

सब के अपने मोल, जमूरे।

 

फिर से वापस वहीं वहीं पर

यह दुनिया है  गोल  जमूरे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सिक्का – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – सिक्का ☆

मेरा शून्य
मेरा संतृप्त
समांतर चलते हैं,
शून्य संभावनाओं को
खंगालता है..,
संतृप्त आशंकाओं को
नकारता है..,
सिक्के की विपरीत सतहें
किसने निर्धारित की ?
संभावना और आशंका
किसने परिभाषित की?
शिकारी की संभावना
शिकार के लिए आशंका है,
संतृप्त की आशंका
शून्य के लिए संभावना है,
जीवन परिस्थिति सापेक्ष होता है
बस काल है जो निरपेक्ष होता है!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 7 – खुशियों का सावन मनभावन  ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “खुशियों का सावन मनभावन ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 7  ☆

 

☆ खुशियों का सावन मनभावन

 

गुरू का संग हमें लगे क्षणै-क्षणै सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

बचपन की बेला तोतले बोल मैं बोला,

पकड़ ऊँगली आसमान छूने जो चला,

कभी लोरी तो कभी कंधे देखा है मेला,

गुरू बन मात-पिता ने दिया नया उजाला,

हृदयतल में निवास करे जीवन हो पावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

हाथों में हाथ लेकर श्रीगणेशा जब लिखा,

कौन था वह हाथ आज तक न दिखा,

जो भी हो गुरूजन आप थे बचपन के सखा,

की होगी शरारत पर सिखाना न कभी रूका,

हाथ कभी न छूटे अपना रिश्ता बने सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

ना समझ से समझदार जब हम बने,

गुरूजनों के आशीर्वचन हमने थे चुने,

बढ़ाकर विश्वास दिखाए खुली आँखों में सपने,

जो थे कभी बेगाने अब लगते हैं अपने,

गुरूजी आप बिन कल्पना से नीर बहाएँ नयन

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

अनुभव जैसा गुरू नहीं भाई बात समझ में आई,

गिरकर उठना उठकर चलना कसम आज है खाई,

हार-जीत तो बनी रहेगी अपनी क्षणिक परछाई,

न हो क्लेश न अहंकार सीख अमूल्य सिखाई,

सिखावन गुरू आपकी निज करता रहूँ वहन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ रोटियां सेंकने जाना था ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ  मराठी कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

आज प्रस्तुत है   ई-अभिव्यक्ति  पहली हिंदी लघुकथा “रोटियां सेंकने जाना था.” )

 

☆ लघुकथा –  रोटियां सेंकने जाना था ☆

 

दिन भर कि थकान से हरीश घर वापिस लौटा । आते ही वह बेड पर लेट गया। थकान से चूर होने कि वजह से उसकी कब आँख लग गई पता ही नही चला। उसके बेटे ने उसे जगाया कहा- “पापा उठिए मम्मी खाने पर बुला रही है।” तब जा कर वह जागा लेकिन बेटे के इन शब्दो ने उसे उसके अतीत में ले जा कर छोड़ दिया। जब वह छोटा था तब माँ भी उसे ऐसे  ही खाना खाने और भी अन्य काम करवाने  के लिए जगा दिया करती थी।

