(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “मिले दल मेरा तुम्हारा ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 11 ☆
☆ मिले दल मेरा तुम्हारा ☆
मुझे कोई यह बताये कि जब हमारे नेता “घोड़े” नहीं हैं, तो फिर उनकी हार्स ट्रेडिंग कैसे होती है ? जनता तो चुनावो में नेताओ को गधा मानकर “कोई नृप होय हमें का हानि चेरी छोड़ न हुई हैं रानी” वाले मनोभाव के साथ या फिर स्वयं को बड़ा बुद्धिजीवी और नेताओ से ज्यादा श्रेष्ठ मानते हुये,मारे ढ़केले बड़े उपेक्षा भाव से अपना वोट देती आई है।ये और बात है कि चुने जाते ही, लालबत्ती और खाकी वर्दी के चलते वही नेता हमारा भाग्यविधाता बन जाता है और हम जनगण ही रह जाते हैं। यद्यपि जन प्रतिनिधि को मिलने वाली मासिक निधि इतनी कम होती है कि लगभग हर सरकार को ध्वनिमत से अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के बिल पास करने पड़ते हैं, पर जाने कैसे नेता जी चुने जाते ही बहुत अमीर बन जाते हैं।पैसे और पावर ही शायद वह कारण हैं कि चुनावो की घोषणा के साथ ही जीत के हर संभव समीकरण पर नेता जी लोग और उनकी पार्टियां गहन मंथन करती दिखती है।चुपके चुपके “दिल मिले न मिले,जो मिले दल मेरा तुम्हारा तो सरकार बने हमारी ” के सौदे, समझौते होने लगते हैं, चुनाव परिणामो के बाद ये ही रिश्ते हार्स ट्रेडिंग में तब्दील हो सकने की संभावनाओ से भरपूर होते हैं।
“मेरे सजना जी से आज मैने ब्रेकअप कर लिया” वाले सेलीब्रेशन के शोख अंदाज के साथ नेता जी धुर्र विरोधी पार्टी में एंट्री ले लेने की ऐसी क्षमता रखते हैं कि बेचारा रंगबदलू गिरगिटान भी शर्मा जाये।पुरानी पार्टी आर्काईव से नेताजी के पुराने भाषण जिनमें उन्होने उनकी नई पार्टी को भरपूर भला बुरा कहा होता है, तलाश कर वायरल करने में लगी रहती है।सारी शर्मो हया त्यागकर आमआदमी की भलाई के लिये उसूलो पर कुर्बान नेता नई पार्टी में अपनी कुर्सी के पायो में कीलें ठोंककर उन्हे मजबूत करने में जुटा रहता है।ऐसे आयाराम गयाराम खुद को सही साबित करने के लिये खुदा का सहारा लेने या “राम” को भी निशाने पर लेने से नही चूकते । जनता का सच्चा हितैषी बनने के लिये ये दिल बदल आपरेशन करते हैं और उसके लिये जनता का खून बहाने के लिये दंगे फसाद करवाने से भी नही चूकते।बाप बेटे, भाई भाई, माँ बेटे, लड़ पड़ते हैं जनता की सेवा के लिये हर रिश्ता दांव पर लगा दिया जाता है।पहले नेता का दिल बदलता है, बदलता क्या है, जिस पार्टी की जीत की संभावना ज्यादा दिखती है उस पर दिल आ जाता है।फिर उस पार्टी में जुगाड़ फिट किया जाता है।प्रापर मुद्दा ढ़ूढ़कर सही समय पर नेता अपने अनुयायियो की ताकत के साथ दल बदल कर डालता है। वोटर का दिल बदलने के लिये बाटल से लेकर साड़ी, कम्बल, नोट बांटने के फंडे अब पुराने हो चले हैं।जमाना हाईटेक है, अब मोबाईल, लेपटाप, स्कूटी, साईकिल बांटी जाती है।पर जीतता वो है जो सपने बांट सकने में सफल होता है।सपने अमीर बनाने के, सपने घर बसाने के, सपने भ्रष्टाचार मिटाने के।सपने दिखाने पर अभी तक चुनाव आयोग का भी कोई प्रतिबंध नही है।तो आइये सच्चे झूठे सपने दिखाईये, लुभाईये और जीत जाईये।फिर सपने सच न कर पाने की कोई न कोई विवशता तो ब्यूरोक्रेसी ढ़ूंढ़ ही देगी।और तब भी यदि आपको अगले चुनावो में दरकिनार होने का जरा भी डर लगे तो निसंकोच दिल बदल लीजीयेगा, दल बदल कर लीजीयेगा।आखिर जनता को सपने देखने के लिये एक अदद नेता तो चाहिये ही, वह अपना दिल फिर बदल लेगी आपकी कुर्बानियो और उसूलो की तारीफ करेगी और फिर से चुन लेगी आपको अपनी सेवा करने के लिये।ब्रेक अप के झटके के बाद फिर से नये प्रेमी के साथ नया सुखी संसार बस ही जायेगा।दिल बदल बनाम दलबदल, लोकतंत्र चलता रहेगा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “हाउसवाइफ ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆
☆ हाउस वाइफ ☆
वह भरे-पूरे परिवार में रहती थी जहा उसे काम के आगे कोई फुर्सत नहीं मिलाती थी. मगर फिर भी वह उस मुकाम तक पहुच गई जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है.
उस ने कई दिग्गजों को हरा कर “मास्टर शेफ” का अवार्ड जीता था. यह उस की जीवन का सब से बड़ा बम्पर प्राइज था.
“आप अपनी जीत का श्रेय किसे देना चाहती है ?” एक पत्रकार ने उस से पूछा
“मैं एक हाउस वाईफ हूँ और मेरी जीत का श्रेय मेरे भरे- पूरे परिवार को जाता है जिस ने नई-नई डिश की मांग कर-कर के मुझे एक बेहत्तर कुक बना दिया. जिस की वजह से मैं ये मुकाम हासिल कर पाई हूँ.”
