भावार्थ : हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।।25।।
As the ignorant men act from attachment to action, O Bharata (Arjuna), so should the wise act without attachment, wishing the welfare of the world! ।।25।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(श्री संजय भारद्वाज जी एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं। पर्यावरण दिवस पर यह विशेष आलेख बेशक 2017 में लिखा गया हो किन्तु, आज के परिपेक्ष्य में पर्यावरण पर रचित कोई भी साहित्य सामयिक ही होगा। अब आप स्वयं ही पढ़ कर निर्णय ले सकते हैं। आभार श्री संजय भारद्वाज जी इस सार्थक रचना के लिए।)
☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆
(मित्रो! 5 जून को पर्यावरण दिवस है। आज अपना एक लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
(मैं अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” के लिए मेरे आग्रह को स्वीकार किया। अब आप प्रत्येक बुधवार को डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “रात का चौकीदार”।)
डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –
विधा : गीत, नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि
प्रकाशन :
प्यासो पघनट (निमाड़ी काव्य संग्रह- 1980), आरोह-अवरोह (हिंदी गीत काव्य संग्रह – 2011), अक्षर दीप जलाएं (बाल कविता संग्रह- 2012), साझा गीत अष्टक-10, गीत-भोपाल (2013),
संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर साहित्य परामर्शक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी तथा लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, भोपाल एवं जबलपुर की अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।
विशेष :महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा “रात का चौकीदार” सम्मिलित।
सम्मान :
विभागीय राजभाषा गौरव सम्मान 2003, प्रज्ञा रत्न सम्मान 2010, सरस्वती प्रभा सम्मान 2011, पद्यकृति पवैया सम्मान 2012, शब्द प्रवाह सम्मान, कादम्बिनी साहित्य सम्मान भोपाल, लघुकथा यश अर्चन सम्मान, साहित्य प्रभाकर सम्मान, निमाड़ी लोकसाहित्य सम्मान- महेश्वर, साहित्य भूषण, विद्यावाचस्पति, वर्तिका राष्ट्रीय साहित्य शिरोमणि सम्मान, साहित्य संगम मार्गदर्शक सम्मान 2018- इंदौर, दोहा रत्न अलंकरण 2018- जबलपुर सहित अन्य विविध सम्मान
संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवानिवृत
☆ तन्मय साहित्य – #1 ☆
☆ रात का चौकीदार ☆
(यह लघुकथा महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।)
दिसंबर जनवरी की हाड़ कंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस भरी रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकीदार नाम का यह गिरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोंकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए कॉलोनी में रातभर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है. हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है. साबजी, पैसे?
कितने पैसे, वह पूछता है उससे?
साबजी- एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए. आपको तो मालूम ही है.
अच्छा एक बात बताओ बहादुर- कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं तुम्हें महीने में?
साबजी- यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से कभी पचास से. तीज त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है. इतने में ठीक-ठाक गुजारा हो जाता है हमारा.
पर कॉलोनी में तो सौ सवा सौ से अधिक घर हैं फिर इतने कम क्यों?
साबजी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते है। हमें जरूरत नहीं है तुम्हारी.
तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि नहीं? उसने पूछा
हां साबजी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है. भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी की घटना हो जाय तो पुलिस तो फिर भी हमसे ही पूछेगी ना. और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि पैसे नहीं देते, इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी. ऐसा पहले मेरे साथ हो चुका है साबजी.
अच्छा ये बताओ रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता?
डर क्यों नहीं लगता साबजी, दुनिया में जितने जिन्दे जीव हैं सबको किसी न किसी से डर लगता है. बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं. कई बार नशे-पत्ते वाले और गुंडे बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है. शरीफ दिखने वाले लोगों से झिड़कियां, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है.
अच्छा बहादुर सोते कब हो तुम? फिर प्रश्न करता वह.
साबजी, रोज सुबह आठ-नौ बजे एक बार और कॉलोनी में चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूं कि, सबकुछ ठीक है ना, फिर कल की नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूं. अच्छा साबजी, अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं.
अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नहीं देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है. तो अब से मेरे घर की चौकसी भी तुम्हें बिना पैसे के करना होगी, समझे?
जैसी आपकी इच्छा साबजी, और चौकीदार अगले घर की ओर बढ़ गया.
(प्रत्येक भाषा का अपना एक समृद्ध साहित्य होता है। मेरी दृष्टि में एक कवि के लिए सभी भाषाएँ समान होती हैं। कवि का किसी भी भाषा में समर्पित भाव से कविता को उसका क्या योगदान है, यह महत्वपूर्ण है। संभव है मेरे विचारों से सब सहमत न हों। किन्तु, यह प्रश्न अपनी जगह स्वाभाविक है कि कवि का उसकी अपनी मातृभाषा में कविता को क्या योगदान है ? संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी की प्रतिष्ठित साहित्य सृजन यात्रा में ऐसे कई पड़ाव आए होंगे। आज प्रस्तुत है उनके साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में “मी मराठी कवितेला काय दिले ? (मैंने मराठी कविता को क्या दिया?)” पर उनकी बेबाक राय। आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 2 ☆
☆ मी मराठी कवितेला काय दिले ? ☆
खुप चांगला प्रश्न आहे स्वतःच स्वतःला विचारलेला !
आणि उत्तर ही प्रांजळ पणे देण्याचा प्रयत्न–
कविता मी वयाच्या तेरा-चौदाव्या वर्षा पासून लिहितेय !
आठवीत असताना वर्गाच्या हस्तलिखितासाठी एक कथा आणि कविता लिहिली त्या वेळी असं मुळीच वाटलं नाही भविष्यात आपला हात इतका काळ लिहिता राहील !
सासरी माहेरी अजिबात च पोषक वातावरण नसताना कविता टिकून राहिली!
कुठल्याही काव्य मंडळात जायच्या आधी मला छापील प्रसिद्धी भरपूर मिळाली होती,सुरूवातीला मी हिंदी कविता लिहिल्या त्या रेडिओ पत्रिकांमधून प्रकाशित झाल्या!
मी एका बाबतीत खुप भाग्यवान आहे की,माझ्या हिंदी मराठी कवितांना खुप प्रशंसा पत्रे आली आहेत! लोकप्रभा मधे प्रसिद्ध झालेल्या कवितेला महाराष्ट्रातल्या कुठून कुठून सुमारे 40 पत्रे आली होती. त्याआधी रेडिओ पत्रिकेत ल्याही हिंदी कविताना नेपाळ, झुमरीतलैय्या वगैरे ठिकाणाहून पत्रे आली होती!
प्रामाणिक पणे सांगायचं तर मी आत्मलुब्ध व्यक्ती नाही! पण मला खुप प्रशंसा मिळालेली आहे, गजल चा तर मी फार खोलात जाऊन अभ्यास ही केलेला नाही पण गजल नवाज भिमराव पांचाळें च्या संमेलनात ही प्रशंसा मिळाली ! भिमरावांनी सकाळ आणि पुण्य नगरी मधल्या सदरात ही माझ्या गजला निवडल्या आणि त्या वाहवा मिळवून गेल्या!
ज्या काळात क्वालिटी जपणारे संपादक होते त्याकाळात माझ्या कविता मनोरा, स्री, मिळून सा-याजणी, विपुलश्री इ इ मधे प्रकाशित झाल्या आहेत! “फेवरिझम” चा फायदा मी कधीच घेतला नाही! माझ्या कवितेत काही बदल कवी रवींद्र भट यांनी सुचवले होते, तेव्हा मी त्यांना म्हटलं होतं, “मग ती माझी कविता रहाणार नाही तुमची होईल !” मोडकी तोडकी कशी ही असो माझी ती माझी ! त्या वेळी मी परिषदेचा “उमलते अंकुर” कार्यक्रम नाकारला होता !
मी मराठी कवितेला काय देणार? ती मुळातच खुप संपन्न आहे! पण मराठी कवितेने “स्रीवादी कवयित्री” म्हणून खसखशी एवढी का होईना माझी नोंद घेतली आहे !
