हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक – 1

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(150वीं गांधी जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी   की विशेष रचना क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं श्रीमति समीक्षा तैलंग प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इस रचना के लिए श्रीमति समीक्षा जी के हम हृदय से आभारी हैं।)

क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं

 

 

मैं जानती हूं बापू के वचन। और निबाह भी करती हूँ तब तक, जब तक कोई सामने से हमला न करे।

बुरा मत देखो- 

लेकिन क्या करूँ तब, जब देखने वाले की आंख मुझ पर गलत निगाहें डालती है? देखने दूं उसे…? निहारने दूं अपनी काया को, जब वो उन्हीं गंदी निगाहों से अंदर तक झाँकने की कोशिश करता है? या शोर मचाऊं? कौन आएगा बचाने? निर्भया को कभी कोई बचाने नहीं आता। चीखती है वो। लेकिन सुनने वाले की रूह नहीं काँपती। वो उन आँखों का शिकार होती है हमेशा। बस उसकी एक ही गलती है, कि वो निहत्थी है। तो क्या करूं, बार बार निर्भया बनने तैयार रहूँ? या निर्भीक होकर उसकी आंखें दबोच उसके उन हाथों में धर दूं, जिससे वो अपराध करता है? या फिर अहिंसा की पुजारी होकर उसे बख़्श दूँ?

बुरा मत सोचो- 

उन सबकी सोच का क्या करूं जो उन्हें स्त्री की तरफ घूरने पर मजबूर करती है। घृणित मानसिकता से उपजी सोच लडकियों के कपडों से लेकर उसकी चालढाल, उसकी बातों, सब पर वाहियात कमेंट्स करके जता देती है। खुद में सुधार की बजाए, उंगलियां हमेशा स्त्री की तरफ उठती हैं। क्योंकि वे कमजोर हैं। अपनी गलतियों पर परदा डालने के लिए उनकी सोच उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मेरी सोच मुझे न घूरने के लिए कहती है और न ही पुरुषों पर टिप्पणी के लिए विवश करती है। क्योंकि मेरी सोच हीन भावना से ग्रसित नहीं। मेरी सोच स्वावलंबी है। फिर क्यों न मैं, ऐसी घटिया सोच रखने वाले को सबके सामने खींचकर एक तेज चपाट दूं? उसे सोचने का अधिकार केवल खुद पर है। मुझ पर कतई नहीं।

बुरा मत कहो-

मैं कहां कहती हूं बुरा…। जब वो नुक्कड़ पर खड़े होकर सीटी बजाते हैं। या फिर सडक रोककर आवारागर्दी करते हैं। ऊलजलूल बकते हैं। फिर भी मैं चुप रहूं? उनकी अश्लील बातों को सुनकर आगे बढ़ जाऊं? उनकी घिनौनी हरकतों को नजरंदाज़ कर दूं? उनके दिमाग में उपज रहे अपराध के प्रति सजग न होकर, वहां से चुपचाप निकलकर, उन्हें शह दे दूं? नहीं, मैं ऐसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए कभी तैयार नहीं। मैं उसे उसके किए की सजा जरूर दूंगी। सहकर नहीं, डटकर…।

बापू तुम सच में महात्मा हो। अपनी इंद्रियों पर काबू रख सकते हो। लेकिन ये सब, महात्मा नहीं। इसलिए इनकी इंद्रियां इन्हें भटकाती हैं। लेकिन मुझे इन पर लगाम कसना जरूर आता है। अपनी आत्मरक्षा के लिए। क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं। मैं एक साधारण सी स्त्री हूं।

 

© समीक्षा तैलंग, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।22।।

जिस सुख से बढ़ सुख कोई  नहीं समझता और

कठिन प्रसंगों में भी वह विचलित किसी न ठौर।।22।।

 

भावार्थ :  परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता।।22।।

 

