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रंगमंच – नाटक – ☆विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा  ..वीरांगना रानी दुर्गावती ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

रानी दुर्गावती बलिदान पर विशेष
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी द्वारा रानी दुर्गावती बलिदान दिवस पर विशेष रूप  से लिखित नाटक। यह नाटक  बच्चों से लेकर वरिष्ठ नागरिकों तक के लिए शिक्षाप्रद गीत, कविता एवं साक्षात्कार  का मिला जुला स्वरूप है जो अपने आप में एक प्रयोग से कम नहीं है। साथ ही यह नाटक हमें इतिहास के कई अनछुए पहलुओं से रूबरू करता है। )

 

☆ नाटक – विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा  ..वीरांगना रानी दुर्गावती☆

 

पात्र-

0 गायन मंडली

1 पुरूष स्वर (1)    –    पापा

2 बालिका  – चीना

3 बालक    –  चीकू

4 खंडहर की आवाजे – (अनुगूंज में महिला स्वर)

5 पुरूष स्वर (2)

6 साक्षात्कार कर्ता

 

जिनसे साक्षात्कार लेना है –

०     रानी दुर्गावती  विश्वविद्यालय के कुलपति

१.    कलेक्टर जबलपुर

२.   संग्रहालय अध्यक्ष- जबलपुर रानी दुर्गावती संग्रहालय

३.    संग्रहालय अध्यक्ष-  मंडला

४.   संग्रहालय अध्यक्ष ..दमोह

५.   मदन महल , वीरांगना दुर्गावती की समाधि के आम पर्यटक एवं उस परिसर के दुकानदार आदि

 

चीना- चीकू । मैने तुमसे कोई कहानियो की किताब लाने को कहा था तुम ये कौन सी पुस्तक उठा लाये हो पुस्तकालय से।

चीकू- दीदी यह पुस्तक है ‘रानी दुर्गावती’ वही दुर्गावती, जिसके विषय मे हमारी पाठ्य पुस्तक में छोटा सा पाठ पिछले साल हमने पढा था।

चीना- अरे वाह। तब तो इससे हमे वीरांगना दुर्गावती के विषय में पूरी जानकारी मिल जायेगी।

पापा- हां बच्चो। तुम लोग इस पुस्तक को पूरी तरह पढ डालो, यह छुटिटयो का अच्छा उपयोग होगा। फिर मै तुम्हें वह जगह घुमाने ले जाउंगा जहां दुर्गावती ने वीरगति पाई थी और मदन महल एवं अन्य वे स्थान भी दिखलाउूंगा जिनका संबंधी रानी से रहा है।

चीकू- पापा। हम लोग पुरातत्व  संग्रहालय भी चलेगे, वहां भी तो रानी से जुडे अवशेष देखने मिल सकेंगे .

पापा- हां, जरूर। तुम्हे पता है…..

पुरूष स्वर (2)- विश्व इतिहास में रानी दुर्गावती पहली महिला है जिसने समुचित युद्ध नीति बनाकर अपने विरूद्ध हो रहे अन्याय के विरोध मे मुगल साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र उठाकर सेना का नेतृत्व किया और युद्ध क्षेत्र मे ही आत्म बलिदान दिया।

साक्षात्कार कर्ता-   और इस विषय मे हमे बता रहे हैं …..

पापा-  बच्चो। प्रसिद्ध गीतकार प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव की एक रचना है ‘‘गोंडवाने की रानी दुर्गावती” — जिसमें उन्होनें दुर्गावती का वैसा ही समग्र चित्रण किया है जैसा प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने ‘‘खूब लडी मर्दानी” कविता मे रानी झांसी का वर्णन किया था। तुम यह गीत सुनना चाहेागे।

चीकू-चीना- जरूर। जरूर। सुनाइये न पापा

पापा- तो सुनो

गायक मंडली-

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को मां रेवा की घाटी ने

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

 

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राह मे अड़ता था

बादशाह अकबर की आंखो में वह बहुत खटकता था

 

एक बार रानी को उसने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

बदले में रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुंचाया

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न रही वांछित आशा

 

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

 

पापा- बच्चो। इससे पहले कि हम यह गीत पूरा करें, आओ बात करते है आज विंध्य अंचल की पहचान,को लेकर जिलाधीश जबलपुर  से,

साक्षात्कारकर्ता-

चीकू- चीना-पापा हमे उस गीत मे बहुत मजा आ रहा था उसे पूरा सुनवाईये ना।

पापा- अच्छा चलो जैसा तुम लोग चाहो।

गायन मण्डली-

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

 

आती हैं जीवन मे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

 

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

 

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खां को तब सेना दे भेजा लडने

 

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खां सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा

 

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

 

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र में रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

 

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

 

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

 

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

 

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

 

तभी फंसी रानी को आकर लगा आंख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

 

पापा- बच्चो। तुम्हें पता है , उस समय तक गौंड़ सेना पैदल व उसके सेनापति हाथियो पर होते थे , जबकि मुगल सेना घोड़ो पर सवार सैनिको की सेना थी .अच्छा चीकू तुम सोचकर  बतलाओ कि इस घोड़े और हाथी के अंतर से दोनो सेनाओ की लड़ाई के तरीको में क्या फर्क होता रहा होगा ?

चीकू – .. पापा सीधी सी बात है , हाथी धीमी गति से चलते रहे होंगे और  घोड़े तेजी से भागते ही होंगे इसलिये जो मुगल सैनिक घोड़ो पर रहते होंगे  वे तेज गति से पीछा भी कर सकते रहे होंगे और जब खुद की जान बचाने की  जरूरत होती होगी तो वो तेजी से भाग भी जाते होंगे . पर पैदल गौंडी सेना धीमी गति से चलती होगी और वो जल्दी भाग भी नही सकते रहे होंगे . मैं सही कह रहा हूं न पापा !.

पापा -… बिलकुल सही बेटा . विशाल, सुसंगठित, साधन सम्पन्न मुगल सेना जो घोड़ो पर थी उनसे जीतना संख्या में कम, गजारोही गौंड सेना के लिये लगभग असंभव था,  फिर भी जिस तरह रानी ने दुश्मन से वीरता पूर्वक लोहा लिया, वह नारी सशक्तीकरण का अप्रतिम उदाहरण है। आओ बात करते है जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के कुलपति जी से  जो इन ऐतिहासिक मूल्यो को नई पीढ़ी में पुर्नस्थापित करने हेतु महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है-

साक्षात्काकर्ता-

पापा – बच्चो। आओ अब उस गीत को पूरा कर लें।

गयक मडंली-

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

 

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

 

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढे जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

 

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

 

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है मां रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती गढ़ मंडला की रानी में

 

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गौंडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

 

असमय विधवा हुई थी रानी मां बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

 

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से था किया प्रयाण

 

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहां हुई गौडो की मुगलों से हार

 

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दे जो उपहार

 

कभी दगा देती यह दुनियां कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

 

चीना-चीकू- मजा आ गया। इस गीत मे तेा जैसे सारी कहानी ही पिरो दी गई है।

पापा- हां बेटा।  दरअसल कोई तारीख अच्छी या बुरी नहीं होती, ये हम होते है, जो अपने कामो से उस तारीख को स्वर्णाक्षरो मे लिख डालते है, या उस पर कालिख पोत देते है, फिर उन्ही घटनाओ को इतिहास मे रचनाकार समेट कर पुस्तक तैयार कर देते है पीढियो के संदर्भेा के लिये।

पुरूष स्वर- (वाचक स्वर) रानी दुर्गावती पर अनेक पुस्तके लिखी गई है, कुछ प्रमुख इस तरह है-

  1.   राम भरोस अग्रवाल की गढा मंडला के गोंड राजा
  2.   नगर निगम जबलपुर का प्रकाशन रानी दुर्गावती
  3.   डा. सुरेश मिश्रा की कृति रानी दुर्गावती
  4.   डा. सुरेश मिश्र की ही पुस्तक गढा के गौड राज्य का उत्थान और पतन
  5.   बदरी नाथ भट्ट का नाटक दुर्गावती
  6.   बाबूलाल चौकसे का नाटक महारानी दुर्गावती
  7.   वृन्दावन लाल शर्मा का उपन्यास रानी दुर्गावती
  8.   गणेश दत्त पाठक की किताब गढा मंडला का पुरातन इतिहास

इनके अतिरिक्त अंग्रेजी मे सी.यू.विल्स, जी.वी. भावे, डब्लू स्लीमैन आदि अनेक लेखको ने रानी दुर्गावती की महिमा अपनी कलम से वर्णित की है।

महिला अनुगूंज स्वर- इस वीरांगना की स्मृति को अक्षुण्य बनाये रखने हेतु भारत सरकार ने 1988 मे एक साठ पैसे का डाक टिकट भी जारी किया है।

पापा- आओ बच्चो तुम्हे ले चले रानी की पत्थरो पर लिखी ऐतिहासिक इबारत को पढने- ये है मदन महल का किला और यह एक पत्थर आधार शिला बैलेसिंग राक, प्रकृति का अद्भुत करिष्मा, कितना आकर्षक दिखता है इस उॅचाई से, इन पहाडियो पर आओ बात करें इस एतिहासिक स्मारक पर आये इन हमारे जैसे अन्य पर्यटको से।

साक्षात्कार कर्ता-………………………

पर्यटक………………………..

