आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।24।।

 

संकल्पो से जन्मती कामनाओं का त्याग

मन के वशकर इंद्रियाँ,तज भौतिक अनुराग।।24।।

 

भावार्थ :  संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर।।24।।

 

Abandoning without reserve all the desires born of Sankalpa, and completely restraining  the whole group of senses by the mind from all sides. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 18 ☆ चलते-फिरते पुतले ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का  आलेख  “चलते-फिरते पुतले”.  डॉ  मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  टूटते हुए संयुक्त परिवारों  ही नहीं अपितु  एकल परिवारों में भी होते हुए बिखराव पर विस्तृत चर्चा की है.  उन्होंने  सामाजिक  इकाइयों के बिखराव पर न केवल अपनी राय रखी है अपितु  बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों तक की मनोदशा की भी विस्तृत चर्चा की है . अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस विषय पर चर्चा की पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 18 ☆

 

☆ चलते-फिरते पुतले ☆

 

न कुछ सुनते हैं और न कुछ कहते हैं/ मेरे घर में चलते-फिरते पुतले रहते हैं… इन पंक्तियों ने अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख दिया। कितनी पीड़ा, कितनी टीस, कितना दर्द भरा होगा हृदय में…और कितनी संजीदगी से मनोव्यथा को बयान कर सुक़ून पाया होगा अनाम कवयित्री ने। वैसे तो आजकल यह घर- घर की कहानी है। हर इंसान यहां एकांत की त्रासदी झेल रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी में पनप रहा, अजनबीपन का अहसास अक्सर देखा जा रहा है, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चे व वृद्ध भुगत रहे हैं…जो सबके बीच रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। यह जनमानस की पीड़ा है..और है आज के समाज का कटु यथार्थ। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कग़ार पर है… अंतिम सांसें ले रही है और उसके स्थान पर बखूबी काबिज़ है… एकल परिवार-व्यवस्था। जिन परिवारों में बुज़ुर्ग रहते भी हैं, उनकी मन:स्थिति विचित्र-सी रहती है… जैसे भीड़ में व्यक्ति स्वयं को खोया-खोया अनुभव करता है और अपनी सोच, अपनी कल्पनाओं व अपने भावों-विचारों में गुम रहता है…लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाता।

आश्चर्य होता है कि आजकल तो कामवाली बाईयों को भी परिवार की परिभाषा समझ में आ गई है। वे जानती हैं कि परिवार में तीन या चार प्राणी होते हैं… पति-पत्नी और एक या दो बच्चे। सो! वे आजकल कल संयुक्त परिवार में कार्य करने को तत्पर नहीं होतीं और टका-सा जवाब देकर रुख्सत हो जाती हैं। छोड़िए! इतना ही नहीं, आजकल बच्चे भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि परिवार रूपी इकाई में दादा-दादी का स्थान नहीं होता। सो! वे सदैव अपने माता-पिता के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग तो दिनभर प्रतीक्षारत रहते हैं और अपने आत्मजों तथा नाती- पोतों की एक झलक प्राप्त कर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। कई बार तो महीनों तक संवाद होता ही नहीं। परंतु तीन-चार फुट दूरी से सुबह-शाम पांव छूने का औपचारिक सिलसिला अनवरत जारी रहता है और वे उनपर आशीषों  की वर्षा करते नहीं अघाते।

‘न कुछ सुनते हैं, न कुछ कहते हैं’…यह संवादहीनता की स्थिति ‘कैसे हैं’,’ठीक हूं’ ‘खुश रहो’ तक सिमट कर रह जाती है। अपने-अपने द्वीप में कैद,एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर,पति-पत्नी में भी कहां हो पाता है मधुर संवाद…अक्सर वे संवाद नहीं, विवाद में विश्वास रखते हैं..एक-दूसरे पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं और दोषारोपण करना तो मानो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऑफिस का दिनभर का गुस्सा, घर में दस्तक देते ही एक-दूसरे पर निकाल कर, वे सुक़ून पाते हैं। बच्चे,जब देर रात अपने माता-पिता को चीखते-चिल्लाते देखते हैं तो वे सोने का उपक्रम करते हैं…कहीं वे ही उनके क्रोध का शिकार न बन जाएं।

