हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 27 ☆ व्यंग्य – किताबों के मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “किताबों के मेले”.   श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए।  पाठक से अधिक लेखक को पुस्तक मेले की प्रतीक्षा रहती है। शायद  पुस्तक मेलों में लेखक को  अपना भविष्य और प्रकाशक को  अगले पुस्तक मेले तक उनकी अर्थव्यवस्था । गंभीर पाठकों के अलावा सस्ते दामों पर पुस्तकें तो फुटपाथ पर ही मिलती हैं। वरना तथाकथित  “सेल्फ पब्लिशिंग ” का गणित मात्र लेखक और प्रकाशक ही जानते हैं । इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 27 ☆ 

☆  किताबों के मेले 

कलमकार जी अपने गांव से दिल्ली आये हुये थे किताबो के मेले में. दिल्ली का प्रगति मैदान मेलो के लिये नियत स्थल है, तारीखें तय होती हैं एक मेला खत्म होता है, दूसरे की तैयारी शुरू हो जाती है. सरकार में इतने सारे मंत्रालय हैं, देश इतनी तरक्की कर रहा है, कुछ न कुछ प्रदर्शन के लिये, मेले की जरूरत होती ही है. साल भर मेले चलते रहते हैं. मेले क्या चलते रहते हैं, लोग आते जाते रहते हैं तो चाय वाले की, पकौड़े वाले की, फुग्गे वाले की आजीविका चलती रहती है. इन दिनो किताबो का मेला चल रहा है. चूंकि मेला किताबों का है, शायद इसलिये किताबें ज्यादा हैं आदमी कम. जो आदमी हैं भी वे लेखक या प्रकाशक, प्रबंधक ज्यादा हैं, पाठक कम. लगता है कि पाठको को जुटाने के लिये पाठको का मेला लगाना पड़ेगा. मेले में तरह तरह की किताबें हैं.

कलमकार जी को सबसे पहले मिलीं रायल्टी देने वाली किताबें, ये ऐसी किताबें हैं जिनके लिखे जाने से पहले ही उनकी खरीद तय होती है. इनके लेखक बड़े नाम वाले होते हैं, कुछ के नाम उनके पद के चलते बड़े बन जाते हैं, कुछ विवादों और सुर्खियो में रहने के चलते अपना नाम बड़ा कर डालते हैं. ये लोग आत्मकथा टाइप की पुस्तकें लिखते हैं. जिनमें वे अपने बड़े पद के बड़े राज खोलते हैं, खोलते क्या किताबों के पन्नो में हमेशा के रिफरेंस के लिये बंद कर डालते हैं. इन किताबों का मूल्य कुछ भी हो, किताब बिकती है, लेखक के नाम के कांधे पर बिकती है. सरकारी खरीद में बिकती है. लेखक को रायल्टी देती है ऐसी किताब. प्रकाशक भी इस तरह की किताबें सजिल्द छापते हैं, भव्य विमोचन करवाते हैं, नामी पत्रिकायें इन किताबों की समीक्षा छापती हैं.

दूसरे तरह की किताबें होती हैं बच्चो की किताबें, अंग्रेजी की राइम्स से लेकर विज्ञान के प्रयोगो और इतिहास व एटलस की, कहानियों की, सुस्थापित साहित्य की ये किताबें प्रकाशक के लिये बड़ी लाभदायक होती हैं. इन रंगीन, सचित्र किताबों को खरीदते समय पिता अपने बच्चो में संस्कार, ज्ञान, प्रतियोगिताओ में उत्तीर्ण होने के सपने देखता है. बच्चे बड़ी उत्सुकता से ये किताबें खरीदते हैं, पर कम ही बच्चे इन्हें पूरा पढ़ पाते हैं, और उनमें से भी बहुत कम इनमें लिखा समझ पाते हैं, पर जो जीवन में इन किताबो को उतार लेता है, ये किताबें उन्हें सचमुच महान बना देती हैं. कुछ बच्चे इन किताबों के स्टाल्स के पास लगी रंगीन नोटबुक, डायरी, स्टेशनरी, गिफ्ट आइटम्स की चकाचौंध में ही खो जाते हैं, वे इन किताबों तक पहुंच ही नही पाते, ऐसे बच्चे बड़े होकर व्यापारी तो बन ही जाते हैं.

कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबो के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूछ बैठी हैं  उनके आस पास सीनियर सिटिजन्स ही क्यों नजर आते हैं ?  वह तो भला हो  रेसिपी बुक्स, ट्रेवलाग, काफी टेबल बुक्स, गार्डनिंग,गृह सज्जा  और सौंदर्य शास्त्र के साथ घरेलू नुस्खों की किताबों के स्टाल का जहां कुछ  नव यौवनायें भी दिख गईं कलमकार जी को.

एक बड़ा सेक्शन  देश भर से पधारे, अपने खर्चें पर किताबें छपवाने वाले झोला धारी कलमकार जी जैसे कवियों और लेखको  के प्रकाशको का था, ये प्रकाशक लेखक को अगले एडीशन से रायल्टी देने वाले होते हैं. करेंट एडीशन के लिये इन प्रकाशको को सारा व्यय रचनाकार को ही देना होता है, जिसके एवज में वे लेखक की डायरी को किताब में तब्दील करके स्टाल पर लगा देते हैं. किताब का  बढ़िया सा विमोचन समारोह संपन्न होता है, विमोचन के बाद भी जैसे ही घूमता हुआ कोई बड़ा लेखक स्टाल पर आता है  किताब का पुनः लोकार्पण करवा कर हर हाथ में मोबाईल होने का सच्चा लाभ लेते हुये लेखक के फेसबुक पेज के लिये फोटो ले ली जाती है. ऐसा रचनाकार आत्ममुग्ध किताबों के मेले का आनन्द लेता हुआ, कोने के टी स्टाल पर इष्ट मित्रो सहित चाय पकौड़ो के मजे लेता मिलता है.

मेले के बाहर  फुटपाथ पर भी विदेशी अंग्रेजी उपन्यासों का मेला लगा होता है, पुस्तक मेले की तेज रोशनी से बाहर बैटरी की लाइट में बेस्ट सेलर बुक्स सस्ती कीमत पर यहां मिल जाती हैं. दुनियां में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के इकानामिक्स पर निर्भर होता है किन्तु किताबें ही वह बौद्धिक संपदा है, जिनका मूल्य इस सिद्धांत का अपवाद है, किसी भी किताब का मूल्य कुछ भी हो सकता है. इसलिये अपने लेखक होने पर गर्व करते और कुछ नया लिख डालने का संकल्प लिये कलमकार जी लौट पड़े किताबों के मेले से.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 29 – अपुर्ण…!  ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता अपुर्ण…! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #29☆ 

☆ अपुर्ण…!  ☆ 

 

परवा कपाट आवरताना

एका बंद वहीत

कागदावर

एक अर्धवट ल हलेली

कविता सापडली.. !

तेव्हा सहज वाटून गेलं…;

गेली कित्येक वर्ष,

ही सुद्धा

माझ्यासारखीच

जगत राहिली असेल .. .

मी चार भिंतीच्या आत

ती एका बंद वहीत..

अपुर्ण…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 30 ☆ हाथ की सफाई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी  एक  मालवो  मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “हाथ की सफाई  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #30 ☆

☆ हिन्दी लघुकथा –हाथ की सफाई☆

 

मैंने रावण जी को दो शब्द कहने के लिए उठाया. वे बोले,  “शिक्षकों को सब से पहले ईमानदार होना चाहिए. इस के पहले ईमानदार दिखना ज्यादा जरूरी है ताकि बच्चे शिक्षक का अनुसरण कर सकें.”

वे पूरा भाषण देने के मूड़ में थे.

“हमें कोई भी चीज रद्दी में नहीं फेंकना चाहिए. हर चीज का उपयोग करना चाहिए. ……………….. रद्दी में से चीजें उठा कर उस का दूसरा उपयोग किया जा सकता है….”

उन का भाषण खत्म होते ही मेरी निगाहें टेबल पर रखे कार्बन पर गई. वे टेबल पर नहीं थे. मैं समझ गया कि किसी शिक्षक ने वे रख लिए है ताकि प्रिंटर्स से एक बार उपयोग किए गए कार्बन को वे दोबारा उपयोग कर सकें.

तभी मेरी निगाहें रावणजी के थैले पर गई. कार्बन वहां से। झांक रहे थे. उन का दोबारा उपयोग होने वाला था. मगर, मुझे दो प्रति में जानकारी बनाने के लिए कार्बन चाहिए थे.

