मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #16 – माणूस असला की गरज लागते… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सोलहवीं  कड़ी  माणूस असला की गरज लागते…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि  जीवन  का कोई भी कार्य  किसी  के बिना रुकता नहीं है। समय पर हम उस व्यक्ति का स्मरण अवश्य करते हैं, जो अब नहीं है, किन्तु, कार्य यथावत चलता रहता है।समय हमें समय समय पर शिक्षा देता रहता है बस आवश्यकता है हमारी छाया हमारे साथ चलती रहे और यही समय की आवश्यकता भी है। कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #16 ?

 

☆ माणूस असला की गरज लागते… ☆

 

माणूस असला की गरज लागते…

आणि नसला तर????

गरज संपत नाही, पण कदाचित त्या गरजेची प्रायोरिटी बदलते… आणि आयुष्याशाला वेगळी कलाटणी मिळते… ती व्यक्ती नाही, हे स्वीकारण्याची गरज निर्माण होते आणि त्या पातळीवर काम सुरू होतं…

ह्या प्रवासात, प्रवाहात वाहताना कुठे थांबायचं, कुठे वळण घ्यायचं हे ठरवता आलं पाहिजे… त्याचबरोबर काही मागे सोडून देता आलं पाहिजे, हो ना !

मान्य आहे की प्रत्येक वेळी हे शक्य होणार नाही… पण आयुष्याशी दिशा ठरलेली असली की काम थोडं सोपं होतं…. गरजेचं भान असलं पाहिजे, ती पूर्ण करताना लय ताल मोडून चालत नाही… सगळ्यांना सोबत घेऊनच पुढे जावं लागेल…

खूप गोष्टी शिकवून जातं हे नसणं आणि असणं… आपण फक्त त्या सावळ्याला सांभाळून घे बाबा, असं सांगत राहायचं… हो ना!

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।5।।

 

ज्ञानी कहते साँख्य औ” कर्म हैं एक समान

जिसमें जिसकी रूचि वही उसको है आसान।।5।।

      

भावार्थ :  ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है  ।।5।।

 

That place which is reached by the Sankhyas or the gyanis is reached by the (Karma) Yogis. He sees who sees knowledge and the performance of action (Karma Yoga) as one. ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मोर्चा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?संजय दृष्टि  – मोर्चा ?

फिर एक घटना घटी थी। फिर वह उद्वेलित हुआ था।  घटना के विरोध में आयोजित होने वाले मोर्चों, चर्चाओं, प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए हमेशा की तरह वह तैयार था। उसके दिये नारे मोर्चों की जान थे।

आज की रात स्वप्न में भी मोर्चा ही था। एकाएक मानो दिव्य प्रकाश फूटा। अलौकिक दृष्टि मिली। मोर्चे के आयोजकों के पीछे खड़ी आकृतियाँ उभरने लगीं। लाइव चर्चाओं से साधी जाने वाली रणनीति समझ में आने लगी। प्रदर्शनों के पीछे की महत्वाकांक्षाएँ पढ़ी जा सकने लगी। घटना को बाजार बनाने वाली ताकतों और घटना के कंधे पर सवार होकर ऊँची छलांग लगाने की हसरतों के चेहरे साफ-साफ दिखने लगे। इन सबकी परिणति में मृत्यु, विकलांगता, जगह खाली कराना, पुरानी रंजिशों के निबटारे और अगली घटना को जन्म दे सकने का रॉ मटेरिअल, सब स्लाइड शो की तरह चलने लगा।

सुबह उसके घर पर ताला देखकर मोर्चे के आयोजक मायूस हुए।

उधर वह चुपचाप पहुँचा था पीड़ित के घर। वहाँ सन्नाटा पसरा था। नारे लगाती भीड़ की आवाज़ों में एक कंधे का सहारा पाकर परिवार का बुजुर्ग फफक-फफक कर रो पड़ा था।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆ नज़रें पार कर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆

☆ नजरें पार कर

 