चीना-पापा, जबलपुर मे रानी दुर्गावती के और कौन कौन से स्मारक है?

पापा- बेटे। रानी ने अपने शासनकाल मे जबलपुर मे अनेक जलाशयो का निर्माण करवाया, अपने प्रिय दीवान आधार सिंग, कायस्थ के नाम पर अधारताल, अपनी प्रिय सखी के नाम पर चेरीताल और अपने हाथी सरमन के नाम पर हाथीताल बनवाये थे। ये तालाब आज भी विद्यमान है। प्रगति की अंधी दौड मे यह जरूर हुआ है कि अनेक तालाब पूरकर वहा भव्य अट्टालिकाये बनाई जा रही है।

चीकू- पापा रानी दुर्गावती के समय की और भी कुछ चीजे, सिक्के आदि दिखलाइये ना।

पापा- बेटा, इस विषय मे तुम्हे रानी के नाम पर ही स्थापित रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर की अध्यक्षा बतायेंगी।

साक्षात्कार- संग्रहालय अध्यक्ष से ।

चीना- पापा, दुर्गावती ने और कौन कौन सी लडाइयां लडी थी ?

पापा- बेटा। रानी दुर्गावती ने सर्वप्रथम मालवा के राज बाज बहादुर से लडाई लडी थी, जिसमें बाज बहादुर का काका फतेहसिंग मारा गया था। फिर कटंगी की घाटी मे दूसरी बार बाज बहादुर की सारी फौज का ही सफाया कर दिया गया। बाद मे रानी रूपमती को सरंक्षण देने के कारण अकबर से युद्ध हुआ, जिसमें दो बार दुर्गावती विजयी हुई पर आसफ खां के नेतृत्व मे तीसरी बार मुगल सेना को जीत मिली और रानी ने आत्म रक्षा तथा नारीत्व की रक्षा मे स्वयं अपनी जान ले ली थी .

पुरूष 2 (वाचक स्वर)- नारी सम्मान को दुर्गावती के राज्य मे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी। नारी अपमान पर तात्कालिक दण्ड का प्रावधान था। न्याय व्यवस्था मौखिक एवं तुरंत फैसला दिये जाने वाली थी . । रानी दुर्गावती एक जन नायिका के रूप मे आज भी गांव चौपाले में लोकगीतो के माध्यम से याद की जाती हैं .

गायक मडंली-

तरी नाना मोर नाना रे नाना

रानी महारानी जो आय

माता दुर्गा जी आय

रन मां जूझे धरे तरवार, रानी दुर्गा कहाय

राजा दलतप के रानी हो, रन चंडी कहाय

उगर डकर मां डोले हो, गढ मडंला बचाय

हाथन मां सोहे तरवार, भाला चमकत जाय

सरपट सरपट घोडे भागे, दुर्गे भई असवार

तरी नाना………..

वाचक स्वर- ये लोकगीत मंडला, नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह, छिंदवाडा, बिलासपुर, आदि अंचलो मे लोक शैली मे गाये जाते है इन्हें सैला गीत कहते है।

वाचक स्त्री कण्ठ- रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालींजर मे हुआ था . उनके पिता कीरत सिंह चन्देल वंशीय क्षत्रिय शासक थे। इनकी मां का नाम कमलावती था। सन् 1540 में गढ मंडला के राजकुमार दलपतिशाह ने गंधर्व विवाह कर दुर्गावती  का वरण किया था। 1548 मे महाराज दलपतिशाह के निधन से रानी ने दुखद वैधव्य झेला। तब उनका पुत्र वीरनारायण केवल 3 वर्ष का था। उसे राजगद्दी पर बैठाकर  रानी ने उसकी ओर से कई  वर्षो तक कुशल राज्य संचालन किया।

वाचक पुरूष स्वर (2)- आइने अकबरी मे अबुल फजल ने लिखा है कि रानी दुर्गावती के शासन काल मे प्रजा इतनी संपन्न थी कि लगान का भुगतान प्रजा स्वर्ण मुद्राओ और हाथियो के रूप मे करती थी।

चीकू- पापा। मुझे तो लगता है, शायद यही संपन्नता, मुगल राजाओ को गौड राज्य पर आक्रमण का कारण बनी।

चीना- अरे खूब चीकू, तुम तो बडे चतुर बन गये।

पापा- हां बच्चे, तुम बिल्कुल सही हो लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि अकबर ने विधवा रानी पर हमला कर, सब कुछ पाकर भी कलंक ही पाया, जबकि रानी ने अपनी वीरता से सब कुछ खोकर भी इतिहास मे अमर कीर्ति अर्जित की।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #2 – कहाँ गया बचपन ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता  “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ कहां गया बचपन ☆

 

खबरदार होशियार

खुशनसीब बचपन।

ये जहर उगलते

मीडिया में बचपन।

 

ऊंगलियों में कैद

हो गया है बचपन।

हताशा और निराशा

में लिपटा है बचपन।

 

गिल्ली न डण्डा

न कन्चे का बचपन।

फेसबुक की आंधी

में डूबा है बचपन।

 

वाटसअप ने उल्लू

बनाया रे बचपन।

चीन के मंजे से

घायल है बचपन।

 

खांसी और सरदी

का हो गया बचपन।

कबड्डी खोखो को

भूल गया बचपन।

 

सुनो तो  कहीं से

बुला दो वो बचपन।

मिले तो आनलाइन

भेज दो वो बचपन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #5 – जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   पाँचवी कड़ी में प्रस्तुत है “जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-5 ☆

☆ जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆

स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. जीवन में सात्विकता का महत्व निर्विवाद है.संस्कारों व विचारो में पवित्रता मन से आती है, मन में शुचिता भोजन से आती है.इसीलिये निरामिष भोजन का महत्व है. बाबा रामदेव ने भी फलाहार तथा शाक सब्जियों के रस को जीवन शैली में अपनाने हेतु अभियान चला रखा है. किन्तु पिछले दिनों सी एस आई आर दिल्ली के एक वैज्ञानिक की लौकी के रस के सेवन से ही मृत्यु हो गई. लौकी के उत्पादन को व्यवसायिक रूप से बढ़ाने के लिये लौकी के फलों में प्रतिबंधित आक्सीटोन के हारमोनल इंजेक्शन लगाया जा रहे हैं.

कम से कम समय में फसलों के अधिकाधिक उत्पादन हेतु रासायनिक खाद का बहुतायत से उपयोग हो रहा है, फसल को कीड़ों के संभावित प्रकोप से बचाने के लिये रासायनिक छिड़काव किया जा रहा है. विशेषज्ञों की निगरानी के बिना किसानो के द्वारा जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये व किसी भी तरह फसल से अधिकाधिक आर्थिक लाभ कमाने के लिये आधुनिकतम अनुसंधानो का मनमानी तरीके से प्रयोग किया जा रहा है. इस सब का दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि पौधों की शिराओ से जो जीवन दायी शक्ति फल, सब्जियों, अन्न में पहुंचनी चाहिये, उसमें नैसर्गिकता का अभाव है,हरित उत्पादनो में रासयनिक उपस्थिति आवश्यकता से बहुत अधिक हो रही है. यही नही खेतों की जमीन में तथा बरसात के जरिये पानी में घुलकर ये रसायन नदी नालों के पानी को भी प्रदूषित कर रहे हैं.

यातायात की सुविधायें बढ़ी हैं, जिसके चलते काश्मीर के सेव, रत्नागिरी के आम, या भुसावल के केले सारे देश में खाये जा रहे हैं,यही नही विदेशों से भी फल सब्जी का आयात व निर्यात हो रहा है. इस परिवहन में लगने वाले समय में फल सब्जियां खराब न हो जावें इसलिये उन्हें सुरक्षित रखने के लिये भी रसायनो का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है.

विक्रेता भी फल व सब्जियां ताजी दिखें इसलिये उन्हें रंगने से नही चूक रहे, फल व सब्जियों की प्राकृतिक चमक तो इस लंबे परिवहन में लगे समय से समाप्त हो जाती है किन्तु उन्हें वैसा दिखाने हेतु क्लोरोफार्म जैसे रसायनो का उपयोग किया जा रहा है. व्यवसायिक लाभ के लिये आम आदि, कच्चे फलों को जल्दी पकाने के लिये कार्बाइड का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है. इथेफान नामक रसायन से केले समय से पहले पकाये जा रहे हैं.

जनसामान्य का नैतिक स्तर इतना गिर चुका है कि केवल धनार्जन के उद्देश्य की पूर्ति हेतु अप्रत्यक्ष रूप से यह जो रासायनिक जहर शनैः शनैः हम तक पहुंच रहा है उसके लिये किसी के मन में कोई अपराधबोध नहीं है. सरकार इतनी पंगु है कि उसका किसी तरह कोई नियंत्रण इस सारी कुत्सित व्यवस्था पर नहीं है. आबादी बढ़ रही है, येन केन प्रकारेण इस बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु हम उत्पादन बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे हुये हैं, किसी को भी इस प्रदूषण के दूरगामी परिणामों की कोई चिंता नहीं है, व्यवस्थायें कुछ ऐसी हैं कि हम बस आज में जीने पर विवश हे.