I took a morning flight from Indore, halting briefly at Mumbai, which touched Bengaluru by noon.
As I came out of the arrival gate, a pleasant surprise, which I had not dreamt of, overwhelmed me. I shall write about it in a separate blog sometime later, not now, as it is a different subject matter altogether.
We proceeded to the Laughter Yoga University; just about 20 minutes drive from the airport. Dr Madan Kataria, the Laughter Guru, whom I adored, was here. I touched his feet and he introduced me to his young team.
Before I could settle down, he said, “We will have lunch now and then, within an hour, we are leaving for an interesting assignment – Laughter Yoga with the Commandos!”
The Centre for Counter Terrorism was a couple of hours drive from the university.
Over a cup of tea, the trainers there told us, “The commandos are here for training. They have a strict routine. They get up at 5 am and go to bed only after 11 pm. The whole day they have strenuous physical activity as well as theory classes. They feel a lot of stress, fatigue and are sleep deprived.”
We were taken to an indoor shooting range where 30 commandos were waiting for us.
Dr K greeted them with laughter and said, “We know that you are going through a very tough routine. You don’t get enough sleep. The physical activities you do the whole day are exhausting. You are away from your loved ones and being combat ready at all times drains away all the energy.”
The commandos felt that here is someone who understands their plight and empathizes with them. They were now willing to listen.
Dr K said, ”We are here to show you ways to relax, build stamina and be happy!”
We then had an out of the world experience of laughter yoga and meditation for more than an hour. The commandos were all smiles. Fully relaxed!
Each one wanted to shake hands with Dr K. We could feel the gratitude in their eyes. The tough exterior of the commandos had melted and the child within was visible all around.
We too felt blessed and realized that we owe a lot more to them.
On our way back, Dr K shared, “How fulfilling this experience has been! I am feeling really good.”
He continued, “We had conducted a session with the commandos earlier too but this time it was something different. We shall not leave it mid-way. We shall depute one of our teachers here for as long as they want who will also train their trainers to conduct laughter and breathing exercises.”
Dr K spoke to their superintendent and sent one of our star laughter yoga teachers, Vinayak, to be with them all along the day for a couple of days.
Vinayak was with them from early morning till late night. Whenever the group energy drooped, he shared some laughter and breathing exercises. The effect was magical.
The trainers told us that the commandos were now more willing to learn, responded cheerfully to their commands and shared a lot of positive energy as a team.
They laughed during breaks, doing their own versions of the laughter exercises and would allow Vinayak to leave the place.
(Thank you, Vinayak, for the splendid efforts! We are looking forward to a blog with a detailed account of the experiences you had there which you alone can share.)
( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )
यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा
मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।
भावार्थ : इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।।24।।
These worlds would perish if I did not perform action; I should be the author of confusion of castes and destruction of these beings. ।।24।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । साप्ताहिक स्तम्भ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है कविता में – हिन्दी एवं मराठी मिश्रित रचना का एक नया प्रयोग ।”हिन्दी आणि मराठीतली मिश्र रचना…”। )
