हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #30 ☆ विश्वास☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 30 ☆

☆ विश्वास ☆

 

भोर अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना!! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुद को प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्य रूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाश प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी। प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?” मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में ।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8.29, 7.1.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 32 ☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज का व्यंग्य  है अफसर की कविता-कथा।  वास्तव में  अफसर की कविता – कथा  अक्सर अधीनस्थ  साहित्यकार की व्यथा कथा हो जाती है । डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता  और इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 32 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆

 

भूल मेरी ही थी कि मैं उस शाम अपने अफसर को कवि-सम्मेलन में ले गया। दरअसल मेरी नीयत उनको मस्का लगाने की थी। कवि-सम्मेलन में मैं तो वहाँ आने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए ‘वाह वाह’ करता रहा और अफसर महोदय अपने हीनभाव को दबाने के लिए बार बार सिर हिलाते रहे। मैं जानता था कि कविताएं उनके सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं और कविता जैसी चीज़ से उनका दूर का भी वास्ता नहीं था।

फिर हुआ यह कि एक कवि ने एक कविता सुनायी जो कुछ इस प्रकार थी—–

‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ,
फाइल ही मेरी ज़िन्दगी है।
फड़फड़ाता हूँ लेकिन मुक्ति कहाँ है?’

और मुझे लगा जैसे मेरे अफसर को किसी ने घूँसा मार दिया हो। कविता खत्म होने पर वे बड़ी देर तक ‘वाह वाह’ करते रहे। कविताएं चलती रहीं लेकिन वे सब कविताओं से बेखबर उस एक कविता को याद करके आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करते रहे।

कवि-सम्मेलन खत्म होने पर जब हम घर लौटे तो वे रास्ते भर ‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ’ दुहराते रहे। अलग होते समय उन्होंने मुझे कई बार धन्यवाद दिया। मेरी आत्मा गदगद हो गयी।

दूसरे दिन दफ्तर में दोपहर को साहब के पास मेरा बुलावा हुआ। उन्होंने बड़े आदर के साथ मुझे बैठाया। मैंने देखा, वे कुछ नयी बहू जैसे शर्मा रहे थे। मुख लाल हो रहा था। थोड़ी देर तक वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर कुछ और शर्माते हुए उन्होंने दराज़ से एक कागज़ निकाला और मुझे पकड़ा दिया। मैंने देखा, उस कागज़ पर एक कविता लिखी थी, इस प्रकार—–

‘टाइपराइटर की चटचट,
टेलीफोन की घनघन,
यही मेरा जीवन,
यही मेरा बंधन।
जो देखे थे सपने,
दफन हो चुके हैं,
बगीचे सभी
सूखे वन हो चुके हैं।
कहाँ खो गये हाय
वे सारे उपवन।’

इसी वज़न के तीन और छन्द थे। आखिरी पंक्ति थी, ‘खतम हो चुका है उमंगों का राशन।’

मैंने पढ़कर सिर उठाया।वे भयंकर उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। बोले, ‘कैसी है?’

मैंने सावधानी से उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’

वे मुस्कराये, बोले, ‘मेरी है।’

मैं पहले ही भाँप रहा था। कहा, ‘प्रथम प्रयास की दृष्टि से काफी अच्छी है। आप तो छिपे रुस्तम निकले।’

वे काफी प्रसन्न हो गये।

फिर वे रोज़ चार छः कविताएं लिखकर लाने लगे। रोज़ मेरी पेशी होती और मुझे सारी कविताएं सुननी पड़तीं। घरेलू समस्याओं का समाधान सोचते हुए मैं आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करता रहता। मेरा काम करना दूभर हो गया। उनसे धीरे से काम की बात कही तो उन्होंने मेरा ज़्यादातर काम छिंगे बाबू को सौंप दिया। नतीजा यह हुआ कि मेरे साथियों ने मेरा नाम ‘नवनीत लाल’ और ‘ठसियल प्रसाद’ रख दिया।

