मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #25 – उध्वस्त जगणे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “उध्वस्त जगणे ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 25 ☆

 

☆ उध्वस्त जगणे ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

 

जे लिहावे वाटले ते, मी लिहू शकलो कुठे ?

आशयाच्या दर्पणातुन, मी खरा दिसलो कुठे

 

कायद्याच्या चौकटीचे, दार मी ठोठावले

आंधळ्या न्यायापुढे या, सांग मी टिकलो कुठे ?

 

मी सुनामी वादळांना, भीक नाही घातली

जाहले उध्वस्त जगणे, मी तरी खचलो कुठे

 

गजल का नाराज आहे, शेवटी कळले मला

जीवनाच्या अनुभवाला, मी खरा भिडलो कुठे

 

एवढ्यासाठीच माझी, जिंदगी रागावली

मी व्यथेसाठी जगाच्या, या इथे झटलो कुठे

 

टाकले वाळीत का हे, सत्य माझे लोक हो

सांग ना दुनिये मला तू, मी इथे चुकलो कुठे

 

सरण माझे पेटताना, शेवटी कळले मला

जगुनही मेलो खरा मी, मरुनही जगलो कुठे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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सूचनाएँ/Information – ☆ 16 वां बहुभाषी नाट्य महोत्सव – निर्णायक की कलम से – – ☆ श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है 16 वें बहुभाषी नाट्य महोत्सव में निर्णायक के रूप श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी के उदगार.)

 

निर्णायक की कलम से -श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  ☆

 

विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन ,मोरभवन झांसीरानी चौक नागपुर और कला सागर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 16 वें बहुभाषी नाट्य महोत्सव में निर्णायक के रूप में पिछले छः दिनों के स्वर्गिक आनंद का अनुपम आस्वाद – – अवर्णनीय है

पूरे पंद्रह नाटक 200 से अधिक कलाकार और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सुधि जनों के साथ बड़े ही जोश उत्साह और जिज्ञासा से पूरित  नाट्य महोत्सव का भव्य समापन समारोह अनेकानेक गौरवान्वित पलों के साथ संपन्न हुआ। मानो एक विशाल साहित्य महायज्ञ में अपने अपने हिस्से की समिधा समर्पित कर हर कलाकार चंदन की महकती खुशबू सा निरामय हो उठा— कला गौरव की गमकती यज्ञाग्नि में स्वयं की कला की समिधा अर्पण कर समाज ऋण – – देश ऋण और मानवीय  ऋण चुका कर तृण कण सी निरागस नम्रता से पूरित हो गया– हर चेहरा प्रफुल्लित खिले पुष्प सा।

परिणाम की उत्सुकता अपनी जगह पर परंतु उल्लास हर चेहरे पर हिलोरें ले रहा। सुधि जनों, स्वनाम धन्य मनीषियों तथा महनीय अतिथियों का स्वागत–  निर्णायक मंडल का सत्कार इत्यादि महनीय पलों का साक्षी बना विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रांगण और कला सागर का गरिमामय ग्रुप।

विशाल कला रसिक जनसमूह की उत्सुकता शांत हुई  पुरस्कारों की घोषणा के साथ और नामों की घोषणा के पूर्व ही जनसमूह में से उठते स्वर – – – निर्णायक गणों के निर्णय को  सही निर्णय की मुहर लगा देते।

कृतज्ञता ज्ञापन की पारंपरिक मगर दिली अदायगी के साथ विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कला सागर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सोलहवें बहु-भाषी नाट्य महोत्सव का समापन घोषित किया गया।

संपन्न हुआ एक चिरंजीवी महोत्सव एक शाश्वत आशीर्वाद के साथ – – – कि फिर मिलेंगे। आमीन।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 ☆ घर/नवगीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर/नवगीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 – घर/नवगीत ☆

 

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–मेरा घर तो, नदी किनारे

घने नीम की, छाया में था

जिस में बैठ, परिंदे दिन भर

गाना गाते थे..

–इस घर में वह, छांव कहां है?

लिपा-पुता, आँगन था मेरा

धूप, हवा, पानी की जिसमें

कमी नहीं थी..