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक लघुकथा “पाहुना”। लघुकथा पढ़ कर सहज ही लगता है कि यह कथा/घटना कहीं हमारे आस पास की ही है। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 2 ☆
☆ पाहुना ☆
गाँव में जब कोई अतिथि आ जाता था उसे सभी पाहुना कहते थे। वर्तमान में पाहुना से अतिथि, मेहमान, और अब गेस्ट का नाम प्रचालित हो गया है। ऐसे ही छोटा सा गांव जहा एक वकील बाबू रहते थे, गांव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे। लोग उनकी काफी इज्जत करते थे। कभी कोई परेशानी हो सभी उन्ही के पास जा बैठते थे। घर भी उनका बड़ा, बाहर दालान और फिर बड़े बड़े पत्थरों के चबूतरे जिनमे कोई ना कोई बैठा ही रहता था। उनका रूतबा भी बड़ा था। शरीर भी उनका गठा बदन, काली घनी मूंछ, बड़ी बड़ी आँखे और लंबाई भी सामान्य से अधिक। जब अपने पहनावे काले कोट में निकलते थे तो सब दूर से ही हाथ जोड़ लेते थे। पर कहते हैं कहीं ना कहीं सब किसी ना किसी कारण से दुखी रहते हैं।
पांच बच्चों के पिता थे। धर्मपत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी। छोटे छोटे बच्चों का लालन पालन उनकी सासू माँ के द्वारा हो रहा था। जो अपनी बेटी के पास रहती थी क्यूँकि बेटी के अलावा कोई और नहीं था। पति को गुजरे एक दशक हो गया था। बूढ़ी सासू माँ अपने तरीके से बच्चों की निगरानी करती थी। दो बड़े बेटे कुछ समझदार होने लगे थे। अचानक ही वकील साहब की पत्नी का देहांत हो गया। सभी परेशान हो गए।
समझ नहीं आया पर कब तक घर बैठते। काम काज के सिलसिले में उनको बनारस जाना पड़ा। वहा उनकी जान पहचान फूल वाली से हो गयी जो निहायत ही सुंदर और नवयौवना थी। लगातार आने जाने के कारण उनमे घनिष्ठता बढ़ गयी। एक दिन वो कानून उसे पत्नी बना घर ले आए और सामने वाले दूसरे घर में रहने दिया।
सभी पूछते कि ये कौन है? उनका उत्तर होता – ” पाहुना आई है कुछ दिनो के लिए”। बूढ़ी माँ को सब समझ में आ गया। बच्चों में उसने जहर का बीज बो दिया। कभी भी वो उसके पास नहीं गए। पिताजी कहते थे कि इन्हे अपनी माँ की तरह मानो। पर बच्चों ने कभी स्वीकार नहीं किया। पाहुना के भी तीन संतान, दो बेटी और एक बेटा हुआ। परन्तु कभी कोई आपस में नहीं मिले। आमने सामने रहने के बाद भी भाई बहन एक दूसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करते थे।
धीरे धीरे समय सरकता गया सभी कामों मे निपुण पाहुना अपनी गृहस्थी संभाल रही थी परन्तु बच्चों का तिरस्कार उसको सहन नहीं हो पा रहा था। हमेशा वकील बाबू से कहती कि कुछ ऐसा हो जाए कि हमारे बच्चों को मैं एक साथ रहते देख सकूँ। उसके मन में सभी बच्चों के लिए एक सी भावना थी। बस बच्चों का दिल जीतना चाहती थी।
सासू माँ का देहांत हो गया परंतु हालत वैसे का वैसा ही रहा। धीरे धीरे तिरस्कार उसके मन में बीमारी का गांठ बनाने लगी और वह असमय ही बिस्तर पकड़ ली। उसकी अपनी बड़ी बिटिया सारा काम करके हमेशा माँ को समझाती परंतु वह दिन रात रोती ही रहती। वकील बाबू को बच्चों को पास लाने की जिद करती रहती। परंतु नव जवान होते बच्चे अपने दूसरी माँ को देखना भी पसंद नहीं करते थे।
एक दिन पाहुना का अंतिम समय आ गया। सभी बच्चों को बुला कर वकील साहब ने कहा कि बेटे पाहुना के जाने का दिन आ गया है, वो अब जा रही है सदा के लिए। तुम सब एक बार उनसे मिल लो। बस फिर क्या था सबने यही कहा – पिताजी पाहुना को जाने नहीं देना आप अकेले हो जाएंगे। माँ आपको छोड़ कर पहले ही चली गई है आप पाहुना को जाने नहीं देना। इतना सुनना था कि वकील बाबू का मुंह खुला का खुला ही रह गया। उनको समझते देर ना लगी कि सब पाहुना से उतना ही प्यार करते थे सिर्फ जताते नहीं थे। परंतु बहुत देर हो चुकी थी। सभी बच्चे खड़े अपनी माँ के अंतिम क्षण में व्याकुल थे। परंतु पाहुना अपनी जीत पर मुस्कुराते हुए आज बहुत खुश हो रही थी और मुस्कुराते हुए ही उसने अपनी आंख बंद कर ली।
सदा सदा के लिए पाहुना उस घर से जा चुकी थी। सभी ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। आज पाहुना बहुत खुश थी क्यूँकि उसे उसका अपना घर मिल गया था जिस घर में वो पाहुना(मेहमान) आई थी। आज सब कुछ उसका अपना था। अब वो पाहुना नहीं थी।
काव्य संग्रह – बिन गुलाल के लाल – श्री मनोज श्रीवास्तव
☆ अद्भुत, अनुपम और अद्वितीय कृति ☆
कविता केवल शब्दों का कुशल संयोजन नहीं अपितु भावों का यथावत सम्प्रेषण भी है. रचनाकार को चाहिए कि वह यह भी ध्यान रखे कि उसकी रचना मस्तिष्क का कचरा न होकर ह्रदय की मथानी से मथकर निकला हुआ नवनीत है. इस प्रकार के विचार श्रेष्ठ कवि मनोज श्रीवास्तव की इस पुस्तक “बिन गुलाल के लाल” को पढ़ कर स्वतः कौंधने लगते है.