Which, having obtained, he thinks there is no other gain superior to it; wherein established, he is not moved even by heavy sorrow. ।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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महत्वपूर्ण सूचना – ☆ महात्मा गांधी जी के150वीं जयंती पर विशेष – ☆ ई-अभिव्यक्ति – गांधी स्मृति विशेषांक ☆

 ☆ महत्वपूर्ण सूचना ☆

 ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆

महात्मा गांधी जी के 150वीं जयंती पर ई-अभिव्यक्ति की विशेष प्रस्तुति “ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक”

 

इस विशेषांक में आप पढ़ सकेंगे अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर के वरिष्ठ एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षरों की रचनाएँ, जिनमें प्रमुख हैं :-

श्री राकेश कुमार पालीवाल, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद एवं प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक, डॉ मुक्ता, पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी एवं राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार, डॉ सुरेश कान्त, श्री प्रेम जनमेजय, श्री संजीव निगम, श्रीमति सुसंस्कृति परिहार, श्री अरुण कुमार डनायक, सुश्री निशा नंदिनी भारतीय, श्री जय प्रकाश पाण्डेय, डॉ गुणशेखर शर्मा, श्री विनोद कुमार विक्की, श्री रमेश सैनी, श्री सदानंद आंबेकार, श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, श्रीमती समीक्षा तैलंग, श्री मनोज जैन “मित्र”, श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”, मराठी साहित्यकार कवीराज विजय यशवंत सातपुते, श्री सुजित कदम एवं अन्य सुप्रसिद्ध साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर।

आशा है आपको निश्चित ही इस अंक की प्रतीक्षा रहेगी ।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10 ☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जब कभी मैं तनहा होती हूँ”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10

☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ 

जब कभी मैं तनहा होती हूँ,

नज्मों की धार पकड़ लेती हूँ

और झूल जाती हूँ

दहर के किसी कोने में छुपे

एहसासों के खूबसूरत से जंगल में!

 

कभी-कभी इस धार को पकड़

मैं ऊपर को बढती रहती हूँ,

छू लेती हूँ आसमान
और उड़ने लगती हूँ

मस्त परिंदों की तरह…

 

और कभी-कभी गिर जाती हूँ

नीचे अलफ़ाज़ के दरिया में,

अपनी नाज़ुक उँगलियों से

तब मैं चुनती जाती हूँ एक-एक हर्फ़

और फिर अपनी कलम से

भरती रहती हूँ न जाने कितने सफ्हे,

लिखती रहती हूँ न जाने कितनी किताब…

 

जीत

दोनों में ही मेरी है,

और फिर जब वापस पहुँचती हूँ

तो देखती हूँ

कि ख़ुशी का एक समंदर

बह रहा है

मेरे ही ज़हन में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – रजत जयंती वर्ष विशेष – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज हम संजय दृष्टि के अंतर्गत श्री संजय भारद्वाज जी का  हिंदी आंदोलन परिवार की रजत जयंती पर विशेष आलेख प्रस्तुत करना चाहेंगे.  आखिर संजय दृष्टि ने कभी तो इस पर्व की कल्पना की होगी. अतः आप सबको समर्पित श्री संजय भारद्वाज जी का यह विशेष आलेख .)   

 

