हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 9 ☆ उलझन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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जीवन-यात्रा- ☆ सुश्री मीनाक्षी भालेराव (पृथा फाउंडेशन, पुणे) ☆

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

(ई-अभिव्यक्ति हेतु सुश्री मीनक्षी भालेराव जी के साक्षात्कार पर आधारित आलेख)

 

☆ जीवन यात्रा – सुश्री मीनाक्षी भालेराव (साहित्यकार, समाज-सेविका एवं मॉडल) ☆

 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव एक प्रसिद्ध कवयित्री तो हैं ही, इसके अतिरिक्त वे साहित्य, कला, संस्कृति के क्षेत्र में सेवाएँ देने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।

गुमनामी में दफन होने से अच्छा है

जरूरत मंदों के दिलों में जिन्दा रहें।

लोगों की कला को नई पहचान देना और उनका सम्मान करना तथा  सब के साथ सादगी से पेश आना, लोगों के दिलों को जीतना उनकी फि़तरत है और सदैव मुस्कराते रहना उनकी आदतl अपनी सादगी एवं सद्कार्यों के कारण वे समाज में सम्माननीय हैं।

उनके अनुसार अपने अन्दर के इंसान को जीवित रखना बहुत जरूरी है। उनके ही शब्दों में –

हर एक इन्सान में, एक इन्सान और रहता है,

जो बचाना चाहता है, अपने इन्सान होने को

विगत २८ वर्षों से उन्होने आपने आपको साहित्य, कला और समाज सेवा में स्वयं को समर्पित कर दिया है। हर किसी की परेशानी को अपनी परेशानी समझकर तथा गरीबों एवं जरूरतमंदों के बीच में रहकर उनकी मदद करना वे अपना धर्म समझती हैं। अमीर गरीब का भेद मिटाते हुए हर परेशान व्यक्ति की सहायता करने से वे आत्म संतुष्टि पाती हैं।

२०१४ में उन्होने पृथा फाऊंडेशन नामक संस्था की नींव रखी जिसके माध्यम से वे साहित्यकारों को हिन्दी, उर्दू, मराठी और अन्य भाषाओं में कविता, शायरी, नज्म़ और आपने मन की बात रखने का अवसर प्रदान करती हैं प्रत्येक माह के तीसरे शनिवार को इस संस्था के माध्यम से   बुद्धिजीवियों  और  साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाता हैl  विभिन्न क्षेत्रों में अच्छा कार्य करने वाले बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों एवं कलाकारों से उनके विचार सुने जाते हैं एवं पृथा फाउंडेशन की ओर से सम्मानित किया जाता है। सभी राष्ट्रीय उत्सव, महापुरुषों की जयन्ती, शहीद दिवस, नारी सशक्तिकरण तथा पर्यावरण जैसे कई कार्यो को साकार किया जाता हैl

जरुरतमन्द लोगों को रोज़मर्रा की जिंदगी में काम आने वाली वस्तुएं जैसे किताबे, कपडा, अनाज आदि से मदद करने का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य सेवाभावी संस्थाओं की भी सहायता पृथा फाऊंडेशन करती आ रही हैl

*परामर्श की पहल *

आज लोगों को एक दुसरे को मिलने जुलने और बातचीत के लिये वक्त नहीं है। व्यक्ति एक दुसरे से टूटता जा रहा हैं आज उसे परामर्श की आवश्यकता है। परामर्श के इस कार्य में पृथा फाऊंडेशन सकारात्मक कार्य कर रही हैंl

*भाषा से भारत जोडो*

पृथा फाऊंडेशन में हर भाषा का सम्मान किया जाता है। किन्तु, हिन्दी तो हमारी राष्ट्रभाषा है और प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है की वे उसका सम्मान और  प्रचार प्रसार करें। यह पृथा फाऊंडेशन की धारणा है और उसके लिये संस्था हर तरह के प्रयास करती आ रही है।

*अक्षर अक्षर कविता*

प्रत्येक माह काव्य पाठ, दिवयांगों और बच्चों के लिए महफिल, साहित्य निर्माण के लिए प्रयास किये जा रहे हैl

