हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # तीन ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # तीन ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

07.11.2019 की सुबह एक गिलास दूध पीकर गांव का भ्रमण करते हुए पुनः नर्मदा के तीरे तीरे चलने को निकले। स्कूल के पास कुछ बच्चे खेल रहे थे, उन्हें बुलाकर परिसर में फैली पालीथिन की थैलियों को एकत्रित कर आग लगा दी, यह हमारा नर्मदा तट पर प्रथम प्रतीकात्मक सफाई अभियान था। आगे बढ़े तो ज्योति बर्मन नामक बालिका धूप में बैठ पढ़ रही थी, उसे पढ़ने लिखने हेतु प्रोत्साहित किया और बैग से गांधीजी की पुस्तक ‘राम नाम’  भेंट की।

आगे चले तो एक युवा अपनी मां के साथ खेत में बखर चला रहा था। मुंशीलाल पाटकार भी स्वंय  बखर चलाने आगे बढ़े पर दो पल में ही वापिस आकर सुस्ताने लगे। सच खेती-बाड़ी बहुत मेहनत मांगती है और हम शहरी बाबूओं के बस का यह रोग नहीं है। हम आराम कर ही रहे थे कि बाकी सदस्य भी आ पहुंचे। जोशी जी ने अपने थैले से सेव फल निकाले पर उसे काटने चाकू हमारे पास नहीं था और हंसिया किसान के पास भी न था। उसकी मां ने झट से आदेश दिया कि बखर चलाने में प्रयुक्त पेरनी धो लें और फिर उससे सेव काट लो। आज्ञाकारी पुत्र ने ऐसा ही किया, हम सबने मीठे सेव का आनंद लिया।

चलते-चलते कोई बारह बजे हम सिद्ध घाट पहुंचे। भारी भीड़ एकत्रित थी। पता चला कि सिंचाई हेतु अवैध विद्युत कनेक्शन ने  एक युवक की जान ले ली, युवक पास के ही गांव का था और सभी लोग उसकी खारी बहाने तट पर आये थे। दुखी मन के साथ हम सबने नर्मदा स्नान किया और फिर थोड़ा स्वल्पाहार बची हुई पूरी सब्जी खा कर आगे चल दिये।

रास्ते में मछली पकड़ते दो बर्मन युवक दिखे। ठेकेदार को मछली बेचते हैं, बदले में एक सौ पचास रुपए प्रति किलो की दर से भुगतान और अंग्रेजी विहस्की शराब अलग से मिलती है। अब हम समझे कि नर्मदा के किनारे जगह जगह जो शराब की बोतलें बिखरी हुई थी, उसका राज क्या है।

खेतों की मेड़ पर चलते हुए, लगभग दस किलोमीटर की यात्रा कर, शाम पांच बजे छोटी गंगई पहुंचे। यहां बाबा धुरंधर दास के आश्रम में जगह मिल गई। बाबा के सेवक कड़क मिजाज थे। उनकी बातें सुनकर अग्रवालजी क्रोधित हो गए और फिर आगे की यात्रा में हम सब उन्हें बारात के फूफा संबोधित करते रहे। गौड़ ठाकुरों की बस्ती में कोई खाना बनाने वाला न मिला। बड़ी मुश्किल से एक किसान से आलू, टमाटर व भटे खरीद वापस आश्रम आये तो बाबा धुरंधर दास ने हमें अपने हाथ से चाय पिलाई और भोजन बनाने की चिंता न करने को कहा।  रात में जब हम भोजन करने बैठे तो पता चला सब्जी तो बाबा ने खुद बनाई थी और रोटियां दो अन्य परिक्रमा वासियों की मदद से बाबा के सेवक ने। बाबा धुरंधर दास बड़े दंबग स्वभाव के हैं, चालीस वर्षों से इसी आश्रम में हैं और गौड़ आदिवासियों के बीच लोकप्रिय हैं। दिन भर गांजा और चाय पीना भोजन में एकाध रोटी खाना और रामकथा को सीडी के जरिए सुनना उनकी दिनचर्या है। उनकी जटायें काफी लंबी हैं। पांच फुट के शरीर के बाद कोई दो तीन फुट तो जमीन में पड़ी रहती हैं। एक बार अवैध गांजा की खेती के आरोप में पुलिस पकड़ कर ले गई थी बाद में छोड़ दिया। बाबा ने न केवल ग्रामीणों को गांजे की लत लगा दी है वरन् आश्रम के कुत्ते भी गांजे की पत्तियां चबाते रहते हैं या उसके पकौड़े खाते हैं।

रात में विश्राम करने जा ही रहे थे कि कुछ ग्रामीण आ गये। नब्बे वर्षीय नर्मदा प्रसाद गौड़ ने अंग्रेजों का शासन देखा है। वे कहते हैं कि पुराने समय में भोजन पानी शुद्ध था। अब तो रासायनिक खाद ने अन्न को जहरीला बना दिया है। उनकी तीन संतान हैं, वे कहते हैं कि पहले लोग संयम से रहते थे। गांधीजी का नाम सुनते ही उनकी आंखों में चमक आ गई, कहने लगे फोटो में देखा है। जिंदगी भर कांग्रेस को वोट दिया है।

सांझ ढले दो और परिक्रमावासी आश्रम में आ गये। दोनों ममरे- फुफेरे भाई हैं। एक का नाम टीका राम गौंड है। वे दूसरी बार परिक्रमा कर रहे हैं। पिछली परिक्रमा में आंवलीघाट के पास कुछ त्रुटियां हो गई सो इस बार उसका प्रायश्चित है। दोनों वक्त नर्मदा का भजन पूजन और एक वक्त भोजन यही दिन उनकी दिनचर्या है। भिक्षाटन कर जो कुछ मिल जाता है वहीं उनका भोजन है और शेष बचा आटा आदि वे जहां ठहरते हैं वहीं दान कर देते हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ जिसकी लाठी उसकी भैंस ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत जी का पुनः  ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही आप साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, माहिया, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं।

आपका  साहित्य जमीन से जुड़ा है। इस परिपेक्ष्य में  ई-अभिव्यक्ति में  ससम्मान आपकी रचनाएँ  ‘भूमि’ उपनाम से  प्रकाशित की जा रही हैं।

ब  हमारे प्रबुद्ध पाठक प्रत्येक बुधवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य”  शीर्षक से  श्रीमती कृष्णा जी का साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । आज प्रस्तुत है इस  कड़ी में आपकी एक लघुकथा “जिसकी लाठी उसकी भैंस”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य ☆

☆ लघुकथा – जिसकी लाठी उसकी भैंस ☆ 

 

“चमकूँ कल दस बोरे धान रखने की बात करी थी क्यों नहीं लाया रे..”

“मालिक बच्चे भूख से परेशान हैं उनका पेट भरने का इन्तजाम कर लूँ ….मालिक…. फिर धान लाता हूँ.”

जमींदार की जमींदारी कोई पचास बरसों से फल फूल रही थी…

चमकूँ किसी से कैसे कहे कि मालिक जो कर रहे हैं सरासर गलत है बच्चों  के पेट पर लात मार कर इनका पूरा कर रहा हूँ. पर गरीबी. मजबूरी उसके पैरो को बाँधे खड़ी है.

