आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌।।37।।

भगवान ने कहा-

काम और ये क्रोध,मनुज के कर्मो के दुष्प्रेरक है

अति बुभुक्षु ओै” पापी हैं ये बडे शत्रु संप्रेषक है।।37।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।।37।।

 

It is desire, it is anger born of the quality of Rajas, all-sinful and all-devouring; know this as the foe here (in this world). ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ लाठी ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

 

(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की  यह लघुकथा  वैसे तो पितृ दिवस पर ही प्रकाशित होनी थी किन्तु, मुझे लगा कि इस कथा का विशेष दिन तो कोई भी हो सकता है। जीवन के कटु सत्य को प्रस्तुत करने के लिए डॉ उमेश जी की लेखनी को नमन।) 

 

☆ लाठी ☆ 
(एक अविस्मरणीय लघुकथा)
मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । माँ-पिताजी ने अपना लंबा अमावस्यायी उपवास तोड़ा । उनके चेहरे पर झुर्रियों की इबारत एकाएक धूमिल पड़ गई ।
मेरी शादी कर दी गई । उन्हें प्यारी-सी बहू मिल गई । मुझे पत्नी मिल गयी । साल भर के बाद ही वे दादा-दादी बन गये । उन्हें बचपन मिल गया, लेकिन तभी दूर शहर में मेरा स्थानांतरण हो गया । मैं कछुआ हो गया।
कभी-कदा पत्रों की जुबान सुनता था कि धुंध पड़ी इबारत पर मौसम, आयु प्रभाव डाल रही है और लिखावट गहराती जा रही है । अब उन्हें राह चलते गड्ढे नज़र आने लगे हैं । उन्हें अब जीने का चाव भी नहीं रहा, यह बात नहीं थी, पर अक्सर वे कहते – ” बहुत जी लिए ।”
मेरे अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ती गई । फिर भी मैंने उन्हें एक दिन पत्र लिखा- “बच्चों की फ़ीस, ड्रेस, टैक्सी, बस घर का किराया, महँगी किताबें-कापी के बाद रोज़ के ख़र्चे ही वेतन खा जाते हैं, कुछ बचता ही नहीं । अब बताइये, आपको क्या दूँ ?”
माँ-पिताजी ने जवाब में आशीर्वाद लिखा । फिर लिखा – बुढ़ापे का सहारा एक लाठी चाहिए । ख़रीद सकोगे ? दे सकोगे ?”
© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12
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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ निःशेष ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(कल पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में लिखी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर पाया जिसे आज प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह एक कल्पना है कि अस्पताल के आई सी यू में वेंटिलेटर पर  पिताजी के मस्तिष्क में  मृत्युपूर्व क्या चल रहा होगा?)

 

☆  निःशेष ☆

 

हे! ईश्वर!

इतनी बड़ी सजा?

मेरे परिजनों का प्रयास तो था कि –

सांस चलती रहे।

मौत की घड़ी टलती रहे।

 

कुछ समझ पाता

या कि

कुछ संभल पाता

इसके पूर्व

मेरी समस्त इन्द्रियां

जकड़ दी गईं।

समस्त नसें भेद दी गईं।

श्वसन तंत्र भी

और तो और

मेरी आवाज भी।

 

हे प्रभु!

कम से कम

आवाज तो छोड़ देते।

मैं

पड़ा रहा

कितना असहाय।

 

देख सकता हूँ

अश्रुपूर्ण नेत्र

परिजनों के

अपने चारों ओर।

साथ ही

अपनी ओर आते

मौत के कदम

चुपचाप।

 

सारी उम्र

कभी चुप न रहने वाले

मुख को जड़वत कर दिया।

श्वसन तंत्र को

मशीनी सांसों से (वेन्टिलेटर)

भर दिया गया।

 

लगता है कि अब

कुछ भी नहीं है मेरा

मशीनों-दवाओं का

कब्जा है मुझपर।

 

ये साँसे भी मेरी नहीं हैं।

किन्तु,

मेरे विचार

सिर्फ मेरे हैं

जीवन-मृत्यु की लडाई

से भी परे हैं।

मैं

देख सकता हूँ

अपना अतीत

किन्तु,

मेरी घड़ी की सुई

नहीं बढ पा रही है

वर्तमान से आगे।

एक

पूर्णविराम की तरह।

 

यह शाश्वत सत्य ही है

किसी को समझने के लिये

पूरा जीवन लग जाता है

और

स्वयं को समझने के लिये

कई जीवन भी कम हैं।

 

चेष्टा करता हूँ ।

अतीत में झाँकने की

एक अबोध बालक

कंधों पर बस्ता लिये

चल पड़ता है

नंगे पांव

गांव-गांव

शहर-शहर

और

पहुंचा देता है

अपने अंश विदेशों  तक।

 

इस दौड़ का

कोई नहीं है अन्त

सब कुछ है अनन्त।

 

शायद!