* पुरस्कार एवं सम्मान *

  • मणिभाई देसाई सेवा पुरस्कार
  • स्त्री शक्ती विशेष सेवा पुरस्कार
  • वुमेन्स अचिव्हर्स अवार्ड
  • हिन्दी भाषारत्न पुरस्कार
  • हिन्दी भूषण पुरस्कार
  • पुणे रोटरियन विशेष पुरस्कार
  • साहित्य सेवा पुरस्कार

जागतिक महिला दिवस के उपलक्ष में सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की ओर से विशेष महिलाओं को “पृथा स्त्री-शक्ती पुरस्कार” दिया जाता है।

*भविष्यकालीन योजनाएँ*

  • जरुरत मंदो को रोटी, कपडा और जल पहुँचाना
  • स्त्री सशक्तिकरण
  • महिलाओं के लिए आरोग्य सेवा मुहैया कराना
  • व्यसनमुक्त समाज के हेतु भवन निर्माण करना
  • ग्राम विकास व समाजसेवा के लिए युवाओ में जाग्रति पैदा करना

व्यक्ति का विकास ही समाज का विकास है और समाज का विकास ही देश का विकास हैl इस सोच के साथ सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी पुणे में विगत 28 वर्षों से कार्यरत हैं एवं वे सदैव ऐसे ही कार्यों से साहित्य, कला व समाज की सेवा करती रहें एवं प्रगति पथ पर बढ़ती रहें इसी कामना के साथ।

 

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प अकरावे # 11 ☆ शेतकरी आत्महत्या का करतो? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? इस विषय पर एक शोधपूर्ण आलेख “शेतकरी आत्महत्या का करतो?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प  अकरावे # 11 ☆

 

☆ शेतकरी आत्महत्या का करतो? ☆

 

पावसावर अवलंबून  असणारी भारतातली शेती. भारतीय  अर्थ व्यवस्थेचा मूलाधार.  आणि हा  आधार भक्कम ठेवणारा शेतकरी म्हणजेच बळीराजा उत्पादन खर्च  आणि शेती उत्पादनाला योग्य प्रमाणात न मिळालेला बाजार भाव यामुळे  अत्यंत  अडचणीत आला आहे. नवीन पिढीला तंत्रज्ञान क्षेत्राचे आकर्षण  असल्याने या व्यवसायात नवी पिढीचे प्रमाण कमी झाले आहे.  येत्या काही वर्षांत शेती उत्पादन ही समस्या गंभीर स्वरूप धारण करू शकते.  पिकवलेच नाही तर खाणार काय? हा प्रश्न  ऐरणीवर आला आहे. शेतकरी अनेक कारणांमुळे  आत्महत्या करीत आहे.

शेतकरी  आत्महत्या करतात याचे मुख्य कारण म्हणजे सहज सुलभ मार्गाने येणारा पैसा बंद झाला की कींवा कर्जबाजारी पणा वाढला की स्वार्थी,  आणि आत्मकेंद्रीत व्यक्ती  आत्महत्या करताना दिसतात.  संयम, चिकाटी, धैर्य, सातत्य आणि सहनशीलता या गुणांच्या  अभावाने शेतकरी माणूस लवकर खचतो. मनुष्य जोवर  इतरांना दोषी ठरवून जगत असतो तोपर्यंत तो अनेक प्रसंगाना तोंड देत जीवन संघर्ष करू शकतो. पण स्वतःच्या चुका मान्य करण्याची वेळ आली तो हातपाय गाळून निष्क्रिय होऊन स्वतःहून परीस्थिती नियंत्रणाबाहेर नेतो आणि आत्महत्येचा पर्याय स्विकारतो.

शेतकऱ्याला  आत्महत्या का करावी वाटते या प्रकरणी सरकार त्याच्या परीने प्रयत्न करेलच. पण मला वाटते कौटुंबिक पातळीवर प्रत्येक घराघरातून हा विषय चर्चेला आला पाहिजे. या समस्येवर समाजप्रबोधन होणे गरजेचे आहे.  संयम, चिकाटी, दुर्दम्य आशावाद, यांनी मोठमोठय़ा संकटांवर मात केली आहे.  आत्महत्या होऊ नये म्हणून कुटुंबात संवाद साधला जाण  अत्यंत गरजेचे आहे.

