आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (35) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना)

संजय उवाच

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।। 35 ।।

संजय ने कहा –

केशव के ये वचन सुन , कॅंप , कर विनत प्रणाम

अर्जुन बोले कृष्ण से फिर ये वचन ललाम। ।। 35 ।।

भावार्थ :  संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुए नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्‍गद्‍ वाणी से बोले।। 35 ।।

 

Having heard that speech of Lord Krishna, the crowned one (Arjuna), with joined palms, trembling,  prostrating  himself,  again  addressed  Krishna,  in  a  choked  voice,  bowing  down, overwhelmed with fear.।। 35 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34 ☆ बौनापन ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बौनापन”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34☆

☆  बौनापन ☆

 

ए ख़ुदा!

कितना विशाल है

तेरा जिगर

और कितनी छोटी है मेरी हस्ती!

 

जब भी अपने आप को

नापने लग जाती हूँ,

तो एक मिटटी का कण भी

मुझसे बड़ा ही लगता है,

सच, नहीं हूँ मैं,

एक कतरा भी!

 

ए ख़ुदा!

अक्सर सीली सी शामों में

सोचती हूँ कि

कैसे तू ख़याल रखता है

अपने इतने सारे चाहने वालों का?

कैसे तू निभाता जाता है साथ

हर अलग-अलग दिशा में उड़ते हुए

इन तिनकों का?

कैसे बटोरता है तू

इनके एहसास?

कैसे कर लेता है तू

हर किसी से इतनी मुहब्बत?

और कैसे इन्हें आभास दिलाता है

अपनेपन का?

 

आज

जब मेरे आवारा से कदम

फिर तौलने लगे खुद को

तो उन्हें एक बार फिर

हवाएँ एहसास दिला गयीं

मेरे बौनेपन का!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चौकन्ना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – चौकन्ना ☆

सीने की

ठक-ठक

के बीच

कभी-कभार

सुनता हूँ

मृत्यु की

खट-खट भी,

ठक-ठक..

खट-खट..,

कान अब

चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा ये

ठक-ठक और

खट-खट तो

जन्म से ही

चल रही हैं साथ

और अनवरत..,

आदमी यदि

निरंतर

सुनता रहे

ठक-ठक के साथ

खट-खट भी,

बहुत संभव है

उसकी सोच

निखर जाए,

खट-खट तक

पहुँचने से पहले

ठक-ठक

सँवर जाए..!

 

घर में रहें, सुरक्षित रहें। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ सबकी माई ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक अत्यंत प्रेरक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  सबकी माई । इस सन्दर्भ में मैं मात्र इतना ही कहूंगा – निःशब्द, अतिसुन्दर लघुकथा, कथानक एवं कथाशिल्प। आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ लघुकथा – सबकी माई  ☆

हाय री मैया। बडो़ दरद उठ रहो हे। प्रभू  भगवन भली करो—चैती के स्वर में भरी वेदना से पड़ोसन माई परेशान हो रही थी, मगर अपने फ्लैट से निकल कर सामने उसके कमरे पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। बीच-बीच में राजन की आवाज सुनाई देती – – – धीरज रख चैती–धीरज रख।।

बड़ी सी फ्लैट स्कीम के सामने एक खाली प्लाट में बने छोटे से कच्चे कमरे में चैती और राजन रहते थे। राजन रोज मजदूर था। दूर दूर तक आॅटो ढूँढ कर थक चुका था मगर संपूर्ण बंद के कारण लाचार था।बगल की दुकान से एंबुलेंस के लिए उसने फोन करवाया था।

वह चैती को समझा रहा था— बस अभी एंबुलेंस पहुँचती ही होगी। वैसे भी तेरी डिलेवरी में समय है घबरा मत – – धीरज धर चैती।

दो घंटे बीत गए। एंबुलेंस नहीं पहुँची थी। चैती की चीखें थोड़ी और व्याकुल हो रहीं थीं। आस पास फ्लैटों से लोग-बाग झाँक रहे थे।