उस गली से गुजरते हुए
खटकता है मुझे,
जहाँ आखेटक होते हैं खड़े
ताकते हुए।
जो नारी होने का अहसास
करवाते हैं ।
कुछ कठपुतलियाँ भी साथ
हो लेती हैं।
बहेलिया अपना काम करते हैं,
मैं अपना।
क्योंकि, उस गली के किनारे
कुछ पेड़ -पौधे उगाए गए हैं ।
जिनमें तुलसी, गुलाब,  गेंदें
चमेली और रातरानी
के फूल महकते हैं ।
मैं उनको निहारने का
आनंद उठाने के लिए
उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर।

उन फूलों का हिल डुलना
भाता है मन को।
बंधनहीन लहराती सुगंध
छू लेती है मन को।
उनसे मन भर लेने को
मैं उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर ।

क्योंकि, फूल
आखेटक, बहेलिया या कठपुतली
नहीं हैं ।
इसलिए मैं उस गली से
गुजरती हूँ ।
नजरें पार कर ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 – इंद्रजीत ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इंद्रजीत।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 ☆

 

☆  इंद्रजीत 

 

अब तक रावण ज्ञान की कई शाखाओं का मालिक हो गया था । वह आयुर्वेदिक चिकित्सक और औषधि विज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझ गया था। अर्क (किसी का सार या रस) निकालने की कला, और असव, आयुर्वेद के ये दो रूप रावण ने ही विकसित किये थे । अर्क का सत्त निकलने के उद्देश्य से, रावण ने अमर वरुनी (अमर का अर्थ जिसकी कभी मृत्यु ना हो या जो कभी बूढ़ा ना हो, और वरुनी का अर्थ है तरल, इसलिए अमर वरुनी एक ऐसा तरल पदार्थ बनाने की प्रक्रिया है जिसके सेवन से मानव सदैव जवान बना रह सकता है) नामक एक यंत्र (मशीन) तैयार की थी ।

असव आयुर्वेद में असव बहुत महत्वपूर्ण खुराक है। इसमें स्वाभाविक रूप से उत्पन्न शराब शामिल है। यह शराब जड़ी बूटियों के सक्रिय अवयवों के लिए एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। सभी असवो में 5-10% तक मद्य (अल्कोहल) होता है। हालांकि असव में मद्य होता है, किन्तु इसका सही मात्रा में उपभोग करना शरीर के लिए फायदेमंद होता है ।

रावण एक महान आर्युवेदिक चिकित्सक और वैद्य शिरोमणि (डॉक्टरों के बीच सर्वश्रेष्ठ) बन गया था। उसने बहुमूल्य पुस्तकें नाड़ी परीक्षा (पल्स-परीक्षा), कुमार तंत्र (स्त्री रोग और बाल चिकित्सा से सम्बंधित), उडिसा चिकित्सा और वतीना प्रकारणाय का विवरण भी लिखा। रावण सिंधुरम दवा का संस्थापक भी था। ये दवा घावों को तुरंत ठीक कर देती थी । रावण ने रावण संहिता नामक ज्योतिष की शाखा का आविष्कार भी किया।

रावण ने राशि चक्र के सभी ग्रहों के देवताओं को भी बंधी बना लिया था और उन्हें सूर्य के चारों ओर करने वाली अपनी वास्तविक गति को बदलने के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि वह चाहता था कि उसका पहला बच्चा अमर (अर्थात जो कभी मरे ना) के रूप में पैदा होना चाहिए, क्योंकि अगर बच्चे के जन्म के समय राशि चक्र और उसके प्रभाव से बनायीं हुई कुंडली में सभी ग्रह 11 वें घर में हो तो बच्चा अमर रहता है ।इसलिए रावण ने सभी ग्रहों को महान गणना के बाद अपनी गति में हेरफेर करने का आदेश दिया, ताकि जब उसका पहला बच्चा पैदा हो, तो सभी ग्रह आकाश में एक ही स्थिति पर स्थिर रहे ।