शेती प्रधान उद्योग धंद्यात सुजलाम सुफलाम  असणाऱ्या या भारत देशातील शेतकऱ्याला  आपण बळीराजा म्हणून मानाचे स्थान दिले आहे.  असे असताना देखील त्याच्या गळी गळफास येतो आहे ही बाब चिंताजनक आहे.  जोडधंदा,  आणि शेती पुरक व्यवसाय यामध्ये शासनाने दिलेल्या सोयी सुविधांचा वापर करून उदरनिर्वाह करीत रहाणे हा  पर्याय  आत्महत्येस बगल देऊ शकतो.  गोपालन,कुक्कुट पालन, मधुमक्षिका पालन, यासारखे शेती पुरक व्यवसाय ग्रामीण भागात कार्यरत ठेवणे आवश्यक झाले आहे.

आपण स्वतःसाठी,  कुटुंबासाठी आणि  समाजासाठी  आपली दायित्व पूर्ण करीत जगायचे आहे.  आपण  एकटे नाही.  आपल्यावर अनेकांची जबाबदारी आहे ती नाकारून चालणार नाही हा विश्वास  अशा माणसांमधे  उत्पन्न झाला तर  आत्महत्या कमी होतील.  स्वतःला संपवणे हा  उपाय नसून गंभीर गुन्हा आहे ही जाणीव शेतकरी वर्गाला करून देणे  हे समाज प्रबोधन गरजेचे झाले आहे.

समाज पारावरून या विषयावर चर्चा करताना लहान तोंडी मोठा घास घेतला  असेन कदाचित पण माणूस म्हणून जगताना  आपल्याला पोसणारा शेतात  अन्न धान्य पिकवणारा हा बळी राजा हकनाक बळी जाऊ नये  असे मनापासून वाटते. आत्महत्या थांबतील तरच विकसन आणि प्रगतीची दारे आपल्या साठी खुली होतील. संवाद  आणि विचार  अत्यंत गरजेचा आहे.  जय हिंद.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।

 

राग-द्वेष से रहित जो वह सन्यासी तात

द्वंद रहित जीवन सदा सुख संयम की बात।।3।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।।3।।

 

He should be known as a perpetual Sannyasin who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage! ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3 – Celestial Ganga☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Celestial Ganga”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3

 

☆ Celestial Ganga ☆

 

Oh what a beauty!

Thought Shantanu, as he at Ganga glanced

Fell in love in first glimpse

And for her hands for marriage, he asked.

 

By Shantanu’s father already blessed

Ganga had nothing to fear

“Oh yes!” she smiled and replied,

“Provided you never question me dear!”

 

The king’s lawful queen she became

And soon, her first son was born

As he witnessed her go and drown him

Between his love and promise was Shantanu torn

 

Child after child thrown in river

King Shantanu felt that he had had a lot

When to drown the eighth child Ganga went

He felt that he could thus continue to suffer not

 

“O pretty queen, do stop your ghastly acts;

Pray leave this child,” he muttered

“Your promise is broken oh dear King!

I shall leave you now!” she uttered.

 

“The children killed by me were none

But Gods known as Vasus who were cursed

Seven of them could forsake life and misery

Though the eighth shall have to be nursed.”

 

Saying so, Ganga quickly disappeared

With Devratta safely cushioned under her arms

To be raised and trained as perfect warrior

Under the patronage of Parshurama!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अभिनेता ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अभिनेता

सुबह जल्दी घर से निकला था वह। ऑफिस के एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की शादी थी। दक्षिण भारत में ब्रह्म मुहूर्त में विवाह की परंपरा है। इतनी सुबह तो पहुँचना संभव नहीं था। दस बजे के लगभग पहुँचा। ऑफिस के सारे दोस्त मौज़ूद थे। जमकर थिरका वह।

समारोह में भोजन के बाद मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल पहुँचा। पड़ोस के सिन्हा जी की पत्नी आई सी यू में हैं। किसी असाध्य रोग से जूझ रही हैं। वह अपनी चिंता जताता रहा जबकि उसे बीमारी का नाम भी समझ में नहीं आया था। आधा किलो सेब ले गया था। सेब का थैला पकड़ाकर इधर उधर की बातें की। दवा नियमित लेने और ध्यान रखने की रटी-रटाई बिनमांगी सलाह देकर वहाँ से निकला।