“अब आप ये जानकारी दो दो प्रति में बना कर दे दें,”  मैंने शिक्षकों को जानकारी का प्रारूप दिया तो एक शिक्षक ने कहा, “साहब ! कार्बन भी दीजिए.”

मैंने झट से कहा, “कार्बन की क्या बात है?  इन रावणजी के थैले में बहुत से पड़े है. इन का उपयोग कीजिए.” यह कहते हुए मैंने झट से हाथ की सफाई के साथ वे थैले से कार्बन निकाल कर शिक्षकों को पकड़ा दिए.

रावणजी सकुचाते हुए नजरे नीची करते हुए बोले, “लीजिए…. लीजिए…….  . मेरी तरह आप भी इन कार्बनों का दोबारा उपयोग कीजिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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आध्यात्म/Spritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन )

 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।

वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥

 

मै ही जग का पिता हूँ माता धाता वेद

मैं पवित्र ओंकार हूँ ऋक साम व यजुर्वेद।।17।।

 

भावार्थ :  इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, (गीता अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तक में देखना चाहिए) पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।17।।

 

I am the father of this world, the mother, the dispenser of the fruits of actions, and the grandfather; the (one) thing to be known, the purifier, the sacred monosyllable (Om), and also the Rig-,the Sama-and Yajur Vedas.।।17।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 29 – मिलकर आज समीक्षा कर लें…… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  किशोर मन की एक नवीन कविता  मिलकर आज समीक्षा कर लें…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 29☆

☆ मिलकर आज समीक्षा कर लें…… ☆  

 

अच्छे दिन आने वाले हैं

थोड़ी और प्रतीक्षा कर लें

तबतक पढ़ें-लिखें हम मिलकर

अपनी पूरी शिक्षा कर लें।।

 

अच्छे दिन तब ही आएंगे

अच्छी बातें अपनाएंगे

नहीं भरोसा रहा किसी पर

हम ही अच्छे दिन लायेंगे,

होंगे सफल इरादों में हम

मन में ये दृढ़ इच्छा कर लें……।

 

झांसे में न किसी के आएं

सब्जबाग जो हमें दिखाए

मुफ्त प्रलोभन में उलझा कर

उल्टे-सीधे स्वांग रचाए,

जांच-परख कर अब हम उनकी

पहले सही परीक्षा कर लें……।

 

स्वयं हमें आगे बढ़ना है

झंझावातों से लड़ना है

अपने ही पदचिन्हों से अब

नई – नई राहें गढ़ना है,

रोजी रोटी अब दूजों से

बन याचक ना भिक्षा पर लें…..।

 

समझ रहे जो हमें खिलौने

पंगत वाले पत्तल – दोने

अब न शिकंजे में आयेंगे

हमें न समझे आधे-पौने,

समयचक्र की गति पहचाने

मिलकर आज समीक्षा कर लें…..।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अखबारो से आशा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  अखबारों के बाजारीकरण एवं गिरती दशा पर एक कविता  ‘अखबारो से आशा‘। ) 

 

☆ अखबारो से आशा ☆

 

खबरे कम विज्ञापनो की दिखती भरमार

बदल चुके है रूप रंग अपना सब अखबार

वास्तविकता से निरंतर होते जाते दूर

पत्रकारिता कर रही धन ले अधिक प्रचार

 

कहलाते जनतंत्र के रखवाले अखबार

पर अब वे देते कहाॅ उंचे सही विचार?

पाठक पा पाता नहीं पढने से संतोष

समाचार मिलते हुए अनाचार व्यभिचार

 

सत्य न्याय प्रियता से कम होता दिखता प्यार

बढता जाता झूठ गलत बातो पर अधिकार

भूल रहे संस्थान सब अपने शुभ उद्धेश्य

लगता है हो गये है व्यापारिक बाजार

 

बदल रहा है आजकल जब सारा संसार

हर एक क्षेत्र में बढ रहा अनुचित अत्याचार

मानव मन विचलित तथा है अनीति मे लिप्त

आशा है अखबार से वे कुछ करें सुधार

 

नीति नियम अवमानना से बढती तकरार

सत्य ही हर कल्याण का है पावन आधार

चाहते हंै आशा किरण हो लोग निराश

पत्र दे विमल प्रकाश तो कट सकता अंधियार

 

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव ’विदग्ध’

ए-1,शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर

मो. 9425484452

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 31 – वसंत  ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “वसंत .  सुश्री प्रभा जी की कविता में प्रकृति एवं जीवन के सामंजस्य  में ऋतुओं  के परिपेक्ष्य में रचित रचना हमें हमारी स्मृतियों में ले जाती है । आखिर नव वर्ष का शुभारम्भ किसी जन्म उत्सव से कम तो नहीं है न ? 

