आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (14) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।14।।

 

कर्म फलों की नहीं लालसा,इसमें लिप्ति न कर्मो में

जो यह बात समझता है,बह बंधता नहीं स्वकर्मो में।।14।।

 

भावार्थ :  कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।।14।।

 

Actions do not taint Me, nor have I a desire for the fruits of actions. He who knows Me thus is not bound by actions. ।।14।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक गजल)

☆ गजल ☆
इस मुल्क के सुकून को मिसमार मत करो
फूलों की सर ज़मीन को तलवार मत करो
इंसानियत सिखाई है हमने जहान को।
आपस में भाई भाई हो तकरार मत करो
छल और कपट के प्यार से बहतर है दुश्मनी
जो सिर्फ़ इक फ़रेब हो  वो प्यार मत करो
मुश्किल से दिल के ज़ख़्म भरे हैं अभी अभी
इन मुस्कुराते फूलों को बीमार मत करो
दुनिया इन्हें झुकाने की कोशिश में है सुनो
रहने दो सीधी शाखों को ख़मदार मत करो
गर्दन कटे कहीं भी तो जी़नत को होगा ग़म
रख दो कटार  अपनी चमकदार मत करो
© कमला सिंह ज़ीनत
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सूचनाएँ/Information – डायनामिक संवाद टी वी यूट्यूब चैनल) के लोगो  की लांचिंग

☆ सूचना ☆ 

 

 ☆ ✒ डायनामिक संवाद टी वी(यूट्यूब चैनल) के लोगो  की लांचिंग ✒ ☆

 

आज  दिनांक 7 जुलाई 2019 को जबलपुर शहर की साहित्यिक ,सामाजिक चेतना का  सूत्रपात  करने डायनामिक संवाद टी वी के लोगो की  लांचिग सुप्रसिद्ध साहित्य शिरोमणी  डॉ राजकुमार तिवारी  सुमित्र, जी के द्वारा  शरद चन्द्र  उपाध्याय , पंकज स्वामी,डॉ अरुण  दवे ,डॉ ललित पाण्डेय    वरिष्ठ पत्रकार राकेश मिश्र ,डॉ प्रवीण मिश्र ,राकेश श्रीवास,,राजेन्द्र तिवारी , आराध्या तिवारी प्रियम, मेहेर  प्रकाश उपाध्याय,व् अन्य गणमान्य अतिथियों की  उपस्थिति में आज सुपर मार्किट कॉफ़ी हाउस,जबलपुर  में  सम्पन्न हुई।
संस्काधानी नाम से  सुशोभित गोंड राजाओं की सशक्त कर्मभूमि के साहित्य,संगीत, संस्कृति  के क्षेत्र में  विश्वपटल पर अपने हस्ताक्षर से शहर जबलपुर की कीर्ति गाथा लिखने वाले  उदीयमान साधकों व् साहित्य शिल्पियों की  महिमा को सुनहरे चित्रपट पर उकेरने के उद्देश्य से एवम् विभिन्न समस्याओं को उनके  समाधान तक पहुचाने हेतु   इस  यूट्यूब चैनल को प्रस्तुत किया   जा रहा है।
इस अवसर पर चैनल डायरेक्टर डॉ हर्ष तिवारी जी द्वारा चैनल के  मालिक सुमित्र जी का आभार व्यक्त किया गया।
*डायनामिक संवाद टी वी अब शीघ्र ही जबलपुर से*
संस्कारों के शहर,
रानी दुर्गावती के बलिदानी नगर,
साहित्य, धर्म व पुरातत्व स्थली,
ओशो, महर्षि महेश और परसाई की कर्मभूमि,
समग्र साहित्यिक गतिविधियों व साहित्यकारों के सृजन को जन जन तक पहुँचाने
एवं
जबलपुर के सरोकारों को
हर दृष्टि से आपके समक्ष प्रस्तुत करने,
हर वर्ग, हर विषय, हर समस्याओं की आवाज उठाने,
हर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने अपने शहर में
 हमारे अपने ही ला रहे हैं बेहद प्रभावी और अत्याधुनिक तकनीक से युक्त
 “डायनामिक संवाद टी वी”
 जो जबलपुर को
नई पहचान दिलाएगा।
बस कुछ ही दिनों में आपकी पहुँच में होगा।
– डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
(आज डायनामिक संवाद टी वी ने मेरी कुछ कविताएँ रिकॉर्ड की, जिन्हें भी आप जल्दी ही देख पाएँगे)
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4 – ये दुनिया अगर… ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  चौथी  कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “ये दुनिया अगर…”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4  ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – ये दुनिया अगर… ☆

