हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆ – सुश्री समीक्षा तैलंग

सुश्री समीक्षा तैलंग 

 

(अबू धाबी से सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप हिन्दी एवं मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पारंगत हैं और इसके साथ ही व्यंग्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। सुश्री समीक्षा जी के साहित्य की समीक्षा सुधि पाठक ही कर सकते हैं। अतः यह जिम्मेवारी आप पर। प्रस्तुत है सुश्री समीक्षा जी का तीक्ष्ण व्यंग्य “उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं”।)

 

☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆

 

उस दिन राह से गुजरते हुए एक तरफ विशाल और सिद्ध कहा जाने वाला शिव मंदिर सरेराह आ ही गया। सरेराह दुकानें भी थीं, भिखारी भी, नेता भी, फूलवाले, प्रसाद बेचने वाले और हमारे जैसे आम लोग भी। चलते फिरते सब एक दूसरे से भिड़ रहे थे। मतलब, राह में कोई भी किसी से भिड़ सकता है, मिल सकता है और खरीद भी सकता है। खरीदफरोख्त का बाजार ऐसे ही थोड़े बुना है। बुनने के बाद भुनाना यही परिपाटी है इस बाजार की। भिड़ने की जुगलबंदी में मिलना कम होता जा रहा है। कोई किसी से भी भिड़ जाने को तैयार है। स्वार्थ या निस्वार्थ दोनों ही भावों में…। भाव गिरने गिराने में भी भिडंत तो होती ही है। भिडंत न हो तो भाव वहीं का वहीं ठहर जाता है। ठहरा हुआ भाव भी किसी काम का नहीं। उसे भी न पूछेगा कोई…। उसका भाव वही है जो पुरानी चप्पल का है। पहन तो सकते हैं पार्टी के लायक नहीं। मतलब भाव बढ़ने में भिड़ंत का अमूल्य योगदान है। अमूल्य होना हर किसी के बस की बात नहीं। जैसे सोने का भाव पीतल तो कतई नहीं ले सकता। सोने के गहनों में पीतल मिलाने के बाद भी गहने सोने के ही कहे जाते हैं।

वे अमूल्य नहीं थे। उनके जन्म का भी कोई मूल्य नहीं था। लोगों के हिसाब से वे धरती पर भार हैं। या भार बना दिये गये हैं। लेकिन धरती का गुरुत्वाकर्षण उतना ही लग रहा था। फिर वो भार हो या आभार। लगने वाले बल का वस्तु की दिशा और दशा से कोई फर्क नहीं पडता। वो बल भेदभाव नहीं करता। उसकी मंदिर के सामने कटोरा लेकर बैठा भिखारी मंदिर में अभिषेक करता उस नेता की भांति दिख रहा था। उसकी झोली पसरी हुई थी। मेरी आंखें हर उस भीख मांगने वाले को भिखारी ही समझती है। मंदिर के सामने एक लाईन में बैठे भिखारी भी दान करने वाले को देवता ही समझता है। उसके रोटी और कपड़े की व्यवस्था का जिम्मा उसी दानदाता पर है। सरकार पर नहीं। मंदिर की घंटियां बजाने वाला नेता खुद भिखारी होते हुए लाईन से बैठे भिखारियों को नजरंदाज करता है। क्योंकि वह दुआओं का नहीं बल्कि वोट का भूखा है। उसे पता है कि लाईन में बैठे भिखारी उसकी वोटर लिस्ट में नहीं। इसीलिए उसके लिए किसी तरह के वादे या दावे की भी जरूरत नहीं। उसके लिए मकान की व्यवस्था करना बेमानी है। समय और पैसा नष्ट करने वाली स्कीम है। इसीलिए वह उनके लिए कोई स्कीम तैयार नहीं करता। क्योंकि उसमें आवक नहीं है। मकान न होते हुए भी उन भिखारियों का वंश बढ़ता चलता है। बेहाल सी फटे कपड़ों में लिपटी वह स्त्री देह किसके वंश की वृद्धि कर रही है उसे पता भी नहीं। हर चलता फिरता राहगीर उस देह पर अधिकार समझता है। लेकिन बढ़े हुए वंश पर कोई दावा नहीं ठोकता। उन पागल, मंदबुद्धि देह पर बिन पैसों का व्यापार इसी तरह चलता रहता है। उनकी नजरों में सड़कों पर रतजगा करने वाले किसी शख्स को न्यौते की दरकार नहीं।

© समीक्षा  तैलंग ✍  

अबु धाबी (यू.ए.ई.)

