हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता ☆ एक सुखद संयोग ☆ – डॉ. मुक्ता

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की स्वतन्त्रता दिवस पर एक  सामयिक  कविता   “एक सुखद संयोग ”।)

 

   एक सुखद संयोग

 

70 वर्ष के पश्चात्

धारा 370 व 35 ए

के साथ-साथ वंशवाद

पड़ोसी देशों के हस्तक्षेप से छुटकारा

आतंकवाद से मुक्ति

एक सुखद संयोग

हृदय को आंदोलित कर सुक़ून से भरता

 

स्वतंत्रता दिवस से पूर्व स्वतंत्रता

15 अगस्त से पूर्व 5 अगस्त को

दीपावली की दस्तक

जो अयोध्या में 14 वर्ष के पश्चात् हुई थी

दीवाली से पूर्व दीपावली

पूरे राज्य में प्रकाशोत्सव

 

काश्मीर की 70 वर्ष के पश्चात्

गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्ति

फांसी के फंदे की भांति

दमघोंटू वातावरण से निज़ात

निर्बंध काश्मीर बन गया केंद्र शासित राज्य

विशेष राज्य का दर्जा समाप्त

लद्दाख के लोगों की

लंबे अंतराल के पश्चात् इच्छापूर्ति

 

लद्दाख…एक केन्द्र-शासित प्रदेश

एक लम्बे अंतराल के पश्चात्

स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रतिष्ठित

भाषा व समृद्धि की ओर अग्रसर

 

मात्र चोंतीस वर्षीय युवा सांसद

नामग्याल का भाषण सुन

पक्ष-विपक्ष के नेता अचम्भित

मोदी जी,अमित जी व लोकसभा अध्यक्ष

हुए उसके मुरीद

 

जश्न का माहौल था

पूरे लद्दाख व काश्मीर में

लहरा रहा था तिरंगा झण्डा गर्व से

आस बंधी थी कश्मीरी पंडितों की

उमंग और साध जगी थी

वर्षों बाद घर लौटने की

अपनी मिट्टी से नाता जोड़ने की

उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था

जो छप्पन इंच के सीने ने कर दिखाया

उसकी कल्पना किसी के ज़ेहन में नहीं थी

 

परन्तु हर बाशिंदा आशान्वित था

एक दिन भारत के विश्व गुरू बनने

व अखण्ड भारत का साकार होगा स्वप्न

अब देश में होगा सबके लिए

एक कानून,एक ही झण्डा

न होगी दहशत, न होगा आतंक का साया

मलय वायु के झोंके दुलरायेंगे

महक उठेगा मन-आंगन

सृष्टि का कण-कण

भारत माता की जय के नारे गूंजेगे

और वंदे मातरम् सब गायेंगे

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… ☆ – सौ. सुजाता काळे

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का…)

 

तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… 

 

हे तिरंगा ! तू फहराता

विशाल नभ पर कायम है ।

 

आन बान और शान में तेरी

हर भारतवासी नतमस्तक है।

 

तेरे अंदर शांति का प्रतीक

फिर क्यों हिंसा की हलचल है?

 

कुसुंबी रक्त सबकी धमनी में

फिर क्यों धर्मा धर्म का भेदा भेद है?

 

हरित धरती से अन्न उपजता

फिर क्यों केसरिया- हरा भेद है?

 

तू लहराता आसमान में

तेरी नज़र सब ओर बिछी है ।

 

सीमाओं को बाँटता मानव

सीमा के अन्दर अंधेर मची है ।

 

गरीबों से लिपटी है गरीबी

सस्ती हुई बेकारी क्यों है?

 

ठेर ठेर चलता विवाद है

धर्म के नाम पर क्यों धूम मची है?

