आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

 

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।23।।

 

जो आसक्ति रहित ज्ञानी पर उपकारी जीवन जीता है

वही शांत चित्त ,सदाचार युत,आंनद अमृत पीता है।।23।।

 

भावार्थ :  जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।।23।।

 

To one who is devoid of attachment, who is liberated, whose mind is established in knowledge, who works for the sake of sacrifice (for the sake of God), the whole action is dissolved. ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – कविता ☆ लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे यांचे स्मृती दिन निमित्त ☆ अण्णा माझा. . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(आज प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की स्व. अण्णा भाऊ साठे जी  के स्मृति दिवस पर एक रचना।स्व  अण्णा भाऊ साठे जी को सादर नमन )

लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे यांचा आज स्मृती दिन. त्या निमित्ताने ही रचना लोकार्पण. . . . !   – विजय यशवंत सातपुते, पुणे

 

☆ अण्णा माझा. . . ! ☆

भाऊराव वालुबाई
पोटी जन्मे तुकाराम.
जाईबाई नी शंकर
भावंडांचे निजधाम.

वाटेगावी जन्मलेला
साहित्यिक तुका थोर
कथा, काव्य, पोवाड्यांचा
अभिजात  आहे जोर. . . !

लोककला,  वगनाट्ये
गवळण ,  बतावणी
गण,  वग ,  प्रबोधन
केली समाज बांधणी. . . . !

वर्ग विग्रहाचे ज्ञान
समाजात रूजविले
लाल बावटा संस्थेने
क्रांतीसूर्य घडविले. . . !

पोटासाठी तुकाराम
जागोजागी करी काम
आयुष्याचे केले रान
नाही घेतला आराम. . . !

अण्णा नावे प्रिय झाला
रूढ झाला कथाकार.
दीन दलितांची दुःखे
त्यांचा झाला भाष्यकार. . . !

एकवीस कथाग्रंथ
कादंबरी एकतीस
कम्युनिस्ट विचाराने
प्रबोधन साधलेस.. . . . !

वगनाट्ये तेरा चौदा
अजूनही काळजात
विघातकी रूढींवर
केली लेखणीने  मात. . . !

महाराष्ट्र चळवळ
गोवा मुक्तीचा संग्राम
वार्ताहर, कथाकार
विचारात राही ठाम. . . . . !

रशियन , फ्रेंच आणि
इंग्रजीत भाषांतर
शोषितांचे अंतरंग
भावनांचे वेषांतर. . . . !

रंगभूमी कलावंत
‘इप्टा’ चाही कार्यभार
स्वीकारला कर्तृत्वाने
जग भरात संचार.. . . . !

भुका आहे देश माझा
त्याची भाकरी होईन
शब्दा शब्दातून त्याला
नवे जीवन देईन. . . . !

हीच जाणिव ठेवून
अण्णा माझा  साकारला
स्मृतीदिन आज त्याचा
आठवात आकारला. . . . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ♥ ब्राण्डेड-वर-वधू ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ब्राण्डेड-वर-वधू”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ☆ 

 

ब्राण्डेड-वर-वधू

 

हर लड़की अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करती है, पर जल्दी ही, वह कहने लगती हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है? इसी तरह प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग में पत्र-पत्रिकाओं, रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

 

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सासकी एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं। यहाँ आकर मेरा व्यंग्य लेख भी व्यंग्य से ज्यादा एक सीरियस निबंध बनता जा रहा है। मेरे व्यंग्यकार मन में विवाह की इस समस्याका समाधान ढूँढने का यत्न किया । मैंने पाया कि यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू माँ से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिन्दगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

अब जब वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग की बात आती है तो मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराने की। यूँ तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। माधुरी दीक्षित जी ने तो एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला रखा था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है, पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है। यूँ तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर हमारे समय में जब से ब्राण्डेड `हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदी हैं पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम, कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है। और तो और स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।