अनाज का तीन हिस्सा उसने आत्मा पर चोट सहते हुए. कराहकर  बैलगाड़ी पर लादा और दुखी मन से बखरी की ओर चल पड़ा ..

दरवाजे पर पहुंचे इससे पहले उसके कानों में मानो किसी ने लावा उड़ेल दिया..जमींदार जोर जोर से दहाड़ रहे थे.  “मुन्शी जा तो जाकर चमकूँ के घर से आनाज भर भर कर उठा ला. कोई बीच में बोले तो छोड़ना मत अगर चमकूँ हो तो भी..छोड़ना मत किसी को भी.”

बाहर चमकूँ के हाथ पाँव डर के मारे फूल रहे थे. उसने बाहर से ही कहा….”मालिक आप काहे तकलीफ करते हैं मै तो खूद ही ले आया….”

चमकूँ अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा था …और उसके मुंह से निकला – “चल चमकूँ आज जिसकी लाठी उसी की भैंस का रिवाज है जाने कब तक चलेगा.”

और वह धान के तीन हिस्से मालगुजार को सौंप आया.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। इस प्रश्न का उत्तर महात्मा गांधी देते हुए हिन्द स्वराज में लिखते हैं कि हिन्दू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।

लेकिन क्या तमाम हिन्दू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर मालुम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीवों को तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करने से मालुम होता है कि बहुत से हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ कहना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है जब ऐसी हालत है तो मुसलमान हिंसक और हिन्दू अहिंसक है इसलिये दोनों की नहीं बनेगी यह सोचना बिलकुल गलत है।

ऐसे विचार स्वार्थी धर्म शिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए हैं और इसमें जो कमी रह गई थी उसे अंग्रेजों ने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखने की आदत है; हरेक जाति के रीति रिवाज जानने का वे दम्भ करते हैं। ईश्वर ने हमारा मन तो छोटा बनाया है फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आये हैं और तरह तरह के प्रयोग करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मन में अपनी बात सही होने का विश्वास जमाते हैं। हम भोलेपन में उस सबपर भरोसा कर लेते हैं।

जो टेढा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरआन शरीफ में ऐसे सैकड़ो वचन हैं, जो हिन्दुओं को मान्य हों;भगवद्गीता में ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ मुसलमान को कोई भी ऐतराज नहीं हो सकता। कुरआन शरीफ का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आये, इस वजह से क्या मैं उसे माननेवाले से नफरत करूँ? झगडा दो से ही हो सकता है। मुझे झगडा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? हवा में हाथ उठानेवाले का हाथ उखड जाता है। सब अपने-अपने धर्म का स्वरुप समझकर उससे चिपके रहें और  शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगडे का मुह हमेशा के लिए काला ही रहेगा।

मेरी टिप्पणी :-  महात्मा जी की हिंसा को लेकर कही गई उपरोक्त बातें आज भी कितनी सार्थक है।  अभी जब आये दिन माब लीचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं, प्रेमी युगलों की आनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, स्त्रियों पर बलातकार हो रहे हैं,  तब अँधेरे में रोशनी की किरण के रूप में गांधीजी द्वारा १९०९ में लन्दन से वापिस दक्षिण अफ्रीका जाते हुए जहाज में लिखी गई यह पुस्तक है। गांधीजी द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म की बात करते हैं वे हिंसा की जगह आत्मबलिदान को प्रमुखता देते हैं। अहिंसा को लेकर वे दुराग्रही भी नहीं है। हमारे देश में अहिंसा का सर्वाधिक दृढ़ स्वरुप जैन धर्म में दिखाई देता है।गांधीजी की अहिंसा वैसी न थी।बालिका इंदिरा ने एक बार उनसे पूंछा के क्या मैं अंडे खा सकती हूँ गांधीजी ने जबाब दिया हाँ अगर तुम्हारे घर में लोग खाते हैं तो तुम भी खा सकती हो। जीव ह्त्या को लेकर वे हिन्दुओं पर जितने सख्त थे व बलि प्रथा का जितना विरोध वे करते थे उतना उन्होंने शायद मुसलामानों में कुर्बानी प्रथा का नहीं किया। शायद वे मानते होंगे कि पहले हिन्दुओं में सुधार हो फिर मुसलमान सुधर जायेंगे। वे धार्मिक कट्टरता और वैर भाव जगाने का  दोषी शास्त्री और मौलवी को मानते हैं, आज के परिप्रेक्ष्य में उनकी यह बात कितनी सही है हम सब महसूस करते हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा )

 

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌।।24।।

 

मुझ अविनाशी श्रेष्ठ का जिन्हें नहीं कुछ ज्ञान

उन्हीं मूढ की समझ में मेरी नहिं पहचान।।24।।

भावार्थ :  बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।।24।।

 

The foolish think of me, the unmanifest, as having manifestation, knowing not My higher, immutable and most excellent nature.।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी ☆ कालजयी वैज्ञानिक फंतासी ☆ शेष विहार ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की कालजयी वैज्ञानिक फंतासी  “शेष विहार ”.

आदरणीय डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी (पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार) के शब्दों में “बुलंद शहर (उ.प्र.) की निवासी निर्देश निधि द्वारा लिखित “शेष विहार” पढ़कर मैं न केवल भयाक्रांत हो गया था, बल्कि विचलित भी हो गया था और मैं चाहता था कि इस कहानी को विश्व-भर के पाठक पढ़ें और समय रहते ऐसे उपाय करें जिससे हम अपने इस प्यारे भूमंडल को आसन्न भयानक विभीषिका से बचा सकें.”

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने इस कालजयी रचना के अंग्रेजी अनुवाद को उपलब्ध कराने के आग्रह को स्वीकार किया है जिसे हम शीघ्र अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।)

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  दो कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद

☆   शेष विहार ☆

मैं समय हूँ । मौन रहकर युगों को आते जाते देखना मेरे लिए एक सामान्य प्रक्रिया है अपनी अनुभवी आँखों से मैं  सिर्फ देख सकता हूँ । अच्छे बुरे किसी भी परिवर्तन को रोक पाना  मेरे लिए संभव नहीं था । मैं अक्सर किसी एक कहानी, जो सबसे अलग सी होती है को उठाता हूँ और आप सबके समक्ष रखता हूँ । आज मैं इस युग की एक माँ और उसके आठ वर्षीय बेटे की कहानी सुनाने जा रहा हूँ । यह कहानी भारत नाम के देश से ली है । अभी जो मैं देख रहा हूँ वह सुनाता हूँ जस का तस,

“वैन, सूरज डूबने वाला है, उठो और तैयार हो जाओ आज “शेष विहार” देखने जाना है न । जल्दी करो जिससे कि हम सूरज उगने से पहले – पहले ही सुरक्षित  वापस आ सकें । “

वैन फ्रैश रूम में गया और अपनी पसंद की ड्रेस, परफ्यूम, जूते वगैहरा कम्प्युटर में फीड किए । कम्प्युटर ने उसे पाँच मिनिट के अंदर – अंदर ऐन्टी वायरल, ऐन्टी बैक्टीरियल एयर से ड्राइक्लीन करके फीड किए हुए कपड़े, जूते वगैहरा पहनाकर पूरी तरह तैयार कर दिया ।

