मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 8 – पंढरीची वारी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  पंढरपुर  वारी  से संबन्धित  स्मृतियाँ।  उनकी स्मृतियाँ अनायास ही हमें याद दिलाती हैं कि समय के साथ संस्कार जो हमने विरासत में पाये हैं आधुनिकता, व्यावहारिक एवं स्वास्थ्य कारणों से बदलते जाते हैं। किन्तु,  आस्थाऔर मान्यताएं बनी रहती हैं।  सुश्री प्रभा जी ने इस विषय पर बड़ी ही बेबाकी से अपनी राय रखी हैं एवं मैं भी उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। 

आज प्रस्तुत है उनका यह पठनीय आलेख “पंढरीची वारी ”।   

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 8 ☆

 

☆ पंढरीची वारी ☆

 

वर्षानुवर्षे लोक श्रद्धेने वारीला जातात, इतका काळ ही प्रथा टिकून आहे हे खरोखर विलक्षण आहे, लहानपणापासून आषाढी कार्तिकी एकादशी चा उपवास केला जातो, आमचं ग्रामदैवत सोमेश्वर त्यामुळे घरात सगळे शिवभक्त, नाथपंथिय असल्याने गोरक्षनाथाची बीज आणि शिवरात्र हे घरात होणारे उत्सव! माहेरी कोणी वारीला गेल्याचं स्मरत नाही…नसावंच!

सासरी आल्यावर सासूबाई विठ्ठल भक्त, दर एकादशी चा उपवास करणा-या धार्मिक, सासरे पालखीच्या दिवसात वारक-यांना जेवण देत ती प्रथा मोठे दीर जाऊ बाई अजूनही पाळतात, दोनशे-अडीचशे वारकरी जेवायला येतात !

माझ्या मनातही विठ्ठलभक्ती आहे लग्नानंतर !….संत परंपरेचा आदर आहे पूर्वीपासूनच!

वीस वर्षांपूर्वी एक मैत्रीण म्हणाली, आपण आळंदी ते पुणे वारी बरोबर येऊ चालत मी हो म्हटलं, पहाटे स्वारगेटहून बसने आळंदीला गेलो आणि वारीत सामिल झालो…. प्रवासात कोणी कोणी खिचडी, पोहे असं काही खायला देत होते ते खात होतो फक्त पाण्याची बाटली बरोबर होती, संध्याकाळी पुण्यात शिवाजीनगर ला पोहोचलो, तिथून रिक्षा पकडून मैत्रीणीच्या घरी गेलो, तिच्याकडे पिठलंभात करून खाल्ला! माझे पाय सुजले होते चालल्यामुळे, त्या मैत्रीणीने तेल गरम करून माझे पाय चोळून  दिले ही तिची सेवा चिरस्मरणात राहणारी…वारीमुळे निर्माण झाली ही मैत्रीतल्या कृतज्ञतेची भावना! वारीतला तो अनुभव- आळंदी ते पुणे… छान होता, पण फार भक्तिभावाने किंवा भारावलेपणाने ओथंबलेला नव्हता!

आता कालच एका मैत्रिणीचा फोन झाला ती आळंदीच्या पालखीबरोबर चालत पंढरपूर ला गेली…वारीतले फोटो, भारावलेपण….. मला स्वतःला आता  यापुढे कधीही वारीत जायची इच्छा नाही…पण जे जातात त्यांच्या स्टॅमिन्याचं विशेषतः साठी ओलांडलेल्यांचं कौतुक आहे, आत्ता एका तरूण मुलाला विचारलं ,”वारी बद्दल तुझं मत काय? “तर तो म्हणाला ” दोन दिवस पुण्यातले रस्ते बंद होतात, वाहतूकीत आडथळे एवढंच मत आहे बाकी काही नाही”, मी आत्ता सोसायटीच्या कृष्णमंदिरात बसलेय आणि हा तरूण अनोळखी, मंदिरात दर्शनाला आलेला, पुजा-याशी मराठीत बोलत असल्यामुळे मी त्याच्याशी बोलले! वारी एक आश्चर्य, अस्मिता…. पण मला स्वतःला वारीचं विशेष आकर्षण नाही, ईश्वरवादी, आस्तिक असूनही!

