Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11 – A butterfly woman ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “A butterfly woman”.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 11

 

☆ A butterfly woman ☆

Let them

Keep looking at your bodily beauty-

The luminous colour of your skin,

The pretty patterns on your wings,

The magnificent gait while you fly!

 

You should concentrate

Only upon your wings

And its innate strength!

 

One day,

You will have touched the sky

And that’s what

A butterfly woman

Is meant to do!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – घटना नयी : कहानी वही ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – घटना नयी : कहानी वही

 

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेश  में थे। मुझे वेश और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4:57 बजे, 16.10.2019)

( एक पौराणिक कथासूत्र पर आधारित। अज्ञात लेखक के प्रति नमन के साथ।)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆ खरा सौदा ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक अनुकरणीय लघुकथा “खरा सौदा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆

 

☆ लघुकथा – खरा सौदा  ☆ 

 

गरीब किसानों की आत्महत्या की खबर उसे द्रवित कर देती थी।  कोई दिन ऐसा नहीं होता कि समाचार-पत्र में किसानों की आत्महत्या की खबर न हो।  अपनी माँगों के लिए किसानों ने देशव्यापी आंदोलन किया तो उसमें भी मंदसौर में कई किसान मारे गए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आश्वासन दिए लेकिन उनके कोरे वादे किसानों को आश्वस्त नहीं कर पाए और आत्महत्या का सिलसिला जारी रहा।

कई बार वह सोचता कि क्या कर सकता हूँ इनके लिए ? इतना धनवान तो नहीं हूँ कि किसी एक किसान का कर्ज भी चुका सकूँ ।  बस किसी तरह दाल – रोटी चल रही है परिवार की।  क्या करूं कि किसी किसान परिवार की कुछ तो मदद कर सकूं।  यही सोच विचार करता हुआ वह घर से सब्जी लेने के लिए निकल पड़ा।

सब्जी मंडी बड़े किसानों और व्यापारियों से भरी पड़ी  थी।  उसे भीड़ में एक किनारे बैठी हुई बुढ़िया दिखाई दी जो दो – चार सब्जियों के छोटे – छोटे ढेर लगा कर बैठी थी।  इस भीड़- भाड़ में उसकी ओर कोई देख भी नहीं रहा था।  वह उसी की तरफ बढ़ गया।  पास जाकर बोला सब्जी ताजी है ना माई ?

बुढ़िया ने बड़ी आशा से पूछा-  का चाही बेटवा ?  जमीन पर बिछाए बोरे पर रखे टमाटर के ढेर पर नजर डालकर वह बोला –  ऐसा करो ये सारे टमाटर दे दो, कितने हैं ये ? बुढ़िया ने तराजू के एक पलड़े पर बटखरा रखा और दूसरे पलडे पर बोरे पर रखे हुए टमाटर उलट दिए, बोली – अभी तौल देते हैं भैया।  तराजू के काँटे को देखती हुई   बोली –  2 किलो हैं।

किलो क्या भाव लगाया माई ?

तीस रुपया ?

तीस रुपया किलो ? एकबारगी वह चौंक गया।  बाजार भाव से कीमत तो ज्यादा थी ही टमाटर भी ताजे नहीं थे।  वह मोल भाव करके सामान खरीदता था।  ये तो घाटे का सौदा है ? पता नहीं कितने टमाटर ठीक निकलेंगे इसमें, वह सोच ही रहा था कि उसकी नजर बुढ़िया के चेहरे पर पड़ी जो कुछ अधिक कमाई हो जाने की कल्पना से खुश नजर आ  रही थी।  ऐसा लगा कि वह मन ही मन कुछ हिसाब लगा रही है।  शायद उसके परिवार के लिए शाम के खाने का इंतजाम हो गया था।  उसने कुछ और सोचे बिना जल्दी से टमाटर थैले में डलवा लिए।

वह मन ही मन मुस्कुराने लगा, आज उसे अपने को ठगवाने में आनंद आ रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ मानव-मूल्य ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “मानव-मूल्य”.)

संक्षिप्त  परिचय 

शिक्षा: पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्प्रति: सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्मान :

  • प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018,
  • ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर 2019 सहित कई अन्य पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत

 

 ☆  मानव-मूल्य ☆ 

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”

मित्र ने उत्तर दिया, “ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “लो फिर लग गई आचार संहिता”.  काश अचार संहिता हमेशा ही लागू रहती तो कितना अच्छा होता. लोगों का काम तो वैसे ही हो जाता है. लोकतंत्र में  सरकारी तंत्र और सरकारी तंत्र में लोकतंत्र का क्या महत्व होगा यह विचारणीय है. श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गंभीरतापूर्वक शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ 

 

☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆

 

