(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति कोम. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “विज्ञापनवादी अभियान”। इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
इन दिनो राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान के लिये शहरो के बीच कम्पटीशन चल रहा है. किसी भी शहर में चले जायें बड़े बड़े होर्डिंग, पोस्टर व अन्य विज्ञापन दिख जायेंगे जिनमें उस शहर को नम्बर १ दिखाया गया होगा, सफाई की अपील की गई होगी. वास्तविक सफाई से ज्यादा व्यय तो इस ताम झाम पर हो रहा है, कैप, बैच, एडवरटाइजमेंट, भाषणबाजी खूब हो रही है. किसी सीमा तक तो यह सब भी आवश्यक है जिससे जन जागरण हो, वातावरण बने, आम आदमी में चेतना जागे. किन्तु इस सबका अतिरेक ठीक नही है. यह गांधी वादी सफाई नहीं है. शायद यह बढ़ती आबादी और विज्ञापनवादी आधुनिकता के लिये जरूरी बन चला हो पर है गलत.
यह जुमलेबाजी और ढ़ेर से विज्ञापन राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा अनावश्यक खर्च है, राष्ट्रीय अपव्यय है. थोड़ा अंदर घुसकर विवेचना करें तो सफाई की जो मूल आकांक्षा है इस सबसे उसे ही हानि हो रही है, पोस्टर फटकर कचरा ही बनेंगे. पोस्टर बैनर बनाने में लगी उर्जा पर्यावरण को हानि ही पहुंचा रही है.
इससे तो विज्ञापन का कोई इलेक्ट्रानिक तरीका जैसे टी वी, रेडियो पर चेतना अभियान हो तो वह बेहतर हो. न केवल स्वच्छता अभियान के लिये बल्कि हर अभियान में कागज की बर्बादी गलत है. यदि इस तरह पोस्टरबाजी से जनता के मन में संस्कार पैदा किये जा सकते तो अब तक कई क्रातियां हो चुकी होती. वास्तव में हर शहर अपनी तरह से नम्बर वन ही होता है.
जरूरत है कि शहर की अस्मिता की पहचान हो, सादगी से भी स्थाई व वास्तविक सफाई हो सकती है. देश में तरह तरह के अभियान चल रहे हैं आगे भी अनेक जनचेतना अभियान चलेंगे, उनके संचालन हेतु बौद्धिक विष्लेशण करने के बाद ही नीति तय करके तरीके व संसाधन निर्धारित किये जाने चाहिये.
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अष्टम अध्याय
(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।6।।
जो जो जिसको याद कर तजते है यह देह
वे उसको ही पाते है क्योंकि उस पर स्नेह।।6।।
भावार्थ : हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।।6।।
Whosoever at the end leaves the body, thinking of any being, to that being only does he go, O son of Kunti (Arjuna), because of his constant thought of that being!।।6।।
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एकआलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ इस रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
इस शृंखला की पुनः शुरुआत गुरुवर डॉ राजकुमार सुमित्र जी से प्रारम्भ कर रहे हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में उनकी सुपुत्री एवं प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ भावना शुक्ल से बेहतर कौन लिख सकता है। आज प्रस्तुत है “डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व”।
☆ डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
