हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(महात्मा गांधी जी के  150वें  जन्म दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित विशेष लघुकथा ‘मानव’श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।) 

 

लघुकथा – मानव

 

शहर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं वरिष्ठ नागरिक श्री नाना देशपाण्डे साग भाजी लेकर बाजार से लौट रहे थे कि दंगों के लिये कुख्यात क्षेत्र महात्मा गांधी मार्ग पर अचानक किसी बात पर दो धर्मों के लोग आपस में भिड़ गए। मारकाट एवं लूट आरंभ हो गई।

नाना ने तत्काल एक गली में प्रवेश किया व तेजी से घर जाने लगे। थोड़ी दूर गए थे कि सामने से हथियारबंद भीड़ आ गई। नाना को घेरा तो वे चिल्लाते हुए भागे कि अरे मैं तो हिंदू हूँ, मुझे जाने दो। लेकिन फिर भी भागते भागते दो चार लाठियाँ पड़ ही गईं ओर वे किसी तरह बचकर दूसरी गली से भाग निकले।

गली पार भी न हो पाई थी कि दूसरे दल के लोग तलवारें लेकर दीवानों की तरह उनकी ओर लपके। नाना फिर उलटे पैर भागे और चिल्लाए कि “अरे-अरे मैं मुसलमान हूँ, शेख सलीम नाम है मेरा..” पर वहां भी उनको भीड़ ने दौड़ा ही दिया। आगे आगे नाना और पीछे पीछे वहशी भीड़, और अचानक सामने से वही पहले वाला दल भी आ गया। अब तो नाना बेचारे दो पाटों के बीच आ गए। पीछे वाला दल चिल्लाया – “कत्ल कर दो इसका काफिर बचके नहीं जा पाए ”।  सामने वाले दल ने नारा लगाया- ” खत्म कर दो विधर्मी को और पुण्य कमाओ ”।

नाना अब गला फाड़ कर चिल्लाये – “अरे दानवों, मैं एक भारतीय हूँ, और मेरे ही देश में मुझे मत मारो”। लेकिन अंधी बहरी भीड़ में से किसी ने एक लठ्ठ मारा और दूसरे ने उनके पेट में तलवार भोंक दी। नाना बेचारे चकरा कर गिर पडे़ और अंतिम सांसे गिनने लगे।

उधर दोनों दलों में अपने अपने धर्म को बचाने के लिए आमने-सामने का खूनी खेल आरंभ हो गया और इधर बूढ़े नाना, मरते मरते अस्पष्ट शब्दों में कह रहे थे- “अरे दुष्टों मुझे क्यों मारा, मैं एक  मानव हूँ ”।

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

आलेख – गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ 

 

बांधे गये रक्षा सूत्र के लिये भी  खादी के कच्चे धागे का ही उपयोग करते हैं . महात्मा कबीर ने तो

 

काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥

दास कबीर जतन करि ओढी,

जस कीं तस धर दीनी चदरिया ॥

पंक्तियां कहकर जीवन जीने की फिलासफी ही खादी की चादर के ताने बाने से समझा दी है. गांधी जी क़ानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में टाई सूट पहना करते थे, उन्होने खादी को कैसे और क्यों अपनाया, कैसे वे केवल एक धोती पहनने लगे यह जानना रोचक तो है ही, उनके सत्याग्रह के अद्भुत वैश्विक प्रयोग के मनोविज्ञान को समझने के लिये आवश्यक है कि हम जाने कि उन्होने खादी को अपनी ताकत कैसे और क्यो बना लिया.  1888 के सूट वाले बैरिस्टर गांधी 1921 में मदुरई में केवल धोती में दिखे, इस बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि बैरिस्टर गांधी ने अपना सूट छोड़ खादी की धोती को अपना परिधान बना लिया. दरअसल गांधी जी ने देश में बिहार के चंपारण ज़िले में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था.गांधी जी जब चंपारण पुहंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक में थे.  एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी उनकी पोशाक थी.ये सब कपड़े या तो भारतीय मिलों में बने  या फिर हाथ से बुने हुए थे. ये वो समय था जब पश्चिम में कपड़ा बनाने की मशीने चल निकली थीं. औद्योगिक क्रांति का काल था. मशीन से बना कपड़ा महीन होता था कम इसानी मेहनत से बन जाता था अतः तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. इन कपड़े की मिलो के लिये बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत पड़ती थी. कपड़े की प्रोसेसिंग के लिये बड़ी मात्रा में नील की आवश्यकता भी होती थी. बिहार के चंपारण क्षेत्र की उपजाऊ जमीन  में अंग्रेजो के फरमान से नील और कपास की खेती अनिवार्य कर दी गई थी. उस क्षेत्र के किसानो को उनकी स्वयं की इच्छा के विपरीत केवल नील और कपास ही बोना पड़ता था. एक तरह से वहां के सारे किसान परिवार अंग्रेजो के बंधक बन चुके थे.

जब चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को  दोपहर में गांधी जी उतरे तो हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी जी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे.इनमें से बहुत सी औरतें भी थीं जो घूंघट  और पर्दे से गांधी जी को आशा भरी आंखो से देख रही  थीं. स्त्रियो ने उन पर हो रहे जुल्म की कहानी गांधी जी को सुनाई, कि कैसे उन्हें पानी तक लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है. बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है. उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है. उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें केवल एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है. उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है. यह गांधी जी का कड़वे यथार्थ से पहला साक्षात्कार था. गांधी जी ने देखा कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति की औरतों और मर्दों को जूते तक नहीं पहनने देते हैं. एक ओर कड़क अंग्रेज हुकूमत थी दूसरी ओर गांधी जी में अपने कष्टो के निवारण की आशा देखती गरीब जनता थी,किसी तरह की गवर्निंग ताकत  विहीन गांधी के पास केवल उनकी शिक्षा थी, संस्कार थे और आकांक्षा लगाये असहाय लोगों का जन समर्थन था .गांधी जी  ने बचपन से मां को व्रत, उपवास करते देखा था, वे तपस्या का अर्थ समझ रहे थे. हम कल्पना कर सकते हैं कि हनुमान जी की नीति, जिसमें जब लंका जाते हुये सुरसा ने उनकी राह रोकी तो ” ज्यो ज्यो सुरसा रूप बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा,सत योजन तेहि आनन कीन्हा अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ” के अनुरूप जब गांधी जी ने देखा होगा कि  उनके पास मदद की गुहार लगाने आये किसानो के लिये अंग्रेजो से तुरंत कुछ पा लेना सरल नही था. अंग्रेजो की विशाल सत्ता सुरसा के सत योजन आनन सी असीम थी, और उससे जीतने के लिये लघुता को ही अस्त्र बनाना सहज विकल्प हो सकता था.  मदहोश सत्ता से  याचक बनकर कुछ पाया  नही जा सकता था. जन बल ही गांधी जी की शक्ति बन सकता था. और पर उपदेश कुशल बहुतेरे की अपेक्षा स्वयं सामान्य लोगो का आत्मीय हिस्सा बनकर जनसमर्थन जुटाने का मार्ग ही   उन्हें सूझ रहा  था. मदद मांगने आये किसानो को जब गांधी जी ने नंगे पांव या चप्पलो में देखा तो उनके समर्थन में तुरंत स्वयं भी उनने जूते पहनने बंद कर दिए.गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच  ब्रितानी अधिकारियों को दो पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की. यह उनका प्रथम सत्याग्रह था.8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया.वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, भी साथ थीं. तीन स्कूल  शुरू किए गये. हिंदी और उर्दू में  लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई. इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया जाने लगा. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया.गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए. कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई बक्सा दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.” जब  गांधी जी ने यह सुना तो उन्होने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया.

सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घुटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया.1918 में जब वो अहमदाबाद में करखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’उन्होंने तभी से  पगड़ी पहनना छोड़ दिया. दार्शनिक विवेचना की जावे तो गांधी का आंदोलन को न्यूक्लियर  फ्यूजन से समझा जा सकता है, जबकि क्रांतिकारियो के आंदोलन को फिजन कहा जा सकता है. इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का गणित, आत्मा की इकाई में  परमात्मा के विराट स्वरूप की परिकल्पना की दार्शनिक ताकत ही गांधी के आंदोलन का मूल तत्व बना.   किसानो के पक्ष में मशीनीकरण के विरोध का स्वर उपजा.31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा.”, “उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था. गांधी जी ने सबसे खादी पहनने का आग्रह किया. उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि क्या हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे ?

गांधीजी कहते हैं, “मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां देश के लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे. चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी. मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर और धोती को अपनाकर गांधी ने स्वयं को आम आदमी के साथ खड़ा कर लिया.”छोटी सी धोती और ह्थकरघे से बुना गया शॉल विदेशी मशीनो से बने कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया.

यह गांधी की खादी की ताकत ही रही कि अब मोतिहारी में नील का पौधा महज संग्रहालय में सीमित हो गया है.इस तरह खादी को महात्मा गांधी ने अहिंसक हथियार बनाकर देश की आजादी के लिये उपयोग किया और ग्राम स्वावलंबन का अभूतपूर्व उदारहण दुनियां के सामने प्रस्तुत किया. खादी में यह ताकत कल भी थी, आज भी है. केवल बदले हुये समय और स्वरूप में खादी को पुनः वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से युवाओ के बीच पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है.  खादी मूवमेंट आज भी रोजगार, राष्ट्रीयता की भावना और खादी का उपयोग करने वालो और उसे बुनने वालो को परस्पर जोड़ने में कारगर है.

खादी एक ईको फ्रेँडली  कपड़ा है. यह शुचिता व शुद्धता का प्रतीक है.खादी राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक रही है. कभी महात्मा गांधी ने कहा था “हर हाथ को काम और हर कारीगर को सम्मान ” यह सूत्र वाक्य आज भी प्रेरणा है.  लगातार लोगो के बीच खादी को लोकप्रिय बनाने के लिये काम होना चाहिए.  खादी  बाजार फिर से पुनर्जीवित हो .  खादी बुनकरो का उत्थान,युवाओ तथा नई पीढ़ी में खादी के साथ ही महात्मा गांधी के  विचार तथा दृष्टिकोण का विस्तार कर और ग्रामीण विकास के लिये खादी के जरिये दीर्घकालिक रोजगार के अवसर बनाने के प्रयास जरूरी हैं. इन्ही उद्देश्यो से सरकार के वस्त्र मंत्रालय को कार्य दिशा बनाने की आवश्यकता है. प्रति मीटर खादी के उत्पादन में मात्र ३ लीटर पानी की खपत होती है, जबकि इतनी ही लम्बाई के टैक्सटाईल मिल के कपड़े के उत्पादन में जहां तरह तरह के केमिकल प्रयुक्त होते हैं, ५५ लिटर तक पानी लगता है. खादी हाथो से बुनी और बनाई जाती है, खादी लम्बी यांत्रिक गतिविधियो से मुक्त है अतः इसके उत्पादन में केमिकल्स व बिजली की खपत भी नगण्य होती है, इस तरह खादी पूरी तरह ईको फ्रेंडली है. जिसे अपनाकर हम पर्यावरण संरक्षण में अपना अपरोक्ष बड़ा योगदान सहज ही दे सकते हैं.

चरखे से सूती, सिल्क या ऊनी धागा काता जाता है. फिर हथकरघे पर इस धागे से खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. खादी के कपड़े की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसकी बुनाई में ताने बाने के बीच स्वतः ही हवा निकलने लायक छिद्र बन जाते हैं. इन छिद्रो में जो हवा होती है, उसके चलते खादी के वस्त्रो में गर्मी में ठंडक तथा ठंडियो के मौसम में गर्मी का अहसास होता है, जो खादी के वस्त्र पहनने वाले को सुखकर लगता है. खादी के वस्त्र मजबूत होते हैं व बिना पुराने पड़े अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं.प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने मन की बात में देश से कहा है कि हर नागरिक कम से कम वर्ष में एक जोड़ी कपड़ा खादी का अवश्य खरीदे. पर्यटन, योग, खादी का त्रिकोणीय साथ देश को नई प्रासंगिकता दे सकता है. विदेशी पर्यटक खादी को हथकरघे पर बनता हुआ देखना पसंद करते हैं. नये कलेवर में अब खादी में रंग, रूप, फैब्रिक, की विविधता भी शामिल हो चुकी है तथा अब खादी नये फैशन के सर्वथा अनुरूप है. लगभग नगण्य यांत्रिक लागत व केवल श्रम से खादी के धागे और उससे वस्त्रो का उत्पादन संभव है. इसलिये सुदूर ग्रामीण अंचलो में भी रोजगार के लिये सहज ही खादी उत्पादन को व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है. महिलायें घर बैठे इस रोजगार को अपनी आय का साधन बना सकती हैं.  खादी की लोकप्रियता बढ़ाई जावे, जिससे बाजार में खादी की मांग बढ़े और इस तरह अंततोगत्वा खादी के बुनकरो के आर्थिक हालात और भी बेहतर बन सकें. हम सब मिलकर खादी के ताने बाने इस तरह बुने कि नये फैशन, नये पहनावे के अनुरूप एक बार फिर से खादी दुनिया में नई  लोकप्रियता प्राप्त करे और विश्व में भारत का झंडा सर्वोच्च स्थान पर लहरा सकें.

विवेक रंजन श्रीवास्तव

A 1, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर

मो 7000375798

 

 

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मराठी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ महात्मा गांधी……! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। इस अवसर पर प्रस्तुत है उनकी मराठी कविता- महात्मा गांधी….!)  