परन्तु रावण के पहले बच्चे के जन्म के समय शनि ग्रह के देवता ने अन्य देवताओं की सहायता से,सूर्य के चारों और चक्कर काटने की अपनी गति बढ़ा दी। तो जब रावण के पहले बच्चे मेघनाथ का जन्म हुआ तो सभी ग्रह उसकी जन्म कुंडली में 11 वें घर में थे, शनि को छोड़कर जो 12 वें घर की ओर बढ़ गया था। इस कारण मेघनाथ जन्म से अमर तो नहीं पैदा हुआ, पर फिर भी सभी राक्षसों में सबसे शक्तिशाली था ।

मेघनाथ ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाथ’ का अर्थ भगवान है, इसलिए मेघनाथ का अर्थ हुआ बादलों का स्वामी । रावण ने अपने पहले बच्चे को ये नाम इस आशा से दिया था कि एक दिन वह स्वर्ग या बारिश के राजा इंद्र को पराजित करेगा और मेघनाथ या बारिश का भगवान बुलाया जायेगा। बाद में मेघनाथ ने ऐसा किया भी और इंद्र को पराजित करने के बाद इंद्रजीत का नाम भी हासिल किया। कुछ लोग रावण के बड़े बेटे का नाम मेघनाद कहते हैं। फिर से ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाद’ का अर्थ ध्वनि है, इसलिए मेघनाद वह है जिसकी वाणी में आसमान में गरजते बादलों की तरह ध्वनि है ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 1 ☆ नवनिर्मिती ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। हम श्रीमती उर्मिला जी के आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” शीर्षक से  प्रारम्भ करने हेतु अपनी अनुमति प्रदान की। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख नवनिर्मिती  

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 1☆

 

☆ नवनिर्मिती ☆

 

मागच्या वर्षीची गोष्ट.उन्हाळ्याची तलखी संपून नुकताच वर्षाऋतू येवू घातला होता.मी प्रवासाला निघाले होते.गाडीतनं बाहेर पहात होते.सग्गळीकडं नांगरलेली काळीभोर शेतं कशी ओळीनं जाजमं अंथरल्यागत दिसत होती.शेतीची खरीपाची लगबग सुरू होती.काही शेतात शेतकरी पाभारीवर उभे राहून पेरणी करताना दिसत होते.बैलांच्या गळ्यातला घुंगुरांची किणकिण ,शेती औजारांचे कुर्रकुर्र आवाज आणि पावसाळी कुंद हवा , खूप छान वाटत होतं.

मी आठ-दहा दिवसांनी माझं काम संपवून परतीच्या प्रवासात होते.येताना परत तीच शेतं पहात होते पण आज त्या काळ्याभोर जाजमांवर सुंदर रेशीमहिरवी नक्षी काढल्यागत दिसत होतं.नाजुक हिरवीगार पानं वाऱ्यानं डुलताना दिसत होती.पेरलेल्या बियाणांना अंकुर फुटले होते.निसर्गाची ही नवनिर्मिती खूपच मनभावन वाटतं होती.

अशीच एकदा काही दिवसांसाठी परगावी गेले होते.प्रवासातून आल्याआल्या जरा खुर्चीत डोकं टेकून शांतपणे बसले होते, इतक्यात खिडकीच्या बाजूने मला छानसा सुगंध जाणवला.मी झटकन् उत्सुकतेने खिडकी उघडून पहाते तो काय, मागच्या पंधरवड्यात वानरांनी ज्या छोट्याशा झाडांची सग्गळी पानं खाऊन टाकली होती अन् अगदी उघडंबोडकं केलं होतं त्याच झाडाला इतका देखणा सोनपिवळ्या रंगाचा मोहोर आला होता,ते छोटंसंच झाड पण मोहोराने खूप भरगच्च डवरलेलं दिसत होतं मी पहातच राहिले.

