आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (27 – 28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन )

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।27।।

 

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।28।।

 

वाह्य विषय तज भृकुटि में लगा संयमित ध्यान

नासिका भीतर साम्य से भरते प्राण अपान।।27।।

 

मन,बुद्धि इंद्रियों से वश में कर धर ध्यान

क्रोध त्यागकर,मोक्षरत मुक्त सतत सज्ञान।।28।।

 

भावार्थ:  बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है॥27-28॥

 

Shutting out (all) external contacts and fixing the gaze between the eyebrows, equalizing the outgoing and incoming breaths moving within the nostrils  ।।28।।

With the senses, the mind and the intellect always controlled, having liberation as his supreme goal, free from desire, fear, and anger—the sage is verily liberated forever. ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #11 – नया पर्व ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 11 ☆

 

☆ नया पर्व ☆

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’  की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – ☆ श्री गणेश चतुर्थी विशेष ☆ चिंतामणि चारोळी आणि गौराई ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. उनकी  श्री गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर  श्री गणेश जी और गौरी जी की दो सामयिक रचनाएँ  चिंतामणि चारोळी आणि गौराईअष्टाक्षरी छंद कविता के स्वरुप में प्रस्तुत हैं.)

 

एक 

☆ चिंतामणि चारोळी ☆

श्री गणेशा गणेशा

झाले तुझे आगमन

मूर्ती पाहून तुझीरे

तृप्त जाहले हो मन !!१!!

तुझे होता आगमन

आम्हा होई ब्रह्मानंद

घरदार उत्साहात

होई सर्वांना आनंद !!२!!

तुझ्यासाठी बघ केले

किती सुरेख मखर

त्यात बैसवुनी तुला

म्हणू आरती सुस्वर !!३!!

तुला वाहण्यासाठीच

पत्री फुले सुवासिक

तुला फाया अत्तराचा

तूच आहेस रसिक !!४!!

तुझ्या आरतीला बघ

सारे कसे गोळा झाले

नेवैद्यासाठी मोदक

उकडीचे बघ केले !!५!!

गूळ नारळ घालून

केले सारण तयार

वेलदोड्यांचा मसाला

झाले मोदक सुंदर!!६!!

मोदकाच्या सारणात

खूप खुलून सुंदर

किती दिसते मोहक

काश्मीरचे ते केशर !!७!!

गणेशाला वाहताती

एकवीस दुर्वाजुडी

शमी माका जाईजुई

तुला केवडा आवडी !!८!!

माका आहे रसायन

मूत्रपिंडाचा आजार

त्वचारोग विंचूदंश

प्रभावी या रोगांवर!९!!!

तुला आवडती फुले

मधुमालती सुंदर

सांधेदुखी कमी होई

फुफ्फुसांचे ते आजार !!१०!!

हा केवडा सुवासिक

सागराच्या काठावर

थायरॉईड घशाच्या

गुणकारी रोगांवर !!११!!

बेलपत्र शंकरांचे

आहे औषध छान ते

पोटातील जंतांवर

उष्णता कमी करीते!!१२!!

रुई मांदार प्रसिद्ध

अहो हत्तीरोगावर

अति उत्तम औषध

कुष्ठरोगावर फार !!१३!!

तुला आवडे आघाडा

फुले जाईची हो खास

निळी गोकर्ण रंगाची

तुझी आवड विशेष!!१४!!

फुले हादगा देखणी

लागे भाजी छान त्यांची

जीवनसत्वे अनेक

हीच ओळख फुलांची !!१५!!

 

दोन

गौराई ☆

आल्या आल्या गौरीबाई

स्वागत करा हो खास

बसायला द्या हो पाट

करा त्यांची उठबस !!१६!!

दारी सुंदर रांगोळी

काढुनिया ठिपक्यांनी

करा आगत स्वागत

घरच्या सुवासिनींनी!!१७!!

वाजवीत चला घंटा

द्यावे मुलींच्या हातात

निरांजन तबकात

त्यात घाला फुलवात !!१८!!