☆ संजय दृष्टि  – रजत जयंती वर्ष विशेष ☆

स्मृतिपटल पर है एक तारीख़, 30 सितम्बर 1995.., हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी। पच्चीस वर्ष बाद आज 30 सितम्बर 2019..। कब सोचा था कि इतनी महत्वपूर्ण तारीख़ बन जायेगी 30 सितम्बर!
हर वर्ष 30 सितम्बर को स्मृतिमंजुषा एक नवीन स्मृति सम्मुख रख देती है। आज किसी स्मृति विशेष की चर्चा नहीं करूँगा।..हाँ इतना अवश्य है कि जब संस्था जन्म ले रही थी और सपने धरती पर उतरना चाह रहे थे तो राय मिलती थी कि अहिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी आंदोलन, रेगिस्तान में मृगतृष्णा सिद्ध होगा। आँख को सपनों की सृष्टि पर भरोसा था और सपनों को आँख की दृष्टि पर। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अमृता प्रीतम याद आती हैं। अमृता ने लिखा था, ‘रेगिस्तान में लोग धूप से चमकती रेत को पानी समझकर दौड़ते हैं। भुलावा खाते हैं, तड़पते हैं। लोग कहते हैं, रेत रेत है, पानी नहीं बन सकती और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करती। वे लोग सयाने होंगे पर मेरा कहना है, जो लोग रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कसर होगी।’
हिंआप की प्यास सच्ची थी, इतनी सच्ची कि जहाँ कहीं हिंआप ने कदम बढ़ाए, पानी के सोते फूट पड़े।
हिंआप की यह यात्रा समर्पित है प्रत्यक्ष, परोक्ष कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों विशेषकर कार्यकारिणी के सदस्यों और हितैषियों को। हर उस व्यक्ति को जो चाहे एक इंच ही साथ चला पर यात्रा की अनवरतता बनाए रखी। यह आप मित्रों की ही शक्ति और विश्वास था कि हिंआप इस क्षेत्र में कार्यरत सर्वाधिक सक्रिय संस्था के रूप में उभर सका।
हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती प्रवेश के इस अवसर पर वरिष्ठ लेखिका वीनु जमुआर जी ने एक साक्षात्कार लिया है। आज के महापर्व को मान देकर ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने भी इसे सचित्र प्रकाशित किया है। इसका लिंक संलग्न है। गत सप्ताह ‘आसरा मुक्तांगन’ के नवीन अंक में भी यह साक्षात्कार छपा था। सुविधा के लिए प्लेन टेक्स्ट प्रारूप में भी इसे संलग्न किया जा रहा है। इसे पढ़ियेगा, पहली से 238वीं गोष्ठी की हिंआप की यात्रा को संक्षेप में जानियेगा और संभव हो तो अपनी बात भी अवश्य कहियेगा।
अंत में एक बात और, दुष्यंत कुमार का एक कालजयी शेर है-
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…!
सिर झुकाकर कहना चाहता हूँ कि-  पच्चीस वर्ष पहले तबीयत से उछाला गया एक पत्थर, आसमान में छोटा-सा ही सही , छेद तो कर चुका।..
 *उबूंटू!* 
संजय भारद्वाज
संस्थापक-अध्यक्ष, 
हिंदी आंदोलन परिवार

 

☆ संस्थापक-अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #18 – धूर्त सारथी ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एकसार्थक कविता “धूर्त सारथी”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 18  ☆

 

 ☆ धूर्त सारथी ☆

 

झालो गुलाम आहे सत्तांध या गटाचा

होतो विचार कोठे माझ्या इथे मताचा

 

सत्ता जरी बदलली मी हा तिथेच आहे

नेता धनाढ्य इतका व्यापार हा कशाचा

 

आश्वासने दिलेली होतील का पुरी ही

द्यावा कसा भरवसा सत्त्येतल्या ठगांचा

 

चारा दिसेल तिकडे घोडे असे उधळले

हो धूर्त सारथी मी होतो जरी रथाचा

 

सत्तेस भोगताना मी हात मारलेला

कारागृहात शेवट होणार या कथेचा

 

शिक्षा नकोच इतकी या सेवकास तुमच्या

मस्तीत गैरवापर होतो कधी पदाचा

 

पडलाय प्रश्न साधा जनतेस भाकरीचा

नापाक हा इरादा युद्धात झोकण्याचा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 2 – ☆ लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले – स्व सुधीर मोघे ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले – स्व सुधीर मोघे ” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # २ ☆

 

☆ लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले – स्व सुधीर मोघे ☆ 

 

कवितेची दालनं पार करत असतांना, अचानक सुधीर मोघेंची ही सुंदर रचना नजरेस पडली. तिच्या शब्दांनी मनाची पकड घेतली, नव्हे मनाचा तळच गाठला, आरपार सारं ढवळून निघालं आणि स्वत:चाच स्वत:शी मूक संवाद सुरू झाला.