मेरे अफसर महोदय अपने को पक्का कवि समझ चुके थे। कई बार मुझे दफ्तर से घर पकड़ ले जाते और बची-खुची कविताओं को वहाँ सुना डालते। एक दिन भावुक होकर कहने लगे, ‘मिसरा जी, आपसे क्या छिपाना। मेरा दिल टूटा हुआ है। ब्याह से पहले मेरा एक लड़की से ‘लव’ चलता था। माँ-बाप ने दहेज के लालच में इनसे शादी कर दी, लेकिन मेरा दिल कहीं नहीं लगता। अब भी डोर वहीं बंधी है। मेरे भीतर कवि के सब गुण पहले ही थे, आपके संपर्क ने चिनगारी का काम किया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ।’

धीरे धीरे वे मेरे पीछे पड़ने लगे कि मैं उनको कवि सम्मेलनों में ठंसवा दिया करूँ। मैं बड़ी दौड़-धूप करके उनका नाम डलवाता। वे ‘हूट’ हो जाते तो उनके घावों पर मरहम लगाता। कहता, ‘साहब जी, समझदार श्रोता मिलते कहाँ हैं?’

एक दिन किस्मत मेरे ऊपर मुस्करायी। मेरा ट्रांसफर आर्डर आ गया। मैं अपने नगर में काफी गहरे तक स्थापित हो चुका हूँ, इसलिए मुझे पीड़ा तो काफी हुई लेकिन अफसर महोदय से छुटकारा मिलने की संभावना से प्रसन्नता भी कम नहीं हुई। लेकिन मेरे अफसर ने मुझे नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे ‘रिलीव’ करने से इनकार कर दिया और ऊपर लिख दिया कि मैं उनके लिए अपरिहार्य हूँ। वे मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। अभी तो मेरी प्रतिभा निखर रही है, तुम चले जाओगे तो मैं फिर जहाँ का तहाँ पहुँच जाऊँगा।’ अन्ततः मेरा तबादला रद्द हो गया।

प्रभु ने एक बार फिर मेरी सुनी। अबकी बार मेरे अफसर का ही ट्रांसफर हो गया। वे बड़े दुखी हुए। मैं प्रसन्नता लिए उन्हें सांत्वना देता रहा। मैंने कहा, ‘अब कविता की दृष्टि से आप बालिग हो गये, अपने पैरों पर खड़े हो गये। अब आपको किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है।’  लेकिन वे मुझसे अलग होते बड़े असहाय हो रहे थे।

मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गया। वे बेहद उदास थे।चलते समय कहने लगे, ‘मिसरा जी, मेरा काम आपके बिना नहीं चल सकता। मैं आपका तबादला भी वहीं करा लूँगा। आप चिन्ता मत करना।’

और वे इन शब्दों के साथ मुझे चिन्ता के सागर में ढकेलकर चले गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ ईमानदार होने की उलझन ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से  पुरस्कृत /अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ईमानदार होने की उलझन ।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ ईमानदार होने की उलझन ☆☆

 

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

 

 

ईमानदार होने की उलझन

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 17 – दोहन ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  मानव  द्वारा पर्यावरण के दोहन पर उनकी एक  सार्थक  रचना दोहन . आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 17  – विशाखा की नज़र से

☆ दोहन ☆

 

कभी धरती एक कुआँ

इसमें से निकाले हमने अमूल्य रत्न ,

तेल, पानी, कोयला

और ना जाने क्या -क्या ।

कभी धरती हुई सपाट,

रोपी हमने मनचाही फसलें

उजाड़ कर उसका सौन्दर्य ।

 

कभी धरती हुई ढलान,

बही वहाँ अमृत की धारा

कल -कल -कल ,

रोका हमनें उसे बना बाँध,

उन्मुक्त को किया बंधक ।

 

कभी धरती हुई पहाड़ ,

वहाँ भी चढ़कर जड़े हमनें स्वाभिमान के झंडे ,

कुरेदा उसका अस्तित्व

किया वहाँ भी निर्माण ।

 

धरती ने अपने रूप बदले

पर ना बदला इंसान ,

तब धरती में हुआ हाहाकार , मचा भूचाल

तो ताका हमने आसमाँ ,

वो भी कांपा हमारे इरादों से ,

दिखा अपनी चमक -धमक

किया हम पर उसने प्रथम प्रहार

पर ना समझा इंसान ……..

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature ☆ Article ☆ How high should I rise? ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  This article “How high should I rise?” will change your thinking.)    

 ☆ How high should I rise? ☆ 

It was one seemingly ordinary day when I decided to QUIT… All of a sudden, I made a decision to quit my job, my relationship and finally my spirituality. I just wanted to quit my life.