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

सौ. अनघा जोगलेकर

☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆
पुस्तक  : अश्वत्थामा यातना का अमरत्व

लेखिका : अनघा जोगलेकर

प्रकाशक : उद्वेली बुक्स, बी-4, रश्मि कॉम्प्लेक्स, मेन्टल हॉस्पिटल मार्ग, ठाणे (प.) – 400604

मूल्य   : 200 रूपए

पेज    : 132

अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि का दस्तावेज है उपन्यास “ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व ”

अनघा जोगलेकर का ऐतिहासिक उपन्यास अश्वत्थामा यातना का अमरत्व इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास के पूर्व अनघा जी की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस उपन्यास में अनघा जी ने महाभारत युद्ध के एक ऐसे योद्धा पर अपनी कलम चलाई है जिसका उल्लेख अधिक नहीं है। यह उपन्यास शापित योद्धा अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि की अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। लेखिका ने इस उपन्यास में अश्वत्थामा के दृष्टिकोण से महाभारत की कुछ पहलुओं को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं। हस्तिनापुर के कुलगुरू द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा एक सर्वगुण संपन्न महारथी था लेकिन उसने अधर्म का साथ दिया। लेकिन अश्वत्थामा से ऐसा कौन सा अक्षम्य अपराध हुआ कि श्रीकृष्ण को मजबूर होकर उसे यातना के अमरत्व का श्राप देना पड़ा, जिसका फल वह अभी तक भोग रहा है। वह ऐसा कौन सा कुकृत्य कर बैठा, कि आज भी उसकी आँखों में महाभारत का सत्य तांडव कर रहा है। लेकिन समय बीत चुका है। अब चाहकर भी कुछ नहीं बदला जा सकता है। उस श्राप के कारण वह आज भी वन-वन भटक रहा है। उपन्यास में अनघा जी ने इस उपेक्षित महारथी का दर्द, पीड़ा और यातना का मार्मिक चित्रण किया है। अश्वत्थामा को होने वाला आपराधिक बोध पूरे उपन्यास में फैला हुआ है। उपन्यास का नायक पश्चाताप की अग्नि में अभी तक जल रहा है, न जाने कितने युगयुगों तक वह मुक्ति के लिए तड़पता रहेगा और यातना भोगता रहेगा।

इस उपन्यास का काल महाभारत युद्ध के कुछ दशक पश्चात का है। इस उपन्यास की कथा का सूत्रधार शारणदेव है जो कुरुक्षेत्र के पास के गाँव का एक ब्राह्मण है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व एक कथा नहीं सत्य है, एक सच है… अश्वत्थामा का सच…,  जिसकी विभीषिका अश्वत्थामा आज भी वहन कर रहा है और आगे भी अनंतकाल तक उसे वहन करना है क्योंकि प्रारब्ध से कोई नहीं बच सकता है। परंतु प्रारब्ध लिखता कौन है? हर व्यक्ति अपना प्रारब्ध स्वयं ही रचता है और अश्वत्थामा ने भी अपना प्रारब्ध स्वयं ही निश्चित किया था। यह उपन्यास अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष एवं यातना के अमरत्व का श्राप मिलने के बाद उसके आत्मविश्लेषण की गाथा और महाभारत युद्ध के युग का दर्पण है। इस पुस्तक में लेखिका ने अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष और यातना को बहुत ही सहज-सरल और पारदर्शी भाषा में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जहां उपन्यास का नायक अश्वत्थामा का मन अपने पिताजी द्रोणाचार्य के लिए वितृष्णा से भर उठता है। अनघा जी ने गुरू द्रोणाचार्य की महत्वाकांक्षा एवं उनके अभिमान को और महाभारत के सभी पात्रों के मनोविज्ञान को अश्वत्थामा के माध्यम से भली-भाँति निरूपित किया है। इस उपन्यास में आख्यान के माध्यम से महाभारत के पात्रों के जीवन संघर्ष और मानसिक सोच-विचार को अभिव्यक्त किया गया है। पुस्तक में महाभारत के महारथियों की शौर्यगाथाएं, राजनीति, षड्यंत्र, दर्द, पीड़ा, यातना, पश्चाताप का चित्रण तो है ही और साथ में गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा प्रणाली का भी चित्रण है।  इस उपन्यास में सजीव, सार्थक, संक्षिप्त, स्वाभाविक और सरल संवादों का प्रयोग किया गया है।

