मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

२३जुलै वनसंवर्धन दिन विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  23 जुलाई  वनसंवर्धन दिवस पर विशेष आलेख “ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे । इस विशेष आलेख के लिए श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  का विशेष आभार ) 

 

☆ पर्यावरण – केल्याने होत आहे रे ☆

 

सध्या सगळीकडे छान पाऊस पडल्याने वातावरण कसं धुंद झालंय.आणि वृक्षारोपणाचं महत्त्व पटलेल्या आपणा सर्वांनाच कधी एकदा झाडं लावतोय असं झालं असेल नां ? अगदी मलासुद्धा !

झाडं लावणं ती जगवणं हे तर पर्यावरणच्या दृष्टीनं अत्यंत महत्वाचे व काळाची गरज आहे, त्यामुळे निसर्ग प्रेमी , शाळा महाविद्यालयातली मुलं , विविध सामाजिक संस्था , कंपन्या वृक्षारोपणासाठी अगदी हिरिरीने पुढं येतील.

झाडं ही पर्यावरणाच्या दृष्टीने फायदेशीर आहेत.कारण आज आपल्याला श्र्वास घेणं ही अवघड होऊ लागलंय.! कारण हवेतल्या आॅक्सीजनच प्रमाण घटत चाललंय अन् ते फक्त झाडं आणि झाडांचं भरुन काढू शकतात.आपण कितीही पैसे दिले तरी आॅक्सीजन विकत घेऊ शकत नाही.

पण! हा पण शब्द फार महत्त्वाचा आहे.नुकताच एक व्हीडिओ व्हायरल झालाय,त्यात सांगितलंय की निसर्गातल्या मनुष्य प्राण्यांसाठी योग्य अशीच झाडं लावणं आवश्यक आहे.

त्यासाठी पुण्याच्या Holistic  Environment Activities & Learning Foundation, Pune (www.healngo.com now non-functional.  For more information you may contact their facebook page – https://www.facebook.com/healngopune/?rc=p)

यांनी व्हीडीओ पाठवलाय.त्यात त्यांनी म्हटलंय, कोल्हापूर जवळच एक गाव उंदीर व सापांनी व्यापून गेलं. घरात साप , बाहेर साप, विषारी,बिन विषारी.या गावात एवढे साप कां यावेत, याबाबत संशोधन केले तेव्हा समजलं की तिथं चुकीचं वृक्षारोपण करण्यात आले होते.

“गिरीपुष्प “अर्थात उंदीर मारी ही झाडं गावाच्या आसपास खूप मोठ्या प्रमाणात लावण्यात आली व ती पटापट वाढली.

ह्या झाडांची फुलें प्राण्यांसाठी विषारी असतात,

त्यामुळे झाडाच्या आसपासचे उंदीर गावात घुसले व त्यामागे साप.

ही झाडं लावताना कुणालाही एवढा घातक परिणाम होईल याची कल्पना ही नव्हती.

वृक्षारोपण करताना ते कोणत्या प्रदेशात म्हणजे माळरान कि, पठार किंवा टेकडी , तसेच त्या प्रदेशात पाऊस किती पडतो, कुठल्या प्रकारची वनस्पती तेथे जगू शकेल हे पहायचं महत्त्वाचे आहे नुसती झाडं लावणं नाही असे या व्हीडीओत म्हटले आहे.त्यात असेही म्हटले आहे की, काळजीपूर्वक झाडं नि्वडली तरच प्राणी,पक्षी,कीटक व आपल्यालाही मदतीची ठरतात.

तरी शासनाच्या संबंधित विभागाने याबाबतच्या वस्तुस्थितीची सत्यासत्यता पडताळून पाहावी व त्यात तथ्य असल्यास वृक्षारोपणात सहभागी होणाऱ्यांना आवश्यक त्या सूचना तातडीने. द्याव्यात,असे मला वाटते.

तुम्हाला काय वाटते जरुर कळवा.

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ HAPPINESS Quotes ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ HAPPINESS Quotes ☆

Video Link : HAPPINESS Quotes

 

Here are some of the best quotes on “HAPPINESS” for you.

‘LifeSkills’ is a treasure trove of the best quotes on happiness, yoga, meditation, laughter yoga and spirituality.

These are carefully researched quotes from books and research papers, not just taken from any quotes website.