संस्कारधानी जबलपुर के यशस्वी साहित्यकार, साहित्याकाश के जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र, संवेदनशील साहित्य सर्जक, अनुकरणीय, प्रखर पत्रकार, कवि, लेखक, संपादक, व्यंग्यकार, बाल साहित्य के रचयिता, प्रकाशक अनुवादक, धर्म, अध्यात्म, चेतना संपन्न, तत्वदर्शी चिंतक, साहित्यिक-सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के प्रणेता डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। सुमित्र जी में सेवा भावना, सहानुभूति, विनम्रता, गुरु-गंभीरता तथा सहज आत्मीयता की सुगंध उनके व्यक्तित्व में समाहित है।
उन्होंने लगभग छह दशकों तक जन मन को आकर्षित एवं प्रभावित किया। साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की है और अनवरत करते जा रहे हैं। नगर ही नहीं देश तथा विदेशों तक उनकी यश पताका लहरा रही है।
जबलपुर के राष्ट्र सेवी साहित्यकार एवं पत्रकार स्वर्गीय पंडित दीनानाथ तिवारी के पौत्र तथा भोपाल के ख्याति लब्ध अधिवक्ता “ज्ञानवारिधि” स्वर्गीय पंडित ब्रह्म दत्त तिवारी के सुपुत्र डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” का जन्म 25 अक्टूबर 1938 को जबलपुर नगर में हुआ।
साहित्य और पत्रकारिता के संस्कार उत्तराधिकार में प्राप्त हुए. मानस मर्मज्ञ डॉ ज्ञानवती अवस्थी की प्रेरणा से सन 1952 से काव्य रचना प्रारंभ की। मध्य प्रदेश के अनेक शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करते हुए पीएचडी तक की उपाधियाँ ससम्मान प्राप्त की। शिक्षकीय अध्यापन-कर्म से जीवनारंभ कर सुमित्र जी बहुमुखी प्रतिभा साहित्य साधना तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में सतत गतिशील रहे…
सुमित्र जी के शब्दों में…
मित्रों के मित्र सुमित्र का व्यक्तित्व ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करता है, धन से ना सही किंतु मन से तो वे ‘राजकुमार’ ही है। उन्होंने लिखा है…
” मेरा नाम सुमित्र है, तबीयत राजकुमार।
पीड़ा की जागीर है, बांट रहा हूँ प्यार।”
जबलपुर से प्रकाशित नवीन दुनिया के साहित्य संपादक के रूप में उन्होंने समर्पित होकर पत्रकारिता और साहित्य की सेवा की और ना जाने कितने नवोदित सृजन-धर्मी पत्रकार, कवि, लेखक सुमित्र जी के निश्चल स्नेह और आशीष की छाया तले पल्लवित पुष्पित हुए. जो आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में एक समर्थ रचनाकार के रूप में गिने जाते हैं।
साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा है जिसमें सुमित्र जी ने अपनी लेखनी को ना चलाया होगा इनका कौशल बुंदेली काव्य सृजन में भी देखने को मिलता है।
आपके शब्दों में…वीणा पाणि की आराधना- सुफलित नाद
“शब्द ब्रह्म आराधना, सुरभित सफेद नाद।
उसका ही सामर्थ्य है, जिसको मिले प्रसाद।“
सुमित्र जी की रचनात्मक उपलब्धियाँ अनंत है। पत्रकार साहित्यकार डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र ने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी गौरवान्वित किया वहीं दूसरी ओर आपने हिन्दी साहित्य के कोष की श्री वृद्धि भी की है। छंद बद्ध कविता, छंद मुक्त कविता, कहानी, व्यंग, नाटक आदि सभी विधाओं में आपने लिखा है इसके साथ ही आपने श्री रमेश थेटे की मराठी कविताओं का रूपांतर‘अंधेरे के यात्री’ तथा पीयूष वर्षी विद्यावती के मैथिली गीतों का हिन्दी में गीत रूपांतर आपको मूलतः रस प्रवण साहित्यकार सिद्ध करता है आपकी इस साहित्य साधना और साहित्यिक पत्रकारिता अक्षुण्ण है।
सुमित्र जी के काव्य रस की बौछार …
प्रिय के सौंदर्य को लौकिक दृष्टि से देखते हुए भी उसमें अलौकिकता कैसे आभास किया जा सकता है इस भाव को बड़े ही पवित्र प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया।
नील झील से नयन तुम्हारे
जल पाखी-सा मेरा मन है….