आठ वर्षीय वैन ही पूरे शहर में एक बच्चा है जिसने अपनी माँ की कोख से जन्म लिया है, और अब भी माँ के साथ रहता है । पिता का तो उसे पता नहीं क्योंकि उसकी माँ ने गर्भधारण के लिये राजकीय स्पर्म लैब का ही सहारा लिया था । माँ की कोख से जन्म लेने और माँ के साथ एक ही सैल में रहने  के कारण, अनुभव बांटने के लिए आए दिन, मीडिया और अनेक संस्थाओं के लोग उन दोनों माँ – बेटा का इंटरव्यू लेने आते रहते हैं । उन पर अनेक रिसर्च हो  रही हैं ।  क्यों कि इस  युग की स्त्री अपनी कोख से शिशु को जन्म देने की योग्यता खो चुकी है अगर कोई इक्का – दुक्का स्त्री योग्य हो भी तो वह गर्भधारण कर शिशु को जन्म देने का कष्ट लेने को तैयार नहीं होती ।  पिछली कई सदियों से भ्रूड़ हत्याएँ इतनी अधिक होती आ रही हैं कि प्रकृति ने स्त्री से संतति निर्माण की असाधारण योग्यता लगभग छीन ही ली है। पुरुषों में  भी कोई इक्का – दुक्का ही बचे हैं जो संतति निर्माण की प्रक्रिया सतत रख पाने में समर्थ  हैं । सभी बच्चे वैज्ञानिकों की देख – रेख में लैब से ही जीवन का प्रारम्भिक रूप पाते हैं । सरकारी संस्थाएं स्त्रियों की गर्भधारण क्षमता का टेस्ट कराती हैं । जिससे कि प्रकृति के नियम को फिर से जीवित किया जा सके ।  वैन की माँ को सरकार ने इस योग्य पाया था , अतः उसे तमाम सुविधाएँ और लाभ देने के नाम पर गर्भधारण के लिए  राजी कर लिया गया था । माँ ने भी यह सोचा था कि जिस शिशु को वह कोख से जन्म देगी वह उससे पुराने समय के पुत्रों की तरह थोड़ा बहुत प्रेम तो करेगा ही । और सरकारी लाभ मिलेंगे सो अलग , खैर …..

वैन खुद भी बड़ी हैरानी के साथ अपनी माँ से पूछता है, “माँ आपने सचमुच मुझे अपने पेट से पैदा किया है ? अमेजिंग मोम, यू आर रिएलि अमेजिंग । मेरी क्लास के सभी लड़के  लैब में ही बढ़े, और वहीं पैदा भी हुए । उनकी माएँ या  पिता भी अगर इच्छा होती तो एक विशिष्ट जार में पल रहे अपने अजन्में बच्चों को देखकर आ जाते थे  बस । काफी सुरक्षित  रहा होगा इस तरह उनके बच्चों का पलना । फिर वो वहीं से शिशु पालन गृह  चले गए,  वहीं से पढ़ने के लिए छात्रावास चले गए । कभी – कभार  ही मिले होंगे अपने बायोलोजिकल पेरेंट्स से तो, किसके पास इतना समय है माँ कि बस बच्चों से ही मिलता फिरे या बच्चों के पास भी क्या बस यही एक काम रह गया है ? “

“हाँ वैन अब तो यही होता है, पर तुम्हें मैंने वाकई अपने गर्भ में पाला है पूरे नौ महीने।“  माँ ने उत्तर दिया ।

“पर माँ आपने तो बहुत ही रिस्क लिया ।  मुझे सिर्फ इमेजिंग डिवाइस की आधुनिक तकनीक से ही देख पाई अपने पेट के अंदर, क्यों लिया आपने इतना रिस्क ? आपने तो मेरे जीवन को भयानक खतरे में ही डाल दिया था माँ ।“

“नहीं वैन ऐसा नहीं है, आदमी की देखभाल आदमी से बेहतर ही कर पाती है माँ प्रकृति परंतु हमारे पूर्वजों ने उसपर विश्वास करना छोड़ दिया था न । सो अपना तिरस्कार देख कर उसने भी  अपने हाथ खींच लिए  । उसकी हानि उठाई हमारी पीढ़ियों ने ।“

“हानि कैसे माँ ?”

“देखो जैसे अब हमें दिन की जगह रात में ही सारे काम करने पड़ते  हैं । दिन भर सूरज की ऊर्जा एकत्रित करके रात को दिन बनाने की मजबूरी है हमारी परंतु  पहले सारे  काम दिन में  सूरज के प्रकाश में ही हुआ करते थे । हमारे पूर्वजों ने धरती पर लहराते सारे जंगल काट डाले और वहाँ आधुनिक बाज़ार – हाट, आधुनिक साज – सज्जा गृह, सड़कें रास्ते , बड़ी – बड़ी फैक्ट्रियाँ, होटल, आधुनिक निवास, स्मार्ट  शहर , जिससे जंगल तो गए ही खेती – बाड़ी की ज़मीन भी गई । हमारे पूर्वजों ने धरती के प्राकृतिक  साधनों का हद से ज़्यादा दोहन कर डाला ।“

“हाँ माँ, मैंने कहीं पढ़ा भी था कि प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती थी पर उसका लालच वह पूरा नहीं कर सकी । “

“हाँ वैन, तुमने ठीक पढ़ा था । पुराने समय में आज की तरह सूर्य की ऊर्जा का प्रयोग नहीं किया जाता था वाहनों में बल्कि उन्हें चलाने के लिए पेट्रोल – डीज़ल नाम के तरल ईंधन होते थे जो जलने पर बहुत प्रदूषण फैलाते थे और भी रोज़मर्रा प्रयोग होने वाले  तमाम रसायनों के प्रयोगों ने वातावरण को बुरी तरह विषाक्त बना डाला । जीवन रक्षक प्राण वायु मरती चली गई । रही – सही कसर उस समय के शक्तिशाली कहे जाने वाले राष्ट्राध्यक्षों की महत्वाकांक्षाओं ने पूरी कर दी । यानि उन्होने विश्व को चार – चार महायुद्धों की त्रासदी मे धकेल दिया । रासायनिक, जैविक आदि अनेक प्रकार के घातक हथियारों ने चहकते जीवन को शमशान की वीरानी में धकेल दिया । धन – जन और वातावरण की  अपूरणीय क्षति हुई । तमाम आयुधों के प्रयोग से उपजे  धुएं  के जहरीले  गुबारों ने धरती के रक्षात्मक कवच यानी  ओज़ोन लेयर को हमेशा के लिए जला डाला । जो हमें  सूरज की हानिकारक किरणों से बचाती थी । “