 

तू फिरा दे चक्र अशोक का

और मिटा दे अमानुषता।

 

तुझ सा ऊँचा मानव बन जाए

सदा रहे वह अचल अभेद सा।

 

© सौ. सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – लघुकथा ☆ देश प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  द्वारा  स्वतन्त्रता दिवस   के अवसर पर  रचित लघुकथा देश प्रेम । )

 

  देश प्रेम  

 

छोटा सा गांव साधारण बस्ती। हिन्दूओं के मुहल्ले में एक रशीद खान का मकान। मुसलमान होने के कारण उन्हें ज्यादा किसी के दुख सुख में नहीं बुलाया जाता था। परंतु रशीद मियां सब को अपना समझ हमेशा जा कर खड़े हो जाते। चाहे उन्हें कितना भी बुरा भला कहे। गांव में सभी त्योहार खुशियाली से मनाया जाता। रशीद मियां भी सब में शामिल होते। पर सब उनका मजाक उड़ाया करते।

स्कूलों में ध्वजारोहण का कार्यक्रम 15 अगस्त —26 जनवरी का होता तो सब कहते ये रशीद मियाँ देश प्रेम क्या जानेगा? इसे तो कुछ मतलब ही नहीं है। परंतु रशीद मियां सब की बातों को सुन अनसुना कर देते थे। दिन बीतते गए।

15 अगस्त राष्ट्रीय पर्व आया गांव में सभी खुश थे तिरंगा फहराने की बात को लेकर। बाहर से भी आदमी आते थे। इस बार ज्यादा तैयारी हो रही थी क्योंकि  अधिकारियों ने बताया कि एक महत्वपूर्ण पुरस्कार गाँव में किसी व्यक्ति को मिलने वाला है। जिसने अपने होशियारी से गाँव को नष्ट होने से बचा लिया। दुश्मन के मंसूबे  को अपने सूझबूझ से नष्ट किया है। सभी हैरान थे ऐसा कौन सा व्यक्ति है। जिसको इतनी  चिन्ता है। गाँव के सभी लोग एकत्रित हुए। बीच गाँव के स्कूल प्रांगण में सभी कार्य पूर्ण होने के बाद वह घड़ी आ गई जिसका सभी को इंतज़ार था। माइक से एनाउंस किया गया कि आदरणीय रशीद खान आगे आये और ये सम्मान ग्रहण कर हमें अनुग्रहीत करें। सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। किसी के मुँह से कुछ बोल नहीं निकले। रशीद मियाँ को सब मुसलमान कहकर उनका देश प्रेम को लेकर मजाक उड़ाया जाता था। आज उनके कारण ही सब गाँव वाले बच गए और एक नया जीवन मिला। रशीद खान को सम्मानित कर सभी बहुत खुश हुए। पर सभी अपने व्यवहार से शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था हम तो दिखावे में देश भक्ति करते हैं। पर असली देश भक्त तो रशीद खान निकले।

पूरा गांव आज रशीद खान को बधाई दे रहा है और रशीद मियाँ अपने को सब के बीच पा कर बहुत खुश थे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ हमारी स्वतन्त्रता ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता हमारी स्वतन्त्रता )

 

 हमारी स्वतन्त्रता 

 

कहने को हमें स्वतंत्र हुए वर्षों व्यतीत हुए

पर क्या हम सही मायने में स्वतंत्र हो पाए

पाश्चात्य संस्कृति अपनाने से कब चूक पाए

अपने संस्कारों को हृदय में जगह क्या दे पाए ?

 

यह अनगिनत अनगुथे सवाल जहन में

उतरते जाते हैं बस यूं ही कई बार

क्यों हमारे ख्याल पाश्चात्य संस्कृति में गिरफ्त

होकर रह गये पर रहती निरुत्तर हर बार।

 

कैसी विडंबना यह कि अपनी ही संस्कृति व

संस्कार नीरस लगने लगे हैं?

विरासत में मिले कायदे-कानून भी कहीं न

कहीं पांबदी से लगने लगे हैं।

 

माना तरक्की की है हर क्षेत्र में हमने बहुत

पर असली रूतबा खोने लगे हैं

इस भेड़ चाल में फंस स्वार्थप्रस्थ हो अपनी

कर्मठता व शौर्य को पीछे छोड़ने लगे हैं।

 

स्वछंद सही मायने में दरअसल तभी कहलायेंगे

जब मनोबल कभी किसी हाल में न गिरने देंगें

सुनेंगे सबकी, सीखेंगे, समझेंगें हर किसी से पर

आत्मसम्मान व संस्कारों की बलि न चढ़ने देंगें।

 

उन सब परतन्त्रता की बेड़ियों को तोड़ देगें जो हमारी

जन्मभूमि के हित में न हो जिनके लिए स्वतंत्र हुए

तब जाकर हम सही मायने में यह एहसास फिर कर

पायेंगे वाकई खुली हवा में साँस लेने के काबिल हुए।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ वीर बिजूखा और जुगनू ☆ – सौ. सुजाता काळे