अचानक  एंबुलेंस के रुकने की आवाज सुनाई दी मगर वह चैती के नहीं उसके ठीक सामने माई के बड़े से फ्लैट के आगे रुकी। माई ने एंबुलेंस बुलवाई थी। अब माई से और रहा नहीं गया।सोचा मैं अकेली जान। बेटी विदेश में फँसी है— किसके लिए अपनी जान की इतनी परवाह करूं। यह विचार करते ही माई उठ खड़ी हुई, घर को ताला डाल कर राजन के साथ एंबुलेंस में बैठ गई उसके साथ अस्पताल जाने के लिए और पाँच हजार रुपये की गड्डी उसके हाथ में थमा दी। चैती और राजन हैरान हो गए— पूरे मोहल्ले में झगडालू चिड़चिड़ी बुढिया के रूप में मशहूर माई का यह रूप देखकर।!

माई की पूरी कालोनी में किसी से पटती नहीं थी दूधवाले सब्जी वाले भी उससे डरते। लेकिन आज जब कोरोना के डर से सगे रिश्तेदार भी अपने अपने फ्लैटों घरोंदों में दुबके बैठे हैं वहाँ माई का यह साहस अभिभूत कर गया।

चार दिन बाद जब  माई के साथ चैती गोद में नन्हें से बच्चे को लेकर लौटी तो निवासियों के साथ साथ सभी फ्लैटों के दरो दीवार देहरी तक माई के सम्मान और स्नेह से भर उठे–दूर से ही सही सबकी तालियों से परेशान चिड़चिड़ी माई ने सबको अपनी पुरजोर आवाज में दपट दिया और जोर से दरवाजा लगा लिया लेकिन तालियाँ बजती ही रहीं – – – बजती ही रहीं।।

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 14 ☆ अंधविश्वास के ताले ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “अंधविश्वास के ताले ”

इस कविता के सन्दर्भ  में मेरे जीवन के अनमोल क्षण जुड़े हुए हैं। इस कविता को 2014 की यूरोप यात्रा के दौरान लिखा है किन्तु  इसका सन्दर्भ इससे भी पूर्व 2012 की यूरोप यात्रा से जुड़ा है। कविता के साथ लगा चित्र इटली के वेरोना शहर का है जिसमें सपत्नीक जूलियट की प्रतिमा के साथ हूँ।  जूलियट की प्रतिमा के पीछे बाड़ में प्रेमियों के अनगिनत ताले लगे हैं। हमने भी एक ताला जोड़ा था  यह सोचकर कि- पता नहीं कब दोबारा आना होगा और हमारा प्रेम भी वैसा ही बना रहे जैसा सब सोचते हैं। आज वह सब स्वप्न सा लगता है। मैं नहीं जानता वे अनगिनत जोड़े कहाँ हैं जिन्होंने इन प्रेमी स्मारकों पर ताले लगाए थे ।

आज इटली के सन्दर्भ में अनायास ही यह कविता स्मृति से निकल कर  बाहर आ गई ।  मेरी पुस्तक ” शब्द और कविता “ से  यह कविता उद्धृत कर रहा हूँ।  ईश्वर इटली और सारे विश्व  में महामारी पीड़ितों  के परिवारों को सम्बल प्रदान करे  तथा  दिवंगतों को विनम्र श्रद्धांजलि । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 14

☆ अंधविश्वास के ताले ☆

वेरोना

जूलियट की बालकनी

बालकनी के नीचे

जूलियट की प्रतिमा

और

प्रतिमा के पीछे

जंगले में टंगे

अनगिनत ताले।

पेरिस

सीयेन  नदी के ऊपर

लवर्स ब्रिज पर

पुल की बाड़ के तारों पर टंगे

अनगिनत ताले।

 

बेम्बर्ग का पुराना शहर

शहर के बीचों बीच

रेनिट्ज़ नदी का पुल

और

पुल की बाड़ के तारों पर टंगे

अनगिनत ताले।

 