“और भी बताओ न माँ क्या – क्या हुआ। “

“ और क्या बताऊँ , धरती पशु – पक्षियों से खाली हो गई । उसकी महत्वपूर्ण फूडचेन टूट गई जिन जीवों  को तुम अब सिर्फ व्यूइंग डिवाइस पर देखते हो न वो सबके सब इसी धरती पर विचरण करते थे वैन । इन्सानों  की जनसंख्या भी बहुत अधिक थी, इतनी अधिक कि कई देशों  की सरकारें अधिक बच्चे  पैदा करने वाले लोगों की कई सुविधाएं कम कर देती थीं, कम बच्चों वालों के लिए कई सुविधाओं से लैस स्कीम चलाती थीं । अब उसका उल्टा होता है वैन । अब  बच्चे पैदा करने के बदले में सुविधाएं देती हैं सरकारें। क्यों कि इतनी विशाल धरती पर मात्र दो चार ही देशों का अस्तित्व शेष रहा है जिनमें से एक हमारा भारत है । ।“

“वैन उस दिन तुमने अपनी क्लासमेट अरुणिमा का हाथ देखा था न, सूरज की किरणों  ने किस तरह जला दिया था । अब उसे “डी एस डी” यानि “डिजीज ऑफ स्योर डैथ” होना लाज़मी है । वो मानती ही नहीं है, उसे हर रोज़ दिन में जागने की पड़ी रहती है । उसे उसकी वार्डेन ने कितनी बार मना किया था दिन में जागने से “

“माँ, जन्म के समय डॉक्टर ने उसे नैनोवाट्स नहीं दिये थे ?”

“दिए होंगे वैन , पर वो छोटी – मोटी बीमारियाँ या किसी छोटी – मोटी  चोट के घाव ही भर सकते हैं ना औटोमैटिकली, वो इंसान को सूरज की हानिकारक किरणों से तो नहीं ही बचा सकते न  । वैन सिर्फ नैनोवाट्स ही नहीं अब तो जन्म  के समय एक चिप मस्तिष्क में,  एक आई डी चिप , हियरिंग डिवाइस , कॉर्निया प्रोटेक्टिव लैंस , फेंफड़ों और दिल के लिए पंपिंग डिवाइस आदि भी बच्चे को जन्म  के समय ही लगा दी  जाती है । “

“हाँ, हाँ माँ वो तो मुझे भी पता ही है , इसमें तुम क्या नया बता रही हो । यह मुझे पता है कि हर समय मोबाइल फोन पर बातें करते रहने , लाउड म्यूजिक सुनते रहने से औए तरह – तरह की मशीनों की तेज़ आवाज़ें सुनते रहने से इंसान के कान कुदरती तौर पर खराब होने लगे थे । आँखों पर टी वी और कम्प्युटर स्क्रीन आदि के प्रभाव घातक पड़े , धरती के विषाक्त हो गए  वातावरण  ने फेफड़ों को नाकाम करना शुरू कर दिया था , रहन – सहन की दोषपूर्ण शैली ने मनुष्य  के स्वास्थ को लगभग निगल ही लिया था । तीसरे और फिर चौथे विश्वयुद्ध के बाद देखना, सुनना , सोचना, समझना, यानी जीना लगभग असंभव हो गया था, इसीलिए मानव मस्तिष्क में भी चिप लगानी पड़ी । इस चिप में कुछ तो सामान्य ज्ञान की बातें होती हैं जो सभी नागरिकों को आवश्यक रूप से पता होनी ही चाहिए और कुछ विशेष ज्ञान होता है । वह ज्ञान जो उनके कार्यक्षेत्र  निर्धारित करता है । इसी चिप के माध्यम से हम एक दूसरे को अपने संदेश पहुंचा सकते हैं बिना किसी अतिरिक्त प्रयास और बिना किसी अतिरिक्त डिवाइस के, और इसी चिप के माध्यम से हम रास्ते खोजने मे सक्षम होते हैं ।  जिनको यह चिप नहीं लगाई जाती  वो लगभग विक्षिप्त बन कर ही जीते हैं ।  ये सब पता है मुझे । “

“हाँ बिलकुल सही कहा वैन । और पता है अंतिम विश्वयुद्ध के बाद कौन बच पाये ? सिर्फ वो वैज्ञानिक जो अंडर ग्राउंड बंकरों के क्रत्रिम वातावरण में बरसों छिपे पड़े रहे जिनकी बॉडी ने इस घातक जीवन शैली को अडोप्ट कर लिया और खुद को सूरज की जानलेवा किरणों से बचाकर रखा । उन्होने ही  धरती पर मानवी  हृदय के स्पंदन का स्वर सतत रखा वैन । अब पृथ्वी पर  जितनी भी जनसंख्या है सिर्फ उन चंद वैज्ञानिकों की ही सन्तानें हैं ।  विश्व युद्धों की वजह से फैले प्रदूषण ने धरती का वातावरण ही नहीं उसके गर्भ में छिपा पानी तक भयानक रूप से विषाक्त कर दिया, पीना तो दूर नहाने के लायक तक नहीं छोड़ा ।“

“माँ, तो क्या पहले युग  में धरती  के पानी से ही नहाया  जा  सकता था ?”

“नहाया ही नहीं वैन धरती  का पानी ही खाने और पीने में भी प्रयोग किया जाता था ।“

“सच माँ !”

“हाँ हाँ बिलकुल सच , अभी जब तुम बड़ी कक्षा में जाओगे न तो तुम्हें ये सब इतिहास और विज्ञान दोनों ही विषयों की कक्षाओं में  पढ़ाया जाएगा । पानी तो तीसरे विश्वयुद्ध के बाद विषाक्त होकर पीने के अयोग्य हुआ । तब तक भी कुछ शुद्धिकरण संयन्त्रों से उसे शुद्ध किया जा सकता था परंतु चौथे महायद्ध ने यह सम्भावना  भी समाप्त कर दी  । कुछ पानी और खाने की सामग्री को बंकरों  में सुरक्षित  रखा गया था आड़े वक्त के लिए ।  बस उसी ने जीवित रखा, बच रहे कुछ विशेष वैज्ञानिकों को ।  तभी तो अब हम प्लैनेट एक्वेरियम से पानी लाते हैं और बहुत कम ला पाने की वजह से उसी को बार – बार रिसाइकिल करके प्रयोग करते रहते हैं । यही कारण है कि अब मात्र  कुछ एम एल  से ही स्पंज बाथ लेना होता है, या फिर इस आर्टिफ़िश्यली ऐन्टीबैक्टीरियल, ऐंटीवायरल की गई एयर से ही ड्राईक्लीन करना पड़ता है खुद को ।“

“तो माँ क्या हमारे सारे पूर्वज मूर्ख थे जो उन्होने इतनी बड़ी – बड़ी भूलें कीं । आपस में लड़ना , पेड़ काटना ,जंगलों का विनाश करना ज़रूरी था क्या ? हमें उन्होने क्या दिया , ये बंद घरों की जेल, जिनमें हमे दिनभर बंद रहना पड़ता है । अगर ये घर भी एयरकंडीशंड सनलाइट प्रूफ, और आक्सीजनफिल्ड न होते या हम न बना पाए होते  ऐसे घर तो  हम भी तो जीवित नहीं रहते । ”

“हाँ वैन यह सच है । पर मनुष्य हारने के लिए नहीं बना इसीलिए हम दूसरे गृह जिनमें पुरानी धरती जैसा ही प्राकृतिक और जीवन का सहयोगी वातवरण है, अपने निवास के लिए खोज पाने में लगभग सफल हो ही चुके हैं । पर हाँ वहाँ जाकर बसने तक का समय मनुष्य जाति के लिए वास्तव में ही बेहद कठिन है । “

“माँ क्या हमारे जीवन में ही हम जा सकेंगे उस नए गृह पर ?”