लो फिर लग गई आचार संहिता। अब महीने दो महीने सारे सरकारी काम काज  नियम कायदे से  होंगें। पूरी छान बीन के बाद। नेताओ की सिफारिश नही चलेगी। वही होगा जो कानून बोलता है, जो होना चाहिये । अब प्रशासन की तूती बोलेगी।  जब तक आचार संहिता लगी रहेगी  सरकारी तंत्र, लोकतंत्र पर भारी पड़ेगा। बाबू साहबों  के पास लोगो के जरूरी  काम काज टालने के लिये आचार संहिता लगे होने का  आदर्श बहाना होगा । सरकार की उपलब्धियो के गुणगान करते विज्ञापन और विज्ञप्तियां समाचारों में नही दिखेंगी। अखबारो से सरकारी निविदाओ  के विज्ञापन गायब हो जायेंगे। सरकारी कार्यालय सामान्य कामकाज छोड़कर चुनाव की व्यवस्था में लग जायेंगे।

मंत्री जी का निरंकुश मंत्रित्व और राजनीतिज्ञो के छर्रो का बेलगाम प्रभुत्व आचार संहिता के नियमो उपनियमो और उपनियमो की कंडिकाओ की भाषा  में उलझा रहेगा। प्रशासन के प्रोटोकाल अधिकारी और पोलिस की सायरन बजाती मंत्री जी की एस्कार्टिंग करती और फालोअप में लगी गाड़ियो को थोड़ा आराम मिलेगा।  मन मसोसते रह जायेंगे लोकशाही के मसीहे, लाल बत्तियो की गाड़ियां खड़ी रह जायेंगी।  शिलान्यास और उद्घाटनों पर विराम लग जायेगा। सरकारी डाक बंगले में रुकने, खाना खाने पर मंत्री जी तक बिल भरेंगे। मंत्री जी अपने भाषणो में विपक्ष को कितना भी कोस लें पर लोक लुभावन घोषणायें नही कर सकेंगे।

सरकारी कर्मचारी लोकशाही के पंचवर्षीय चुनावी त्यौहार की तैयारियो में व्यस्त हो जायेंगे। कर्मचारियो की छुट्टियां रद्द हो जायेंगी। वोट कैंपेन चलाये जायेंगे।  चुनाव प्रशिक्षण की क्लासेज लगेंगी। चुनावी कार्यो से बचने के लिये प्रभावशाली कर्मचारी जुगाड़ लगाते नजर आयेंगे। देश के अंतिम नागरिक को भी मतदान करने की सुविधा जुटाने की पूरी व्यवस्था प्रशासन करेगा।  रामभरोसे जो इस देश का अंतिम नागरिक है, उसके वोट को कोई अनैतिक तरीको से प्रभावित न कर सके, इसके पूरे इंतजाम किये जायेंगे। इसके लिये तकनीक का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा, वीडियो कैमरे लिये निरीक्षण दल चुनावी रैलियो की रिकार्डिग करते नजर आयेंगे। अखबारो से चुनावी विज्ञापनो और खबरो की कतरनें काट कर  पेड न्यूज के एंगिल से उनकी समीक्षा की जायेगी राजनैतिक पार्टियो और चुनावी उम्मीदवारो के खर्च का हिसाब किताब रखा जायेगा। पोलिस दल शहर में आती जाती गाड़ियो की चैकिंग करेगा कि कहीं हथियार, शराब, काला धन तो चुनावो को प्रभावित करने के लिये नही लाया ले जाया रहा है। मतलब सब कुछ चुस्त दुरुस्त नजर आयेगा। ढ़ील बरतने वाले कर्मचारी पर प्रशासन की गाज गिरेगी। उच्चाधिकारी पर्यवेक्षक बन कर दौरे करेंगे। सर्वेक्षण  रिपोर्ट देंगे। चुनाव आयोग तटस्थ चुनाव संपन्न करवा सकने के हर संभव यत्न में निरत रहेगा। आचार संहिता के प्रभावो की यह छोटी सी झलक है।

नेता जी को उनके लक्ष्य के लिये हम आदर्श आचार संहिता का नुस्खा बताना चाहते हैं। व्यर्थ में सबको कोसने की अपेक्षा उन्हें यह मांग करनी चाहिये कि देश में सदा आचार संहिता ही लगी रहे, अपने आप सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा वे चाहते हैं। प्रशासन मुस्तैद रहेगा और मंत्री महत्वहीन रहेंगें तो भ्रष्टाचार नही होगा।  बेवजह के निर्माण कार्य नही होंगे तो अधिकारी कर्मचारियो को  रिश्वत का प्रश्न ही नही रहेगा। आम लोगो का क्या है उनके काम तो किसी तरह चलते  ही रहते हैं धीरे धीरे, नेताजी  मुख्यमंत्री थे तब भी और जब नही हैं तब भी, लोग जी ही रहे हैं। मुफ्त पानी मिले ना मिले, बिजली का पूरा बिल देना पड़े या आधा, आम आदमी किसी तरह एडजस्ट करके जी ही लेता है, यही उसकी विशेषता है।