आर्गेनिक उत्पाद के नाम पर जो लोग नैसर्गिक तरीको से उत्पादित फल व सब्जियां बाजार में लेकर आ रहे हैं वे भी लोगों की इस भावना का अवांछित नगदीकरण ही कर रहे हैं.कथित नैसर्गिक उत्पादो के मूल्य नियंत्रण हेतु कोई व्यवस्था नही है, आर्गेनिक उत्पाद का उपयोग अभिजात्य वर्ग के बीच स्टेटस सिंबाल हो चला है.

बीटी बैगन का मसला

पहली जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसल बीटी बैगन के जरिए पैदा हुए विवाद ने ऐसी फसल के बारे में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाये हैं. देश विदेश में अनेक कृषि अनुसंधान हो रहे हैं, जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसलें बनाई जा रही हैं. बीटी बैगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया है. बीटी बैगन में मिट्टी में पाया जाने वाला “क्राई 1 एसी” नामक जीन डाला गया है, इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन से बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले फ्रूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाएंगे. दरअसल, बीटी बैगन को लेकर आशकाएं कम नहीं हैं. सामान्यतया एक ही फसल की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती हैं लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी अन्य पौधे या जंतु का जीन का किसी पौधे या जीव में प्रवेश कराया जाता है जैसे सूअर का जीन मक्का में, इसी कारण यह उपलब्धि संदिग्ध व विवादास्पद बन गई है. बिना किसी जल्दबाजी या अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के बहुत समझदारी से विशेषज्ञों की राय के अनुसार इस मसले पर निर्णय लिये जाने की जरूरत है.

जैविक खेती ही एक मात्र समाधान

आखिर इस समस्या का निदान क्या है ? भारत की परंपरागत धरती पोषण की नीति को अपनाकर गोबर, गोमूत्र और पत्ते की जैविक खाद के प्रयोग को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. हम भूलें नहीं कि भारत की लंबी संस्कृति लाखों साल की जानी-मानी परखी हुई परंपरा है. इससे धरती की उपजाऊ शक्ति कभी कम नहीं हुई. पिछले कुछ हीं दशकों में रासायनिक खाद का प्रचार-प्रसार किया गया और इसका आयात अंधाधुंध ढंग से हुआ. यदि हम इसी वर्तमान नीति पर चलते रहे तो भारत की खेती का वही हाल होगा जो आज चीन की खेती का हो रहा है. जैविक खेती करने के लिए किसानो को गायों का पालन करना होगा ताकि खेत में ही गोबर और गोमूत्र की उपलब्धि हो सके जिससे जैविक खाद बनाई जावे. महात्मा गांधी की ग्राम स्वायत्तता की परिकल्पना आज भी प्रासंगिक बनी हुई है. “है अपना हिंदुस्तान कहाँ वह बसा हमारे गाँवों में”.. भारत का प्रमुख उद्योग कृषि ही है, अतः देश व समाज के दीर्घकालिक हित में सरकार को तथा स्वयं सेवी संस्थानो को जनजागरण अभियान चलाकर भावी पीढ़ी के लिये इस दिशा में यथाशीघ्र निर्णायक कदम उठाने की जरूरत है.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-5 – आयुष्य साधकाचे ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण रचना “आयुष्य साधकाचे”।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-5 ? 

 

☆ आयुष्य साधकाचे ☆

 

वृत्त आनंदकंद

लगावली-  गागाल गालगागा गागाल गालगागा

 

आयुष्य साधकाचे भोगी जगून गेले।

साधुत्व मात्र त्यांचे पुरते मरून गेले।

 

लावून सापळ्याला कोणी हलाल केले।

हा खेळ मुखवट्यांचा खोटे तरून गेले।

 

लावून गोपिचंदन माळा गळ्यात शोभे।

फसवून ते जगाला साधू बनून गेले।

 

डोळे मिटून असती बगळे अखंड ध्यानी।

मत्स्यास का कळेना अलगद फसून गेले।

 

सोडून लाज सारी तत्वास मोडले पण।

शिरपेच  लाटताना डोके झुकून गेला।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – काव्य संग्रह ☆ विजय पर्व ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते – (समीक्षक –श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे)

काव्य संग्रह  – प्रकाश पर्व – कविराज विजय यशवंत सातपुते

सामाजिक जाणिवा जपणारे….विजयी प्रकाश पर्व 

कविता ही आभाळाऐवढी विस्तीर्ण असते आणि कवी मोठ्या लकबिने वेदना काळजाशी बाळगत आभाळा एवढ्या कवितेलाच आपल्या सहृदयी कवेत घेतो.

हे कविचं की कवितेचं मोठेपण…हे न उलगडणारं कोडं..!! मात्र  तरीही शेवटी या कवितेचा जन्मदाता हा कवीच् असल्याने तो थोरचं..!!

अनेक कवींच्या….नेक कविता बऱ्याच वेळेला सामान्य वाचकांच्या काळजाला हात घालतात..नव्हे नव्हे तर, समाजभान जागवून प्रबोधनाच्या क्रांतीची मशाल पेटवतात.आणि त्यातीलच एका जिंदादिल कवीची ही कविता …!!

आजकालच्या धकाधकीच्या जीवनात स्पर्धात्मक आयुष्य जगताना पैसा आणि भौतिक सुख याचेच राज्य वाढत चालले आहे. या उपभोगिकरणाच्या मायाजालात आयुष्याचे सार मोजले जात असताना, कवितेत आपलं सर्वस्व ओतणारा आणि या कवितांनाच्, जीवनाचे सार मानून नव्या उमेदीने विचार भावनेतून विश्वात्मक होणारा एक जिंदादिलं कवी.. की ज्याच्या नावातच विजय आहे. या विजयाच्या हर्षात्मक विचार -स्पर्शाने मराठी साहित्याच्या दशदिशा आसमंत उजळवणारा लेखक..कवी…साहित्यिक,नव्हे..नव्हे तर याच्या पलीकडे जाऊन अनेकांच्या हृदयात..समाजात  मानवतेचा दीप प्रकाशमय ठेवणारा खराखुरा  प्रबोधनाचा प्रकाश आणि त्या प्रकाशाचं अखंड प्रकाशमय राहणार पर्व म्हणजे प्रकाशपर्व –  उर्फ – कविराज विजय यशवंत सातपुते…!!!

प्रकाशपर्व हा विजयजींचा तिसरा  काव्य संग्रह होय.अक्षरलेणी हा त्यांचा पहिला काव्यसंग्रह.

समीक्षक – श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

त्याचा दोन  आवृत्ती प्रकाशित झाल्या.  अजुन देखील काव्य रसिकांच्या मनावर या दोन्ही  आवृत्ती  राज्य करत आहे.  कवितेशीच खऱ्या अर्थाने संसार करणाऱ्या या अवलियाने मराठी साहित्यातील कविता जिवंत ठेवण्यात योगदान दिले आहे, यात शंकाच नाही. प्रकाशपर्व दुसऱ्या काव्यसंग्रहात कविराज विजय सातपुते समाजातील वास्तव टिपणाऱ्या सच्च्या माणसांना म्हणजेच सर्व कवींना व या जगातून निरोप घेवून गेलेल्या आपल्या लहान बहिणीच्या आठवणीत गहीवरताना अंतरात अस्वस्थ करणारी वेदना आणि यातून काळजावर घाव घालणारी कविता म्हणजे फक्त स्वतःच्या आयुष्याचे सार नव्हे तर या कवीचं सर्वस्वच भावार्पण म्हणून अर्पण करतो. . . हे सगळं पाहत  असताना  कवीच्या विशाल हृदयात स्पंदणारी कविता किती दुःखं झेलत असेल …? किती  यातना पचवत असेल…?  हे सांगण अवघड आहे. फाटलेल्या आयुष्यात माणसांना जोडत जगणं सांधण्याची विजयजींची  भूमिका अचंबित करणारीच आहे. म्हणून प्रकाश पर्व या काव्यसंग्रहातील प्रत्येक कविता मनाला स्पर्शून जाते. कवितेतील व्यथा आपलीच असल्याची ठळकपणे जाणीव होते आणि मग वाचक कवितेच्या प्रेमात पडल्याशिवाय राहत नाही….इतकं काही लपलय त्यांच्या कवितेत.

एक भावार्पण

अंतरीच्या अंधारात

घुसमटणाऱ्या

त्या प्रकाशपर्वा साठी..!

मनाच्या अंतरीच्या अंधारात बहिणीच्या आठवणीमुळे होणारी उलघाल या कविस किती जाळत असावी आणि त्या ममतेच्या वेदना पचविण्याची ही कवीची धडपड..त्यातूनच जन्मास येणार प्रकाशपर्व …सर्व काही अनाकलनीय..!!!

आज खऱ्या अर्थाने  समाजात मानवतेच्या आणि सर्जनशील विचारांची देवाण घेवाण करण्याची निर्माण झालेली गरज ओळखून आपल्या अतिशय खास अशा शैलीत कविराज कवितेतून सामाजिक वैचारिक प्रबोधन करत राहतात. याच माध्यमातून आपल्या सर्जनशील विचारांची देवाण घेवाण करताना कवी म्हणतो..