माझं विचारचक्र सुरू झालं.निसर्गाचं कसं आहे पहा! ज्यावेळी त्या बिचाऱ्या वानरांना भूक लागली होती ती शमवण्यासाठी त्यांना त्या झाडाची पानं खायची परवानगी निसर्गानंच म्हणजे पर्यायानं देवानंच दिली, आणि आज त्याच निसर्गानं त्या झाडाला भरभरुन मनमोहक झुपकेदार मोहोर बहाल केला होता.चैत्रपालवी  फुटल्यानंतर पानं पण  झाडावर येवू लागली होती व जोडीला मोहोर आला .निसर्गाची नवनिर्मिती किती अगाध आहे पहा..!  या विचारांनी त्या निसर्गदेवतेपुढे मी नतमस्तक झाले.

मध्यंतरी माझ्या वाचनात आलं की, अपंगांसाठी ज्यांनी आपलं संपूर्ण जीवन वाहून घेतलं त्या कोल्हापूरच्या नसीमा हुरजुक दिदींचे डॉ. पी. जी. कुलकर्णी म्हणतात “मी दिदींना,आता हे काम तुमच्या तब्येतीला त्रास देतंय, तर तुम्ही विश्रांती घ्या ,शांत रहा”. असं म्हटल्यावर दिदी एकदम म्हणाल्या “तुम्ही माझ्या विश्रांतीचा, शांतीचा विचार करु नका. माझी अशांतता मला नवीन काम करायला प्रवृत्त करते. माझ्या माघारी काय होईल असा विचार करत बसले तर या जगात नवं काही स्थापनच होणार नाही. प्रत्येकाच्या माघारी हे जग चालतंच ! मी हे सारं करणारच ! आपल्या देशात लाखो  अपंग दुर्लक्षिले जात असताना तुम्ही मला शांत रहाण्याचा सल्ला देताय?”

डॉ. म्हणतात, दिदींचा डॉक्टर म्हणून त्यांच्या मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्याचा विचार मी करत होतो.पण दिदींच्या बोलण्याने मला आज एका नव्या सत्याचा स्पर्श झाला होता.

काही माणसं स्वत:च्या जीवनाची आहुती देऊनच अगतिकांना ऊर्जा देत असतात.त्यांची अस्वस्थता ही नवनवीन ऊर्जा स्रोतांची केंद्रे असतात.ते करत असलेल्या नवनिर्मिती साठी लागणारा अग्नी ते स्वत:च्या त्यागातून प्रज्वलित करत असतात.

असे असीम कार्य करणाऱ्या आपल्या सर्वांच्या “नसीमा दिदींच्या ” असामान्य सेवेला जबरदस्त. सलाम !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (4) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌।।4।।

 

अज्ञानी ही मानते इन्हें पृथक दो मार्ग

दोनों देते फल वही दोनो ही संमार्ग।।4।।

 

भावार्थ :  उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌ पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।।4।।

 

Children, not the wise, speak of knowledge and the Yoga of action or the performance of action as though they are distinct and different; he who is truly established in one obtains the fruits of both. ।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 11 ☆ अपने अपने खेमें ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की प्रस्तुति “अपने अपने खेमे ” ।उनकी यह बेबाक रचना आपको साहित्य जगत के कई पक्षों से रूबरू कराती है। साथ ही आपके समक्ष साहित्य जगत के सकारात्मक पक्ष को भी उजागर करती है जो किसी भी पीढ़ी के साहित्यकार को सकारात्मक रूप से साहित्य सेवा करते रहने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे निष्पक्ष आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी का अभिनंदन एवं आभार।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 11 ☆

 

☆ अपने अपने खेमे ☆

 

चार-पाँच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में… जिसे पढ़कर मैं अचंभित- अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है… थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है यह सुनामी की भांति सब कुछ निगल जाएगा। हाँ! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़े तो खोखली कर दी हैं, रही-सही कसर व्हाट्स ऐप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हाँ! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर, जो पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है और फर्श से आकाश पर पहुँचा सकता है.. जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।

हाँ! चलो, हम बात करते हैं — देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था…विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार व्यवहार, दबदबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया था, जिसका सार था ‘आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरू की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो, आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा असम्भव है।