कोई आम आदमी को विकास के सपने दिखाता है, कोई यह बताता है कि पिछले दस सालो में कितने एयरपोर्ट बनाये गये और कितने एटीएम लगाये गये हैं। कोई यह गिनाता है कि उन्ही दस सालो में कितने बड़े बड़े भ्रष्टाचार हुये, या मंहगाई कितनी बढ़ी है। पर आम आदमी जानता है कि यह सब कुछ, उससे उसका वोट पाने के लिये अलापा जा रहा राग है।  आम आदमी  ही लगान देता रहा है, राजाओ के समय से। अब वही आम व्यक्ति ही तरह तरह के टैक्स  दे रहा है, इनकम टैक्स, सर्विस टैक्स, प्रोफेशनल टैक्स,और जाने क्या क्या, प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर। जो ये टैक्स चुराने का दुस्साहस कर पा रहा है वही बड़ा बिजनेसमैन बन पा रहा है।

जो आम आदमी को सपने दिखा पाने में सफल होता है वही शासक बन पाता है। परिवर्तन का सपना, विकास का सपना, घर का सपना, नौकरी का सपना, भांति भांति के सपनो के पैकेज राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो में आदर्श आचार संहिता के बावजूद भी  चिकने कागज पर रंगीन अक्षरो में सचित्र छप ही रहे हैं और बंट भी रहे हैं। हर कोई खुद को आम आदमी के ज्यादा से ज्यादा पास दिखाने के प्रयत्न में है। कोई खुद को चाय वाला बता रहा है तो कोई किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर रात बिता रहा है, कोई स्वयं को पार्टी के रूप में ही आम आदमी  रजिस्टर्ड करवा रहा है। पिछले चुनावो के रिकार्डो आधार पर कहा जा सकता है कि आदर्श आचार संहिता का परिपालन होते हुये, भारी मात्रा में पोलिस बल व अर्ध सैनिक बलो की तैनाती के साथ  इन समवेत प्रयासो से दो तीन चरणो में चुनाव तथाकथित रूप से शांति पूर्ण ढ़ंग से सुसंम्पन्न हो ही जायेंगे। विश्व में भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के रूप में स्थापित हो  जायेगा। कोई भी सरकार बने अपनी तो बस एक ही मांग है कि शासन प्रशासन की चुस्ती केवल आदर्श आचार संहिता के समय भर न हो बल्कि हमेशा ही आदर्श स्थापित किये जावे, मंत्री जी केवल आदर्श आचार संहिता के समय डाक बंगले के बिल न देवें हमेशा ही देते रहें। राजनैतिक प्रश्रय से ३ के १३ बनाने की प्रवृत्ति  पर विराम लगे,वोट के लिये धर्म और जाति के कंधे न लिये जावें, और आम जनता और  लोकतंत्र इतना सशक्त हो की इसकी रक्षा के लिये पोलिस बल की और आचार संहिता की आवश्यकता ही न हो।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆ नाम ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नाम”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆

 

☆ नाम ☆

 

पति को रचना पर पुरस्कार प्राप्त होने की खबर पर पत्नी ने कहा,  “अपना ही नाम किया करों. दूसरों की परवाह नहीं है.”

“ऐसा क्या किया है मैंने?” पति अति उत्साहित होते हुए बोला, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारे पति को पुरस्कार के लिए चुना गया है.”

“हूँ”, उस ने गहरी सांस लेकर कहा,  “यह तो मैं ही जानती हूँ. दिनरात मोबाइल और कंप्युटर में लगे रहते हो. मेरे लिए तो वक्त ही नहीं है आप के पास. क्या सभी साहित्यकार ऐसो ही होते हैं. उन की पत्नियां भी इसी तरह दुखी होती है.”’ पत्नी ने पति के उत्साह भाप पर गुस्से का ठंडा पानी डालने की कोशिश की.

“मगर, जब हम लोग साहित्यिक कार्यक्रम में शिलांग घुमने गए थे, तब तुम कह रही थी कि मुझे इन जैसा पति हर जन्म में मिलें.”

“ओह ! वो बात !” पत्नी ने मुँह मरोड़ कर कहा,  “कभी-कभी आप को खुश करने के लिए कह देती हूं. ताकि…”

“ताकि मतलब…”

“कभी भगवान आप को अक्ल दे दें और मेरे नाम से भी कोई रचना या पुरस्कार मिल जाए. ” पत्नी ने अपने मनोभाव व्यक्त कर दिए.