देह त्यागताना

डोळाभर दिसो

आत्म्या मध्ये वसो

विठ्ठलचि॥

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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मराठी साहित्य – कविता ☆ गुरूपौर्णिमा विशेष चारोळी लेखन – गुरूपौर्णिमा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(आज प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की   गुरूपौर्णिमा पर विशेष चारोळी लेखन। )

 

☆ गुरुपौर्णिमा . . . ! ☆

*गुरूपौर्णिमा विशेष चारोळी लेखन*

 

1

माता, पिता, मानू

दोघे  आद्य गुरू

नाम संकीर्तन

जीवनात स्मरू.. .

 

2

गुरु विना आहे

जीवनाचा माठ

जैसा निरर्थक

जलाविना काठ. . . . !

 

3

गुरू आहे साद

संस्कारांची वात

अंतरी निनाद

तेजाळली दाट. . . . !

 

4

आदर्शाची ठेव

गुरूभाव दुजा

तिच्या पुढे कुणी

ठरू नये खुजा. . . !

 

5

शिष्याचे जीवन

गुरु एक नाम

आळसाने कधी

गाठू नये धाम. . . . !

 

6

गुरू आहे पारा

अंतरी मतीचा

दाखवी चेहरा

नैतिक नितीचा.. . . !

 

7

ज्ञान देण्या येई

जीवनी शिक्षक

देई अनुभव

तोच परिक्षक. . . . !

 

8

मौज मजेतही

नाही कुणा रजा

मित्र होता गुरु

वेळ काळी सजा.. . !

 

9

ज्ञानदाता आहे

गुरूचेच रूप.

ठेवावे सोबत

त्याचे निजरूप. . . . !

 

10

आज्जी,मामी,काकी

गुरू दृष्टी क्षेप

मायेमध्ये दडे

लेकराची  झेप. . . !

 

11

नावे कोणाला

कोणी गुरूजन

घेणार्‍याने घ्यावे

दात्यानेच मन  .. . . !

 

12

कला,क्रिडे मध्ये

हवा अविष्कार

अनुभवी व्यक्ती

गुरू जाणकार. . . . . !

 

13

दिल्यानेच मिळे

केल्यानेच होई

ज्ञान, गुण,  किर्ती

गुरूपदा नेई .. . . !

 

14

परिसाच्या संगे

लोह  आकारते

गुरू कांचनाने

देह साकारते. . . . !

 

15

नसावा विवेक

असावा विचार

गुरू नाम घेता

नसावा विकार. . . . !

 

16

गुरु माझी आई

गुरू माझा बाप

ओळखला ईश

हरे भवताप . . . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ आनंदमय जीवन के वैज्ञानिक सूत्र: खुशहाली की ओर पहला कदम ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ आनंदमय जीवन के वैज्ञानिक सूत्र: खुशहाली की ओर पहला कदम☆

Video Link : आनंदमय जीवन के वैज्ञानिक सूत्र: खुशहाली की ओर पहला कदम

 

इस वीडियो में है आनंद की विज्ञान सम्मत व्याख्या और खुशहाली की राह की ओर इशारा..

आनंद का वैज्ञानिक आधार क्या है?

