हिन्दी साहित्य – ☆ अटल स्मृति – कविता ☆ अटलजी आप ही ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई उनकी एक कविता “अटलजी आप ही”। )

अटलजी आप ही ☆ 

शीतल कवि मन के व्यक्ति थे आप
संयम का बल रूप थे आप ।

धीरे धीरे सीढ़ी चढते गये आप 
मुस्कुराकर मुश्किलों को सुलझाते गये आप ।

सरल वाणी से आकर्षित करते गये आप
कठोर निर्णय से हानि को टालते रहे आप ।

 देश का अपमान सह ना सके आप
 दृढ़ निश्चय का प्रण लेते थे आप।

शत प्रतिशत सर्वगुण संपन्न थे आप
हर क्षेत्र मे सफलता का शिखर बने आप ।

सुहाना सफर अकेला मुसाफिर थे आप 
सबके दिलों मे घर कर चांद बन गये आप।

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

 

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रंगमंच – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – नाटक – ☆ स्वतन्त्रता दिवस ☆ – डॉ .कुँवर प्रेमिल

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 
डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  द्वारा स्वतन्त्रता दिवस  के अवसर पर  रचित  सामाजिक चेतना का संदेश देता हुआ एक नाटक  “स्वतन्त्रता दिवस “। ) 

 

☆ नाटक – स्वतन्त्रता दिवस

 

एक मंच पर कुछेक पुरुष-महिलाएं एकत्रित हैं। वे सब विचारमग्न प्रतीत होते हैं। मंच के बाहर पंडाल में भी कुछेक पुरुष-महिलाएं-बच्चे बड़ी उत्सुकता से मंच की ओर देख रहे हैं।

तभी एक विदूषक जैसा पात्र हाथ में माइक लेकर मंच पर पहुंचता है।

विदूषक – भाइयों-बहिनों आज स्वतन्त्रता दिवस है। आज के दिन हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। तभी न हम सिर उठाकर जीते हैं। अपना अन्न-पानी खाते-पीते हैं।

‘हम स्वतंत्र हैं’ – कहकर-सुनकर कितना अच्छा लगता है। बोलिए, लगता है कि नहीं। ‘

पंडाल से –  आवाजें आती हैं अच्छा लगता है जी बहुत अच्छा लगता है, बोलो स्वतन्त्रता की  जय, स्वतन्त्रता दिवस की जय।

(सभी स्त्री-पुरुष स्वतन्त्रता की जय बोलते हैं।)

मंच से – तभी एक महिला ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगती है- ‘अरे काहे की स्वतन्त्रता, और कैसा स्वतन्त्रता दिवस। हम महिलाएं कुढ़-कुढ़कर जिंदगी व्यतीत करती हैं। शक का साया उन पर पूरी जिंदगी छाया रहता है।  उन्हें अविश्वास में जीना पड़ता है। न पति न सास-ससुर कोई उनकी नहीं सुनता है। जिनकी अभिव्यक्ति समाज-परिवार के साथ गिरवी रखी हो, उनकी कैसी स्वतन्त्रता। कपड़े-लत्ते, गहने सब दूसरों की पसंद के, उनका अपना कुछ नहीं है। बच्चे भी वे दूसरों की अनुमति के बिना पैदा नहीं कर सकतीं।  इक्कीसवीं सदी में भी उनकी हालत हंसी-मज़ाक से कम नहीं है।

पंडाल से – तभी पंडाल से एक आदमी बिफरकर बोला – स्त्रियों का हम पुरुषों पर मिथ्या आरोप है। हम पूरी कोशिश करते हैं उन्हें प्रसन्न रखने की फिर भी वे पतंग सी खिंची रहती हैं। हम उत्तर-दक्षिण कहेंगे तो वे पूरब-पश्चिम कहेंगी। माँ-बाप उलटे हमें ‘औरत के गुलाम’ कहकर पुकारते हैं। मज़ाक उड़ाते हैं।  छींटाकशी करते हैं। हमें तो इधर कुआं उधर खाई है। साथ में जग हँसाई है।

मंच से – एक बूढ़ा एक बूढ़ी लगभग रोते हुए बोले – ‘हमें न तो बहू पसंद करती है न हमारा सपूत ही। हमारी जमीन-जायदाद पर अपना हक बताते हैं पर सेवा से जी चुराते हैं।

बहुएँ वक्र चाल चलती हैं। पुत्र बहुओं के मोह जाल में फँसकर उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। अवसान होती जिंदगी का आखिर रखवाला कौन है? मँझधार में हमारी जीवन-नैया है। बेहोशी में नाव खिवैया है। उनके पास हमारे लिए समय नहीं है। ये हमें तिल-तिल जलाते हैं। हमें वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं।