हळदी कुंकाचा मान

त्यांना देऊनिया छान

त्यांचे करुनी औक्षण

करा त्यांचा हो सन्मान !!१९!!

आल्या गौराई गौराई

हाती कडे पायी तोडे

पैंजणाची रुणझुण

पहा वाजती चौघडे !!२०!!

आल्या गौराई गौराई

नाकी नथ ती सुंदर

कानी बाळी ती बुगडी

शालू नेसल्या सुंदर!!२१!!

गळा साजाचं डोरलं

झुमझुम कंकणांची

ध्वनि मधुर नादात

ओढ माहेर घरची !!२२!!

आल्या गौराई गौराई

त्यांची पाऊले सोन्याची

करा त्यांना लिंबलोण

करा आरास घराची !!२३!!

आल्या गौराई गौराई

भरजरी शालू त्यांना

नेसवा नीटनेटके

ओटी सुंदर भरा ना !!२४!!

ओटीत गं त्यांच्या घाला

जरी खण व नारळ

लवंग नि वेलदोडे

हळकुंडे व तांदूळ!!२५!!

गौराबाईंना आवडे

माका आघाडा मरवा

शमी दुर्वा बेलपत्री

आणि केवडाही हवा!!२६!!

पत्री सगळी औषधी

दुर्वा उष्मा कमी करी

दातांसाठी आघाड्याचा

उपयोग होई भारी !!२७!!

आल्या आल्या हो गौराई

करा नेवैद्य पोळीचा

चला पुरण शिजवा

भात वासाच्या साळीचा !!२८!!

करा पुरणाचे दिवे

त्यांना औक्षण कराया

हळद कुंकू लावुनी

त्यांचा सन्मान कराया !!२९!!

थाट हळदी कुंकाचा

होई सप्तमी दिवशी

गोड मिठाई फळांची !

खेळण्यांची रास खाशी !!३०!!

झाल्या प्रसन्न गौराई

देती तुम्हा आशीर्वाद

लाभो ऐश्र्वर्य सर्वांना

नांदो घरात आनंद !!३१!!

©®उर्मिला इंगळे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 14 – लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “बालवर्ष का लाभ”।  यदि हमारे भीतर मानवता जीवित है तो हम आज ऐसे  परजीवी न होते . यह  भी मत भूलिए  कि  जरूरतों और समय ने बच्चों को समय पूर्व ही वयस्क बना दिया है.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 14 ☆

 

☆ लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆

 

और फोटोग्राफर भरी दुपहरिया में पसीना-पसीना हुए घूम रहे थे। उद्देश्य था बालवर्ष के सिलसिले में कुछ खस्ताहाल, संघर्षशील बच्चों के इंटरव्यू और चित्र छापना। ढाबे में काम करने वाले एक छोकरे का इंटरव्यू लेकर लौटे थे और दूसरे की तलाश में थे। दूसरा भी मिल गया, चौराहे पर बूट-पॉलिश करता हुआ।। लेखक का चेहरा खिल गया।

लेखक ने उसके सामने बैठकर अपना खाता खोला, दुनिया-भर के प्रश्न पूछ डाले। नाम? उम्र? कहाँ से आये हो? कहाँ रहते हो? कैसे रहते हो? कितना कमा लेते हो? माँ-बाप की याद आती है? भाई-बहन की याद आती है? घर की याद आती है?