इस वट वृक्ष की

जड़ें गहरी हैं

टहनियाँ-पत्तियाँ

भी हरी-भरी हैं।

 

शायद!

गाहे-बगाहे

जाने-अनजाने

कभी कुछ कम

कभी कुछ ज्यादा

बोल दिया हो।

कभी कुछ भला

कभी कुछ बुरा

बोल दिया हो।

तो

जीवन का हिसाब समझ

भूल-चूक

लेनी-देनी समझ

माफ कर देना

मन-मस्तिष्क से सब कुछ

साफ कर देना।

 

क्योंकि,

मैं नहीं जानता कि

क्या है?

शून्य के आगे

और

शून्य के पीछे।

 

क्षमता भी नहीं रही

कुछ जानने की।

क्षीण होता शरीर

क्षीण होती साँसे

बस

एक ही गम है

सांस आस से कम है

और

मेरे ही बोल

मेरे लिये अनमोल है।

 

6 दिसम्बर 2010

 

(स्वर्गीय पिताश्री के देहावसान पर उनको समर्पित)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता का मान करें उन पर अभिमान करें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की पितृ दिवस पर प्रेषित कविता कल अपरिहार्य कारणों से प्रकाशित न कर सका और अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में  मैं अपनी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर सका जिसे आज प्रकाशित कर रहा हूँ।  फिर माता एवं पिता की  स्मृतियाँ तो सदैव हृदय में बसी रहती हैं।)

 

☆ पिता का मान करें उन पर अभिमान करें

 

जो पत्नी को देकर निज अर्धांश,

संतानों की रचना किया करता है।

जो सृजन में भार्या को दे प्रेमांश,

संतानों को जन्म दिया करता है।।

 

वो पत्नी के स्वास्थ्य का ध्यान रख,

उत्तम खान टीकाकरण कराता है।

शिशु जन्म में जो तनाव सह कर,

मधु वार्ता से प्रसव पीड़ा हरता है।।

 

जो जन्मे शिशु की देखभाल करता,

शिशु के सब टीकाकरण कराता है।

शिशु का स्वास्थ्य सुनिश्चित करता,

पर्याप्त पोषण का प्रबंध कराता है।।

 

जो बच्चे में देखे नित अपना बचपन,

बच्चों में सुंदर सपने बुनना सिखाता।

खिलौने लाता कभी खिलौना बनता,

उत्साह भर उनके व्यक्तित्व बनाता।।

 

अभाव न हो उसके बच्चों को कभी,

इसलिए कड़ा परिश्रम वो करता है।

उत्तम शिक्षा पाएं उसके बच्चे सभी,

अर्पित निज सारा जीवन करता है।।

 

जुंआ, नशा, अपराध से वह दूर रह,

अपने बच्चों को सुंदर संस्कार देता।

परिवार में वह घरेलू हिंसा से दूर रह,

नारी सम्मान बढ़ाने का जिम्मा लेता।।

 

बच्चों का जीवन खुशियों से भरता,

जिम्मेदार नागरिक वह उन्हें बनाता।

बच्चे न भटकें कड़ी दृष्टि वह रखता,

भटके बच्चों को सही राह पर लाता।।

 

पिता है तो बच्चे सुख की नींद सोते,

निश्चिंत रहते सभी सारे सुख मिलते।

अच्छी शिक्षा, खान पान, वस्त्र पाते,

वो हो तो बच्चों को दुख नहीं मिलते।।

 

अंदर से कोमल पर कठोर वो बाहर से,

अनुशासन से बच्चों को उत्तम बनाता।

प्यार करता पर निष्ठुर लगता बाहर से,

राष्ट्र प्रेम पढ़ा देश भक्त उन्हें बनाता।।

 

पिता जिन्हें मिलते खुश किस्मत होते हैं,

साए में पिता के दुर्दिन भी सुदिन होते हैं।

पितृहीन जो होते वो बदकिस्मत होते हैं,

पिता न हों तो सुदिन भी दुर्दिन होते हैं।।

 