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। मैं श्री सुजीत जी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजीत जी की कलम का जादू ही तो है! निश्चित ही श्री सुजित जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में हृदयस्पर्शी कविता “मी….!”। )
भावार्थ : वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते हैं।18।।
Sages look with an equal eye on a Brahmin endowed with learning and humility, on a cow, on an elephant, and even on a dog and an outcaste. ।18।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ नाट्यकर्मी श्री वसंत काशीकर जी का हृदय से आभार। आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री काशीकर जी द्वारा परसाई जी की रचना का नाट्य रूपान्तरण “सदाचार का तावीज “।)
नाटक – सदाचार का तावीज
सूत्रधार – एक राज्य में बहुत भ्रष्टाचार था, जनता में बहुत ज्यादा विरोध था। लोग हलाकान थे। समझ में नही आ रहा था कि भ्रष्टाचारियों के साथ क्या सलूक किया जाये। बात राजा के पास पहुंची।
(लोग राज दरबार को दृश्य बनाते है)
राजा- (दरबारियों से) प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है। हमें तो आज तक कहीं दिखा। तुम्हें कहीं दिखा हो तो बताओ।
दरबारी- जब हुजूर को नही दिखा तो हमें कैसे दिख सकता है।
राजा- नहीं ऐसा नहीं है। कभी-कभी जो मुझे नही दिखता तुम्हें दिखता होगा। जैसे मुझे कभी बुरे सपने नही दिखते पर तुम्हें दिखते होंगे।
दरबारी- जी, दिखते हैं। पर वह सपनों की बात है।
राजा – फिर भी तुम लोग सारे रज्य में ढूंढकर देखो कि कहीं भ्रष्टाचार तो नहीं हैं। अगर कहीं मिल जाये तो हमारे देखने के लिए नमूना लेते आना। हम भी देखंे कि कैसा होता है।
दरबारी- महाराज वह हमें नही दिखेगा। सुना है वह बहुत बारीक होता है। हमारी आंखें आपकी विरारता देखने की इतनी आदी हो गयी है कि हमें बारीक चीज दिखती ही नही है
हमें भ्रष्टाचार दिखा भी तो उसमें हमें आपकी छबि दिखेगी, क्योकि हमारी आंखों में तो आपकी सूरत बसी है।
दरबारी 2– महाराज अपने राज्य में एक जाति है। जिसे विशेषज्ञ कहते है। इस जाति के पास ऐसा अंजन होता है कि वे उसे आंखों में आंजकर बारीक से बारीक चीज़ भी देख लेते हैं।
दरबारी 3– हां महाराज! हमारा निवेदन है क इन विशेषज्ञों को ही हुजूर भ्रष्टाचार ढूंढने का काम सौंपें।
राजा- ठीक है हमारे सामने ऐसे विशेषज्ञ जाति के आदमी हाजिर किये जाये।
सभी (मुनादी जैसे) – विशेषज्ञ हाजिर हो….
पांच लोग विशेषज्ञ बनकर आते है, उन्हे एक आदमी जानवरों जेसा हांककर लाता है
आदमी- महाराज ये इस राज्य के पांच विशेषज्ञ हैं।
राजा- सुना है, हमारे राज्य में भ्रष्टाचार है, पर वह कहां है, यह पता नही चलता। अगर तिल जाये तो पकड़कर हमारे पास ले आना।
सूत्रधार- विशेषज्ञों ने उसी दिन से पूरे राज्य में छानबीन शुरू कर दी। और दो महीने बाद फिर से दरबार में हाजिर हुए।(दरबार का दृश्य)
राजा- विशेषज्ञों तुम्हारी जांच पूरी हो गई ?
विशेषज्ञ- जी सरकार ।
राजा- क्या तुम्हें भ्रष्टाचार मिला ?
विशेषज्ञ- जी बहुत सारा मिला।
राजा- (हाथ बढाते हुए) – लाओ, मुझे बताओ। देखूं कैसा होता है
विशेषज्ञ 1– हुजूर, वह हाथ की पकड़ में नही आता। वदस्थूल देखा नही जा सकता, अनुभव किया जा सकता है।
राजा– (सोचते हुए टहल रहे है)-विशेषज्ञों तुम लोग कहते हो वह सूक्ष्म है, अगोचर है और सर्वव्यापी है। ये गुण तो ईश्वर के है। तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर हैं ?
विशेषज्ञ(सभी) – हां महाराज, अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है।
दरबारी 1- पर वह है कहां ? कैसे अनुभव होता है।
विशेषज्ञ – वह सर्वत्र है। इस भवन में है। महाराज के सिंहासन में है।
राजा- सिंहासन में…- कहकर उछलकर दूर खडे़ हो गये।
विशेषज्ञ- हां सरकार सिंहासन में है। पिछले माह इस सिंहासन पर रंग करने के जिस बिल का भुगतान किया गया है, वह बिल झूठा है। वह वास्तव से दुगने दाम का है। आधा पैसा बीच वाले खा गये । आपके पूरे शासन में भ्रष्टाचार है और वह मुख्यतः घूस के रूप में है।
(सभी दरबारी एक दूसरे से काना फूंसी करते है,राजा चिंतित है।)
राजा- यह तो बड़भ् चिंता की बात है। हम भ्रष्टाचार बिल्कुल मिटाना चाहते है। विशेषज्ञों क्या तुम बता सकते हो कि वह कैसे मिट सकता है ?