लड़का निर्विकार भाव से सवालों के जवाब देता रहा। माँ-बाप और भाई-बहन के बारे में पूछते हुए लेखक ने उसकी आँखों में झाँका कि शायद गीली हो गयीं हों। लेकिन लड़के की आँखें रेत जैसी सूखी और चेहरा सपाट था।

लेखक ने हाथ बढ़ाया, ‘अच्छा भई श्यामलाल, चलते हैं।’

लड़का वैसे ही निर्विकार भाव से बोला, ‘एक बात कहना है साहब।’

लेखक उत्साह से बोला, ‘बोलो, बोलो।’

लड़का बोला, ‘साहब, इसी तरह पाँच छः बाबू लोग हमसे बातचीत करके हमारा फोटो खींच ले गये। हर बार हमारा आधे घंटे का नुकसान होता है। इतनी देर में दो आदमियों को निपटा देता।’

लेखक का मुँह उतर गया। उसने जेब से बीस रुपये का नोट निकालकर बढ़ाया, कहा, ‘यह लो श्यामलाल अपना हर्जाना।’

लड़के ने नोट मोड़कर लापरवाही से कान पर खोंस लिया।

लेखक जाने के लिए मुड़ने लगा कि लड़का बोला, ‘एक बात और साहब।’

लेखक बुझे-बुझे स्वर में बोला, ‘कहो।’

लड़का बोला, ‘साहब, यह बाल बरस किसके कल्यान के लिए मनाया जा रहा है?’

लेखक ने जवाब दिया, ‘बच्चों के कल्याण के लिए, तुम्हारे कल्याण के लिए।’

लड़का बोला, ‘पर साहब, यह जो आप लिख लिखकर छपवा रहे हैं, उससे तो आपका कल्यान हो रहा है। हम तो जहाँ के तहाँ बैठे हैं।’

अब लेखक और फोटोग्राफर लड़के की तरफ पीठ करके जल्दी-जल्दी ऑटो को आवाज़ दे रहे थे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #18 – ☆ घर ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की   अगली कड़ी  घर .  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। घर मात्र दीवारों का बना नहीं होता. उसमे  एक छत भी होती  जिसके नीचे  सुख दुःख, खट्टे मीठे प्रसंगों के साथ  रिश्ते निभाए जाते हैं.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #18 ?

 

☆ घर ☆

 

नकोत नुसत्या भिंती…

हे वाक्य किती महत्वाचं आहे, नाही!

त्यात नकोत नुसती नाती… हेपण अगदी खरंय…

ह्या घरात, छताखाली आख्ख आयुष्य आकारास येतं, त्याचं आपल्या आयुष्यात अनन्य साधारण महत्व आहे…. हो ना??

कशा साठी पोटासाठी, खंडाळ्याच्या घाटासाठी हे जसं खरंय तसंच, आपण  सगळं काही ह्या घरासाठी, घरातल्या मंडळींसाठी करत असतो. कितीही कष्ट घ्यावे लागले, अडचणी आल्या, सुख दुःख सहन करत, मायेच्या पदराखाली ह्या घरात जीवन जगत स्वतःला सावरत, नाकारत, स्वीकारत पुढे जात असतो. खस्ता खायला लागल्या तरी रात्रीची शांत झोप ह्याच घरात येते. मग ते घर काचेच असेल, सिमेंटचं असेल नाही तर मातीचं… घर असण्याने हुरूप येतो, एक आधार मिळतो. ह्यातील नाती आपल्याला आपल्या जबाबदारीची जाणीव करून देतात, आणि घर सांभाळताना येणाऱ्या अडचणींमधून जीवन समृद्ध करतात… त्यात घराला घरपण देणारी माणसं असतील तर सोने पे सुहागा, हो ना !

ह्या वास्तुसाठी झटायला लागतं, जपायला लागतं, वाढवायला लागतं तेव्हा कुठे आनंदी कुटुंबाचं स्वप्न पूर्ण होऊ शकतं.