☆ मराठी कविता – महात्मा गांधी…. ! ☆

 

लढा अहिंसेचा बापू

अजूनही  आठवतो

जग जोडण्याचा वसा

महात्म्यात विसावतो.

 

चरख्याचा मूलमंत्र

एकसूत्री गुंफियेला

बांधवांचा राष्ट्र पिता

शासनाने संबोधिला.

 

धोती पंचा हाती काठी

सत्याग्रह चळवळ

देश राहो एकसंध

हीच मनी तळमळ.

 

अहिंसेच्या तत्वातून

देशसेवा  आकारली.

रूपयांच्या नोटांवर

गांधी छबी साकारली.

 

दिडशेवा जन्मदिन

तत्वनिष्ठ कोंदणात.

न्याय, निती प्रणालीत

आहे नेता स्मरणात…. !

 

विचारांचा झाला घात

झाली हत्या मानवाची

मना मनात राहिली

मूर्ती  एक कर्तृत्वाची… !

 

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ पूछ रहे बैकुंठ से बापू ☆ श्री मनोज जैन “मित्र”

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री मनोज जैन “मित्र”

 

(श्री मनोज जैन “मित्र” जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. विगत 22 वर्षों से ग्रामीण अंचलों में सद् साहित्य के प्रचार हेतु निपोरन प्लस एवं दिया बत्ती नामक पत्रिकाओं के 36अंकों का निरंतर संपादन एवं प्रकाशन.  प्रस्तुत है श्री मनोज जैन “मित्र” जी की कविता “पूछ रहे बैकुंठ से बापू”.)

 

पूछ रहे बैकुंठ से बापू

 

सिर्फ किताबों में मिलती है,

गांधी जी की अमर कहानी

नई पीढ़ी तैयार नहीं है,

सुनने तेरी कथा पुरानी

 

त्याग, तपस्या,आदर्शों के,

तिथि बाह्य सब तथ्य हो गए

जिनको बापू ने त्यागा था,

आज वही सब पथ्य हो गए

 

किसको चिंता रही देश की,

अब आहार बन गया भारत

चाटुकारिता की स्याही में,

निष्ठा की छुप गई इबारत

 

जनहित पर निज हित चढ़ बैठा,

अपना उल्लू सीधा करते

मरे वतन की खातिर बापू,

ये वेतन की खातिर मरते

 

बढ़ते हैं अपराध दिनों दिन,

अमन-चैन है आहत,खंडित

भ्रष्टाचार हुआ सम्मानित,

सत्य हुआ निर्वासित,दंडित

 

सर्वोपरि राष्ट्र की सेवा,

अब ऐसे अरमान कहां हैं?

पूछ रहे बैकुंठ से बापू,

मेरा हिंदुस्तान कहां है?

 

© मनोज जैन “मित्र”

पता- मुख्य पथ निवास, जिला मंडला (मध्य प्रदेश)

मो.9424931962

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ दृष्टि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज  महात्मा गाँधी जी की 150 वीं जयंती पर  प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “दृष्टि ”। )

लघुकथादृष्टि

 

महात्मा गाँधी जी की मूर्ति के हाथ की लाठी टूटते ही मुँह पर अँगुली रखे हुए पहले बंदर ने अँगुली हटा कर दूसरे बंदर से कहा, “अरे भाई ! सुन. अपने कान से अँगुली हटा दे.”

उस का इशारा समझ कर दूसरे बंदर ने कान से अँगुली हटा कर कहा, “भाई मैं बुरा नहीं सुनना चाहता हूं. यह बात ध्यान रखना.”

“अरे भाई! जमाने के साथ साथ नियम भी बदल रहे हैं.” पहले बंदर ने दूसरे बंदर से कहा, “अभी-अभी मैंने डॉक्टर को कहते हुए सुना है. वह एक भाई को शाबाशी देते हुए कह रहा था आप ने यह बहुत बढ़िया काम किया. अपनी जलती हुई पड़ोसन के शरीर पर कंबल न डाल कर पानी डाल दिया. इस से वह ज्यादा जलने से बच गई. शाबाश!”

यह सुन कर तीसरे बंदर ने भी आँख खोल दी, “तब तो हमें भी बदल जाना चाहिए.” उस ने कहा तो पहला बंदर ने महात्मा गाँधी जी की लाठी देखते हुए कहा,  “भाई ठीक कहते हो. अब तो महात्मा गाँधी जी की लाठी भी टूट गई है. अन्नाजी का अनशन भी काम नहीं कर रहा है. अब तो हमें भी कुछ सोचना चाहिए.”

“तो क्या करें?” दूसरा बंदर बोला.

“चलो! आज से हम तीनों अपने नियम बदल लेते हैं.”

“क्या?” तीसरे बंदर ने चौंक कर गाँधी जी की मूर्ति की ओर देखा. वह उन की बातें ध्यान से सुन रही थी.

“आज से हम— अच्छा सुनो, अच्छा देखो और अच्छा बोलो, का सिद्धांत अपना लेते हैं.” पहले बंदर ने कहा तो गाँधी जी की मूर्ति के हाथ अपने मुँह पर चला गया और आँखें आश्चर्य से फैल गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ महात्मा गाँधी की जय ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री घनश्याम अग्रवाल

 

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी का ी-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक पुरानी लघुकथा. उनके ही शब्दों में – आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है। बिना लागलपेट, सियासत से दूर, केवल दिलों में समाते हुए पता ही नहीं चला वो कब राष्टपिता बन गये। मगर आज? पढिए एक व्यंग्य लघुकथा। पुरानी है, फिर भी आज ज्यादा सार्थक है.)

 

व्यंग्य लघुकथा – महात्मा गांधी की जय ☆

 

‘जुरासिक पार्क इतनी अद्भुत फिल्म बनी कि उसका एक विशेष शो संसद में रखा गया। पहली  बार पक्ष और विपक्ष ने बिना किसी शोरशराबे के पूरी फिल्म  देखी। फिल्म समाप्त होने पर दोनों ने न केवल एक साथ  तालियाँ बजाई, एक साथ  चाय भी पी और फिर वे दोनों एक साथ सोचने भी लगे। सोचते-सोचते उन्हें खयाल आया कि जब करोड़ों साल पुराना डायनासोर फिर से पैदा हो सकता है तो सौ-दो सौ साल पुराने नेता क्यों नहीं पैदा हो सकते? हालांकि यह एक फिल्म है और  इसमें कल्पना का सहारा लिया गया है, पर विज्ञान का सारा आधार भी तो कल्पना है। सारी  पार्टियाँ अपने-अपने नेताओं को पुनः पैदा करना चाहती थी। काफी बहस के बाद महात्मा गांधी के नाम पर सहमति हुई।

महात्मा गांधी खुले बदन रहते थे सो मच्छरों के  काटने की संभावना ज्यादा थी। समझौते के अनुसार पक्ष और विपक्ष दोनों गांधी का आधा-आधा बराबर उपयोग करेंगे। वैज्ञानिकों का एक दल पोरबंदर से लेकर वर्धा तक जाएगा और गांधी को काटे मच्छरों की तलाश करेगा। फिर उससे डायनासोर की तरह पुनः गांधी को पैदा  करेंगे। गांधी आयेगा तो देश में रामराज्य आएगा ।