दिनभर आया या नैनी के आंचल में पनपते बच्चे, माता-पिता के स्नेह व प्यार-दुलार के अभाव में स्वयं को निरीह, नि:स्सहाय व नितांत अकेला अनुभव करते हैं। मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव उन्हें अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त करता है और उस दलदल से वे चाह कर भी निकल नहीं पाते। शराब व ड्रग्स के नशे में वे औचित्य-अनौचित्य का भेद नहीं कर पाते और बचपन में ही जघन्य- घिनौने अपराधों को अंजाम देकर अपने जीवन को नरक में धकेल देते हैं। बच्चों को इन दुर्दम-भीषण परिस्थितियों में देख कर, माता-पिता हैरान-परेशान से, स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं। और हर संभव प्रयास करने पर भी वे उन्हें लौटा पाने में स्वयं को असहाय-असमर्थ पाते हैं।

वे इन विषम परिस्थितियों में बच्चों को हर पल टूटते हुए देखकर दु:खी रहते हैं तथा सोचते हैं आखिर उनके संस्कारों में कहां कमी रह गई? उनके आत्मज गलत राहों पर क्यों अग्रसर हो गये? उन्होंने सब सीमाओं का अतिक्रमण क्यों कर लिया? विवाह के पवित्र-बंधन को नकार वे सदैव एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में क्यों लीन रहे? यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी दिशाहीन होने से भी नहीं रोक पाए। वे अपने भाग्य को कोसते हुए स्वयं को दोषी अनुभव करते हैं।

आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में अक्सर माता-पिता लिव इन या अलगाव की स्थिति में पहुंच,अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा यह सोचते हैं कि ‘जो बच्चों के भाग्य में लिखा होगा, उन्हें अवश्य मिल जाएगा।’ उनके भविष्य के लिए ऐसे माहौल में रहकर अपना जीवन नष्ट करना करने की उन्हें कोई उपयोगिता- उपादेयता नज़र नहीं आती। वास्तव में यही है, आज की युवा पीढ़ी के जीवन का कटु सत्य… जिससे उन्हें हर पल जूझना पड़ता है। वे घर में चलते-फिरते पुतलों की मानिंद प्रतीत होते हैं…अहसासों व  जज़्बातों से कोसों दूर, जिनमें न सौहार्दपूर्ण-  पारस्परिक संबंध होते हैं, न ही सरोकार। उनमें संवादहीनता ही नहीं, व्याप्त होती है संवेदनशून्यता, एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव, जहां वे अहंनिष्ठता के कारण अपनी-अपनी दुनिया मस्त रहते हुए, इतनी दूरियां बढ़ा लेते हैं, जिन्हें पाटना व जहां से लौट पाना असंभव हो जाता है।

काश! ये चलते-फिरते, कुछ न कहते पुतले आत्म- मुग्धावस्था को त्याग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हुए व अपने माता-पिता के प्रति दायित्व-वहन करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते… तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत होती। हर दिन उत्सव होता और घर में संवेदनशून्यता की स्थिति के स्थान पर,एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव होता तथा मन-आंगन में चिर- वसंत रहता। आइए! दिनों के फ़ासलों को मिटा, संकीर्ण मानसिकता को त्याग, समर्पण भाव से जीवन-पथ पर अग्रसर हों, जहां अलौकिक आनंद बरसे, बच्चों के मान-मनोबल से घर-आंगन गूंजता रहे। यही होगी हमारे जीवन की सार्थकता…निकट भविष्य में बच्चों को घर में रहते एकांत की त्रासदी को झेलना न पड़े व माता-पिता को वृद्धाश्रम में अपनी ज़िन्दगी को न ढोना पड़े और उन अपनों के इंतज़ार में उनकी आंखें गंगा-जमुना की भांति बरसती न रहें।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – तीन – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – तीन ☆

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई।  तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 16 ☆ कैसे  कहूँ ? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक  प्रेरणास्पद एवं भावप्रवण कविता  “कैसे  कहूँ ? ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 16  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ कैसे  कहूँ ?

 

भाव मन में

बहने लगे

अनायास

कैसे  कहूँ ?

 

कुछ न आता समझ

व्यक्त कैसे करूं

मन की बातें

कैसे  कहूँ ?

 

दिल पर

छाई है उदासी

बेवजह

कैसे  कहूँ ?

 

उनके शब्दों में

है जान

मिलती है प्रेरणा

कैसे  कहूँ ?

 

बिखरे शब्द

लगे  सिमटने

मिला आकर

कैसे  कहूँ ?