हाल ही एक समाचार पढ़ा कि अमुक ट्रेन को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिला है। मुझे उस ट्रेन में दिल्ली तक सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहाँ विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे, मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है, तो कोई समुद्र में। हाल ही भोपाल में एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं, उधार लेकर भी बड़ी शान शौकत से बहू लाते हैं, विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी। लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा। भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा।

इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन पर लेबल लगाने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही कोई व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूँ कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ, पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका व्रत रखेगें।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆ खाके ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “खाके”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆

 

☆ खाके ☆

 

गोपाल ‘खाके’ फिल्म के विरोध के लिए रूपरेखा बना रहे थे. किस तरह फिल्म के पोस्टर फाड़ना है ? कहाँ  कहाँ विरोध करना है ? किस किस को ज्ञापन देना है ? किस साइट पर क्या क्या लिखना है ? ऐसी अधार्मिक फिल्म का विरोध होना ही चाहिए जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाए.

तभी ‘खाके’ फिल्म के निर्माता ने प्रवेश किया.

“अरे! आप.” गोपाल चकित होते हुए बोले, “आइए बैठिए, मोहनजी”, कहते हुए उन्होंने नौकर से इशारा किया. वह चाय-पानी रख कर चला गया.

मोहनजी कुछ बोलना चाहते थे. उन्होंने मेरी ओर देखा.

“ये अपने ही आदमी है,” गोपाल ने आश्वस्त किया, “आप इन के सामने निश्चिन्त हो कर अपनी बात कह सकते हैं.”

“अच्छा जी,” कहते हुए मोहनजी ने एक सूटकेस सामने रख दिया. “आप ने बहुत अच्छा प्रचार किया है. आप ‘खाके’ फिल्म का जितना विरोध करेंगे उतनी ही यह फिल्म फेमस होगी.

“आप का आयडिया अच्छा है. इसलिए आप इस के विभिन्न दृश्यों की जम कर आलोचना कीजिए. बताइए कि इस में क्या-क्या खराब है?”

यह सुन कर मैं चकित रह गया. मेरे मन में मंथन चलने लगा. मेरा ध्यान भटक गया.

एक ओर सूटकेस में पड़े नोट मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, वहीं दूसरी ओर गोपाल का यह रूप मुझे चकित कर रहा था.

“वाह! क्या तरीका निकाला है आप ने, “मोहनजी कहे जा रहे थे, “आप का भी प्रचार हो गया और मेरी फिल्म भी हिट हो गई.”

यह सुन कर मैं ‘खाके’ फिल्म की सार्थकता पर विचार करने लगा. फिल्म सार्थक है या ये लोग ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 8 – कॅनव्हास…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। यह सच है कि अक्सर हमारे  जीवन  के रंग हृदय के कॅनव्हास से नहीं उतर पाते और प्रकृति के रंग उस पर चढ़ नहीं पाते।   आज प्रस्तुत है उनकी  एक संस्मरणात्मक भावुक कविता  “कॅनव्हास…!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #8 ☆ 

 

☆ कॅनव्हास…! ☆ 

 

गेल्या कित्येक वर्षात

माझ्या कॅनव्हास वर

पावसाचं चित्रंच उमटलं नाही…

का कोणास ठाऊक

आता पहील्या सारखा पाऊस

रंगामध्ये दाटूनच येत नाही

कितीतरी वेळ मी

कॅनव्हास समोर ठेवून

त्याच्याकडे एक टक पहात रहातो

आता तर

कॅनव्हास वर श्वास घेणारे रंग ही

पाऊस म्हटलं तरी

ब्रश वर गोठायला लागलेत कारण…

माझ्या बापाला

माझी माय गेल्यावर रडताना पाहीलं

आणि तेव्हाच काय तो हवा तेवढा

पाऊस नजरेत साठवला

त्या वेळी त्या पावसाचं चित्र

काळजाच्या इतक्या खोलवर जाऊन

उमटलं की तेव्हापासून

हा बाहेर कोसळणारा पाऊस

कॅनव्हास वर कधी उतरवावासाच वाटला नाही

आणि काळजातल्या त्या पावसा समोर

रंगाचा हा पाऊस कॅनव्हॅसवर

कधी बोलकाच झालाच नाही….!