इस खुशी में दोनों ने दुबारा जुरासिक पार्क फिल्म  देखी, पर इस बार दोनों के पसीने छूट गए।

दोनों सोचने लगे कि सच में गांधी पैदा हो गया, तो वह कहीं  डायनासोर की तरह खतरनाक न हो जाए। गांधी का क्या भरोसा ? पैदा होने पर कहे-“सारी पार्टियाँ बंद करो। कुर्सी का मोह छोड़ो। सच बोलो। ईमानदार बनो। ” गुलाम देश के  लिए गांधी ठीक है, पर आज़ाद देश में जिन्दा गांधी हमारे लिए वही  तबाही लाएगा, जो जुरासिक पार्क के अंत में डायनासोर लाता है। रामराज्य के  चक्कर में हम सब राजनैतिक लोग  कुर्सीहरण होते ही रावण की मौत मारे जायेंगे। अतः फिर से गांधी पैदा नहीं होना चाहिए। दोनों ने हाथ मिलाकर तय किया कि समझोते के कागज फाड़े जाएँ, न केवल फाड़े जाएँ, बल्कि अभी की अभी जला दिए जाएँ ।

जब समझौते के कागज जलाए जा रहे थे तो एक दूरदर्शी पत्रकार ने ताना मारते हुए कहा-“तुम गांधी से कब तक बचोगे ? गांधी विदेशों में भी गए थे। वहाँ भी मच्छर तो होते ही हैं। कहीं विदेशों ने गांधी पैदा कर भारत भेज दिया तो….,तब तुम्हारा क्या  होगा गांधीभक्तों ? कुर्सी प्रेमियों  ? ”

एक पल को पक्ष और विपक्ष दोनों चौकें, एक पल सोचा, फिर उसे डाँटते हुए बोले- “गांधी फिर से पैदा  हो गया, तो भी हमें डर नहीं।  अरे, प्रकृति के नियम सबके लिए  समान होते हैं। निपट लेंगे हम गांधी से। यह मत भूलो कि मच्छर सिर्फ गांधी को ही नहीं, गौडसे को भी तो काटे होंगे। ”

” बोलो महात्मा गांधी की जय ”

 

घनश्याम अग्रवाल ( हास्य-व्यंग्य कवि )

094228 60199

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ बा और बापू ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत  महात्मा गाँधी जी की 150  वीं जयंती पर एक संस्मरण “बा और बापू ”

 

संस्मरण – बा और बापू ☆

 

मैं पिछले वर्ष महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा की त्रिदिवसीय संगोष्ठी में पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित थी व शिरकत की थी। वहां पर भाषणों के दौरान सुना यह प्रसंग मुझे बहुत ही प्रभावित कर गया था जिसे आज गाँधीजी की जयंती पर आपसे शेयर कर रही हूँ। निःसंदेह आप लोगों को भी बहुत पसंद आएगा यह प्रसंग – – –

सच कहूँ तो गाँधीजी और कस्तूरबा  के जीवन का यह बड़ा सुंदर प्रसंग आज के दौर में भी बड़ा प्रेरक और प्रयोज्य है, विशेषकर दांपत्य जीवन में–

– – – “तो एक बार एक मुँहलगे पत्रकार ने बापू से पूछा बापू दुनिया में सब से सुन्दर स्त्री कौन है,

कुछ ही दूर बा भी बैठीं थीं। बापूजी पत्रकार की शरारती मंशा समझ गए। झट से बोले कस्तूरबा से सुंदर कोई नहीं।

पत्रकार भी बड़ा नटखट था।बा से पूछा बापू की बात सही है क्या बा??

और बा का उत्तर सुनकर आप सभी कायल हो जाएंगे उन दोनों के बीच सामंजस्य समन्वय के – कस्तूरबा ने बड़ी शर्मीली शांत मुद्रा में कहा बापूजी कभी झूठ नहीं बोलते। और उस नटखट से शरारती पत्रकार को बगलें झांकने के सिवाय कुछ नहीं सूझा।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

 

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हिन्दी साहित्य – ई-अभिव्यक्ति संवाद – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. महात्मा गांधी प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक – 1

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। इस विशेषांक के लिए  सम्पूर्ण सहयोग एवं अतिथि संपादक के दायित्व का आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सहयोग के बिना इस विशेषांक की कल्पना मेरे लिए असंभव थी.

हम अत्यंत कृतज्ञ है हमारे सम्माननीय गांधीवादी चिन्तकों, समाजसेवियों एवं सभी सम्माननीय वरिष्ठ एवं समकालीन लेखकों के जिन्होंने इतने काम समय में हमारे आग्रह को स्वीकार  किया.  इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ सीमित समय में उत्कृष्टता को बनाये रखते हुए एक अंक में प्रकाशित करने के लिए असमर्थ पा रहे हैं अतः  आज 2 अक्तूबर 2019 को ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक – तथा कल 3 अक्तूबर 2019 को  ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक – 2 प्रकाशित करेंगे.    

सीमित समय, साधनों एवं तकनीकी कारणों से इस विशेषांक को प्रकाशित करने में कतिपय विलम्ब के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं.

-हेमन्त बावनकर  

☆ ई-अभिव्यक्ति संवाद -अतिथि संपादक की कलम से ……. महात्मा गांधी प्रसंग☆ 

 

” खुशी के आंसू से 

        लिखे दो शब्द”

150 साल पहले पोरबंदर की धरती पर एक असाधारण व्यक्तित्व मोहनदास करमचंद गांधी उतरे, फिर पूरी दुनिया में अपने विचारों और कर्मों से महात्मा बनकर उभरे। यह खुशी की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित किया है, गांधी जी के सिद्धांतों के लिए मानवता की यही सच्ची श्रद्धांजलि है।

महात्मा गांधी की प्रासंगिकता पर डॉ मार्टिन लूथर किंग ने कहा था ‘यदि मानवता की प्रगति करना है तो गांधी से बच नहीं सकते। शांति और सौहार्द की दुनिया की विकसित होती मानवता के विजन से प्रेरित होकर वे जिए और वैसे ही उन्होंने विचार और कर्म किए।’

महात्मा गांधी की 150 वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में ई-अभिव्यक्ति दैनिक साहित्यिक पत्रिका (वेब संस्कारण) का गांधी स्मृति अंक आपके सामने प्रस्तुत है। अल्प समय में देश भर से ख्यातिलब्ध गांधीवादी चिंतकों के लेख, गांधी पर क्रेदिंत संस्मरण, व्यंग्य, लघुकथा एवं कविताएँ भेजकर अंक को उत्कृष्ट बनाने में अपना योगदान दिया है, हम सभी रचनाकारों के आभारी हैं।