 

आयेगा वो पल

चमकेगी किस्मत

समझोगे तब

कैसे  कहूँ ?

 

है मंजिल सामने

वहीं है खास

हो जाती हूं नि:शब्द

कैसे  कहूँ ?

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆ लगी मोह से माया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “लगी मोह से माया ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆

☆  लगी मोह से माया  ☆

 

लगी मोह से माया  ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया।।

 

धन पाकर इतराये ।

खुद अपने गुण गाये ।।

समझ न सच को पाया ।

लगी मोह से माया। ।।

 

नजरों की मर्यादा ।

समझें इसे लबादा ।।

अपना कौन पराया ।

लगी मोह से माया ।।

 

ये सब रिश्ते नाते ।

हैं दुनियाई खाते ।।

जग में उलझी काया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठी चमक दिलाशा ।

बढ़ती मन की आशा ।।

मन जग में भरमाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठ फरेब निराले  ।

हैं सब के मन काले ।।

यह कलयुग की छाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

अब हैं नकली चेहरे ।

जहां नहीं सच ठहरे ।।

“संतोष”समझ पाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठहिं मन बहलाया ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सतरावे # 17 ☆ जीवनांतील गुरूचे स्थान ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी ने  “जीवनांतील गुरूचे स्थान” चुना है।  श्री विजय जी ने  इस आलेख  के माध्यम से जीवन में गुरु के स्थान पर चर्चा की है.  जीवन में हम अपने प्रथम गुरु माता-पिता से ज्ञान प्राप्त करते हैं  फिर जीवन पर्यन्त हम सब से कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करते ही हैं. ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प सतरावे  # 17 ☆

 

☆ जीवनांतील गुरूचे स्थान☆

 

आद्य गुरू म्हणून आपली सर्व प्रथम ओळख होते ती आपल्या  आईवडीलाशी. हे जनक आपला जीवन प्रवास सुरू करून देतात. नाते संस्कारीत करण्याची शिकवण हे  ‘आद्य गुरू ‘  आपणास सर्व प्रथम करून देतात. आपला गर्व नाहिसा करून  उपयुक्त  ज्ञान,व्यावहारिक शिकवण,  आणि सत्य मार्गावर करीत  असलेली कार्यप्रवणता यात समतोल राखण्याचे कार्य हे गुरू सातत्याने करीत आहेत.

“शोध जगाचा घेताना

चला वळू आईकडे

कोलंबसाचे नाव ते

तिने टाकले रे मागे.”

आई, जगातल्या प्रत्येक लहान सहान गोष्टीशी  आपली ओळख करून देते.  ओळख, हाताळणी,  शिक्षण, सराव, संस्कार , संवाद,  ज्ञानदान ,  आणि मार्गदर्शन ही सारी गुरूंची कामे  आपली आई लिलया करते.  तिला  हे सर्व करताना  अधिष्ठान लाभते ते आपल्या पित्याचे. तिच्या सौभाग्याचे. माता,  पिता हे आद्य गुरू परीसाप्रमाणे नजरेच्या धाकातून लेकराच्या जीवाचे सोने कसे होईल यासाठी प्रयत्नशील रहातात.

माणसाला नाव, गाव, वाव  आणि भाव मिळवण्यासाठी   गुरूगृही   ज्ञानार्जन करण्याची  आपली परंपरा.  मती, गती , आणि कलागुणांच्या व्यासंगाने प्रत्येक व्यक्ती स्वतःला सिद्ध करू पहाते.

स्वप्न, सत्य  आणि महत्वाकांक्षा यांच्या जोरावर प्रत्येकजण प्रगतीपथावर मार्गक्रमण करीत  असतो.  या  अवघड जीवनप्रवासात वाट चुकू नये,  ध्येय मार्गाची दिशा बदलू नये,  पाऊल घसरू नये यासाठी हे आद्य गुरू डोळ्यात तेल घालून आपल्या पाल्याला जपत रहातात.  यांचे शिष्यत्व पत्करावे लागत नाही पण यांच्या ममत्वाची आणि वात्सल्याची जाणिव ठेवली तरी आपण मोठ मोठी यशोशिखरे सर करू शकतो.

ज्ञानार्जन, आणि  ज्ञानदान यांचे नित्य  देणे घेणे  गुरूंच्या मार्गदर्शनाने अविरत सुरू रहायचे.  अवघी चराचर सृष्टी  आपल्याला सतत कोणत्या ना कोणत्या गोष्टीचे  ज्ञान उपलब्ध करून देत  असते.