विशेषज्ञ- हां महाराज, हमने उसकी योजना तैयार की है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए महाराज को वर्तमान व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन करने होंगे। भ्रष्टाचार के मौके ही मिटाने होगें। जैसे ठेका है तो ठेकेदार है, ठेकेदार है तो अधिकारियों की घूस हैं। यदि ठेका मिट जाये तो उसकी घूस मिट जायेगी। इसी तरह बहुत सी चीजें है जिन कारणों से आदमी घूस लेता है, उस पर विचार करना होगा।
राजा- अच्छा आप लोग अपनी पूरी योजनाऐं रख जाये। हम और हमारा दरबार उस पर विचार करेंगे
(दरबार का दृश्य समाप्त, विशेषज्ञ चले गये)
सूत्रधार- राजा और दरबारियों ने भ्रष्टाचार मिटाने की योजना को पढ़ा। उस पर विचार करते दिन बीतने लगे और राजा का स्वास्थ बिगड़ने लगा। एक दिन एक दरबारी ने राजा से कहा…
दरबारी 1- महाराज चिंता के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। उन विशेषज्ञों ने आपको झंझट में डाल दिया है।
राजा- हां मुझे रात को नींद नही आती।
दरबारी 2- ऐसी रिपोर्ट को आग के हवाले कर देना चाहिऐ जिसके कारण महाराज की रातों की नींद में खलल पड़ा है।
राजा- पर करें क्या ? तुम लोगो ने भी तों भ्रष्टाचार मिटाने की योजना का अध्ययन किया है। तुम लोगो का मत है क्या ? उसे काम में लाना चाहिए।
दरबारी 3- महाराज यह योजना क्या है, एक मुसीबत है। उसके अनुसार कितने उलटफेर करने पडेंगे। कितनी परेशानी होगी। सारी व्यवस्था उलट-पुलट हो जायेगी।
दरबारी 4- जो चला आ रहा है, उसे बदलने से नई-नई कठिनाईयां पैदा हो सकती है।
दरबारी 1- हमें तो कुछ ऐसी तरकीब चाहिए जिससे बिना कुछ उलटफेर किये भष्टाचार मिट जाये।
राजा- मैं भी यह चाहता हूं पर हो कैसे ? हमारे प्रपितामाह को तो जादू आता था, हमें तो वह भी नही आता। तुम लोग ही कोई उपाय खोजो।
(दरबार का सीन विलोप)
सूत्रधार- सभी दरबारी अलग-अलग दिशाओं में चल पडे़ पूरे राज्य का सरकारी दौरा किया। बिना भ्रष्टाचार में लिप्त हुए पूरा राज्य घूमा। स्थितियों का जायजा लिया। और उपाय खोजते रहे। आखिर उपाय मिल गया। उन्होने एक दिन दरबार में राजा के सामने एक साधु को पेश किया।
(दरबार का दृश्य)
दरबारी 1- महाराज ‘‘एक कन्दरा में तपस्या करते हुए हमने इन महान साधक को देखा, ये चमत्कारी है। इन्होनें एक सदाचार का ताबीज बनाया है। वह मंत्रों से सिद्ध है, इसे पहनते ही आदमी एकदम सदाचारी हो जाता है।
(साधु ने अपने झोले से तबीज निकालकर राजा को दिया)
राजा- हे साधु, इस ताबीज के बारे मंे मुझे विस्तार से बताओ। इससे आदमी सदाचारी कैसे हो जाता है ?
साधु- महाराज, भ्रष्टाचार और सदाचार मनुष्य की आत्मा में होता हैं, बाहर से नही होता। विधाता जब मनुष्य को बनाता है तब किसी की आम्ता में ईमान की कला फिट कर देता है और किसी की आत्मा में बेईमानी की। इस कला में से इमान या बेईमानी के स्वर निकलते है, जिन्हे ‘‘आत्मा की पुकार‘‘ कहतेह है आत्मा की पुकार के अनुसार ही आदमी काम करता है।
राजा- जिनकी आत्मा से बेईमानी के स्वरे निकलते है उनसे कैसे ईमान के स्वर निकाले जायेंगे।
साधु- यही मूल प्रश्न है। मै कई वर्षो से इसी के चिंतन में लगा हूं। अभी मैने यह सदाचार का ताबीज़ बनाया है। जिस आदमी की भुजा पर यह बंधा होगा वह सदाचारी हो जायेगा। मैंने कुत्ते पर भी प्रयोग किया है। यह ताबीज गले में बांध देने से कुत्ता भी रोटी नही चुराता।
(राजा और दरबारी आश्चर्य चकित हैं)
राजा- और कुछ कुछ बताईये इस ताबीज़ के विषय में। इससे तो राज्य में चमत्कार हो जायेगा, ईमान की गंगा बह निकलेगी।
दरवारह कुछ और बताईए साधु जी ?