Here are the quotes in random order:

“Happiness is the meaning and purpose of life, the whole aim and end of human existence.”
Aristotle

“Different men seek after happiness in different ways and by different means, and so make for themselves different modes of life.”
Aristotle

“Seeking happiness outside ourselves is like waiting for sunshine in a cave facing north.”
Tibetan saying

“If you want others to be happy, practice compassion. If you want to be happy, practice compassion.”
Dalai Lama

“Action may not always bring happiness; but there is
no happiness without action.”
Benjamin Disraeli

“Happiness consists in activity. It is a running stream, not a stagnant pool.”
John Mason Good

“Happiness consists more in small conveniences or pleasures that occur every day, than in great pieces of good fortune that happen but seldom.”
Benjamin Franklin

“Real happiness comes from performing actions that contribute to the welfare of others by fulfilling responsibilities to family and society, and performing actions that cleanse the mind.”
Buddha

“Happiness requires changing yourself and changing your world. It requires pursuing your goals and fitting in with others.”
Jonathan Haidt

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Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।27।।

 

कोई ज्ञान से जला आत्म संयम की अग्नि में इंद्रिय का

औ” प्राणों को कर्मों का करते है हवन सकल भय का ।।27।।

 

भावार्थ :  दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही उन सबका हवन करना है।)।।27।।

 

Others again sacrifice all the functions of the senses and those of the breath (vital energy or Prana) in the fire of the Yoga of self-restraint kindled by knowledge. ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 – बेनाम होने का सुख ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  छठवीं  कड़ी में उनकी  एक सार्थक कविता  “बेनाम होने का सुख ”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 ☆

 

☆ बेनाम होने का सुख ☆

 

देखते ही देखते

ये  क्या हो गया ,

जब तुम घर में थे

घर के मुन्ना लाल थे ,

 

देखते ही देखते

ये क्या हो गया

राह में तुम्हें राहगीर

भी कह दिया गया

आफिस पहुँचे तो

कर्मचारी बन गए।

 

देखते ही  देखते

ये क्या हो गया

बस में सवार हुए

तो यात्री बन गए

प्रेम जैसे ही  किया

प्रेमी का खिताब मिला।

 

देखते देखते ये क्या हुआ

जब खेत खलिहान पहुँचे

सबने किसान का दर्जा दिया

बेटे के स्कूल दाखिले में

अचानक पिता बना दिया

 

देखते देखते ये क्या हुआ

पत्नी ने धीरे से पति कह दिया

मंदिर में घंटा बजाते हुए

पुजारी ने भक्त  कह दिया

 

देखते देखते इतना सब हुआ

बेनाम होने का भी सुख मिला

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – कवितायें ☆ दो कवितायें 1. आसमां 2. जमीन ☆ सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

(आज प्रस्तुत हैं सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी  को  दो कवितायें  ‘आसमां ‘ और ‘जमीन’ ।)

 

एक 

? आसमां ?

 

बहती पवन  का यह शोर

खींच ले गया मुझे उस ओर

बीते हुए पल, बीते हुए क्षण

बीती हुई यादें,बीते हुए वादे

मानों कल की ही हो बात

वो हँसी-ठट्ठे,वो अठ्खेलियाँ

वो खेल-खिलौने,वो सखी-सहेलियाँ

ना थी आज की चिन्ता,

ना था कल का डर

जीते थे,जीते थे केवल उसी पल

छोटे-छोटे पलों में ही

छुपी थीं बड़ी-बड़ी खुशियाँ

दुःख-दर्द,कलह-क्लेश का

ना था कुछ एहसास

समय ने ली करवट

हुआ दूर वो सपना

ज़िंदगी की हकीकत से

हुआ जब सामना

लगा उड़ता हुआ कोई परिंदा

गिरा हो आकर ज़मीन पर धड़ाम

बनाना था पंखों को सक्षम

बनाने थे अभी कई मुकाम

नापने थे अभी कई नये आसमां !

 

दो 

? जमीन  ?

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर!

नई उड़ान,नये मुक़ाम,

     पाना तो है बहुत ख़ूब!

पर रुक कर साँस लेने,

     ज़िंदा रहने को,

धरती पर टिके रहना भी है ज़रूरी!

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर……!           

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #9 – बहू की नौकरी ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 9 ☆

 

☆ बहू की नौकरी ☆

 

विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.

शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-8 – निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा  विज्ञान पर आधारित सांस्कृतिक आलेख   निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-8  ? 

 

?  निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ?

 