 

इन दिनों दुनिया,

हम पर हावी हो रही है।

आज की आपाधापी में,

चालक समय भाग रहा है।

समय को कैद करने की,

साजिश चल तो रही है।

लोग बेवजह समय से,

डर के कतरा से रहे हैं।

लोग समय बचाने,

अपने समय से खेल रहे हैं।

बेहद आत्मीय क्षणों में,

समय की रफ्तार देख रहे हैं।

अब पेड़ से बातें करने को,

हम टाइमवेस्ट कहने लगे हैं ।

और फूल की चाह को,

निर्जीव प्लास्टिक में देखते हैं।

अपनी इच्छा अपनापन,

समय के बाजार में बेच रहे हैं।

क्योंकि इन दिनों दुनिया,

समय के बाजार में खड़ी है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #7 – जीवन एक परीक्षा☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन एक परीक्षा ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 7 ☆

 

☆ जीवन एक परीक्षा ☆

 

परीक्षा जीवन की एक अनिवार्यता है. परीक्षा का स्मरण होते ही याद आती है परीक्षा की शनैः शनैः तैयारी. निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन, फिर परीक्षा में क्या पूछा जायेगा यह कौतुहल, निर्धारित अवधि में हम कितनी अच्छी तरह अपना उत्तर दे पायेंगे यह तनाव. परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही यदि कुछ समय और मिल जाता या फिर अगर मगर का पछतावा..और फिर परिणाम घोषित होते तक का आंतरिक तनाव. परिणाम मिल जाने पर भी असंतुष्टि या पुनर्मूल्यांकन की चुनौती..हम सब इस प्रक्रिया से किंचित परिवर्तन के साथ कभी न कभी कुछ न कुछ मात्रा में तनाव सहते हुये गुजरे ही है. टी वी के रियल्टी शोज में तो इन दिनों प्रतियोगी के सम्मुख लाइव प्रसारण में ही उसे सफल या असफल घोषित करने की परंपरा चल निकली है.. परीक्षा और परिणाम के इस स्वरूप पर प्रतियोगी की दृष्टि से सोचकर देखें.

सामान्यतः परीक्षा लिये जाने के मूल उद्देश्य व दृष्टिकोण को हममें से ज्यादातर लोग सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना ही येन केन प्रकारेण अधिकतम अंक पाना ही परीक्षा का उद्देश्य मान लेते हैं. और इसके लिये अनुचित तौर तरीकों के प्रयोग तक से नही हिचकिचाते. या फिर असफल होने पर आत्महत्या रोग जैसे घातक कदम तक उठा लेते हैं.

प्रश्न है कि क्या परीक्षा में ज्यादा अंक पाने मात्र से जीवन में भी सफलता सुनिश्चित है ? जीवन की अग्नि परीक्षा में न तो पाठ्यक्रम निर्धारित होता है और न ही यह तय होता है कि कब कौन सा प्रश्न हल करना पड़ेगा ? परीक्षा का वास्तविक उद्देश्य मुल्यांकन से ज्ञानार्जन हेतु प्रोत्साहित करना होता है. जीवन में सफल वही होता है जो वास्तविक ज्ञानार्जन करता है न कि अंक मात्र प्राप्त कर लेता है. यह तय है कि जो तन्मयता से ज्ञानार्जन करता है वह परीक्षा में भी अच्छे अंक अवश्य पाता है. अतः जरूड़ी है कि परीक्षा के तनाव में ग्रस्त होने की अपेक्षा शिक्षा व परीक्षा के वास्तविक उद्देश्य को हृदयंगम किया जावे, संपूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी समूची बौद्धिकता के साथ गहन अध्ययन किया जावे व तनाव मुक्त रहकर परीक्षा दी जावे. याद रखें कि सफलता कि शार्ट कट नही होते. परीक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना मात्र है. ज्ञानार्जन एक तपस्या है. स्वयं पर विश्वास करें. विषय का मनन चिंतन, अध्ययन करें, व श्रेष्ठतम उत्तर लिखें, परिणाम स्वयमेव आपके पक्ष में आयेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – मराठी कथा – ☆ समतोल ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है। आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है। एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते।  हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  उनकी एक कहानी समतोल ।)

 

☆ समतोल ☆

 

” काय होईल पुढच्या आयुष्यात काही कळत नाहीये यार. कुठली म्हणजे कुठलंही गणित जुळून येत नाहीये.” आदिती राघवला बोलत होती. बाजुला बसलेली रागीणीही गंभीर होऊन एकत होती.