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ।।26।।

 

काम क्रोध का त्याग कर जिनको आत्मा ज्ञान

ब्रम्ह ज्ञान रत शांत चित ही उनकी पहचान।।26।।

 

भावार्थ:  काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।।26।।

 

Absolute freedom (or Brahmic bliss) exists on all sides for those self-controlled ascetics who are free from desire and anger, who have controlled their thoughts and who have realised the Self. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आईना ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ आईना ☆

आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।

आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को  वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ आयलान ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(यह कविता समर्पित है तीन वर्षीय सीरियन बालक आयलान को जो उन समस्त बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है जो विश्व में युद्ध की विभीषिका में इस संसार को छोड़ कर चले गए। सितंबर 2015 की एक सुबह आयलान का मृत शरीर तुर्की के समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया हैं उन्हें कोई नहीं भूल सकता। इस कविता का  मेरे द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद आज के अंक में प्रकाशित हुआ है। इस कविता का जर्मन अनुवाद भी  उपलब्ध है । )

 

☆ आयलान  ☆

 

धीर गंभीर

समुद्र तट

और उस पर

औंधा लेटा,

नहीं-नहीं

समुद्री लहरों द्वारा

जबरन लिटाया गया

एक निश्चल-निर्मल-मासूम

‘आयलान’!

वह नहीं जानता

कैसे पहुँच गया

इस निर्जन तट पर।

कैसे छूट गई उँगलियाँ

भाई-माँ-पिता की

दुनिया की

सबको बिलखता छोड़।

 

वह तो निकला था

बड़ा सज-धज कर

देखने

एक नई दुनिया

सुनहरी दुनिया

माँ बाप के साये में

खेलने

नए देश में

नए परिवेश में

नए दोस्तों के साथ

बड़े भाई के साथ

जहां

सुनाई न दे

गोलियों की आवाज

किसी के चीखने की आवाज।

 

सिर्फ और सिर्फ

सुनाई दे

चिड़ियों की चहचाहट

बच्चों की किलकारियाँ।

बच्चे

चाहे वे किसी भी रंग के हों

चाहे वे किसी भी मजहब के हों

क्योंकि

वह नहीं जानता

और जानना भी नहीं चाहता

कि

देश क्या होता है?

देश की सीमाएं क्या होती हैं?

देश का नागरिक क्या होता है?

देश की नागरिकता क्या होती है?

शरण क्या होती है?

शरणार्थी क्या होता है?

आतंक क्या होता है?

आतंकवादी क्या होता है?

वह तो सिर्फ यह जानता है

कि

धरती एक होती है

सूरज एक होता है

और

चाँद भी एक होता है

और

ये सब मिलकर सबके होते हैं।

साथ ही

इंसान बहुत होते हैं।

इंसानियत सबकी एक होती है।

 

फिर

पता नहीं

पिताजी उसे क्यों ले जा रहे थे

दूसरी दुनिया में

अंधेरे में

समुद्र के पार

शायद

वहाँ गोलियों की आवाज नहीं आती हो

किसी के चीखने की आवाज नहीं आती हो

किन्तु, शायद

समुद्र को यह अच्छा नहीं लगा।

समुद्र नाराज हो गया

और उन्हें उछालने लगा

ज़ोर ज़ोर से

ऊंचे

बहुत ऊंचे

अंधेरे में

उसे ऐसे पानी से बहुत डर लगता है

और

अंधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा है

उसे तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था

माँ भी नहीं

भाई भी नहीं

पिताजी भी नहीं

 

फिर

क्योंकि वह सबसे छोटा था न

और

सबसे हल्का भी

शायद

इसलिए

समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरों नें

उसे चुपचाप सुला दिया होगा

इस समुद्र तट पर

बस

अब पिताजी आते ही होंगे ………. !

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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English Literature – Poetry – ☆ Aylan ☆ – Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

 

(This poem is dedicated to a three-year-old Syrian boy ‘Aylan’ who represents all children who left this world under shadows of war. The dead body of ‘Aylan’ was found unattended on the beach of Turkey in the month of September 2015. The world will forget him one day, but, one cannot forget the questions that he left behind him. The Hindi and German Version of this poem is also available. )

 

☆ Aylan  ☆

 

The calm

sea shore

and he

calm, serene, innocent

Aylan

rolled inverted,

 

No…. no…

forcibly laid down

by the sea.

He does not know

how he reached on

the deserted beach.

 

How he missed

fingers of daddy.