महाभारत जैसी कालजयी कृति के साथ लेखिका ने पूर्ण न्याय किया है। पौराणिक कथाओं पर हिंदी में अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए है उनमें अश्वत्थामा यातना का अमरत्व निश्चित ही प्रशंसनीय है। यह उपन्यास अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है। कथाकार अनघा जोगलेकर की प्रतिभा अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण है। लेखिका ऐतिहासिक तथ्यों की तह तक गई है। लेखिका ने अधिकांश अध्याय के अंत में उस अध्याय से संबंधित दंतकथा का सार्थक प्रयोग किया है, सही तथ्य प्रस्तुत किये है, पाठकों से प्रश्न किये है और उन प्रश्नों के संभावित उत्तर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ पाठकों के सामने रखें हैं। उपन्यास में इस तरह की अभिव्यक्ति शिल्प में बेजोड़ है और लेखिका की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है। उपन्यास के बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। इस तरह के ऐतिहासिक उपन्यास लिखना अत्यंत कठिन कार्य है। लेखिका ने इस उपन्यास को बहुत गंभीर अध्ययन और शोध के पश्चात लिखा है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व उपन्यास शिल्प और औपन्यासिक कला की दृष्टि से सफल रचना है। यह उपन्यास सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। भविष्य में अनघा जोगलेकर से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।

समीक्षक –  श्री दीपक गिरकर

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036 ईमेल [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #1 ?नीम की छांव ? ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए मेरे आग्रह को स्वीकारा इसके लिए उनका आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी एक लघुकथा पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “नीम की छांव”।)

 

☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं ☆

?नीम की छांव ?

 

एक गांव में नीम की छांव पर उसने अपना घर बनाया। दिमाग से थोड़ा विक्षिप्त घर से निकाल दी गई थी। सही गलत का फैसला कर नहीं पाती थी। एक तो गरीबी और उपर से बेटी की लाचारी पर तरस तो सभी खाते पर कोई सहारा देना नहीं चाहते थे।  बूढ़े मां बाप के खतम होने के साथ उसका रूप भी नीम की छांव के नीचे सब को दिखने लगा था।

एक बडे़ घर से कार आकर रोज ही रूकने लगी, कभी खाने का सामान तो कभी कपड़े। वो नासमझ समझ न सकी कि उस पर इतनी मेहरबानी क्यों हो रही है। उसे उसका साथ अच्छा लगने लगा। अब तो कार वाला छुपके से दरवाजा खोल कार में बिठा उसे ले जाने लगा। समय पंख लगा कर उड़ चला।उसे देखने से समझ में आने लगा कि वो किसी झांसे का शिकार हो चुकी है। अब कार आना बंद हो चुका था। मातृत्व की झलक उस बेचारी पर दिखने लगी। समय आने पर उसने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया और फिर उसे अपने तरीके से पालने लगी। कहते हैं उसके दुखों का अंत नहीं हुआ। असमय अनेक प्रकार की बीमारी से उसका अंत हो गया और छोड़ गयी एक नन्ही सी जान। सभी उस पर दया की भावना रखने लगे। उसी नीम की छांव पर खेलती और वहीँ सो जाया करती।