पिता का मान करें उन पर अभिमान करें,

उन्होंने कल किया आपके लिए कुर्बान,

उम्र कोई हो, नहीं उनका अपमान करें,

उनके लिए अपना आज कुर्बान करें।।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #4 – मस्तिष्क-दृष्टि ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  चौथी कड़ी में प्रस्तुत है “मस्तिष्क-दृष्टि”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-4  ☆

 

☆ मस्तिष्क-दृष्टि ☆

 

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या  है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि । हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है। यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और  सफल सोच से  ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें  भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ?  यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं  सकता।  हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही  तथ्य हमारी  व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग  हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में  कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्क-दृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन  को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले  लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं। किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं, असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी  सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्क-दृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है।

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-4 मान्सून ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  मानसून ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है एवं इसी संदर्भ में आज प्रस्तुत है  उनकी एक सामयिक रचना “मान्सून।”)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-4 ? 

 

☆ मान्सून  ☆

 

आला आला पावसाळा

कुणी म्हणती मान्सून।

तुझी चाहूल लागता

धरा हसे मनातून  ।।

 

ढग करिता गडगड

स्वैर डुले ताडमाड।

मेघ गर्जना पाहून

सूर्य दडे ढगा आड।

 

असा अवखळ वारा

संगे पावसाच्या धारा।

भूमीदासाला भावला

गंध मातीचा हा न्यारा ।

 

मनोमनी मोहरली

झाडे वेली तरारली।

देई पिलांना ग उब

माता जरी शहारली।

 

चाटे वासरांना गाय

शोधी तान्हुलाही माय।

खेळगडी चिंब न्हाती

नसे पावसाचे भय।

 

तृषा धरेची शमता

शालू पाचूचा शोभला।

दान मोत्याचे लाभेल

बळीराजा संतोषला।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Department of Happiness, Government of Madhya Pradesh, India ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ Department of Happiness, Government of Madhya Pradesh, India

Madhya Pradesh has become the first state in India to get a ‘Happiness Department’ (‘Anand Vibhaag’ in Hindi) within the state government apparatus, according to a report in the Times of India. The objective of the department is to measure prosperity by gauging citizens’ happiness quotient and not the gross domestic product.

Mr Shivraj Singh Chouhan, the former chief minister of the state, has penned his thoughts by way of a blog on this occasion. He says, “I often wonder why despite unprecedented growth in material prosperity and means of comfort, happiness continues to elude and what explains the ever growing intolerance, violence despair and depression.”

The concept of happiness that the government aspires to pursue in Madhya Pradesh, as per the Former Chief Minister, will primarily be based on time tested India wisdom.Former

He realizes that the government apparatus has its own strength and limitations. And, rightly goes on to say, “using it for spreading joy in society has its own challenges”.

The initiative to bring cheers to the life of common man is welcome and deserves kudos. Madhya Pradesh can now claim to be in the same league as Bhutan, Venezuela and the UAE.

As the outline of the department of happiness is being formulated, I have a few humble points to make.

Yoga and Meditation, no doubt, are vital pillars of happiness and peace. Mihaly Csikszentmihalyi, Psychologist, in his well-known classic work on happiness, Flow, agrees, “The similarities between Yoga and flow are extremely strong; in fact it makes sense to think of Yoga as a very thoroughly planned flow activity. Both try to achieve a joyous, self-forgetful involvement through concentration, which in turn is made possible by a discipline of the body.”

A gargantuan work has been done in the field of ‘Happiness and Well-Being’ after Martin Seligman, in 1998, as president of the American Psychological Association, urged “psychology to supplement its venerable goal with a new goal: exploring what makes life worth living and building the enabling conditions of a life worth living”.

Positive Psychology should be a strong pillar of any modern day happiness programme anywhere in the world.

Positive Psychology is the scientific study of the strengths that enable individuals and communities to thrive. The field is founded on the belief that people want to lead meaningful and fulfilling lives, to cultivate what is best within themselves, and to enhance their experiences of love, work, and play.

Likewise, positive education and positive health merit mention.

Positive education is defined as education for both traditional skills and for happiness. The high prevalence worldwide of depression among young people, the small rise in life satisfaction, and the synergy between learning and positive emotion all argue that the skills for happiness should be taught in school. There is substantial evidence from well controlled studies that skills that increase resilience, positive emotion, engagement and meaning can be taught to school children.

The field of medicine has long focused on the prevention, diagnosis, treatment, and cure of disease. But health is more than the mere absence of disease. The emerging concept of Positive Health takes an innovative approach to health and well-being that focuses on promoting people’s positive health assets, which might include biological factors, such as high heart rate variability; subjective factors, such as optimism; and functional factors, such as a stable marriage—strengths that can contribute to a healthier, longer life.

