(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)
☆ संजय दृष्टि – वह – 3 ☆
माँ सरस्वती की अनुकम्पा से *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक सार्थक लघुकथा “फैसला”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 8 साहित्य निकुंज ☆
☆ फैसला☆
आज वर्षो बाद अजय का आना हुआ हमने कहा… “बेटा इतने सालों बाद शादी के बाद कहाँ गायब हो गए थे?”
“अंजलि इतनी भायी की तुम दुनिया जहान को भूल गये।”
अजय ने बताया। बस अंकल क्या कहूँ यूँ ही गृहस्थ संसार में उलझ गया।
हमने कहा… “अच्छा है पर ये उदासी कैसी? क्या बात है?”
अजय ने कहा …”क्या बताऊँ अंकल?”
हमने कहा…”नहीं बेटा कह ही डालो मन हल्का हो जायेगा।”
अजय ने बताना शुरू किया। शादी की रात को अंजलि ने कहा …”शादी के पहले हमने आपसे बहुत कुछ कहना चाहा लेकिन मुझे देखने के बाद आप कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। बस आप शादी का ही इंतजार कर रहे थे।”
“क्या हुआ …आज ये सब बातें…तुम किसी और से शादी करना चाहती थी क्या?”
अंजलि ने बताया…”हम हमारा परिवार शादी ही नहीं करना चाहते थे। लेकिन माँ की दोस्त आपका रिश्ता ले आई और दो दिन बाद आप लोगों को हम लोग कुछ कह सुन नहीं पाए. बहुत बार कोशिश की आपसे बात करने की पर आप टाल गये। हमने माँ से कहा जो ईश्वर को मंजूर होगा, वही होगा और आज वह दिन भी आ गया और हम आज बिना कहे नहीं रहेंगे …मैं न स्त्री हूँ न पुरुष …मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। मैं किन्नर जाति की हूँ। पर मेरे माता पिता की अकेली संतान होने के कारण छुपा कर रखा और किसी को पता न चल जाये इसलिए आज तक बोला नहीं क्यों किन्नर लोग मुझे ले जायेंगे …लेकिन अब नहीं, मैं आपको इस कुएँ में नहीं धकेलना नहीं चाहती। आप सभी को मेरे विषय में कुछ भी कह दीजिये और मुझे छोड़ दीजिये।”
अंकल इतना सुनकर मुझे ऐसा लगा… “मेरे पैरों से जमीन खिसक गई है। थोड़ा सोचकर हमने कहा तुम लोग समाज के डर से चुप रहे। शायद ईश्वर को यही मंजूर था अब हम कुछ कहेंगे तो समाज परिवार का सामना कैसे करेंगे? हमारा सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का है। हम तुम्हें अपनी पत्नी का दर्जा देंगे। उसके बाद हम लोग भोपाल गये वहाँ दो जुड़वाँ बच्चे गोद ले लिए किसी को नहीं बताया. आज पहली बार आपको बताया। अंकल हमने सोचा हमारी किस्मत इसी के साथ जुडी है लाख कोशिश के बाद जो होना है वह होकर ही रहता है।”
हमने कहा …”। इतना बड़ा फैसला तुम्हें तो सेल्यूट करना चाहिए.” …
(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है एक शिक्षाप्रद बाल-कविता “सम्बन्धों का मोल ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से सम्बन्धों के मोल को बड़े ही सहज शब्दों में समझाने की चेष्टा की है। यह कविता बच्चों के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण बड़ों के लिए भी है। )
(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे। आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये तरुणों में व्याप्त व्यसन जैसी एक सामाजिक समस्या पर विचारणीय आलेख “व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग”)
☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ – पुष्प दहावे # 10 ☆
☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆
माणसाला माणूस जोडण्याचे, माणसात रहाण्याचे व्यसन असावे असे संस्कार आमच्या वर झाले. त्यामुळे व्यसनाधीनता हा विषय जिव्हाळ्याचा वाटला. आजची तरुण पिढी मुबलक पैसा, कुतूहल, अनुकरण आणि सुखासीन आयुष्य जगण्याची सवय यामुळे जास्तीत जास्त व्यसनाधीन होत आहे. समाज पारावरून हा विषय हाताळताना अनेक पैलू समोर येतात. वर वर साधी वाटणारी ही समस्या अतिशय गंभीर स्वरूप धारण करीत आहे.