Leaving the world

and everyone

in deep sorrow.

 

He left his homeland

with parents

to see and experience

the new world,

golden world

in the shadow of parents

to play

with new friends

in a new country

in new surroundings

with new friends

with elder brother

where,

he will not hear

any gunshots

anyone’s screams.

 

He will be able to hear

only and only

birds’ chirping sounds

children’s laughter.

Children!

Whether they are

of any colour,

of any religion.

Because,

he does not know

and

does not want to know

that –

What is a country?

What are the borders of the country?

What is a citizen?

What is citizenship?

What is a refuge?

What is a refugee?

What is terrorism?

What is a terrorist?

 

He just knows it

that

the earth is one

the sun is one

and

the moon is also one

and

these all are together

for the entire world.

There are so many human beings

but,

the humanity is one.

 

He does not know

why his father was taking them

to another world

in the dark

across the sea.

Maybe,

there,

he will not hear

any gunshots

any cries.

But,

perhaps

the sea did not like it.

The sea was angry

and began to throw them

vigorously

high

very high

in the dark

he was very afraid of the water

and

did not see anything in the dark.

He did not see his home,

even mom,

brother and dad too.

 

Maybe,

he was the youngest

and

lighter than all.

 

Hence,

high-rise waves of the sea

quietly put him to sleep

on the beach

enough,

………. now dad will be here soon!

 

© Hemant Bawankar, Pune

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 4 ☆ फुलवा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी शिक्षाप्रद कहानी फुलवा

आज भी गांवों में और यहां तक क़ि शहरों में भी लोग अंधश्रद्धावश अपना सब कुछ खो देते हैं .  यह कहानी हमें प्रेरणा देती है क़ि यदि समय रहते किसी को अंधश्रध्दा से बचाया जा सके, तो उसे एक नवजीवन प्रदान किया जा सकता है और इससे बड़ी कोई भी समाजसेवा नहीं है.

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 4 ☆

 

☆ कथा – फुलवा  ☆

 

आठवड्याचा बाजार भरला होता. कोणती भाजी घ्यावी अन् काय काय घ्यावं ह्या विचारात शिंदेबाई बाजार बघत फिरत होत्या,तेवढ्यात त्यांच्या समोर एक वयस्कर बाई आली अन् हात जोडत बाईंना म्हणाली,”. तुम्ही शिंदेबाई नां ?मला तुमालाच भेटायचं हुतं ….वाईच बोलायचं हुतं तुमच्यासंगट “!…

शिंदे बाई म्हणाल्या मी ओळखलं नाही ..

तशी ती म्हणाली “आवो ईस बावीस वर्स झाली तुमच्या साळंशेजारी आमचं खोपाट हुतं…मी आन् माज्या दोन पोरी..

माझ्या लेकीला न्हाई कां तुम्ही आक्षी मरनाच्या दारातनं वडून आनलं  देवावानी…’

शिंदेबाईंच्या डोळ्यापुढे त्या बाईच्या दोन मुली, त्यातली मोठी  म्हणजे बाईंची अगदी लाडकी !…. सगळं अगदी सगळ्या घटनांचा पट डोळ्यसम़ोरुन सरकू लागला…..

सालाबादप्रमाणे जूनमध्ये शाळा सुरू झाली आणि  पालक शाळेत मुलांची नावं दाखल करायला येऊ लागले.तशीच शेजारच्या खोपटातली एक विधवा तिच्या मुलीला घेऊन आली.

बाईंनी त्या मुलीचं नाव विचारलं..

‘फुलवा धोंडीबा सोनावने ‘ बाईंना हे ‘फुलवा ‘ नाव फारच भावल. त्यांनी तिच्याकडं कौतुकभरल्या नजरेनं  पाहिलं. मग त्या बाईला नाव विचारताच ती म्हणाली “या बया आता मला बी साळंत घालता कां काय ?”…

तशी बाई म्हणाल्या “अहो , आता आईचंही नाव लिहावं लागतं ..”