इसके लिये आवश्यकता है… साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की, सम्पूर्ण समर्पण की..तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता दिखलाने की, यह इसमें प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की, सफलता पाने की एकमात्र कुंजी..आप सब इस तथ्य से तो अवगत हैं कि ‘जैसा बोओगे,वैसा काटोगे’ अर्थात् उनकी करुणा, कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरक़िनार कर, आत्म-सम्मान को दाँव पर लगाना होगा, तभी आप उनके कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य गोष्ठियों व विचार गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, टी•वी•और दूरदर्शन भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका गुणगान होगा।

इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की लाइन लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत: आन पड़ेंगे। हाँ! आपको पी•एच•डी• ही नहीं, डी•लिट• तक की मानद उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात है, बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आप पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि वे लोग अपने आला साहित्यकारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।

इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि प्रतिभा साम, दाम,  दंड, भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है…आत्मसम्मान को खूँटी पर टाँग, दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की, अपने अहं को मार, ज़िंदा दफ़न करने की, उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की, उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की, उनके कदमों में बिछ जाने की, उनके हर आदेश को शिरोधार्य करने की….यदि आप इनमें से चंद योग्यताएं भी रखते हैं, तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूँजने लगती है।

अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमें के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहाँ जाता है, क्या करता है, उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं?

यह समाज का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आस-पास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दसों दिशाओं में प्रसारित करे। जैसे मलय वायु का झोंका समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देता है।

विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना….यह तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य-अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा को तरज़ीह देना, पत्नी से लेकर बच्चों को पिकनिक पर ले जाना, उस घर का पूरा साज़ो-सामान जुटाना, उन्हें सिनेमा दिखलाना आदि उनका नैतिक दायित्व समझा जाता है। यदि वह बाशिंदा बिना परिश्रम के, पूर्ण निष्ठा से वह सब पा लेता है, तो उसे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।

चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके आँचल में आश्रय पाने को बेक़रार मिलेगा।

वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है…आप नई संस्था बनाइए, हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक बंधु आजकल सम्मान-राशि व आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरख-धंधा पूरे यौवन पर है…फल-फूल रहा है। संस्थापक होने के नाते वे हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी रहते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार अनुनय-विनय कर प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक ढंग है… साहित्य-सेवा का।

मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अँधेरी रात में घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं… विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, ऐसा कैसे संभव है? और इसे क़ुदरत का करिश्मा बतलाते हैं।

आजकल अक्सर सम्मानों के लिए आवेदन करना होता है। हाँ! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है, जिससे आप बेखबर होते हैं…वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची धरोहर के रूप में सुक़ून देते हैं।

हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?

मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपना कार्य कर सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है… प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण की, कर्तव्यनिष्ठता की। यदि आप निस्वार्थ व निष्काम कर्म करने का माद्दा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। आपको कोई भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता, यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं तो आपको उसका अप्रत्याशित फल अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। हाँ आवश्यकता है…यदि हमारे कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं और हम अपनों से, अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं, तो हम हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे…हमें अपने लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही खेमों के मालिक हमें नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।

समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता, बदलते हैं अहसास व जज़्बात और कायम रहता है विश्वास,तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं क्योंकि आत्मविश्वास संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ …इसी आशा के साथ कि हमारे साहस, उत्साह, धैर्य व आत्म- विश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी, अस्तित्वहीन हो जायेंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे।

इसी आशा और विश्वास के साथ…उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अखंड रचना! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अखंड रचना! 

गहरी मुँदती आँखें,

थका तन,

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ,

क्या आखिरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा…?

नींद, जिसमें

सुबह किये जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की ऊहापोह,

हाँ कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा…!

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन की अनुमति

मिले न मिले तब भी

नया लिखूँगा..!

 

देखना, समझना, रचना अखंड रहे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 9 ☆ उलझन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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