पुल के नीचे

शांत रेनिट्ज़ नदी की सतह पर

अठखेलियाँ करती

बदक की जोड़ियाँ

अनजान हैं

आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के

अंधविश्वास से।

 

उन्हें भ्रम है

कि बन्द टंगे तालों की तरह

उनकी जोड़ियाँ

हो जाएंगी

‘अटूट’ और ‘अमर’।

 

मैंने सुना है कि –

अक्सर

ताले टंगे रहते हैं।

जोड़े टूट जाते हैं।

जूलियट वही रहती है

और

रोमियो बदल जाते हैं।

 

थोड़े बहुत अंधविश्वासी तो

हम भी हैं ।

हम भी जाते हैं

गाहे बगाहे

मंदिर – मस्जिद में

चर्च – गुरुद्वारे में

पीर – पैगंबर कि मजार पर।

 

जाने अनजाने

बाँध आते हैं धागे ।

अपनी औलादों की

सलामती के लिए

माँग आते हैं दुआ।

 

इस आस के साथ

कि – यदि

औलाद नेक

और

सलामत रहे

तो जोड़े ही क्या

भला

घर भी कैसे टूट सकते हैं ?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

बेम्बर्ग 28 मई 2014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ असंख्य दीप-शिखा प्रज्ज्वलित ☆ ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं। आज प्रस्तुत है कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  की  व्यक्तिगत मनोभावनाओं की काव्याभिव्यक्ति असंख्य दीप-शिखा प्रज्ज्वलित। )

 ☆ असंख्य दीप-शिखा प्रज्ज्वलित ☆ 

 

दुष्कर मानव जीवन-पथ पर

अनेक समस्याएँ, अकल्पनीय!

समस्त भारत  का  अनवरत

कल्याण-प्रयास,  सराहनीय!!

 

करें असंख्य दीप-शिखा प्रज्ज्वलित,

हों पूरित मनोवांछित आकांक्षाएं !

प्रधानमंत्री जी के समस्त संकल्प

पूर्ति हेतु, अनंत शुभ-कामनाएं!!

 

©  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 32 ☆ व्यंग्य संग्रह – डोनाल्ड ट्रम्प की नाक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री  अरविन्द तिवारी जी  के  व्यंग्य -संग्रह  डोनाल्ड ट्रम्प की नाक” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 32 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – डोनाल्ड ट्रम्प की नाक 

पुस्तक – डोनाल्ड ट्रम्प की नाक ( व्यंग्य-संग्रह) 

लेखक – श्री अरविंद तिवारी 

प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य – रु 195/- पृष्ठ – 124

ISBN  9789388517560

हिंदी बुक सेण्टर पर ऑनलाइन उपलब्ध  >> डोनाल्ड ट्रम्प की नाक ( व्यंग्य-संग्रह)

 

☆  व्यंग्य – संग्रह   –  डोनाल्ड ट्रम्प की नाक – श्री  अरविन्द तिवारी –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

इस सप्ताह व्यंग्य के एक अत्यंत सशक्त सुस्थापित मेरे अग्रज वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री अरविन्द तिवारी जी की नई व्यंग्य कृति डोनाल्ड ट्रम्प की नाक पढ़ने का अवसर मिला. तिवारी जी के व्यंग्य अखबारो, पत्र पत्रिकाओ सोशल मीडिया में गंभीरता से नोटिस किये जाते हैं. जो व्यंग्यकार चुनाव टिकिट और ब्रम्हा जी, दीवार पर लोकतंत्र, राजनीति में पेटीवाद, मानवीय मंत्रालय, नल से निकला सांप, मंत्री की बिन्दी, जैसे लोकप्रिय, पुनर्प्रकाशित संस्करणो से अपनी जगह सुस्थापित कर चुका हो उसे पढ़ना कौतुहल से भरपूर होता है. व्यंग्य संग्रह  ही नही तिवारी जी ने दिया तले अंधेरा, शेष अगले अंक में हैड आफिस के गिरगिट, पंख वाले हिरण शीर्षको से व्यंग्य उपन्यास भी लिखे हैं. बाल कविता, स्तंभ लेखन के साथ ही उनके कविता संग्रह भी चर्चित रहे हैं. वे उन गिने चुने व्यंग्यकारो में हैं जो अपनी किताबों से रायल्टी अर्जित करते दिखते हैं. तिवारी जी नये व्यंग्यकारो की हौसला अफजाई करते, तटस्थ व्यंग्य कर्म में निरत दिखते हैं.