ही नवीन मुलगी ‘ फुलवा ‘  झोपडपट्टीत रहाणारी पण नाकी डोळी नीटस ,एकदम तरतरीत,बोलके डोळे तिला पहाताक्षणीच बाईंना ती छान वाटली…

ती रोज शाळेत वेळेत यायची. अंगावरचे कपडे साधेच पण नीटनेटके.वर्गात शिकविलेलं तिला लगेचच कळायचं… वर्गातल्या इतर मुलांपेक्षा ही एकदम चुणचुणीत..!…

हळूहळू बाईंच्या लक्षात आलं की हिचं अक्षर, चित्रकला सारंकाही सुंदर आहे. अगदी वर्गाच्या साफसफाईचं काम असो, रांगोळी, तक्ते,पताका चिकटवणं सर्व काम ती मन लावून करते. सर्व उपक्रमात हिचा सहभाग.!..

आता तर ती वर्गाची सेक्रेटरी झाली होती.ती सारखी बाईंच्या मागेपुढे असायची,याचं मुख्य कारण की बाई तिला प्रचंड आवडायच्या !..अन्  दुसरं म्हणजे तिची आई मजूरीवर दूर  जायची त्यामुळे दिवसभर खोपटाला कुलूप..मग बाईच तिचा खूप मोठा आधार ….

एक दिवस नेहमीप्रमाणे शाळा भरली पण फुलवा काही शाळेत आली नाही…बाईंना वाटलं आईंबरोबर गेली असेल येईल उद्या परवा…पण ते चार-पाच दिवसांपासून ती गैरहजर.

दुसऱ्या दिवशी शाळेत येताना बाईंनी तिच्या खोपटाचा उघडलेला दरवाजा पाहून त्या तिथं गेल्या.

पहातात तो ती एकटीच एका गोधडीवर अंगाचं मुटकुळं करून पालथी झोपली होती.

बाईंनी तिच्या आईला निरोप धाडला व बोलावून घेऊन सांगितलं की मुलगी एवढी आजारी असताना तिला एकटीला ठेवून तुम्ही कामावर जाता ? तिला असं एकटीला टाकून जाणं धोक्याचं आहे.त्यापेक्षा तुम्ही तिला शाळेत पाठवा इथं ती सुरक्षित तरी राहील व इतर मुलांबरोबर खेळली तर तिला बरं वाटेल. मग ती शाळेत आली..पण आता ती पूर्वीसारखी हसरी वाटत नव्हती. मुरझल्यासारखी दिसत होती.म्हणून बाईंनी जवळ जाऊन तिला विचारलं तुला काय होतंय गं ? तशी ती एकदम रडायला लागली,  म्हणाली बाईं माझ्या पाठीत दुखतंय..! बाईंनी तिच्या पाठीला हात लावून पाहिलं तर तिथं मोठा फोड आला होता अन् तिचं अंगही तापानं फणफणत होतं.

संध्याकाळी बाई तिच्याबरोबर तिच्या घरी गेल्या. तिची आई नुकतीच मजूरीवरनं आली होती. बाईंनी तिला सांगितलं “अहो, तुमच्या मुलीच्या पाठीवर एवढा मोठा फोड आलाय ती तापलीय, तिला दवाखान्यात न्या लौकर..”

तशी तिची आई म्हणाली “छ्या…छ्या..! आवं.. दवाखान्यात न्हिऊन ती बरी व्हनार न्हाई… तिला  ‘म्होट्टी बाई ‘ झालीया ..!”