रागीणी आणि राघव तिचे काॅलेजचे मित्र. पण त्यांच्यात एक जिवाभावाचं नातं बनलं होतं. माणसं जोडण्याची  किंवा जोडून ठेवण्यासाठी रक्ताच्या नात्यांची गरज नसते. हे त्यांच नातं गवाही देत होतं. त्यांचा गृपच एकंदर मस्तीखोर आणि अभ्यासूही तेवढाच होता.

काॅलेज सोडून पाच वर्षापेक्षा अधिक काळ होऊनही त्यांची मैत्री घट्ट होती. कोणीही कोणालाही विसरलं नव्हतं. सुरूवातीला एकमेकांच्या घरी येणं जाणं असायचं पण वेळ सरकत गेली तशी काहींची लग्न झाली. तर काहीनी जाॅब मुळे भेटणं बंद केलं. पण फेसबुक, व्हाटसअॅप मुळे सगळे एकमेकांबददल अपडेट होते. काही खास मोक्याच्या वेळी येणं जाणं असायचंच. पण आज तिच्या वाढदिवसाला जास्त मित्र आले नव्हते. आदितीचाही वाढदिवस साजरा करण्याचा काही प्लॅन नव्हता. तिच्या मनात मागच्या काही दिवसापासुन कोणत्यातरी एका कारणावरून घालमेल सुरु होती. खुप विचार करूनही ती कुठल्या एका निर्णयावर पोहोचत नव्हती. नितीनने जेव्हा तिला बर्थडे पार्टीसाठी फोर्स केला तेव्हा ती आधी तयार नव्हती. पण मित्रांना भेटून काहीतरी मार्ग काढावा म्हणुन ती ही तयार झाली. निवांत बोलू म्हणुन तीने शहराबाहेर एक ढाबावर त्यांना नेले. राघवचे मामा तिथेच मॅनेजर होते. मामांनी त्यांना एक टेबल खाली करून दिला. केक कापला गेला. नेहमीच हसत राहणारी आदिती आज नेहमीप्रमाणे हसत नव्हती. चेह-यावर जरी हसू असले तरी डोळ्यांत ते स्मित दिसत नव्हते. हे राघवने कधीच हेरले होते.

केक कापून  झाल्यावर जेवण  मागवून त्यांनी जेवायला सुरुवात केली. आदितीने आपल्या हातातल्या चमचने पहिला घास उचलला. आणि तोंडात टाकायला घेतला. तेवढयात राघव तिला म्हटला. “आदिती, तु काहीतरी डिस्कस करणार होती ना आमच्याशी ?” त्याच्या प्रश्नाने आदिती दचकली. तिचा चमच ओठांजवळच थांबला. तिने आश्चर्याने त्याच्याकडे पाहिले. त्याने एक घास घेतला आणि म्हटला. ” अगं बघतेयस काय? बोल ना काय म्हणणार होतीस ते”  ती अजुनही गोधळलेली होती. ” पण तुला कसं कळलं” तीने गोंधळून विचारले. राघव- ” बाळं, तु अजुन लहान बाळ आहेस. डोळ्यातले भाव लपवता येत नाही तुला अजुन. नुसतं चेह-यावर हास्य ठेऊन चालतं नाही. ते डोळ्यांतही असु द्यावं लागतं. बोल काय म्हणतेयस” ती आता पुर्णपणे कंफर्ट झाली होती. त्याचं तिला भारी कौतुक वाटलं. ती बोलू लागली ” काय होईल पुढच्या आयुष्यात काही कळत नाहीये यार. कुठली म्हणजे कुठलीही गणित जुळून येत नाहीयेत” ती क्षणभर थांबली. आणि बोलू लागली ” आज वयाची सव्वीस वर्षे पूर्ण झाली. सत्ताविस सुरूही झालं. आई म्हणतेय लग्न करून घे. काही कळत नाहीये. पुरता गोंधळ झालाय माझा.” त्याला तिच्या बोलण्यात गांभीर्य जाणवले. तो म्हटला  “अगं करायचं ना मग लग्न. त्यात काय एवढं विचार करण्यासारखं.”