दांपत्य जीवन में रूठना मनाना का क्रम चलता है ऐसे में पत्नी की पति को कुछ कहने के लिए विवश करती है… गीत की कुछ पंक्तियाँ
बिछल गया माथे से आंचल
किस दुनिया में खोई हो
लगता है तुम आज रात भर
चुपके चुपके रोई हो।
रोना तो है सिर्फ़ शिकायत
इसकी उम्र दराज नहीं
टूट टूट कर जो ना बजा हो
ऐसा कोई साज नहीं
मैं तुमसे नाराज नहीं।
दूसरों के सुख दुख में अपने सुख-दुख की प्रतिछाया…
दूसरों के दुख को पहचान
उसे अपने से बड़ा मान
तब तुझे लगेगा कि तू
पहले से ज़्यादा सुखी है
और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा
तुझ से भी ज़्यादा दुखी है…
नई कविता के तेवर को अत्यंत मार्मिक ढंग से कविता में प्रस्तुत किया है…
तुमने
मेरी पिनकुशन-सी
जिंदगी से
सारे ‘पिन’ निकाल लिए
बोलो।
इन खाली जख्मों को लिए
आखिर कोई कब तक जिए;
काव्य शिल्प लिए…
अंतहीन गंधहीन मरुस्थल में
भटकता
मेरा तितली मन
दिवास्वप्न देखता देखता
मृग हो जाता है।
कल्पना का वैशिष्ट…
मेरी दृष्टि
मलबे को कुरेद रही है-
आह! लगता है-
गांधी के रक्त स्नात वस्त्र
काले पड़ गए हैं
पंचशील के पांव में
छाले पड़ गए हैं।
यादें नामक कविता का अंश…
जैसे बिजली कौंधती है
घन में,
यादें कौंधती हैं
मन में।
प्रेम तो ईश्वरीय वरदान है। इनको केंद्रित कर दोहे…
“नहीं प्रेम की व्याख्या, नहीं प्रेम का रूप।
कभी चमकती चांदनी, कभी देखती धूप।“
0000
“स्वाति बिंदु-सा प्रेम है, पाते हैं बड़भाग।
प्रेम सुधा संजीवनी, ममता और सुहाग।“
प्रिय की दूरी की पीड़ानुभूति—-
“तुम बिन दिन पतझड़ लगे, दर्शन है मधुमास।
एक झलक में टूटता, आंखों का उपवास.. ।”
सुमित्र जी ने स्मृति को, याद को विभिन्न कोणों से चित्रित किया है———
“याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।
अपना तो यह हाल है, यादें बनी लिबास।”
0000
“फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।
वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।”
अहंकार के विसर्जन के बिना प्रेम का कोई औचित्य नहीं है।
“सांसो में तुम हो रचे, बचे कहाँ हम शेष।
अहम समर्पित कर दिया, करें और आदेश।”
“फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम ।
मन मीरा-सा हो गया, आँख हुई घनश्याम।“
साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सुमित्र जी ने जो जीवन जिया वह घटना पूर्ण चुनौतीपूर्ण रहा। सुमित्र के जीवन को सजाया संवारा और उसे गति दी …जीवनसंगिनी स्मृति शेष डॉ.गायत्री तिवारी ने। सुमित्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के इन गुणों का प्रवाह निरंतर बना रहे ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि वह दीर्घायु हो। मैं अपने आप को बहुत ही सौभाग्यशाली मानती हूँ कि मैं डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ और डॉ गायत्री तिवारी की पुत्री हूँ।
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं. हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं. उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज की व्यंग्य पुरुष बली नहिं होत है । यह व्यंग्य पढ़ने के बाद कई विवाहित पुरुषों की भ्रांतियां दूर हो जानी चाहिए और जो ऊपरी मन से स्वीकार न करते हों वे मन ही मन तो स्वीकार कर ही लेंगे। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 26 ☆