रक्षा बंधन विशेष 

सौ. सुजाता काळे

(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता वीर बिजूखा और जुगनू जो उन्होने उन वीर जवानों के लिए लिखी है जो अपना जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर चुके हैं। रक्षा बंधन पर उनकी विशेष स्मृतियाँ हैं जो हम आपसे साझा कर रहे हैं। उनके ही शब्दों में –    

“हमारी स्कूल महाराणी चिमणाबाई हाईस्कूल, बड़ोदा,   गुजरात से जहाँ मैंने पढ़ाई की, हर साल सैनिकों के लिए राखी और पत्र भेजे जाते हैं और विद्यार्थी स्वयं राखी बनाते हैं । राखी के संग मैंने यह कविता लिखकर भेजी है। हे माँ भारती के वीर सपूतों!  मेरे शूरवीर  भाईयों आपको मेरे शत शत प्रणाम हैं। आपके लिए आपकी बहन की ओर से कविता के रूप में मनोगत प्रस्तुत है। ” – सौ. सुजाता काळे )

 

? वीर बिजूखा और जुगनू  ?

 

सीना तान खड़े रहते हैं,

सभी दर्द सीने में छुपाकर,

यादों को मन में सहलाते,

बर्फीली श्वेत चादर ओढ़कर ।

 

दिल में संजोई ममता को

बारिश संग आँसू में बहाते,

देख न पाता कोई उनको,

किस सागर में जाकर मिलते।

 

कड़ी धूप को चाँदनी बनाते,

कर्तव्य अपना न बिसराते,

कभी बिजूखा या जुगनू बनकर,

आँखों में तारों को सजाते।

 

बाढ़ में घर कभी डूब रहा हो,

सूखे से खेत भी सूख रहा हो,

माँ भारती की रक्षा के लिए,

अपने खून की चुनरी हैं ओढ़ाते।

 

हाथ न बढ़ा सकता हैं कोई,

भारत माँ की आँचल की ओर,

छेदते हो गोलों से  उनके सीने,

जो कदम उठे  भारत की ओर ।

 

आपकी कृतज्ञ बहन,

 

सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ राखी की सौंधी सुगंध ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

रक्षा बंधन विशेष 

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(रक्षा बंधन के विशेष पर्व पर प्रस्तुत है  श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी  अपनी बहनों के लिए रचित कविता “राखी की सौंधी सुगंध“। इस रचना के बारे  श्री भिसे जी के ही शब्दों में

“मेरी सगी बहन तो नहीं है परंतु मेरी ५ चचेरी बहनों का बहुत प्यार मिला. अब वह तो सरुराल चली गई. कभी वह आती हैं तो कभी पतियाँ. परंतु राखी के पर्व पर भाई का इंतजार करना बहन के लिए सौगात से कम नहीं होता है. अपनी बहनों के इंतजार में रची यह रचना. आपको पसंद जरुर आएगी. यह संदेश मेरी उन सभी बहनाओं के लिए है जो अपने भाई से दूर तो है परंतु दिल के करीब…..” – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे)

 

? राखी की सौंधी सुगंध ?

 

मेरी प्यारी बहना,

एक ऐसी राखी जरुर ले आना,

बचपन की यादों की,

सौंधी सुगंध मुझको तू दे जाना.

 

राखी का उत्साह देखा था मैंने,

सुबह उठकर जल्दी माँ से

तोतले बोल रूपए माँगे थे तूने,

याद है आज भी मुझे,

राखी न दे पाई बेबस माँ,

सफ़ेद धागे को कुमकुम कर,

बांध दिया था हाथ पर तूने,

वो राखी का अनुबंद खो गया है कहीं,

वो वापस इस भाई के वास्ते जरुर ले आना

बचपन की …….

 

ढल गया बचपन यौवन हमारे द्वार खड़ा,

यह भाई ही लगता था एक आधार बड़ा,

अब माँ के पास नहीं था कोई बहाना,

राखी के दिन अब एक आँसू नहीं था बहाना,

लाई तू एक राखी मोर पंख से बनी,

नहीं था तेज उसपर था तेरे मुख पर,

देखा जब आरती की थाल जो बनी,

वो राखी के पंख और थाल आज लगती है सूनी

उजड़े सारे रंग उनके वो रंग वापस ले आना,

बचपन की ….