जबलपुर से हमने और बैंगलोर में बैठे श्री हेमन्त बावनकर ने चार दिन पहले दूरभाष पर बात करते हुए गांधी स्मृति अंक की परिकल्पना की और मात्र तीन दिन में ख्यातिलब्ध लेखकों से निवेदन कर पूरे देश से रचनाएं प्राप्त करने के प्रयास किए। हम आभारी हैं प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं समाजसेवी श्री मनोज मीता जी, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक  श्री राकेश कुमार पालीवाल जी, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक श्री प्रेम जनमेजय, डॉ सुरेश कांत, डॉ कुंदन सिंह परिहार, डॉ मुक्ता जी, श्री अरुण डनायक, श्रीमती सुसंस्कृति परिहार, श्री संजीव निगम, श्रीमति समीक्षा तैलंग, श्रीमति निशा नंदिनी भारतीय, मराठी साहित्यकार श्री सुजित कदम एवं सभी रचनाकारों के जिन्होंने इस अंक को उत्कृष्ट दस्तावेज में तब्दील करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के संपादक श्री हेमन्त बावनकर की कड़ी मेहनत हेतु साधुवाद।

शुभकामनाओं सहित

स्नेही

जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री मनोज मीता

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री मनोज मीता जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है.आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित.)

 

☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆

 

गांधी, दक्षिण अफ्रीका बैरिस्टर एम.के. गांधी बन के गए थे पर वहाँ जाने के बाद वो धीर-धीरे जनमानस के गांधी बन गए। यह एक लम्बी प्रक्रिया है । गांधी वहां बाबा अब्दुल्ला के केस में वकील की हैसियत से गए थे पर समय के साथ गांधी वहाँ रह रहे काले कुली के वकील बन गए। गांधी, मोहन से महात्मा बनने की प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो गई थी। उस ब्रितानी सल्तनत जिसका कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उसपे ग्रहण, गांधी के सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह के इस प्रयोग की शुरूआत दक्षिण अफ्रिका में ही हो चुकी थी। कुछ घटनाओं ने बैरिस्टर गांधी को जनमानस का गांधी बनाने में मदद की और यह प्रक्रिया शुरू हुई।

यह घटना 7 जून 1893 के एक सर्द रात की है। गांधी तभी बमुश्किल 23 वर्ष के एक बैरिस्टर थे। शायद तब के दक्षिण अफ्रीका के सबसे पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी या उनकी भाषा में कुली, वो डरबन से नेटल की यात्रा पे थे। इंगलैंड से पढ़ा लिखा बैरिस्टर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अकेले बैठा सफर कर रहा था। उस बैरिस्टर को नेटल जाना था। रात्रि के 9 बजे के आसपास गाड़ी नेटल की राजधानी Pitarmaritjrbag पहुंची। ये एक हाड़ कंपा देने वाली सर्द रात थी। बैरिस्टर गांधी अपने आप में खोया नींद में ऊँघ रहा था कि तभी एक अंग्रेज प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में पहुँचा। बैरिस्टर गांधी सतर्क हो गया और अकेले इस यात्रा में एक सहयात्री को पा के खुश भी हो गया कि चलो आगे की यात्रा संग-संग होगी। वो अंग्रेज लापरवाह सा अपने हैट और ओवर कोट को प्रथम श्रेणी के डब्बे में लगे खुटी से टांग कर अपनी सीट की ओर मुड़ा, अचानक उसकी नजर बगल की सीट पर बैठे बैरिस्टर गांधी पे पड़ी, उसके चेहरे का रंग ही बदल गया। वो बिना कुछ कहे उतर गया। गांधी को अजीब सा लगा, पर उस सर्द रात और नींद ने गांधी को कुछ सोचने नहीं दिया। कुछ ही देर में वो अंग्रेज, रेलवे के दो अधिकारियों के साथ वापस आया। अधिकारियों ने आते ही बैरिस्टर गांधी को फरमान सुनाया कि आपको यह डिब्बा खाली करना होगा क्योंकि एक अंग्रेज किसी काले कुली के साथ सफर नहीं कर सकता है। गांधी ने कुली संबोधन पर प्रतिवाद किया और बताया कि वो एक बैरिस्टर है और अपने मुवक्किल के केस के सिलसिले में जा रहा है। पर उन रेल अधिकारियों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए कहा कि आप बैरिस्टर हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, आप यहाँ से अपनी यात्रा माल डिब्बे में करें। बैरिस्टर गांधी ने कहा कि मेरे पास प्रथम श्रेणी का वैध टिकट है और मैं इसी टिकट से इस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में डरबन से सफर कर रहा हूँ। मैं आगे भी इसी डब्बे में सफर करूँगा, बैरिस्टर गांधी ने दृढ़ता-पूर्वक कहा। अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए कहा कि तुम इस डिब्बे को खाली करो नहीं तो हम पुलिस बुला लेंगे, पर गांधी टस से मस नहीं हुआ। अधिकारियों ने आवाज देकर पुलिस को बुला लिया और बैरिस्टर गांधी को सामान सहित प्लेटफार्म पे फेंकवा दिया। गांधी प्लेटफार्म पर गिरे तो प्लेटफार्म पर रखे बेंच का एक हिस्सा हाथ के पकड़ में आ गया, इस कारण गांधी का सर प्लेटफार्म के फर्श से टकराने से बच गया नहीं तो गांधी का सर निश्चित रूप से फट गया होता और चोट तो लगी ही थी। इस अप्रत्याशित अपमान की जगह गांधी को चोट के दर्द का पता नहीं चल रहा था। अपने बिखरे सामान के साथ गांधी प्लेटफार्म पे पड़ा था कि उस रेल अधिकारी ने पास आकर कहा तुम चाहो तो अब भी यहाँ से माल डिब्बे में आगे का सफर कर सकते हो, पर गांधी ने पुनः दृढ़ता-पूर्वक इंकार से सिर हिलाया। वो गांधी की तरफ उपहास की नजरों से देखते हुए चल दिए। गाड़ी भी गांधी को वहीं छोड़ आगे बढ़ गई। अकेला बैरिस्टर गांधी उस प्लेटफार्म पर रहा गया। प्लेटफार्म का अँधेरा दूर वेटिंग रूम से आ रही मध्यम पीली रौशनी दूर कर रही थी, पर गांधी का अपमान कौन दूर करेगा! गांधी अपने अपमान से जूझ रहा था। थोड़ी चेतना आने के बाद, गांधी उसी बेंच पर जिसने अधिक चोटिल होने से बचाया था, बैठ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी गांधी को लगा कोई फुसफुसा के कह रहा है कि यहाँ बहुत ठंढी है, आप वेटिंग रूम में चले जाएँ। हम आपका सामान स्टेशन मास्टर के यहाँ रख देते है। गांधी को लगा की यह काल्पनिक है, पर वो अपना सामान वहीं छोड़ कर वेटिंग रूम चला गया। तेज दर्द, पहाड़ी शहर की सर्द हवा और अपमान ने गांधी को संज्ञा-शून्य बना दिया। गांधी का ओवर कोट भी सामान में ही रह गया था जो अब स्टेशन मास्टर के कमरे में बंद हो गया था। इन सभी से लड़ते हुए कब गांधी सो गए या मूर्छित हुए उन्हें पता नहीं। सुबह गांधी की नींद खुली तो देखा कि वो एक गंदे कम्बल से लिपटे हुए थे। तभी दो काले कुली समीप आए और कहा कि आप हाथ मुँह धो लें। हम आपका सामान ला देते हैं। गांधी ने उनसे पूछा क्या ये कम्बल तुम लोगों का है? उन्होंने कहा अगर यह कम्बल नहीं देते तो आप इस ठण्ड में मर ही जाते। गांधी ने वेटिंग रूम के नल से मुँह-हाथ धो लिया, वो कुली उनका सामान लेकर भी आ गए और साथ में यह भी कहा कि बाबू यहाँ तो हम कालों के साथ ये रोजमर्रे की बात है। पर गांधी अब अपने अपमान और दर्द से उबर चुके थे। उन्होंने पहला कम किया कि रेलवे के जनरल मैनेजर को एक लम्बा तार भेजकर अपने साथ किये गए दुर्व्यवहार की शिकायत की। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहली बार रेल प्रशासन ने अपने अधिकारी द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए किसी काले भारतीय से लिखित माफी मांगी।आज भी Pitarmaritjrbag स्टेशन पर यह लिखा है कि 7 जून 1893 की रात एम.के. गांधी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे से यहीं बाहर धकेल दिया गया था। इस घटना ने गांधी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यह घटना, गांधी को नस्लीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने की उर्जा दे गई।