But before that, I went to the wood to have one last talk with God.

I started: “God, can you give me one good reason not to quit?”

His answer really surprised me: “Look around”, He said. “Do you see the fern and the bamboo?”

I replied: “Yes. When I planted the fern and the bamboo seeds, I took very good care of them. I gave them light. I gave them water. The fern quickly grew from the earth.

Its brilliant green covered the floor. Yet nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo. In the second year the Fern grew more vibrant and plentiful.

But still, nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo.

He said: “In year three there was still nothing from the bamboo seed. But I would not quit. In year four, again, there was nothing from the bamboo seed. I would not quit.”

“Then in the fifth year a tiny sprout emerged from the earth.

Compared to the fern it was seemingly small and insignificant…But just 6 months later the bamboo rose to over 100 feet tall.

It had spent the five years growing roots. Those roots made it strong and gave it what it needed to survive. I would not give any of my creations a challenge it could not handle.”

After that, He asked me: “Did you know, my child, that all this time you have been struggling, you have actually been growing roots. I would not quit on the bamboo. I will never quit on you.”

“Don’t compare yourself to others.” He added.  “The bamboo had a different purpose than the fern. Yet they both make the forest beautiful.” God said to me: “Your time will come”

“You will rise high”.

I asked: “How high should I rise?”

“How high will the bamboo rise?” He also asked.

I was confused: “As high as it can?”

” Yes.” He said, “Give me glory by rising as high as you can.”

After this conversation I left the forest and I wrote this amazing story. I really hope that these words can help you to see that God will never give up on you.

You should never, never, never, Give up.

Don’t tell the Lord how big the problem is, tell the problem how great the Lord is!…………………….

 

© Ashish Kumar

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी  को  स्व संतोष गुप्ता स्मृति सम्मानोपाधि  से सम्मानित किया गया।  ई- अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभ कामनाएं ।  

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 6 – फांकाकशी ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली माई शीर्षक से एक भारतीय नारी के जीवन का पूर्वाध पढ़ रहे थे कथा वृत्त पढ़ते हुए यह विचार भी आया होगा कि पगली की कहानी का पगली माई से क्या संबंध हो सकता है, इसके रहस्य को समझने के लिए आपको थोड़ा धैर्य रखना होगा।अब आगे पढ़ें ——–)

पगली का समय अच्छा बीत रहा था, गौतम की उम्र लगभग 12 बरस की हो गई थी, वह अब स्कूल भी जाने लगा था।

प्रा० पाठशाला की आखिरी सीढ़ी लांघने के कगार पर था। दूसरी तरफ उसका पति ज्यों ज्यों बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ रहा था। त्यों त्यों उसकी नशे की लत जवान होती जा रही थी।  जुए शराब के चलते पहले जानवर, फिर गहनें, फिर बर्तन फिर खेती बाड़ी।

अब घर की सारी संपन्नता शराब-जुए की भेंट चढ़ गई थी।  हालात यहां तक बद्तर हो चुके थे कि घर में रोटियों के लाले पड़ रहे थे।

अब तो फाकाकशी की नौबत आ गई थी। पहले उसका पति शराब पीता था, अब शराब उसे पीने लगी थी। नशे की अधिकता ने उसके पति को ठठरी की गठरी बना डाला था।

घर में राशन न होने की स्थिति में पति-पत्नी में अनबन भी  रहने लगी वह अपनी झूठी शान व शेखी के चलते उसे बाहर काम पर भी नही जाने देता। पगली जब भी बाहर काम पर  जाने की बात कहती तो उसे ऐसा लगता जैसे पगली उसके पुरूषार्थ को चुनौती दे रही हो और वह मरखने सांड़ की तरह बिदक जाता।  फिर पति पत्नी में वाक् युद्ध छिड़ जाता। घर महाभारत का मैदान बन जाता। इन सबको गौतम सूनी सूनी आंखों से  देखता सुनता तथा मौन, हो मूकदर्शक बन जाता।

वह पूस मास की जाड़े की रात थी। लगभग दो दिनों से घर में अन्न न होने से घर में फाकाकशी चल रही थी।  गौतम दो दिनों से भूखा था।

