आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ।।28।

 

किन्तु द्वन्द से मुक्त जो सदाचारी सज्ञान

नष्ट पाप हो मुझे ही जपते ईश्वर जान।।28।।

 

भावार्थ :  परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।।28।

 

But those men of virtuous deeds whose sins have come to an end, and who are freed from the delusion of the pairs of opposites, worship Me, steadfast in their वोस। ।।28।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ गीतांजलि की कवितायें ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(यह ‘गीतांजलि’ कविवर रवींद्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ की कवितायेँ नहीं है। अपितु, इन कविताओं की रचनाकार गीतांजलि! एक पंद्रह वर्षीय प्रतिभाशाली छात्रा थी जो मुम्बई के एक अस्पताल में 11 अगस्त 1977 को कैंसर के लम्बे रोग से ग्रस्त और त्रस्त होकर एक मुरझाये फूल की तरह चुपचाप मौत की सीढि़यां पार कर गई। शायद उसे अपनी मौत का अहसास पहले ही हो गया था।  उसकी अन्तिम इच्छा थी कि उसके नेत्र किसी नेत्रहीन को दे दिये जायें। वह अपने हृदय का बोझ शताधिक अंग्रेजी कविताओं में कैद कर गई। श्री प्रीतिश नंदी द्वारा 30 मार्च 1980 के ’इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इण्डिया’ के अंक में प्रकाशित संकलन ने मेरा रचना संसार ही झकझोर कर रख दिया।  आज से 29 वर्ष पूर्व इन गीतांजलि की उन पांच कविताओं का भावानुवाद करने की चेष्टा की है। गीतांजलि की ये मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कवितायें ही मेरी भावी रचनाओं के लिये प्रेरणा स्त्रोत बन गई हैं। कालान्तर में मैंने उनकी सभी कविताओं का अनुवाद ‘गीतांजलि  – यादें और यथार्थ’ शीर्षक से किया और सहेज कर अपने पास रखा हुआ है।) 

 

गीतांजलि की कवितायें

☆ विदा लेती आत्मा की प्रतिध्वनि☆

 

मेरे जीवन की लौ

बढ़ रही है

अपने अन्त की ओर।

मैं नहीं जानती

कब आयेगा

मेरा अन्त।

मुझे दुख है

अपने लिये

किन्तु,

मुझे खुशी  है

तुम्हारे लिये

मेरे अज्ञात मित्र

तुम्हारे लिये,

उस ज्योति के लिये

मेरे नेत्रों की

जो तुम्हारी होगी।

जो तुम्हारी होगी।

 

यह वही प्रतिध्वनि है

मेरी विदा लेती आत्मा की

और

जो तुम पाओगे

मेरे मित्र

मेरी ज्योति

मेरे नेत्रों की

वह मेरी अमानत है

तुम्हारे लिये।

 

☆ विनती ☆

 

मैं हमेशा ढ़ूंढती हूं, तुम्हें

अपनी प्रार्थनाओं में

सर्वस्व में

उगते सूर्य में

और

ढलते दिन में।

 

मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ

स्वप्न में

अज्ञात प्रकाश में

तुम्हारे आलौकिक स्पर्श के लिये

जब मैं त्रस्त रहती हूं

असह्य पीड़ा से

और

धन्यवाद देना चाहती हूँ

इस आशा से

कि

– कब मेरी पीड़ा दूर करोगे।

 

मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ

अपनी प्यारी माँ में

और

अपने पूज्य पिताजी में भी

तुम्हारे मार्गदर्शन के लिये।

संयोग से

यदि

मैं ठीक न हो पाई

तो

तुम्हारा नाम लेना व्यर्थ होगा।

हे प्रभु!

विश्वास करो

मैं असहय पीड़ा में हूँ।

 

मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ

उन अनमोल क्षणों के लिये

जब तुमने मुझे हंसाया था

इसी असहय पीड़ा में।

उन्हें

संजो रखा है मैंने

एक अनमोल खजाने की तरह

और

जी रही हूँ

उन्हीं अविस्मरणीय क्षणों को

याद कर ।

 

मैं

अनुभव कर रही हूँ

तुम्हारा अस्तित्व

अपनी माँ  में

और

पिताजी की गोद में।

 

मुझे विश्वास है

और

तुम जानते हो

मैं कुछ नहीं चाहती।

बस,

सत्य की रक्षा करो।

सत्य तुम्हारे अन्दर है

और

इसीलिये

मैं तुम्हें ढूंढ रही हूं।

मैं तुम्हें ढूंढूंगी

अपनी मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक।

मैं विनती करती हूँ

हे! मेरे प्रिय प्रभु!