सृजनशीलता, नम्रता, जिज्ञासा, प्रामाणिकता, विवेक,  संयम,  समजूतदारपणा माणुसकी  देशप्रेम, अधिकार,  कर्तव्य, जबाबदारी, कार्यप्रवणता, कृतज्ञता,  आणि सद्सद् विवेक बुद्धी यांना चेतना देण्याचे, कार्यप्रवण रहाण्याचे काम गुरूंच्या सहज साध्या संवादाने,  उपदेशाने, सूचक निर्देशाने घडत रहाते. गुरूने दिलेले  ज्ञान  हे सृजनशील  ज्ञान असते.  माणूस घडविण्याची  आणि  मोक्षपदी जाण्याची  क्षमता गुरूने दिलेल्या  ज्ञानात असते.

गुरू रूप ईश्वराचे निजरूप मानले गेले आहे. जगण्याचा मार्ग , कृपा प्रसाद, सन्मार्गाचा ध्येयपथ , ईश्वरी कृपेचा  संकेत, संस्काराची जपमाळ, नामस्मरण,  कर्म, धर्म  आणि  अध्यात्म साधना  गुरूगृही पूर्ण होते. व्यक्ती निष्ठा,  कुटुंब निष्ठा,  आणि राष्ट्र भक्ती यातून व्यक्तीमत्व विकासाची दिशा  हे गुरू  आपल्याला दाखवून देतात.  आपल्या जीवनातील महत्वाच्या तीन अवस्था  गुरूंशिवाय अपूर्ण आहे.  बालपणी,  प्रथम  आईवडील,  काका, काकू, मामा, मामी  सर्व  आप्तेष्ट,  शाळूसोबती, शालेय शिक्षक (गुरूजन) समवसमयस्क मित्र हे सारे आपले गुरूजन आहेत.  एखादी चांगली गोष्ट स्वीकारण्यासाठी मार्गदर्शन करणारा,  आपल्या सुखदुःखात नित्य नेमे सहभागी होणारी प्रत्येक व्यक्ती  आपला ‘गुरू’ आहे.

पृथ्वीप्रमाणे सहनशील आणि द्वंद्व सहिष्णू असावे. वारा सुगंधी फुलावरून वहातांना सुगंधाने आसक्त होऊन तो तेथे थांबत नाही, त्याचप्रमाणे द्रव्यासारख्या वस्तूला मोहित होऊन आपण आपले व्यवहार थांबवू नयेत. आकाशासारखं तरी निर्विकार, एक, सर्वांशी समत्व राखणारा, निःसंग, अभेद, निर्मळ, निर्वैर, अलिप्त आणि अचल आपल्याला रहाता आलं पाहिजे.पाणी मधुर असते, ते मनुष्याची तहान शांत करते. त्याप्रमाणे आपण आपल्या बांधवांची ज्ञानतृष्णा पूर्ण करावी.

आपण अग्नीप्रमाणे तप करून प्रकाशित व्हावे आणि जे मिळेल ते भक्षण करून कोणत्याही दोषांचे आचरण न करता आपले कलागुण कार्य कारण प्रसंगानुरूप योग्य ठिकाणी प्रदर्शित करावेत.ज्याप्रमाणे चंद्राच्या कलेत उणे-अधिकपणा असून त्याचा विकार चंद्रास बाधक होत नाही, तद्वत् आत्म्यास देहासंबंधीचे विकार बाधक होत नाहीत. आपला आत्मा वाढत नाही आणि मरतही नाही, तर वाढतो किंवा मरतो, तो आपला देह याची जाणीव हे गुरू पदोपदी आपणास करून देतात.

सूर्य  जसा भविष्य कालाचा विचार करून जलाचा संचय करतो आणि योग्य काळी परोपकारार्थ  त्याचा भूमीवर वर्षाव करतो. त्याच प्रमाणे आपण उपयुक्त वस्तूंचा संचय करून, देश, काल, वर्तमानस्थिती लक्षात आणून निष्पक्ष पाती पणाने सर्व  सहचरास  त्यांचा लाभ द्यावा; पण त्याचा अभिमान बाळगू नये  ही सूर्याने दिलेली शिकवण  अत्यंत महत्वाची आहे. कबुतर,  अजगर,  समुद्र, पतंग, मधमाशी,  हत्ती,  भ्रमर,  मासा,हरीण, वेश्या  ( गणिका ) ,  टिटवी, सर्प,  बालक, कंकण,  कोळी, पारधी ,कुंभार माशी यांचा जीवनपट देखील  आपल्याला काही ना शिकवून जातो.