उन्हाळ्यात जठराग्नी उत्तम कार्य करतो त्यामुळे जास्त उपवास नसतात परंतु आषाढी नंतर  मात्र पावसाळा म्हटलं की भूक मंदावते पोटाचे विकार टाळण्यासाठी काहीजण चातुर्मास तर काही लोक श्रावण महिना उपवास करतात .या काळात एक वेळेस जेवण घेतले जाते  ज्यांना शक्य नसेल ते दूध फल आहार किंवा पचायला हलके पदार्थ सेवन करतात .या महिन्यात बहुतेक सणाला नैवेद्य म्हणून उकडीचे पदार्थ जसे कडबू ,फळं, दिवे, मोदक, कढी ,खिचडी, दुधातली दशमी, मुगाची डाळ घालून भाजी असे जे पचायला सहज सुलभ असतात . *या काळात मौसाहार वर्ज्य  मानला जातो*  कारण मुळात माणूस हा शाकाहारी प्राणी आहे . मुळात हे समजून घेणे गरजेचे आहे की हे कुणी धर्म पंडीतांनी सांगितलेले नसून नैसर्गिक आहे गाईला, घोड्याला, शेळी, बकरी यांना कोणत्याही पंडीताने गवत खायला सांगितले नाही तर ते निसर्ग नियम पाळतात . जे प्राणी ओठ लावून पाणी पितात ते सर्व शाकाहारी व जे जिभेने पाणी पितात ते मौसाहारी त्यांच्या दातांंची रचना वेगळी असते माणसाला वाघ कुत्रा यांच्यासारखे सुळे नसतात . शिवाय निदान पावसाळ्यात आपण ज्यांना खातो त्यांना होणारे आजार माशा जंतू संसर्ग इत्यादी बाबींचा विचार करून वैज्ञानिक दृष्टीने ठरवलेला हा  नियम आहे. त्यामुळे विरोधासाठी विरोध हे तत्त्व सोडून कुठलीही टोकाची भूमिका नसावी, कालसापेक्ष यात  काही बदल नक्कीच ग्राह्य असतात.  महालक्ष्मी नवरात्री पासून हळूहळू तळीव पदार्थांचे आहारातील प्रमाण वाढवणारे सण येतात जसे महालक्ष्मी, दसरा, दिवाळी, नागदिवे मकर संक्रांत कारण शरीराला स्निग्धते सोबत उष्मांक मिळणे सुद्धा गरजेचे असते. म्हणून जवळजवळ सर्वच सणांना भरपूर तळलेले गोड पदार्थ (फक्त एक सुचवावेसे वाटते पूर्वी हे सर्व पदार्थ गूळ वापरून केले जात असत तसे ) असावेत .

पुढे उन्हाळ्याची चाहूल लागली की, पन्हे मठ्ठा ताक लस्सी सरबत आंब्याचा रस कुरवडी पापड लोणची या पदार्थांची रेलचेल सुरू होते . एकूणच काय तर आपली संस्कृती म्हणजे जे देहाला ते देवाला अशी आहे . स्थल काल परत्वे यात  भेद नक्कीच आहेत जसे देशावरच्या देवाला बिन मिठाचा भात तर कोकणातील देवाला भात मासे , तरीसुद्धा नारळी पौर्णिमेला नारळी भातच असतो भात मासळी नाही हे विसरू नये.

बिन मिठाचा भातच का? सुरुवातीला साधं वरण भातच का? खावा शेवटी दहीभातच का? खावा या सर्वांनाच धार्मिक सोबतच वैज्ञानिक सुद्धा कारणे आहेत ती जाणून घेण्याचा प्रयत्न करावा .केवळ धर्माला विरोध म्हणून सगळ्याला विरोध ही बाब नक्कीच मानवासाठी घातक ठरेल .जगातला कुठलाही धर्म वाईट कर्माचे समर्थन करत नाही तर आपण स्वार्थासाठी त्याचे हवे तसे अर्थ लावत असतो. हे सर्वांसाठीच घातक आहे याचा विचार होणे गरजेचे आहे अर्थातच हे सर्व माझे मत आहे परंतु  विज्ञानाची जोड नक्कीच आहे.

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA: ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA ☆

Video Link : HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA

 

HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA:
ACTING LIKE A HAPPY PERSON:
TAKING CARE OF YOUR BODY

One of the happiness activities described by the positive psychologists for taking care of your body is acting like a happy person.
Laughter Yoga suits best in this category. It is voluntary laughter, for no reason, to create instant joy. It’s scientifically proven, easy to learn and a lot of fun.

It’s based on the principle: motion creates emotion. You act happy and you start feeling happy.
We demonstrate three laughter exercises – milk shake laughter, mobile laughter and hearty laughter – in this video. You can practice these any time and feel happier.

“Pretending that you are happy – smiling, engaged, mimicking energy and enthusiasm – not only can you earn some of the benefits of happiness (returned smiles, strengthened friendships, successes at work and school) but can actually make you happier.

“So go for it. Smile, laugh, stand tall, act lively and give hugs. Act as if you were confident, optimistic, and outgoing. You’ll manage adversity, rise to the occasion, create instant connections, make friends, influence people, and become a happier person.”

SONJA LYUBOMIRSKY/ THE HOW OF HAPPINESS

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।26।।

 

कोई श्रोत्रादि इंद्रियों को संयमाग्नि में करते यज्ञ

काई शब्दादि विषय हविष्य से इंद्रियाग्नि में करते यज्ञ।।26।।

 

भावार्थ :  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं।।26।।

 

Some again offer hearing and other senses as sacrifice in the fire of restraint; others offer sound and various objects of the senses as sacrifice in the fire of the senses. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

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विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 

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