आमच्या हितल्या साऱ्यांनी सांगितलंय की हिला औषधपानी केलं तर दुखनं वाढतं..! परवा. तिला देवरुषाकडं न्हेलं व्हतं. त्यो म्हनला हिला म्होटी बाई म्हंजे मोठ्ठा फोड येतो म्हणून ती बरी होन्यासाठी ‘ देवीची मांड’ भरायला सांगितली हाय. त्यासाटनं पन्नास लिंब, पंचीस नाऱ्याळ, याक बकरं, कोंबडं, साडीचोळी असं बरंच काईबाई आनाया सांगितलं हाय.त्यासाटंनच म्या पैकं गोळा करतीया…”

बाईंनी तर कपाळालाच हात लावला अन् म्हणाल्या तुम्ही अगोदर हिला दवाखान्यात न्या.! ती मोठीबाई वगैरे काही नसतं. पण तिची आई काहीही ऐकून घ्यायला तयार नव्हती. तिचं म्हणणं एकच ‘पैकं जमलं की’ मांड भरनार बाकी काही न्हाई ‘..!

बाई मनात म्हणाल्या या अंधश्रद्ध लोकांना काय व कसं सांगावं..?…

शेवटी शिंदे बाईंनीच धाडस करून तिच्या आईला न सांगता त्या मुलीला सरकारी दवाखान्यात घेऊन गेल्या. डॉ नी तिच्या पाठीवरच्या गाठीची तपासणी तालुक्याच्या गावाला जाऊन करून आणायला सांगितली. बाईंनी ते सर्व केलं. डॉ नी तिला मणक्यांचा टी‌बी.असल्याचं सांगून तिला स्टेप्टोमायसीनची नव्वद इंजेक्शन व रोजच्या गोळ्या औषधं वेळच्या वेळी दिली व सकस अन्न खायला दिले तर ही वर्षभरात बरी होऊ शकेल असं सांगितलं.

बाईंनी तिची सर्व जबाबदारी घेतली. तिला दिवसाआड इंजेक्शनला नेणं, आणणं, रोजच्या गोळ्या औषधे वेळेवर देणं हे सर्व वर्षभर केलं.

तेव्हा दीड वर्षांने ती पूर्णपणे टीबीमुक्त झाली.

दीड वर्ष बाई रोज तिच्यासाठी डब्यात पौष्टिक आहार, फळं वगैरे आणून तिला मायेनं खाऊ घालायच्या. त्यामुळे ती  खडखडीत बरी होऊन पहिल्यासारखी छान दिसायला लागली.

तिच्या आईच्या हे लक्षात आलं होतं. ती म्हणाली  “अडानी लोकांचं ऐकून म्या पोरीला देवरुषाकडं न्हेलं असतं तर उपेग काईबी झाला नसता पन् माज्या पोरीचा हकनाक बळी मातुर गेला असतां..आन् आमची पोटं मारुन साठवलेला पैका त्या देवरुषाच्या मढ्यावर घालून पश्र्चाताप करायची येळ आली असती ..पन् बाईंनी  पैका न खर्च करता सरकारी दवाखान्यात उपचार देऊन माज्या पोरीला चांगली केली.

फुलवा आता चौथीत गेली होती. ती अभ्यासात हुशार होतीच, अक्षरही सुरेख मग बाईंनी तिला इतर मुलांबरोबर शिष्यवृत्तीच्या परीक्षेला बसवलंअन् ती केंद्रात चक्क पहिली आली. तिच्या आईलाही खूप आनंद झाला. चौथीची परीक्षा झाल्यावर ती पुढच्या वर्गात गेली व बाईंचीही दुसऱ्या शाळेवर बदली झाली अन् संपर्क तुटला….

शिंदे बाई बाजारातून घरी परत आल्या तशी ती मघाची बाजारात भेटलेली बाई घर शोधत आली.बाईंनी तिला पाणी दिलं. घरी आल्यावर तिला काय अन् किती सांगू असं झालं होतं…

ती सांगत होती..बरं कां बाई तुमी जिला वाचवली ती तुमची लाडकी फुलवा ल…ई.. ..शिकून आता मामलेदारीची परीक्षा दिली आन् तिला ती नोकरी पन् मिळनार हाय….! ही आनंदाची बातमी सांगाया  आन् तुमचं तोंड गोड कराया आज मी हितवर तुम्हाला सोधत आले.