“मैं अपना तो नहीं कह सकती वैन पर हाँ तुम तो ज़रूर ही जा सकोगे और हाँ वहाँ जाकर भी अकेले मत रहना । अपना परिवार जिसमें एक स्त्री जिसे पत्नी कहा जाता रहा है पुराने समय में , अपने कुछ बच्चे जो तुम्हारी उस पत्नी और तुम्हारे होंगे उन्हें अपने साथ ही रखना । देखो हम कितनी ही पीरिओडिकल  फिल्मों में देखते हैं किस तरह सारा परिवार हंसी – खुशी रहता था खुले मैदानों में खेलते – कूदते हंसी मज़ाक करते कितने प्यारे लगते हैं उस परिवार के सदस्य ।“

“अरे नहीं – नहीं माँ तुम ये हाइपोथेटिकल बातें मत करो, प्रैक्टिकल बातें करो जो संभव हो सकती हों । मैं तो रहूँगा बिलकुल अकेला, आज़ाद सबकी तरह । मैं क्यों फन्सूंगा समस्या  में । “  वैन ने माँ की बात का प्रतिरोध किया ।

“अब बहुत सारी बातें हो गईं वैन और सूरज भी लगभग डूब ही चुका है । अपना जीवन रक्षक सूट पहन लो अपना फ्लाइंग कैपस्यूल चैक करो और उसकी फ्युल चिप ,ऑक्सीज़न  वगैहरा – वगैहरा चैक करो, अपनी डायट टैबलेट और ऐच2 ओ वाली टैबलेट्स का जार रखना मत भूल जाना । मैंने अपने ये सभी काम कर लिए हैं , मैं पूरी त्तरह तैयार हूँ। “

“माँ मैंने भी ये सब काम कर लिए हैं वो  भी तुमसे पहले , बस लाइफ सेवरसूट पहन लेता हूँ । पर माँ मैं बार – बार यही सोचता हूँ कि तुम सबसे अलग हो  ।  मेरे लिए तुमने  अपनी प्राइवेसी सैक्रिफ़ाइस की । “

पर वैन नहीं जानता कि माँ ने तो सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं और उसके बार – बार पड़ने वाले दबावों के कारण गर्भधारण  किया था । पूरे शहर में एक उसी का टेस्ट आया था गर्भधारण के लिए पोज़िटिव ।  पर उसे जन्म देने और साथ आ जाने पर उसे वैन का साथ बहुत अच्छा लगा था । हलाकि कभी – कभी उसे अपनी प्राइवेसी खत्म होती ज़रूर ही लगी थी और काम का कुछ अतिरिक्त अनचाहा भार भी । किसी भी सदी की सही पर थी तो वह माँ ही न, इसीलिए बेटे का सानिध्य उसे भला लगा था ।

“हाँ वैन यह तो मैंने किया पर मुझे अच्छा लगा तुम्हें साथ रखना शायद इसीलिए मैं यह कर पाई । पर जैसा कि मैंने तुम्हें पहले भी कभी बताया था कि पहले पूरा परिवार साथ – साथ ही रहता था ।“

“माँ परिवार क्या ? उसके सही मायने बताओ  ।”

“परिवार मतलब, माँ, पिता यानि जिस स्त्री और जिस पुरुष के संयोग से बच्चे का जन्म होता है , वो बच्चे के माँ – पिता होते हैं । बहन – भाई जो उन्हीं माँ पिता से दूसरे बच्चे होते हैं । माँ पिता के माँ पिता और  उनके दूसरे बच्चे आदि इसी  तरह करीबी लोगों से मिलकर बनता था  परिवार । “

“माँ पहले बताओ मेरा पिता कौन है ?”

“वैन मैं तुम्हारे पिता को नहीं जानती क्योंकि तुम्हें मैंने अपनी कोख से जन्म तो ज़रूर दिया लेकिन उसके लिए मैंने राजकीय स्पर्म लैब का ही सहारा लिया ।”

“ओह माँ ! काश कि तुम्हें पता होता तो मैं भी फिल्मों की तरह अपने पिता के साथ घूमता, खेलता ।“

“और हाँ सुनो, एक मज़े की बात यह कि उस पुराने समय में डोमेस्टिक हेल्प भी साथ ही घर में रह जाती और पशुओं के लिए भी घर के पास ही एक अलग से जगह होती थी । और कई  पक्षी भी अपने घोंसले इन्सानों के  घरों में बनाए रखते थे। “

“ओह माँ , कितनी अन्हाइजेनिक होती होंगी उस समय घर की कंडीशन ।“

“वह समय आज के जैसा नहीं था वैन , इन्फैक्शन इतनी आसानी से नहीं लगता था , मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता काफी अच्छी थी।“

“माँ जब इंसान बच पाया तो पशु – पक्षी क्यों नहीं बचे ?”

“देखो वैन इंसान काफी कुछ स्वार्थी तो था ही शुरू से , जितनी सुरक्षा वह अपनी रख पाया उतनी पशु पक्षियों  की नहीं, फिर विश्व युद्धों के बाद इतने स्थान सुरक्षित  बचे ही नहीं थे कि उनमें पशु पक्षियों  को भी रखा जा सकता अतः इंसान ने खुद को बचाना  ज़रूरी समझा । “

“अब पशु पक्षी तो क्या  स्त्री – पुरुष भी साथ नहीं रहते क्यों कि कोई भी किसी को एक पल भी सहन नहीं कर पाता । कोई दूसरे की वजह से अपनी पल भर की स्वतन्त्रता भी नहीं गंवाना चाहता ।  पता है वैन इस समय आदमी कम और मेंटल हास्पिटल ज़्यादा क्यों हैं, अब क्योंकि पुराने जमाने में लोग आपस में मिलकर, हंस – बोलकर खुद को तनाव रहित कर लेते थे।“

“माँ, तो क्या लोगों के पास हंसने – बोलने का फालतू समय था ?”

“हाँ वैन बिलकुल था ।  विचित्र  विरोधाभास हुआ है । आधुनिक मशीनों के माध्यम से घंटों के काम मिनटों में हो जाते हैं लेकिन समय कम पड़ गया है आदमी के पास । “

“धरती पर अनगिनत अनाज पैदा  होते थे लोग दिन में कई कई बार खाना खाते थे अब की तरह टैबलेट्स पर नहीं जीते थे बाकायदा स्वादग्रन्थियाँ होती थीं । आदमी ने शरीर को ताकत देने के लिए गोलियों का प्रयोग आरंभ किया और धीरे – धीरे उसे इतना बढ़ाया कि स्वादग्रन्थियाँ मरती  ही चली गईं । तुमने देखा न अपनी व्यूइंग डिवाइस पर तरह – तरह के  अनाज, तरह – तरह के खाने और मिठाइयां ।“

“माँ तो क्या धरती की  उर्वरा शक्ति आउटडेटेड हो गई थी ?”