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 31 ☆

☆ वसंत  ☆ 

 

दारातल्या शिरीषाची पानगळ सुरू झाली,

आणि मला आठवली

हातातून निसटून गेलेली,

संसारातली कित्येक वर्षे,

किती निमूटपणे जगत राहिलो,

ऋतुचक्राप्रमाणे बदललो ही नाही कधी!

रहाटगाडग्यासारखे

फिरत राहिलो स्वतःभोवतीच!

 

आज अचानक तू म्हणालास,

“घराचा रंग आता बदलायला हवा ”

आणि शिरिषावर कोकीळ गाऊ लागला शुभ शकुनाचे गीत  !

 

तेव्हा मी सताड उघडले घराचे दार,

परवा परवा ओका बोका दिसणारा शिरीषवृक्ष

झाला होता

घनदाट हिरवागार ,

 

मी म्हणाले,

“यंदा जरा जास्तच *पालवी* फुटली आहे नाही?”

 

तू म्हणालास,

 

“तुझं लक्ष कुठंय?

,जरा वर नजर कर,

फुलांचे झुबके ही झुलताहेत !

 

तू फक्त पानगळच पहातेस…

 

प्रत्येकाच्या दाराशी वसंत येतोच कधीतरी…

मनातला कोकिळ मात्र जपायला हवा!”

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 11 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 11 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें)

हमारे कुछ मित्रों ने कहा कि ‘जो लिखा जा रहा है वह भी तो मशीनों के उपयोग से है।‘यह प्रश्न तो गांधीजी ने स्वयं  से भी किया था और बापू ने इसका कोई सीधा उत्तर नहीं दिया। लेकिन हर जगह जहाँ कहीं वे यंत्र का समर्थन करते हैं तब एक ही बात उनके ध्यान में रहती है वह है समय और श्रम की बचत।  मैं सोचता हूँ कि आज अगर गांधीजी से पूंछा जाता  कि कम्प्यूटर व केलकुलेटर का उपयोग करना चाहिए कि नहीं तो वे कहते हाँ करना चाहिए क्योंकि इससे समय व श्रम की बचत होगी और मानव जाति का हित होगा। गांधीजी ऐसी मशीनों के पक्षधर हैं जो श्रम की बचत तो करें पर धन का लोभ का कारण  न बने। केलकुलेटर व  कम्प्यूटर का प्रयोग ऐसा ही है, हम इनका प्रयोग कोई धन के लोभ में नहीं करते वरण इनके प्रयोग से तो जोड़ने घटाने के काम आसानी से हो जाते हैं और समय बचता है, कम्प्यूटर का प्रयोग हमें और व्यवस्थित बनाता है हमारे कार्यों को सरल बनाता है। कम्प्यूटरीकरण से रोजगार के अवसर बढे हैं, इसने रोजगार के अवसर छीने नहीं हैं बल्कि नए अवसर पैदा किये हैं।

लेकिन वे मोबाइल को लेकर जरूर दुखी होते और शायद यही कहते कि इस यंत्र ने मानव जाति का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। वे कहते इसने तो मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने का तरीका ही बदल दिया है लोग आपस में बातचीत ही नहीं करते बस सन्देश भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। स्वास्थ पर हो रहे दुष्प्रभाव को लेकर भी वे हमें डांटते। लेकिन शायद जब अनेक लोग उनकी आलोचना करते, उनके मोबाइल विरोध को गलत बताते तो वे क्या कहते तब शायद वे कपड़ा मिलों के विषय में अपने विचारों जैसा कुछ बदलाव करते या फिर कहते कि जैसे रेलगाड़ी सब मुसीबतों की जड़ है वैसे ही मोबाइल भी है पर फिर भी मैं जब जरुरत होती है तब रेलगाडी और मोटर गाडी का उपयोग करता हूँ वैसे ही आप भी जरूरत पड़ने पर मोबाइल का उपयोग करो दिन भर उससे चिपके मत रहो।