यह सुनते ही पति को पत्नी के पेटदर्द की असली वजह मालुम हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 19 – अंधार  ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! अंधकार में प्रकाश की एक किरण ही काफी है हमारे अंतर्मन में आशा की किरण जगाने के लिए.  इस कविता अंधार  के लिए पुनः श्री सुजित कदम जी को बधाई. )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #19☆ 

 

☆ अंधार  ☆ 

 

अंधार

माझ्या अंतर्मनात रूजलेला

खोल श्वासात भिनलेला

नसानसात वाहणारा

दारा बाहेर थांबलेला

चार भिंतीत कोडलेला

शांत, भयाण

भुकेलेल्या पिशाच्चा सारखा

पायांच्या नखां पासून केसां पर्यंत

सामावून गेला आहे माझ्यात

आणि बनवू पहात आहे मला

त्याच्याच जगण्याचा

एक भाग म्हणून जोपर्यंत

त्याचे अस्तित्व माझ्या नसानसात

भिनले आहे तोपर्यंत

आणि

जोपर्यंत माझ्या डोळ्यांतून एखादा

प्रकाश झोत माझ्या देहात

प्रवेश करून माझ्या अंतर्मनात

पसरलेला हा अंधार झिडकारून

लावत नाही तोपर्यंत

हा अंधार असाच राहील

एका बंद काजळाच्या डबी सारखा

आतल्या आत गड्द काळा मिट्ट अंधार

एका प्रकाश झोताची वाट पहात

अगदी शेवट पर्यंत…!

 

© सुजित कदम, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।37।।

 

अर्जुन ने कहा-

श्रद्धा रखते,यत्न कम चंचल मन का व्यक्ति

योग सिद्धि न हुई तो पाता है क्या गति ।।37।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।।37।।

 

He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders away from Yoga, what end does he meet, having failed to attain perfection in Yoga, O Krishna? ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों के अध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. हम प्रयास करेंगे कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें. )

 

☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆

 

मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल प्रतिवर्ष हिंदी भवन के माध्यम से प्रतिभा प्रोत्साहन राज्य स्तरीय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है और श्री सुशील कुमार केडिया अपने माता पिता स्व. श्री महावीर प्रसाद केडिया व स्व. श्रीमती पन्ना देवी केडिया की स्मृति में पुरस्कार देते हैं। इस वर्ष भी यह आयोजन दिनांक 12.10.2019 को हिंदी भवन में हुआ और महात्मा गांधी के 150वें जन्मोत्सव के सन्दर्भ में  वाद विवाद का विषय था  ‘जीवन की सार्थकता के लिए गांधीजी के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक है’।

वाद-विवाद में 26 जिलों के स्कूलों से पचास छात्र आये, 25 पक्ष में और 25 विपक्ष में। इन्होने  अपने विचार जोशीले युवा अंदाज में लेकिन मर्यादित भाषा में प्रस्तुत किए। विपक्ष ने भी कहीं भी महामानव के प्रति अशोभनीय भाषा का प्रयोग नहीं किया और अपनी बात पूरी शालीनता से रखी । विषय गंभीर था, विषय वस्तु व्यापक थी, चर्चा के केंद्र बिंदु में ऐसा व्यक्तित्व था जिसे देश विदेश सम्मान की दृष्टी से देखता है और भारत की जनता उन्हें  राष्ट्र पिता कहकर संबोधित करती है। गांधीजी के सिद्धांत भारतीय मनस्वियों के चिंतन पर आधारित हैं, समाज में नैतिक मूल्यों की वकालत करते हैं, विभिन्न धर्मों के सार से सुसज्जित हैं  और इन विचारों पर अनेक पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ न कुछ  छपता रहता है। अत: पक्ष के पास बोलने को बहुत कुछ था और उनके तर्क भी जोरदार होने ही थे । दूसरी ओर विपक्ष के पास ऐसे नैतिक मूल्यों, जिनकी शिक्षा का  भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव है, के विरोध में तर्क देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था, फिर उन्हें लेखों व पुस्तकों से ज्यादा सहयोग नहीं मिलना था अत: उन्हें  अपने तर्क स्वज्ञान व बुद्धि से प्रस्तुत करने थे।