मेरे पास आओ

मेरे हाथों को सहारा दो

और ले जाओ

जहां  तुम चाहते हो।

 

एक वात्सल्य विश्वास लिये

इसी आशा पर टिकी हूं

अतः हे प्रभु!

मुझ पर कृपा करो

मेरे करीब आओ।

 

☆ अफसोस☆ 

 

एक दीपक जल रहा है

मेरी शैय्या के पास।

मैं देख रही हूं

दुखी चेहरे

उदास

जो घूम रहे हैं

मेरे आसपास

नहीं जानते

कब मृत्यु आयेगी।

 

मैं!

मांग रही हूं

अपना अधिकार

मौत से।

अब मुझे कोई भय नहीं है

अतः

मैं स्वागत करुंगी

मौत का

अपनी बाहें फैलाकर।

 

किन्तु, …… अफसोस!

मेरे पास

अर्पण के लिये

केवल आंसू रहेंगे

और

यह नश्वर शरीर।

 

 

☆ निद्रा! ☆

 

हे निद्रा!

हम कब मिले थे,

पिछली बार?

तुम और मैं

हो गये हैं अजनबी।

 

अभी

कुछ समय पहले

हम लोग कितने करीब थे।

जब तुम ले जाती थी … मुझे

मेरा हाथ थाम कर

दूर पहाडियों पर

स्वप्नों का किला बनाने।

अब

यह सब

कितना अजीब है।

अब रह गई हैं

मात्र

एक धुंधली सी स्मृति

तुम्हारी!

 

याद करो

आदान प्रदान

हमारे करुण विचारों का?

अब

रह गई हूँ, अकेली

और

स्मृतियां शेष !

 

कभी-कभी

कुछ शब्द-चक्र

पुनर्जीवित कर देते हैं

विस्मृत क्षणों को

एक लोरी की तरह।

एक शुभरात्रि चुम्बन

मुझे याद दिलाता है, तुमको

जिसे कहते हैं

’निद्रा’!

 

अब लेटी हूं

और

देख रही हूँ

अंधकार में

अकेली और दुखी।

 

एक बार

रास्ते में

निद्रा घेर लेती है

अचानक!

और …. स्वप्न

मुझसे दूर भागने लगते हैं।

 

22 अप्रेल 1980

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  मृत्यु!

मृत्यु क्या है..?

फोटो का फ्रेम में टँक जाना,

जीवन क्या है…?

फ्रेम बनवाना, फोटो खिंचवाना,

एक सिक्के के दो पहलू हैं,

कभी इस ओर आना

कभी उस पार जाना…!

आजका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 – पंचमुखी हनुमान ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “पंचमुखी हनुमान ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 ☆

☆ पंचमुखी हनुमान

 

मकरध्वज ने भगवान हनुमान से कहा कि महल में प्रवेश करने से पहले उन्हें उससे लड़ना होगा। क्योंकि वह अपने स्वामी अहिरावण के साथ छल नहीं कर सकता है, और सेवक धर्म का पालन करने के लिए अपने पिता का सामना करने के लिए भी तैयार है। मकरध्वज की भक्ति और वचनबद्धता को देखकर, भगवान हनुमान खुश हुए और उसे आशीर्वाद दिया । उसके बाद भगवान हुनमान और मकरध्वज के बीच संग्राम हुआ जिसमे भगवान हनुमान विजयी हुए । उसके बाद उन्होंने मकरध्वज को बंदी बना दिया और भगवान राम और लक्ष्मण की खोज में महल में प्रवेश किया ।

वहाँ पर भगवान हनुमान चन्द्रसेना (अर्थ : चंद्रमा की सेना) से मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि अहिरावण को मारने का एकमात्र तरीका पाँच अलग-अलग दिशाओं में जलते दीपकों को एक ही फूँक से बुझाना है । ऐसा करने के लिए भगवान हनुमान ने पाँच चेहरों के साथ पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया, जो घरेलू प्रार्थनाओं के लिए बहुत शुभ है ।

भगवान हनुमान ने अपने मूल चेहरे के अतरिक्त वरहा, गरुड़, नृसिंह और हयग्रीव चेहरे चार दिशाओं में निकाले और इस प्रकार उनके पाँच दीपक एक साथ बुझाने के लिए पाँच चेहरे दिखाई देने लगे। भगवान हनुमान का मूल चेहरा पूर्व दिशा में था, वरहा उत्तर दिशा, गरुड़ पश्चिम दिशा नृसिंह दक्षिण दिशा में, और हयग्रीव वाला चेहरा ऊपर की ओर को था ।