 

© सुजित कदम

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मराठी साहित्य – कथा/लघुकथा – ☆ अडगळ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी की कथा ‘अडगळ ’ इस भौतिकवादी एवं स्वार्थी संसार की झलक प्रस्तुत करती है। इस मार्मिक एवं भावुक कथा के एक-एक शब्द , एक-एक पंक्तियाँ एवं एक-एक पात्र हमें आज के मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास का एहसास दिलाते हैं ।यह जीवन की सच्चाई है। क्या  ‘समय’ के साथ ‘संबंध’  भी पुरानी वस्तुओं की तरह ‘कबाड़’ में तब्दील हो जाते हैं?  मैं इस भावनात्मक सच्चाई को कथास्वरूप में रचने के लिए सौ. सुजाता काळे जी की लेखनी को नमन करता हूँ।)

☆ अडगळ ☆

 

काल रात्री आव्वाचा फ़ोन आला. ‘ताई’ म्हणून ओक्साबोक्शी रडायला लागली. मला वाटलं  की आप्पांबरोबर भांडण झालं की काय ? तीच रडणं एकूण मलाही  धक्का  बसला. परवा तिचा एकुलता एक मुलगा सार्थक त्याच्या बायको मुलाबरोबर त्याच्या नवीन घरी राहायला गेला होता. तिचे घर सुने सुने झाले होते. रिकामे झाले होते. तिच्या घरट्यातील पाखरे उडून गेली होती आणि तिचे घर रिकामे झाले होते. म्हातारपणात उतार वय झालेल्या आई बापाला सोडून तो गेला होता. ज्या सार्थकला तिने जीवाचे रान करून, रात्रीचा दिवस करून, हाल अपेष्टा सोसून वाढवलं होत तोच तिचा एकुलता एक लेक या उतार वयात तिला सोडून वेगळं राहायला गेला होता.

नोकरी निमित्त मुलं परगावी – परदेशी राहणं वेगळं आणि एकाच शहरात बारा तेरा वर्षांनंतर आई बाप सोडून राहणं वेगळं, मग कारण काहीही असो ……! त्यात पोरकेपण , परकेपणा आणि एकटेपणाची भावना असते ती मन पोखरायला लागते. तिचं दुःख मला समाजात होत….. मला समाजात होत  की तिला काय सांगायचं  आहे….!!

अशीही तिनं गेली पाच सहा वर्षे घरात मौनच धारण केलं होतं.  ‘ मौनं सर्वार्थ साधनं …..! ‘   सार्थकच्या शिक्षित बायको बरोबर जुनी मॅट्रिक झालेल्या आव्वाचे लहान सहान वाद होतं असत.  संसार म्हटलं की भांड्याला भांड लागायचंच. फक्त काम पुरताच बोलणे चालू होते.  पण आण्णांच्या स्वभावाला औषध नव्हतं. त्यांच्या वयाने अठ्ठ्याहत्तरी पार केली होती तरीही त्यांच्या तापट स्वभावात किंचित हि फरक झाला नव्हता. त्यांची सतत काही ना काही कुरबुर चालू असे. रेशनिंगच्या अन्नावर जगलेल्या आव्वाला सुस्थितीतील दिवसातील ढीगभर अन्न वाया गेलेले आवडत नव्हते. त्यामुळे घरात अधून मधून काही ना काही तक तक असे. आव्वाच्या अबोलाचे एक कारण असे की तिच्या स्वाभिमानी पण तापट मनाला तिच्या मुलाने सुनेसमोर केलेला अपमान सहन होतं नव्हता. गेल्या दहा बारा वर्षात ती हजारदा मला म्हणत असे की ताई तो मला असा बोलला …. तो मला तसा बोलला…. त्याच्या शब्दांनी माझ्या काळजात भोकं पडली आहेत. आणि तिचं काळीज रडताना बघून माझा थरकाप होतं असे. तिला मी खूप वेळा सांगितले की अशी तळ तळ करू नकोस. मलाही तिचं दुःख कळत होतं. एक आईचं दुसऱ्या आईचं हृदय समजू शकत होतं.

