हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 32 – दान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  मार्मिक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  “दान ”।  आज के स्वार्थी संसार में भी कुछ लोग हैं जो मानव धर्म निभाते हैं। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 32 ☆

☆ लघुकथा – दान ☆

 

सिविल लाइन का ईलाका सभी के अपने अपने आलीशान मकान, डुप्लेक्स और अपार्टमेंट। अलग-अलग फ्लैट में रहने वाले विभिन्न प्रकार के लोग और सभी लोग मिलजुलकर रहते।

वहीं पर एक फ्लैट में एक बुजुर्ग दंपत्ति भी रहते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। कहने को तो बहुत रिश्ते नातेदार थे, परंतु, उनके लिए सभी बेकार रहे। सभी की निगाह उनकी संपत्ति, फ्लैट, रूपए पैसे, नगद, सोना चांदी, और गाड़ी पर लगी रहती थी। सेवा करना कोई नहीं चाहता था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया एक सब्जी वाला कालू बचपन से उनके मोहल्ले में आता था। पूरे समय अम्मा बाबूजी उसका ध्यान लगाते थे। बचपन से सब्जी बेचता था। उसी गली में कभी अम्मा से ज्यादा पैसे ले लेता, कभी नहीं भी ले लेता। बुजुर्ग दंपत्ति भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। दवाई से लेकर सभी जरूरत का सामान ला कर देता था।

एक दिन अचानक बाबूजी का देहांत हो गया। सब्जी वाला कालू टेर लगाते हुए आ रहा था। अचानक की भीड़ देखकर रुक गया। पता चला उनके बाबूजी नहीं रहे। आस-पड़ोस सभी अंतिम क्रिया कर्म करके अपने-अपने कामों में लग गए।

दिनचर्या फिर से शुरू हो गई। सब्जी वाला आने लगा था। अम्मा जी धीरे धीरे आकर उससे सब्जी लेती थी। घंटों खड़ी होकर बात करती, वह भी खड़ा रहता। कभी अपनी रोजी रोटी के लिए परेशान जरूर होता था। परन्तु उनके स्नेह से सब भूल जाता था। अम्मा जी को भी बड़ी शांति मिलती। ठंड बहुत पड़ रही थी।

मकर संक्रांति के पहले सभी पड़ोस वाले आकर कहने लगे… आंटी जी दान का पर्व चल रहा है।  आप भी कुछ दान दक्षिणा कर दीजिए। अम्मा चुपचाप सब की बात सुनती रही। अचानक ठंड ज्यादा बढ़ गई, उम्र भी ज्यादा थी। अम्मा जी की तबियत खराब हो गई । अस्पताल में भर्ती कराया गया। कालू सब्जी वाला अपना धन्धा छोड़ सेवा में लगा रहा।

बहुत इलाज के बाद भी अम्मा जी को बचाया नहीं जा सका।

शांत होते ही कई रिश्तेदार दावा करने आ गये। परन्तु उसी समय वकील साहब आए और वसीयत दिखाते हुए कहा… स्वर्गीय दंपति का सब कुछ कालू सब्जी वाले का है। अंत में लिखा हुआ वकील साहब ने पढा…. कालू….. मेरे बेटे आज मैं तुम्हें अपना शरीर दान कर रही हूं। इस पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। तुम चाहे इसे कैसे भी गति मुक्ति दो।

मृत शरीर पर कालू लिपटा हुआ फूट फूट कर रो रहा था। और कह रहा था…. जीते जी मुझे मां कहने नहीं दी और आज जब कहने दिया तो दुनिया ही छोड़ चली।

कालू ने बेटे का फर्ज निभाते हुए अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। और कहा… मां ने मुझे महादान दिया है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #32 – नंदलाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “नंदलाला”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 32☆

 

☆ नंदलाला ☆

 

प्राशले विष, ना तरीही घात झाला

ना कुठेही पीळ पडला आतड्याला

 

रासक्रीडा खेळण्याचे भाग्य नाही

देह भजनी फक्त त्याच्या लागलेला

 

प्रीतिच्या वाटेत आले कैक धोंडे

धर्म भक्तीचाच होता पाळलेला

 

मीच राधा मीच मीरा एक आम्ही

या जगाने भेद आहे मांडलेला

 

नाव त्यांनी ठेवलेले होय मीरा

मी कधीही सोडले ना राधिकेला

 

दर्शनाची आस आहे सावळ्याच्या

चुंबते मी रोज त्याच्या बासरीला

 

एकतारी ‘बासरीचे’ सूर काढी

बोट माझे वाटते मज नंदलाला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ।।22।।