इन पाँच चेहरों का बहुत महत्व है। भगवान हनुमान का मूल चेहरा जो पूर्वी दिशा में है, पाप के सभी दोषों को दूर करता है और मन की शुद्धता प्रदान करता है। नृसिंह का चेहरा दुश्मनों के डर को दूर करता है और जीत प्रदान करता है। गरुड़ का चेहरा बुराई के मंत्र, काले जादू प्रभाव, और नकारात्मक आत्माओं को दूर करता है; और किसी के शरीर में उपस्थित सभी जहरीले प्रभावों को हटा देता है। वरहा का चेहरा ग्रहों के बुरे प्रभावों के कारण परेशानियों से गुजरते व्यक्तियों को आराम प्रदान करता है, और सभी आठ प्रकार की समृद्धि (अष्ट ऐश्वर्य) प्रदान करता है। ऊपर की ओर हयग्रीव का चेहरा ज्ञान, विजय, अच्छी पत्नी और संतान को प्रदान करता है ।

भगवान हनुमान के इस रूप (पाँच मुखों वाले हनुमान) का वर्णन पराशर संहिता (ऋषि पराशर द्वारा लिखित एक अगामा पाठ) में भी किया गया है। भगवान हनुमान का यह रूप बहुत लोकप्रिय है और पंचमुखी मुखा अंजनेय (पाँच चेहरों के साथ अंजना का पुत्र) भी कहा जाता है । इन चेहरों से पता चलता है कि दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन पाँच में से किसी ना किसी चेहरे के प्रभाव के तहत नहीं आता है, और जो सभी भक्तों के लिए सुरक्षा प्रदान करता है । ये पाँच चेहरे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊपर की दिशा पर सतर्कता और नियंत्रण का प्रतीक है ।

प्रार्थना के पाँच रूप, नमन, स्मरण,कीर्तन, यचनाम और अर्पण के पाँच तरीके हैं। पाँच चेहरे इन पाँच रूपों को दर्शाते हैं ।

पाँच चेहरे प्रकृति के निर्माण के पाँच तत्वों के अनुसार भी हैं। गरुड़ अंतरिक्ष को दर्शाता है, भगवान हनुमान ने वायु को इंगित किया है, नृसिंह अग्नि को दर्शाता है, हयग्रीव पानी को दर्शाता है, और वरहा पृथ्वी तत्व को दर्शाता है ।

इसी तरह पाँच चेहरे मानव शरीर के पाँच महत्वपूर्ण वायु या प्राणों को भी दर्शाते हैं। गरुड़ उदान के रूप में, भगवान हनुमान प्राण के रूप में, नृसिंह समान के रूप में, हयग्रीव व्यान और वरहा अपान के रूप में ।

तो इस पंचमुखी रूप में, भगवान हनुमान एक ही समय में सभी पाँच दीपक बुझाने में सक्षम हुए। उसके बाद उन्होंने चाकू के एक तेज झटके के साथ अहिरावण को मार दिया। भगवान हनुमान अंततः भगवान राम और लक्ष्मण को बचाकर, अहिरावण को मारने और विभीषण को दिए गए वचन को पूरा करने में सफल हुए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  विधुर बंधुओं को समर्पित एक कविता – आर्तनाद

श्री सूबेदार पाण्डेय जी के शब्दों में  – ‘आर्तनाद’ का अर्थ है, दुखियारे के दिल की दर्द में डूबी आवाज।  कवि की ये रचना उसी बिछोह के पीड़ा भरे पलों का चित्रण करती है। जब जीवन में साथ चलते-चलते जीवनसाथी अलविदा हो जाता है, तब रो पड़ती हैं दर्द में डूबी आँसुओं से भरी आँखें, और जुबां से निकलती है गम के समंदर में डूबी हुई आवाज। यह रचना समाज के विधुर बन्धुओं को समर्पित है।)

☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद  ☆

 

हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई,
अब मैं तुमसे मिल न सकूंगा।
अपने सुख-दुख मन की पीड़ा,
कभी किसी से कह न सकूं गा।

 

घर होगा परिवार भी होगा,
दिन होगा रातें भी होगी।
रिश्ते होंगे नाते भी होंगे,
फिर सबसे मुलाकातें होगी।