दो दिनों से उसका बाप भी घर नहीं आया था। अपनी भूख की पीड़ा तो पगली सीने पर पत्थर रख बर्दाश्त किये जा रही थी। लेकिन गौतम का भूख से मुरझाया चेहरा तथा ऐठती अंतड़ियां पगली  देख नही सकती थी। अंत में राशन लेने के लिए पगली पडोसियों से कुछ पैसे उधार ले आई थी। लेकिन दुर्भाग्य से घर पहुँचते ही उसका सामना पति से हुआ।

एक तरफ जहां पगली और गौतम भूख की पीड़ा से बिलबिला रहे थे। वहीं उसके मन में शराब की तलब मचल रही थी, वह शराब पीने के लिये पगलाया हुआ था। पगली और उसके पति दोंनों की दरवाजे पर ही नजरें चार हुई। यद्यपि वह पगली से नजरें नहीं मिला पाया।

फिर भी उसने चोर दृष्टि से पैसे को साड़ी की गांठ में छुपाते देख ही लिया था। उन पैसों के देखते ही उसकी आंखों में वहशियाना चमक नाच उठी। उसके चेहरे पर साक्षात् शैतान नग्न नर्तन कर उठा और उसने पगली से दारू पीने के लिए पैसे की मांग कर दी। जिसे सुनते ही पगली बौखला  उठी, उसका धैर्य साहस सभी कुछ जबाब दे गये।

उसने पतिव्रत धर्म की सारी मर्यादा तोड़ते हुये उसे पैसे देने से इंकार कर दिया। इस कारण पहले वाक् युद्ध।  फिर बात बढते बढ़ते मार पीट में बदल गई थी।

आज एक बार फिर गौतम ममता और हैवानियत का युद्ध मौन हो मूकदर्शक बन देखने को मजबूर था। एक तरफ एक माँ की ममता भूखी शेरनी की तरह पैसों की रक्षा के लिए अड़ी खड़ी थी, तो दूसरी तरफ उसका पिता नशे की तलब में इंसान से हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था। वह पगली से उधार के पैसे छीनने की ताक में उस पर गिद्ध दृष्टि जमाये खड़ा था। उसे तो अपनी पत्नी की लाचारी बेबसी और भूख से तड़पते बेटे की पीड़ा का एहसास ही नही हो रहा था।

उसकी आँखों में सिर्फ़ और सिर्फ़ शराब की रंगीन बोतलें नांच रही थी । सहसा अकस्मात् उसने भूखे बाज की तरह पगली के हाथ में छुपे पैसों पर झपट्टा मारा। वह भी सतर्क थी उसने उन पैसों को और कसकर पकड़ लिया था।  लेकिन फिर भी उसका दाव पगली पर भारी पड़ा। उसने उधार के पैसे पगली के हाथ से छीन लिए।  अब पगली भी झरबेरी के कांटों की तरह उससे लिपटती नजर आई । उसका उस वहशी शैतान को रोकने का हर प्रयास विफल हो गया।

वह उसके हाथ के पैसे छीन भाग चला था ठेके की ओर,

अब पगली की ममता भूख और पीड़ा से बिलबिलाते  बच्चे को गोद में छुपाये रोने पर विवश थी वह कुछ नहीं कर पा रही थी।

 – अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -7 – नशे का जहर 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 6 ☆ हौसले ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता हौसले । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #6 ☆ हौसले

 

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे,

हौसले किये है हमने अब बुलंद,

अब अंधेरो में भी हम जुगनू जलाएंगे,

आएंगे दौर मुसीबतो के,

फिर भी हम आगे बढ़ाते जाएंगे,

अकेले ही चल पडेंगे हम,

कारवां तो अपने आप बनते जाएंगे,

अपनी मंज़िल वो ही पाते है जो खुद पे विश्वास दिखाते हैं

इसको हम अपना उद्देश्य बनाएंगे ,

तेरे मेरे के चक्कर में पड़े है सब,

हम सबको आरम्भ कर दिखाएंगे,

सीख लिया है हमने सफल जीवन का रहस्य,

अब इस रोशनी को हम सब में जगमगाएंगे,

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ।।20।।

 

रचते ज्ञानी यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति का योग

पुण्य प्राप्त कर स्वर्ग में करते सुख उपभोग।।20।।

 

भावार्थ :  तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक देव ऋणरूप पाप से पवित्र होना समझना चाहिए) मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।।20।।

 