आनंद के आधुनिक विज्ञान (The Science of Happiness, Positive Psychology) के अनुसार, आनंद के पांच तत्त्व हैं:

The Five Elements of Happiness:

Positive Emotion

Engagement or flow

Relationships

Meaning

Accomplishment

सरल हिंदी में इन्हें कह सकते हैं:

सुखद अनुभूति

किसी काम में गहरे डूब जाना

आत्मिक सम्बन्ध

जीवन का अर्थ या मायने

उपलब्धि

इस वीडियो में इन तत्वों की व्याख्या की गयी है, इन्हें समझाया गया है। इन्हें समझने के बाद आप अपने आनंद को और विस्तृत कर सकते हैं और खुशहाली की ओर अपने कदम बढ़ा सकते हैं।

आनंदमय जीवन के वैज्ञानिक सूत्र:

खुशहाली की ओर पहला कदम:

– जगत सिंह बिष्ट

The Five Elements of Well-Being:

Happiness is a thing and well-being is a construct. The five elements of well-being are positive emotion, engagement, relationships, meaning, and accomplishment.

Positive Emotion: Positive Emotion includes the feelings of joy, excitement, contentment, hope and warmth. There may be positive emotions relating to the past, present or future.

Engagement: Engagement denotes deep involvement in a task or activity. One does not experience the passing of time. One experiences flow in sports, music and singing but one may also experience it in work, reading a book or in a good conversation.

Relationships: We feel happy when we are among family and friends. The quality and depth of relationships in one’s life make it rich.

Meaning: It’s connecting to something larger than life.

Accomplishment: One strives for achievements in life as a source of happiness.

Each of these elements contributes to well-being. The good news is that each one of the above may be cultivated and developed to enhance level of well-being.

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

 

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌।।21।।

 

जिसने फल की आशा त्यागी ,संयमित, भोग का त्याग किया

सब शारीरिक धर्म निभाया,जीवन को निष्कलुष जिया।।21।।

 

भावार्थ :  जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता।।21।।

 

Without hope and with the mind and the self controlled, having abandoned all greed, doing mere bodily action, he incurs no sin। ।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ गुरुकुल और कुलगुरु ☆ श्री विनोद साव

श्री विनोद साव 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकर श्री विनोद साव जी का  गुरु पूर्णिमा पर विशेष व्यंग्य “गुरुकुल और कुलगुरु”।)

 

☆ व्यंग्य – गुरुकुल और कुलगुरु ☆

 

परंपराओं की इस दुनिया में  गुरुकुल और कुलगुरु भी एक प्राचीन परंपरा रही है। हमारी शिक्षा प्रणाली का  यह  प्रारंभिक रूप  पहले  ऋषि मुनियों के कब्जे में था। अब  न ऐसे  ऋषि तपस्वी रहे  और ना उनका  कब्जा रहा। गुरुकुल व्यवस्था  एक पाठशाला के समान थी जिसमें एक गुरु  और उनके  कुल  शिष्य  हुआ करते थे। एक गुरु से  शिक्षा प्राप्त करने वाले  शिष्यों का समूह  उस  गुरु के कुल के रूप में जाना जाता था। आज के विद्यालयों के समान  तब  गुरुकुल में  अनेक गुरु  नहीं होते थे। इसलिए  वह एक  अध्यापक गुरुकुल का प्रधान तो  होता था लेकिन अध्यापक नहीं।

गुरु को यदि कुल के पार्श्व में लगा दें तब यह कुलगुरु बन जाता है.  गुरुकुल में गुरु आगे होते थे और शिष्यों का कुल पीछे.  कुलगुरु में कुल का वर्चस्व होता था जहाँ गुरु को जाना पड़ता था.  गुरुकुल में शिष्य गुरु के पास जाते थे तो कुलगुरु शिष्यों के घर जाते थे.  एक गुरुकुल में गुरु विश्वामित्र हुए तो एक कुल के कुलगुरु वशिष्ठ हुए.  कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया जहाँ वे ‘योग से भोग’ लगाने तक का सारा कारोबार सशुल्क निपटाते हैं.