आदिती मात्र गंभीर होती. ” इतकं सोपं नाहीये माझ्यासाठी ते. तुला माझी परिस्थिती माहीती आहे. बाबा चोवीस तास नशेत असतात. मोठया बहीणीचं लग्न झालंय. श्रध्दा आणि संध्या लहान आहेत अजुन. ते आईला नाही सांभाळू शकणार. भाऊ असता तर त्याच्या भरवशावर एकवेळ सोडलंही असतं. पण देवाने तिच्या नशिबी हे भोग दिलेत. आणि आता मी लग्न करून गेले तर किती मर-मर होईल तीची” बोलता-बोलता तिच्या डोळ्यांत पाणी आलं. रागीणीने तिच्या खादावर सहानुभूतीचा हात ठेवला. राघव ” आदिती बरोबर आहे तुझं म्हणणं. पण काही विशिष्ट गोष्टी विशिष्ट वेळेवर झाल्या कि आयुष्याची घडी व्यवस्थित बसते. लग्नही त्यातलंच एक. ते ही वेळेवर नाही झालं कि खुप सारे अर्थ उलगडत नाहीत. आज ठिक आहे तु यंग आहेस. तर सगळं काही करू शकतेस.  त्यांनाही आणि स्वतःलाही सांभाळू शकतेस. पण आजपासुन यु जर काही वर्षे पुढे गेली ना तेव्हा तुला दिसेल कि तु घेतलेला निर्णय चुक होता कि बरोबर.

मी हे म्हणत नाही कि तु लग्न कर. पण स्वत:ला थोडं पुढे नेवून चल. साधारणतः पंचेचाळीस-शेहेचाळीस वयामध्ये. आई बाबा हयात राहीले तर त्यांच म्हातारपण तुलाच सांभाळायचं आहे. आणि जर समजा नसले तर काय? तु स्वतच्या सामर्थ्यावर जे साम्राज्य उभं केलयस त्याचं काय? सोड साम्राज्याचं. पण हा जो तुझ्या आयुष्याचा वड आहे. त्या वडाला जर पारंबीचं नसेल तर त्याला काही शोभा राहणार का? कोणत्या आधाराने जगशील पुढचं आयुष्य? तुझ्या म्हातारपणाची काठी सांभाळायला तुला हात नकोत? बघ आदिती, माणसाला प्रत्येक परिस्थितीत जगावं लागतं. पण त्या जगण्यालाही काहीतरी कारण लागतं. आणि ते कारण तुला लग्न करूनच भेटतील”

आदिती त्याचं म्हणणं लक्षपूर्वक ऐकत होती. तिला मन मोकळं झाल्यासारखं वाटत होतं. तिने डोळे पुसले. आणि म्हटली ” मग मी काय करायला हवं ?” तिने  त्याला प्रश्न केला. त्याला कदाचित हा प्रश्न अपेक्षितच होता. आणि त्याच्याकडे उत्तर तयारच होते. असे भाव त्याच्या चेह-यावर दिसत होते. ” अगं सोप्प आहे. जो कोणी मुलगा असेल ना त्याला सांग कि तुझी अडचण काय आहे.  तो समजुन घेईल तुला. मग तु तुझ्या आईची काळजीही घेऊ शकतेस. आणि तीला गरज पडली तर तुझा पगारही देऊ शकशील.” आदिती ” कोण भेटेल असा समजुन घेणारा ? तु करशील माझ्याशी लग्न? ” ती सरळ बोलुन गेली. त्यावर रागीणी पुरती दचकली. तिच्या हातातलं चमच खाली पडलं. ती वाट पाहु लागली कि राघवचे उत्तर काय असेल. तो मात्र शांत होता. स्मित हसुन तो बोलला. ” केले असते तुझ्याशी लग्न. तुझ्या सारखी मुलगी भेटायला भाग्य घेऊन जन्मावं लागेल. पण तु मला मित्र कमी आणि भाऊ जास्त मानले आहेस. आणि मी ही बहीणीपेक्षा कमी दर्जा नाही दिला तुला. म्हणुन एका भावाची जबाबदारी म्हणुन तुला हसत ठेवणं माझं कर्तव्य आहे.”