साधु- बात यह है कि इस ताबीज़ मे भी सदाचार के स्वर निकलते है। जब किसी की आत्मा बेईमानी के स्वर निकलने लगती है तब इस ताबीज़ की शक्ति आत्मा को गला घोंट देती है और आदमी को ताबीज़ के ईमान के स्वर सुनाई पड़ते है। वह इन स्वरों को आत्मा का स्वर समझकर सदाचार की ओर प्रेरित होता है। यही इस ताबीज का गुण है महाराज।
दरबारी- धन्य हो साधु महाराज।
राजा- मुझे नही मालूम था मेरे राज्य में ऐसे चमत्कारी साधु भी है। हम आपके आभारी हैं। आपने हमारा संकट दूर किया। हम सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से परेशान थे। मगर हमें करोड़ो की संख्या में ताबीज चाहिए।
हम राज्य की ओर से ताबीज़ो का एक कारखाना खोल देते है, आप उसके जनरल मैनेजर होगे और आपकी देखरेख में ताबीज़ बनाये जायें।
दरबारी 1- महाराज, राज्य क्यों संकट में पडे़ ? मेरा तो निवेदन है कि इसका ठेका साधु बाबा को दे दिया जाय।
दरबारी 2– हमारा सुझाव है कि साधुबाबा को हरिद्वार में सौ दो सौ एकड़ जमीन दे दी जाय एवं फैक्ट्री खोलने के लिए सरकारी मदद। हरिद्वार पवित्र भूमि है, गंगा किनारे लगी फैक्ट्री से पवित्र सदाचार के ताबीज बनेगें।
राजा – सुझाव मंजूर है। इस पर शीघ्र अमल किया जावे।
(दरबार समाप्त)
सूत्रधार- सरकार की अनुदान योजना के अंतर्गत साधु बाबा हरिद्वार में ताबीज़ बनाने का कारखाना खुल गया। दो सौ करोड़ रूपये तबीज़ सप्लाई करने बतौर पेशगी राजा ने बाबा को दिये। राज्य के अखबारों में खबर आ गई । भ्रष्टाचारियों को चिंता सताने लगी। लाखों ताबीज़ बन गये। हर कर्मचारी की भुजा में सदाचार का ताबीज़ बांध दिया गया।
भ्रष्टाचार की समस्या का ऐसा हल निकल जाने से राजा और दरबारी खुश थे।
एक दिन राजा की उत्सुकता जागी और उन्होंने सोचा पता लगाया जाये सदाचार का ताबीज़ कैसे काम कर रहा है। वह वेश बदलकर एक कार्यालय पहुचें। जिस दिन पहुंचे महिने की दो तारीख थी।
राजा (एक कर्मचारी के पास) – मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (उसे सौ रूपये का नोट ेने लगता है)
कर्मचारी- भाग जा यहां से। घूस लेना पाप है।
राजा खुश होकर चला जाता है – दृश्य लोप
सूत्रधार- राजा बहुत खुश हुए। कुछ दिन बाद राजा फिर वेश बदलकर उसी कर्मचारी पास उसी दफतर में गये उस दिन महिने का आखिरि दिन 31 तारीख थी।
(कार्यालय का दृश्य)
राजा- मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (सौ रूपये का नोट देता है ) कर्मचारी नोट लेकर अपनी जेब में रख लेता है,
राजा (कर्मचारी का हाथ पकड़ते हुए) – मै तम्हारा राजा हूं। क्या तुम आ सदाचार का ताबीज बांधकर नहीं आये।
कर्मचारी- बांधा है सरकार ये देखिये (अस्तीन चढ़ाकर दिखाता है)
सूत्रधार- राजा असमंजस में पड़ गये, सोचने लगे ताबीज़ पहनने के बाद भी ऐसा कैसे हुआ ? क्या ताबीज़ का असर कम हो गया है। राजा ने ताबीज़ पर कान लगाया और सुना –
(सभी कलाकार एक विशेष फार्मेशन में राजा कर्मचारी के ताबीज़ के ऊपर कान लगाये है)
आवाज- (एक साथ) अरे आज इक्कतीस तारीख है, आज तो ले ले …
गीत – भरत व्यास
मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चलें और बदी से डरें
ताकी हंसते हुए निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम …
बड़ा कमजोर है आदमी, अभी लाखों है इसमें कमी
पर तू जो खड़ा, है दयालु बड़ा, तेरी कृपा से धरती थमी
दिया तूने हमें जब जनम, तू ही झेलेगा हम सब के गम
नेकी पर चले और बदी से डरे, ताकि हंसते हुए निकले दम
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी का हृदय से आभार।)
संस्मरण – पारदर्शी परसाई
अगस्त 1995, अमेरिका के सेराक्यूज नगर में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, के अधिवेशन में अपना वक्तव्य देकर बैठा ही था कि जबलपुर घर से फोन संदेश मिला…परसाई जी नहीं रहे। कलेजा धक्क, मैं स्तब्ध। मैंने अपने को संभालते हुए आयोजकों को सूचित किया। ‘श्रद्धांजलि का जिम्मा संभाला’ भरे मन से कुछ कहा। अधिवेशन की समाप्ति पर विभिन्न देशों से प्रतिनिधियों ने मुझसे मिलकर संवेदना प्रकट की। देर तक परसाई चर्चा चली। मन शोकाकुल था किंतु गर्व हो रहा था अपने परसाई की लोकप्रियता पर।
दुनिया के 40 देशों तक परसाई पहुंच चुके थे। किंतु, देश प्रदेश में उनका मान था जब तक वह चलने फिरने लायक थे उन्हें मोटर स्टैंड पर भाई रूपराम की पान की दुकान से, श्याम टॉकीज के सामने रामस्वरूप के पान के ठेले के सामने बिछे तख्त पर या यूनिवर्सल बुक डिपो में आसानी से देखा मिला जा सकता था। यदा-कदा वे स्व. नर्मदा प्रसाद खरे के लोक चेतना प्रकाशन और नवीन दुनिया के चक्कर भी लगा लेते थे।
मेरे आग्रह पर वे तकलीफ के बावजूद ‘मित्र संघ’ के कार्यक्रमों में भी आते रहे। परसाई जी से मेरे पितामह स्व. पंडित दीनानाथ तिवारी के आत्मीय सम्बंध थे। मेरा परिचय कब हुआ याद नहीं। मैं उनका मित्र नहीं, स्नेह भाजन था। किंतु उनका व्यवहार सदैव मित्रवत रहा। निकट संपर्क में आया 1957-58 में, जबकि मैं साप्ताहिक परिवर्तन के संपादक स्व. दुर्गा शंकर शुक्ल का सहयोगी बना। परसाई ‘अरस्तु की चिट्ठी’ कॉलम लिखते थे और उसे समय पर लिखवाने का जिम्मा मेरा था। उन दिनों परसाई जी लक्ष्मी बाग में रहते थे। मैं एक दिन पहले ही जाता और अगले दिन का समय ले लेता। दूसरे दिन अक्सर ऐसा होता-मुझे देखते ही वे कहते, अरे तुम आ गए. बैठो चाय पियो। बस अभी हुआ जाता है। मैं समझ जाता कि कॉलम अभी लिखा नहीं गया है। ऐसा समझने का कारण था- परसाई बहुधा एक ‘स्ट्रोक’ में लिखते थे। सो, मैं चाय पी कर, आम के झाड़ के नीचे पड़ी खाट पर बैठ जाता। पूरा होता और मैं उसे लेकर चल पड़ता।
‘परिवर्तन’ छोड़कर मुझे छत्तीसगढ़ जाना पड़ा। एक अरसे बाद लौटा। सतना क्वाटर के सामने की सड़क पर परसाई जी मिल गए. पूछा- बहुत दिनों में दिख रहे हो, कहाँ हो?