आपण सदैव ज्याचे ध्यान करतो, तो त्या ध्यानामुळे परिणामी तदाकार  एकरूप होऊन जातो. कुंभारीण माशी, मातीचे घर करून त्यात एक किडा आणून ठेवते, आणि त्यास वरचेवर येऊन फुंकर मारत रहाते. त्यामुळे त्या किड्याला माशीचे ध्यान लागून रहाते आणि तो शेवटी कुंभारीणमाशी बनतो. त्याप्रमाणे आपण गुरू निर्देशित  मार्गाने ईश्वराचे ध्यान केले, तर आपण हा मनुष्य जन्म श्रेष्ठ ठरवू शकतो.

श्री. दत्तात्रेयांनी केलेले चोवीस गुरू यांचा जर  आपण  अभ्यास केला तर आपले जीवन ख-या अर्थाने सफल झाले  असे म्हणता येईल. कला व्यासंग,  शुद्ध विवेक युक्त विचार सरणी,माणुसकी  आणि  ईशभक्ती यांच्या सानिध्यात मन रममाण करणारी व्यक्ती ही गुरू स्थानीच आहे.  “दोषांकडे दुर्लक्ष करून सद्गुणांचा अंगीकार करण्याची शिकवण हे गुरुजन सतत आपल्याला देत असतात.

अशा पद्धतीने  आपण आपल्या  जीवन प्रवासात खूप काही शिकत रहातो. हे  ज्ञान आपणास देणारी ग्रंथ संपदा तिला विसरून चालणार नाही.  यशापयशाची  एकेक पायरी चढत असताना   मिळणारा ‘अनुभव’ हा देखील आपला  खूप जवळचा गुरू आहे.  हा गुरू आधी परीक्षा घेतो आणि नंतर धडा शिकवतो.  असा हा गुरू चिंतनाचा लेखन प्रवास व्यक्ती सापेक्ष बदलत राहिल. मला जसा भावला तसा मी या लेखात शब्दबद्ध केला आहे. मातृदेवता, जन्मभूमी,  आणि  कर्मभूमी या तिन्ही देवतांना वंदन करून या गुरू महती ची सांगता करतो. सस्नेह वंदे !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।23।।

 

दुख की दुनियाँ से बहुत दूर योग सुख धाम

अनुष्ठान इस योग का मन का पावन काम।।23।।

भावार्थ :  जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।।23।।

 

Let that be known by the name of Yoga, the severance from union with pain. This Yoga should be practised with determination and with an unresponding mind. ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

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सूचना – हिन्दी साहित्य – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆ – (विशेषांक की रचनाएँ >>महत्वपूर्ण लिंक्स)

सूचना – हिन्दी साहित्य – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆ – (विशेषांक की रचनाएँ >>महत्वपूर्ण लिंक्स)

☆ ई-अभिव्यक्ति – गांधी स्मृति विशेषांक ☆

 

हम  2  अक्टूबर  2019 को  ई-अभिव्यक्ति  (www.e-abhivyakti.com ) द्वारा महात्मा गाँधी जी की 150वीं  जयंती पर प्रकाशित ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक  विशेषांक की रचनाओं के  महत्वपूर्ण लिंक्स उपलब्ध कर रहे हैं जिन्हें आप भविष्य में पढ़ सकते हैं।

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक  में ई-अभिव्यक्ति की प्रस्तुति :-