पंडाल से – तभी कुछ लड़के-लड़कियां पंडाल में उठकर खड़े होकर शुरू हो जाते हैं। हमारे दादा-दादी की मुसीबतें हमसे देखी नहीं जाती हैं। पूछा जाए तो उन्हीने हमें पाला है। माताएँ हमें दादी के पास सुलाकर खुद निर्विघ्न सोती हैं। बेचारी दादी रात भर हमारे गीले कपड़े बदलती हैं। खुद गीले में सॉकर हमें सूखे में सुलाती हैं।

दादाजी लोग बिस्कुट – टॉफी – खिलौने, बाल मेगज़ीन ला लाकर देते हैं।  बिजली जाने पर दादियाँ रात भर अखबार से मच्छर उड़ाकर हमें चैन की नींद सुलाती हैं।  आखिर क्यों है ऐसा?  क्या कोई हमें बताएगा?

(मंच एवं पंडाल दोनों में अफरा-तफरी मच जाती है।  छोटा सा नाटक जी का जंजाल बन जाता है। किसी को क्या पता था कि इतनी बड़ी उलझन आकार खड़ी हो जाएगी।)

विदूषक बोला – हम सब आखिर अंधे कुएं के मेंढक ही साबित हुए। ऐसे में तो परिवार उजाड़ जाएंगे हम सब एक दूसरे पर आरोप ही लगाते रह जाएँगे। परिवार/समाज में मोहब्बत के बीज कौन डालेगा?  समाज में जो घाट रहा है – अक्षम्य है।  ऐसे में मेलजोल की भरपाई कब होगी। कब पूरा परिवार होली-दशहरा-रक्षाबंधन-स्वतन्त्रता दिवस हंसी-खुशी मनाएगा।

कब बच्चे मौज में नाचेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी कब आँगन में रांगोली डालेंगे। कब दादा सेंतकलाज बनाकर बच्चों को उपहार बांटेंगे। कब दादा-दादी के दुखते हाथ-पैर दबाये जाएंगे। बच्चों को कब रटंत विद्या, घोंतांत पानी से निजात मिलेगी। कब प्यार-स्नेह-आत्मीयता से छब्बीस जनवरी मनेगी।

माइक बजाकर राष्ट्रगीत बजाकर मोतीचूर के लड्डू बांटने से कुछ नहीं मानेगा।  केवल स्वतन्त्रता रटने भर से स्वतन्त्रता का एहसास नहीं होगा।  जब तक आपस में प्यार-मोहब्बत,  आदर-सेवभाव, विनम्रता विकसित नहीं होगी, असली स्वतन्त्रता के दर्शन नहीं होंगे। कभी नहीं होंगे। बोलिए – स्वतन्त्रता दिवस की जय, भाई-चारे की जय, माता-पिता की जय-गुरुओं कि जय।

भाइयों, आजकल न तो पहले जैसे गुरु हैं और न पहले जैसे विद्यार्थी। स्वतन्त्रता दिवस की जय बोलने से पहले यह सब करना होगा। वरना वही ढाक के तीन पात हाथ में लगेंगे। जयहिन्द!

(इतना कहकर विदूषक नाचने लगता है। उसे नाचते देख, मंच और पंडाल में सभी नाचने लगते हैं।)

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता ☆ स्वतंत्रता-मंथन ☆ – सुश्री पल्लवी भारती 

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 

सुश्री पल्लवी भारती 

(सुश्री पल्लवी भारती जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आजादी के सात दशकों बाद भी देशवासियों की चेतना को जागृत करने हेतु स्वतंत्रता के मायनों का मंथन करने पर आधारित उनकी रचना  ‘स्वतन्त्रता मंथन’।)

संक्षिप्त परिचय:

शिक्षा– परास्नातक मनोविज्ञान, बनारस हिन्‍दू विश्वविद्यालय (वाराणसी)

साहित्यिक उपलब्धियाँ– अनेक पुरस्कार, सम्मान, उपाधियाँ प्राप्त, मुख्य पत्र-पत्रिकाओं एवं अनेक साझा काव्य संग्रहों में कविता एवं  कहानियाँ प्रकाशित।

 

स्वतंत्रता-मंथन 

 

विद्य वीरानों में सँवरती, कब तक रहेगी एक माँ?