मी तिला बऱ्याचदा समजावले की लाखोंचा हिरा तुझ्या पासून दूर होण्यापेक्षा हजारांचे अन्न वाया जाऊ दे. असे असूनही सार्थक नवीन घर घेई पर्यंत गेली दहा बारा वर्षे एकत्र राहिला. त्यानेही गेली कित्येक वर्षे त्रास काढलाच. त्यामागे अनेक कारणे होती …… असो ….. घरातील चारीही माणसे हटवादी व तापट होती. त्यामुळे घराला तडा गेला होता. कधी कधी असं वाटत कि डिग्री घेऊन ज्ञान मिळतंच असे नाही. मनाचा मोठेपणा व समजूतदारपणाही हवा. तो कोणतीही डिग्री देत नाही.

आव्वाला हे माहित होताच की नवे घर घेतलं म्हणजे मुलगा व सून घराबाहेर पडणार. ती मला फोनवर सांगत होती की तिच्या सोन्यासारख्या नाती तिच्यापासून दूर केल्या. माझ्या मनाची तगमग माझ्या लेकाला कधीच कळली नाही. तो गेला तेव्हा मी घरात नव्हते पण शेजारची आक्का सांगत होती की तिने त्याला खूप समजावले की जाऊ नको. मुलींसाठी तरी रहा. दादा पण खूप  रडत होते……. पण त्याने ऐकले नाही.  ती सांगत होती…. रडत होती…. मी पण गळ्यात दाटून आलेला हुंदका गिळला. डोळ्यातून अश्रू ओघळत होते.

मी एक दोनदा सार्थकला समजावण्याचा प्रयत्न केला पण त्याच्या मते आव्वाचंच चुकत होतं.  तीस वर्षे ज्याने आईचं ऐकलं त्याला आज आव्वा चुकीची वाटत होती. ज्या आव्वाची त्याने देवा सारखी पूजा केली होती ती आव्वा आज त्याला चुकीची वाटत होती. तो काहीही एकूण घेण्याच्या मनःस्तिथीत नव्हता. त्यानंतर मी त्याला समजावणे, सांगणे सोडू दिले होते. खर तो आमच्या सर्वांपासून मनाने खूप दूर गेला होता. नात्यामध्ये एक पोकळी निर्माण झाली होती. आता मलाच पोरकं आणि परकं परकं वाटत होतं.

मी कल्पना करू शकत होते की भविष्यात माझा  मुलगा  आला सोडून गेला तर ……  नकोच …. किती भयंकर कल्पना …… !!  हि कल्पना पण सहन होतं नव्हती…….!!  माझ्या अंगावर शहरे उभे राहिले …..!!

मी विचारात गर्क झाले होते . माझा हुंकार न मिळाल्यामुळे आव्वा ‘ताई , ताई .. म्हणून हाक देत राहिली.  मी विचारांच्या तंद्रीतून बाहेर येत म्हटलं , आव्वा मी ऐकत आहे . तू बोल. सगळं  सामान घेऊन गेला का? ‘ तर ती म्हणाली, ‘नाही,  अजून सगळं सामान घेऊन गेला नाही. गरजेचं नेलं आहे. जुनं जुनं सगळं इथंच आहे. नवीन घरात जुन्या वस्तू कशाला? असाही फ्रिज जुना झालाय, टी. व्ही. जुना झालाय, वाशिंग मशीन, मिक्सर जुना झालाय…. सगळं जुनं झालंय…. आम्ही पण जुने झालोय. अडगळीच्या वस्तू आणि आमची ‘अडगळ ‘ इथंच ठेवून गेलाय….. मला तिच्या ‘अडगळ’ म्हणण्याचा मत्यार्थ कळाला.  आव्वा बोलत होती …. रडत होती ….. मी ऐकत होते …. रडत होते …… किती अचूक शब्द प्रयोग केला तिनं ….. म्हातारपण म्हणजे खरंच ‘अडगळ ‘ असते का??

 

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ What determines HAPPINESS? ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ What determines HAPPINESS? ☆

Video Link : What determines HAPPINESS?