एक बढे भव्य भवन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। कन्या भोज के समय उसे भी बुला लिया गया। पूछने पर पता चला कि नीम की छांव ही उसका घर है। पिताजी को देखीं नहीं और माँ को किसी ने जला दिया। इतना ही कह सकी। उस भवन की जैसे नीव ही हिल चुकी थी । जिस प्रकार से बेटी ने अपना परिचय दिया। सारी कहानी सुनते ही आँखों से आँसू गिरने लगे। सभी परेशान थे कि मामला क्या है। अचानक ही उसने सबसे कहा कि बरसों से मैं शीतला देवी की पूजा करता था। आज शीतला कन्या के रूप में स्वयं मेरे यहां आई है। और अब से यही घर ही इसका मंदिर है। समाज ने कोई आपत्ति नहीं उठाई। गर्व से उसने अपनी बेटी को सत्कार पूर्वक अपना लिया और किसी को पता भी नहीं लगने दिया। बिटिया भी इस चीज को समझ न सकी पर भक्त रूपी पिता को पा कर बहुत ही खुश हो गयी। बस उसकी एक इच्छा थी कि घर के सामने उसे अपनी माँ ” नीम की छांव ” चाहिए।

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© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #1 -शब्द माझे ☆  – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ में अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए उन्होने मेरे आग्रह को स्वीकारा। इसके लिए श्री अशोक जी का आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी कविता पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “शब्द माझे” )

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती ☆

☆ शब्द माझे ☆ 

 

शब्द माझे एवढे शालीन होते

सभ्यतेची आब ते राखून होते

 

वाह वा ऐकू न आली जाहलेली

आपल्या गाण्यात ते तल्लीन होते

 

देवळाच्या आत अन् बाहेर भिक्षुक

आत गुर्मी पायरीवर दीन होते

 

बोलतो भिंतीसवे कळते तिलाही

घर घराला एवढे लागून होते

 

बुरुज आता ढासळाया लागले का ?

प्रेम माझे हे कुठे प्राचीन होते

 

सांगतो ठोकून छाती या इथे मी

प्रेम का तू ठेवले झाकून होते ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga at the World’s Yoga Capital ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Yoga at the World’s Yoga Capital

I am feeling deeply fulfilled. It has been an intense flow experience. I am just back from Rishikesh, said to be the world’s yoga capital and really proud to have conducted Laughter yoga there.

A bunch of laughter lovers had come over there all the way from Tashkent to undergo certified laughter yoga leader training. Most of them had some background of the traditional yoga. Some of them were yoga teachers back home in Uzbekistan. Tanya, a young German girl, serving as a volunteer in a Gandhi ashram in Kausani, also joined us. We (Radhika, my wife, and me) had met her last month when we visited the ashram for conducting laughter yoga for the inmates. She wishes to be an art therapist and feels that laughter yoga would richen her repertoire.

Ivan had come to India a few years ago to learn yoga. He has had some fleeting glimpses of laughter yoga here and there. Being a yoga teacher himself, he realized that laughter yoga had great value hidden in it. That faith motivated him to bring a whole group to India to discover Laughter Yoga. But he was stunned at what he experienced during the two day programme. He had not bargained for so much. We are especially grateful to him for taking all the trouble with great patience to translate each and every word carefully for the participants as only a few of them were conversant with English. He plans to translate the leader manual when he gets back.

We had a calming two and a half hour laughter meditation session which was an out of the world experience for all of them. Anjelika exclaimed, ”I am feeling so relaxed. I had rashes and allergy for quite some time but now everything seems to have disappeared. I will go back and first practice laughter yoga with my children and then with my yoga students.”

Regina is proud of her Indian name Ragini. She is a student of Indian dance forms. She is young but came up with mature observations, “I am feeling so light. I have laughed so much after so long. I considered laughing to be silly but now I feel that one can be silly. Gibberish meditation has fully uncluttered my mind. I has been so relaxing and cathartic. The value based laughter exercises like Guru laughter, Visa bill laughter and No money laughter are truly inspiring and leave a deep impact on the psyche. As regards the four elements of joy, I have singing and dancing all along with me but now I shall also add playing and laughter to make my life wholesome.”