घुट रही वीरों की धरती, एक है अब प्रार्थना।

ना रहे ये मौन तप-व्रत, एक सबकी कामना।

मानवता पनपें प्रेम नित्-नित्, लहु व्यर्थ जाए ना॥

 

हो रहे हैं धाव ऐसे, कर उन्मुक्त कालपात्र से।

है बदलते भाव कैसे, संत्रास भाग्य इस राष्ट्र के!

हो भगत-सुखदेव जैसे, वीर सुत जिस राष्ट्र में।

टिक सकेंगे पाँव कैसे, मोहांध धृतराष्ट्र के॥

 

बारूद में धरती धुली, कह रही है वेदना।

इस बलिवेदी की कीर्ति, बन गयी ब्रह्म-उपमा।

अमर गीत क्रांति की, बन गयी जन-चेतना।

स्वयं बद्ध पतनोत्थान की, जग कर रहा है मंत्रणा॥

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

 

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता – रक्षा बंधन – डॉ. हर्ष तिवारी

रक्षा बंधन विशेष 

डॉ हर्ष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है डॉ  हर्ष तिवारी जी , डायनामिक संवाद टी वी .प्रमुख का e-abhivyakti में स्वागत है । आज प्रस्तुत है रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता  रक्षा बंधन ।)

 

? रक्षा बंधन  ?

 

आदमी निकल गया है

इक्कीसवीं सदी के सफर में

बहुत आगे

अब उसके लिए

बेमानी है

सूट के धागे

रिश्ते रिसने लगे हैं

घाव की तरह

रक्षा सूत्र हो गए हैं

कागज की नाव की तरह

कागज की नाव आखिर

किस मुकाम तक जायेगी

वो तो खुद डूबेगी

और

हमें भी डुबायेगी।

 

© डॉ. हर्ष तिवारी

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆

 

☆ घरौंदा ☆

 

घरौंदा

 

मालिक की

नजर पड़ते ही

घोंसले में बैठे

चिड़ा-चिड़ी चौक उठते

और अपने नन्हें बच्चों के

बारे में सोच

हैरान-परेशान हो उठते

गुफ़्तगू करते

आपात काल में

इन मासूमों को लेकर

हम कहां जाएंगे

 

चिड़ा अपनी पत्नी को

दिलासा देता

‘घबराओ मत!

सब अच्छा ही होगा

चंद दिनों बाद

वे उड़ना सीख जाएंगे

और अपना

नया आशियां बनाएंगे’

 

‘परन्तु यह सोचकर

हम अपने

दायित्व से मुख

तो नहीं मोड़ सकते’

 

तभी माली ने दस्तक दी

और घोंसले को गिरा दिया

चारों ओर से त्राहिमाम् …

त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी

आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं

 

जैसे ही उन्होंने

अपने बच्चों को

उठाने के लिये

कदम बढ़ाया

उससे पहले ही

माली द्वारा

उन्हें दबोच लिया गया

और चिड़ा-चिड़ी ने

वहीं प्राण त्याग दिए

 

इस मंज़र को देख

माली ने मालिक से

ग़ुहार लगाई

‘वह भविष्य में

ऐसा कोई भी

काम नहीं करेगा

आज उसके हाथो हुई है

चार जीवों की हत्या

जिसका फल उसे

भुगतना ही पड़ेगा’

 

वह सोच में पड़ गया

‘कहीं मेरे बच्चों पर

बिजली न गिर पड़े

कहीं कोई बुरा

हादसा न हो जाए’

 

‘काका!तुम व्यर्थ

परेशान हो रहे हो

ऐसा कुछ नहीं होगा

हमने तो अपना

कमरा साफ किया है

दिन भर गंदगी

जो फैली रहती थी’

 

परन्तु मालिक!

यदि थोड़े दिन

और रुक जाते

तो यह मासूम बच्चे

स्वयं ही उड़ जाते

इनके लिए तो

पूरा आकाश अपना है

इन्हें हमारी तरह

स्थान और व्यक्ति से

लगाव नहीं होता

 

काका!

तुमने देखा नहीं…

दोनों ने

बच्चों के न रहने पर

अपने प्राण त्याग दिए

परन्तु मानव जाति में

प्यार दिखावा है

मात्र छलावा है

उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?