” लेक माझी सासुराला

आज आहे जायची

एक कविता द्यायची

एक कविता घ्यायची”

जाती,धर्म,विद्वेष,अंधश्रद्धा यांना सुरंग लावत कविराजांची लेखणी माणुसकीचा महिमा गाते. माणूस म्हणून जगताना, माणसांबरोबर राहताना ,सुखदुःखाची देवाण घेवाण करताना हा कवी स्वतःचं अस्तित्व शोधत राहिला आणि कवितेनेच यांच्या जगण्याचा यक्षप्रश्न सोडविला आहे. मात्र हे सर्व करत असताना गर्व, प्रसिद्धी, प्रतिभा ,पुरस्कार,सन्मान या मोहमायांचा छेद करत करत हा कवी आणि त्यांची कविता ही फक्त लोकाभिमुख करीत राहिला. साहित्य शारदेची  अखंड सेवा करण्यातच  ही लेखणी आत्ममग्न झालेली आहे. अस सर्व सदृश्य वास्तव.

ही आपली भावना सांगताना कवी म्हणतो –

 “नुरला तो गर्व…आणि उदयास आले प्रकाशपर्व”

“उजेडाच्या गावा जाऊ ..ज्योत क्रांतीची घेवू” या प्रकाशपर्व नावाच्या पहिल्याच कवितेतून व्यक्त होताना राजकीय..धार्मिक..जातीय पक्षांचे झेंडे गाडत समतेची गुढी उभारण्यासाठी आणि ज्ञानाचा प्रकाश दारोदार पोहोचवण्यासाठी कवीची लेखणी सतत तळपत राहते.अशावेळी हा कवी सामाजिक मर्मावर बोट ठेवत स्वतःला यासाठी सर्वप्रथम बदलण्याचं व विवेकी होण्यासाठी आवाहन करतो.अनिष्ट रूढी,प्रथा,कथा,अंधश्रद्धा, अघोरी कृत्ये यांना खोडत व सत्य असत्याची चिकित्सा करत न्यायाची पताका उरी बाळगून क्रांतीला सुरुवात करणारी कविता… हेच कविराज  विजय सातपुते यांच्या कवितेचे खास वैशिष्ट आहे.

साऊ,राजर्षी, शंभूराजा या व्यक्ती चारित्रांवरच्या त्यांच्या खऱ्या इतिहासाची .. योगदानाची… परिवर्तनाची साक्ष देणाऱ्या कवितांचा महिमा हा केवळ अगाधच आहे.  क्रांतिज्योतीची गौरव गाथा आपल्या  कवितेतून  गाताना कवी म्हणतो की,

“समाज नारी साक्षर करण्या

झटली माता साऊ रे..

क्रांतिज्योती ची गौरव गाथा

खुल्या दिलाने गाऊ रे..!”

बुद्धाचा मध्यम मार्ग ते भारतीय संविधान याद्वारे   समतेचा मार्ग सांगत असतानाच बाबासाहेबांना अभिवादन करताना कवी म्हणतो की –

“हे भिमराया गाऊ किती रे

तुझ्या यशाचे गान

जगण्यासाठी दिले आम्हाला

अभिनव संविधान..!!”

प्रकाशपर्व या कवी विजय यांच्या काव्यसंग्रहात विविध विषयांच्या चौफेर उधळणाऱ्या ,कधी विद्रोह करणाऱ्या ,प्रेमाच्या,नात्याच्या,मातेच्या, क्रांतीच्या, अभिवादनाच्या, स्वातंत्र्याच्या, भुकेच्या, परिवर्तनाच्या, बहुजनांच्या..सत्याच्या सर्वच कविता वाचकाला मंत्रमुग्ध करतात.एकाच शैलीत व्यक्त न होता, विविध प्रकारात कविता मांडण्याची शैली हे यांच्या कवितेचं वेगळेपण आहे.फक्त लिखाणातूनच नव्हे तर वास्तविक तशाच पद्धतीचं जीनं  हा माणूस चौफेर जगतो यामुळे  फक्त कवितेचीचं नाही तर कवीच्या जगण्याचीच उंची वाढली आहे.असा हा प्रतिभा संपन्न कवी…उत्तरोत्तर अष्टपैलू बनत जातो.

पुरस्कारांच्या पलीकडची मराठी साहित्य शारदेची सेवा कवीला अजुन खुणावत राहो.. त्यांच्याकडून साहित्याची आजन्म सेवा व्हावी आणि वसंत बापट यांनी कवी विजय यांना दिलेली ‘कविराज’ ही पदवी दिवसेंदिवस साहित्य सौंदर्याने झळकत राहो हीच सदिच्छा.

प्रतिभावंतांसाठी बहुत काय लिहणे..!!

 

समीक्षक – कवी विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

मु/पो-वेळू(पाणी फाउंडेशन), तालुका-कोरेगाव, जिल्हा-सातारा 415511

मोबाइल-7743884307  ईमेल – [email protected]

 

(तळटीप – बुकगंगा. कॉम वर  कविराज विजय यशवंत सातपुते यांचा “प्रकाशपर्व” हा काव्यसंग्रह  सवलतीच्या दरात विक्रीस उपलब्ध आहे तरी रसिकांनी याचा लाभ घ्यावा.  तसेच 7743884307 या नंबर वर संपर्क करून हा “प्रकाशपर्व” काव्यसंग्रह आपण घरपोच मिळवू शकता.)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Meditation for Beginners ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Meditation for Beginners

Let us begin by watching this video:

HOW to do LAUGHTER MEDITATION

 

Laughter Meditation

Have you ever had the experience of laughter meditation?

It is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have. But you have to experience it yourself. It is a mystery. It cannot be told in words by anyone to you.

When you laugh, you forget the past. You can’t bother about the future. And, you are oblivious of the surroundings. Laughter starts to flow like a fountain. There is no laugher, it’s only laughter. The laugher mingles with laughter and they become one. It is something Divine. It is pure and pristine bliss. The mind becomes serene and radiant like the full moon.

I have got my deepest fulfilment while conducting laughter meditation. The participants feel cathartic and fully liberated. All the pain and agony has gone. It feels so good and light. There is no trace of physical, mental or emotional stress anywhere near. Every molecule of the universe is tranquil. All the blockages are cleared. Consciousness flows happily and freely. You become a part of the joyous cosmic dance. A Sufi inside you starts singing the most enchanting melodies.

Laughter opens a beautiful door to transcendence.
Laughter meditation is a state of no mind. Complete mindlessness. But it is total existence. You have a feel of totality for the first time. It is a paradise that you can create on your own. Anytime, anywhere.

According to Dr Madan Kataria, the founder of laughter yoga, “Laughter meditation is the purest kind of laughter and a very cathartic experience that opens up the layers of your subconscious mind and you will experience laughter from deep within.”

In some of the Zen monasteries, every monk has to start his morning with laughter, and has to end his night with laughter – the first and the last thing every day. Says Osho, “If you become silent after your laughter, one day you will feel God also laughing, you will hear the whole existence laughing – trees and stones and stars with you!”

I recommend laughter meditation for all those who face a lot of stress at the workplace. It is also beneficial for students and homemakers.

 

LAUGHTER MEDITATION SEQUENCE

GENTLE WARM UP – hoho haha

PENDULUM BREATHING – aaa ha ha haaa

VOWEL BREATHING & LAUGHTER – a e i o u

ALOHA BREATHING & LAUGHTER – alo o o ha ha haaaa

GIBBERISH

LAUGHTER MEDITATION

HUMMING – hummm

CLOSING RITUAL – hoho haha (4 times), aa hahahaaa (3 times)

Jagat Singh Bisht  and Smt. Radhika Bisht 

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (43) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

 

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌।।43।।

 

अतः बुद्धि से श्रेष्ठ समझकर आत्मा को अपने बल से

अर्जुन!दुर्जय काम शत्रु का हनन करो श्रम निश्चल से।।43।।

 

भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥

 

Thus, knowing Him who is superior to the intellect and restraining the self by the Self, slay thou, O mighty-armed Arjuna, the enemy in the form of desire, hard to conquer! ।।43।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 5 – दो पिताओं की कथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको  यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 5 ☆

 

☆ दो पिताओं की कथा☆

 

कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।

बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।

रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’

रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’

समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।

यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये,  हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’

वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #2 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

( “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  द्वितीय  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 2 ☆

 

मनुष्य चंचलमना है। एक काम निरंतर नहीं कर सकता। उत्सवधर्मी तो होना चाहता है पर उत्सव भी रोज मना नहीं पाता।

वस्तुतः वासना अल्पजीवी है। उपासना शाश्वत है। कुछ क्षण, कुछ घंटे, कुछ दिन, महीने या धन की हो तो जीवन का एक कालखंड, इससे अधिक नहीं ठहर पाती मनुष्य की वासना। उपासना जन्म-जन्मांतर तक चल सकती है।

उपासना अर्थात धूनि रमाना भर नहीं है। सच्ची धूनि रमाना बहुत बड़ी बात है, हर किसीके बस की नहीं।

उपासक होने का अर्थ है-जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हो अथवा जिस कर्म के प्रति रुचि है, उसमे डूब जाओ, उसके लिए समर्पित हो जाओ। अपने क्षेत्र में अनुसंधान करो। उसमें नया और नया तलाशो, उसे अधिक और अधिक आनंददायी करने का मार्ग ढूँढ़ो।

हमारी हाउसिंग सोसायटी में हर घर से कूड़ा एकत्र कर सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने का काम करनेवाला स्वच्छताकर्मी अपने साथ गत्ते के टुकड़े लेकर चलता है। डस्टबिन में नीचे गत्ता या मोटा कागज़ लगाता है। कुछ दिनों में कचरे से गत्ता या कागज़ जब गल जाता है, उसे बदलता है। यह उसके निर्धारित काम का हिस्सा नहीं है पर धूनि ऐसे भी रमाई जाती है।

उपासना ध्यानस्थ करती है। ध्यान आत्मसाक्षात्कार कराता है। स्वयं से साक्षात्कार परिष्कार करता है। परिष्कार चिंतन को दिशा देता है। चिंतन, चेतना में रूपांतरित होता है। चेतना, दिव्यता का आविष्कार करती है। दिव्यता जीवन को सच्चे उत्सव में बदलती है। साँस-साँस उत्सव मनाने लगता है मनुष्य।

आज संकल्प करो, न करो। बस उपासना के पथ पर डग भरो। आवश्यक नहीं कि इस जन्म में उत्सव तक पहुँचो ही। पर जो राह उत्सव तक ले जाए, उस पर पाँव रखना क्या किसी उत्सव से कम है?