 

हाथ पीले कर एक दिन अपने गाँव तू चली,

राखी पर इंतजार में खड़ा मैं,

प्यार की अपनी वहीँ पुरानी गली,

शाम ढले तू न आई, आई बस एक पाति,

चूमा मैंने, सिर पर ले धरा चिपकाया छाती,

बहना का प्यार उमड़ आया ह्रदय में,

अठखेली देख यह पाति भी गीत है गाती,

‘भाई के प्यार में एक बहना आँसू है बहाती’,

बहना वहीँ पीली हथेली में तेरी मुस्कान ले आना,

बचपन की ….

 

जिम्मेदारियाँ आ गई तुझपर और,

मुझपर भी कुछ आए बंधन,

चाहे बहें मेरी आँखें याद से तेरी,

सिंचाई करना उससे तेरा जीवन हो नंदन,

राखी के दिन याद तू जरुर करेगी मुझको,

एक ही तो भाई है दिल सताएगा तुझको,

संभालकर रिश्तों की डोर दोनों घर की,

लाँघकर परिधि यादें और जज्बात से निकलकर,

वहीँ बचपन की प्यारी बहना जरुर तू ले आना,

बचपन की….

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ रक्षा बंधन ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

रक्षा बंधन विशेष 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित  कविता “रक्षा बंधन”।)

 

? रक्षाबंधन ?

 

राखी है प्रीति मे पगे उपहार का बंधन

भाई बहिन के अति पवित्र प्यार का बंधन

 

नाजुक हैं पर मजबूत है ये रेशमी धागे

बंधन न बडा कोई भी इन धागो के आगे

सुकुमार उँगलियों का मधुर प्यार है इनमें

कोमल कलाइयों की भी झनकार है इनमें

प्यारी बहिन का भाई पे अधिकार का बंधन। राखी है…..

 

यह रस्म नहीं मन की छुपी आस है इनमें

भाई बहिन के रिश्तों का विश्वास है इनमें

इन धागों से दो दूर के संसार बंधे है

भारत की भावनायें और संस्कार बंधे है

राखी है प्यार भरे दो परिवार का बंधन। राखी है…..

 

भाई बहिन के प्रेम की पहचान है राखी

भावों का एक सुख भरा एहसास है राखी

बन्धुत्व के विस्तार का त्यौहार है राखी

राखी बंधी कलाई का प्रिय प्यार है राखी

बहिनों के मन के सपनों की मनुहार है राखी। राखी है…..

 

है हिंद के इतिहास का एक रंग भी इसमें

जब हिंदू बहिन से बाँधा राखी हुमायूँ ने

राखी थी लाज राखी की रानी को बचाने

धर्मो का मर्म समझ भेदभाव भुलाके

राखी है स्नेह के मधुर व्यवहार का बंधन । राखी है…..

 

जब धरती को हर्षाती हैं सावन की घटायें

मनमोर को वनमोर सा रिझाती है घटाये

रक्षा औं प्रीति के गूँथे कई तार है इसमें

भावों का मधुर रसभरा भंडार है इसमें।

इतना सुखद न कोई भी संसार का बंधन। राखी है…..

 

इन रेशमी धागों में है एक सुख भरा संसार

हर मन में जो भर जाता है सावन का मधुर प्यार

आपस के प्रेम भाव का उद्गार है राखी

सावन के सरस माह का श्रृंगार है राखी

भारत के सदाचार सरोकार का बंधन। राखी है…..

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ रक्षा बंधन ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

रक्षा बंधन विशेष 

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा  रक्षा बंधन पर्व पर रचित  विशेष आलेख “रक्षा बंधन”।)

 

? रक्षा बंधन ?