हिन्दी भवन के मंत्री और संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त ने मुझे, श्री विभांशु जोशी तथा श्री अनिल बिहारी श्रीवास्तव के साथ  निर्णायक मंडल में शामिल किया लेकिन जब  वाद विवाद की विषयवस्तु  मुझे पता चली तो मैं थोड़ा दुविधागृस्त भी हुआ क्योंकि गांधीजी के प्रति मेरी भक्तिपूर्ण आस्था है।  जब हमने छात्रों को सुना तो निर्णय लेने में काफी मशक्कत करनी पडी। विशेषकर कई विपक्षी  छात्रों के तर्कों  ने मुझे आकर्षित किया। आयशा कशिश ने रामचरित मानस से अनेक उद्धरण देकर गांधीजी के सिद्धांत सत्य व अहिंसा को अनुकरणीय मानने से नकारा तो बुरहानपुर की मेघना के तर्क अहिंसा को लेकर गांधीजी की बातों की पुष्टि करते नज़र आये। विपक्ष ने मुख्यत: गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत को आज के परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद से लड़ने व सीमाओं की सुरक्षा के लिए अनुकरणीय नहीं माना और पक्ष के लोग इस तर्क का कोई ख़ास खंडन करते न दिखे। कुछ विपक्षी वक्ताओं ने तो तो 1942 में गांधीजी के आह्वान ‘करो या मरो’ को एक प्रकार से  हिंसा की श्रेणी में रखा। अनेक विपक्षी वक्ता  तो इस मत के थे कि हमें आज़ादी दिलाने  में हिंसक गतिविधियों का सर्वाधिक योगदान है।   ऐसे वक्ता कवि की इन पक्तियों  ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल´ से सहमत नहीं दिखे । उनके मतानुसार आज़ाद हिन्द फ़ौज के 26000 शहीद सैनिकों   और सरदार भगत सिंह जैसे अनेक  क्रांतिकारियों का बलिदान युक्त  योगदान देश को आज़ादी दिलाने में है जिसे नकारा नहीं जा सकता। विपक्ष ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को भी अनुकरणीय नहीं माना, वक्ताओं के अनुसार इस सिद्धांत के परिपालन से लोगों में धन न कमाने की भावना बलवती होगी और यदि अमीरों के द्वारा कमाया गया धन गरीबों में बांटा जाएगा तो वे और आलसी बनेंगे। विपक्षी वक्ताओं को गांधीजी का ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी पसंद नहीं आया उन्होंने इसे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्ध व उपस्थित श्रोताओं के इसके अनुपालन न करने से जोड़ते हुए अनुकरणीय नहीं माना। उनके अनुसार यह सब कुछ गांधीजी की कुंठा का नतीजा भी हो सकता है।  पक्ष ने गांधीजी के इस सिद्धांत के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और बताने की कोशिश की कि गांधीजी के ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग हमें इन्द्रीय तुष्टिकरण से आगे सोचते हुए काम, क्रोध, मद व लोभ पर नियंत्रण रखने हेतु प्रेरित करते हैं।  अपरिग्रह को लेकर भी विपक्षी वक्ता मुखर थे वे वर्तमान युग में भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु संम्पति के अधिकतम संग्रहण को बुरा मानते नहीं दिखे। विपक्ष के कुछ वक्ताओं ने गांधीजी की आत्मकथा से उद्धरण देते हुए कहा कि वे कस्तुरबा के प्रति सहिष्णु नहीं थे और न ही उन्होंने अपने पुत्रों की ओर खास ध्यान दिया। हरिलाल का उदाहरण  देते हुए एक वक्ता ने तो यहाँ तक कह दिया कि गजब गांधीजी अपने पुत्र से ही अपने विचारों का अनुसरण नहीं करवा सके तो हम उनके विचारों को अनुकरणीय कैसे मान सकते हैं। औद्योगीकरण को लेकर भी विपक्ष मुखर था। आज उन्हें गांधीजी का चरखा आकर्षित करता नहीं दिखा। छात्र सोचते हैं कि चरखा चला कर सबका तन नहीं ढका जा सकता। वे मानते हैं की कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने से अच्छी आमदनी देने वाला रोजगार नहीं मिलेगा, स्वदेशी को बढ़ावा देने से हम विश्व के अन्य देशों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे  और न ही हमें नई नई वस्तुओं के उपभोग का मौक़ा मिलेगा।

वादविवाद प्रतियोगिता में गांधीजी के सरदार भगत सिंह को फांसी से न बचा पाने, त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ सहयोगात्मक  रुख न अपनाने  व अपना उत्तराधिकारी चुनने में सरदार पटेल की उपेक्षा कर  जवाहरलाल नेहरु का पक्ष लेने को लेकर भी विपक्ष के वक्ताओं ने मर्यादित भाषा में टिप्पणियां की।

पूरे वाद विवाद में पक्ष या विपक्ष ने गांधीजी के सर्वधर्म समभाव, साम्प्रदायिक एकता, गौरक्षा, आदि को लेकर कोई विचार  कोई चर्चा नहीं की शायद यह सब विवादास्पद मुद्दे हैं और छात्र तथा उनके शिक्षकों ने उन्हें इस प्रतियोगिता हेतु मार्गदर्शन दिया होगा इस पर न बोलने की सलाह दी होगी।