 

*लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले*

 

लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले

ओंजळी पसरावया पण हात नसती मोकळे

 

स्वच्छंद वाटा धावत्या,डोळे दिवाणे शोधती

रेशमी तंतूत पण हे पाय पुरते  गुंतले

 

सागराच्या मत्त लाटा साद दुरूनी घालती

ओढतो जिवास वेड्या जीवघेणा तो ध्वनी

 

शीड भरल्या गलबतातून शीळ वारा घुमवितो

तीच वाटे येतसे जणू हाक अज्ञातातूनी

 

सांग ओलांडू कसा पण हा वितीचा उंबरा

झेप घेण्याला जरी तू दान पंखांचे दिले

 

थांबता ना थांबती ही वादळे रक्तातली

मस्तकी ना मावणारे वेड तू का घातले

 

लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले

ओंजळी पसरावया पण हात नसती मोकळे

 

आयुष्याला सामोरं जातांना कित्येकदा एका ठराविक  चाकोरीतून जायला लागतं, तुमची इच्छा असो वा नसो. रूळलेली पायवाट आणि अंगवळणी पडलेली त्यावरची वाटचाल सुखावह वाटू लागते. मनातील सूप्त ईच्छा आकांक्षांना मूर्त रूप देण्यासाठी मदतीचा हात देणाऱ्या अनेक संधी आयुष्यात येतात. पण त्या संधीचं सोनं करून जीवनाला हवा तो आकार देण्याइतपत स्थिरता, शांतता मनाला असतेच कुठे ? ते तर गुंतलेलं असतं आपल्याच वाढवलेल्या पसाऱ्यात ! आपल्या आवडीच्या वाटावळणांवरून चौखुर स्वच्छंद उधळण्याचं त्याचं उराशी जपलेलं स्वप्न सत्यात उतरवण्यापेक्षा ह्या रेशमी धाग्यांतच अडकणं त्या मनाला भावतं. त्या रेशमी पसाऱ्यात संधीने अनेकदा दार ठोठावून देखील मनाची कवाडं ही बंदच राहतात !

ओढ असते, तुफानाची ! सागराच्या बेभान लाटांशी मस्ती करत त्यांच्यावर स्वार होण्याची ! जिद्द फुलली असते मनात, त्या सागराच्या गाजेत आपलाही हुंकार मिसळावा आणि फुटावं तिच्याचसारखं उंच उसळून, व अनुभवावा तो थरार ! असं पेटून उठण्याचं ते वय. पण त्याच क्षणी वारा वाहील तिकडे शीड फुलवून संथपणे एका लयीत मार्गक्रमण करणारं गलबत दृष्टीस पडावं, त्याचा तो कुठलाही प्रतिकार न करता वाऱ्याशी हातमिळवणी करत आपली दिशा बदलणं, म्हणजे जणू त्या अज्ञाताच्या हाकेला ओ देणंच ह्याची खुणगाठ मनी पटावी ! आणि स्वत:च्याही नकळत वारा वाहील तशी दिशा बदलवणाऱ्या म्हणजेच  तडजोड करणाऱ्या गलबताचीच ओढ मनी निर्माण व्हावी तोच प्रवास आपलासा वाटावा. तेच विधिलिखित आहे ह्याची खूणगाठ पक्की करावी आणि मनांस शांतवावे अशीच तर अवस्था झाली  असेल ना आपली ?

तरीदेखील एखादा क्षण असा येतोच की मनात कोंदलेलं वादळ पुन्हा एकदा रोंरावत बाहेर येतं. पुन्हा पुन्हा मन त्या वावटळीत गरगरतं, आणि गरगरत राहतात उराशी जपलेली स्वप्न, एखादा जीर्ण शीर्ण पाचोळा भिरभिरावा तशी !