रक्षा बंधन का त्यौहार युगों पुराना है। जिसके स्वरूप का वर्णन  पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं के रुप में यत्र तत्र मिलता है। यह त्यौहार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है। इसीलिए इसे रक्षा बंधन श्रावणी आदि नामों से जाना जाता है। इसके मूल में रिश्तों की मधुर मिठास घुली हुई है। इस दिन बहनें अपने हृदय में भाई के लम्बी उम्र एवं दीर्घायु जीवन की मंगल कामना ले व्रत रखती है, तथा भाई कलाई में  रक्षा सूत्र बांधती है।

इतिहास की गहराई में जाये तो रानी कर्मावती ने रक्षासूत्र  भेज कर ही चित्तौड़ गढ़ की रक्षा की गुहार लगाई थी, और जौहर कर लिया था, तथा हुमायूँ ने चित्तौड़ की रक्षा की थी। इस प्रकार यह त्यौहार जाति धर्म से परे भावुक रिश्तों पर आधारित है।

यह भी ऐतिहासिक उल्लेख है कि पहले राजा महाराजा ब्राह्मणों द्वारा रक्षासूत्र बंधवाकर रक्षा का दायित्व निभाते थे। पौराणिक घटनाओं में  भी रक्षा सूत्रात्मक बंधन का उल्लेख मिलता है। जब इंद्र की पत्नी शची ने अपने तपोबल से रक्षा सूत्र उत्पन्न कर देव गुरु वृहस्पति से इंद्र के हाथों पर बंधवाया था।

शिशुपाल वध के पश्चात सुदर्शन चक्र द्वारा श्रीकृष्ण की उंगली कटने पर द्रौपदी ने अपने आँचल का पल्लू फाड़ कर कृष्ण की उँगली में बाँधा था और कृष्ण ने चीरहरण के समय साड़ी का विस्तार कर द्रौपदी की मर्यादा की रक्षा की। आजकल रक्षा बंधन का त्यौहार प्रतीकात्मक हो गया है। धागों के त्यौहार पर आधुनिकता  हावी हो गई है जिससे उसका मूल स्वरूप नष्ट हो रहा है और दिखावा  प्रधान हो रहा है।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

रक्षा बंधन विशेष 

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  द्वारा रचित  एक ज्ञानवर्धक आलेख जिसके माध्यम से आप मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के त्यौहार “कजलियाँ” से अवगत होंगे जो रक्षाबंधन के आसपास मनाया जाता है। इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की  लघुकथाएं  का विशेष आभार।)

 

?  मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ?

 

भारतवर्ष त्योहारों का देश है। सभी जगह अलग-अलग प्रकार से त्यौहार मनाया जाता है। भारत का हृदय स्थल कहने पर मध्य प्रदेश आता है और मध्य प्रदेश में सभी त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है चैत्र माह की रामनवमी से लेकर फागुन की होली तक अनेक त्यौहार हैं। वैसे ही बुंदेलखंड के मुख्य त्योहारों में से एक कजलियां हैं।  कजलियां सदियों से चली आ रही है वर्षा ऋतु के आगमन और सावन की हरी-भरी वादियों के बीच इस त्यौहार का आना होता है।

जहां पर आगे पीछे रक्षाबंधन राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त भी साथ साथ होता है। सावन में ही भगवान शिव की आराधना भी की जाती है। इस प्रकार सावन का महीना भक्ति, शक्ति और उल्लास से भरा होता है और  हो भी क्यों ना प्रकृति की सुंदरता मानव की सुंदरता से अधिक होती है। यह त्योहार विशेष रूप से खेती किसानी से भी जुड़ा हुआ है। सावन में कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनाया जाता है। उसके दूसरे दिन षष्ठी को गेहूं के दानों को मिट्टी के बर्तनों सकोरे या फिर बड़े किसी चौड़े मुंह वाले बर्तनों पर मिट्टी डालकर गेहूं के बीज बो दिए जाते हैं। और ढक कर रख दिया जाता है रोज शाम संध्या आरती के साथ गाना बजाना होता है। महिलाएं बड़े उत्साह के साथ इसे पूजन करती हैं। धीरे-धीरे कजलियां अपने आप बढ़ने लग जाती हैं जिसे समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन टोली बना बना कर जिसमें बाजे गाजे के साथ सभी महिलाएं बालिकाएं सिर पर कजलियां लिए झूमती गाती नदियों की ओर जाती हैं नदी या तालाब में कजलियां को साफ धोकर मिट्टी बहा दी जाती है। और ऊपर से कजलियां तोड़ कर ले आती हैं। सभी बड़े बुजुर्गों को कजलियां भेंटकर आशीर्वाद लिया जाता है महिलाएं आपस में पक्की दोस्ती का वादा भी करती हैं जिसे आपस में एक दूसरे को हमेशा भोजली कहना पड़ता है।