एक भाव से जो भी जन भजते मुझे सनेम

योग युक्त उनका मैं नित रखता कुशल व क्षेम।।22।।

भावार्थ :  जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्‌स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्‌प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।।22।।

 

To those men who worship Me alone, thinking of no other, of those ever united, I secure what is not already possessed and preserve what they already possess.।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तकलीफदेह है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तकलीफदेह है 

 

तकलीफ़देह है

बार-बार दरवाज़ा खोलना

जानते हुए कि

दस्तक नहीं दे रहा कोई,

ज़्यादा तकलीफ़देह है

हमेशा दरवाज़ा बंद रखना,

जानते हुए कि

दस्तक दे रहा है कोई,

बार-बार, लगातार..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह, *मैं नहीं लिखता कविता।*)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ आइना ☆ श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

☆ कविता  –  आइना ☆

कविता के जुलूस में

कवि ने पढा़ –

अंधेरे !

अगर वाकई तू

इतना ही सच्चा होता

तो क्या आइनों को

तोड़ कर

इस तरह भागता ?

–सूरत

छिपा कर हंसता

—बोलने से बचता

इस तरह खुश मत हो

अपनी ही घड़ी को

तोड़ कर

क्योंकि समय को

तोड़ने -फोड़ने के

फालतू अहंकार में

यह भी भूल गया तू

कि आइने के

जितने भी टुकड़े करेगा

उतने ही टुकड़ों में

चमकेगा

सूरज!

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 – व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला संस्मरणात्मक व्यंग्य  “यादों में पंगत – पंगत में गारी ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 ☆

☆ संस्मरणात्मक व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी   

पंगत में जमीन में बैठकर दोना पतरी में खाने का यदि आपने  आनंद नहीं लिया , तो खाने के असली सुख से वंचित रह गए।

एक बार परिवार मे संझले भाई की शादी में बारात में गए। गांव की बारात थी डग्गा में डगमगाते कूदते फांदते दो घंटा में बारात लगी, बारात गांव के गेवड़े में बने खपरैल स्कूल में रोकी जानी थी पर लड़की वालों का सरपंच से झगड़ा हो गया तो लड़की वालों ने आमा के झाड़ के नीचे जनवासा बना दिया। आम के झाड़ के नीचे पट्टे वाली दरी बिछा दी। सब बाराती थके हारे दरी में लेट गए। आम के झाड़ से बंदर किचर किचर करन लगे और एक दो बाराती के ऊपर मूत भी दिये। एक बंदर दूल्हे की टोपी लेकर झाड़ में चढ़ गया। रात को आगमानू भई तब बंदर झाड़ छोड़ कर भगे। दूसरे दिन दोपहर में पंगत बैठी। पंगत में बड़ा मजा आया, औरतें की गारी चालू हो गई थी…. “जैसे कुत्ता की पूंछ वैसे समधी की मूंछ….. कुत्ता पोस लो रे मोरे नये समधी…… कुत्ता पोस लेओ…………”

बड़े बुजुर्गों को सब परोसा गया।  फिर कुछ लोगों की मांग पर अग्निदेव परोसे गए, नाई ने जब देखा कि भोग लगने पर खाना चालू हो जाएगा, भोग लगने के पहले भरी पंगत में नाई खड़ा हो गया, बोला – “साब, इस पंगत में गाज गिर सकती है।”

बड़े बुजुर्ग बोले “गंगू,  यदि गाज गिरी तो सब के साथ तुम्हारे ऊपर भी तो गिर सकती है।” गंगू नाई ने सबके सामने तर्क दिया “साब, मैं तब भी बच जाऊँगा कयूं कि जैसे सबके पत्तल में  मही – बरा परसा गया  है पर मुझे छोड़ दिया गया है। यदि गाज बरा में गिरी  तो मैं बच जाऊँगा ……. ” तुरंत  गंगू नाई को दो दोना में मही बरा परसा गया तब कहीं पंगत में भोग लग पाया।

फिर लगातार चुहलबाजी चलती रही परोसने वाले थक गए। औरतें डर गईं कहीं खाना न खतम हो जाय इसलिए औरतों ने गारी गाना बंद कर दिया और पंगत में बंदरों ने हमला कर दिया। सब अपने अपने लोटा लेकर भागे। लड़की वालों की इज्जत बच गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #32 – घर बनायें स्वर्ग ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “घर बनायें स्वर्ग”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 32 ☆

☆ घर बनायें स्वर्ग 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

© अनुभा श्रीवास्तव्

 

घर बनायें स्वर्ग

 

 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी

अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो

को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 31 – बालगीत – फटाके ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है अतिसुन्दर बालगीत “फटाके” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 31 ☆ 