 

जब तुम ही न होगी इस जग में,
फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।1।।

 

मेरे जीवन में ऐसे आई तुम,
जैसे जीवन में बहारें आई थी।
सुख दुःख में मेरे साथ चली,
कदमों से कदम मिलाई थी।

 

जब थका हुआ होता था मैं,
तुमको ही सिरहाने पाता था।
तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श,
मेरी हर पीड़ा हर लेता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।2।।

 

इस जीवन के झंझावातों में,
दिन रात थपेड़े खाता था।
फिर उनसे टकराने का साहस,
मैं तुमसे ही तो पाता था ।

 

रूखा सूखा जो भी मिलता था,
उसमें ही तुम खुश रहती थी,
अपना गम और अपनी पीड़ा,
क्यों कभी न मुझसे कहती थी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।3।।

 

मेरी हर खुशियों की खातिर,
हर दुख खुद ही सह लेती थी।
मेरे आँसुओं के हर कतरे को,
अपने दामन में भर लेती थी।

 

जब प्यार तुम्हारा पाता तो,
खुशियों से पागल हो जाता था।
भुला कर सारी दुख चिंतायें
तुम्हारी बाहों में सो जाता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।4।।

 

तुम मेरी जीवन रेखा थी,
तुम ही  मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,
तुम ही तो आवाज थी।

जब नील गगन के पार चली,
मेरे शब्द खामोश हो गये।
बिगड़ा जीवन से ताल-मेल,
मेरे हर सुर साज खो गये।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।5।।

मँझधार में जीवन नौका की,
सारी पतवारें जैसे टूट गई हो।
तूफानों से लड़ती मेरी कश्ती,
किनारे पर जैसे डूब रही हो।

मेरे जीवन से तुम ऐसे गई,
मेरी बहारें जैसे रूठ गई हो।
इस तन से जैसे प्राण चले,
जीने की तमन्ना छूट गई हो।

शेष बचे हुए दिन जीवन के,
तुम्हारी यादों के सहारे काटूंगा,
अपने पीड़ा अपने गम के पल,
कभी नहीं किसी से बाटूंगा।

तुम्हारी यादों को लगाये सीने से,
अब बीते कल में मैं खो जाउंगा।
ओढ़ कफन की चादर इक दिन,
तुमसा गहरी निद्रा में सो जाऊंगा।

।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।6।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆ विजय ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “विजय”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆

☆ विजय

कालरात्रि पर विजय पाना,
बड़ा कठिन होता है।
पर अमावस हो या हो पूनम,
जीना सिखलाता है…..

अंबर से एक तारा टूटे,
उसे क्या फर्क पड़ता है
जिनका एक मात्र सहारा छूटे,
उन्हें जीना तो पड़ता है…..

लंका दहन हो मर्कट का
या कुरूक्षेत्र का चक्रव्यूह हो
शत्रु पर पाने को विजय
भेदन तो करना पड़ता है…..

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

10.11.2019 सुबह अविनाश भाई दवे जबलपूर से चलकर नरसिंहपुर होते हुए सांकल आने वाले थे, अतः हम सभी साहू जी से विदा लेकर बस स्टैंड आ गये गुड़ की जलेबी और समोसे का नाश्ता किया और उस चबूतरे पर बैठ गए जहां कल सायंकाल ग्रामीण जन चौपड़ खेल रहे थे।

पैंट शर्ट धारी परिक्रमावासियों के विषय में कल से ही गांव में चर्चा थी अतः हमें देखते ही ग्रामीण एकत्रित हो गए। पटवाजी ने पुनः महाभारत की कथा सुनाना शुरू कर दिया। यह जोशी जी को पसंद नहीं आया और उन्होंने धीरे से इसे रोजगारपरक शिक्षण-प्रशिक्षण की दिशा दी, गांधी चर्चा भी हुई और कुछ प्रतीकात्मक सफाई भी। बस स्टैंड के दुकानदारों ने कचरा संग्रहण हेतु डब्बे रखें हैं पर इसका सार्वजनिक डिस्पोजल नहीं होता है अतः यह कचरा दुकानों के पीछे फेंक दिया जाता है।

मेरी इच्छा हुई कि सरपंच से इस संबंध में बात करनी चाहिए पर उनसे मुलाकात असंभव ही रही। यहां संतोष सेन मिले, वे पेशे से नाई हैं, और दंबगों से उन्होंने बैर लिया, जिससे रुष्ट हो दंबगों ने उन पर तेजाब फेंक दिया था। लेकिन इस दुर्घटना के बाद वहां दंबगई खत्म हुई और लोगों की दुकानें खुली।