“नहीं वैन वह तो अनंत काल तक वैसी ही बनी रह सकती थी जैसी थी परंतु वह आदमी की जरूरतें तो पूरी कर सकती थी लालच नहीं, जैसा कि तुम जानते ही हो  । इसकी संपदाओं का  हमारे पूर्वजों ने इस कदर शोषण किया कि हमें इन ऐयरकंडीशंड वाहनों और घरों का बंदी बना डाला । “

“चलो वैन बाकी बातें बाद में करते हैं ,  सूरज को डूबे लगभग पंद्रह मिनिट हो गए । तुम चैक कर लो कि तुमने अपने फ्लाइंग कैप्स्यूल में डेस्टिनेशन ठीक से भरा है या नहीं , कभी कहीं भटक जाओ । “

“नहीं माँ मैंने ठीक से फीड कर लिया है ।इस तरह की गलती अब ब्रेन में फिट हो जाने वाली ब्रेनी चिप करने ही कहाँ देती है । “

साँझ होते ही आसमान में लोगों के वाहन दिखाई देने आरंभ हो गए । वो दोनों निकलने ही वाले थे कि माँ का कोई परिचित उनके सैल यानि घर के पास से गुज़रा तो उसने देखा कि उनके सेल की इंसुलेशन फिल्म कुछ हट सी गई है । आगामी खतरा देख कर उसने वैन की माँ को आगाह किया । वैन की माँ ने सरकारी कार्यालय का कोड दिमाग में सोचा और कार्यालय को सूचना दी कि उनके सैल की फिल्म ठीक करा दी जाए । कार्यालय ने उसे  आश्वस्त किया कि उनके लौटने तक कार्य हो जाएगा । इस आश्वस्ति के मिलते ही माँ बेटा दोनों ने अपने – अपने लाइफ सेवर सूट ठीक से पहनकर, अपने – अपने ऑक्सीज़न मास्क चैक किए और दोनों ने अपने – अपने फ्लाइंग कैप्सूल में बैठकर फ्रीक्वेन्सी मॉड्युलेशन  के माध्यम से   आपस में बात करते हुए एक हज़ार किलोमीटर का सफर मात्र बारह मिनिट छह सेकेंड  में तय कर लिया ।

“शेष विहार” आ चुका था । भाग्यवश ऐसिड रेन नहीं हो रही थी । दोनों ने अपने – अपने ऑक्सीज़न मास्क पहने और कैप्सूल से बाहर आ गए । काँच के अंदर करीब दस किलोमीटर का प्राचीन धरती का छोटा मॉडल  कृत्रिम रूप से तैयार किया गया था पेड़ – पौधे , घास –  फूस, फूल –  फल, पत्ती, झरने, पहाड़, नदी, हाँ नदी भी धरती के विषाक्त जल वाली नदी, चिड़िया, तितली, शेर, गाय, बैल, मैमथ, डायनासोर,  हाथी, जिराफ,अनगिनत कीड़े मकौड़े और दुनिया भर के मनुष्यों की जातियों प्रजातियों के बैटरियों और रिमोट के माध्यम से चलते – फिरते जीवंत लोग सब कुछ बिलकुल असली जैसे, नयनाभिराम दृश्य ।

“इतनी सुंदर थी धरती ! हमारे मूर्ख पूर्वजों ने क्यों कर दिया इसका सर्वनाश ? क्या छोड़ा हमारे लिए ?” वैन अपनी माँ से यही पूछ रहा था ।

उन दोनों माँ बेटे की तरह वहाँ और भी बहुत से लोग थे । परंतु अब पिछली सदियों की तरह कहीं भी भीड़ नहीं जुटती । बच्चे लैब्स में पैदा होते हैं कुछ ही लोग हैं जो अपने लिए ऑर्डर करके बच्चे तैयार कराते हैं क्योंकि कोई भी बच्चों को समय देना और उनकी जिम्मेदारी  लेना नहीं चाहता । हाँ बच गए देशों की सरकारें ही बस ज़रूरत भर नागरिक पैदा करवाती हैं । जिनका वे ठीक से पालन – पोषण कर पाएँ । इसीलिए शहर के शहर खाली पड़े हैं । लोगों का पालन – पोषण सरकार का जिम्मा है ।  लोग मृत्यु के भय से स्वयं को दिन भर अपने घरों में कैद करके रखते हैं । रात को ही काम किए जा सकते हैं, या घर से बाहर निकल सकते हैं । अधिकांश लोग अपने कार्य क्षेत्र और घरों तक ही सीमित हैं । जिन इमारतों को  आदमी ने कभी भूकंप रोधी समझकर खड़ा किया था धरती की सीज़्मिक प्लेट्स उनमें से हजारों लाखों का मान मर्दन कर चुकी हैं कौन जाने कब बाकियों के साथ भी यही होगा हालाकि अब उन्हें खाली ही रखा गया है प्राचीन धरोहरों की तरह । अब सैल के नाम से पुकारे जाने वाले आधुनिक निवास  तो पूरी तरह से सूरज की रौशनी से रहित हैं । दूर – दूर तक कंक्रीट पसरी हुई है । न घास बची न कोई हरियाली । ऐसिड रेन ने सब कुछ तबाह कर  दिया है ।

देशों के नाम पर संसार भर में अब दो चार ही देशों का अस्तित्व बचा है । यह कहानी भारत नाम के देश से ली है जैसा कि मैं पहले भी बता ही चुका हूँ । इस सदी में अगर कुछ सकारात्मक बचा है तो वो है युद्धों का न होना । क्योंकि अब अपने आप को धरती पर जीवित रखने के लिए जो लड़ाई मनुष्य  को प्रकृति से लड़नी पड़ती है उसके बाद आपस में लड़ने की ऊर्जा बचती  ही कहाँ है ? धरती अपने ऊपर हुए अत्याचार का प्रतिशोध लेने पर उतर आई है । वैन और उसकी माँ दोनों ने जी भर कर शेष विहार देखा । हरियाली धरती का अप्रतिम रूप उनके मन पर सारी धरती के ऐसा न होने के गहरे दुख के साथ छप सा गया । वे अपने –  अपने कैप्सूल में वापस घर के लिए चल पड़े । अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि वैन की माँ को सांस लेने में दिक्कत होने लगी । शायद उसके कैप्सूल से ऑक्सीज़न लीक कर रही थी,सामान्यतः  जिसकी आशंका न के बराबर होती, परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट रही थी   । उसने बेटे से कहा,

“वैन शायद मेरे फ्लाइंग कैप्सूल से ऑक्सीज़न लीक कर रही है, वैन सुनो । क्या करूँ ? “अब क्या हो सकता है यह तो चलते वक्त ही चैक करना चाहिए था आपको । फिर भी मैं ऑक्सीज़न सप्लायर कंपनी को सूचित कर देता हूँ ।वो स्वयं आपके कैप्स्यूल की लोकेशन देख कर आपकी मदद करेगी । तब तक आप अपना ऑक्सीज़न मास्क पहन लो ।“ बेटे ने उत्तर दिया ।