मैंने कहा—छत्तीसगढ़ में हूँ।
बोले… क्या कर रहे हो?
मैंने संकोच से कहा—क्या बताऊँ।
उन्होंने कहा—फिर भी क्या कर रहे हो?
मैंने फिर कहा… क्या बताऊँ?
परसाई जी तत्काल बोले—समझ गया मास्टरी कर रहे हो। सोचता रहा इनकी संवेदना युक्त व्यंग दृष्टि के बारे में।
प्रेमचंद स्मृति दिवस का कार्यक्रम था। परसाई जी मुख्य अतिथि थे। प्रेमचंद जी का चित्र मंच पर रखा था, उसमें जो जूता पहने थे, पटा नजर आ रहा था। परसाई जी ने प्रेमचंद के फटे जूते से ही बात शुरू की।
कार्यक्रम के बाद मैं अपने जूते तलाशने लगा… नीचे एक जोड़ी वैसे ही फटे जूते पड़े थे जैसे प्रेमचंद जी ने पहने थे तस्वीर में। तब मैंने ‘नवीन दुनिया’ मैं लिखा था—प्रेमचंद के फटे जूते देखे हरिशंकर परसाई ने, पाये राजकुमार ‘सुमित्र’ ।
मैं परसाई जी को बड़ा भाई मानता था और ‘बड़े भैया’ कहता भी था। यदा-कदा उनके घर जाता चरण स्पर्श करता। वह मना करते। लेकिन जब चलने में असमर्थ हो गए तब पलंग पर पैर फैला कर तकिए से टिककर बैठते थे। तब कहते—लो तुम्हें सुभीता हो गया। अब तो मैं कुछ कर भी नहीं सकता।
बहुधा उनकी ‘चिट’ लेकर नए कवि लेखक मेरे पास आते। लिखा रहता—प्रिय मित्र इन पर ध्यान देना। ‘इन्हें छाप देना’ उन्होंने कभी नहीं लिखा। आज उन ढेर ‘चिटों’ को देखता हूँ, उनके हस्ताक्षर। याद करता हूँ उनका बड़कपन।
सन 1980 के पहले की बात है। मैं बलदेव बाग में नवीन दुनिया प्रेस में बैठा काम कर रहा था। कुर्ता पजामा पहने एक सज्जन ने आकर नमस्कार किया। मैंने उन्हें बैठने का इशारा किया और काम पूरा करने में लग गया। काम निपटा कर पूछा—कहिए.
मैं बशीर अहमद ‘मयूख’ नाम सुनते ही मैं खड़ा हो गया उनसे क्षमा मांगी। सरल ह्रदय ‘मयूख’ जी ने कहा—परसाई जी के पास से आ रहा हूँ, उन्होंने मिलने के लिए कहा। घटना जरा-सी थी लेकिन मेरा मन सजल कर गई.
रानी दुर्गावती संग्रहालय में साहित्य परिषद का एक समारोह था—परसाई जी के सम्मान में। प्रशस्ति पत्र और पुरस्कार राशि लेकर आए थे भाई सोमदत्त। सोमदत्त ने परसाई जी के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्हें प्रशस्ति पत्र सौंपा। परसाई ने टोका असली चीज कहाँ है? सोमदत्त ने मुस्कुराते हुए और उनका राशि का चैक उनकी ओर बढ़ाया। कहा—इसे कैसे भूल सकता हूँ। परसाई जी ने कहा—तुमसे भूल ना हो इसलिए मैंने याद दिलाई.
पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा…
राजर्षि श्री परमानंद भाई पटेल की एक पुस्तक प्रकाशित हुई. पटेल साहब ने परसाई जी का अभिमत जानना चाहा। मुझसे कहा। मैं परसाई जी के पास पहुंचा। कुछ लिखने का आग्रह किया और परसाई जी ने पटेल साहब के अध्ययन की प्रशंसा करते हुए उनके मत से असहमति जताई. मैं प्रसन्न था कि मेरे आग्रह की रक्षा हो गई और पटेल साहब प्रसन्न थे परसाई जी की स्पष्टवादिता से। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की उक्ति है…
‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तो लिख।’
यही परसाई जी का मूल मंत्र था।
जिससे जो कहना होता बिना लाग-लपेट के कह देते… उनकी कहानी है… दो नाक वाला आदमी। कहानी पढ़कर स्व. नर्मदा प्रसाद खरे ने कहा। क्यों यार, यारों पर भी चोट।
परसाई बोले… आपने चोट का मजा लिया यह बड़ी बात है। मेरी चोट प्रवृत्ति पर है।
संस्मरण अनेक है अंत में प्रस्तुत है…
परसाई जी के घनिष्ठ मित्र कवि व्यंग्यकार प. श्रीबाल पांडे जी के जेष्ठ पुत्र शेषमणि की बरात करेली जानी थी। हम सब पांडे जी के घर इकठ्ठे हो गए। परसाई जी ने मेरा बैग बुलाया और उसमें कुछ रख दिया। बारात करेली पहुंची। शाम को मुंह हाथ धोकर हम लोग बैठे। परसाई जी बोले—चलो भाई अब संध्या वंदन हो जाए। फिर उन्होंने मेरे बैग में रखा सामान निकाला। सामान क्या था, अखबारों में लिपटी एक बोतल थी। परसाई जी ने हिला डुलाकर बोतल देखी। सील देखी जो कि सलामत थी। फिर मुझे सम्बोधित करते हुए कहा—यार ज़िन्दगी में तुम पहले आदमी मिले जिसने मेरी अमानत में खयानत नहीं की।
पांडे जी अट्टहास कर बोले—सुमित्र बाहुबली दूध भंडार के ग्राहक हैं। सुरासेवन इनके वश का नहीं ।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। इस विशेषांक के लिए सम्पूर्ण सहयोग एवं अतिथि संपादक के दायित्व का आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार। )
अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग
जब परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी, उसके साल भर बाद हम इस धरती के पिछड़े गांव के चूल्हे के सामने प्रगट रहे होंगे। जब जवान हुए और लिखना पढ़ना शुरू किया तो हमारी महत्वाकांक्षा थी कि बड़े होकर परसाई बनेंगे, पर कालेज के दिनों से जब से परसाई जी के सम्पर्क में आये और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे लम्बा साक्षात्कार लिया फिर हमने परसाई बनने का विचार त्याग दिया। नेपथ्य में चुपचाप थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे।
पूना से प्रतिदिन ई-अभिव्यक्ति पत्रिका श्री हेमन्त बावनकर के संपादन में निकलती है, हेमन्त जी ने वाटस्अप पर मेसेज किया फिर फोन भी किया कि 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिन है आज 20 अगस्त है क्या एक दिन में परसाई पर केंद्रित ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का विशेषांक निकाला जा सकता है हमने उनका मनोबल बढ़ाते हुए सहयोग करने का वचन दिया और प्रेरित किया कि डिजिटल युग में सब संभव है।
हेमन्त बावनकर जी ने तुरत-फुरत वाटस्अप पर सभी को सूचना भेजी हमने दूरभाष पर मित्रों से बात की और मात्र एक दिन में मित्रों से लेख, संस्मरण, रचनाएं आदि ईमेल से प्राप्त कीं। बैंगलोर में बैठे ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के संपादक हेमन्त जी को रचनाएं ईमेल से दनादन भेजीं, परसाई के नाम पर दूर-दराज से मित्रों ने परसाई पर लेख, संस्मरण, आदि भेज दिये और हेमन्त बावनकर जी ने इन्हें सलीके और तरीके से सजा कर परसाई के इस विशेषांक को ऐतिहासिक दस्तावेज में तब्दील कर दिया। इस प्रकार अल्प समय में किया गया प्रयास मुमकिन हुआ। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोक शिक्षण का काम किया।
परसाई जी के जन्मदिन पर डिजिटल माध्यम से उन पर क्रेदिंत अंक का निकलना हमारे समय और समाज तथा ई-अभिव्यक्ति पत्रिका की बड़ी उपलब्धि है। अल्प समय में जिन मित्रों ने तुरत-फुरत रचनाएं भेजीं उनका तहेदिल से आभार। परसाई जी के जन्मदिन पर प्रथम डिजिटल विशेषांक निकालने के लिए पत्रिका के संस्थापक और संपादक श्री बावनकर जी को साधुवाद।
आदरणीय गुरुवर डॉ राजकुमार सुमित्र जी और आचार्य भगवत दुबे जी के आशीर्वाद एवं मित्र द्वय श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के अथक प्रयास तथा डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के सहयोग से विगत 24 घंटों के समय में यह अविस्मरणीय अंक कुछ विलंब से ही सही आपको इस आशा से सौंप रहा हूँ कि आपका भरपूर स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहेगा।
मैं श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इतने कम समय पर अमूल्य सामग्री/साहित्य/अप्रकाशित/ऐतिहासिक तथ्य एवं चित्र जुटाये। साथ ही उनके अतिथि संपादकीय के आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार।
श्रद्धेय परसाई जी पर डिजिटल मीडिया में संभवतः यह प्रथम प्रयास होगा।
हेमन्त बवानकर
22 अगस्त 2019
(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ, ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा। आप Likeके नीचे Share लिंक से सीधे फेसबुक पर भी रचना share कर सकते हैं। )
(परसाई जी अपना जन्मदिन मनाने के कभी भी समर्थक नहीं रहे हैं। किन्तु, हम लोगों ने बिना उनकी अनुमति के सन 1991 में जबलपुर में तीन दिवसीय वृहद् जन्मदिन का आयोजन करने का साहस किया था, जिसमें भारतीय स्टेट बैंक ने भी उनका सम्मान किया था।। अब तो परसाई का जन्मदिन मनाये जाने की होड़ सी लगी है अब सबको लगने लगा है कि परसाई का जन्मदिन मनाने से धन एवं यश मिलता है। – जय प्रकाश पाण्डेय)
स्मृतियाँ –
भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री जाखोदिया भोपाल से परसाई को सम्मानित करने उनके घर गए थे।
इस चित्र में परसाई जी के साथ बाल नाट्यकर्मियों का दल है जिन्होंने सदाचार का तावीज रचना पर नाटक किया था। प्रसिद्ध नाट्यकार श्री वसंत काशीकर जी द्वारा लिखित यह नाटक हम इसी अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।
इस तरह गुजरा जन्मदिन“
– हरिशंकर परसाई