☆ व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆
हमारे समाज में पुरुषों ने यह भ्रम फैला रखा है कि समाज पुरुष-प्रधान है और मर्दों की मर्जी के बिना यहाँ पत्ता भी नहीं खड़कता। लेकिन थोड़ा सा खुरचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कोरी बकवास और ख़ामख़याली है। कड़वी सच्चाई यह है कि आदिकाल से पुरुष स्त्री का इस्तेमाल करके अपना काम निकालता रहा है, और इसके बावजूद अपनी श्रेष्ठता का दम भरता रहा है। इसलिए इस मुग़ालते के छिलके उतारकर हक़ीक़त से रूबरू होना ज़रूरी है।
करीब दस दिन पहले मेरे पड़ोसी खरे साहब ने अपने नौकर को दारूखोरी के जुर्म में निकाल दिया था। उस समझदार ने दूसरे दिन अपनी पत्नी को खरे साहब के घर भेज दिया।पति के इशारे पर मोहतरमा ने खरे साहब के दरवाज़े पर बैठकर ऐसी अविरल अश्रुधारा बहायी कि सीधे-सादे खरे साहब पानी-पानी हो गये। नौकर को तो उन्होंने बहाल कर ही दिया, उसकी पत्नी को विदाई के पचास रुपये और दिये। चतुर पति ने लक्ष्यवेध के लिए भार्या के कंधे का सहारा लिया।
बहुत से लेखक, जो अपने माता-पिता के दिये हुए नाम से पत्रिकाओं में नहीं छप पाते, कई बार स्त्री-नाम का सहारा लेते हैं। कहते हैं नाम परिवर्तन से वे अक्सर छप भी जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्त्री-नामों के लिए संपादकों के दिल में एक ‘मुलायम कोना’ होता है।
आजकल बस और ट्रेन के टिकटों के लिए लंबी लाइन लगती है। लेकिन महिलाओं की लाइन अलग होती है और स्वाभाविक रूप से वह छोटी होती है।बुद्धिमान पति अपनी पत्नी को लाइन में लगा देता है और खुद मुन्ना को गोद में लेकर सन्देह के दायरे से दूर खड़ा होकर तिरछी नज़रों से देखता रहता है। पत्नी जब टिकट लेकर लौटती है तब पतिदेव अपने सिकुड़े हुए सीने को चौड़ा करते हैं और पुनः ‘पुरुष बली’ बनकर पत्नी के आगे आगे चल देते हैं।
ट्रेन में घुसने के लिए भी पति महोदय वही स्टंट काम में लाते हैं। भीड़ भरे डिब्बे में भीतरवाले दरवाज़ा नहीं खोलते। ऐसी स्थिति में पति महोदय एक खिड़की पर पहुँचते हैं और खिड़की के पास आसीन लोग जब तक स्थिति को समझें तब तक पत्नी को बंडल बनाकर अन्दर दाखिल कर देते हैं। पति महोदय जानते हैं कि पत्नी को कोई हाथ नहीं लगाएगा। इसके बाद वे चिरौरी करते हैं, ‘भाई साहब, जनानी सवारी अन्दर है, अकेली छूट जाएगी। आ जाने दो साब, गाड़ी छूट जाएगी।’ और यात्रियों के थोड़ा ढीला पड़ते ही वे अपनी टाँगों को एडवांस भेजकर डिब्बे में अवतरित हो जाते हैं।
फिर पति महोदय सीट पर बैठे किसी यात्री से अपील करते हैं, ‘भाई साहब, थोड़ा खिसक जाइए, जनानी सवारी बैठ जाए। ‘ हिन्दुस्तानी आदमी भला महिला हेतु किये गये आवेदन का कैसे विरोध करेगा?भाई साहब खिसक जाते हैं और जनानी सवारी बैठ जाती है। फिर पति-पत्नी में नैन-सैन होते हैं, पत्नी खिसक खिसककर थोड़ी सी ‘टेरिटरी’ और ‘कैप्चर’ करती है और पतिदेव को इशारा करती है। जब तक सीट वाले संभलें तब तक प्रियतम भी बड़ी विनम्रता से प्रिया के पार्श्व में ‘फिट’ हो जाते हैं। अब भला राम मिलाई जोड़ी को कौन अलग करे?