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे 
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जीवन-यात्रा – ☆ ‘पूर्ण विनाशक’ तक की जीवन यात्रा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी उतार चढ़ाव भरी रहस्यमयी  जीवन यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।  उनके साहित्य पर उनके जीवन का प्रभाव  स्पष्ट दिखाई पड़ता है।  श्री आशीष कुमार की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक  ‘पूर्ण विनाशक’  पढ़ने के पूर्व  एक बार उनकी जीवन यात्रा  अवश्य पढ़ें। श्री आशीष जी की जीवन यात्रा किसी रहस्यमय  उपन्यासिका से कम नहीं है। )

 

मेरा जन्म 18 सितंबर 1980 को एक छोटे पवित्र शहर हरिद्वार के मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था । एक परिवार में, जो जानता है कि जीवन का अर्थ है दूसरों की मदद करना और जितना हो सके उतना सरल जीवन जीना । मेरे पिता ने PSU, BHEL में काम किया । मैंने अपनी बुनियादी शिक्षा पब्लिक स्कूलों से की, जिनकी मासिक फीस 10 रुपये के आसपास होती थी । मेरे पिता एक मेहनती व्यक्ति हैं और उन्होंने हमारी स्थिति से परे अपने बच्चों को हर संभव विलासिता प्रदान की । मुझे बचपन से ही विज्ञान के प्रति रुचि थी। रात में, मैं ब्रह्मांड के रहस्य को समझने के लिए घंटों आकाश की ओर देखता था । मुझे स्कूल के बाद खुद से भौतिकी और रसायन विज्ञान के प्रयोग करना पसंद था । जिसमें से मैं केवल 50 प्रतिशत प्रयोग ही सही ढंग से कर पाता था ।

बचपन से ही मेरा दूसरा प्यार हिंदू पौराणिक कथाएँ और दर्शन थे । यहां तक ​​कि मैं उस समय उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता था लेकिन उन्होंने मुझे आकर्षित किया । इसका अर्थ है कि मेरा दिमाग सामाजिक जीवन के दो चरम ध्रुवीकरणों के बीच झूलता रहता था । उस समय मैं हमेशा आश्चर्य में रहा कि दोनों मार्ग एक दूसरे के इतना विपरीत क्यों दिखते हैं ।

मैंने भेल हरिद्वार के एक पब्लिक स्कूल से वर्ष 1998 में 12 वीं की है । 12 वीं के बाद मैंने भारत में उच्च प्रौद्योगिकी के IIT और इसी तरह के कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए एक साल का ब्रेक लेने का फैसला किया ।

अगर मैं पीछे मुड़कर देखूं तो मेरे जीवन के फुट प्रिंट आसानी से देखे जा सकते हैं कि 12 वीं तक मेरा जीवन एक बेचैन दिमाग वाला व्यक्तित्व था जो बहुत भाग्यशाली था । हां, मैं अपनी किशोरावस्था तक बहुत भाग्यशाली व्यक्ति था, और मेरे चाहने से पहले ही मुझे सब कुछ मिल जाता था । मुझे पूरा यकीन था कि मैं IIT की प्रवेश परीक्षा पास करूंगा । यहां तक ​​कि मेरे शिक्षक भी इस बारे में बहुत आश्वस्त थे । मैं रातों की नींद हराम करके IIT की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था ।

फरवरी 1999 के अंत में, अचानक मैं बीमार पड़ जाता हूं और मेरा शरीर बुखार से पीड़ित होने लगता है । पास के चिकित्सक के साथ प्राथमिक परामर्श के बाद भी मुझे राहत नहीं मिली । इसलिए आखिरकार मुझे भेल के अस्पताल में भर्ती कराया गया । रोगियों के उस डोरमेट्री हॉल में, मैंने मृत्यु को बहुत करीब से देखा और मनाया है । हर 3 या 4 दिनों में मेरे डॉरमेटरी हॉल के एक मरीज की मृत्यु हो जाती थी । कुछ लोग विशाल दर्द के साथ मर जाते हैं और कुछ लोग शांति से । एक रात जब मेरे पिता उस स्थिति में मेरी मदद करने के लिए वहां रह रहे थे, तो मैंने देखा कि रात के 2:00 बजे के आसपास मेरे बगल के एक मरीज ने बहुत अजीब तरह से बात करना शुरू कर दिया है और मैं जल्द ही नींद से जाग गया और मैंने देखा कि उस मरीज का शरीर कांपने लगा है और फिर वह एक तरफ गिर पड़ता है । मुझे उस समय बहुत डर लग रहा था । फिर मेरे पिता ने वार्ड बॉय और नर्स को बुलाया ।

 

प्रत्येक बीतते दिनों के साथ मेरा स्वास्थ्य खराब होता जा रहा था । अस्पताल में 10 दिनों के बाद, मैं अपने आप को एक स्थान से दूसरे में स्थानांतरित करने में असमर्थ था क्योंकि मेरे अंगों के जोड़ों में भारी दर्द महसूस हो रहा था । मेरा वजन कम हो गया और लगभग 40 किलो रह गया । हां, 19 साल के लड़के के लिए 40 किलो वजन है, जिसकी ऊंचाई लगभग 5 फीट 11 इंच हो । मेरे पिता मुझे वॉशरूम ले जाने के लिए व्हील चेयर का इस्तेमाल करते थे । हर दिन मेरी स्थिति और ज्यादा खराब होती जा रही थी । मेरे शरीर की दिनचर्या कुछ इस तरह की थी कि हर सुबह 5:00 बजे के आसपास बुखार मेरे शरीर पर कब्जा करना शुरू कर देता था, फिर डॉक्टर मेरे शरीर में कुछ दवा का इंजेक्शन लगाते थे, जो लगभग दो घंटे तक बुखार के प्रभाव को दूर रखता था । और दो घंटो के बाद बुखार फिर से मेरे शरीर पर कब्जा करने लगता था । मैं अपने हाथो और पैरो को हिलने डुलाने में असमर्थ हो गया था । हर दिन मेरे रिश्तेदार मुझे अस्पताल में देखने आते थे । मेरे परिवार के सदस्य बहुत चिंतित थे । अब मुझे अस्पताल में भर्ती हुए लगभग 17 दिन हो गए थे लगने लगा था कि मैं हर गुजरते पल के साथ खुद को मरता हुआ देख रहा हूँ । 19 वें दिन डॉक्टर ने मेरे पिता से कहा कि अब क्षमा करें, हम कुछ नहीं कर सकते है । आप चाहें तो अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं। उस समय, मेरे पिता ने डॉक्टरों से अनुरोध किया था कि वे मुझे दिल्ली में अपने सहयोगी अस्पताल में रेफर करें। अगले दिन भेल हरिद्वार अस्पताल में 21 दिन रुकने के बाद मुझे सबसे खराब स्थिति में दिल्ली जाना है । उस रात जब मैं उस अस्पताल के हॉल को छोड़ रहा था जहाँ मैं नियमित रूप से मृत्यु देख रहा था, मेरी भावनाएँ पूरी तरह से बदल गई थीं । मुझे लग रहा था कि यह मेरे छोटे से जीवन का अंत है । जिसमें मैंने कुछ अनोखा या विशेष या कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे कि लोग एक अच्छे व्यक्ति के रूप में मेरा नाम याद रखें ।

उस रात मेरा घर लोगों से भरा था । अगली सुबह हम एक टैक्सी से दिल्ली गए मेरे पिता, मेरे बड़े भाई, एक चचेरे भाई, और एक चाचा मेरे साथ दिल्ली गए । हरिद्वार से दिल्ली तक पूरे 6 से 7 घंटे के सफर में मैं भगवान से कह रहा था कि अगर मैं इस बीमारी के कारण नहीं मरूंगा, तो मैं दूसरों के लिए अपना जीवन जीऊंगा ।

दिल्ली के अस्पताल में भी, मैं लगभग 21 दिन रहा । उन 21 दिनों में, मैंने प्रतिदिन लगभग 5-6 इंजेक्शन, 25-30 गोलियां लीं और अस्पताल वाले विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के लिए रोजाना मेरा 30 मिली खून चूसते थे । मैंने वहां हर संभव दर्द का सामना किया है । उन्होंने अप्रैल 1999 के अंत में मुझे छुट्टी दे दी और मुझे लगभग 2 महीने तक बिस्तर पर आराम करने का सुझाव दिया ।