“हाँ, पहन तो लिया पर शायद यह भी ठीक से भरा नहीं है । “ माँ ने उखड़ती सांस के साथ उत्तर दिया ।

“वैन जल्दी कुछ करो मेरा दम घुट रहा है । “ माँ ने बेचैन होकर बेटे को पुकारा  ।

“माँ मैं और क्या करूँ , कर ही क्या सकता हूँ मैं ? “

“वैन हम दोनों एक ही कैप्सूल में जा सकते हैं तुम मुझे भी अपने साथ ले लो । “ माँ ने बेचैन होकर बेटे से याचना की ।

“नहीं माँ,क्या आप नहीं जानतीं कि ये कैपस्यूल  मेरे वजन के हिसाब से ही डिजाईंड है । “

“हाँ जानती हूँ पर …..” अगले शब्द उसके साँसों की तेज़ धौंकनी में खो गए।

“जानती हैं तो यह भी जानती होंगी कि कैपेसिटी  से अधिक वजन लेकर उड़ने पर इसमें भी कोई न कोई  तकनीकी खराबी आ ही सकती है । इसकी भी ऑक्सीज़न ही लीक हो गई तो मास्क कितनी देर साथ दे पाएगा माँ ? नहीं माँ मैं अपने जीवन का रिस्क नहीं ले सकता । मैंने कंपनी को सूचित कर  दिया है वो कुछ न कुछ ज़रूर करेंगे । उनकी जिम्मेदारी है माँ ।  “

“क्या तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है वैन ?” खाँसते, दम घुटे हुए, माँ ने बेचैन  होकर बेटे से शिकायत की ।

“प्रैक्टिकल बनो माँ, मैं यहाँ खड़े रहकर भी  क्या कर सकूँगा , अपना भी जीवन खो देने के सिवा । “

“वैन मत जाओ मैं मर रही हूँ । “

मैं पिछले दस मिनिट से यहीं खड़ा हूँ आपकी वजह से , अब और नहीं रुक सकता, सॉरी माँ । “

और वो चला गया कैप्स्यूल कंपनी से अभी तक कोई मदद नहीं आ सकी है माँ की सांसें धीरे – धीरे बंद होने को हैं पीड़ा असह्य है मृत्यु उसे अपने सामने मुंह बाए खड़ी दिख रही है । अगर वो कैप्स्यूल से बाहर आती है तो धरती का वर्तमान  विषाक्त वातावरण उसे रिसती हुई ऑक्सीज़न वाले कैप्स्यूल से भी जल्दी मार डालेगा । ऊपर से ऐसिड रेन और आरंभ हो गई है । उस का मरना अब तो तय है । जिस समाज और समय में कोई अपना एक पल भी किसी को देना नहीं चाहता, कोई स्त्री किसी बच्चे को अपनी कोख से जन्म देने की कल्पना तक नहीं कर सकती उस समाज और समय में रहकर उसने एक बच्चे को , यानि वैन को अपनी कोख से जन्म दिया । यह सोचकर कि वह इस समाज के दूसरे अलग – थलग रहने वाले बच्चों से कुछ अलग बनेगा और उसमें कुछ संवेदना जीवित रहेगी और वह माँ जैसे रिश्ते की गंभीरता अधिक न सही थोड़ी सी तो ज़रूर समझेगा । लेकिन नहीं उसका  यह अनुमान  गलत निकला था । सच्चाई यही थी कि दूसरे लोगों की तरह ही उसमें भी कोई भावुकता कोई संवेदना पैदा नहीं हो सकी थी । जन्मते समय दूसरी चीजों के साथ ही चिप में प्रेम करुणा  सहानुभूति या भावना की डोज़ को भी स्थान देना आवश्यक था, जो कि संभव नहीं था  ।  माँ ने सोचा था कि कोख से पैदा करेगी तो प्रकृतिक रूप से यह सब उसमें आयेगा ही । परंतु वह गलत साबित हुई थी । वैज्ञानिकों ने तो कहा ही था कि संभावना कम थी पर हाँ हो भी सकता था कि वह  ये सब लेकर जन्मता । जिस तरह सूरज की विषाक्त किरणों ने धरती के पेड़ – पौधे, पशु – पक्षी जानवरों और असंख्य मनुष्यों को मार डाला उसी तरह उसने मानव मस्तिष्क के प्रेम करुणा वाले सभी रसायनो को सोख लिया है यह सोचते – सोचते वह अपनी अंतिम साँस ले  रही है………

मैं समय हाथ बांधे खड़ा हूँ विवश, व्यथित ………..

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆ रौशनाई!☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रौशनाई!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆

☆ रौशनाई!

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है, अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अपवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अपवाद

 

एक ही पिता की

संतानों के स्वभाव

और संकल्प में

ध्रुवीय अंतर

नई बात नहीं है,

मेरी पीड़ा और

मेरी जिजीविषा भी

अपवाद नहीं हैं!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 14☆ मलाला हूँ मैं ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुमन बाजपेयी जी की प्रसिद्ध पुस्तक “मलाला हूँ मैं ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा . यह मलाला यूसुफजई  के संघर्ष की प्रेरक पुस्तक है । श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 14  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मलाला हूँ मैं   

 

पुस्तक – मलाला हूँ मैं 

लेखिका  – सुमन बाजपेयी

प्रकाशक –  राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट दिल्ली

 

☆ मलाला हूँ मैं – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

कल मैं अपनी लाइब्रेरी में से एक किताब “मलाला हूं मैं” पलट रहा था तभी मुझे एक व्हाट्सअप मैंसेज मिला जिसमें  कुरआन शरीफ पर लिखी गयी पंक्तियाँ उद्धृत की गई थी…. उस मैसेज ने मुझे हाथ में उठाई किताब पढ़ने पर विवश कर दिया. तालिबान के सरकारो को  हिला देने वाले आतंक के सम्मुख एक बच्ची के जिजिविषा पूर्ण संघर्ष को सरल शब्दो में बताने वाली यह किताब बहुत प्रेरक है.

स्वात घाटी पाकिस्तान में वैसे ही नैसर्गिक सुंदरता बिखेरती है जैसे भारत में काश्मीर. किन्तु तालिबान के कट्टर मुस्लिमवाद ने वहां का जनजीवन छिन्न भिन्न कर रखा है. बी बी सी में अपने पेन नेम गुलमकई नाम से वहां के हालात की डायरी लिखने वाली बच्ची मलाला लड़कियो के शिक्षा, खेलने, बोलने जैसे मौलिक मानव अधिकारो की पैरोकार के रूप में ऐसी स्थापित हो गई कि कलम के सम्मुख तालिबानो की बंदूके हिलने लगी थी, और परिणामतः मलाला पर कायराना हमला किया गया था.

खुशकिस्मत मलाला इस  हमले में लंबे संघर्ष के बाद बच गई और वैश्विक सुर्खियो बन गई. उसे २०१४ में नोबल शांति पुरस्कार सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले.