घर लौटने की इच्छा थी पर सुबह अख़बार में अपने दूर के रिश्तेदार के तीये की बैठक की ख़बर पढ़ चुका था। आधा घंटा बाकी था। सीधे बैठक के लिए निकला। ग़मगीन, लटकाया चेहरा बनाये आधा घंटा बैठा वहाँ।

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ा ही था कि हरीश मिल गया। पिछली कंपनी में दोनों ने चार साल साथ काम किया था। ख़ूब हँसी-मज़ाक हुआ। खाना साथ में खाया।

रात ग्यारह बजे घर आकर सोफा पर पसर गया। टेबल पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग का पत्र पड़ा था। खोलकर देखा तो लिखा था, ‘बधाई। गत माह क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित एकल अभिनय प्रतियोगिता के आप विजेता रहे। आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है।’

वह मुस्करा दिया।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर हर गंगे ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “हर हर गंगे ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी की कविता  गंगा जी की गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा और इस अद्भुत यात्रा में उनके विभिन्न स्वरूप,उनके विभिन्न पड़ाव, उत्तुंग पर्वत शिखरों से हरे भरे मैदानों से होते हुए गंगा सागर में विलीन होते हुए विभिन्न धर्मों, संप्रदायों को सर्वधर्म समभाव व एकता का  संदेश देती  हैं। )

 

 ☆ हर हर गंगे ☆

गंगोत्री के उत्तुंग शिखर से,

आती हो बन  पापनाशिनी।

कल कल करती,  हर-हर करती,

बन जाती हो जीवनदायिनी।

 

तीव्र वेग से धवलधार बन

हरहराती, आती बल खाती।

चंचल नटखट बाला सी,

इतराती,  इठलाती आती।

 

मन खिल उठता मेरा,

दिव्य रूप देखकर तेरा,

हर-हर गंगे,  हर-हर गंगे।।

 

जब मैदानों में चलती हो,

तो मंथर-मंथर बहती हो।

अपने दुख अपनी पीड़ा को,

कभी न व्यक्त करती हो।

 

सब तीरथ करते अभिनंदन,

स्पर्श जब तुम उनका  करती हो।

सुबह शाम सब करते वंदन,

जब मध्य उनके तुम बहती हो।

 

जनमानस श्रद्धापूर्वक

करते रहते जयजयकार,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरे पावन जल मिट्टी से,

समस्त जग है जीवन पाता।

वृक्ष अन्न फल-फूल धरा से,

गंग कृपा से, है  मानव उपजाता।

 

तीर्थराज का कर अभिनंदन,

जब काशी तुम आती हो।

अर्धचंद्र का रूप धर,

भोले का भाल सजाती हो।

 

मनोरम दृश्य देख, हो प्रसन्न

देवगण भी बोल उठते,

हर-हर गंगे, हर-हर गंगे।।

 

अपने पावन जल से मइया,

शिव का अभिषेक तुम करती हो।

भक्तों के पाप-ताप हरती,

जन-जन का मंगल करती हो।

 

सारा जनमानस काशी का,

हर हर बंम बंम बोल रहा है।

ज़र्रा ज़र्रा, बोल रहा है

हर हर गंगे, हर हर गंगे।।

 

सूर्यदेव की स्वर्णिम आभा,

जब गंगा में घुल जाती है।

स्वच्छन्द परिन्दो की टोली,

उनके ऊपर मंडराती है।

 

घाटों की नयनाभिराम झांकी,

बरबस मन को हरती है।

जाने अनजाने दिल के भीतर से

ये आवाज उभरती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

कहीं मन्दिरों के भीतर,

हर-हर का नाद सुनाई देता।

कहीं अजानों की पुकार में,

वो ही तत्व दिखलाई देता।

 

गिरजों और गुरूद्वारों में भी,

वो ही छटा दिखाई देती।

हर जुबान हर दिल  के भीतर,

वो ही आवाज़ सुनाई देती।

हर हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरा पावन जल ले अंजलि भर,

कोई श्रद्धांजलि देता है

कोई मुसलमां तेरा जल ले,

रोज़ वजूकर लेता है।

 

सिख ईसाई गंगा जल से

पूजा अपनी करते हैं।

सदा सर्वदा हर दिलसे

यही सदा, सदा सुनाई देती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

बहते-बहते मंथर-मंथर,

जब सागर में मिल जाती हो।

सागर का मान बढ़ाती,

गंगासागर कहलाती हो।

 

