आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।31।।

 

सब में स्थित मानते मुझे जो भी तदरूप

कही भी हों योगी वे नित मुझमें आत्म स्वरूप।।31।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।31।।

 

He who, being established in unity, worships Me who dwells in all beings,-that Yogi  abides in Me, whatever may be his mode of living.।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆ अम्माँ को पागल बनाया किसने? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक लघुकथा “अम्माँ को पागल बनाया किसने?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆

 

☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ?  ☆ 

 

“भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा – अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।”

“मतलब” – मैंने पूछा

“जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढूँढकर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब पागलपन नहीं दिखाई देता? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाई, पहले से ही पागल हैं।”

“भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेगीं पागल ही रहेंगी।अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।” ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।

“भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया जब वह तुम्हारे किसी काम की नहीं रह गई, बोझ बन गई तुम पर | पागल ना होती तो मोह के बंधन काटकर तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया होता। तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया। कुछ ही समय में उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था।  इसके बाद भी ‘मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? जब जीना दूभर हो गया तुम्हारे घर में तब मुझसे एक दिन बोली – ‘बेटी! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह। मैं तो गल्ती कर बैठी, तुम ध्यान रखना।”

“भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 10 – The blindfolding of Gandhari ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “The blindfolding of Gandhari”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 10

 

☆ The blindfolding of Gandhari   ☆

 

O lord! I blindfold myself!

That my husband was blind I knew not

Never had I thought of such a union

But together, the destiny has brought

 

O lord! I blindfold myself!

As I learn of my future and fate

What is ordained, cannot be modified

I shall suffer, as does my mate!

 

O lord! I blindfold myself!

Know not what speaks is protest or disgust

My exploitation, I shall not permit!

O lord! Let me disable myself first!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पथ – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – पथ ☆

न दुर्गम था, न सुगम। न जटिल था, न सरल। पथ वैसा ही था, जैसा होना चाहिए। कहीं प्रशस्त, कहीं संकीर्ण। कहीं समतल, कहीं उबड़खाबड़। कहीं पुष्पित, कहीं कंटकाकीर्ण। सभी चलते रहे।

एक सहयात्री ने कहा, “वाह! पुष्प ही पुष्प भरे हैं पथ पर..” और उसने ढेर सारे पुष्प आँचल में भर लिए। एक को पूरे मार्ग में टेढ़े-मेढ़े से लेकर सुघड़-सुंदर छोटे-छोटे पत्थर दृष्टिगोचर हुए। उसने पत्थर बटोर लिए। एक वनस्पतिशास्त्री को भाँति-भाँति की वनस्पतियाँ दिखीं, उसने उनके पत्ते चुन लिए। हरेक की अपनी आँख थी और थी अपनी दृष्टि। उसे चप्पे-चप्पे पर कविता और कहानियाँ मिलीं, उसने सहेज लीं।

” इन्होंने अनगिन कविताएँ और कहानियाँ रची हैं..”,   किसीने उनका परिचय देते हुए कहा।

वह सोच में पड़ गया कि चलना और रचना समानार्थी कैसे हुए?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ भीड़ के चेहरे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “भीड़ के चेहरे ”.  लोकतंत्र में कुछ शब्द सदैव सामयिक होते हैं जैसे भीड़तंत्र और भीड़तंत्र का कोई चेहरा नहीं होता है. श्री विवेक रंजन जी ने ऐसे ही  एक शब्द ‘भीड़तंत्र’ को सफलतापूर्वक एक सकारात्मक दिशा दी है और इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ 

 

 ☆ भीड़ के चेहरे ☆

 

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़तंत्र की रपट थी (कोई इस घटना को भीड़तंत्र का शिकार कहता है, तो कोई इसे मॉबलिंचिंग का), शक में घटित घटना बड़े बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है.

चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी मेरे कहे पर, कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करते पोलिस इंस्पेक्टर को ही मार डाला. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो बैठे. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा!  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है . इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला एंड आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है, तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के.