वाद विवाद से एक तथ्य सामने आया कि प्रतियोगी सोशल मीडिया में लिखी जा रही निर्मूल बातों से ज्यादा प्रभावित नहीं है। एकाध त्रुटि को अनदेखा कर दिया जाय तो अधिकाँश बाते तथ्यों व संदर्भों पर आधारित थी । पक्ष ने जो कुछ बोला उसे तो हम सब सुनते आये हैं लेकिन विपक्ष की बातों का समुचित समाधान देना आवश्यक है और यह कार्य तो गांधीजी के सिद्धांतों के अध्येताओं को करना ही होगा अन्यथा नई पीढी अपनी शंकाओं को लिए दिग्भ्रमित रही आयेगी। मैंने भी इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश अपने अल्प अध्ययन से की है ।

यह सत्य है कि गान्धीजी के सिद्धांतों में अहिंसा पर बहुत जोर है। उनकी अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है और न ही डरपोक बनने हेतु प्रेरित करती है। गांधीजी की अहिंसा सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन के अमोघ अस्त्र से सुसज्जित है। दक्षिण अफ्रीका में तो गांधीजी पर मुस्लिम व ईसाई समुदाय के लोगों ने अनेक बार  प्राणघातक हमले किये पर हर बार गान्धीजी ने ऐसे क्रूर मनुष्यों का ह्रदय परिवर्तन कर अपना मित्र बनाया। भारत की आजादी के बाद जब कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे हुए और अनेक हिन्दुओं के दंगों मे मारे जाने की खबरों में सुहरावर्दी का नाम लिया गया तो गांधीजी ने सबसे पहले उन्हें ही चर्चा के लिए बुला भेजा। दोनों के बीच जो बातचीत हुई उसने सुहरावर्दी को हिन्दू मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का उत्पादन  राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही करना होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1971 के बाद देश को किसी  बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा। सभी मतभेद बातचीत से सुलझाए जाएँ यही गांधीजी  का रास्ता है।  बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों। समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती। विश्व में आज तमाम रासायनिक व परमाणु हथियारों को खतम करने की दिशा में प्रगति हो रही है यह सब गांधीजी के शिक्षा का ही नतीजा है। भारत और चीन के बीच अक्सर सीमाओं पर सैनिक आपस में भिड़ते रहते हैं और यदा कदा  तो चीनी सैनिक हमारी भूमि में घुस आते हैं, पर इन सब घटनाओं को  आपसी बातचीत और समझबूझ से ही निपटाया गया है। युद्ध तो अंतिम विकल्प है।

देश की आज़ादी का आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में लम्बे समय तक चला। इस दौरान गरम दल , नरम दल, हिंसा पर भरोसा रखने वाले अमर शहीद भगत सिंह व आज़ाद सरीखे  क्रांतिकारी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने अपने अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। लगभग सभी विचारों के नेताओं ने  आज़ादी के  आन्दोलन में  महात्मा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार किया। स्वयं महात्मा गांधी ने भी समय समय पर  इन सब क्रांतिवीरों के आत्मोत्सर्ग व सर्वोच्च बलदान की भावना की प्रसंशा की थी ।गांधीजी केवल यही चाहते थे कि युवा जोश में आकर हिंसक रास्ता न अपनाएँ। इस दिशा में उन्होंने अनथक प्रयास भी किये, वे स्वयं भी अनेक क्रांतिकारियों से मिले और उन्हें अहिंसा के रास्ते पर लाने में सफल हुए। वस्तुत: सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद युवा वर्ग गांधीजी के रास्ते की ओर मुड़ गया इसके पीछे अंग्रेजों का जुल्म नहीं वरन गांधीजी की अहिंसा का व्यापक प्रभाव है।

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित इन उद्योगपतियोँ का उद्देश्य  केवल और केवल मुनाफा कमाना नहीं था। गांधीजी चाहते थे कि व्यापारी अनीति से धन न कमायें, नियम कानूनों का उल्लघन न करें, मुनाफाखोरी से बचें और समाज सेवा आदि की भावना के साथ कमाए हुए धन को जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करें। गांधीजी का यह सिद्धांत सुविधा-प्राप्त धनाड्य वर्ग को समाप्त करने के समाजवादी विचारों के उलट है। गांधीजी अमीरों के संरक्षण के पक्षधर हैं और मानते थे कि मजदूर और मालिक के बीच का भेद ट्रस्टीशिप के अनुपालन से मिट जाएगा और इससे पूंजीपतियों के विरुद्ध घृणा का भावना समाप्त हो जायेगी और यह सब अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करेगा। गांधीजी मानते थे कि ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार होने से शासन के हाथों शक्ति के केन्द्रीकरण रुक सकता है। आज अजीम प्रेमजी, रतन टाटा, आदि गोदरेज  या बिल गेट्स सरीखे अनेक उद्योगपति हैं जिन्होंने अपने जीवन में अर्जित सम्पति को  समाज सेवा और जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करने हेतु ट्रस्ट बनाए हैं।