 

‘हर इंसान पहले

अपनी सुरक्षा चाहता

और परिवार-जनों के इतर

तो वह कुछ नहीं सोचता

उनके हित के लिए

वह कुछ भी कर गुज़रता

 

परन्तु बच्चे जब

उसे बीच राह छोड़

चल देते हैं अपने

नए आशियां की ओर

माता-पिता

एकांत की त्रासदी

झेलते-झेलते

इस दुनिया को

अलविदा कह

रुख्सत हो जाते

 

काश! हमने भी परिंदों से

जीने का हुनर सीख

सारे जहान को

अपना समझा होता

तो इंसान को

दु:ख व पीड़ा व त्रास का

दंश न झेलना पड़ता’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 10 ☆ सपना ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  स्व. माँ  की स्मृति में  एक भावप्रवण कविता   “सपना”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 10 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ सपना 

 

मैं नींद

के आगोश में सोई

लगा

नींद में

चुपके-चुपके रोई

जागी तो

सोचने लगी

जाने क्या हुआ

किसी ने

दिल को छुआ

कुछ-कुछ

याद आया

मन को बहुत भाया

देखा था

सपना

वो हुआ न पूरा

रह गया अधूरा

उभरी थी धुंधली

आकृति

अरेे हूँ मैं

उनकी कृति

वे हैं

मेरी रचयिता

मेरी माँ

एकाएक

हो गई

अंतर्ध्यान

तब हुआ यह भान

ये हकीकत नहीं

है एक सपना

जिसमें था

कोई अपना

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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मराठी साहित्य – रक्षाबंधन विशेष – ☆ बहिणीची माया. . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है रक्षा बंधन पर्व पर  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की   विशेष कविता बहिणीची माया. . . . !)

 

☆ बहिणीची माया. . . . ! ☆

 

बहिणीची माया, एक प्रयास

ठरते अगम्य  उत्कट प्रवास.

बहिणीची माया, स्वप्नील वाट

स्वतःच बनते निश्चल पायवाट.

बहिणीची माया,  प्रवाही भाषा.

नाजूक राखीची , साजूक रेषा.

बहिणीची माया, व्याकुळ वेदना

पावसाने जाणलेली धरणीची संवेदना.

बहिणीची माया, बकुळीचे फूल

वास्तवाच्या परिमलात, आठवणींचे मूल.

बहिणीची माया, आवर्त  भोवऱ्यात .

मनातले दुःख,   मनाच्या रानात .

बहिणीची माया, वास्तल्याचे वावर

संकटाच्या पाणवठ्यावर, सुखाची पाभर.

बहिणीची माया,  अवीट हौस

कधी न सरणारा ,  नखरेल पाऊस.

बहिणीची माया, रेशमी कुंपण

अलवार नात्याची,  हळुवार गुंफण.

बहिणीची माया, कधी कथा, कधी कविता

वाचायला जाताच, डोळ्यात सरीता

बहिणीची माया,  एक फुलवात

काळजाच्या दारात उजेडाची वात.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ आपली नाती आणि आपले ग्रह ☆ – श्रीमति धनश्री कुलकर्णी 

श्रीमति धनश्री कुलकर्णी 

 

(श्रीमति धनश्री कुलकर्णी जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। वे एक संवेदनशील लेखिका और प्रयोगशील  उद्यमी हैं। उन्हें संस्थागत प्रशासन का लगभग 13 वर्षों का अनुभव है। सौ. धनश्री जी भगवत गीता का अभ्यास, अध्ययन और अध्यापन भी करती हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें ज्योतिष शास्त्र का भी ज्ञान है एवं वे सतत अध्ययन कर रही हैं। आज प्रस्तुत है उनका आलेख “आपली नाती आणि आपले ग्रह” जिसमें उन्होने रिश्तों और ग्रहों के सम्बन्धों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।

 

☆ आपली नाती आणि आपले ग्रह ☆

 

घरीदारी सर्वांनी आपल्याला अनुकूल असावे असे वाटत असल्यास आपण हे समजून घेतलं पाहिजे की आपली सर्व नाती आणि आपले ग्रह यांचा थेट संबंध आहे. मी आता कुठे ज्योतिष या विषयाचा थोडा अभ्यास करायला सुरुवात केली, आणि अर्थात स्व:ताची व घरातील मंडळी यांची पत्रिका प्राथमिक अभ्यासासाठी घेतली. आणि मग नाती आणि ग्रह यांचा थेट संबंध 100% आहे असे पटले.