धानू सोनी मिले। वे परिक्रमा करने वालों को चाय नाश्ता उपलब्ध कराते हैं। हमें भी उन्होंने चाय पिलाई पर मूल्य न लिया। हमने उनकी पुत्री के हाथ कुछ रुपये रख विदा ली। यहीं सिलावट परिवार से मुलाकात हो गई,  उन्होंने मुआर घाट से परिक्रमा उठाई थी। मैंने उनसे पुश्तैनी पेशा के बारे में पूंछा, वे न बता सकें, खेती-बाड़ी करते हैं, ऐसा बताया। शरद तिवारी, सोशल वर्कर हैं, नर्मदा में प्रदूषण, अतिक्रमण, तराई में फसल आदि को लेकर चिंतित दिखाई दिये।

कोई साढ़े नौ बजे अविनाश की बस आ गई और हम नहर मार्ग से अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर चले होंगे कि राजाराम पटैल मिल गये, उन्होंने प्रेम के साथ अपने खेत का गन्ना हमें चूसने को दिया। हम लोगों में से केवल पटवाजी ही गन्ने को दांत से छीलकर चूस सके बाकी ने उसे पहले हंसिया से चिरवाया फिर चूसा।  रास्ते भर गन्ने के खेत और बेर की झाड़ियां मिली। पके मीठे बेर खूब तोड़ कर खाते हुए हम आगे बढे।

गुढवारा के रास्ते में हमें आठवीं फेल कैलाश लोधी मिल गये। वे बड़े प्रेम से हम सबको घर ले आए चाय पिलाई और अपने पुत्र रंजीत लोधी से मिलवाया। रंजीत ने इंदौर के निजी कालेज से बी ई किया है और पीएससी की तैयारियों में लगे हैं। कहते हैं कि जनता की सेवा करने शासकीय सेवा में जाना चाहते हैं। पटवाजी ने उन्हें अपनी पुस्तक गुलामी की कहानी से कुछ उद्धरण सुनाये।

गांव से निकलकर हम पुनः नर्मदा के किनारे आ गये। तट पर रेत पत्थर न थे सो नहाया नहीं और आगे बढ़ चले।  कुछ दूर चले होंगे कि नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई देने लगी। आश्चर्य हुआ, झांसी घाट से अभी तक हमने शांत होकर बहती नर्मदा के दर्शन किये थे, यहां नर्मदा संगीतमय लहरियों के साथ बह रही थी। यह घुघरी घाट है। यहां नर्मदा पत्थरों के बीच कोलाहल करती प्रवाहमान है। उत्तरी तट की ओर से विन्ध्य पर्वत माला की हीरापुर श्रृंखला के दर्शन होते हैं। तट पर हम सबने विश्राम किया और नहाया। कल-कल ध्वनि इतनी मधुर थी कि उठने का मन ही न हुआ।

हम सबने अविनाश भाई के द्वारा लाई गई मेथी की भाजी की पूरियां, आवलें के अचार और घी के साथ खाई और कुछ विश्राम किया। अविनाश स्वादिष्ट भोजन के प्रेमी हैं। यह गुण उन्हें उनके माता व पिता से विरासत में मिला है। बाबूजी बताते थे कि हमारे फूफा, अविनाश के पिता, स्वादिष्ट खेडावाडी व्यंजनों के बड़े प्रेमी थे। अविनाश के बैग का एक खंड खाद्य सामग्री से भरा है। उसके पास चाय काफी से लेकर पोहा,नमकीन, अचार, मैगी मसाला लड्डू सब मिल जायेगा। हमने घुघरी घाट में नर्मदा के साथ कोई दो घंटे बिताए और फिर  रात्रि विश्राम के लिए ठौर ढूंढने घुघरी गांव की ओर चल पड़े। यहां चढ़ाई सांकल घाट की तुलना में कम थी।