जब मैं दिल्ली से अपने घर लौटा तो सभी प्रवेश परीक्षाओं की तारीख पहले ही निकल चुकी थी । मैं अपने अध्ययन कक्ष में गया और अपने अध्ययन की पुस्तकों पर मकड़ी के जाले देखे । मैं उस अलमारी के पास गया और जब मैंने अपनी किताबें देखीं तो मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे ।

किसी भी तरह से दिन गुजर रहे थे और वह वर्ष 1999 में दिसंबर का महीना था । मैं पूरी तरह से शारीरिक रूप से ठीक हो गया था और फिर मैंने अगले साल 2000 में केवल यूपी इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा देने का फैसला किया ।

 

मुझे इसमें अच्छा रैंक मिला और फिर मैंने बरेली यूपी के इंजीनियरिंग कॉलेज की सूचना प्रौद्योगिकी शाखा में प्रवेश लिया । बी.टेक के अपने चार वर्षों के दौरान मैं ज्यादातर समय खोया रहा । अन्य सभी छात्रों की सोच मुझसे बहुत अलग थी । उन चार सालों में भी, मुझे कई बार शारीरिक रूप से पीड़ित होना पड़ा । अध्ययन में, मेरे इंजीनियरिंग के पूरे आठ सेमेस्टर मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण थे । सभी विषयों में, मैं औसत था और किसी तरह सिर्फ औसत अंक प्राप्त करने का प्रबंधन करता था, लेकिन प्रत्येक सेमेस्टर में, मैं एक विषय में टॉपर रहा वो भी पूरे यू पी में और मैंने उस विषय पर पूरे सेमेस्टर में गहन शोध किया । वर्ष 2004 में मैं एक भ्रमित स्नातक था ।

मैं हरिद्वार में अपने घर लौटता हूं और मुझे नौकरी की चिंता नहीं थी, जैसे की मेरे कॉलेज के सभी छात्रों को थी । पूरा 2004 साल बीत गया और मैं अपने घर पर कुछ नहीं कर रहा था । अगस्त 2005 में मैं कंप्यूटिंग में अग्रिम प्रोग्रामिंग सीखने के लिए, सी-डैक में शामिल हो गया । अध्यन केंद्र दक्षिण दिल्ली में था ।

हमारे C-DAC पाठ्यक्रम के छह महीनों में मेरी B.Tech अवधि के विपरीत मैंने कंप्यूटर तकनीकों, सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग आदि के विषय में बहुत अध्ययन किया और सीखा और मैंने उस सीखने का आनंद भी लिया । उस दौरान, मैं बहुत कम सोता था और मेरी पूरी एकाग्रता मेरे सीखने पर थी ।

फरवरी 2006 में हमारे पूरे बैच के छात्र जो परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे, वे सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम में बैठने के पात्र थे, जो पुणे शहर में C-DAC द्वारा आयोजित किया गया था । पूरे भारत में सभी C-DAC केंद्रों के सभी छात्र सामान्य प्लेसमेंट के लिए उपस्थित थे । उन्होंने प्रत्येक उम्मीदवारों को आई टी कंपनियों के प्लेसमेंट कार्यक्रमों में बैठने के लिए दस मौके दिए थे । सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम की शुरुआत से एक दिन पहले, उन्होंने सभी छात्रों के लिए एक आई कार्ड जारी किया और आई कार्ड के सत्यापन के बाद कोई भी छात्र विभिन्न कंपनियों के लिए सामान्य प्लेसमेंट दौर में भाग ले सकता था ।

उन्होंने विभिन्न सी-डैक केंद्रों के लिए संख्याओं की एक श्रृंखला निर्धारित की । हमारी C-DAC केंद्र संख्या श्रृंखला 100+ से बताई गई थी जिसका अर्थ है कि हमारे दिल्ली C-DAC केंद्र के लिए छात्र की क्रमांक संख्या 102,103 … .etc जैसी थी । इसी तरह हैदराबाद सी-डैक सेंटर के लिए 201, 202… . आदि आदि अन्यो के लिए भी ।

प्लेसमेंट शुरू होने से एक रात पहले, हमारे C-DAC केंद्र समन्वयक ने I-Cards वितरित किये । मेरे नाम का आई-कार्ड जारी नहीं किया गया । जब मैंने उनसे पूछा । तब उन्होंने पुष्टि की कि कुछ गलती के कारण मेरा आई कार्ड नहीं बनेगा और अगले दिन बनाया जाएगा । अगले दिन उन्होंने मुझे रोल नंबर 1121 का आई कार्ड दिया । पूरे भारत के सभी C-DAC केन्द्रो के छात्रों में से में अकेला था जिसके साथ ये हुआ था। कई कंपनियों के इंटरव्यू में मुझे इसलिए भी नहीं बुलाया गया क्योंकि वे रोल नंबर के अनुसार इंटरव्यू ले रहे थे, पहले 1,2,3… ..100, फिर 101, 102… फिर… .801, …… .1101 इत्यादि । मेरे आई-कार्ड अनुक्रम संख्या आने से पहले ही कई कंपनियों ने उनकी आवश्यकता के अनुसार छात्रों का साक्षात्कार लेकर उन्हें चुन लिया था ।

किसी भी तरह से मैं 10 कंपनियों की भर्ती प्रक्रिया के अलग-अलग दौर में गया । मैं पूरे भारत के सभी सी-डैक केंद्रों में एकमात्र छात्र था जिसने सभी 10 कंपनियों के लिखित चरणों को पास किया । इसके अलावा, मैं एकमात्र छात्र था जिसे अंतिम दौर में किसी कंपनी द्वारा नहीं चुना गया था । हमारा सी-डैक सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम समाप्त हो गया था और मैं अभी भी बेरोजगार था । फिर मैं पुणे और मुंबई की आईटी कंपनियों से संपर्क करने की कोशिश करने लगा । मैं अपना C.V. जमा किसी आईटी कंपनी में जमा करने के लिए पुरे दिन बिना भोजन किया इधर-उधर घूमता रहता था । कुछ कंपनियों में गार्ड मेरा C.V. लेकर रख लेते थे और मुझे वही से वापस जाने को बोल देते थे अन्य कुछ में वो मुझे अंदर जाने देते थे ।

यहां तक ​​कि एक या दो अवसरों पर, मैं लगभग कंपनियों द्वारा चुना जा चूका था, लेकिन मेरा भाग्य अलग था । एक उदाहरण है कि मैंने शुक्रवार को मुंबई में साक्षात्कार दिया और उन्होंने मुझे बताया कि आप चयनित हैं तो अब आपको HR दौर और अन्य औपचारिकताओं के लिए सोमवार को आना पड़ेगा । मैं बहुत खुश था और जैसे ही मैं मुंबई में अपने दोस्त के फ्लैट पर पहुंचा, मेरे पेट में दर्द शुरू हो गया । मेरे दोस्त मुझे अस्पताल ले गए और फिर उन्होंने मुझे अस्पताल में भर्ती कराया । सोमवार को, मुझे उसी कंपनी का फोन आया, जिसके HR चरण के साक्षात्कार के लिए मुझे जाना था । मैं अस्पताल में था और अस्पताल से छुट्टी के बाद डॉक्टर ने मुझे कम से कम दो महीने का बेड रेस्ट करने का सुझाव दिया । कुछ अन्य घटनाएं हैं जिनमें मैं नौकरी पाने के बहुत करीब था लेकिन एक कारण या अन्य के कारण प्रकृति की इच्छा से मुझे नौकरी नहीं मिल सकी ।

कई संघर्षों के बाद, मुझे पुणे में नौकरी मिल गई जहाँ उन्होंने मुझे छह महीने की शुरुआत के लिए पैसे नहीं दिए । मैं बिखरा हुआ था जैसा कि समय हो सकता है । मैं उस समय सोचता था कि मैं बहुत बुद्धिमान और प्रतिभाशाली हूं लेकिन मैं एक छोटी सी नौकरी के लिए पीड़ित था । यही कुंठा मुझे भगवद गीता की ओर मोड़ देती है । भगवद गीता पढ़ने के अलावा उस समय मैंने अपनी भावनाओं को भी पेपर पर उतरना शुरू कर दिया था। । अथार्त मैंने अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी कविताएं और गीत लिखना शुरू कर दिया था। । मैं आईटी जॉब इस तरह से कर रहा था जैसे कि वह मेरे लिए अत्याचार हो और मैं पूरी तरह से उसका आनंद नहीं ले रहा था । इसलिए मैंने वह नौकरी छोड़ दी और कॉपीराइटर के एक पद पर एक ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगा । मुझे वह रचनात्मक क्षेत्र पसंद है । जल्द ही विज्ञापन की वह ग्लैमरस दुनिया मुझे धूल की तरह लग रही थी । मुझे नौकरी का रचनात्मक पक्ष बहुत पसंद आया लेकिन जैसा ही मैंने पेज 3 पार्टियां पर जाना शुरू किया, मुझे उस माहौल की आभा काटने लगी । शुरू में, वह माहौल मेरे लिए काल्पनिक दुनिया जैसा लग रहा था लेकिन कुछ समय बाद मैं सोचने लगा कि इसके बाद क्या है? इसका मतलब है कि मैं सभी संभावित विलासिता को देख रहा था, लेकिन वो माहौल मुझे मुझे सूखी बर्फ की तरह देखा, जो शांत दिखती हैं लेकिन वास्तव में सब कुछ जला सकती हैं । इसलिए, यह मेरा संतृप्ति बिंदु था ।