यहाँ से गांधी दूसरी गाड़ी से चार्ल्स टाउन पहुँचे, वहाँ से आगे का सफर घोड़ा-गाड़ी से होनी थी क्योंकि इसके आगे रेल की सुविधा नहीं थी। घोड़ा-गाड़ी को वहाँ स्टेट कोच कहा जाता था। जिसको 6 से 8 घोड़े खींचते थे। स्टेट कोच का टिकट रेल टिकट के साथ ही हो जाता था। इस तरह गांधी एक दिन देर थे, पर इस टिकट पर कोई दिनांक नहीं लिखा था। गांधी उस टिकट को लेकर स्टेट कोच के मास्टर के पास गए और आगे के सफर की बात कही। स्टेट कोच के मास्टर ने कहा यह टिकट बेकार हो चुका है। यह किसी काम का नहीं, तुम इस टिकट पर अब सफर नहीं कर सकते। गांधी ने कहा कि इस तरह कह देने से नहीं होगा। आपको मुझे संतुष्ट करना होगा, साथ ही गांधी ने बाबा अब्दुल्ला का नाम भी लिया और कहा कि मेरे स्थगित यात्रा की सूचना आपको सेठ अब्दुल्ला ने तार से दी ही होगी। सेठ अब्दुल्ला उस क्षेत्र के एक बड़े व्यापारी थे और उनके मुलाजिम लगातार सफर करते रहते थे। मास्टर ने कहा ये कुली बहुत तंग करते हैं। गांधी ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि मैं एक बैरिस्टर हूँ। मास्टर ने गांधी को गौर से देखा और कहा नस्ल तो कुली का ही है। गांधी ने कहा नस्ल रंग से नहीं होता। अब मास्टर ने समझा कि ये व्यक्ति मुझसे अच्छा और फर्राटेदार इंगलिश बोलता है और कोट पेंट में भी है। इसका प्रभाव मास्टर पे पड़ा और उसने कहा ठीक है तुम सफर कर सकते हो पर तुम्हें मेरी जगह, कोचवान के पास बैठना होगा और मैं अन्दर बैठूँगा। गांधी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचना जरुरी था इसलिए तैयार हो गए। गांधी ने कोचवान के बगल में बैठ कर सफर शुरू कर दिया। खुले में सफर करना तेज ठण्ढ हवा गांधी को विचलित कर रही थी। बग्घी सुबह 3 बजे Pardikof पहुंची। तेज ठंडी हवा बह रही थी, कोच मास्टर ने गांधी को इशारे से नीचे आने को कहा। गांधी ने पूछा क्यों? मास्टर ने कहा मुझे सिगरेट पीना है। तो? गांधी ने कहा। कोच मास्टर ने कह तुम यहँ बैठो और उसने बग्घी के पांवदान की ओर इशारा किया। गांधी ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि मैं अपने सीट पे हूँ और यहाँ से उठूँगा तो तुम्हारे सीट पे अन्दर बैठूँगा। एक कुली की ये मजाल! गांधी की बात गांधी के मुँह में ही रह गई। मास्टर ने गांधी पर हमला करते हुए ताबड़तोड़ घूँसे का बौछार कर दिया। गांधी इस अचानक हमले से गिरते-गिरते बचे। पर गांधी ने अपना सीट नहीं छोड़ा। गांधी ने कोच के राड को कस कर पकड़ रखा था। बग्घी में सफर कर रहे कुछ यूरोपियन यात्रियों ने बीच-बचाव किया नहीं तो मास्टर गांधी को मार ही देता। यह स्थिति थी दक्षिण अफ्रीका की। कोई भारतीय बोल नहीं सकता और गांधी ने बोलना शुरू किया था जिसका परिणाम गांधी पर हमले के रूप में हो रहा था। अपने गंतव्य पर पहुँचकर गांधी ने बिना किसी संकोच के अपने साथ घटी घटना को बताया और कहा कि मैं इसकी शिकायत करूँगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने कहा हम कालों के साथ ये होता ही रहा है, पर हम कोई शिकायत नहीं करते। गांधी ने स्टेट कोच उपलब्ध कराने वाली कम्पनी में शिकायत दर्ज कराई और उसका सुखद परिणाम भी मिला। कंपनी ने गांधी को पत्र द्वारा सूचित किया कि कल जो यहाँ Staindatrn से जाने वाली बड़ी बग्घी में आप अन्य यात्रियों के साथ कोच के अंदर यात्रा करेंगे और जो मास्टर कल के सफर में था उसे हटा दिया गया है। ये वहाँ रह रहे भारतीयों के लिए अजूबा था कि किसी काले कीे शिकायत पर ऐसा निर्णय भी लिया जा सकता है। बैरिस्टर गांधी धीरे-धीरे जनमानस के गांधी बन रहे थे जिसके किये पे भारतीयों को गर्व हो रहा था और वो गांधी में अपने होने का सोच रहे थे।

 

© श्री मनोज meeta

संस्थापक, गांधी आश्रम, शोभानपुर, अमरपुर, बांका (बिहार)

ईमेलः [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री राकेश कुमार पालीवाल

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  आप वर्तमान में महानिदेशक (आयकर), हैदराबाद के पद पर पदासीन हैं। गांधीवादी चिंतन के अतिरिक्त कई सुदूरवर्ती आदिवासी ग्रामों को आदर्श गांधीग्राम बनाने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें ‘कस्तूरबा और गाँधी की चार्जशीट’ तथा ‘गांधी : जीवन और विचार’ प्रमुख हैं। इस अवसर पर श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का यह आलेख सामयिक एवं प्रासंगिक ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है.)