मनोज जी का मूल स्वर ओज का है किन्तु लगभग सभी रसों में इनकी रचनाएँ मैंने मंचों पर इनसे सुनी है. हास्य-व्यंग्य में भी उतनी ही महारत हासिल है जितनी इन्हें वीर रस में महारत है. अपनी ओज की कविताओं में रचनाकार जहां एक और प्रांजल शब्दों का प्रयोग करके भाव सौन्दर्य के साथ-साथ नाद सौन्दर्य भी प्रतिपादित करता है वही अपनी हास्य-व्यंग्य कविताओं में इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि कठिन शब्दों के बोझ के नीचे दबकर संप्रेषणीयता कही मर न जाए. संभवतः इसीलिये श्री मनोज जी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते दिखाई देते हैं, किन्तु एक ज़िम्मेदार रचनाकार का भान हमेशा उन्हें रहता है शीर्षक कविता में उन्होंने हास्य में भी हिन्दी की समृद्धता को प्रकाशित किया है-
हिरनी सी उन्मुक्त चंचला चाल लगे भूचाल हो गयी
कंचन देह कामिनी काया देखो तो फ़ुटबाल हो गयी
पर यह चमत्कार देखो तो ब्यूटी पार्लर में जाते ही
अपना रूप देख दर्पण में बिन गुलाल के लाल हो गयी
सयाने लाल शीर्षक की कविता में जहां रचनाकार एक ओर सज हास्य प्रस्तुत करता है वही दूसरी ओर निरर्थक और उबाऊ रचनाकारों पर परोक्ष कटाक्ष भी करता है.
आजकल के काव्य मंचों की गुणा-गणित से कवि व्यथित भी है. जिसे वह हँसी-हँसी में बहुत ही समर्थ तरीके से अपनी कविता बड़े कवि और ये सरकारी कविसम्मेलन में प्रस्तुत करता है. गंभीर बातों को हल्की फुल्की शब्दावली में रखने की कला इन कविताओं में मनोज जी ने बखूबी दिखाई है.सभी कविताएं खूब गुदगुदाती है और विचारों में नयी उत्तेजना भी संचारित करती है.
प्रस्तुत पुस्तक बिन गुलाल के लाल कवि मनोज श्रीवास्तव जी की एक श्रेष्ठ रचना है. हास्य-व्यंग्य के नए रचनाकारों के लिए शब्दों के समुचित उपयोग और भावों की कुशल संप्रेषणीयता सीखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी. सामान्य पाठक जिस समय भारी भरकम साहित्य को बर्दाश्त करने की स्थिति में न हो उस समय यह किताब समय का सद्पुयोग सिद्ध हो सकती है.
मुझे लगता है अग्रज मनोज श्रीवास्तव जी ने इस पुस्तक को लिखकर हिन्दी हास्य-व्यंग्य साहित्य के महायज्ञ में जबरदस्त आहुति दी है. कुल मिलाकर सबको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.