The knowers of the three Vedas, the drinkers of Soma, purified of all sins, worshipping Me by sacrifices, pray for the way to heaven; they reach the holy world of the Lord of the gods and enjoy in heaven the divine pleasures of the gods.।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक चर्चा ☆ डांस इंडिया डांस – श्री जय प्रकाश पांडेय ☆ “व्यंग्य-लेखन गंभीर कर्म है” – डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आज दिनांक 11 जनवरी को नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  के व्यंग्य संग्रह  “डांस इण्डिया डांस” का विमोचन है।  ऐसे शुभ अवसर पर वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का यह आलेख निश्चित ही पुस्तक की प्रस्तावना स्वरुप एक आशीर्वचन है जो हम अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे ।)
 
ई – अभिव्यक्ति की और से श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी को इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 
☆ पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य -लेखन गंभीर कर्म है”  – डॉ कुंदन सिंह परिहार  ☆

जो लोग व्यंग्य को मनोरंजन का साधन समझते हैं वे व्यंग्य की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझते ।  व्यंग्य -लेखन ज़िम्मेदारी का काम है , यह हल्केपन से ली जाने वाली चीज़ नहीं है ।  हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों ने अपनी सशक्त रचनाओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष व्यंग्य के सही रूप को प्रस्तुत किया ।  उनकी रचनाएँ सिर्फ सिखाती ही नहीं है वे व्यंग्यकारों की अगली पीढ़ी के लिए चुनौती भी प्रस्तुत करती है ।  परसाई ने व्यंग्य लेखन को गंभीर कर्म माना ।

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

एक अच्छे व्यंगकार में अनेक गुण अपेक्षित हैं ।  पहले तो व्यंग्यकार संवेदनशील हो, ओढ़ी हुई करुणा से सार्थक व्यंग्यलेखन नहीं होगा ।  दूसरे उसकी द्रष्टि सही हो ।  रूढ़ीवादी और अवैज्ञानिक सोच वाले लेखकों के लिए व्यंग्य को साधना कठिन है ।  लेखक की अभिव्यक्ति प्रभावशाली होनी चाहिए ।  लेखन शैली ऐसी हो जो पाठक को बांधे और साथ ही उसे सोचने को बाध्य करे ।  व्यंग्य का उद्देश पाठक का मनोरंजन करना नहीं हो सकता ।

पुस्तक – डांस इण्डिया डांस ( व्यंग्य-संग्रह) 

लेखक – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य – रु 300/-

प्रस्तुत व्यंग्य -संकलन के लेखक श्री जय प्रकाश पाण्डेय अनेक वर्षों से व्यंग्यलेखन मे सक्रिय हैं ।  वे कई वर्षों तक स्टेट बैंक में सेवा देने के बाद सेवानिवृत्त हुए हैं और अपने सेवाकाल में उन्हे शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के सभी वर्गों के लोगों के जीवन को निकट से देखने का अवसर मिला है ।  एक बैंकर से अधिक सामान्य लोगों की समस्याओं को कौन बेहतर समझ सकता है, बशर्ते की उसके पास संवेदनशील मन हो ।  पाण्डेय जी से हमारे कई वर्षो के संबंध से यह समझने का अवसर मिला कि मुहावरे के अनुसार उनका दिल सही जगह पर है और देश के करोड़ों वंचितों और लाचार लोगों के लिए उनके हृदय में पर्याप्त हमदर्दी है ।  यह हमदर्दी ही लेखक को वंचितों, पीड़ितों का प्रतिनिधि और उनकी आवाज़ बना देती है ।

इस संग्रह के विषयों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है की लेखक ने आज की सभी ज्वलंत समस्याओं को छुआ है ।  विषयों के चुनाव और उनके ‘ट्रीटमेण्ट’ से लेखक की पक्षधरता और उसकी संवेदनशीलता ज़ाहिर होती है ।  जीवन के प्रति लेखक का दृष्टिकोण उसकी रचनाओं से पकड़ मे आ जाता है, वहाँ ‘साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’ वाली बात नहीं चलती ।