इस पुस्तक में छोटे छोटे चैप्टर्स में मलाला युसुफजई के बचपन, उसके संघर्ष और प्रसिद्धि को बहुत रोचक व प्रभावी तरीके से बताने में लेखिका सफल रही हैं. किताब के अध्याय हैं  “मलाला हूंमैं”, हिम्मत की मिसाल, स्वात की बेटी, चुना संघर्ष का रास्ता, उठाई आवाज, मेरा स्वात, शाइनिंग गर्ल, बढ़ती दहशत, डायरी में लिखी सच्चाई, हो गई चर्चित, राजनीतिक कैरियर, प्रसिद्धि बढ़ती गई, हुई क्रूरता की शिकार, पूरी दुनिया साथ हो गई, हर घर में मलाला, काम आई दुआयें, सपना पूरा हुआ, बन गई एक रोशनी, संयुक्त राष्ट्र संघ में दिया गया भाषण, सम्मान व पुरस्कार, एक गजल मलाला के नाम.

किताब इसलिये भी आज प्रासंगिक है क्योकि पाकिस्तान हर मोर्चे पर धराशायी हो रहा है पर दुनियां में आतंक का नासूर खत्म होने ही नही आ रहा. भारत में सरकार तीन तलाक, मदरसो की शिक्षा पर बेहतर करने का यत्न  कर रही है किन्तु अभी भी धर्म की  सही व्याख्या समझे बिना शरीयत के पैरोकार सुधारवादी कदमो का विरोध करते दिखते हैं. मलाला सिर्फ एक महिला नही, उसके इरादे को एक आंदोलन एक वैश्विक जुनून बनाये जाने की जरूरत है.

निदा फाजली की गजल है ..

मलाला , आंखें तेरी चांद और सूरज
तेरा ख्वाब हिमाला
झूठे मकतब में सच्चा कुरान पढ़ा है तूने
अंधियारो से लड़नेवाली तेरा नाम उजाला

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8– ☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत”.  यह आलेख साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री इंदिरा संत जी  की रचनाओं पर आधारित है ।  थे। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8 ☆

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत☆ 

विसाव्या शतकातील एक नावारूपाला आलेली, राजमान्यता पावलेली कवयित्री म्हणून ‘इंदिरा संत’ ओळखल्या जातात. ४ जानेवारी १९१४ साली जन्मलेल्या ह्या थोर कवयित्रीने आपल्या संवेदनशील आणि सहजसुंदर लिखाणाने रसिकवाचनांवर मोहिनी तर घातलीच पण आपल्या आशयघन कविता, ललितगद्य लेखनाने मराठी साहित्यविश्व देखील अधिकच समृद्ध केले. ‘कविता हा माझ्या लेखनाचा आणि जगण्याचा गाभा आहे’ असे त्या स्वत:बद्दल म्हणत. ‘शेला’ ’मेंदी’ ’रंगबावरी’ह्या कवितासंग्रहांना राज्य शासनाचा पुरस्कार मिळाला तर त्यांच्या ‘गर्भरेशीम’ ह्या कविता संग्रहाला साहित्य अकादमीच्या पुरस्काराने गौरविले गेले. आज ह्या कवयित्रीची अतिशय गोड कविता घेऊन मी येतेय.

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे ☆

निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे

झुबे लालसर ल्यावे कानी ;

जरा शीरावे पदर खोचुनी

करवंदीच्या जाळीमधुनी.

 

शीळ खोल ये तळरानातून

भणभण वारा चढ़णीवरचा;

गालापाशी झील्मील लाडीक

स्वाद जीभेवर आंबट कच्चा.

 

नव्हती जाणीव आणि कुणाची

नव्हते स्वप्नही कुणी असावे;

डोंगर चढ़णीवर एकटे

किती फीरावे… उभे रहावे.

 

पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण;

झुरते तन मन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण…

 

निवडुंगाच्या लाल झुब्याची,

टपोर हिरव्या करवंदाची…

 

स्वैर बालपण, आपल्यातच दंग असलेली स्वप्नाळू, मुग्ध तारूण्यावस्था ह्या साऱ्याला मागे टाकत काळ भराभर पुढे जातो. अनेक जवाबदाऱ्या समर्थपणे पेलत कर्तेपणाची झूल आपल्या नकळतच आपण मिरवू लागतो. व्यवहाराची गणितं सोडवण्यात, य़शापयशाच्या नोंदी ठेवण्यात, जीवनाचा ताळेबंद मांडण्यात जीवाचं निवांतपण हरवल्यागत होतं. आणि मग आठव येतो तो त्या बेभान बेधुंद काऴाचा !

मन कघीच पोहोचतं त्या निवडुंगाच्या झाडापाशी. आणि असंख्य आठवणींचं मोहोळ एका क्षणात उडतं. लाल झुब्यांनी नटलेला तो निवडुंग, त्या टप्पोरल्या करवंदीच्या भरदार जाळ्या, ती डोंगराची चढण, तो दऱ्याखोऱ्यातून भणाणत्या वाऱ्याचा शीळभरला नाद, ती आंबट कच्ची करवंदाची गालात घोळणारी जीभेवर रेंगाळणारी चव, आणि स्वत:च्याच मस्तीतले स्वत:पलिकडे नसलेले बेधुंद मन ! किती वारा प्यावा, किती आसमंत निरखावा, आणि किती निसर्ग अंगावर घ्यावा…साऱ्याचा मनसोक्त आनंद लुटतांना कधी दुसऱ्या कुणाचा विचार  देखील

मनाला शिवला नाही आणि शिवणार कसा..स्वत:तच रमलेल्या मनात इतर कुणाचा शिरकाव होईलच कसा..!

पुन: ते सारं अनुभवावं ह्याची ओढ कवयित्रीला लागली आहे. तसं शांतपण, निवलेपण, भारलेपण, स्वमग्न बेधुंदपण पुन: जगता येईल का तेवढ्याच असोशीने असा एक हलका तरंगही मनात तिच्या उमटून जातो.

*पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण

झुरते तनमन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण*

ह्यातून तिची साशंकता तिने व्यक्त केलीय. सारी बंधनं झुगारून द्यावीत, काळाची पावलं उलटी पडावीत, पुन: एकदा ते स्वैर क्षण अनुभवावे, रसरसून जगावे, कधी तरी आपल्याही मनात असं तरळून जातंच ना !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #24 – कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल  “कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 24 ☆

 

☆ कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

मैं नाम खुद लिखूंगा मेरा वहाँ कफ़न पर

 

मैं हाथ तोड़ दूंगा गद्दार के कसम से

कोई न हाथ डाले अब देश की बहन पर

 

झंडा सफे़द लेकर शव को उठाने आओ

गिनलो निशान सारे ना’पाक’ इस बदन पर

 

बारूद कम हुआ है अल्लाह की फ़जल से

अब फूल ही खिलेंगे कश्मीर के चमन पर

 

दुनिया समझ गई है दमख़म यहाँ हमारा

अब नाम हिंद का मैं लिख दूं वहाँ गगन पर

 

शांति की राह पर हम चलते रहे निरंतर

विश्वास है हमारा गांधी के उस भजन पर

 

भूखा किसान क्यो है इसका जवाब चुप्पी

कुछ साथ दे रहे हैं नेता बडे गबन पर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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