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर जब भी कोई विचार विमर्श होता है मेरे जेहन में दो घटनाएं कौंधती हैं – एक गांधी द्वारा अपनी हत्या के कुछ दिन पहले दिया वह बयान जिसमें उन्होंने आजाद भारत में अपने दायित्वों और अधूरे कार्यो के बारे में बताया था, और दूसरी घटना 2004 की है जब मुझे एक आत्मीय वार्तालाप में बाबा आम्टे ने इस विषय पर अपने विचार बताए थे। इस लेख में सबसे पहले भूमिका के रूप में इन दो घटनाओं को ही दोहराना चाहता हूं क्योंकि इन दोनों घटनाओं से गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता समझने में मुझे बहुत मदद मिली है।

1947 में जब देश आजाद हुआ तब देशवासियों को ऐसा महसूस होने लगा था मानो अंग्रेजी शासन के कारण ही देश में तमाम समस्या थी और उनके जाते ही राम राज्य जैसी स्थिति हो जाएगी।हालांकि आजादी की पूर्व संध्या पर पंजाब और बंगाल के भयंकर साम्प्रदायिक दंगों ने आजादी की नई नींव की चूलें ही हिलाकर रख दी थी। गांधी ने इस हालत में दिल्ली में आजादी के महा जश्न में शिरकत करने की बजाय बंगाल में भड़के भयावह दंगों को रोकने को वरीयता दी थी। वे यह भी भांप रहे थे कि आजादी के बाद का भारत भी बहुत सारी समस्याओं से घिरा रहेगा इसीलिए उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस को भंग कर कांग्रेसियों को सलाह दी थी कि वे सत्ता का मोह छोड़कर देश सेवा के रचनात्मक कार्यों में लग जाएं। यह कमोबेश वही रचनात्मक कार्य थे जिन्हें गांधी और उनके सहयोगी स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के दौरान बहुत साल से करते आए थे।

आजादी के समय भी अधूरे रह गए रचनात्मक कार्य गांधी को आजादी से भी ज्यादा प्रिय थे, इसीलिए वे अक्सर कहते थे कि आजादी के पहले देश की जनता को आजादी अक्षुण्ण रखने के लिए जागरूक करने की जरूरत है। इसी पृष्ठभूमि में  एक प्रश्न के उत्तर में गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद भी हमें बहुत काम करना है क्योंकि अंग्रेजी शासन हटने से देश को केवल एक चौथाई (राजनीतिक) आजादी मिली है। अभी हमें देशवासियों के लिए तीन चौथाई आजादी अर्थात सामाजिक आजादी, आर्थिक आजादी और धार्मिक या आध्यात्मिक आजादी अर्जित करनी है। गांधी का इशारा समाज में फैली छुआछूत और जातिवाद, देश के गांवों में पसरी भयंकर गरीबी और विभिन्न धर्म और संप्रदायों के बीच फैली नफरत की आग की तरफ था।गांधी के इस कथन को ध्यान में रखते हुए देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज भी गांधी के विचार हमारे देश और समाज के लिए उतने ही जरूरी हैं जितने आजादी के समय थे। धार्मिक उन्माद जैसे कुछ मामलों में तो हालात दिन ब दिन बदतर हुए हैं।इसलिए गांधी विचार की प्रासंगिकता भी बढ़ गई है।

2004 में मुझे बाबा आम्टे से उनके आश्रम आनन्द वन में एक आत्मीय वार्ता का अवसर प्राप्त हुआ था। उन दिनों उनकी तबियत काफी नासाज थी लेकिन यह मेरा सौभाग्य था कि उस दिन वे कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे जो मेरे साथ करीब आधा घण्टा गुफ्तगू कर सके। उन दिनों मुझे भी गांधी विचार का वैसा अहसास नहीं था जैसा बाद के वर्षों में हुआ। मैंने बातों बातों में उनसे पूछा था –  आने वाले समय में गांधी विचार की क्या प्रासंगिकता रहेगी। जैसे ही बाबा से यह प्रश्न किया उनकी आंखों में चमक बढ़ गई और बिना पलक झपके उन्होंने तुरंत कहा – जिस तरह से विश्व तेजी से हिंसा की तरफ बढ़ता जा रहा है वैसे ही आने वाले समय में पूरे विश्व को गांधी विचार की आवश्यकता और शिद्दत से महसूस होगी। बाबा आम्टे ने जिस आत्म विश्वास के साथ यह कहा था उस पर मैंने उस दिन भी संदेह नहीं किया था क्योंकि बाबा जैसे संत के अनुभव से उपजे ज्ञान पर अविश्वास का कोई कारण नही हो सकता। आज तो मैं भी उसी आत्मविश्वास के साथ यह कह सकता हूं कि आगामी वर्षों में गांधी विचार की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि विश्व के आधुनिक महान चिंतकों में अकेले गांधी ही ऐसे चिंतक दिखते हैं जिन्होंने हमारे समय की तमाम समस्याओं और चिंताओं पर समग्रता से चिंतन मनन किया है और उनका अहिंसक समाधान करने की हर सम्भव कोशिश की है।

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर एक और प्रत्यक्ष प्रमाण याद आ रहा है। बॉम्बे सर्वोदय मंडल के एक छोटे से कमरे से वरिष्ठ गांधीवादी तुलसीदास सौमैया जी अपने युवा सहयोगी राजेश के साथ मिलकर वर्धा आश्रम और जलगांव के जैन गांधी संस्थान की सहायता से गांधी विचार के प्रचार प्रसार के लिए mkgandhi.org नाम से एक वेबसाइट का संचालन करते हैं। कहने के लिए यह एक सादगीपूर्ण साइट है जिस पर कोई खासताम झाम नही है लेकिन कुछ ही साल में तेजी से यह वेबसाइट संभवतः गांधी विचार की सबसे बड़ी वेबसाइट बन गई। इस साइट को अब तक विश्व के दो सौ से ज्यादा देशों के दो करोड़ से अधिक लोगों ने गांधी विचार को जानने समझने के लिए न केवल देखा है बल्कि गांधी के प्रति अपने भावों को भी अभिव्यक्ति दी है। बिना किसी विज्ञापन या प्रचार के इस वेबसाइट का तेजी से विश्व में लोकप्रिय होना यह साबित करता है कि विश्व भर में प्रबुद्ध वर्ग गांधी विचार की तरफ बहुत ध्यान और उम्मीद से देख रहा है।