 

What determines HAPPINESS?

CAN YOU MAKE YOURSELF LASTINGLY HAPPIER?

This video provides you answers to these questions based on POSITIVE PSYCHOLOGY – the modern Science of Happiness.

According to Positive Psychologists, the enduring level of happiness that you experience is determined by three factors: your biological set point, the conditions of your life, and the voluntary activities you do.

YES!! You can make yourself lastingly happier by practicing Happiness Activities that have been proven to work by Positive Psychologists.

It is worth striving to get the right relationships between yourself and others, between yourself and your work, and between yourself and something larger than yourself. If you get these relationships right, a sense of purpose and meaning will emerge.

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।22।।

जो स्वप्राप्ति से तुष्ट द्वन्द से मुक्त ईर्ष्या रहित रहा

हार जीत में सम रह करते कर्म कभी न बद्ध हुआ।।22।।

भावार्थ :  जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।।22।।

 

Content with what comes to him without effort, free from the pairs of opposites and envy, even-minded in success and failure, though acting, he is not bound. ।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 7 – गुरु पर्व पर विनम्र नमन….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  गुरु पर्व  पर प्रस्तुत है एक कविता  “गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 7 ☆

 

☆ गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..  ☆  

 

क्या कहें आपको, अध्यापक

टीचर, शिक्षक जी, या गुरुवर

या कहें, शिक्षकों के शिक्षक

दीक्षा दानी, हे पूण्य प्रवर।

 

क, क-कहरा से शुभारम्भ

ज्ञ, ज्ञान प्राप्ति ,करवाते हो

य, योग, गुणनफल, गुण अनेक

भ, भाग-बोध सिखलाते हो।

 

जीवन के लक्ष्य प्राप्ति में, गुरुवर

सहचर तुम बन जाते हो

बाधाओं से,  संघर्ष करें

साहस के मंत्र, सिखाते हो।

 

कहते हैं कि, है शब्द – ब्रह्म

तो, ब्रह्म ज्ञान के, हो दाता

गुरु-गोविंद में से पूज्य कौन

गुरुवर ही है, विद्या दाता।

 

हो ज्ञानी, तुम सम्माननीय

हे वंदनीय, है नमन् तुम्हें

अभिलाषा है, अनवरत,गुरु-

मुख से, अमृत रसधार बहे।

 

आशीष आप के बने रहें

गुण-ज्ञान की, प्रीत फुहार रहे

सद्भाव, शांति, करुणा, मन में

जन-जन से, मधुमय प्यार रहे।

 

है नमन् तुम्हें, सादर प्रणाम

शिक्षक गुरुजन का,अभिनंदन

अन्तर्मन, भक्ति भाव से,शीष

झुका कर, करते हैं, वन्दन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सनातन प्रश्न ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  उनकी एक विचारणीय कविता   “सनातन प्रश्न ”।)

 

☆ सनातन प्रश्न

 

चंद सनातन प्रश्नों के

उत्तर की तलाश में

मन आज विचलित है मेरा

कौन हूं,क्यों हूं

और क्या है अस्तित्व मेरा

 

शावक जब पंख फैला

आकाश में उड़ान भरने लगें

दुनिया को अपने

नज़रिए से देखने लगें

उचित-अनुचित का भेद त्याग

गलत राह पर कदम

उनके अग्रसर होने लगें

दुनिया की रंगीनियों में

मदमस्त वे रहने लगें

माता-पिता को मौन

रहने का संकेत करने लगें

उनके साथ चंद लम्हे

गुज़ारने से कतराने लगें

आत्मीय संबंधों को तज

दुनियादारी निभाने लगें

तो समझो –मामला गड़बड़ है

 

कहीं ताल्लुक

बोझ ना बन जाएं

और एक छत के नीचे

रहते हुए होने लगे

अजनबीपन का अहसास

सहना पड़े रुसवाई

और ज़लालत का दंश

तो कर लेना चाहिए

अपने आशियां की ओर रुख

ताकि सुक़ून से कर सकें

वे अपना जीवन बसर

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

 

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