  1. हिन्दी साहित्य – ई-अभिव्यक्ति संवाद – ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. महात्मा गांधी प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय – http://bit.ly/2oiSiae
  1. ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 41 – ☆ ई-अभिव्यक्ति – गांधी स्मृति विशेषांक☆ – हेमन्त बावनकर – http://bit.ly/2n09wc7
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता, गांधीवादी चिंतक एवं समाजसेवी – http://bit.ly/2nuCAsA
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद (प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक  ) – http://bit.ly/2nER7le
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी जी के मुख्य सरोकार ☆ डॉ.  मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत) एवं पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी – http://bit.ly/2oq2sFK
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ सपने में बापू ☆ डॉ कुन्दन सिंह परिहार, वरिष्ठ साहित्यकार – http://bit.ly/2mRKpbq
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त, संपादक हिन्द पॉकेट बुक्स – http://bit.ly/2mKLKR6
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक – http://bit.ly/2mIfXjI
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ राजघाट का मूल्य ☆ श्री संजीव निगम, वरिष्ठ साहित्यकार – http://bit.ly/2ok5wDC
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे ☆ श्रीमती सुसंस्कृति परिहार – http://bit.ly/2mKFfOc
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆ श्री अरुण कुमार डनायक, गांधीवादी चिंतक – http://bit.ly/2mO5eED
  1. हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अहिंसा का दूत ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय – http://bit.ly/2paYPEi
  1. हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय – http://bit.ly/2mI78q6
  1. मराठी साहित्य – कविता – ☆ बापू ☆ श्री सुजित कदम, मराठी युवा साहित्यकार – http://bit.ly/2olLJn9
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग – http://bit.ly/2nDSYXD
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक – http://bit.ly/2nQ2VBn
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆ डॉ भावना शुक्ल – http://bit.ly/2otaeiv
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – http://bit.ly/2oz1Bmg
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ – http://bit.ly/2nS9GCz
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ कहाँ चल दिए बापू ☆ श्री विनोद कुमार ‘विक्की’ – http://bit.ly/2piJ9ic
  1. हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रश्नचिन्ह ☆ श्री रमेश सैनी – http://bit.ly/2nGgUtD
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर – http://bit.ly/2nPuieQ
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – http://bit.ly/2mQoSji
  1. मराठी साहित्य – कविता – ☆ महात्मा गांधी……! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते, मराठी साहित्यकार – http://bit.ly/2mSkCj8
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ पूछ रहे बैकुंठ से बापू ☆ श्री मनोज जैन “मित्र” – http://bit.ly/2nG4L7Z
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ दृष्टि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” – http://bit.ly/2pn1smx
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य लघुकथा – ☆ महात्मा गाँधी की जय ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल – http://bit.ly/2osqznA
  1. हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ बा और बापू ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “ – http://bit.ly/2nST8KT

धन्यवाद.

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 41 – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40                

 

☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆

 

सम्माननीय लेखक एवं पाठक गण सादर अभिवादन

 

हम अत्यंत कृतज्ञ है हमारे सम्माननीय गांधीवादी चिन्तकों, समाजसेवियों एवं सभी सम्माननीय वरिष्ठ एवं समकालीन लेखकों के जिन्होंने इतने कम समय में हमारे आग्रह को स्वीकार किया.  इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ सीमित समय में उत्कृष्टता को बनाये रखते हुए एक अंक में प्रकाशित करने के लिए असमर्थ पा रहे थे। इसलिए ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक के स्तर और गुणवत्ता को बनाए रखने की दृष्टि से यह निर्णय लिया गया कि ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक को दो अंकों में प्रकाशित किया जाए और साप्ताहिक स्तंभों को दो दिनों के लिए स्थगित किया जाए।

हमें यह बताते हुए अत्यंत प्रसन्नता है कि हमारे सम्माननीय लेखकों/पाठकों ने इस प्रयास को हृदय से स्वीकार किया एवं हमें अपना सहयोग प्रदान किया।

आज के दिन महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी ने जन्म लिया था। साथ ही यह वर्ष बा और बापू कि 150वीं जयंती का भी अवसर है।

हम ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें सादर नमन करते हैं।

इस विशेषांक के प्रकाशन को हमने महज 4 दिनों के अथक प्रयास से सफलता पूर्वक प्रकाशित किया है। इस विशेषांक के प्रकाशन के लिए हम प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं समाजसेवी श्री मनोज मीता जी, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक  श्री राकेश कुमार पालीवाल जी, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक श्री प्रेम जनमेजय, डॉ सुरेश कांत, गांधीवादी चिनक श्री अरुण डनायक, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कुंदन सिंह परिहार,  डॉ मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत) एवं पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी तथा समस्त सम्माननीय लेखकगणों के हम हृदय से आभारी हैं। साथ ही सम्माननीय लेखक जो हाल ही में ई-अभिव्यक्ति से जुड़े हैं उनका स्वागत करते हैं.