आजकल यह दोनों परंपरा कहीं-कहीं संगीत के उस्तादों व उनके शागिर्दों के बीच, कुछ धर्माश्रमों तथा वहां से उपजी साध्वियों के मध्य और राजनीति में दलाली करने वालों के बीच काफी फल फूल रही है। कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया है। इनके शिष्य त्याग तपस्या में चंदा एकत्र करके अपने आश्रमों को भेजते हैं जहां एयर कंडीशन महलों वह एयर कंडीशन कारों में रहने वाले कुछ गुरु ‘संभोग से समाधि’ लगाने तक का सारा कारोबार निपटाते हैं। मथुरा में ऐसा ही एक गुरुकुल है कृपालु कुंज जहां के कृपालु महाराज अपनी शिष्याओं पर कृपा करते हुए नागपुर में रंगे हाथ गिरफ्तार हुए थे।

राजनीति में गुरुकुल से ज्यादा कुलगुरु परंपरा दिखाई देती है. यहाँ राजनेताओं का ‘कुल’ किसी न किसी गुरु के इशारे पर नाचता है. इन कुलगुरुओं के शिष्य कई कई देशों के राष्ट्र-नायक, मंत्री, राज्यपाल व सचिव जैसे प्रभावशाली लोग होते हैं.  ये सत्ता की दलाली करने, निगमों-प्रतिष्ठानो में अपने प्रिय भक्तों को नामज़द करवाने, भक्तो को योगासन करवाने से लेकर स्विस बैंक में खाता खुलवाने, देश की सुरक्षा का भार उठाते हुए हथियारों की खरीद-फरोख्त में हाथ बंटाने की गूढ़ शिक्षा अपने भक्तों को वक्त-बेवक्त देते रहते हैं.

अब आज की शिक्षा प्रणाली में इस परंपरा का निर्वाह देखें तो आज के स्कूल का एक मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की भूमिकाएं एक साथ निभा देता है. जब वह पढाने जाता है तो उसका स्कूल एक गुरुकुल होता है. फिर वही मास्टर शिष्यों के घर जाकर टयूशन पढाता है तब वह कुलगुरु बन बैठता है.  आज शिष्य जिस गुरुकुल में जाते हैं वहीं का गुरु उनका कुलगुरु भी होता है. वे दिन में ‘गुरुकुल’ में पढते हैं और शाम को ‘कुलगुरु’ से पढते हैं.  एक ही मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की आमदनी अकेला हजम कर जाता है. वह गुरुकुल में शिष्य को फेल कर अपने को कुलगुरु बनाये जाने को बाध्य करता है. ऐसा कर लेने के बाद वह मूर्ख शिष्य को मेरिट में लाने का चमत्कार कर दिखाता है.

आज जो शिष्य गुरुकुल और कुलगुरु दोनों ही जगह सुर में सुर मिलाएगा वही अपने ‘केरियर’ को बेसुरा होने से बचाकर चैन की बंसी बजायेगा.

 

सौजन्य: विनोद साव के संग्रह

(‘मैदान-ए-व्यंग्य’ से )

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

गुरु पुर्णिमा विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  भावप्रवण कविता।)

 

☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆

 

हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है,

गुरुओं की स्मृति जगाने मन में आया है।

मन में बहते गुरु प्रेम का ये सिंधु लाया है,

गुरुकृपा वात्सल्यता की सौगात लाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरूः बृह्मा गुरुः विष्णु गुरुः देवो महेश्वरः,

गुरूः साक्षात् परबृहम् का मंत्र लाया है।

गुरू सच्चा मिल जाए तो मिलता है ईश्वर,

जीवन में सफलता के वो सोपान लाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरू वशिष्ठ और विश्वामित्र की ही कृपा थी,

दोनों के सान्निध्य ने राम त्रेता में  बनाया है।

सांदीपनी ने द्वापर में कृष्ण बलराम लाया है,

द्रोणाचार्य की शस्त्र विद्या ने अर्जुन बनाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

परशुराम ने गंगापुत्र को अजेय भीष्म बनाया है,

चाणक्य ने चंद्रगुप्त से बृहद भारत कराया है।

रामदास की राष्ट्रीयता ने शिवा जी बनाया है,

नानक के अद्वैत ने सिखों को मार्ग दिखाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गोरखनाथ ने मछंदर से नाथ संप्रदाय चलाया है,