Galina, fit and full of energy even at 71 years of age, retired as a school teacher in the year 1991. She felt, “When I was there with children, I was not aware of the wonders that laughter can bring about. I will go back to the school and do Laughter yoga with the students and their parents on the annual day. This has been a life changing experience for me.”

The entire group was so committed and devoted that I have no doubts whatsoever that they will go back and propagate Laughter yoga to the best of their abilities.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

 

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।16।।

इस प्रकार इस यज्ञ चक्र को जो न सतत चलाते है

वे इंदिय सुख के अनुयायी केवल पाप कमाते है।।16।।

भावार्थ :  हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

 

He who does not follow the wheel thus set revolving, who is of sinful life, rejoicing in the senses, he lives in vain, O Arjuna! ।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अद्भुत और वत्सल सम्राट महाकवि ☆ – सुश्री उमा रानी मिश्रा

सुश्री उमा रानी मिश्रा

 

(सुश्री उमा रानी मिश्रा जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप कालिंदी महाविद्यालय में  सहायक प्राध्यापिका (संस्कृत) एवं प्रसिद्ध लेखिका हैं।आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित तथा आप अनेक सम्मानों से अलंकृत हैं।)

 

☆ अद्भुत और वत्सल सम्राट महाकवि ☆

 

वह महाकवि है जो  वत्सल को निखार देता है।

पठन में पुत्र-पुत्री के स्नेह से जब काव्य निचौडो़ ,

सातवें अंक के भरत दुष्यंत शकुंतला तो छोड़ो ,

कण्व और प्रकृति को भी चौथे अंक की विदाई में ढाल देता है ।।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

आज के नाटक, रंगमंच  सिनेमा और अभिनेता

शोहरत-ए-आसमाँ भी उसमें मेरे पास माँ है कहता,

अनाथों की मां को भी शीशे में उतार लेता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

जानते हो मालविकाग्नि के पिता-पुत्र स्नेह को ?

नाटक तो नाटक, कुमार में पार्वती और हिमालय के नेह को ?

वहाँ बचपन से बुढ़ापे तक जीवंत वत्सल ही तार देता है।

और रसों को आत्मा कहने वाला भी दर्पण में वत्सल अपार देता है

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

पार्वती और कुमार के प्रति वात्सल्य की समानता में,

गहरी बात है उसमें छुपे अद्भुत की महानता में ,

उसकी अनुभूति में बॉलीवुड, हॉलीवुड को छोड़ो,

सब कहते हैं शांत को रखो अद्भुत को छोडो़ ,

जिससे नटी ही नहीं सहृदय भी आत्मा के पार जाता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

जो कहता है शृंगार, वत्सल शांत या वीर राजा हो ,

यह सत्य भी आज सोचो तो आधा हो

क्यों ना अद्भुत साहित्य में रसों का राजा हो

क्योंकि अद्भुत ही वह रस है ,

जो सबको महानता उधार देता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

खोजते हैं सब नाटक और रंगमंच में ,

वीर, शृंगार, शांत के प्रपंच में,

महाकवि ही है जो ऐंटरटेनमेंट उधार देता है ।

वो महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

यह काव्य शोध का ही उत्कर्ष है ,

विराम नहीं अपितु एक विमर्श है ,

जो अद्भुत और वत्सल रस को नया आधार देता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।

 

इसी कलम से बुद्धिजीवियों ने ग्रहों के आयाम पाए हैं।

सृष्टि के आदि अंत की उमा हूँ ,

जिसका साहित्य आपको हर्ष और विस्मय अपार देता है ।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

अंत करती हूँ वाणी और महाकवि को प्रणाम कर ,

जो कवि को नाट्यकर्ता की पहचान देता है।

वह महाकवि है जो वत्सल को निखार देता है।।

 

© उमा रानी मिश्रा ✍

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #1 – आत्मकथ्य – युवा सरोकार के लघु आलेख ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  ☆

☆ आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख☆

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-1  उन्हाळ्याची सुट्टी ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी की कविताएं  जमीन से जुड़ी  हैं एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देती हैं।  उनके द्वारा रचित बाल साहित्य की विशेषता यह है कि वह बच्चों के साथ ही बड़ों को भी संदेश देती है।  निश्चित ही उनके साहित्य  कीअपनी ही एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  बाल गीत – उन्हाळ्याची सुट्टी )

? रंजना जी यांचे साहित्य #-1 ? 