(अपने जन्मदिन पर उन्होने एक व्यंग्य-संस्मरण लिखा था “इस तरह गुजरा जन्मदिन”। उनका यह व्यंग्य-संस्मरण हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।)
तीस साल पहले 22 अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने बड़े स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अचकचा गया। मैंने पूछा यह क्यों? उन्होंने कहा आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं 22 अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गए। हम दोनों अटपटे से और बैचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आयी वे मिठाई की आशा कर रहे होंगे। मेरी टेबल में फूल भी नहीं थे वे समझ गए होंगे कि सबेरे से इनके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आए हैं और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक भी नहीं समझा तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की, धिक्कारते होगें कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है मगर जन्मदिन मनवाने का इंतजाम नहीं कर सका, इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ अपने जन्मदिन के समारोह का इंतजाम खुद करने वाले मैने देखे हैं जन्मदिन ही क्यों स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं जैसे दूसरे लोग उन्हें यह कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गए तो कहा – परसौं शाम के आयोजन में आना भूलिए मत। फिर बोले – मुझे क्या मतलब? आप लोग आयोजन कर रहे हैं आप जानें।
चार – पांच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था उस साल मेरे दो – तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिए जिनके ऊपर छपा था 22 अगस्त जन्मदिन के अवसर पर। मेरी जन्म तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है यह गलत है वास्तव में सन 1922 है।। मुझे पता नहीं मेट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी “ओवरएज” नहीं हो जाऊं। इसका मतलब है झूठ की परंपरा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं “ओवरएज” नहीं हो जाऊं मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में “अंडरएज” हूं।
लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई बुला ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार – पांच मिठाई का डिब्बा लाए। और इतने में निपट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन – – चार के लिए मिठाई रखी पांचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आ गये फिर हर तीन चार के बाद हर कोई मिठाई लिए आता मिठाई बहुत बच गई, चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया, परिवार और पडोस के बच्चे दो तीन दिन खाते रहे।
इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहिले से हो गया। सुर्य ग्रहण चन्द्रग्रहण के घंटों पहले उसके “वेद” लग जाते हैं ऐसा पंडित बताते हैं “वेद” के समय में कुछ लोग नहीं खाते। वेद यानी वेदना…. राहू केतु के दांत गडते होगें न। मेरा खाना पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में। पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग। प्रगतिशील लेखक संघ के संयोजक जय प्रकाश पाण्डेय आये और बोले – इक्कीस तारीख की शाम को एक आयोजन रखा है उसमें एक चित्र प्रदर्शनी है और आपके साहित्य पर भाषण है। बिहार के गया से डाॅ सुरेंद्र चौधरी आ रहें हैं भाषण देने। अंत में आपकी कहानी “सदाचार के ताबीज” का नाटक है। मैंने कहा – नहीं नहीं बिलकुल कोई आयोजन मत करो। मैं बिल्कुल नहीं चाहता। जय प्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मैं आपकी मंजूरी नहीं ले रहा हूं, आपको सूचित कर रहा हूं। आपको रोकने का अधिकार नहीं है। आपने लिखा और उसे प्रकाशित करवा दिया अब उस पर कोई भी बात कर सकता है। इसी तरह आपके जन्मदिन को कोई भी मना सकता है, उसे आप कैसे और क्यों रोकेंगे।
वहीं बैठे दूसरे मित्र ने कहा – हो सकता है मुंबई में हाजी मस्तान आपके जन्मदिन का उत्सव कर रहे हों तो। आप क्या उन्हें रोक सकते हैं। तर्क सही था, मेरे लिखे पर मेरा सिर्फ़ रायल्टी का अधिकार है मेरा जन्मदिन भी मेरा नहीं है और मेरा मृत्यु दिवस भी मेरा नहीं होगा। यों उत्सव, स्वागत, सम्मान का अभ्यस्त हूँ फूल माला भी बहुत पहनी है गले पडी माला की ताकत भी जानता हूं। अगर शेर के गले में किसी तरह फूलमाला डाल दी जाए तो वह भी हाथ जोड़कर कहेगा – मेरे योग्य सेवा…….. आशा है कि अगले चुनाव में आप मुझे ही वोट देंगे।
आकस्मिक सम्मान भी मेरा हुआ। शहर में राज्य तुलसी अकादमी का तीन दिवसीय कार्यक्रम था, जलोटा का तुलसीदास के पद गाने के लिए बुलाया गया था। पहले दिन सरकारी अधिकारी मेरे पास आए, कार्यक्रम की बात की।फिर बोले कल सुबह पंडित विष्णुकांत शास्त्री और पंडित राममूर्ति त्रिपाठी पधार रहे हैं। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता वाले से मेरी कई बार भेंट की है, त्रिपाठी जी से भी अच्छे संबंध है। अधिकारी ने कहा – वे आपसे भेंट करेंगे ही उन्हें कब ले आऊं ? मैंने कहा – कभी भी तीनेक बजे ले आईये।। दूसरे दिन सबसे पहले जलोटा आये। फिर तीन प्रेस फोटोग्राफर आये। मैं समझा ये लोग।हम लोगों का चित्र लेगें, फिर पंडित शास्त्री और पंडित त्रिपाठी कमरे में घुसे। मेरे मुँह से निकला……..
“सेवक सदन स्वामि आगमनू
मंगल करन अमंगल हरनू”
शास्त्री ने कहा – नहीं बंधु बात यों है “एक घड़ी आधी घड़ी में पुनि आय, तुलसी संगत साधू की हरै कोटि अपराध”
हम बात करने लगे। इतने में वही सरकारी अधिकारी ने जाने कहां से एक थाली लेकर मेरे पीछे से प्रवेश कर गए थाली में नारियल, हल्दी, कुमकुम अक्षत और रामचरित मानस की पोथी थी। पुष्पमाला भी थी। मैं समझा कि विष्णुकांत शास्त्री का सम्मान होना है, मैंने कहा बहुत उचित है शास्त्री कब कब कलकत्ता से आते हैं उनका सम्मान करना चाहिए। शास्त्री जी बोले – नहीं महराज, आपका सम्मान है ।
वे लोग चकित रह गए जब मैंने उसी क्षण अपना सिर टीका करने के लिए आगे बढ़ा दिया वे आशा कर रहे थे कि मैं संकोच बताऊंगा, मना करूंगा मैंने टीका करा लिया, माला पहिन ली नारियल और पोथी ले ली।
दूसरे दिन अखबारों में छपा – तुलसी अकादमी वाले दोपहर को परसाई जी के घर में घुस गए और उनका सम्मान कर डाला…….