रामानंद ने कबीर को गढ़ कबीर पंथ चलाया है।

रत्ना ने तुलसी को भक्त बना रामायण रचाया है,

रामकृष्ण ने नरेंद्र को गढ़ वैश्विक यश बढ़ाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

आज गुरूओं की दुर्दशा पर मन दुखी हो गया है,

आज गुरू कोचिंग संस्थानों का दास हो गया है।

आज गुरु राजनीति का शिकार क्यों हो गया है,

वो बिका उसका चारित्रिक पतन क्यों हो गया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गुरु पुर्णिमा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

गुरु पुर्णिमा विशेष 

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का  गुरु पुर्णिमा के अवसर पर  विशेष  लेख।  )

 

☆ गुरु पुर्णिमा ☆

 

अगर हम मानव जीवन का परम उद्देश्य कहना चाहे तो हम कह सकते हैं कि उसका एक मात्र उद्देश सुख और आनंद प्राप्त करना है। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह सभी प्रकार के कर्मों का चुनाव अपने आप करता है। परंतु उसके आनंद और सुख की वृद्धि प्रथम पूज्य गुरु के श्री चरणों से ही शुरू होती है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाता है। इस पृथ्वी पर सभी ब्रम्हांड के गुरु भगवान वेदव्यास जी का अवतरण हुआ था। वेद व्यास जी ने ज्ञान के प्रकाश को चारों  ओर फैलाया। मनुष्य का जीवन तो माता-पिता के कारण होता है। परंतु इस जीवन रूपी काया को संस्कारी कर उसे अपने लक्ष्य पर पहुंचाने का कार्य गुरुदेव के कारण ही होता है। हमारे रामचरितमानस ग्रंथ में गुरु की महिमा का बखान करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरु वंदना से ही इसे आरंभ किया।

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

 

श्री गुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥2॥

भारतवर्ष में सदियों से सनातन धर्म और गुरुकुल की महत्ता रही है। गुरु शक्ति और शिक्षा के कारण ही एक से बढ़कर एक विद्वान, वीर और गुणवान महापुरुष हुए भगवान राम को राम बनवाने में गुरु विश्वामित्र का, अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर बनाने में गुरु द्रोण का और एकलव्य की गुरु भक्ति को कौन नहीं जानता है। द्वापर में कृष्ण जी ने संदीपनी गुरु जी से शिक्षा ग्रहण किया। उज्जैन में आज भी लोग संदीपनी आश्रम के दर्शन करने जरूर जाते हैं।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय |

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ||

भगवान स्वयं कहते हैं कि यदि गुरु और भगवान दोनों खड़े हों तो, पहले आप गुरु का वंदन कीजिए। ईश्वर की पूजा अपने आप हो जाएगी। गुरु के सानिध्य से जीवन की दशा और दिशा दोनों सुधर जाती हैं। गुरु का ज्ञान एक दिव्य प्रकाश पुंज है जो हमेशा सही और सुखद मार्गदर्शन कराता है। वेद आदि और अनंत है। वेद का ज्ञान पूरा होना कभी भी संभव नहीं होता। भगवान वेदव्यास ने इसे सरल कर चार भागों में विभाजित किया:- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इसे जनमानस के लिए प्रसारित किया और सरल रुप दे कर उसे वर्गीकृत किया। इसलिए उन्हें भगवान वेदव्यास कहा गया और उनके जन्मदिवस को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाने लगा। गुरु से मिलन परमात्मा का मिलन होता है। गुरु हमारे कुशल मार्गदर्शक हैं। ध्यान, भक्ति, प्रेम, समर्पण, त्याग, संतोष, दया, यह सभी भाव गुरु भक्ति से ही उत्पन्न और सिखाया जाता है। गुरु हमारे अंतर में अंधकार को हटाकर एक दिव्य प्रकाश ज्योति की ओर ले जाते हैं। गुरु के  प्रति सच्ची श्रद्धा भाव और समर्पित श्रद्धा सुमन ही हमारी सच्ची गुरु भक्ति है। गुरु पूर्णिमा को जिनके के कारण हमारा जीवन आलोक कांतिमय बनता है। उसे हर्षोल्लास  पूर्वक मनाना चाहिए। नवयुग का आगमन हो या नव चेतना का संचार हो गुरु सदैव हमारे मार्गदर्शक रहेंगे। समूचे विश्व में गुरु को……