 

☆ उन्हाळ्याची सुट्टी ☆

 

झाली सुट्टी उन्हाळीssss

हो झाली सुट्टी उन्हाळी , झटपट तिकीट कटवा।

मला करमेना इथे बाबा बिगीनं अजोळी  पाठवा।धृ।।।

 

या शाळेच्या नादात साल पुरा लोटला।

अभ्यास करून करून कंटाळा आई ग आला।

बसलो तयार होऊन….

बसलो तयार होऊन  , छंद वर्गाचा पत्ता कटवा ।।१।।

 

आली पाडाने बहरून मामाची आंबेराई ।

संत्री मोसंबी द्राक्षाची गणती कशाला बाई।

दोस्त कंपनी सारी…

दोस्त कंपनी सारी, झटपट सार्‍यांना भेटवा।।२।।

 

घुंगराच्या गाडीने डुलत डौलात जाईन।

डोंगर दरी खोऱ्यांची  घमाल रोजच पाहीन।

पोहू माशा परि…

पोहू माशा परि  आम्हा पहाटे बिगीन उठवा।।३।।

 

आजी आजोबाची हो, लाडाची चिमणी पोरं।

आणला मामा मामीनी झोक्याला घोटीव दोर।

उंच आभाळी झोका..

उंच आभाळी झोका अशी धमाल मनात साठवा।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ O bonobo.. bonobo.. o no.. bonobo! ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ O bonobo.. bonobo.. o no.. bonobo! ☆

She is a sweet girl from an ancient Latin American country. Her laugh is funny and naughty. We often laugh together on Skype laughter club. On the day she joins us, we know that she will make our day with her bubbly bursts. Everyone online has to love her. She leaves no other option. She teases each and everyone there one by one addressing by individual name.

She loves to learn how to make Indian chai (tea) in between laughs. Fig is her favourite fruit and she wants to know whether it is available in India as she excitedly tells us that she is keen to visit us. She asks me like a child how long I work at my office and what do I do there. Do I go to my workplace on a car? Then, she makes a sound, “dhirr dhirr” as if driving a car and laughs loud.

One day she teased one of our skype laughter club members and said the laugh reminds her of a monkey. Then, the chat dialogue box was soon filled with monkey, chimpanzee, gorilla, etc. I asked her if she knew who a bonobo was. She replied in the negative and reverted the question back to me. I told her to google and find out. She is really quick. As soon as she googled it, she burst into a hysterical laughter repeating, “o bonobo.. bonobo.. o no.. bonobo!” and immediately replaced her profile picture with that of a beautiful bonobo.

Her laughter is extremely contagious. When she is around, all of us become silly, little kids. Playful to the hilt.

Sadly, she is suffering from anorexia – an eating disorder – due to which she had to quit her studies. She was on medication and lost a lot of weight. She felt lonely, miserable and depressed.

Then someone suggested that she should try Laughter yoga. She found a laughter teacher and also joined a laughter club. She felt much better. A few months ago she joined Skype laughter club and that’s where we discovered each other. I and my wife have become so fond of her. My mom too loves her. and all of us there on Skype laughter club. We are delighted when she joins us for a laugh and feel sad when we don’t find her for some days.

One day when she was very happy she told us that laughter has helped her a lot and she may go back to school soon but again disappeared for some days. These days we are not sighting her regularly. Once in a while she responds to our messages and comes over to laugh with us on Skype. She is so sweet and so naughty.

We wish her all the very best in life. May God bless her!

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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