आकाशात भरारी घ्यायला दिलेली मनाची उमेद, क्षितिज गाठायला दिलेले दोन सामर्थ्यशाली पंख सारं सारं अनुकूल असतांना उंबऱ्याशी पावलं अडखळावीत…..ह्याला नक्की काय म्हणावं..? कर्मदारिद्र्य म्हणत स्वत:ला दूषणं द्यावीत की दैवदुर्विलास म्हणत स्वत:ला गोंजारून घ्यावं ?

एखाद्या विचाराने झपाटलं जावं, कायावाचामने त्याचा ध्यास घ्यावा पण सततच परिस्थितीचा बाऊ करत प्रत्यक्ष त्याचा पाठपुरावा करण्यात कमी पडावं, हतबल व्हावं, परिस्थितीशरण व्हावं, असाच काहीसा विचार तर  कवितेतून डोकावत नाहीय ना ?

मनाचा तळ तर पार ढवळून निघाला. खुप अस्वस्थता मनाला आली…उगाचच यू ट्यूब वर एखादं मनाची मरगळ झटकून टाकणारं मस्त गाणं शोधावं म्हणून खटाटोप केला आणि काय जादू बघा ! यू ट्यूब वर ह्या कवितेतील शब्दांना सूरांची साथ मिळाली…बघता बघता ह्याच

शब्दांनी सूरांतून  मनावर मोहिनी घातली. कवितेचे गीत झाले, आणि मी मंत्रमुग्ध झाले !

माझ्याही नकळत मी गाऊ लागले….

लाख हाते द्यावया आभाळ पुढती वाकले

ओंजळी पसरावया पण हात नसती मोकळे..

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 7 ☆ हास्य व्यंग्य – बातें बेमतलब  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “हास्य व्यंग्य – बातें बेमतलब । 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 6 ☆ 

 

☆ पुस्तक – हास्य व्यंग्य – बातें बेमतलब

 

पुस्तक चर्चा

पुस्तक –बातें बेमतलब

लेखक –  अनुज खरे

प्रकाशक – मंजुल पब्लिशिंग हाउस भोपाल

मूल्य –  175 रु

 

☆ पुस्तक  – हास्य व्यंग्य – बातें बेमतलब  – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

☆ हास्य व्यंग्य – बातें बेमतलब ☆

 

आपाधापी भरा वर्तमान समय दुष्कर हो चला है. ऐसे समय में साहित्य का  वह हिस्सा जन सामान्य को बेहतर तरीके से प्रभावित कर पा रहा है जिसमें आम आदमी की दुश्वारियो की पैरवी हो, किंचित हास्य हो, विसंगतियो पर मृदु प्रहार हो. पर सब कुछ बोलचाल की भाषा में एफ एम रेडियो के जाकी टाइप की सरलता से समझ आने वाली बातें हों.  इस दृष्टि से हास्य और व्यंग्य की लोकप्रियता बढ़ी है.

अनुज खरे ने सामान्य परिवेश से अपेक्षाकृत युवाओ को स्पर्श करते विषय उठाये हैं. वे लव देहात, मायके गई पत्नी को लिखा गया भैरंट लैटर, इश्कवाला लव, ट्रक वाला टेलेंट, रिसाइकिल बिन में रिश्ते, वर्चुएल वर्ल्ड के वैरागी, मोबाईल की राह में शहीद, पहली हवाई यात्रा, यारां दा ठर्रापना, जैसे लेखो में सहजता से, विषय, भाषा, शब्दो के प्रवाह में पाठक को अपनी खास इस्टाईल में कुछ गुदगुदाते हैं, कुछ शिक्षा देते सीमित पृष्ठो में अपनी बातें कह देने की विशिष्टता रखते हैं. संभवतः बुंदेलखण्ड में विकसित उनका बचपन उन्हें यह असाधारण क्षमता दे गया है.