मी माझ्या मुलाला काहीही कमी पडू देणार नाही ही पालकांची भूमिका पाल्याला व्यसनी बनवायला कारणीभूत ठरते आहे. कुटुंबातील नात्यांमधे हरवत चाललेला संवाद हे ही प्रमुख कारण आहेच. एकटे रहाण्याची सवय व्यसनाला पोषक वातावरण तयार करते आणि समवयस्क मुलांना असलेली व्यसने संगती दोषामुळे आपोआप स्वतःला चिकटतात. तारूण्यात असलेली बेफिकीर वृत्ती व्यसनाला कारणीभूत ठरते. काही होत नाही कर ट्राय ही चिथावणी सार आयुष्य बरबाद करते.
घर दार, कुटुंब , म्हणजे काय हे समजून घ्यायच्या आतच आजचा तरूण व्यसनाधीन होतो आहे. अंगावर कौटुंबिक जबाबदाऱ्या नसल्याने खुशालचेंडू आयुष्य जगणारा युवक स्वतःसाठी जास्त जगताना आढळतो. हे स्वतःसाठी जगणे म्हणजे हवे तसे जगणे असा अर्थ घेऊन तो जगतो आहे. पैसा हे मूळ कारण यात कारणीभूत आहे. पैसा कमवायची सवय, गरज निर्माण होण्याआधी तो खर्च कसा करायचा याचा विचार करणारी तरूण पिढी व्यसनाच्या इतकी आहारी जाते की ते व्यसन त्यांच्या जगण्याच्या एक भाग होऊन बसते.
एखाद्या कुट॔बात वडिल धारे व्यसनी असतील तर मात्र तरूण पिढी आपोआपच व्यसनाधीन होते. समाजरूढी परंपरा यामुळे घरची स्त्री अजूनही सजगतेने या व्यसनी व्यक्तीला सांभाळून घरदार सावरत आहे. ताण तणाव दुंख निराशा या भावना स्त्रीयांनाही आहेत. पण जबाबदारी माणसाला माणूस बनवते आणि या मुळेच स्त्रीया कणखर पणे यातून मार्ग काढीत आहेत. नव्या पिढीच्या काही तरूणी व्यसनाधीन होत आहेत त्याला कौटुंबिक वातावरण जास्त जबाबदार आहे.
नशा, दारू हे व्यवसाय समाजान वाढवले आहेत. आणि हा समाज आपणच आहोत तेव्हा वैयक्तिक पातळीवर आपण व्यसनाधीनतेला आळा कसा घालता येईल यावर जास्त कठोर पणे उपाययोजना करायला हवी. मुलगा वयात येताना बापाने व्यसनाधीनतेचे प्रदर्शन टाळले आणि मुलाशी सुसंवाद साधला तरी मुलगा व्यसनापासून दूर राहू शकतो. चांगले झाले तर मी केले आणि वाईट झाले तर देवाने, नशीबाने, सरकारने केले ही विचारधारा जोपर्यंत आपण बदलत नाही तोपर्यंत हे सरकार देखील यात काही ठोस निर्णय घेऊ शकणार नाही असे मला वाटते.
व्यसनाधीनता रोखणे आपल्या हातात आहे पण व्यसनाधीनता थांवण्यासाठी सरकारला दोष देणे मला पटत नाही. सर्व दोष व्यक्ती कडे असताना परीस्थिती हाताबाहेर गेल्यावर सरकारकडून मदतयाचना करणे हा या समस्येवर तोडगा नाही. आपण समजूत दार आहोत.
आम्ही व्यसन मर्यादित ठेवले आहे अशी फुशारकी मारणारे देखील कौटुंबिक संवादात अपयशी ठरले आहेत. तेव्हा व्यसन ही समस्या गंभीर आहे ती सोडविण्यास जागरूकता महत्वाची आहे. जबाबदारी पेलताना माणूस म्हणून वैचारिक संस्कार सुशिक्षित पिढीवर करण्याची वेळ आली आहे. तंबाखू, दारू, सिगारेट नशा हे सर्व आपण स्वीकारलेले विकार आहेत त्याचा विनाश करण्यासाठी त्यांचा त्याग करणे, हा मोह टाळणे अतिशय योग्य आहे.
दुसऱ्याला अमूक एक गोष्ट करू नको हे सांगण्यापेक्षा आपल्या माणसाला व स्वतःला (जर व्यसन असेल तर )परावृत्त करणे जास्त सोपे आहे. तरूण आपणही होतो. आपण केलेल्या चुका मुलांनी करू नये एवढी काळजी जरी प्रत्येकाने घेतली तरी तरूण पिढी यातून वाचू शकेल.
भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।।38।।
Verily there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga finds it in the Self in time. ।।38।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Dushyanta’s Regret”. This poem is from her book “Tales of Eon)
☆ Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 2 ☆
☆ Dushyanta’s Regret ☆
(Dushyanta speaks when he is told by Gods that Shakuntala is indeed his wife and Bharat is indeed his son)
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(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji for sharing his literary and art works with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national level projects. We present an emotional poem of Capt. Raghuvanshi ji “Life goes on….”.)
निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकुला (तत्पश्चात् 2014 तक)
सदस्य, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2013 से 2017 तक)
उच्चतर शिक्षा विभाग, हरियाणा में प्रवक्ता (1971 से 2003 तक) तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त।
आत्मकथ्य – संवेदना के वातायन
संवेदना के वातायन मेरा 11वां काव्य- संग्रह है,जिसमें आप रू-ब-रू होंगे…मानवीय संवेदनाओं से,मन में उठती भाव-लहरियों से जो आपके हृदय को उल्लास,प्रसन्नता व आह्लाद से सराबोर कर देंगी तो अगले ही पल आप को सोचने पर विवश कर देंगी कि समाज में इतना वैषम्य, मूल्यों का अवमूल्यन व संवेदन-शून्यता क्यों?
मानव मन चंचल है। पलभर में पूरे ब्रह्मांड की यात्रा कर लौट आता है और प्रकृति की भांति हर क्षण रंग बदलता है। ऐसी स्थिति में वह चाह कर भी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकता।
आधुनिक युग में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता व अधिकाधिक धन-संग्रह की प्रवृत्ति पारस्परिक वैमनस्य व दूरियां बढ़ा रही है। वहआत्म-केंद्रित होता जा रहा है और संवेदनहीनता रूपी विष उसे निरंतर लील रहा है। परिवार-जन व बच्चे अपने-अपने द्वीपों में कैद होकर रह गए हैं। सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं। ऐसे भयावह वातावरण में स्वयं को सामान्य रख पाना असंभव है, जिस का परिणाम टूटते एकल परिवारों के रूप में स्पष्ट भासता है। हर बाशिंदा अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह गया है।
समाज में सुरसा की भांति पांव पसारता भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी व दुष्कर्म के हादसे समाज में अराजकता, विषमता व विश्रंखलता को बढ़ा रहे हैं। स्नेह और सौहार्द के भाव नदारद होने के कारण सहानुभूति, सहनशीलता व धैर्य का स्थान शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता ने ग्रहण कर लिया है। आप ही सोचिए क्या,इन विषम परिस्थितियों में… जहां हर इंसान मुखौटा ओढ़े एक-दूसरे को छल रहा हो, संवेदनाएं मर रही हों,औरत की अस्मत कहीं भी सुरक्षित न हो…सहज व सामान्य रहना संभव है? शायद नहीं …..जहां अहम् की दीवारों में कैद पति-पत्नी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में सुक़ून का अनुभव करते हों, स्वयं को सिकंदर-सम ख़ुदा मानते हों, उन्हें आजीवन एकांत की त्रासदी को झेलना स्वाभाविक है। बच्चों के मान-मनुहार और आत्मीयता के पल, जो उन्हें केवल अपने परिवारजनों के सानिध्य में प्राप्त हो सकते हैं,वे उस आनंद से वंचित रह जाते हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। )
यहीं से प्रारम्भ होती है…मानव के तनाव की अंतहीन यात्रा,जिससे वह चाह कर भी निज़ात नहीं पा सकता।तलाश में भटकता रहता है ,परन्तु शांति तो होती है उसके अंतर्मन में..जैसी सोच वैसी क़ायनात।
साहित्य और समाज का संबंध शाश्वत है, अटूट है और वह मानव के अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है। परन्तु आज का मानव संवेदन-शून्य होता जा रहा है। वह केवल अधिकारों की परिभाषा जानता-समझता है, कर्त्तव्य-निष्ठता से अनजान, वह केवल अपने तथा अपने परिवार तक सिमट कर रह गया है,निपट स्वार्थी हो गया है।
सरहदों पर तैनात सैनिक न केवल देश की रक्षा करते हैं बल्कि हमें भी सुक़ून भरी ज़िन्दगी प्रदान करते हैं। परन्तु हमारे नुमाइंदे,बड़े-बड़े पदों पर आसीन रहते हुए उन सैनिकों के परिवारजनों के प्रति अपने दायित्व का वहन नहीं करते तथा सीमा पर तैनात प्रत्येक सैनिक को पेंशन का अधिकारी नहीं समझते हैं। क्या यह उनके परिवारों के प्रति अन्याय नहीं है? क्या उनके शवों के नाम पर अंग-प्रत्यंग इकट्ठे कर, उनके घर वालों को सौंप देने मात्र से उनके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है?