” भोजली गंगा भोजली गंगा लहर तुरंगा

हमरो भोजली रानी के बाढे आठो अंगा

ह. ओ देवी गंगा ह. ओ देवी गंगा”

गांव में किसान आज भी एक दूसरे की कजलीयां देखने जाते हैं। और अपने अपने पैदावार खेतों का पता लगा लेते हैं। नदी से आने के बाद  कजलीयां कान में लगाया जाता हैं और मीठा खिलाया जाता है।

मध्य प्रदेश में आज भी यह त्यौहार जीवित है। कलियों की एक पुरानी कथा है महोबा के सिंह राजपूतों आल्हा- ऊदल को कौन नहीं जानता इनके वीरता की बखान को आल्हा – ऊदल के दोहे के रूप में गाया जाता है। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा के राजा की सुपुत्री राजकुमारी चंद्रावलि का अपहरण करना चाहा, और चढ़ाई कर दिया उस समय चंद्रावलि तालाब में कजलीयां सिराने  गई थी। आल्हा उदल, मलखान और चेहरे भाइयों के कारण सभी सेना को खदेड़ दिया गया और तभी से कलियों का त्योहार विजय उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा।

एक अन्य कथा है आल्हा – ऊदल दो भाई मां शारदा जो कि सतना के पास ऊंची पहाड़ी पर विराजी है, परम भक्त थे।  कहते हैं, वह कब पूजा करते थे आज तक किसी ने नहीं देखा परंतु मंदिर का पट जब भी खुलता है। मां शारदा के चरणों पर कमल का पुष्प और पूजा का सामान मिलता है। कहते हैं दोनों भाइयों में बहुत गहरा प्यार था एक दिन माता राणी प्रसन्न हो गयी और साक्षात दर्शन देने आ गई। आल्हा उस समय पूजा कर रहा था और ऊदल कुछ सामान लेने गया था मां आल्हा से कहा बोलो तुम्हें क्या चाहिए। आल्हा ने बिना देर किए भाई के प्यार से बंधा कहा हम दोनों हमेशा जीवित रहे, परंतु विधि का विधान तो देखिए हम दोनों का मतलब उस समय उनकी धर्मपत्नी से माना गया क्योंकि धर्म है। भाई ऊदल की मोक्ष की कामना लिए आल्हा बहुत उदास हो गया परंतु मां ने वरदान दे चुकी थी। आज भी गांव में  आल्हा देव की पूजा की जाती है। जब बारिश नहीं होती तो आल्हा- ऊदल पढा जाता है। और कहते हैं इसको गाने से बारिश का होना अनिवार्य है। आज भी शारदा मंदिर में पूजन होता है पट खुलता है। पूजा में कमल के पुष्प चढ़े हुए मिलते हैं। गांव वाले बताते हैं, आज भी आल्हा देव जीवित है। मध्यप्रदेश में कजलियाँ का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4 – Amba’s wrath ☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Amba’s wrath”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4

 

☆ Amba’s wrath ☆

(Denied justice from Bheeshma, a sufferer of fate, Amba seeks justice from God)

 

O life! You have made me a chattel

Loved, lost, owned and dismissed.

And on one leg I stand here on the Himalayas

O God! Before you, to ask for justice.

 

King Shalva I loved, gave away my heart

And accepted I was by pleasure and grace

And yet, taken away from my swayamwar I was

Bheeshma, by virtue of force, caused my disgrace.

 

Owned by Bheeshma, to Vichitrveerya presented

A conquered property I became, exchanging hands

When informed that it was King Shalva I loved

Kind enough they were to understand

 

Went I, to King Shalva, with love in my heart

And…oh! rejected, refused and denied I was

Said he, that he could not have someone as wife

Some other man’s possession who was…

 

With a despondency, I returned

And asked Vichitraveerya to take me as his wife

Declined again, I asked Bheeshma for justice

He was the one, who had changed course of  my life

 

He was the one who had snatched me away

He was the one in whose chariot I sat

Rightfully, I asked him to marry me

And it was then I realized, I had become a doormat

 

Bheeshma rebuffed me, reminded me of his pledge;

Wandered I from place to place, to get even.

Parshurama did help, fought for me-

Unfortunately, against Bheeshma, no one could have won

 

O God! Death of Bheeshma is what I seek

As a revenge for what I had to endure and face

O God! Give me justice, for I know I did not falter

O God! Most humbly, before you, I present my case

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

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