मेरा घर तो, फूलों वाला

खुशबू वाला, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–हंस-हंस कर हम, सुबह-शाम

मिलते थे खुल कर

बिना बात की, बात नहीं थी

मेरे घर में…

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है

 

(नर्मदा की वैचारिक यात्रा में गरारूघाट पर लिखा गीत)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 25 – वेदना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  शिक्षाप्रद एवं भावनात्मक लघुकथा    “वेदना ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 25 ☆

☆ लघुकथा –  वेदना ☆

 

शहर से थोड़ी दूर अपार्टमेंट बनना शुरू हुआ। वहां पर पहले से थोड़ी दूर पर एक गरीब परिवार “सोनवा” रहता था। ठेकेदार ने उसके बारे में पता लगा वहां की देखरेख के लिए रख लिया और बदले में उसे थोड़ा बहुत काम करने को कहता। ठेकेदार अच्छी सोच वाला था। उसके लिए एक हाथ ठेला देकर बोला यहीं पर सब्जी भाजी बेचना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम्हारी रोजी रोटी चलने लगेगी।

देखते-देखते कुछ सालों में अपार्टमेंट बनकर तैयार हो गया। सभी रहवासी उसमें आकर शिफ्ट हो गए। सोनवा को एक बेटा था। क्योंकि वही दिन भर खेलता और सभी को पहचानने लगा था इसलिए सभी ने प्यार से उसका नाम प्रीतम रख दिया।

प्रीतम धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पढ़ने में होशियार था। इसी बीच ठेकेदार वहां से चला गया और सभी अपार्टमेंट वाले रहने लगे। सोनवा वहीं सब्जी का ठेला लगाता रहा। प्रीतम की पढ़ाई की फीस के लिए एक बार थोड़े बहुत पैसों की जरूरत थी। जो सोनवा के लिए इकट्ठे कर पाना मुश्किल हो रहा था। उसने सोचा कि मैंने यहां रहते रहते उम्र का पड़ाव तय कर लिया। सभी जानते पहचानते हैं। उनसे जाकर मांग लेता हूं। 25 फ्लैट वाले अपार्टमेंट में किसी ने दिया किसी ने कोई सहायता नहीं की। इसका सोनवा को कोई अफसोस नहीं था परंतु एक घर जिसको वो हमेशा अपना समझता था। उनका काम कर देता था वहां पर जाने पर मकान मालिक ने अपनी पत्नी के साथ कह दिया कि हम तुम पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम हमारा पैसा कभी नहीं लौटा पाओगे। नौकर का बेटा नौकर ही रहेगा। यह बात सोनवा की वेदना बन गई और हार्टअटैक से उसका देहांत हो गया। मरने से पहले इस परिवार के बारे में अपने प्रीतम को बताया था।

प्रीतम अपनी मां को लेकर शहर चला गया। पढ़ाई खत्म होने पर अच्छे व्यक्तित्व के कारण और उसकी योग्यता को देखते हुए अच्छी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। उन दिन जिस कंपनी में काम कर रहा था वहां पर भर्ती के लिए आवेदन पत्र जमा हो रहे  थे। और लाइन में सभी प्रतिभागी खड़े थे। नियुक्ति करने वाला और कोई नहीं प्रीतम ही था। अपार्टमेंट से वही सज्जन जो कभी नौकर का बेटा कहकर प्रीतम को अपमान किया था वह भी अपने बेटे को लेकर पेड़ के नीचे खड़े थे। बड़े होने और ऊंची पदवी के कारण वह प्रीतम को नहीं पहचान सके। प्रीतम ऑफिस में जा रहा था उसी समय वह महिला पुरुष दिखाई दिए। प्रीतम तो पहचान गया परंतु वे लोग नहीं पहचान सके। चलते चलते दोनों प्रीतम को हाथ जोड़कर खड़े हो गए और पैरों पर झुक कर बोले सर हमारे लिए जीना मुश्किल हो रहा है। कहीं से कोई आसरा नहीं है। बेटे को नौकरी पर रख लीजिए। अनसुना कर प्रीतम ऑफिस चेंबर में जाकर बैठ गए। जब लड़के का नंबर आया तो उनको बुलाया गया। तीनों को सामने खड़े देख वह अपने पिताजी की वेदना को याद कर थोड़ा परेशान और दुखी हुआ परंतु अपने ओहदे को ध्यान में रखते हुए प्रीतम ने कहा -“आंटी में वही नौकर का बेटा हूं जिसको आपने थोड़े से रुपए के लिए घर से भगा दिया था। मेरे पिताजी तो इस वेदना को सह ना सके और खत्म हो गए परंतु पिताजी का साया उठने के बाद क्या होता है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं आप दोनों को इस वेदना से मरने नहीं दूंगा। कह कर प्रीतम चेंबर से वापस निकल गए। प्रीतम को पहचान दोनों दंपत्ति शर्म और पश्चाताप से हाथ जोड़े खड़े उसको जाते देखते रहे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।।30।।

