श्री आशीष कुमार
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख “श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना”। यह आलेख उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक का एक महत्वपूर्ण अंश है। इस आलेख में आप श्राद्ध के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । आप पाएंगे कि कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं। श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से जानकारी साझा जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )
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☆ श्राद्ध – श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना☆
यहाँ तक कि एक वशिष्ठ कार्य के लिए चन्द्रमा का पूरा पक्ष निर्धारित है जिसे पितृ पक्ष कहा जाता है । जिसे पितृ पक्ष (पश्चिम और दक्षिण में) या पितृ रक्षा (उत्तर और पूर्व में) के रूप में भी लिखा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “पूर्वजों के पखवाड़े” हिन्दू कैलेंडर में 15-चंद्र दिन की अवधि है जब हिंदू अपने पूर्वजों (पितरों) को श्रद्धांजलि देते हैं, खासकर खाद्य प्रसाद के माध्यम से । अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पंद्रह दिन लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं । पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं । इस अवधि को पितृ पक्ष, पितरी पोखो, सोला श्रद्धा (सोलह शरद), कनागत, जितिया, महालय पक्ष और अपारा पक्ष भी कहा जाता है । पितृ पक्ष को हिंदुओं द्वारा अशुभ माना जाता है, समारोह के दौरान किए गए मृत्यु के संस्कार को देखते हुए, श्रद्धा या तरण (मुक्ति) के रूप में जाना जाता है । दक्षिणी और पश्चिमी भारत में, यह हिंदू चंद्र महीने ‘भाद्रपद’ (सितंबर) के दूसरे पक्ष (पखवाड़े) में आता है और यह गणेश उत्सव के तुरंत बाद आता है । अधिकांश वर्षों में, शरद ऋतु विषुव इस अवधि के भीतर आता है, यानी इस अवधि के दौरान उत्तरी से दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य का संक्रमण होता है ।
हमारे पूर्वजों की तीन पिछली पीढ़ियों की आत्माएँ पितृ-लोक में रहती हैं, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक क्षेत्र है । यह क्षेत्र यम, मृत्यु के देवता द्वारा शासित है, जो पृथ्वी से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को पितृ-लोक में ले जाते है । जब अगली पीढ़ी के व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो पहली पीढ़ी स्वर्ग में चली जाती है और भगवान के साथ मिल जाती है, इसलिए उनके श्राद्ध करने बंद कर दिए जाते हैं । इस प्रकार, पितृ-लोक में केवल तीन पीढ़ियों को श्राद्ध संस्कार दिया जाता है, जिसमें यम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है ।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है । पितृ पक्ष की शुरुआत में, सूर्य राशि चक्र की तुला राशि में प्रवेश करता है । इस पल के साथ मिलकर, ऐसा माना जाता है कि आत्माएँ पितृ-लोक छोड़ती हैं और एक महीने तक अपने वंशज घरों में रहती हैं जब तक कि सूर्य अगले राशि चक्र की अगली राशि वृश्चिक में प्रवेश नहीं करता है, पूर्णिमा तक । धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है । मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है । पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है । प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है । सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है । पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है । पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है । ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है । 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता है । भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण । इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है । पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया ।
त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं । यमस्मृति में पाँच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है । जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है ।
नित्य श्राद्ध– प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता । केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है ।
नैमित्तिक श्राद्ध– किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं । इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है । एकोद्दिष्ट का अर्थ किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है । इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है । वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है ।
वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाह आदि प्रत्येक माँगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं । इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पितृ तर्पण भी किया जाता है ।
पार्वण श्राद्ध– पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है । किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है । यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है ।
सपिण्डनश्राद्ध– सपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना । पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है । प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है । इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है । जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं । उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं ।
शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं । उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं । जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ।
कर्माग श्राद्ध– कर्माग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं । उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं ।
यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है । जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है । इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है ।
पुष्ट्यर्थ श्राद्ध– पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है ।
धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं । एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं । पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पितृ-कर्म का विधान है ।
जब महाभारत युद्ध में दानवीर कर्ण की मृत्यु हो गई, तो उनकी आत्मा स्वर्ग में चली गई, जहाँ उन्हें भोजन के रूप में सोने और गहने की पेशकश की गई । कर्ण को खाने के लिए असली खाना चाहिए था तो कर्ण ने स्वर्ग के राजा इंद्र देव से पूछा, की उन्हें सोना खाने के तौर पर क्यों दिया जा रहा है उन्हें असली खाना चाहिए तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वर्ण दान किया था, लेकिन उन्होंने श्राद्ध में कभी भी अपने पूर्वजों को भोजन दान नहीं किया । इसलिए जो वस्तु जीवित अवस्था में पितरो को दान की जाती है मृत्य के बाद वो ही वस्तु मिलती है । इस पर कर्ण ने कहा कि चूंकि वह अपने पूर्वजों से अनजान था, इसलिए उन्होंने कभी भी अपनी स्मृति में कुछ दान नहीं किया । संशोधन करने के लिए, कर्ण को 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की इजाजत दी गयी, ताकि वह श्राद्ध कर सके और अपनी याद में अपने पूर्वजो को भोजन और पानी दान कर सके । तब से इस अवधि के 15 दिनों को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है । कुछ किंवदंतियों में इंद्र के स्थान पर यम ने कर्ण को 15 दिन पृथ्वी पर रह कर श्राद्ध करने की अनुमति दी थी ।
क्या आपने कभी ध्यान दिया है की पितृ पक्ष वास्तव में वह समय है जब पृथ्वी पर दिन और रात्रि लगभग बराबर अवधि के होते है । जैसे की मैंने पहले भी बताया है की आमतौर पर पितृ पक्ष के दौरान ही शरद ऋतु विषुव आता है । यह तब आता है जब सूर्य राशि चक्र के तुला चिन्ह में प्रवेश करता है । तुला का अर्थ बराबर या संतुलन है । अच्छे और बुरे का संतुलन, या प्रकाश और अंधेरे का संतुलन, शारीरिक और मानसिक संतुलन, भौतिकवाद और आध्यात्मिकता का संतुलन, और इसी तरह । तुला खुद भी राशि चक्र की 12 राशियों में से 7 वा चिन्ह है अथार्त राशि चक्र के लगभग मध्य । उपर्युक्त संतुलन के अतरिक्त, इस पितृ पक्ष के दौरान होने वाली एक और आध्यात्मिक संतुलन भी है । यह जीवन और मृत्यु का संतुलन है । इसके अतिरिक्त इस पितृ पक्ष के दौरान कुछ लोगों को ऊर्जा की कमी, थकान अनुभव होती है और उन्हें अधिक नींद भी आती है, वर्ष के बाकी दिनों के मुकाबले । क्या आपको जानना है क्यों?
असल में श्राद्ध के दिनों में कई व्यक्ति अपने मृत्यु रिश्तेदारों को विशेष अनुष्ठानों के साथ आमंत्रित करते है । इसलिए कुछ आत्माएँ जिनके पास नया शरीर है, लेकिन फिर भी वह अपने पूर्व जन्म के रिश्तेदारों से भावनाओ से जुड़े हुए हैं, वो अपने अंतिम जीवन के रिश्तेदारों के आह्वान पर अपने नए शरीर से बाहर जाने का प्रयास करते है उनके पास जो उन्हें आमंत्रित कर रहे है । क्योकि उनसे उनकी भावनाएँ मृत्यु के बाद एवं नया शरीर मिलने के बाद भी जुड़ी हुई है । तो वो आत्माएँ अपने नए शरीर से बाहर जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नई शरीर की इच्छाएँ और कर्म इस आत्मा को इस नए शरीर के अंदर पकड़ने की कोशिश करते हैं । और उस नए शरीर में एक तरह का द्वन्द चलता है । इसलिए आत्मा को नए शरीर में पकड़ने के लिए शरीर और मस्तिष्क की ऊर्जा का अधिक उपयोग होता है, जिसके कारण हमारे शरीर और मस्तिष्क ऊर्जा की कमी अनुभव करते है”
© आशीष कुमार