हर दिन घटित होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं को देख हम आंखें मूंदे रहते हैं? क्या हम अनुभव कर पाते हैं… उस मासूम की मानसिक यन्त्रणा,जो उसे आजीवन झेलनी पड़ती है? क्या बाल मज़दूरी करते बच्चों को देख हमारा मन पसीजता है? क्या सड़क पर पत्थर तोड़ती मज़दूरिन, धूप, आंधी, तूफान व बरसात में निरंतर कार्य-रत मज़दूरों-किसानों व गरीबों को झुग्गियों में जीवन बसर करते देख,हमारे नेत्रों से आंसुओं का सैलाब बह निकलता है? क्या अमीर-गरीब में बढ़ गई खाई, हमें सोचने पर विवश नहीं करती कि हम दायित्व-विमुख ही नहीं,दायित्व विमुक्त हो गए है। हमारे लिए हमारा परिवार सर्वस्व हो गया है।
परन्तु आजकल एकल परिवार भी बिखर रहे हैं। लिव इन व सिंगल पेरेंट का चलन बढ़ रहा है और वे इस अवधारणा को स्वीकार, यह बतलाने में फ़ख़्र महसूस करते हैं कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को नकार दिया है।
शायद इसका कारण है मीडिया से जुड़ाव, जिसने भौगोलिक दूरियों को तो समाप्त कर दिया है,परंतु दिलों की दूरियों को पाटना असंभव बना दिया है। सामान्यजन,विशेषत: बच्चों का अपराध जगत् में प्रवेश करना, इसका प्रत्यक्ष परिणाम है। जब तक हम इसके भयावह स्वरूप से अवगत होते हैं, लौटना असंभव हो जाता है। हम स्वयं को उस दलदल में फंसा असहाय, बेबस, विवश व मज़बूर पाते हैं। हमें प्रतिदिन नई समस्या से जूझना पड़ता है। सिमटना व बिखरना हमारी नियति बन जाती है और हम लाख चाहने पर भी इस चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते।
संवेदनाएं वे भाव-लहरिया हैं,जो हमारे मनोमस्तिष्क को हरपल उद्वेलित, आलोड़ित व आनंदित करती रहती हैं। कभी वे सब्ज़बाग दिखलाती हैं, तो कभी सुनामी की गगनचुंबी लहरों में बीच भंवर छोड़ जाती हैं। हम इस सुख-दु:ख के जंजाल में सदैव उलझे रहते हैं। सुक़ून की तलाश में डूबते-उतराते अपने जीवन के चिरंतन लक्ष्य, उस सृष्टि-नियंता से मिलने को भुलाकर मायाजाल में उलझे, इस संसार से रुख़्सत हो जाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।
‘संवेदना के वातायन’ आंख-मिचौली है, उमंगों- तरंगों व मन में निहित आह्लाद -उल्लास की,विरह-मिलन की, जय-पराजय की और सामाजिक विसंगतियों-विषमताओं से रू-ब–रू होने की,जो हमारे समाज की जड़ों को विषाक्त कर खोखला कर रही हैं। आशा है, इस संग्रह की कविताएं आपके जीवन में उजास भर कर आलोड़ित-आनंदित करेंगे तथा नव-चेतना से आप्लावित कर देंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ….