आई चंद्र, वडील सूर्य, भाऊ मंगळ, बहीण (बहीण, मावशी, आत्या) बुध, तुमची पत्नी ही शुक्र तर, सर्व गुरुजन, ज्येष्ठ मंडळी व आपले पितर हे गुरू वडिलांच्या कडील नाती खास करून आजोबा राहू तर आईकडील नाती म्हणजे खास करून मामा हे केतू तर घरातील सेवेकरी मंडळी शनिदेवांचे प्रतिनिधी  आहेत असे लक्षात आले..तुमचं आईशी वागणे चांगले ठेवा, तिची योग्य ती कदर ठेवा तुमचा चंद्र तुम्हांला अनुकूल फळे देईल…मातृदेवो भव चे अक्षरशः पालन करून पहा.. सूर्योपासना कराच पण त्यापेक्षा जास्त पितृदेवो भव या भावाने वडिलांना मान द्या, त्यांच्या कष्टांची जाणीव ठेवून त्यांच्या उतारवयात त्यांना सुखसमाधान कसे मिळेल ते पहा, यश कीर्ती प्रसिद्धी तुमच्या द्वारी चालत येईल, बहिणीचे (बहीण, तिचा पती, तिची मुले) लाड करा, खासकरून ती माहेरी आल्यावर तिला कधीच विन्मुख पाठवू नका, तुमचा व्यापाराची भरभराट झालीच पाहिजे आणि तुमची बुद्धी तुम्हाला कधीच दगा देणार नाही. बहिणीने देखील आपल्या भावाना (मंगळ) नेहमी साहाय्य करावे, आर्थिक शक्य असले तरी उत्तम, नसले तरी मानसिक आधार व कष्टाने देखील सहाय्य करु शकते…भावाशी (पर्यायाने त्याचा संसार, तुमची भावजय, त्यांची मुले) तुमचे चांगले संबंध हे तुमचा पती तुम्हांला नक्कीच अनुकूल होतो,   प्रत्येक पतिने आपल्या पत्नीला असे वागवावे की ती घराची लक्ष्मी आहे, तिला आनंदात ठेवा, सन्मान ठेवा म्हणजे साक्षात लक्ष्मी घरी पाणी भरते याचे प्रत्यंतर येईल. ती घरची लक्ष्मी च असते जीच्या पायांनी वैभवलक्ष्मी घरी येते. याचप्रमाणे घरातील व बाहेरील ज्येष्ठ मंडळी , गुरुजन यांचा सन्मान करण्याने सर्वाधिक शुभग्रह गुरू अधिकाधिक बलवान होतो व त्यांचे आशीर्वाद फलित होत जातात. वडिलांचे आजोबा राहू, स्त्रियांसाठी स्वात:ची सासू तर मामा केतू (दोन पिढ्या आणि पर्यायाने दोन घराणी जोडली जातात) यांची काळजी घ्या राहू केतू अनुकूल झालेच पाहिजेत.

आपल्या घरातील व बाहेरील मदतनीस विशेषतः जे शारीरिक कष्ट करून आपल्याकडून मोबदला घेतात, त्यांची आपण योग्य ती काळजी घेणे  अडी नडीला आर्थिक मदत करणे सणावाराला अधिक मोबदला देणे याने शनिमहाराज आपल्याला अनुकूल होतात व कृपा करतात.आपण आपली सर्व नाती सांभाळू या ग्रह अनुकूल होतीलच आणि पत्रिकेत ग्रह प्रतिकूल दिसतात तरीही पण जर आपण आपल्या नात्यांना बळकट करू तर ते ग्रह देखील अनुकूल होतात…आणि मग नाती देखील बळकट आणि अनुकूल होणारच. सगळ्यात शेवटी एकत्र कुटुंब पध्दतीने राहून एकमेकांचे ग्रह आणि पर्यायाने आयुष्य सुखसमाधानात जगणाऱ्या आपल्या पूर्वजांच्या बुद्धीचे, ज्ञानाचे कौतुक वाटल्याशिवाय कसे राहील! त्याना मनानेच साष्टांग प्रणिपात करून इथेच थांबते.

 

© धनश्री कुलकर्णी, पुणे

मो. 9850896166

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।।11।।

 

तन से,मन से,बुद्धि से,या इंद्रिय से मात्र

योगी करते कर्म सब लिप्ति त्याग शुद्धार्थ।।11।।

      

भावार्थ :  कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।11।।

 

Yogis, having abandoned attachment, perform actions only by the body, mind, intellect and also by the senses, for the purification of the self. ।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – संस्मरण –☆ संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

संजय दृष्टि  –आज़ादी मुबारक
(15 अगस्त 2016 को लिखा संस्मरण)
 मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए  कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।
15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे  छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।
किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई।  रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू- पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।
पता चला कि कॉम्प्लेक्स में काम करनेवाली बाई सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस  सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो  धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को  राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने  ही समझा।
आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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