Last, but not the least, Laughter Yoga, one of the most effective tools for creating instant joy, should be an integral part of any happiness curriculum.

Laughter Yoga is a combination of laughter exercises and yogic breathing that strengthens our immune system and generates feel good hormones in the body. Laughter is triggered with the help of exercises which soon turns into real and contagious laughter with eye contact and childlike playfulness. It is a simple yet profound method of busting physical, mental and emotional stress in one go.

I am citizen of this state and offer myself, with all humility, as a volunteer consultant, happiness and well-being. Shall be happy to offer my services to the state without any expectation and reward.

Wishing the Happiness Department in Madhya Pradesh all the happiness and a grand success!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

 

अर्जुन उवाचः

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

 

अर्जुन ने पूछा-

इच्छा विपरीत मनुज क्यों पाप आचरण करता है ?

लगता है कोई करा रहा है,वृत्ति ये कैसे धरता है।।36।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ।।36।।

 

But impelled by what does man commit sin, though against his wishes, O Varshneya (Krishna), constrained, as it were, by force? ।।36।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ☆ मेरे पिता….. ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  पितृ दिवस पर  स्व। पिताजी की स्मृति में रचित कविता मेरे पिता”।) )

 

☆ मेरे पिता….. ☆

 

सजग साधक

रत, सुबह से शाम तक

दो घड़ी मिलता नहीं

आराम तक

हम सभी की दाल-रोटी

की जुगत में

जो हमारी राह के कांटे

खुशी से बीनता है,

वो मनस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

सूर्य को सिर पर धरे

गर्मी सहे जो

और जाड़ों में

बिना स्वेटर रहे जो

मौसमों के कोप से

हमको बचाते

बारिशों में असुरक्षित

हर समय जो भींगता है,

वो तपस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

स्वप्न जो सब के

उन्हें साकार करने

और संशय, भय

सभी के दूर हरने

संकटों से जूझता जो

धीर और गंभीर

पुलकित, हृदय में

नहीं खिन्नता है,

वो यशस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

जो कभी कहता नहीं

दुख-दर्द अपना

घर संवरता जाए

है बस एक सपना

पर्व,व्रत, उत्सव

मनाएं साथ सब

जिसकी सबेरे – सांझ

भगवन्नाम में तल्लीनता है,

वो महर्षि कौन?

वो मेरे पिता है।

 

मौन आशीषें

सदा देते रहे जो

नाव घर की

हर समय खेते रहे जो

डांटते, पुचकारते, उपदेश देते

सदा दाता भाव

मंगलमय,विनम्र प्रवीणता है,

वो  दधीचि कौन?

वो मेरे पिता हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ?? पापा ??☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पितृ दिवस पर विशेष 

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

 

(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  *”पितृदिवस”* पर पिताजी का अपनी कविता द्वारा पुण्य स्मरण।)

 

?? पापा ??

 

खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है।

मेरे नन्हें हाथ थामकर,
तुमने चलना सिखलाया
जीवन पथ पर आगे बढ़ने,
सदा नेक पथ दिखलाया
बचपन में दी सीख आज तक,
भूले नहीं भुलाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

रोज सबेरे दफ्तर जाकर,
शाम ढले वापस आते
धूम मचाते पूरे घर में,
नया कभी जब कुछ लाते
इन बातों की स्वप्न श्रृंखला,
बचपन में लौटाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

मुझे पढ़ाने की इच्छा को,
तुमने लक्ष्य बनाया था
घर बाहर सुविधाएँ देकर,
अध्ययन पूर्ण कराया था
बात सदा आगे बढ़ने की,
नित उत्साह जगाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

जब भी मुझको मिली सफलता,
शाबाशी उपहार मिली
कभी निराशा हाथ लगी तो,
संबल की पतवार मिली
सहनशीलता अपनाने की,
बात तुम्हारी भाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

शादी बच्चे घर होने पर,
हृदय आपका हर्षाया
मेरी उलझन को सुलझाने,
सदा तुम्हें तत्पर पाया
तुमसे जानी साख, निडरता,
साहस मेरा बढ़ाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

हुआ अगर मैं निकट तुम्हारे,
जब तब गले लगा लेते
हाथों के स्पर्श तुम्हारे,
तन मन नेह जगा देते
सब हैं फिर भी ‘कमी तुम्हारी’,
मन उदास कर जाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

© डॉ विजय तिवारी  “किसलय”जबलपुर

 

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