आदिती मात्र स्मित हसली. रागीणीलाही तिचं उत्तर मिळालं होतं. जेवण संपल्यावर त्यानी रागीणीला तिच्या घरी सोडले. आणि आदितीलाही पोहोचवण्यासाठी तिच्या घरापर्यंत गेला. आदिती गाडीतून उतरली. आणि जाऊ लागली. राघवने तिला आवाज दिला ” आदिती ” ती मागे फिरली. ” काळजी करू नकोस. कोणी नाही तर मी आहे सक्षम आईसाठी ” आणि तो निघून गेला. आदिती त्याला स्वाभिमानी नजरेने पाहत राहीली.

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Gross National Happiness ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Gross National Happiness 

 

Video Link : Gross National Happiness 

 

Gross National Happiness, or GNH, is a holistic and sustainable approach to development, which balances material and non-material values with the conviction that humans want to search for happiness.

The objective of GNH is to achieve a balanced development in all the facets of life that are essential; for our happiness.

GNH Centre, Bhutan

 

The 4 Pillars of GNH

  • Good Governance
  • Sustainable Socio-economic Development
  • Preservation and Promotion of Culture
  • Environmental Conservation

GNH Centre, Bhutan

 

The 9 Domains of GNH

  • Living standards
  • Education
  • Health
  • Environment
  • Community Vitality
  • Time-use
  • Psychological well-being
  • Good Governance
  • Cultural resilience and promotion

GNH Centre, Bhutan

 

History of GNH

The concept of Gross National Happiness (GNH) was promulgated by the King of Bhutan in the early 1970s. When he spoke about GNH at the time, he questioned the prevailing measurement system that Gross Domestic Product (GDP) alone could deliver happiness and well-being to society. He firmly believed that happiness is an indicator, and a sign of progressive development for the Bhutanese people.

GNH Centre, Bhutan

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌।।13।।

मैनें चार वर्ण गुण-कर्मो के अनुसार बनाये हैं

कर्ता हो भी पार्थ,अकर्ता के से गुण अपनाये हैं।।13।।

भावार्थ :  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।।13।।

 

The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and Karma; though I am the author thereof, know Me as the non-doer and immutable.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ याददाश्त उधारी पर ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

(आदरणीय श्रीमति समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में स्वागत है। हम पूर्व में आपके व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है” की समीक्षा प्रकाशित कर चुके हैं। आप व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य से अपने पाठकों को रूबरू कराते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य याददाश्त उधारी पर।)

 

व्यंग्य – याददाश्त उधारी पर 

 

स्लो पॉयजन मतलब आज के जीने की खुराक। शर्तिया…। रामबाण…। न मिले तो सांसें उखडऩे लगे। फ़क्र करना होगा कि जमाना बदल चुका है। खुली सांस और शुद्ध जल नाकाफी है। है भी नहीं…। हाशिये पर जीने वाले भी इसकी गिरफ्त से दूर नहीं…। नौजवान और उनकी तोंद भी इसी की शिकार हैं। मानो तोंदियापन फ़ैशन सा हो गया हो। फिर भी चस्का ऐसा कि भले बेरियाट्रिक सर्जरी करानी पड़ जाए लेकिन इसकी लत न छोडेंगे भाई…।

चलो, एक परसेंट छोड़ भी देते हैं तो दुनिया आगे और हम पीछे रह जाएंगे। दुनिया से कदमताल करना है तो आमरण इस जहर के साथ जीना होगा। किसी भीष्म प्रतिज्ञा की तरह। ऐसी प्रतिज्ञाएं अक्सर चीर और हरण जैसे वाकये को होते रहने में सहायक होती हैं। अमरकथाओं में कभी पढ़ते कि फलानी रानी अपने लला की खातिर अपने ही राजा पर स्लो पॉयजन का इस्तेमाल करतीं। गद्दी हथियाने…।

भारत सबसे आगे है विश्व में। कर लो गर्व। लेकिन किस पर करोगे॰॰॰। सेल्फ़ी मोड से मरने वालों की संख्या पर॰॰॰। या उन पर जिनका कैमरा घटना के आगे चलता है। और वे ख़ुद उसके पीछे।