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रूपिणम्।

यमाश्रितो हि बक्रो पि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।

कहकर संबोधित करना चाहिए

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ गुरु वन्दना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

गुरु पुर्णिमा विशेष 

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की  गुरु पुर्णिमा पर विशेष रचना “गुरु वंदना”  “गुरु वन्दना”)

 

गुरु वन्दना☆ 

बिन गुरु कृपा न हरि मिलें,बिनु सत्संग न विवेक

हरि सम्मुख जो कर सके,गुरू वही हैं नेक।

 

गुरु की है महिमा अंनत ,है ऊंचा गुरु मुकाम

पहले सुमरें गुरू को,फिर सुमिरें श्री राम।

 

गुरु को हिय में राखिये, गुरु चरणो में प्रेम

दिग्दर्शक नहीं गुरु सा,वही सिखाते नेम।

 

भय भ्रांति हरते गुरू,दिखा सत्य की राह

थामी जिसने गुरु शरण,मिलती कृपा अथाह।

 

गुरु कृपा से काम बनें,गुरू का पद महान

सेवा से ही सुखद फल,जानत सकल जहान।

 

गुरु का वंदन नित करें,गुरु का रखें ध्यान

प्रेरक न कोई गुरु सा,गुरु सृष्टि में महान।

 

गुरु में गुरुता वही गुरु,गुरु में न हो ग़ुरूर

ज्ञान सिखाता गुरु हमें,गुरु से रहें न दूर।

 

नीर क्षीर करते वही,करें शिष्य उपचार

तम हरके रोशन करें,सिखाते सदाचार।

 

गुरु भक्ति हम सदा करें,हर दिन हो गुरुवार

आता जो भी गुरु शरण,उसका हो उद्धार।

 

गुरु सागर हैं ज्ञान के,गुरू गुणों की खान

अंदर बाहर एक रहें,वही गुरु हैं महान।

 

गुरु पारस सम जानिये, स्वर्ण करें वो लोह

पूज्यनीय हैं गुरु सदा,करें न गुरु से द्रोह।

 

भय वश बोलें जबहिं गुरु,होता नहीं कल्याण

पद,प्रतिष्ठा,प्रभाव से,गुरु का घटता मान।

 

जिस घर में होता नहीं,सदगुरु का सत्कार

उस घर खुशियां ना रहें,रहता वो लाचार।

 

गुरु चरणों मे स्वर्ग है,गुरु ही चारों धाम

संकट में गुरु साधना,सदैव आती काम।

 

गुरु शरण “संतोष”सदा,गुरु से रखता प्रेम

चाहत गुरु आशीष की,है निश दिन नित नेम।

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #8 – सगुन ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सगुन ”। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 8  ☆

 

☆ सगुन ☆

 

सभ्रांत परिवार बड़ा घर हर तरफ से सभी चीजों से परिपूर्ण। वहाँ पर सिर्फ शासन दादी माँ का। किसी को कुछ देना, किसी के यहाँ जाना, किसी के यहाँ आना, क्या खाना, क्या बनाना सब कुछ दादी माँ ही तय करती थी। दादाजी ने सब कुछ उन्हीं पर छोड़ रखा था। 3 – 3 बेटे – बहुओं का घर। बच्चे भी बहुत। काम वाली बाई का आना – जाना लगा रहता था। दूर से ही उसको सामान फेंक कर देना जैसे दादी की दिनचर्या बनी हुई थी। बाई की बहुत ही सुंदर बिटिया अपनी माँ के साथ आ जाती थी। दादी उसे भी रोटी फेंक कर देती थी। सब कुछ देती परन्तु छुआछूत की भावना बहुत भरी हुई थी। बाई की बिटिया जिसका नाम सगुन था हमेशा कहती अपनी माँ से कि “क्यों हमसे इतना घृणा करती है”