राशन की लाइनों में भी यही होता है। महिलाओं की लाइन अलग होती है। पत्नी को लाइन में लगाकर पुरुष चुपचाप दूर बैठ जाता है। पत्नी जब राशन लेकर निकलती है तो पुरुष महोदय तुरन्त अंधेरे कोने से निकलकर बड़े प्रेम से उसके हाथ का थैला थाम लेते हैं और लाइन में लगे पुरुषों पर दयापूर्ण दृष्टि डालते हुए घर को गमन करते हैं।
इसलिए कुँवारों से मेरा निवेदन है कि यदि आप बसों और ट्रेनों के टिकटों के लंबे ‘क्यू’ से परेशान हों,ट्रेनों में जगह न पाते हों या डेढ़ टाँग पर खड़े होकर यात्रा करते हों, राशन की लाइन के धक्कमधक्का से त्रस्त हों,तो देर न करें। कुंडली मिले न मिले, तुरंत शादी को प्राप्त हों और इन अतिरिक्त सुविधाओं का लाभ उठाएं। पत्नी थोड़ी स्वस्थ हो ताकि भीड़भाड़ में मुरझाए नहीं और साथ ही थोड़ी कृशगात भी हो ताकि आप बिना शर्मिन्दा हुए उसे अपनी बाहुओं में उठाकर ट्रेन की खिड़की में प्रविष्ट करा सकें।आपके सुखी भविष्य का आकांक्षी हूँ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 23☆
☆ परिदृश्य ☆
मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।
लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।
दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है। व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य। मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।
विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई से हर्षित होता है, न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं..,इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना लागी लगन. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ लागी लगन ☆
प्रीत की धुन छिड़ी,
छिड़ी बस छिड़ती रही
अब तू नाच …..
देख स्वप्न , दिवास्वप्न भी
मूंद आँखे या अधखुली
अब तू जाग …….
बोलेगा हर अंग तेरा ,
हर राग तेरा , गीत तेरा
अब तू गा …….
प्रेमपथ पर देह चली ,
गीत गाते मीरा चली ,
कृष्ण की परिक्रमा उसका नाच है ,
अधखुली दृष्टि उसकी जाग है ,
समर्पण , प्रेम का दूजा नाम है ।
तो ,
अब तो तू जाग ………
(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता – मेरा प्यार अभागा गाँव। इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )
अगले सप्ताह रविवार से हम प्रस्तुत करेंगे श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई “।
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी प्रिय तनु सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं. सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। सुश्री आरुशी जी का आज का आलेख, एक पत्र स्वरुप आलेख है जिसका पात्र तनु है। यह पात्र इतना भावप्रवण एवं आत्मीय है कि आप इसे पूरा पढ़ कर आत्मसात करने से नहीं रोक पाते। सुश्री आरूशी जी का यह कथन ही काफी है “first impression is best impression” पात्र तनु को अपने ह्रदय के उद्गारों से अवगत करने के लिए। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं। उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #30 ☆
☆ प्रिय तनु ☆
प्रिय तनु,
विषयलाच हात घालते… आज चक्क तुला पत्र लिहायचं आहे… generally जी व्यक्ती आपल्यापासून दूर असते तिला पत्र लिहितो, नाही का! पण तू कधी दूरच गेला नाहीस त्यामुळे तुला पत्र लिहायची वेळच आली नाही… खरं तर हे एक कारण झालं माझा बचाव करण्यासाठी दिलेलं…
मी जाईन तिथे तू, हे समीकरण कायम होतं, त्यात कधीच बदल झाला नाही… rather आरुशी म्हटलं की तुझीच प्रतिमा समोर येते. आणि ती प्रतिमा जोपासण्याचा आणि जपण्याचा प्रयत्न मी नेहमीच करते… first impression is best impression ह्यावर माझा दृढ विश्वास आहे… हे impression किंवा image तू जपलीच पाहिजेस, हा अट्टाहासच म्हण हवं तर… त्यात तुला कधीच ढवळाढवळ करता आली नाही, हो ना ! माझं वर्चस्व गाजवलं आणि त्यातूनच सुखावत राहिले…
थाम्ब, थाम्ब, ह्याचा अर्थ मी तुझ्याकडून काम करवून घेत आले असाच होतो ना ? तुला राबवून घेतलं का रे? तुझ्या मनाविरुद्ध गोष्टी घडल्या का? हे प्रश्न केव्हा पडतात माहित्ये, जेव्हा तू, मी सांगेन त्याप्रमाणे वागायला नकार देतोस तेव्हा. आणि तेव्हाच लक्षात येतं की मी तुला कायम गृहीत धरत आले आणि तुझ्या अपेक्षांकडे दुर्लक्ष करत राहिले.