ये हमारी गूगल आंटी नुमा रानी हैं न…। सर्वेसर्वा…। हमारे जीने का तरीका सेट करने वाली…। ओहदे में किसी राजमाता से कम नहीं…। भटकने से बचाती चलती है। सही रास्ता दिखाने वाली…। चुन चुनकर…। कोशिश करती रहती हैं कि भीड़ भाड़ से दूर रहें हम सब…। कहीं फंस न जाएं, पूरा दारोमदार उसके बोलने पर…। मतलब उसकी ज़रा सी चूक पर हम चूके। क्या पता आगे खाई हो। एक खाई से निकलकर दूसरी खाई में गिरे। फिर भी भारत की गलियों का रास्ता न है इसके पास। सिर ऊँचा कर सकते हैं कि हमारे पास पानवाला है।

न बड़े बुजुर्गों की जरूरत। न उनके अनुभवों की…। ऐसा कोई माई का पुत्तर नहीं जो इस रानी का राजा ना हो। भाई, हर किसी को हक है राजसी ठाठबाट का…। मनुष्य की खासियत ही है जो न मिला उसी के पीछे भागना। गूगल रानी मिलने के बाद कहां जरूरत अपनी रानी की। उसमें इतना हुनर की आत्मीय रिश्तों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। प्रेम कहानियाँ ख़रीद लीं हैं भाई…। और क्या चाहिए? घर में न राजा बचा, न रानी। एक समय पांडवों को अज्ञातवास के लिए दर दर भटकना पड़ा। पर हम खुशनसीब हैं…। भाग्यशाली हैं…। हम अपने ही घर में अज्ञातवास की तरह रहते।

गूगल रानी धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में प्रकट हो जाती। सही गलत के सारे भेद होते इसके पास। कभी वृहन्नला तो कभी नकुल सहदेव। और भीम के रूप में तो अक्सर गदा सिर पर मारती। जरा डांट के, इतना सा उत्तर नहीं आता मूरख। ये रहा तुम्हारे प्रश्न का सही उत्तर।

मतलब मेमोरी कन्ज्यूम करने की जरूरत ही कहाँ  बचती है। हरेक को सांइटिस्ट थोड़े बनना है। हमारा दिमाग किसी लैंडफिल साइट से कम न बचा, भाई। दाएं बाएं की साइटें देख देख के डंपिंग गारबेज बन चुका है। याददाश्त फीकी पड़ जाए तो अब दादी नानी के नुस्खों की भी जरूरत नहीं। कौन खाए बादाम और कौन करे बादाम के तेल से चंपी। इतनी चकल्लस का टेम नयि है सहाब…। बहुत बिजी हैं सब। बिजी विदाउट बिजनेस। लेकिन ऐसा नहीं कह सकते…। रानी ने अपने चारों ओर पूरे विश्व का नेटवर्क जो बनाके रखा है। सर्फिंग करनी पड़ती है। बताओ आखिर, जानकारी हासिल करनी चैइये कि नयी करनी चैइये…?? लेकिन अगले दो मिनट के बाद उस जानकारी की मृत्यु होना भी सुनिश्चित है। क्या करें, याददाश्त भाड़ में भुंज रही हो तो ऐसा होना संभव है।

गूगल रानी का आलम किसी युनीसेक्स सलून की तरह है। कोई लिंगभेद नहीं…। सबके लिए बराबर। वो ऑर्डर देती है और हम सब मानते हैं। जैसे किसी कद्दावर देश का राष्ट्रपति। मतलब पूरी दुनिया मुट्ठी में कर रखी है इस रानी ने…। फिर किस बिनाह पर अमेरिका, चीन या अरब वर्ल्ड शेखी बघार रहे॰॰॰। न शोख, न कमसिन…। फिर भी बस लोग कायल हुए जा रहे इसके। सही को सही के साथ साथ सही को गलत और गलत को सही ठहराने की अभूतपूर्व क्षमता है…। इस पावर के आगे सभी नतमस्तक हैं। तिल का ताड़ और ताड़ से तेल निकलवाने की क्षमता रखती हैं बहनजी….। सारा कंट्रोल उसके हाथ में। और अब हम भिखारी बने फिर रहे हैं। याददाश्त के नाम पर थोड़ी दे दे रे बाबा….।

© श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #4 – मैराथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4  ☆

 

☆ मैराथन ☆

 

मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!!  ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।

स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।

वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।

कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’ 

अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।

जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।

प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।

उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

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