विषयों का व्यापक फ़लक हमारे सामने आता है इसमे सरकारी आवासीय योजनाओं की धांधली है तो चीन के प्रति हमारा दोहरा रवैया, जी.एस.टी. की भूलभुलैया, गौमाता पर राजनीति, पवित्र नदियों का प्रदूषण, बाढ़ के अपने अर्थ, देश में पसरे अंध विश्वास, बाबाओं का पाखंड और मूर्तियों की राजनीति भी है ।  इनके अतिरिक्त बैंक कर्मियों की अति-व्यस्तता, ए.टी.एम. की दिक्कतें, गरीब को चैक मिलने पर भी भुगतान की दिक्कतें, नाम बदलने की राजनीति, हिन्दी दिवस की रस्म-आदायगी और बापू की कल्पना के भारत के बरक्स आज के भारत का लेखा जोखा भी यहाँ है ।  लेखों मे आम आदमी के लिए लेखक की ‘कंसर्न’ को साफ महसूस किया जा सकता है ।  इस संबंध में कुछ लेखों की पंक्तियों को उदघ्रत करना उचित होगा ।

“पहले वाले साहब नें  इंद्रा आवास योजना में केस बनवाया था, दीवार भर खड़ी हो पाई थी और आगे कुछ भी नहीं हुआ, साहब सब हितग्राहियों का पैसा खा कर ट्रान्सफर करा लिए थे, सब की दीवार बरसात मे गिर गई थी और शहर में साहब का आलीशान बंगला बन गया था”।  (बंगला बखान)

“तहसीलदार ने रंगैया को बोला कि जाकर बैंक वालों से पूछो कि हीरे के व्यापारी को ग्यारह हज़ार करोड़ रुपये दिये थे तो क्या आधार कार्ड लिया था?’ (बैंक मे रंगैया का खाता)

‘हमारी सरकार ने नोट बंदी करके देश विदेश मे नाम कमाया है, बंद हुए 500 और 1000 रुपये के नोटों को सड़ाकर खाद बनाई है जिससे तंदुरुस्त कमल पैदा किए गए हैं’ ।  (‘ए.टी.एम. में खुचड़’)

‘घर की बहू के हाथ से थोड़ा सा दूध गिर जाता है तो सास गोरस के अपमान की बात करके बहू को पाप का भागी बना देती है और उस समय सास और बहुओं ने मिल कर खूब दूध नालियों में बहाया, तब किसी ने नहीं कहा कि सब पापी थे’ ।   (‘अफवाह उड़ाना है पाप’)

शौचालय का शौक ऐसा चर्राया कि शौचालय बना-बना के लोगों ने बड़े बड़े बंगले खड़े कर लिए और शौचालय बिन पानी के गंदगी फैलाने के दूत बन गए’ ।  (‘कचरे के बहाने बहस’)

यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि पाण्डेय जी नें अधिकतर तात्कालिक विषयों पर अपनी कलम चलाई है फिर भी वे बार बार हमारे समाज की ‘क्रानिक’ व्याधियों तक पहुचाने का प्रयास करते हैं ।  समाज मे व्याप्त अन्याय और भ्रष्टाचार तथा आम आदमी की लाचारी और बेबसी उनकी रचनाओं मे बार बार नुमायां होती हैं ।

पाण्डेय जी परसाई जी के निकट रहे हैं और उन्होने परसाई जी के जीवन का अंतिम इंटरव्यू भी लिया था जो काफी चर्चित रहा ।  अतः वे व्यंग्य के राग-रेशे से भली भांति वाकिफ हैं ।  उम्मीद की जा सकती है की आगे उनकी रचनाशीलता नए आयाम ग्रहण करेगी ।

 – डॉ कुंदन सिंह परिहार, जबलपुर, मध्य प्रदेश

सम्प्रति : जय प्रकाश पाण्डेय, 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अरण्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अरण्य

निराशा के पलों में

आक्रोश के क्षणों में,

कई बार सोचा

आग लगा दूँ

अपनी कविताओं के

अरण्य को,

वैसे भी यह अरण्य

घेर लेता है

दुनिया भर की जगह

और देने के नाम पर

छदाम भी नहीं देता,

संताप बढ़ा

चरम पर पहुँचा,

आश्चर्य!!

तीली के स्थान पर

तूलिका उठाई

नई रचना आई,

सृजन की बयार चली

मन उपजाऊ हुआ

अरण्य और घना हुआ,

पर्यावरणविद सही कहते हैं;

व्यक्ति और समाज के

स्वास्थ्य के लिए

अरण्य अनिवार्य हैं!

अरण्य घने होते रहें। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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