उसके बाद मैंने वेदों, पुराणों आदि जैसे सभी हिंदू धर्मग्रंथों को पढ़ना शुरू किया । मैंने 4 वेदों, 18 पुराणों, 108 उपनिषदों समेत सभी संभावित उपलब्ध ग्रंथों को पढ़ा, जिनमें भगवद-गीता, रामायण, महाभारत के सभी उपलब्ध संस्करण शामिल हैं । , उप वेद, वास्तु-शास्त्र, ज्योतिष, हस्तरेखा, संगीत, आयुर्वेद, पौराणिक कथा, दर्शन, आगम और बहुत कुछ । आध्यात्मिकता का विषय एक संतुष्ट इच्छा नहीं है । यह ऐसा है, मान लीजिए, आप बहुत प्यासे हैं और पानी की सख्त तलाश कर रहे हैं, कुछ समय बाद आपको पानी मिलता है, लेकिन पीने के बाद आपको पता चलता है कि यह नमकीन पानी था जो आपकी प्यास को पहले से अधिक बढ़ा देता है, कुछ समय बाद, आपको एक और गिलास पानी मिलता है जैसे ही आप पीते हैं, यह पहले की तुलना में अधिक नमकीन था इस तरह से आपकी प्यास कभी भी संतुष्ट नहीं होगी । यह धर्म या अधिक सही ढंग से आध्यात्मिक या धर्म के दार्शनिक भाग के विषय में पूर्ण सत्य है । मैं खुद को खोजने के लिए पूरी तरह से खो गया था ।

मैंने रात में करीब साढ़े ग्यारह बजे ध्यान करना शुरू किया । जो रात्रि 02:00 बजे तक जारी रहता था । मेरे रूममेट सोचते थे कि मैं पागल हो गया हूँ । धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या ने मेरी नौकरी में खलल डालना शुरू कर दिया । मैं पूरी तरह से शास्त्र पढ़ने और उनके व्यावहारिक उपयोग के लिए बाध्य था । इसने मेरे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया । मेरे फ्लैट में, मैं केवल दो काम करता था । शास्त्र पढ़ने और उनके अभ्यास और विभिन्न प्रकार के गैर-मादक पेय बनाने के लिए प्रयोग ।

एक दिन मुझे मुंबई की लोकेशन बोरिवली में एक साझेदारी में कॉफी शॉप खोलने का अवसर मिला । उस दिन मैंने अपनी कॉपी राइटिंग जॉब से इस्तीफा दे दिया । फरवरी 2009 को सभी तैयार थे, एक निर्धारित तारीख पर हमारे कॉफी सह अन्य पेय की दुकान खोलने का फैसला किया गया था । जनवरी 2009 में मैं अपने कॉफी शॉप पार्टनर को बिना बताए अपने गृह नगर हरिद्वार लौट आया । जनवरी 2009 के महीने के अंत में मैं हिमाचल प्रदेश में अपने एकांत समय का आनंद ले रहा था जब मेरा कॉफी शॉप पार्टनर मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा था । मैं अगम्य था । फिर उन्होंने अकेले कॉफी शॉप शुरू की । मेरी आविष्कार की गई कॉफी मेरे साथी का व्यवसाय आज भी बढ़ा रही है क्योकि मैं अपने पार्टनर को अपनी सबसे अच्छी कॉफी के बनाने का तरीका सीखा चुका था ।

जुलाई 2009 में मैं वापस पुणे लौट आया और नौकरी खोजने लगा । मैंने फिर से आईटी क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया । मेरे सभी दोस्त सदमे में थे उन्होंने कहा कि आप आईटी प्रौद्योगिकी से दूर हैं और लगभग एक वर्ष से अधिक समय बीत चुका है । आपको नौकरी कैसे मिलेगी? फिर मुझे IT में ही बहरीन देश में काम मिला ।

21 अगस्त 2009 को मैं बहरीन की धरती पर उतरा । अगले दिन मैं अपने कार्यालय गया जहाँ उन्होंने मुझे मेरा काम समझाया । फिर उन्होंने मुझे तकनीक के विषय में बताया, जिसमें मुझे कोड विकसित करना था लेकिन मैंने पहले उस तकनीक में काम नहीं किया था । मेरा मैनेजर चिंतित था । फिर मैंने उनसे एक सप्ताह का समय देने का अनुरोध किया ताकि मैं उस तकनीक के अनुसार अपडेट हो पाऊ जिसमें मुझे काम करना था । मैने वही करा भी । मैं अपनी नौकरी में बहरीन में अच्छा कर रहा था लेकिन आंतरिक शांति अभी भी गायब थी । इसलिए, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 4 महीने बाद भारत लौट आया । फिर मैंने फरवरी अंत तक हरिद्वार में अपने घर पर समय बिताया ।

ये वह समय था जब मुझे नहीं पता था कि हर शाम मेरी आंखों का क्या हो जाता था । उन्हें हर चीज की धुंधली छवि दिखाई देने लगती थी और मेरे दिमाग में तेज दर्द शुरू हो जाता था । उस समय मैंने तंत्र शास्त्र पढ़ना शुरू किया और शाम और रात में, मैं गंगा घाटों और श्मशान घाटों में जाकर साधना करता था । 2010 के जनवरी और फरवरी के वो दो महीने मेरे जीवन के लिए बहुत रहस्यमय थे । मैं अपने गृहनगर हरिद्वार में था और रोज हिन्दू शास्त्र पढ़ता था, आँखों की समस्या और सिरदर्द से पीड़ित था और रात में मैं आमतौर पर श्मशान घाट या ऐसी जगहों पर 1-2 घंटे बिताता था जो अधिकांश धार्मिक लोगों के लिए वर्जित हैं पर जहां असीम शांति होती है । एक रात जब मैं दोपहर 1:45 बजे के आसपास अपने कमरे में सो रहा था, मैं उठा और उच्च-स्तर के ध्यान में चला गया, जहां एक समय मुझे लगा कि मेरी सीमित चेतना ब्रह्मांड की अनंत चेतना के साथ विलय कर रही है । संचार की किसी भी विधा से आनंदित होने वाला वो अहसास अवर्णनीय है ।

उन दो महीनों में, मैंने उस आनंद को दो बार अनुभव किया । इसके अतरिक्त, मैंने अनुभव किया कि कुछ उच्च शक्ति मुझे वापस जाने की आज्ञा दे रही है और कह रही है कि आपको लोगों को बहुत कुछ देना होगा इसलिए यह आपका मार्ग नहीं है । उन दो घटनाओं के बाद, मैंने आज तक उस आनंद को अपने अंदर अनुभव नहीं किया है ।

उस समय मेरी आँखों की समस्या भी बढ़ रही थी और मेरा परिवार चिंतित था । उन्होंने आंखों और नसों के कई डॉक्टरों से सलाह ली लेकिन कोई भी मेरी समस्या का निदान नहीं कर पाया । फरवरी के अंत में मेरा परिवार और मैं निराश थे और ऐसा लग रहा था कि अब मुझे अपना शेष जीवन एक शाम के अंधे व्यक्ति के रूप में बिताना होगा । फिर, एक चमत्कार हुआ और अंत में मेरे पिता मुझे एक बहुत ही सामान्य चिकित्सक के पास ले गए । उन्होंने कहा कि मस्तिष्क तक आँखों से जुड़ने वाली मेरी कोशिकाएँ कमज़ोर थीं और फिर उन्होंने मुझे एक दिन में एक दस दिनों तक दस इंजेक्शन लगाने की सलाह दी । पहले इंजेक्शन से ही मेरी आँखों की समस्या कम होने लगी और दस दिनों के बाद मैं पूरी तरह से फिट हो गया ।

मार्च 2010 में मैं फिर से पुणे में आईटी कंपनी से जुड़ गया । मैंने वह काम एक साल तक आराम से किया । यही वह समय था जब मैंने कर्मों के नियम और उनके शरीर और मन पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश की । 2011 के मार्च में, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और फिर से अपने घर वापस आ गया । उस समय मैंने संन्यास (त्याग) लेने का फैसला किया । दूसरी ओर मेरे माता-पिता और भाई- बहन चाहते थे कि मैं शादी करूँ क्योंकि मेरी उम्र 30+ थी । मेरे लिए यह बहुत ही उलझन भरा समय था । एक तरफ मैं 2-3 महीनों के लिए गहन ध्यान के लिए हिमालय जाने की योजना बना रहा था । दूसरी तरफ जब भी मैं अपने घर में प्रवेश करता, मेरे परिवार के सभी सदस्य मेरी शादी के विषय में चर्चा करते । उस समय मैं हरिद्वार में एक छोटी कंपनी में नौकरी करने लगा ।