खरंच ओ बाई तुमी त्या वक्ताला अक्षी देवावानी धावून आलात माज्या पोरीचा जीव वाचवलात म्हणून माजी “लेक वाचली” असं म्हणून तिला गहिवरुन आलं. बाईंनी तिच्या खांद्यावर हात ठेवला व तिला शांत केलं. म्हणाल्या तुमच्यासारख्या अडाणी लोकांना ते देवरुशी लोक फसवतात अन् तुम्ही त्यांच्या जाळ्यात अडकता..! ..पण तसं होण्यापूर्वीच मी तिला उपचार सुरू केले आणि तिचं दैव व परमेश्र्वर कृपा यामुळे ती वाचली. मी फक्त निमित्तमात्र…!

सगळं ऐकल्यावर बाईंना खूप आनंद झाला. त्यांनी विचारलं आणि ती धाकटी …?

सरिता व्हय…! हितं न्हाई कां रोज साळा बुडवून माज्यासंगट कामावर मी जाईन तिकडं यायची.तिला नुसतं हुंदडायला आवडायचं.डोंगरावनं खाली पळत यायाचं पुन्ना चडून जायाचं, गुरं चारायला लांबलांब घिऊन जायाचं हेच तिला आवडायचं..!

ती भरभरून बोलत होती. आमी पुन्याला भावाकडं गेलो. तीथं तिला साळत घातली पन् हिचं धावायचं येड काही जाईना. हे तिच्या सरांच्या धेनात आलं. त्यांनी तिला

ते धावपटू का  काय म्हनत्यात त्ये करायचं ठरीवलं. तिनंबी लयी कष्ट घेतलं. आन् बाई ती धावन्याच्या स्पर्धेत पयली आली ती सोन्याचं पदक घीऊनच.

अरे..व्वा…! हे ऐकून तर बाईंना आणखीनच आनंद झाला.

थोडयाच दिवसांत फुलवा बाईंना. भेटायला आली ती मामलेदार होऊनच…!

समोरासमोर दोघींनी एकमेकींना पाहिल्यावर एकदम भरून आलं…तिनं पट्कन बाईंच्या पायाला स्पर्श केला. बाईंनी तिच्या खांद्यांना धरुन हलकेच उठवलं अन् जवळ घेत म्हणाल्या …”किती मोठी झालीस गं..!.” तिच्या पाठीवर प्रेमाने हात फिरवला तिला बाईंच्या प्रेमळ कुशीचा खूप छान आधार वाटला.

ती मुळातच छान होती पण आता तारुण्य आणि उच्च शिक्षणाचं एक आगळंच तेज तिच्या चेहऱ्यावर झळकत होतं. बाई तिच्याकडं कौतुकानं पहातच राहिल्या.

फुलवा म्हणाली ..”बाई मी तुमचाच आदर्श डोळ्यासमोर ठेवून शाळांमधल्या गरीब व गरजू मुलींना शक्य होईल तशी मदत करणार आहे. पू. क्रांतीज्योती सावित्रीबाई फुले दत्तक पालक योजनेनुसार मुलगी दत्तक घेऊन तिच्या शिक्षणाचा व अन्य खर्च उचलणार आहे…!’

‘हे सगळं करण्यात एक वेगळाच आनंद लपलेला असतो हे उमगलंय मला “.

शिंदे बाईंना तिच्या बोलण्याचं खूप कौतुक अन् तितकंच समाधानही वाटलं.

त्यांच्या मनात आलं  आपण लावलेल्या “आनंदाच्या” छोट्याशा रोपट्याला चैतन्याचे धुमारे फुटून नवं चैतन्याची फुलं बहरली आहेत…अन् ते” बाईंच्या डोळ्यापुढं वाऱ्याच्या झुळुकीनं डोलू लागलं…!!

तेवढ्यात शेजारच्या गाडगीळ काकू तिन्हीसांजेला म्हणत असलेल्या श्लोकातील शब्द कानावर आले…

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु‌!!

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