एक जगह टीलों के कटाव की मैं फोटो खींचने लगा। इतने में एक गौड़ अधेड़ दिखा चर्चा चली कि पेड़ लगे होते तो यह टीले ऐसे न कटते। उसने बताया कि यह नदी की बाढ का नहीं मनुष्य की लालच का फल है। नहर में मिट्टी भराई कार्य हेतु जेसीबी मशीनों के तांडव का नतीजा है। दुःखी मन ने सोचा कि हम ईशोपनिषद के श्लोकों को भी भूल गये हैं। गांधीजी ने हिंद स्वराज में मशीनों का उपयोग सोच समझकर करने कहा था। उनकी चेतावनी हमने नहीं मानी और यह  अब पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। थोड़ी दूर पर बम-बम बाबाजी द्वारा संचालित श्री राधाकृष्ण मंदिर धर्मशाला है। बाबा की उम्र अस्सी के आसपास है और परिक्रमा पश्चात घर-बार छोड़कर यहां बस गये हैं। परिजन व पत्नी अक्सर मिलने आते रहते हैं। वहीं रात कटी बाबा ने भोजन व्यवस्था की और हम लोगों ने मोटे-मोटे टिक्कड मूंग की दाल के साथ उदरस्त किये।

आश्रय स्थल  के सामने स्थित विशालकाय बरगद वृक्ष देखा। पेड़ काफी पुराना है और लगभग सात आठ स्तंभ हैं। नर्मदा तट के निवासियों ने जगह जगह बट, पीपल, इमली आदि के वृक्ष लगाए हैं इससे कटाव रूकता है। पर यह वृक्षारोपण दो पीढ़ियों के पहले का है अब तो युग अपना और केवल अपना भला सोचने का है। परहित सरिस धर्म नहिं भाई का जमाना हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।।27।।

 

राग द्वेष के जाल में फॅसा हुआ संसार

अर्जुन सुख दुख मोह से भ्रमित सतत बेकार।।27।।

      

भावार्थ :  हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वंद्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं।।27।।

 

By the delusion of the pairs of opposites arising from desire and aversion, O Bharata, all beings are subject to delusion at birth, O Parantapa!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 25 ☆ स्मित रेखा और संधि पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्मित रेखा और संधि पत्र ”.   जयशंकर प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की  चार पंक्तियों को सुप्रसिद्ध कवि कुमार  विश्वास जी के विडिओ पर सुनकर  डॉ मुक्त जी द्वारा इस सम्पूर्ण आलेख की रचना कर  दी गई ।  कामायनी की चार पंक्तियों पर नारी  की संवेदनाओं पर संवेदनशील रचना डॉ मुक्त जैसी संवेदनशील रचनाकार ही ऐसा आलेख रच सकती हैं।  मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 25 ☆

☆ स्मित रेखा और संधि पत्र 

‘आंसू से भीगे अंचल पर

मन का सब कुछ रखना होगा

तुझको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

कामायनी की इन चार पंक्तियों में नारी जीवन की दशा-दिशा और उसके जीवन का यथार्थ परिलक्षित है। प्रसाद जी ने नारी के दु:खों की अनुभूति की तथा उसे,अपने दु:ख,पीड़ा व कष्टों को आंसुओं रूपी आंचल में समेट कर, मुस्कुराते हुए संधि-पत्र लिखने का संदेश दिया। यह संधि-पत्र एक-तरफ़ा समझौता है अर्थात् विषम परिस्थितियों का मुस्कराते हुए सामना करना… इस ओर संकेत करता है, क्योंकि उसे सहना है, कहना नहीं। यह सीख दी है, बरसों पहले प्रसाद जी ने, कामायनी की नायिका श्रद्धा को…कि उसे मन में उठ रहे ज्वार को आंसुओं के जल से प्रक्षालित करना होगा और अपनी पीड़ा को आंचल में समेट कर समझौता करना होगा।

आज कामायनी के चार पद, जिन्हें कुमार विश्वास ने वाणी दी है, उस वीडियो को देख-सुनकर हृदय विकल-उद्वेलित हो उठा। मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मेरी लेखनी, नारी जीवन की त्रासदी को शब्दों में उकेरने को विवश हो गई। एक प्रश्न मन में कुनमुनाता है कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, उसे मौन रहने का संदेश दिया गया है…दर्द को आंसुओं के भीगे आंचल में छुपा कर, मुस्कराते हुए जीने की प्रेरणा दी गई है…क्या यह उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है?शायद! यह कुठाराघात है उसकी संवेदनाओं पर… समझ नहीं पाता मन… आखिर हर कसूर के लिए वह ही क्यों प्रताड़ित होती है और अपराधिनी समझी जाती है…हर उस अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं। प्रश्न उठता है, जब कोर्ट-कचहरी में हर मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर-अधिकार प्रदान किया जाता है, तो नारी इस अधिकार से वंचित क्यों?