गांधीजी के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने पुत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। हरिलाल जो गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे उनका आचरण गांधीजी के विचारों के उलट था लेकिन गांधीजी के अनेक आन्दोलनों में, जोकि दक्षिण अफ्रीका में हुए, वे सहभागी थे। भारत में भी यद्दपि हरिलाल यायावर की जिन्दगी जीते थे पर अक्सर बा और बापू से भेंट करने पहुँच जाते। ऐसा ही एक संस्मरण कटनी रेलवे स्टेशन का है जहाँ उन्हें बा को संतरा भेंट करते हुए व बापू से यह कहते हुए दर्शाया गया है कि उनके महान बनने में बा का त्याग है। अपने ज्येष्ठ पुत्र के इस कथन से गांधीजी भी कभी असहमत नहीं दिखे ।  गांधीजी के अन्य तीन पुत्रों सर्वश्री मणिलाल, रामदास व देवदास ने तो बापू के सिद्धांतों के अनुरूप ही जीवन जिया। मणि लाल दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आश्रमों की देखरेख करते रहे तो राम दास ने अपना जीवन यापन वर्धा में रहकर किया, देवदास गांधी तो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। आज गांधीजी के पौत्र प्रपौत्र चमक धमक से दूर रहते हुए सादगी पूर्ण जीवन बिता रहे हैं और उनमे से कई तो अपने अपने क्षेत्र में विख्यात हैं। इन सबका विस्तृत विवरण गांधीजी की प्रपौत्री सुमित्रा कुलकर्णी ( रामदास गांधी की पुत्री ) ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी मेरे पितामह’ में बड़े विस्तार से दिया है।

अपनी पत्नी कस्तूरबा को लेकर गांधीजी के विचारों में समय समय के साथ परिवर्तन आया है। कस्तूरबा तो त्यागमयी भारतीय पत्नी की छवि वाली अशिक्षित महिला थीं। विवाह के आरम्भिक दिनों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के घर में पंचम कुल के अतिथि का पाखाना साफ़ करने को लेकर गांधीजी अपनी पत्नी के प्रति दुराग्रही दीखते हैं।  लेकिन पाखाना साफ़ करने के विवाद ने दोनों के मध्य जो सामंजस्य स्थापित किया उसकी मिसाल तो केवल कुछ ऋषियों के गृहस्त जीवन में ही दिखाई देती है। कस्तूरबा, बापू के प्रति पूरी तरह समर्पित थी। गांधीजी ने अपने जीवन काल में जो भी प्रयोग किये उनको कसौटी पर कसे जाने के लिए कस्तूरबा ने स्वयं को प्रस्तुत किया। गांधीजी के ईश्वर अगर सत्य हैं तो कस्तूरबा की भक्ति हिन्दू देवी देवताओं के प्रति भी थी। गांधीजी ने कभी भी उनके वृत, वार-त्यौहार में रोड़े नहीं अटकाए।  जब कभी कस्तूरबा बीमार पडी गांधीजी ने उनकी परिचर्या स्वयं की। चंपारण के सत्याग्रह के दौरान महिलाओं को शिक्षित करने का दायित्व गांधीजी ने अनपढ कस्तूरबा को ही दिया था। गांधीजी ने कस्तूरबा के योगदान को सदैव स्वीकार किया है।

छात्रों के मन में गांधीजी के यंत्रों व औद्योगीकरण को लेकर विचारों के प्रति भी अनेक आशंकाएं हैं।  कुटीर व लघु उद्योग धंधों के हिमायती गांधीजी को युवा पीढी  यंत्रों व बड़े उद्योगों का घोर विरोधी मानती है।  वास्तव मैं ऐसा है नहीं, हिन्द स्वराज में गांधीजी ने यंत्रों को लेकर जो विचार व्यक्त किये हैं और बाद में विभिन्न लेखों, पत्राचारों व साक्षात्कार  के माध्यम से अपनी बात कही है वह सिद्ध करती है कि गांधीजी ऐसी मशीनों के हिमायती थे जो मानव के श्रम व समय की बचत करे व रोजगार को बढ़ावा देने में सक्षम हो। वे चाहते थे कि मजदूर से उसकी ताकत व क्षमता से अधिक कार्य न करवाया जाय।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके या उनका कौशल उन्नयन नहीं हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