उस दिन भी हरीश ऐसे ही सोया था। उसकी माँ ने उसे जगाया और कहा- “हरीश, बेटे बनिया की दुकान से कूछ सामान ला दे। तब तक मैं रोटियाँ सेंक लेती हूँ। तूझे भी भूख लगी होगी। जा जल्दी”। माँ की बात सुन छोटा हरीश बोला ” माँ मुझे भी सिखा दो ना रोटियां सेंकना। जब आप दीदी के घर जाओगी तो मै खुद भी बना कर खा सकता हूँ। जब आप जाते तब खाना देते समय बगल वाली आंटी का मुँह फूला हुआ रहता है”।   छोटे हरीश की बात सुन माँ हल्के से मुस्कुरायी और उसे हाँ कहकर बनिया की दुकान पर भेजा। बिल्डिंग के नीचे उतरकर हरीश रास्ता पार कर दुकान पर पहुंचा। जेब से पैसे निकाल कर बनिये के हाथ मे देने ही वाला था कि पीछे से  जोर से कुछ फटने की आवाज आयी। उसने पीछे मुड़ कर देखा तो उसी के बिल्डिंग की ओर कूछ लोग भागते हुए जा रहे थे और कह रहे थे कि सिलिंडर फट गया है । हरीश  पैसे जेब मे रख बिल्डिंग की ओर भागा। जा कर उसने देखा कि उसकी माँ कब से गतप्राण हो चुकी थी। सिलिंडर फटने की वजह से जल भी चुकी थी। वह अपनी माँ को उस अवस्था मे देखता ही रह गया।

उसकी माँ के साथ रोटियाँ सेंकने की ख्वाहिश आज भी अधूरी रह गई। माँ की वे बातें उसके जहन मे आज भी जिंदा थी। उन बातों को याद कर उसने आँखे पोंछी और खाना खाने निकल गया।

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार

मो  9168471113

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 18 – स्त्री पर्व ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  पुनः  स्त्री पर  एक कविता  “स्त्री पर्व ”.

सर्वप्रथम क्षमा चाहूँगा – कविता सामयिक होते हुए भी सामयिकता को अनुशासनात्मक स्वरूप न दे पाया। वैसे तो  समय पूर्व कविता मिलने के बावजूद इन पंक्तियों के लिखे जाते तक स्त्री पर्व सतत जारी है….  स्त्री पर्व का अंत असंभव है जहां इस पर्व के अंत की परिकल्पना करते हैं वही नव स्त्री पर्व का प्रारम्भ है। यह सत्य है कि हमारी कविता हमारे जीवन से संवेदनात्मक दृष्टि से जुड़ी हुई है, एक व्यक्तिगत फोटो एल्बम की तरह। जैसे एल्बम के चित्रों में समय के साथ झलकती परिपक्वता के साथ ही कविता परिपक्व होती प्रतीत होती है, वैसे ही हमारी भावनाएं, संघर्ष, संवेदनाएं, वेदनाएं, मानसिकता आदि का आईना होती जाती हैं हमारी कवितायें। फिर एक वह क्षण भी आता है जब लगता है कि संवेदनाएं शेष नहीं रहीं फिर उसी क्षण से अंकुरित होती है नई कविता एक नव स्त्री पर्व की तरह। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 18 ☆

 

☆ स्त्री पर्व ☆

 

आज कवितेच्या वह्या चाळताना  जाणवले ,

दिवसेंदिवस खूप बदलते आहे माझी कविता

जुन्या फोटोंचे अल्बम बघताना जसे दिसतात ,

रंग रुप ,व्यक्तिमत्वात होत गेलेले बदल

काळानुरूप …………

तसेच कवितेतही  उतरले आहेत पडसाद ,

त्या त्या काळातील भावनांचे, मानसिकतेचे ,

जाणिवांचे, संघर्षाचे !!

जुन्या वहीतल्या अश्रूंच्या कविता —

काळजातल्या कल्लोळाच्या, वेदनेच्या !!

त्या नंतरच्या बंडखोरीच्या ….मुक्ततेच्या ,

आणि परिणामाच्याही ……..

आजपर्यंतच्या प्रवासाच्या पाऊलखुणा —-

माझ्यातली मी —कुठून कुठवर आलेली …..

 

…..आजकाल पावसाने झोडपल्याच्या ,

उन्हाने करपविल्याच्या खुणाही, टिपत नाही लेखणी !!

 

जणू लढाई संपली आहे  !

 

ही असेल कदाचित …….युद्धानंतरची शांतता ……

 

की लढून मिळविलेल्या ,

 

——नव्या स्त्रीपर्वाची सुरुवात??

 

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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