सागर की अंकशायिनी बन,

लहरों पे इठलाती हो।

उत्ताल तरंगें बोल उठती,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ♥ कम्प्यूटर पीडित ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कम्प्यूटर पीडित”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ☆ 

 

♥ कम्प्यूटर पीडित ♥

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।

कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है – दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।

कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें  “सिंगल विंडो प्रणाली” बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को ओबलाइज कैसे करेगा? हुये ना बड़े बाबू कम्प्यूटर पीड़ित।

दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहाँ तो “एंटर” का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।

वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीड़ा भर नहीं देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूँ । जो पहली नौकरी मिली, आज तक उसी में लगा हुआ हूँ यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता “नौकरी डॉट कॉम” की मदद से, पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीड़ित युवाओं की तरह नहीं कि सगाई के समय किसी कंपनी में, शादी के समय किसी और में, एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में, ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही-सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूँ, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते-उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।

आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी, फिर बीटिंग करते हुए तलाक।

हॉं, हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीड़ाओं की चर्चा कर रहे थे, अब तो ”पेन ड्राइव” का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अर्थात कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, “सेलरॉन” से “पी-5” के कम्प्यूटर बदलते-बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर, डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदेशों के चलते मेरी कम्प्यूटर पीड़ित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहाँ इंटरनेट पर सब कुछ खुला-खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11 ☆ न्याय ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 11 – मित्रा…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मेरे विचार से हम मित्रता दिवस वर्ष में एक बार मनाते हैं किन्तु,  मित्रता वर्ष भर ही नहीं आजीवन निभाते हैं। श्री सुजित जी की यह कविता इतनी संवेदनशील और भावुक है कि पढ़ते हुए मित्रों के मिलन का सजीव चित्र नेत्रों के समक्ष अपने आप आ जाता है और नेत्र नम हो जाते हैं।  मुझे अनायास ही मेरी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा –

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता।

निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “मित्रा…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #11 ☆ 

 

☆ मित्रा…! ☆ 

 

आज ब-याच वर्षानंतर तो घरी आला

दारावरची बेल वाजवली .

आणि बघता क्षणी आम्ही एकमेकांना

कडकडून मिठी मारली .

अगदी श्रीकृष्ण सुदाम्या सारखी

दोघांच्याही डोळ्यांत .. . .

शाळा सोडताना दाटून आलेलं पाणी

आज पुन्हा एकदा दाटून आलं.

आणि..आमच्या भेटीनं

आज माझ घर सुध्दा हळव झालं.

बालपणीच्या सा-याच आठवणीं

डोक्यात भोव-या सारख्या फिरू लागल्या.

अन् वयाच अंतर पुसून ,

चिंचेखाली धावू लागल्या.

शाळेत जाताना दोघांत मिळून

आमची एक पिशवी ठरलेली

अन् पिशवी मधली अर्धी भाकर

रोज दोघांत मिळून खाल्लेली..

मी जिंकाव.. म्हणून तो

कितीदा माझ्यासाठी हरलेला. . . . !

त्याच्यासाठी मी कितीदा

मी बेदम मार खाल्लेला.. . . !

त्याच्या इतका जवळचा मित्र

मला आजपर्यंत कुणीच भेटलाच नाही.

गाव सोडून आल्यापासून

आमची भेट काही झालीच नाही…..!

बराच वेळ एकमेकांशी

आमचं बरंच काही बोलणं झालेलं

तो निघतो म्हणताना त्याच्या डोळ्यांत

एकाएकी आसवांच गाव उभं राहिलेलं

तो म्हंटला..,

माय गेली परवा दिवशी .. . .

तेव्हापासून एकट एकट वाटत होतं

मनमोकळ रडायला कोणी

आपलं असं मिळत नव्हतं..

शाळेत असताना बाप गेला

तेव्हाही मित्रा

तुझ्यापाशीच रडलो होतो..!

खरंच सांगतो मित्रा

माय गेली तेव्हापासून

तुझाच पत्ता शोधत होतो..

मित्रा..,तुझ्या

खांद्यावरती डोकं ठेऊन

मला एकदा मनमोकळं रडू दे

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

© सुजित कदम

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