अमर शहीद भगत सिंह की फांसी को लेकर हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वयं भगत सिंह अपने बचाव के लिए किसी भी आवेदन/अपील/पैरवी के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अपने पिता किशन सिंह जी को भी दिनांक 04.10.1930 को कडा पत्र लिखकर अपनी पैरवी हेतु उनके द्वारा ब्रिटिश सरकार को दी गयी याचिका का विरोध किया था।दूसरी तरफ अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई कि गांधीजी अगर वाइसराय से अपील करेंगे तो क्रांतिकारियों की फांसी की सजा माफ़ हो जायेगी। ऐसा कर अंग्रेज राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना चाहते थे। गांधीजी ने लार्ड इरविन से व्यक्तिगत मुलाक़ात कर फांसी की सजा को स्थगित करने की अपील भी की थी और वाइसराय ने उन्हें आश्वासन भी दिया था  पर उनके इन प्रयासों को अंग्रेजों की कुटिलता के कारण सफलता नहीं मिली। नेताजी सुभाष बोस व गांधीजी के बीच बहुत प्रेम व सद्भाव था। नेताजी का झुकाव फ़ौजी अनुशासन की ओर शुरू से था। कांग्रेस के 1928 के कोलकाता अधिवेशन में स्वयंसेवकों को फ़ौजी ड्रेस में सुसज्जित कर नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष को सलामी दिलवाई थी, जिसे गांधीजी ने पसंद नहीं किया। त्रिपुरी कांग्रेस के बाद तो मतभेद बहुत गहरे हुए और नेताजी ने अपना रास्ता बदल लिया तथापि गांधीजी के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति में कोई कमी न आई। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम भारतीय सुभाष बोस ही थे तो 23 जनवरी 1948 गांधीजी ने नेताजी के जन्मदिन पर उनकी राष्ट्रभक्ति व त्याग और बलिदान की भावना की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।  पंडित जवाहरलाल नेहरु व सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता के अनेक पुजारियों में से ऐसे दो दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिन पर गांधीजी का असीम स्नेह व विश्वास था। जब अपना उत्तराधिकारी चुनने की बात आयी होगी तो गांधीजी भी दुविधागृस्त रहे होंगे। सरदार पटेल गांधीजी के कट्टर अनुयाई थे और शायद ही कभी उन्होंने गांधीजी की बातों का विरोध किया हो। सरदार पटेल कड़क स्वभाव के साथ साथ रुढ़िवादी परम्पराओं के भी विरोधी न थे। उनकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी कम ही थी। दूसरी ओर नेहरूजी मिजाज से पाश्चात्य संस्कृति में पले  बढे ऐसे नेता थे जिनकी लोकप्रियता आम जनमानस में सर्वाधिक थी।उनके परिवार के सभी सदस्य वैभवपूर्ण जीवन का त्याग कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे और अनेक बार जेल भी गए थे ।  वे स्वभाव से कोमल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। उनका  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से अच्छा परिचय था और स्वतंत्र भारत को, जिसकी छवि पश्चिम में सपेरों के देश के रूप में अधिक थी, ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता थी । अपनी कतिपय असफलताओं के बावजूद पंडित नेहरु ने देश को न केवल कुशल नेतृत्व दिया, अनेक समस्याओं से बाहर निकाला और देश के विकास में दूरदृष्टि युक्त महती योगदान दिया। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।

मैंने छात्रों और युवाओं के मनोमस्तिष्क में गांधीजी को लेकर घुमड़ते  कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजने  की  कोशिश की है। गांधीजी ने अपने विचारों को सबसे पहले हिन्द स्वराज और फिर सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा में लिखा। बाद के वर्षों में वे यंग इंडिया और हरिजन में भी लिखते रहे अथवा अपने भाषणों और पत्राचार के द्वारा स्वयं  के विचारों की व्याख्या करते रहे। गांधीजी के विचार, उनके प्रयोगों का नतीजा थे और अपने  विचारों तथा मान्यताओं पर वे आजीवन  दृढ़ रहे। गांधीजी पर अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विद्वानों ने आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं। इन सबको पढ़ पाना फिर उनका यथोचित विश्लेषण करना  सामान्य मानवी के बस में नहीं है। हमें आज भी गांधीजी के विचारों को बारम्बार पढने, उनका मनन और चिंतन करने की आवश्यकता है। विश्व की अनेक परेशानियों का हल आखिर गांधीजी सरीखे महामानव ही दिखा सकते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – भाग्यं फलति सर्वत्र

 

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” भाग्य के स्वामी का भी अपना भाग्य होता है जो वांछित-अवांछित सब अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम और लक्ष्य के बीच अंतर घटता गया। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुजुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।” फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। श्रम ने सहानुभूति से गरदन हिलाई।

आजका दिन संकल्पवान हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 1: 38 बजे, 13.10.2019)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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