तब इस भीड़ को भीड़तंत्र कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने इंसानियत और इंस्पेक्टर बेबस हो जाते है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये.  गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति  बनी रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली  जुबान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो ताकि  कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में  न बदल सके.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ शब्द ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए. जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है.आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं.  शब्द चाहे कैसा भी क्यों न हो कविता का अंश तो होता ही है. कविराज विजय जी ने ऐसे ही कई शब्दों से इस अतिसुन्दर कविता “शब्द” की रचना की है.)  

 

☆ शब्द ☆

 

शब्द  असा

शब्द तसा

सांगू तुला

शब्द कसा?

माणुसकीच्या

ऐक्यासाठी

पसरलेला

एक पसा. .. . !

शब्द  अक्षरलेणे

देऊन जातो देणे

ह्रदयापासून

ह्रदयापर्यंत

करीत रहातो

जाणे येणे. . . . !

शब्द आलंकृत

शब्द सालंकृत.

मनाचा आरसा

जाणिवांनी

सर्वश्रृत.. . . . !

कधी येतो

साहित्यातून

तर कधी

काळजातून.. . !

शस्त्र होतो कधी

कधी श्रावण सर

शब्द म्हणजे

कवितेचे

हळवे ओले

माहेरघर.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆ नसीहत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नसीहत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆

 

☆ नसीहत ☆

 

थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, ” तू मेरी बात मान लें. तू रोज घुमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहां मानती है ?” मां ने नाराजगी व्यक्त की.

” वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.”

” अरे! मैं तूझे जलील कर रही हूं,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, ” तेरे भले के लिए कह रही हूं. इस से तेरे हाथ पैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.”

” तब तो तू भी इस के साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, ” आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आप को क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूं. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूं. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.”

” और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, ” आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है……. ”

बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, ” और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आप को मेरे अलावा कोई कामधंधा नहीं है क्या ?”

यह सुन कर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देख कर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, ” मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथ पैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएंगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.”

इस पर पत्नी चिढ़ पड़ी, ” आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इस पर पति के मुंह से अचानक निकल गया,” आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.

” क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखों  से अंगार बरसने लगे. मानों वह बेटी और पति से पराजित हो गई हो.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 18 – माणसं…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  क्या  वास्तव में  व्याकरण, शब्द, विराम चिन्हों की तरह ही होते हैं मनुष्य? यह प्रयोग निश्चित ही अद्भुत है.  इस कविता माणसं…. के लिए पुनः श्री सुजित कदम जी को बधाई. )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #18☆ 

 

☆ माणसं…. ☆ 

 

कधी काना,

कधी मात्रा.. .

कधी उकार ,

कधी वेलांटी.. .

कधी अनुस्वार ,

कधी स्वल्पविराम.. .

कधी अर्ध विराम,

कधी विसर्ग.. .

कधी उद्गगारवाचक,

तर कधी पुर्णविराम.. .

अक्षरांना ही भेटतात,

अशीच.. . .

काहीशी माणसं..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।30।।

 

लखते जो सब में मुझे,मुझमें सब संसार

मेरे लिये अमर हैं वे,मैं उनका आधार।।30।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।।30।।

He who sees Me everywhere and sees everything in me, he does not become separated  from me nor do I become separated from him.  ।।30।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 16 – तोल मोल कर बोल जमूरे ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर रचना  “तोल मोल कर बोल जमूरे। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 16 ☆

 

☆ तोल मोल कर बोल जमूरे ☆  

 

किसमें कितनी पोल जमूरे

तोल  मोल कर बोल  जमूरे।

 

कर ले बन्द बाहरी आँखें

अन्तर्चक्षु   खोल    जमूरे।

 

प्यास बुझाना है पनघट से

पकड़ो रस्सी – डोल जमूरे।

 

अंतरिक्ष  में   वे    पहुंचे

तू बांच रहा भूगोल जमूरे।

 

पेट पकड़कर अभिनय कर ले

मत कर टाल मटोल जमूरे।

 

टूटे हुए  आदमी से  मत

करना कभी मख़ौल जमूरे।

 

संस्कृति गंगा जमुनी में विष

नहीं वोट का, घोल  जमूरे।

 

कोयल तो गुमसुम बैठी है

कौवे करे,  मख़ौल  जमूरे।

 

है तैयार, सभी बिकने को

सब के अपने मोल, जमूरे।

 

फिर से वापस वहीं वहीं पर

यह दुनिया है  गोल  जमूरे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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