चौंकिए नहीं! यह तो हमारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे आज तक प्रतिपक्ष ने संभाल कर रखा हुआ है और उसकी अनुपालना भी आज तक बखूबी की जा रही है। ‘क्या कहती हो ठहरो! नारी/संकल्प अश्रुजल से अपने/तुम दान कर चुकी पहले ही/ जीवन के सोने से सपने’ द्वारा नारी को आग़ाह किया गया है कि वह तो अपने स्वर्णिम सपनों को पहले ही दान कर चुकी है अर्थात् होम कर चुकी है। अब उसका अपना कुछ है ही नहीं,क्योंकि दान की गयी वस्तु पर प्रदाता का अधिकार उसी पल समाप्त हो जाता है। स्मरण रहे, उसने तो अपने आंसुओं रूपी जल को अंजलि में भर कर संकल्प लिया था और अपना सर्वस्व उसके हित समर्पित कर दिया था।

सो! नारी, तुम केवल श्रद्धा व विश्वास की प्रतिमूर्ति हो और तुम्हें जीवन को समतल रूप प्रदान करने हेतु  पीयूष-स्त्रोत अर्थात् अमृत धारा सम बहना  होगा। युद्ध देवों का हो या दानवों का, उसके अंतर्मन में सदैव संघर्ष बना रहता है…परिस्थितियां कभी भी उसके अनुकूल नहीं रहतीं और पराजित भी सदैव नारी ही होती है। युद्ध का परिणाम भी कभी नारी के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए नारी को अपने अंतर्मन के भावों पर अंकुश रख, आंसुओं रूपी रूपी जल से उस धधकती ज्वाला को शांत करना होगा तथा उसे अपनी मुस्कान से जीवन में समझौता करना होगा। यही है नारी जीवन का कटु यथार्थ है…कि उसे नील- कंठ की भांति हंसते-हंसते विष का अआचमन करना ही होगा… यही है उसकी नियति। सतयुग से लेकर आज तक इस परंपरा को बखूबी सहेज-संजो- कर रखा गया है, इसमें तनिक भी बदलाव नहीं आ पाया। नारी कल भी पीड़ित थी, आज भी है और कल भी रहेगी। जन्म लेने के पश्चात् वह पिता व भाई के सुरक्षा-घेरे में रहती है और विवाहोपरांत पति व उसके परिवारजनों के अंकुश में, जहां असंख्य नेत्र सी•सी•टी•वी• कैमरे की भांति उसके इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और उसकी हर गतिविधि उन में कैद होती रहती है।

दुर्भाग्यवश न तो पिता का घर उसका अपना होता है, न ही पति का घर… वह तो सदैव पराई समझी जाती है। इतना ही नहीं, कभी वह कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है, तो कभी वंश चलाने के लिए, पुत्र न दे पाने के कारण उस पर बांझ होने का लांछन लगा कर, उसे घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर, केवल चेहरा बदल जाता है, नियति नहीं। हां! पिता और पति का स्थान पुत्र संभाल लेता है और उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है। उस स्थिति में उसे केवल पुत्र का नहीं, पुत्रवधु का भी मुख देखना पड़ता है, क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी की डोर दो-दो मालिकों के हाथ में आ जाती है।

आश्चर्य होता है, यह देख कर कि मृत्योपरांत उसे पति के घर का दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता, वह भी उसके मायके से आता है और भोज का प्रबंध भी उनके द्वारा ही किया जाता है। अजीब दास्तान है… उसकी ज़िन्दगी की, जिस घर से उसकी डोली उठती है, वहां लौटने का हक़ उससे उसी पल छिन जाता है, और जिस घर से अर्थी उठती है, उस घर के लिए वह सदा ही पराई समझी जाती थी। उसका तो घर होता ही कहां है…इसी उधेड़बुन व असमंजस में वह पूरी उम्र गुज़ार देती है। प्रश्न उठता है,आखिर संविधान द्वारा उसे समानता का दर्जा क्यों प्रदत नहीं? अधिकार तो पुरूष के भाग्य में लिखे गये हैं और स्त्री को मात्र कर्त्तव्यों  की फेहरिस्त थमा दी जाती है…आखिर क्यों? जब परमात्मा ने सबको समान बनाया है तो उससे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? यह प्रश्न बार-बार अंतर्मन को कचोटते हैं… हां!यदि अधिकार मांगने से न मिलें,तो उन्हें छीन लेने में कोई बुराई नहीं।श्रीमद्भगवत् गीता में भी अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाले को अधिक दोषी ठहराया गया है।