 ☆ बालगीत – फटाके

 

हवे कशाला उगा फटाके

ध्वनी प्रदूषण वाढायला।

जीव चिमुकले,  प्राणी पक्षी

वाट मिळेना धावायला ।

 

आनंदाचा सण दिवाळी,

सारे आनंदाने गाऊ या।

मना मनाती ज्योत लावूनी,

आज माणूसकीला जागू या।

 

दीन दुखी नि अनाथ बाळा,

नित हात तयाला देऊ या।

अंधःकारी बुडत्या वाटा,

सहकार्याने उजळू या।

 

रोज धमाके करू नव्याने,

कुजट विचारा उडवू या।

ऐक्याचे भूईनळे लावूनी,

आनंद जगती वाटू या।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ।।21।।

 

स्वर्ग भोग क्षय पुण्य पर कर इहलोक प्रवेश

पड़ चक्कर में भोग के सहते विविध कलेश।।21।।

 

भावार्थ :  वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।।21।।

 

They, having enjoyed the vast heaven, enter the world of mortals when their merits are exhausted; thus abiding by the injunctions of the three (Vedas) and desiring (objects of) desires, they attain to the state of going and returning.।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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मराठी साहित्य – ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन ☆ कविता – जर ….! ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

हमारे लिए यह गर्व का विषय है कि  ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, उस्मानाबाद  में वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे  जी की गरिमामय काव्य प्रस्तुति निमंत्रित कवि सम्मलेन  में आज 12 जनवरी 2020 को दोपहर 12 बजे से 2 बजे के सत्र में  मंडप – 2 सेतुमाधवराव पगड़ी साहित्यमंच पर सुनिश्चित की गई है। आप आज इस अभूतपूर्व अखिल भारतीय कार्यक्रम में अपनी कविता  ‘जर…..’ प्रस्तुत कर  रहीं हैं । हम आपकी यह रचना ससम्मान अपने पाठकों  के साथ साझा करने जा रहे हैं। )

इस गरिमामय प्रस्तुति के लिए ई-अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभकामनायें

☆ जर….. ☆ 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे….

तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…

कुणाला आवडो न आवडो…

त्यात असेल एक गाव….

परीकथेतला….

आजोबा म्हणायचे,

“तुम्ही काहीही  सांगाल, आम्हाला खरं वाटलं पाहिजे ना ? ”

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी,

परीकथेत असतील इतरही प-या,

यक्ष ,जादू च्या छड्या, चेटकिणी,

घडेल काही आक्रित,

नियती वाचवेल प्रत्येकवेळी परीला…..

परीला पडतील स्वप्न….अगदी साधीसुधी….

ती खेळेल भातुकलीचा खेळ

बाहुला बाहुलीचे लग्न ही लावेल….

 

ती हरवेल कधी जंगलात, कधी गर्दीत….

तिला सापडणार नाहीत हवे ते रस्ते…

ती रस्ता चुकेल, रडेल,

दुखेल, खुपेल तिलाही…

ती सहन करेल तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार…

 

आयुष्यात प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्ध च घडणार आहे,

हे माहित असूनही,

ती लावेल पत्त्यांचे

नवे नवे डाव आणि हरत राहिल वारंवार!

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी, गाईल गाणी,

खेळेल  ऐलोमा पैलोमा….

 

ती करेल स्वयंपाक, थापिल भाकरी, कधी सुगरण असेल ती तर कधी करपेल तिचा भात,पोळी कच्ची राहिल,

आडाचं पाणी काढायला जाताना…तिचे पडतील ही दोन दात…

केस पांढरे होतील, सुरकुत्या पडतील चेह-यावर…..

परी म्हातारी होईल, तरीही तिला काढावसं वाटेल आडाचं पाणी….

कुणी म्हणेल ही सहजपणे….

“धप्पकन पडली त्यात”

ती पडेल आडात,पाण्यात की खडकावर माहित नाही…..

तिने हातात गच्च धरून ठेवलेला शिंपला पडेल त्याच आडात…

 

आणि आजूबाजूच्या फेर धरणा-या तरूण प-या म्हणतील….

आडात पडला शिंपला…..तिचा खेळ संपला!

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…..

जी आली होती जन्माला बाईच्या जातीत…..आणि मेली ही बाई म्हणूनच!

 

आणि ही कथा तुम्हाला नक्कीच खरी वाटेल

परीकथा असूनही..

 

© प्रभा सोनवणे 

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

 

आदरणीया सुश्री प्रभा सोनवणे जी का अति-लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात”  शीर्षक से प्रत्येक बुधवार को नियमित रूप से प्रकाशित होता है। 

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