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)
☆ संजय दृष्टि – वह – 2☆
माँ सरस्वती की अनुकम्पा से *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 8 ☆
♥ कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन ♥
एयर कंडीशन्ड, सजे धजे मीटिंग हाल में अंडाकार भव्य टेबिलो के किनारे लगी आरामदेह रिवाल्विंग कुर्सियों पर तमाम जिलों से आये हुये अधिकारियो की बैठक चल रही थी। गहन चिंता का विषय था कि विगत माह जो आंकड़े कम्प्यूटर पर इकट्ठे हुये थे उनके अनुसार प्रदेश में कुपोषण बढ़ रहा था। बच्चो का औसत वजन अचानक कम हो गया था। चुनाव सिर पर हैं, और पड़ोसी प्रदेश जहां विपक्षी दल की सरकार है, के अनुपात में हमारे प्रदेश में बच्चोँ में कुपोषण का बढ़ना संवेदन शील मुद्दा था, कई दिनो तक आंकड़ो की फाइल इस टेबिल से उस टेबिल पर चक्कर काटती रही। जिम्मेदारी तय किये जाने का असफल प्रयत्न किया जाता रहा, अंततोगत्वा कुपोषण की दर में वृद्धि के आंकड़ों पर मंत्री मण्डल में विचार विमर्श की लम्बी प्रक्रिया के बाद माननीय मंत्री जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी सार्वजनिक चिंता जाहिर कर दी। उन्होंने बच्चों के स्वास्थ्य से किसी को खिलवाड़ न करने देने की, एवं इसमें कोई भी कसर छोड़ने वाले अधिकारी को न बख्शने की खुली चेतावनी भी दे डाली।
आनन फानन में फैक्स भेजकर बाल विकास अधिकारियो, स्वास्थ्य अधिकारियों, जिला अधिकारियों को राजधानी बुलाया गया था। और परिणाम स्वरूप सरकार के मुख्य सचिव कुपोषण के आंकड़ो की चिंता में बैठक ले रहे थे। सरकार के जन संपर्क विभाग के अधिकारी मीटिग के नोट्स ले रहे थे, टीवी चैनल के पत्रकारो को, मीडिया को ससम्मान मीटिंग के कवरेज के लिये आमंत्रित किया गया था। एक बालिका की कलात्मक मुस्कराती तस्वीर एक प्रमुख अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी थी जिसमें उसकी हड्डियां दिख रही थीं, वह तस्वीर भी एजेंडे में थी, और उस तस्वीर में विपक्ष की साजिश ढ़ूढ़ने का प्रयत्न हो रहा था। विचार मंथन चल रहा था।
एक युवा अधिकारी ने अपने पावर पाइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से आंकड़े प्रस्तुत कर बताया कि उसके क्षेत्र में तो बच्चों का वजन कम होने की अपेक्षा लगातार बढ़ता ही जा रहा है, वरिष्ठ सचिव ने उसे डपट कर चुप कराते हुये कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? उन्होंने चिंता करते हुये अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर उस अधिकारी को बताया कि अचानक वजन बढ़ना या कम होना थायराइड की शिकायत के कारण होता है। उन्होंने सभी से अपने अपने क्षेत्र में बच्चो का थायराइड टेस्ट कर बच्चो के स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की सलाह दी। जिसे सभी जिम्मेदार अधिकारियों ने अपनी कीमती डायरियो में तुरंत नोट कर लिया। एक महोदय ने इस सुझाव पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये कुछ सवाल खड़े करने चाहे तो, बड़े साहब के समर्थक एक आई ए एस अधिकारी ने तुरंत ही उन्हें लगभग घुड़कते हुये कुपोषण के आंकड़ो पर सरकार की चिंता से अवगत कराया और इफ एण्ड बट की अपेक्षा काम करके परिणाम लाने को कहा। उस नासमझ को समझ आ गया कि यस मैन बनना ही बेहतर है। बड़े साहब के निजि सहायक ने तुरंत थायराइड टेस्ट के लक्ष्य निर्धारित करने हेतु आवश्यक प्रोफार्मा बना कर सबको देने हेतु कार्यवाही प्रारंभ कर दी, स्वास्थ्य विभाग के अमले ने त्वरित रूप से मोबाइल पर ही थायराइड टेस्ट की बाजार में कीमत का पता लगाया, और प्राप्त कीमत को दोगुना कर टेस्ट किट की खरीदी हेतु बजट प्रावधान हेतु नोटशीट लिख कर सक्षम स्वीकृति के लिये तैयारी कर ली। कुपोषण प्रभावित क्षेत्रो का पता लगाने के लिये बाल विकास अधिकारियो को उनकी जीप का औसत मासिक माइलेज बढ़ाने का अवसर मिलता नजर आया, जिसका लाभ उठाने हेतु एक अधेड़ अधिकारी ने अपनी बात रखी, जिसे बिना ज्यादा महत्व दिये वरिष्ट सचिव जी ने अगला बिंदु विचारार्थ ले लिया।
इससे सभी को यह बात स्पष्ट हो गई कि बिना मीटिंग में बोले, बाद में मीटिंग का हवाला देकर बहुत कुछ सकारात्मक किया जाना ज्यादा उचित होता है। बहरहाल कुपोषण से बचने के लिये दाल दलिया, दूध आदि की आपूर्ति बढ़ाने हेतु लिये गये मंत्री जी के निर्णय से अवगत करा कर लम्बी चली मीटिंग देर शाम को समाप्त हो सकी। मीटिंग की समाप्ति पर सभी प्रतिभागियों को डिनर पर आमंत्रित किया गया। डिनर दाल दलिया के सप्लायर की ओर से सौजन्य स्वरूप आयोजित था, और डिनर में बटर चिकिन की डिश विशेष रूप से बनवाई गई थी, क्योकि मुख्य सचिव महोदय को बटर चिकिन खास पसंद है।