उनकी यह बात भारतीय मनीषियों के सदियों पुराने चिंतन का परिणाम है जो काम क्रोध  मद लोभ को सभी बुराइयों की जड़ मानती आई है और इस चिंतन ने सदैव धन के लोभ से बचने की सलाह दी है। गांधीजी कहते हैं कि मेरा झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है। अब देखिये ट्राली बैग ने कुली ख़तम कर दिए हम ट्राली बैग क्यों लेते है क्योंकि कुछ पैसे बचाना है, यह जो कुछ धन बचाने का जो लोभ है उसने एक बड़े तबके का रोजगार छीन लिया है। आज रेलवे स्टेशनों से कुली लगभग गायब हो गए हैं।

अनेक मित्रों ने गांधीजी के मशीनों के विरोध को राष्ट्र की रक्षा से जोड़ा है। यंत्रों का विरोध और राष्ट्र की सुरक्षा दो अलग अलग बातें हैं। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का निर्माण राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1972 के बाद देश को कोई बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा।यही गांधीजी  का रास्ता है, बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती।

कुछ मित्रों ने जनसंख्या वृद्धि की ओर ध्यान दिलाया है। यह तो सही है की बढ़ती हुई जनसंख्या का पेट भरने में कृषि उत्पादन को बढ़ाना जरुरी है और इसमें यंत्रों/ रासायनिक खाद / कीटनाशकों  का प्रयोग न किया जाय तो फसल की पैदावार कैसे बढ़ेगी। लेकिन यह सब कुछ हद में बाँध दिया जाय तो फसल भी खूब होगी और कृषि के मजदूर बेरोजगार न होंगे। जैसे हार्वेस्टर के बढ़ते प्रयोग ने फसल कटाई में, खरपतवार नाशक दवाई ने निंदाई में मजदूरों के प्रयोग को खतम कर दिया है। हम इनके उपयोग को रोक सकते हैं।हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि औद्योगिक क्रांति ने ही जनसंख्या वृद्धि को संभव बनाया। शायद गांधीजी ने इस दुष्प्रभाव को भी 1909 में भलीभांति पहचान लिया था।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण पढ़ लिख न सके या उनका कौशल उन्नयन न हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

यह सही है कि अब हम पुराने जमाने की ओर नहीं लौट सकते, बिजली और उससे चलने वाले उपकरणों ने हमें बहुत सुख दिया है अब दिया बाती के युग में वापिस जाना मूर्खता ही होगी। पर सोचिये इन सब संसाधनों के बढ़ते प्रयोग ने कैसा विनाश रचा है। वातानुकूलन यंत्रों के अति प्रयोग ने ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को बढ़ाया ही है।

कुछ ने कहा कि गांधीजी के रास्ते पर चलना जंगली जीवन जीने जैसा होगा। इस बात का क्या उत्तर होगा? जब आदि मानव थे तो उन्होंने ही सबसे ज्यादा आविष्कार किये, सदैव नई खोज करना मनुष्य का स्वाभाव है। गांधीजी तो पुरातनपंथी कतई न थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?”  as  ☆ Did the ocean churning happen only once? ☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? ☆

 …. फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा होता है, वह क्या है?… विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर!

… समुद्र मंथन क्या सचमुच एक बार ही हुआ था..?

मंथन शाश्वत है, सृजन शाश्वत है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature – Poetry – ☆ Did the ocean churning happen only once? ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry “समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?” published in today’s edition as ☆ संजय दृष्टि  – समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? ☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.   )

☆ Did the ocean churning happen only once? ☆

 If so, then what is this constant, unending form of churning in the mind?  The demons are also inside, the deities are also within!… And, the desire to allure the world by becoming Mohini*, the  enchantress, is also inside!

… Did the sea-churning really happen only once ..?

Churning is eternal; and so is the creation…

*Mohini** is the female avatar of the Hindu god Vishnu. She is portrayed as a femme fatale, an enchantress, who maddens lovers, sometimes leading them to their doom.

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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