 

जो अधिभूत अधिदेव औ” यज्ञ के विज्ञ

मृत्यु समय भी मुझे याद रखते है वे तेज्ञ।।30।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।।30।।

 

Those who know Me with the Adhibhuta (pertaining to the elements), the Adhidaiva (pertaining to the gods), and Adhiyajna (pertaining to the sacrifice), know Me even at the time of  death, steadfast in मंद। ।।30।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ  ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

12.11.2019 आज कार्तिक पूर्णिमा है और हम गरारू घाट पर हैं, कहते हैं कि इसी घाट पर गरुड़ ने तपस्या की थी।

सुबह-सुबह उठकर गांव की ओर निकल गये दो पुराने मंदिरों का अवलोकन किया। शिव मंदिर इन्डो परसियन शैली में मकबरानूमा इमारत है। इसे सम्भवतः चौदहवीं पन्द्रहवीं सदी में गौड़ राजाओं ने बनवाया था और बाद में सत्रहवीं शताब्दी में गौड़ नरेश बलवंतसिंह ने इनका जीर्णोद्धार किया। चौकोर गर्भगृह में शिव  पिंडी विराजित है। दूसरा गरुड़ मन्दिर मूर्त्ति विहीन है। यह इन्डो इस्लामिक शैली में बना है। इसका भी जीर्णोद्धार राजा बलवंतसिंह ने कराया था।  हमने, पाटकर जी व अविनाश ने मंदिर में फैले कचरे को साफ करने की एक कोशिश की।

लौटकर आए तो पंडाल में कथा व्यास सुन्हैटी के पं ओम प्रकाश शास्त्री मिल गये। उनसे हमें ज्ञात हुआ कि नर्मदा पुराण कथा सबसे पहले मार्कंडेय ऋषि ने पांडवों को सुनाई थी। गरारु घाट पर कार्तिक पूर्णिमा पर मड़ई मेला भरता है। दुकानदारों के बीच आपस में दुकान की जगह को लेकर वाद विवाद होता है पर शीघ्र  मेल-मिलाप भी हो जाता है। वे सब वर्षों से उसी जगह पर दुकान लगाते हैं। सरस्वती बाई कोरी, जमुना चौधरी  की जनरल स्टोर्स की, तो दशरथ अग्रवाल की मिठाई दुकान है वे कागज में मिठाई देते हैं। अंकित पटवा और अन्य की मनिहारी की दुकान।

आगे बढ़े नर्मदा के तीरे तीरे चलते बम्हौरी गांव पहुंचे। वहां से गांव के अंदर होते हुए दोपहर को केरपानी पुल के पास पहुंचे। केरपानी गांव नर्मदा के उत्तरी तट पर है। दूर से ही एक किले के भग्नावशेष दीखते हैं। यह किला पिठौरा गांव के शासक मंगल सिंह गौड़ ने केरपानी पर आक्रमण उपरांत बनाया था। यहां केरपानी गांव के दो लोग भूपत सेन और कनछेदी लाल नौरिया परिक्रमा उठा रहे हैं। कनछेदी लाल तो चौथी बार परिक्रमा कर रहे हैं और पांचवीं परिक्रमा की आशा करते हैं।

हमने पूरे कर्मकांड को ध्यान से देखा। मुंडन उपरांत गणेश पूजन, नवग्रह पूजन, नर्मदा जल , शंकरजी आदि का पूजन हुआ, नर्मदा को झंडा चढ़ाया गया। मां नर्मदा की आरती गाई “ॐ जय जगदानंदी, मैया जय आनंदकंदी, ब्रह्मा-हरि-हर-शंकर, रेवा हरि हर शंकर, रुद्री पालन्ती।।”  फिर कन्या भोजन हुआ तत्पश्चात  ग्रामीणों के साथ हम सबने दाल, बाटी, भरता, सूजी हलुआ का भोग लगाया। सभी ने दोनों परकम्मावासियों को रुपये नारियल से विदाई दी। दोनों के परिवारों के लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से विदाई दी। ग्रामीणों ने दोने पत्तल एकत्रित कर उसमें आग लगा दी। नदी को प्रदूषणमुक्त रखने की कोशिश सराहनीय है। यहां प्रभुनारायण गुमास्ता मिले। बताते हैं कि गुमास्ता, लिखा-पढ़ी के काम की एवज,   अंग्रेजी शासन से मिली पदवी है।