माँ हमेशा एक ही जवाब देती “बड़े लोग हैं बिटिया यहाँ ऐसे ही व्यवहार होता है।” दिन जाते गए सगुन भी बड़ी होने लगी। माँ के साथ अब काम में भी हाथ बंटा लेती थी। उसके काम करने के तरीके से दादी थोड़ा प्रसन्न रहती थी। कभी सिर पर तेल लगाना, कभी पाँव दबाना बहुत ही लगन से करती थी। परन्तु, दादी यह सब काम कराने के बाद स्नान करती थी। सगुन के मन में एक लकीर बन गई थी ‘कि हम सब काम करते हैं साफ-सफाई से रहते भी हैं पर फिर भी हम से इतनी नफरत क्यों हैं?’ इसका जवाब किसी के पास नहीं था। सगुन बच्चों के साथ खेलती पर किसी को छूने या उसके साथ बैठने का अधिकार नहीं था।

एक दिन की बात है घर के आँगन पर सगुन अपना बैठे-बैठे खेल रही थी। घर के बाकी सदस्य लगभग सभी एक पारिवारिक कार्यक्रम में बाहर गए हुए थे। दादी धूप में खाट पर बैठी कुछ पढ़ रही थी। अचानक उनको सिर दर्द और चक्कर आने लगा। आँखें ततरा गईं पर बोल नहीं पा रही थी। सगुन ने देखा दादी गिर पड़ी है और दौड़ कर नल से पानी डिब्बे में लाकर उनके ऊपर छिड़कने लगी और जल्दी से सिर मलने लगी। पानी का घूंट जाते ही दादी जी को कुछ अच्छा लगा। सगुन पास पड़ोस सबको बुलाकर ले आई। तुरन्त अस्पताल ले जाया गया। 3-4 दिन बाद जब दादी घर आई सभी सदस्यों ने दादी के ठीक होने पर प्रसाद मिठाई बाँटना चाहा और सब लेकर आए। आसपास सभी खड़े थे।

दादी की कड़क आवाज आई “सगुन को भुलाकर लाओ”। सभी ने सोचा कि सामान को शायद सगुन हाथ लगाई है अब तो खैर नहीं पर कोई कुछ ना बोल सके। सगुन डरते- डरते अपनी माँ के साथ आई। दादी ने कहा आज से हमारे घर में सभी शुभ काम सगुन के हाथों होगा।

सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे समझ आने पर और जोरदार तालियों से सगुन के ‘शगुन’ बांटने का काम होने लगा। सगुन को कुछ समझ नहीं आया पर आज बहुत खुश थी। अपने को सब के बीच पाकर माँ भी मुस्कुरा उठी। खुशी से आंसू बहने लगे। अब सगुन “शगुन” बन गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #8 – त्याचा गुरू ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  कविता  “ त्याचा गुरू”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #  8 ☆

? त्याचा गुरू ?

 

वाट सारुनीया मागे चालला हा वाटसरू

सोबतीला नाही कुणी त्याचे पाय त्याचे गुरू

 

हिरवळीचा मी पांथ कधी काट्यामध्ये फिरू

वेल कोवळ्या फुलांची तिला सावरून धरू

 

सुख पुढे नेण्यामध्ये कधी यशस्वी ही ठरू

अपयशाचे गारूड त्याला मातीमध्ये पुरू

 

जेव्हा  सूर्य माथ्यावर तेव्हा  छाया देती तरू

पंख वाटतात फांद्या त्याच्या कुशीमध्ये शिरू

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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