कस्बाई कवि सम्मेलन शायद पुस्तक का सबसे लंबा व्यंग्य लेख है. बड़े मजे लेकर उन्होने दुर्गा पूजा  आदि मौको पर देर रात तक चलने वाले इन सांस्कृतिक आयोजनो के बढ़ियां चित्र खिंचे हैं, अब कवि सम्मेलन भले ही टी वी शो में सिमटने लगे हों पर हमारी पीढ़ी ने मुशायरो और कवि सम्मेलन का ऐसा ही आनंद लिया है जैसा अनुज जी ने वर्णित किया है. कुल मिलाकर सभी ३६ लेख, मजेदार, बातें बेमतलब  में मतलब की बातें हर पाठक के लिये हैं. किताब पैसा वसूल है, पठनीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता/गीत ☆ नौ रूपों में नारी-नारायणी  ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी”

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है. आज प्रस्तुत है  श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी की  नवरात्रि पर विशेष कविता/गीत  “नौ रूपों में नारी-नारायणी ”.)

 

☆  नौ रूपों में नारी-नारायणी ☆

 

भरा हुआ भीतर तक तुम वो अमृत घट हो

एक बार अपनी क्षमताओं सी हो जाओ।

मूरत नहीं खुद को खुद में ही पहचानो

एक बार तुम नारी-नारायणी हो जाओ।।

 

पूजाघर या चौराहों पर क्यों पुजो-पुजाओ

मानवी बनकर अपने नौं रूपों में आओ।

जन्म लेने वाली कन्या हो शैलपुत्री हो।

 

कौमार्यावस्था तक पवित्र पावनी ब्रह्मचारिणी

विवाह पूर्व चंद्र सी निर्मल चंद्रघंटा

जन्मदात्री गर्भधारिणी हो कूष्मांडा

जन्म देने के बाद संतान की हो स्कंदमाता।

संयम-साधन की धारिणी कात्यायनी जगत्राता

अपने संकल्पों से पति की जीत ले जो

मृत्यु अकाला कालरात्रि वो सुरभूता

कुटुंब रूपी संसार पर नित उपकारी महागौरी

देती महाप्रयाण से पूर्व संतानों को सब सिद्धि वो सिद्धिदात्री।।

 

नौ निधि नौ विधि नौ रिद्धि नौ सिद्धि नौ शक्ति नौ भक्ति नौ अनुरक्ति नौ नवधा

नौ दुर्गा के नौ अवतारों में नारी का पूरा जीवन नौ निधि अनपायनी प्रिय वसुधा।

 

नारी । नारी-नारायणी। गृहिणी।

खुद में अमृत घट पूरा तुम

एक बार खाली हो जाओ

देवी नहीं मानवी बन आओ।

हां घट-घट वासिनी अमृत दायिनी

संतानों के तन मन जीवन में बस जाओ।।

देवी नहीं मानवी बन आओ।।

देवी नहीं मानवी बन आओ।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

 

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता – ग़ज़ल/गीतिका ☆ – माँ का  उपवास ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

 

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  नवरात्रि पर्व पर  माँ दुर्गा देवी  जी को  समर्पित  ग़ज़ल/गीतिका  – माँ का  उपवास)

 

☆ ग़ज़ल/गीतिका  – माँ का  उपवास  

 

माँ का जब उपवास करोगे,

ख़ुशियों का आभास करोगे।

 

मन  में  श्रद्धा-भाव  जगेंगे,

पूजन पर विश्वास करोगे।

 

यश, वैभव, आशीष मिलेगा,

जीवन  हर्षोल्लास   करोगे।

 

माँ मंत्रों को रोज जपोगे,

हर संकट का नाश करोगे।

 

मृत्यु लोक से मोक्ष मिलेगा,

माँ चरणों में वास करोगे।

 

मंज़िल से आगे पहुँचोगे,

जीवन को इतिहास करोगे।

 

आज चलो फिर ये प्रण ले लो,

हर दुर्गुण का ह्रास करोगे।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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