ऐसी बलात्कार की खबरें छपती हैं। इक्कीस तारीख की शाम को (बर्थडे ईन) एक समारोह मेरी अनुपस्थिति में हो गया। भाषण, चित्र, प्रदर्शनी, नाटक।
दूसरे दिन जन्मदिन की सुबह थी। मैं सोकर उठा ही था कि पडोस में रहने वाले एक मित्र दम्पति आ गये, मुझे गुलदस्ता भेंट किया और एक लिफाफा दिया। बोले – हैप्पी बर्थडे। मेनी हैप्पी रिटर्न। मैंने सुना है कि मातमपुरसी करने गए एक सज्जन के मुंह से निकल पड़ा था – – मेनी हैप्पी रिटर्न। कम अग्रेजी जानने से यही होता है। एक नीम इंग्लिश भारतीय की पत्नी अस्पताल में भर्ती थी, उनको एंग्लो इंडियन पडोसिन ने पूछा – मिस्टर वर्मा हाऊ इज योर वाइफ ? वर्मा ने कहा – आन्टी, समथिंग इज बैटर दैन नथिंग…….. गुलदस्ता मैंने टेबिल पर रख दिया। उसके बगल में लिफाफा रख दिया। खोला नहीं…. समझा शुभकामना का कार्ड होगा। पर मैंने लक्ष्य किया कि दम्पति का मन बातचीत में नहीं लग रहा था। वे चाहते थे कि मैं लिफाफा खोलें। और मैंने खोला उसमें से एक हजार एक रूपये के नोट निकले। “इसकी क्या जरूरत है” जैसे फालतू वाक्य बोले बिना रूपये रख लिए। सोचा – इसी को “गुड मॉर्निंग” कहते हैं आगे सोचा कि अगले जन्मदिन पर अखबार में निवेदन प्रकाशित करवा दूंगा कि भेंट में सिर्फ रूपये लाएं। पुनर्विचार किया…… ऐसा नहीं छपवाऊंगा। हो सकता है कोई नहीं आये। अरे उपहारों का ऐसा होता है कि आपने जो टैबिल लैम्प किसी को शादी में दिया है वही घूमता हुआ किसी शादी में आपके पास लौट आता है।
रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया। नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। मेरे एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले अपनी तीन लड़कियों की शादी कर डाली मैंने कहा – तुम दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमी में से एक हो। भीम तो वीर थे…. महा पराक्रमी थे पर उन्हें तीन लड़कियों की शादी करनी पड़ती तो चूहे हो जाते। जिजीविषा विकट शक्ति होती है। लोग खुशी से भी जीते हैं और रोते हुए भी जीते हैं। प्रसिद्ध इंजीनियर “भारत रत्न” डॉ विश्वैसरैया सौ साल से ज्यादा जिए उनके 100 वें जन्मदिन पर पत्रकार ने उनसे बातचीत के बाद कहा – अगले जन्मदिन पर आपसे मिलने की आशा करता हूं। विश्वैसरैया ने जबाब दिया – क्यों नहीं मेरे युवा मित्र… तुम बिल्कुल स्वास्थ्य हो। यह उत्साह से जीना कहलाता है और और तो और वे बुढऊ भी जीते हैं जिनकी बहुएं उन्हें सुनाकर कहती हैं – – – भगवान् अब इनकी सुन क्यों नहीं लेता? जिंदगी के रोग का और मोह का कोई इलाज नहीं। मृत्यु भय आदमी को बचाने के लिए तरह तरह की बातें कहीं जातीं हैं कहते हैं शरीर मरता है आत्मा तो अमर है व्यास ने कृष्ण से कहलाया – – – जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म दैख सकती है। नहीं, मस्तिष्क का काम बंद होते ही चेतना खत्म हो जाती है मगर………
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,,
दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है,”
गालिब के मन में पर मौत छाई रहती थी। कई शेरों में मौत है पता नहीं ऐसा क्यों है शायद दुखों के कारण हो,
(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी का हृदय से आभार। आपने ।ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए यह संस्मरण दूरभाष पर साझा किया इसके लिए हम आपके पुनः आभारी हैं। )
परसाई जी – अमिट स्मृति
परसाई जी का संपर्क एक स्वप्न की तरह लगता है। उनके विराट व्यक्तित्व की छवि अभी भी हृदय में अमिट है। मैंने काफी समय बाद लिखना शुरू किया था। मुझे उनके एक शब्दचित्र ने सदैव मेरे हृदय को स्पर्श किया है। वैसे परसाई जी ने जितने शब्दचित्र लिखे हैं, उनमें आम व्यक्ति ही ज्यादा हैं। उनमें भी परसाई जी ने मनीषी जी और उनकी बांसुरी का चित्रण कर मनीषी जी जैसे लोगों को अमर कर दिया है।
एक स्मृति और मुझे याद आती है। उनसे मेरी अंतिम भेंट उस समय हुई जब वे पैरों से असमर्थ होने के कारण उठ नहीं सकते थे। मैं अपनी बेटी के साथ उनसे मिलने पहुंचा। उनसे अनुरोध किया कि बेटी के लिए पी एच डी के लिए कोई उचित सलाह दें। उन्होने बड़े ही आत्मीयता से हमारी बात सुनी और बेटी को सलाह दी कि वह ‘महाकवि भवभूति जी’ पर संस्कृत में कार्य करें। यह बात अलग है कि बाद में बेटी का विवाह हो गया और वह अपनी पी एच डी नहीं कर पाई किन्तु, वह विशिष्ट भेंट हमें सदा उनकी याद दिलाती रहेगी।