क्योंकि मैं ज्यादा भौतिक चीजें नहीं चाहता था । उस नौकरी में मैंने कई दोस्त बनाए जो नौकर वर्ग के थे और देखा कि भारत में निम्न वर्ग के लोग कैसे दैनिक आधार पर पीड़ित हैं । अब मेरे माता-पिता मेरे करियर और मेरे लिए बहुत चिंतित थे । दिसंबर 2011 में मैंने एक साक्षात्कार दिया और JNNURM के तहत भारत सरकार की एक परियोजना में चुना गया । दिसंबर 2011 में मैं 6-7 महीने के लिए नैनीताल में कार्यालय में शामिल हो गया, उसके बाद उन्होंने मुझे देहरादून स्थानांतरित कर दिया । मेरे लिए यह अच्छा था क्योंकि देहरादून मेरे घर हरिद्वार से लगभग 2 घंटे की दूरी पर है । मैं अपने घर से कार्यालय तक बस या ट्रैकर के माध्यम से दैनिक यात्रा करता था उस यात्रा में मैंने बस और ट्रैकर के दैनिक यात्रियों और ड्राइवरों के जीवन का बारीकी से अवलोकन किया । अब मेरा ध्यान योग, ध्यान, हिंदू धर्म में विज्ञान की खोज से लेकर आम लोगों की पीड़ा तक पर पर केंद्रित होने लगा था ।

फरवरी 2013 में मैंने इस उम्मीद में शादी की कि मेरा जीवनसाथी भी मेरी यात्रा में सच्चाई की खोज करने और उन लोगों की मदद करने में मदद करेगा जिन्हे उसकी आवश्यकता है । लेकिन हमारे विचार पथ और गंतव्य अलग थे । और मुझे वर्ष 2014 में मानसिक रूप से टूटना पड़ा । 2014 में मेरे नवजात बेटे के रूप में मेरे जीवन में खुशी लौट आयी । वर्ष 2014 में मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी और यह एक प्रेम कहानी थी जिसका शीर्षक ‘Love Incomplete’ था । 2015 में मेरी दूसरी किताब हिंदी में ‘क्या है हिंदुस्तान में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी

यदि मैं 1999 की घटना से पहले अपने जीवन का विश्लेषण करता हूं जब डॉक्टरों ने मुझे मृत घोषित कर दिया था और उसके बाद जब मैं ठीक हो गया । मेरे लिए लोग, प्रकृति, पर्यावरण पूरी तरह से बदल गए थे । जो चीजें मुझे पहले आसानी से मिल जाती थी, अब हर कदम पर मुझे प्रताड़ित कर रही थीं । उस घटना से पहले, मैं इतना खुशकिस्मत था कि मुझे लगता था कि मैं एक राजा हूँ और उस घटना के बाद मैं जो चाहता था, वह मुझे केवल शारीरिक और मानसिक पीड़ा के बाद ही मिला वो भी बहुत कम मात्रा में । मुझे ऐसा लगता है कि यह ईश्वर ने मुझे सारे आराम के बदले में एक मौका दिया है ।

मैं विज्ञान पर सामान्य काम और शोध कर रहा था । एक बार जब मैं क्वांटम भौतिकी पर एक लेख पढ़ रहा था और इसकी अनिश्चितता ने जल्द ही मेरे मन में एक पुराने हिंदू दर्शन के बारे में एक विचार उत्पन्न किया जिसे ‘सांख्य’ कहा जाता है और तब मैं सब कुछ भूल गया और ‘सांख्य’ दर्शन और क्वांटम भौतिकी के बीच की कड़ी को समझने और खोजने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । दिसंबर 2015 में इस विषय में मेरा शोध पत्र इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक एंड इंजीनियरिंग रिसर्च ’में थ्योरी ऑफ एनीथिंग – सांख्य दर्शन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । लेकिन मैं बेचैन था क्योंकि यह मुझे आम लोगों के लिए एक सार मात्र लगता था । इसलिए मैंने अपने शोध पत्र की सामग्री को समझाने के लिए एक पुस्तक लिखना शुरू किया । वर्ष 2016 में इस संबंध में मेरी पुस्तक ‘Detail Geography of Space’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । यह मेरी तीसरी पुस्तक थी, लेकिन मुझे मार्केटिंग की जानकारी नहीं थी । इसलिए मेरी किताब की पहुंच बहुत सीमित थी । मैंने अपनी पुस्तक और पत्र की एक प्रति प्रधानमंत्री और भारत के राष्ट्रपति को भी भेजी जिसमें मैंने बताया कि मैंने अपना शोध करने के लिए कितना दर्द उठाया है । लकिन किसी ने भी मेरी मेहनत को ध्यान नहीं दिया ।

फिर मैंने अपने तरीके बदल दिए और एक और पुस्तक ‘The Ruiner’ लिखी, जिसमें मैंने हिंदू पौराणिक कथाओं के रहस्यों और हिंदू शास्त्रों के अनुष्ठानों और दर्शन को बहुत वैज्ञानिक तरीके से और कहानी के रूप में हल करने की कोशिश की । 2018 में मेरी एक और किताब हिंदी में ‘सच्ची सच्चाई कुछ पन्नो में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई ।

एक दिन मैं अपनी जिंदगी के पथ का विश्लेषण कर रहा था तो मुझे क्या मिला । मेरे बचपन से मेरी रुचि विज्ञान और अग्रिम गणित थी à मैं लगभग मृत हो गया था और भगवान की कृपा के बाद जीवन में वापस आ गया –à मैंने B.tech किया है -à और उसके बाद कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र से अध्ययन किया -à मैंने अपने लेखन को बेहतर बनाने के लिए एक रचनात्मक लेखक के रूप में काम किया और कुछ किताबें भी लिखीं -à सभी हिंदू शास्त्रों का अभ्यास और अध्ययन –àइस संबंध में हिंदू दर्शन को आधुनिक विज्ञान और –àमेरे प्रकाशित हिंदू दर्शन से विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए एवं एक पुस्तक लिखी ।

जनवरी 2019 में मेरा दूसरा शोध पत्र अंतरष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक ‘स्पन्दकारिका – थ्योरी ऑफ़ नथिंग’ था जिसमे मैंने हमारे सौरमंडल के सारे बलों और विकिरणो को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है

मई 2109 में मेरी छठी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक ‘कुछ अनोखे स्वाद और बातें’ है जिसमे मैंने अपने द्वारा खोजी और बनायीं गयी खाने-पीने की चीजों और उन से जुड़ी रोचक बातो का जिक्र किया है।

मेरी आने वाली सातवीं पुस्तक “पूर्ण विनाशक” है जिसके विषय में कुछ बाते निम्न है :

वर्तमान युग के दो लड़के और दो लड़कियां हिंदू धर्मग्रंथों के पौराणिक इतिहास की खोज में हैं । उनके उद्देश्य और शौक अलग-अलग हैं । यहां तक कि उनके पेशे भी अलग हैं । वे दुनिया की सबसे आकर्षक कहानी का पता लगाने के लिए एक साथ आए हैं । हां, वे श्रीलंका में भगवान राम और लक्ष्मण के पदचिन्हों पर चलने के लिए एक साथ आए हैं । वहां वे अपने मार्गदर्शक से मिलते हैं, एक व्यक्ति जो उन्हें समझाता है और उन्हें रामायण के स्थानों की यात्रा भी कराता है, जैसे वे सभी उस युग का भाग हैं । उन्हें कुछ तथ्यों के उत्तर भी मिले, जिन्हें पहले कोई नहीं जानता था, जैसे कि: रावण क्लोन विज्ञान जानता था और अपने बेटों के 1 लाख क्लोन और अपने पोते के 1.25 लाख क्लोन बनाता हैं वे अब कहाँ हैं? रावण भोजन तैयार करने के लिए चंद्रमा की ऊर्जा का उपयोग करने का विज्ञान जानता था । कैसे? भगवान स्वयं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे स्थान्तरित कर सकते थे? रावण ने इस लोक से स्वर्ग को कैसे जोड़ा था? इन्द्रजाल, मोहिनी अस्त्र, लक्ष्मण रेखा आदि के पीछे क्या विज्ञान है? देवी सीता ने स्वर्ण मृग की मांग क्यों की? भगवान हनुमान ने बाली को क्यों नहीं मारा? सीता की गीता क्या है? श्रीलंका का नाम ‘श्रीलंका’ कैसे पड़ा? दक्षिणमुखी और पंचमुखी हनुमान का क्या महत्व है? चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा 15 दिनों के अंतराल के साथ क्यों कर रहा है? कालनेमि भगवान हनुमान से तेज कैसे उड़ सकता था? हथियार शक्ति, ब्रह्मास्त्र के पीछे क्या विज्ञान है? संजीवनी चिकित्सा के पीछे विज्ञान क्या है? पुष्पक विमन एक अलग अलग गति से कैसे उड़ सकता था? क्या महाभारत के युद्ध के पीछे का कारण भगवान कृष्ण है? क्या हम अपने DNA में हेरफेर करके अपनी उम्र को बढ़ने से रोक सकते हैं? कर्म कैसे काम करते हैं? क्या शाप और वरदान हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं? प्राण, चेतना और आत्मा एक ही हैं या अलग-अलग हैं? अमावस्या के पीछे क्या विज्ञान है? चंद्रमा के चरण की चरणो की देवियाँ कौन कौन सी है? बलिदानों के पीछे का विज्ञान क्या है? क्या कोई अन्य सूत्र E = mc2  से अधिक शक्तिशाली है? यदि हाँ, तो वह क्या है? क्या हमारे समाज में अपराध और भ्रष्टाचार के लिए अंतरजातीय विवाह जिम्मेदार है? भावनाओं का हमारे मन और शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?

आदि कई अनसुलझे प्रश्नो का उत्तर खोजिये …… !

 

© आशीष कुमार 

 

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