यहां से हमारे साथी प्रयास जोशी भोपाल चले गए और हम पांच नदी के तीरे तीरे चलकर समनापुर पहुंचे। कार्तिक पूर्णिमा के स्नान हेतु नरसिंहपुर जिले के विभिन्न स्थानों से लोग आये थे घाट पर भीड़ थी और नदी का प्रवाह धीमा और शांत था। पास ही श्री श्री बाबाश्री जी का आश्रम था। यहां रात्रि विश्राम तय किया। बाबाश्री के सेवक को परिचय देते हुए पटवाजी के मुंह स्टेट बैंक का पदनाम निकल गया। बाबाश्री के सेवक ने फौरन टोका आप मां नर्मदा के परिक्रमावासी हैं और यही आपकी पहचान है।

शाम को निर्विकारेश्वर महादेव की आरती में सम्मिलित होने मंदिर गये तो नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई दी। लगा कि मां अपने पुत्रों को सुलाने मधुर कंठ में धीमे-धीमे लोरी सुना रही है। रात कोई नौ बजे सेवक आरती से फुर्सत हुए और फिर हम सबने खिचड़ी का सेवन कर रात्रि विश्राम इसी आश्रम में किया।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डर के आगे जीत है ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  डर के आगे जीत है

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, ‘ अरे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा खत्म! अब तो डर।’ इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा, ‘अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जाएगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।’

मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना  लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा,‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रविवार 5.11.17, रात्रि 2.10 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆☆

 

वे जब बाहर निकले तो उनकी आँखों में चमक, होठों पर स्मित मुस्कान, चेहरा दर्प से दीप्त और चाल में विजेता का बांकपन था. वे खुदरा मंडी में सब्जी बेचनेवालों को परास्त करके बाहर निकल रहे थे. आज पूरे चार रुपए पैंतीस पैसे बचाये. वे मानते हैं कि सब्जी खरीदना एक कला है जिसमें वे निष्णात हैं. हर सुबह उनका सामना एक ऐसे विपक्ष से होता है जो न केवल भाव ज्यादा लगाता है बल्कि तौल में दंडी भी मारता है. एक बार जमीन पर छबड़ी लगाकर बैठी बूढ़ी अम्मा से खरीदी गई ढाई सौ ग्राम भिंडी चेक कराने पर एक तौला कम निकली, तब से अतिरिक्त सावधानी रखते हैं. कुछ प्रेक्टिकल प्रॉब्लेम्स नहीं होते तो वे तराजू बाँट जेब में रखकर चलते.

उनका मानना कि देश में सबसे बड़े बेईमान व्यापारी अगर कहीं पाये जाते हैं तो वे सब्जी मंडी में पाये जाते हैं और उनसे निपटना सिर्फ वे जानते हैं. सो रोजाना, सब्जी खरीदने वे स्वयं आते हैं. उनका एक बेटा है, बड़ी फेक्ट्री में जनरल मैनेजर (परचेस) पोजीशन पर. सब्जी खरीदने के मामले में वे उस पर भी भरोसा नहीं करते. बोले – ‘शांतिबाबू, इन लाटसाब को एकबार भेजा था मंडी. ढाई रूपे की पालक की गड्डी तीन रूपये में उठा लाये. पढ़ लिख लेने से अकल नहीं आ जाती. आदमी बड़ा मनीजर हो जाये और सब्जीवाला ही लूट ले तो बेकार है ऐसी पढ़ाई. तब से सब्जी खरीदने मैं खुद जाता हूँ.’

मंडी में वे ऐसे ग्राहक हैं जिसे अपनी दुकान की ओर आता देखकर विक्रेता को खुशी नहीं होती. कुछेक सब्जीवालियाँ भाव बताने से भी मना कर देती हैं – ‘रेने दो सेठजी – तम खरीदीनी सकोगा, आगे की दुकान पे देखी लो.‘ ऐसे कमेंट्स उनके लिये तमगों की तरह हैं. उन्हें ठीक से याद नहीं कभी धनिया और मिर्च खरीद कर लिया हो. तुल जाने के बाद एक-दो गिल्की-तौरई झोले में यूँ ही डाल लेने का विधान पालते हैं. पचास-सौ ग्राम फाल्से, जामुन तो वे चखने में ही खींच देते हैं. वे उनसे सब्जी नहीं खरीदते जो छांटने नहीं देते. करीने से जमाया गया वो हरा टिंडा जो उन्हें लुभाता है जमावट बिगड़ने के डर से दुकानदार उसे देने से मना कर देता है. वे मन ही मन दुकानदार को गरियाते हुये आगे निकल जाते हैं.