शाश्वत – अशाश्वत वगैरे गोष्टी सुरू झाल्या की तू नश्वर, अशाश्वत म्हणून बऱ्याच वेळा तुला कमी दर्जाची वागणूक देण्यात आली असेल… पण ज्या चैतन्याने, ज्या पंचमहाभूतांनी तुला तयार केलं आहे, त्यांना ह्या गोष्टींचा विसर पडत नाही… मग कधी कधी त्यांच्या मनाविरुद्धा गोष्टी घडायला लागल्या की ह्या देहाकडे लक्ष द्या, त्याची काळजी घ्या ह्याची वॉर्निंग मिळतेच लगेच… ह्याचा त्रास तुझ्याबरोबर मलाही होतोच की ! पण माझ्यासाठी तू जास्तीतजास्त सहन करत राहतोस हे नक्की. कारण काही ही झालं तरी तुला ठीक ठाक राहवच लागत ना. मग काय माझ्या मनाविरुद्ध व्यायाम सुरू होतात, औषध सुरू होतात, योगा पण सुरू होतं, हल्ली तर ते diet चं फॅड तर तुझं जिणं नको नको करून टाकत असेल नाही !
एकंदरीत काय, तुला डावलून आयुष्य पुढे जाऊ शकत नाही, ह्याची जाणीव जेवढ्या लवकर होईल तेवढ्या लवकर तुझ्या माझ्यातील सख्य बहरेल, एका सुंदर विचारधारेला मूर्त रूप मिळेल, नाही का !
मी एवढंच म्हणेन, माझं अस्तित्व, माझं म्हणून टिकवायला तू कारणीभूत आहेस आणि तुझी सोबत माझ्यातील ‘मी’ ला सावरत असते, फुलवत असते. तू असाच सोबत राहशील, अशी रचना अजून तरी अस्तित्वात नाही ह्याचं खूप दुःख आहे आणि ते बदलणं माझ्या हातात नाही, ही खंत कायम राहील. माझ्याकडून निश्चित रूपाने जे होणे ठरलेले आहे, ज्याचा माझ्या भाळी शिक्कामोर्तब झाला आहे, ते घडायला, तू आहेस हीच खात्री निभावून नेऊ शकते.
कित्ती छान, सुंदर, अफाट अशा विशेषणांनी माझं आयुष्य रंगलेलं जरी नसलं तरी, तुझ्यामध्ये निवास केल्याने ह्या आयुष्याची व्याख्या नक्कीच बदलते, असं मी म्हणू इच्छिते. माझ्या आयुष्याला एक वेगळाच आयाम मिळतो, आणि आरुशी ह्या नावाला एक ओळख बहाल करतोस, ह्यासाठी मी तुझी कायम ऋणी राहीन ह्यात वाद नाहीच !
( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया। आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं में भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ओंस की बूँदे । अब आप प्रत्येक रविवार सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अष्टम अध्याय
(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।।5।।
मुझको करते याद जो तजते सहज शरीर
वे पाते मुझको सदा यह विचार गंभीर।।5।।
भावार्थ : जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।5।।
And whosoever, leaving the body, goes forth remembering Me alone at the time of death, he attains My Being; there is no doubt about this.।।5।।