कुछ साल पहले मुझे वर्धा आश्रम में तीन दिन बिताने का मौका मिला था। आश्रम में रखी विज़िटर्स पुस्तिका पर बहुत से लोग अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। ये लोग दूर दराज के भी थे और काफी आसपास के परिवेश से भी आए थे। मैंने यहां आने वाले लोगों की टिप्पणी देखी तो यह सहज ही आभास हुआ कि गांधी और उनके विचारों के प्रति आज भी लोगों मे कितनी श्रद्धा और विश्वास है।

वैसे भी आज हमारे देश में या विश्व में जितनी भी बड़ी समस्या दिखाई देती हैं उनका सम्यक समाधान गांधी विचार में मिलता है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान समय की एक सबसे बड़ी चुनौती क्लाइमेट चेंज की बताई जा रही है। इसी से जुड़ी हुई बड़ी समस्या दिनोदिन बिगड़ते पर्यावरण और हर तरफ गहराते जल संकट की है। यदि हम पिछली सदी में गांधी विचार का ठीक से अनुसरण करते तब यह समस्याएं इतना विकराल रूप धारण नही करती। गांधी सादगीपूर्ण जीवन यापन पर बहुत जोर देते थे और खुद भी सादगीपूर्ण सात्विक जीवन जीते थे। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वी पर हर जीव की आवश्यकता के हिसाब से संसाधन मौजूद हैं लेकिन हमारी धरती एक भी व्यक्ति के अनन्त लालच का पोषण नही कर सकती। एक तरह से गांधी ने लगभग सौ साल पहले हमें बहुत स्पष्ट शब्दों में चेताया था कि प्रकृति का जरूरत से अधिक दोहन प्रकृति सहन नहीं कर सकती।

हमने गांधी की बात ध्यान से नहीं सुनी, उस पर ठीक से अमल नहीं किया। इसका दुष्फल हमारे सामने है। हमारा देश ही नहीं अपितु पूरा विश्व अभूतपूर्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। इसका समाधान गांधी मार्ग पर चलने से आसानी से हो सकता है। यह काम कड़े कानून बनाने से सम्भव नहीं है। इसके लिए भी गांधी के अहिंसक जन भागीदारी वाले आंदोलन की जरूरत है जिसमें बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करने होंगे। रोपे गए पौधों का उचित रखरखाव करना होगा और लकड़ी की खपत कम कर जंगल बचाने होंगे। इसी राह से पर्यावरण बचेगा। इसी तरीके से जल संकट टलेगा।

गांधी के बाद भी बहुत से लोगों ने गांधी के विचारों का अनुसरण कर महान काम किए हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और आँग सांग सूकी आदि ऐसी प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय हस्तियां हैं जिन्होंने अपने रचनात्मक आंदोलनों का श्रेय गांधी को दिया है। आजादी के बाद हमारे देश में भी बहुत सी विभूतियों ने गांधी विचार अपनाकर कई रचनात्मक कार्यों को अंजाम दिया है। विनोबा भावे का भूदान आंदोलन हो या चंबल के डकैतों का आत्म समर्पण, बाबा आम्टे का कुष्ठ रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के काम आदि में गांधी विचार ही प्रेरक शक्ति था। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में कई संस्था और व्यक्ति अपने स्तर पर अपनी क्षमता के अनुसार गांधी विचार के अनुसार सफलता पूर्वक कार्य कर रहे हैं।

भारत की विशेष सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में देखें तो आज यह बेहतर समझ में आ रहा है कि क्यों गांधी भारत के लिए यूरोप के शहरी औधोगिकरण के मॉडल को सिरे से अस्वीकार करते थे। वे भारत की नस नस से वाकिफ थे और अपने समकालीनों में संभवतः भारत की जमीनी हकीकत को सबसे बेहतर समझते थे। उन्होंने देश के लिए ग्राम विकास के उस मॉडल की वकालत की थी जिससे देश की अधिसंख्यक ग्रामीण आबादी गांव में रहते हुए अपना आर्थिक विकास कर आत्म निर्भर हो सके। वे बारम्बार यह दोहराते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांवों का समग्र विकास किए बगैर भारत का समग्र विकास नहीं हो सकता।

ग्राम विकास पर जोर देने के पीछे गांधी शायद उस स्थिति को भांप रहे थे जिससे आज हमें जूझना पड़ रहा है। गांवों का समुचित विकास नही होने से एक तरफ गांवों से युवाओं का निरंतर पलायन हुआ है जिससे गांव श्रीहीन हो रहे हैं और दूसरी तरफ शहरों में आबादी का दबाव इतना बढ़ गया है कि वहां की व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। महानगरों में जिस तेजी से झुग्गियों की बाढ़ आ रही है वह निकट भविष्य मे थमती दिखाई नहीं देती। गांवों की श्रीहीनता और महानगरों की दुर्दशा का हल भी गांधी विचार में मिलता है। गांधी अपने रचनात्मक कार्यों में गांव के लिए कुटीर उद्योगों को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। इससे गांव के युवाओं को गांव में ही रोजगार मिलता था और उन्हें रोजी रोटी के लिए गांव का हरा भरा वातावरण छोड़कर शहर की झुग्गी बस्तियों के दमघोंटू वातावरण में रहने की मजबूरी नहीं होती।

गांधी विचार की एक खासियत यह भी है कि वह ऊपर से देखने में बहुत सरल लगते हैं और साथ ही प्रथम दृष्टया अव्यवहारिक लगते हैं लेकिन जब हम उनकी जड़ तक पहुंचते हैं और मन से अपनाते हैं तब उसका आकर्षण इतना सघन होता है कि हम उसके बाहर नहीं आ सकते। इसे हम देश विदेश घूमकर मल्टी नेशनल कम्पनियों की करोडों की कमाई वाली नौकरियां छोड़कर दूरदराज के इलाके में पांच दस एकड़ जमीन पर जैविक खेती कर जीवन यापन करने का निर्णय लेने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोगों से बात कर समझ सकते हैं। इन लोगों ने गांव में खेती करने का रास्ता बहुत सोच समझकर सार्थक जीवन जीने के लिए चुना है क्योंकि वहां इन्हें प्रदूषण मुक्त साफ हवा मिल रही है और पेस्टीसाइड रहित जहर मुक्त भोजन मिल रहा है जो स्वस्थ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। ऐसा शांतिपूर्ण सुकून का जीवन महानगरों में संभव नही है। दरअसल जाने अंजाने ऐसे लोग अपने लिए गांधी मार्ग ही चुन रहे हैं जो सबसे सुरक्षित और सही मार्ग है। मैंने भी आने वाले समय के लिए यही रास्ता चुना है क्योंकि मुझे भी यही सबसे बेहतर रास्ता नजर आ रहा है। और गांधी के ही शब्दों में “हमे खुद से ही बदलाव की शुरुआत करनी है।”

 

© श्री राकेश कुमार पालीवाल

हैदराबाद

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