शायद! नारी की सुप्त चेतना जाग्रत हुई होगी और उसने समानाधिकर की मांग करने का साहस जुटाया होगा। सो!कानून द्वारा उसे अधिकार प्राप्त भी हुए, परंतु वे सब कागज़ की फाइलों तले दब कर रह गये। नारी शिक्षित हो या अशिक्षित, उसकी धुरी सदैव घर- गृहस्थी के चारों ओर घूमती रहती है।दोनों की नियति एक समान होती है। उनकी तक़दीर में तनिक भी अंतर नहीं होता। वे सदैव प्रश्नों के घेरे में रहती हैं। पुरूष का व्यवहार औरत के प्रति सदैव कठोर ही रहा है, भले ही वह नौकरी द्वारा उसके बराबर वेतन क्यों न प्राप्त करती हो? परंतु परिवार के प्रति समस्त दायित्वों के वहन की अपेक्षा उससे ही की जाती है। यदि वह किसी कारणवश उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, तो उस पर आक्षेप लगाकर, असंख्य ज़ुल्म ढाये जाते हैं। सो!उसे पति व परिजनों के आदेशों की अनुपालना सहर्ष करनी पड़ती है।

हां!वर्षों तक पति के अंकुश व उसके न खुश रहने के पश्चात् उसके हृदय का आक्रोश फूट निकलता है और वह प्रतिकार व प्रतिशोध की राह पर पर चल पड़ती है। उसने लड़कों की भांति जींस कल्चर को अपना कर, क्लबों में नाचना गाना, हेलो हाय करना, सिगरेट व मदिरापान करना, ससुराल-जनों को अकारण जेल के पीछे पहुंचाना, उसके शौक बन कर रह गए हैं। विवाह के बंधनों को नकार, वह लिव-इन की राह पर चल पड़ी है, जिसके भयंकर परिणाम उसे आजीवन झेलने पड़ते हैं।

‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा।’ यह पंक्तियां समसामयिक व सामाजिक हैं, जो कल भी सार्थक थीं,आज भी हैं और कल भी रहेंगी। परंतु नारी को पूर्ण समर्पण करना होगा, प्रतिपक्ष की बातों को हंसते-हंसते स्वीकारना होगा…यही ज़िन्दगी की शर्त है। वैसे भी अक्सर महिलाएं,बच्चों की खुशी व परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं… अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं। अपनी अस्मिता व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर, शतरंज का मोहरा बन जाती हैं। कई बार अपने परिवार की खुशियों व सलामती के लिए अपनी अस्मत का सौदा तक करने को विवश हो जाती हैं, ताकि उनके परिवार पर कोई आंच ना आ पाए। इतना ही नहीं, वे  बंधुआ मज़दूर तक बनना स्वीकार लेती हैं, परंतु उफ़् तक नहीं करतीं। आजकल अपहरण व दुष्कर्म के किस्से आम हो गए हैं…दोष चाहे किसी का हो, अपराधिनी तो वह ही कहलाती है।

‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है

इच्छा क्यों पूरी हो मन की

एक दूसरे से मिल ना सके

यह विडंबना है जीवन की।’

कामायनी की अंतिम पंक्तियां मन की इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के समन्वय को दर्शाती हैं। इनका विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होना, जीवन की विडम्बना है… दु:ख व अशांति का कारण है। सो! समन्वय व सामंजस्यता से समरसता आती है, जो अलौकिक आनंद-प्रदाता है।इसके लिए निजी स्वार्थों के त्याग करने की दरक़ार है, इसके द्वारा ही हम परहितार्थ हंसते-हंसते समझौता करने की स्थिति में होंगे और पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द बना रहेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – एक दिन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  एक दिन

 

एक दिन मेरे पास चार-छह एकड़ में फैला बंगला होगा….एक दिन मेरे पास दुनिया की सबसे महंगी कार होगी….एक दिन मेरे पास अपना चार्टर्ड प्लेन होगा….एक दिन मेरे पास ये होगा….एक दिन मेरे पास वो होगा….।

आकांक्षा को कर्म का साथ नहीं मिला। दिन आते रहे, दिन जाते रहे। उस एक दिन की प्रतीक्षा में हर दिन यों ही बीतता रहा। एकाएक एक दिन, सचमुच वो एक दिन आ गया।

उस दिन वह मर गया।

आज का दिन कर्मठ हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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