इस सफल प्रयास के लिए अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के समर्पित सहयोग के बिना इस विशेषांक के प्रकाशन की कल्पना ही नहीं कर सकता।

इस अंक में हमने पूर्ण प्रयास किया है कि- हम स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का सकारात्मक प्रयोग करें। व्यंग्य विधा में साहित्यिक रचना की प्रक्रिया में सकारात्मकता एवं नकारात्मकता के मध्य एक महीन धागे जैसा अंतर ही रह जाता है। हम अपेक्षा करते हैं कि आप साहित्य को सदैव सकरात्मक दृष्टिकोण से ही लेंगे।

इस विशेषांक के सम्पादन की प्रक्रिया से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। इस प्रक्रिया और आत्ममंथन से जिस कविता का सृजन हुआ, वह आपसे साझा करना चाहता हूँ।

 

बापू!

तुम पता नहीं कैसे

आ जाते हो

व्यंग्यकारों के स्वप्नों में?

किन्तु,

मत आना बापू

कभी भी मेरे स्वप्नों में।

 

न तो मैं

तुम पर कोई फिल्म बनाकर

सफल बनना चाहता हूँ

और

न ही करना चाहता हूँ

अपने विचार कलमबद्ध

तुम्हारे कंधों का सहारा लेकर।

बेशक,

मेरे कंधे उतने मजबूत न हो

गांधी के कंधों की तरह।

 

क्यों कोई नहीं चाहता

आत्मसात करना

गांधी दर्शन?

क्यों

कोई नहीं ढूँढता लोगों में गांधी?

क्यों लोग ढूँढना चाहते हैं

गांधी में व्यंग्य

क्यों नहीं ढूंढते

गांधी में गांधी

गांधी में गांधी-दर्शन ?

क्यों

लोगों को दिखता हैं

गांधी में

सफलता का सूत्र?

 

मैं नहीं बन सकता गांधी

और

न ही बनना चाहता हूँ गांधी

क्योंकि

एक गांधी का जन्म

एक बार ही होता है

एक सदी में।

हाँ,

कर सकता हूँ

गांधी से सीखने का प्रयास

किन्तु,

नहीं कर सकता

गांधी पर परिहास।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

☆ चौराहे पर गांधी ☆

(मित्रों, आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है।  आज लाल बहादुर शास्त्री का ‘भी ‘ जन्मदिन है।  इन दिनों गाँधी बहुत याद आ रहे हैं।  पता नहीं क्यों लाल बहादुर शास्त्री इसी दिन याद आते हैं ! मुझे गाँधी जी पर लिखी  अपनी  एक कविता याद आ रही है –चौराहे पर गांधी। ‘ उसे साझा करने का मन हुआ सो कर रहा हूँ – प्रेम जनमेजय )

 

मंसूरी में, लायब्रेरी चौक  पर

राजधानी की हर गर्मी से दूर

आती -जाती भड़भडाती

सैलानियों की भीड़ में     अकेला खड़ा

सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी।

क्या सोच रहा होगा —

अपने से निस्पृह

भीड़ के उफनते समुद्र में

स्थिर,निस्पंद,जड़

नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी

खड़ा ।

क्या सोच रहा है, गांधी ?

सोचता हूँ मैं ।

 

कोटि- कोटि पग

इक इशारे पर जिसके, बस

नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम

अनथक

वो ही  थका -सा

प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात

अकेला

संगमरमरी  कंकाल में,       किताबी

मूर्तिवत खड़ा-सा

क्या सोच रहा है, गांधी ?

 

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़

नियंत्रित करतीं वर्दियां

कारों की चिल पौं को

पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां

एक शोर के बीच

दूसरे शोर की भीड़ को

जन्म देती

मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया

किसी के पास समय नहीं

एक पल भी देख ले गांधी को

अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।

 

क्या सोचता होगा गांधी ?

भीड़ में भी विरान खड़ा

क्या, सोचता होगा गांधी !

 

सोचता हूं,

सोचता होगा

भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता… मेरी ?

मैं तो बन न सका

भीड़ का भी हिस्सा

बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक

इक माला के सम्मान का बोझ उठाए

किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में

अपनेपन की सच्चाई को तरसता

अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।

 

हमारे पराएपन को झेलता

हमारा अपना ही

बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।

मेरा गांधी, तेरा गांधी

अनेक हिस्सों में बंटा गांधी

सड़कों और चैराहों को

नाम देता गांधी

हमारी बनाई भीड़ में

वीरान- सा चुपचाप,

खड़ा है, अकेला गांधी ।

क्या सोचता है गांधी ?

क्या, सोचता है गांधी !

 

©  प्रेम जनमेजय

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