हरदिन वे मंडी के मिनिमम चार राउंड लगाते है, पहले राउंड में कहाँ क्या है. दूसरे में, वे हर सब्जी का हर दुकान से ओरल कोटेशन लेकर कम्पेरेटिव स्टडी करते हैं. तीसरे राउंड में बारगैन और फ़ाइनल में खरीदी करके विजेता की मानिंद बाहर निकलते हैं. आज फिर चार रुपए पैंतीस पैसे बचाकर, चाल में विजेता का बांकपन लिये, वे बाहर निकल रहे हैं.

लेकिन आप रुकिये जनाब, पार्ट-टू बाकी है अभी. कभी-कभी वे वाईफ के इसरार पर मेगा स्टोर तक जाते हैं. यहाँ अदरक नहीं मिलता, ज़िंज़र परचेस करना पड़ता है. ब्रोकोली, ब्रिंजल्स, पोटेटो, टॉमेटो हर पीस अपने उपर चिपके प्राईस स्टीकर पर लेकर, बिलिंग काऊन्टर की ओर  ठेला धकाते हुये वे खुश हैं. फॉर्टी-टू रूपीस एक्स्ट्रा हुये तो क्या परचेसिंग मेगा स्टोर्स से जो की है. चाल में अंकल सैम की अदाओं का बांकपन लिये, वे दोनों बाहर निकल रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22 – खिचड़ी और खुचड़ ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक लघुकथा  “खिचड़ी और खुचड़। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22☆

 

☆ लघुकथा – खिचड़ी और खुचड़  

 

जब उनकी राजनीतिक खिचड़ी पक रही थी तो वे दर्द से कराह उठे, बड़े नेता थे तो लोग दौड़े और उनको अस्पताल में भर्ती कर दिया। डाक्टर ने जैसई देखा कि ये तो पैसे कमाने वाले भूतपूर्व मंत्री भी रहे हैं तो डॉक्टर की नियत खराब हो गई, झट से कह दिया गंभीर हार्ट अटैक।

नेता जी का खाना पीना बंद  खिचड़ी चालू……. चटोरी जीभ में गरीब खिचड़ी रास नहीं आई तो रात को चुपके से उनके भक्त ने गर्मागर्म बटर मसाला वाला मुर्गा सुंघा दिया, छुपके पेट भर खा गए और सो गए फिर सबेरे सबेरे खुदा को प्यारे हो गए। दूसरे दिन भीड़ उबरी। दाह संस्कार हुआ फिर पूरे खानदान और भक्तों ने बिना नमक की खिचड़ी बेमन से खायी। खानदान के जो लोग उस रात बिना नमक की खिचड़ी खाने नहीं आए उनको जाति से निकाल दिया गया।

कई भक्तों ने इच्छा जतायी थी कि जब भविष्य में खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन का दर्जा मिलेगा तो योजना उनके नाम पर चलायी जावे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 ☆ नर्मदा की आवहवा ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “नर्मदा की आवहवा”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 – नर्मदा की आवहवा ☆

बेटे ने,

सामान उठाते हुये कहा-

पापा! अपनी आदत के बोझ को

थोड़ा कम करिये

—पिता ने, हंसते हुये कहा-

बेटा! समय के उधड़े होने के बावजूद

इस झोले में मुझे

यादों का भार बिल्कुल नहीं लगता…

—मैं, तो सिर्फ इसलिये कह रहा हूँ पापा

कि जब आप पिछली बार आये थे

तो होशंगाबाद, इटारसी की

कितनी सारी सब्जियाँ लाद लाये थे

परेशानी उठाने की कोई

फालतू जरूरत नहीं है पापा

यहां बेंगलौर में,

सब मिलता है

इस बार मम्मी ने कहा-

लेकिन बेटा ! इस बार हम

करेली का गुड़,

नरसिंहपुर की मटर

और

जबलपुर के सिंघाड़े लाये हैं…

—बेटा, हँसा….

— पिता ने कहा-

मैं, क्या यह नहीं जानता कि

दुनिया में हर जगह,

हर चीज मिलती है?

लेकिन इन में नर्मदा का पानी

मिट्टी और आवहवा है

जिसके दम पर तुम

दुनिया भर में उड़ते-फिरते हो,

समझे …

पापा! आप भी बस..

—पापा ने बहू से कहा—

मेरे इस झोले को

संभाल कर रखना, संध्या!

लौटते समय मैं/

इसी झोले में

कावेरी का पानी

मिट्टी और आवहवा लेकर

भोपाल जांउगा मैं…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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