पाठको से उनकी यह किताब पढ़ने की अनुशंसा करते हुये मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हूं. जब आप स्वयं ४० व्यंग्यों का यह  संग्रह पढ़ेंगे तो आप स्वयं उनकी लेखनी के पैनेपन के मजे ले सकेंगे. प्रमाण पत्रो वाला देश, अपने खेमे के पिद्दी, राजनीति का रिस्क, साहित्य के ब्लूव्हेल, व्यंग्य के मारे नारद बेचारे, दिल्ली की धुंध और नेताओ का मोतियाबिन्द, पुस्तक मेले का लेखक मंच, उठौ लाल अब डाटा खोलो, पूरे वर्ष अप्रैल फूल, अपना अतुल्य भारत, जुगाड़ टेक्नालाजी, देशभक्ति का मौसम, टीवी चैनलो की बहस और  शीर्षक व्यंग्य डोनाल्ड ट्रम्प की नाक सहित हर व्यंग्य बहुत सामयिक, मारक और संदेश लिये हुये है.इन व्यंग्य लेखो की विशेषता है कि सीमित शब्द सीमा में सहज घटनाओ से उपजी मानसिक वेदना  को वे प्रवाहमान संप्रेषण देते हैं, पाठक जुड़ता जाता है, कटाक्षो का मजा लेता है,  जिसे समझना हो वह व्यंग्य में छिपा अंतर्निहित संदेश पकड़ लेता है, व्यंग्य पूरा हो जाता है. मैं चाहता हूं कि इस पैसा वसूल व्यंग्य संग्रह को पाठक अवश्य पढ़ें.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 42 – लघुकथा – रावण जैसा कोरोना☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक बालमन के मनोविज्ञान को  उकेरती एक बेहद सुन्दर लघुकथा  “रावण जैसा कोरोना।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में काफी कुछ सकारात्मक सन्देश देती है। इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 42 ☆

☆ लघुकथा  – रावण जैसा कोरोना

रिया छोटी सी चार साल की बिटिया। उसे दादी से कहानी सुनना बहुत अच्छा लगता था। जब से लॉक डाउन हुआ था, दादी जी के पास बैठकर रोज रामायण का पाठ सुनती थी ।

दादी ने सोचा, समय अच्छा है पूरा रामायण पढ़ लेती हूं।लॉक डाउन में भगवान का भजन भी हो जाएगा और घर के सभी सदस्य भी घर पर ही हैं।

बाकी सभी सदस्य तो टेलीविजन, मोबाइल, पेपर पर लगे रहते थे, मम्मी भोजन बनाने में लगी रहती थी, परंतु रिया अपनी दादी के पास बैठकर रामायण की कहानी सुनती। कितना पढ़ी है? उसमें क्या कहानी है? दादी भी उसे बड़े चाव से रोज कहानी सुनाती थी।

बालमन में दिनभर कोरोना की बातें भी आ जा रही थी। चर्चा का विषय भी कोरोना ही बना हुआ था। इसी बीच  आज दादी जी की रामायण का पाठ ‘रावण के वर्णन’ के पास आया। दादी ने रिया को रावण के बारे में बताई। रावण के दस सिर और  बीस हाथ थे। बहुत बलशाली राक्षस था। वह सभी तरफ देख सकता था।उसका बहुत बड़ा परिवार था। यदि भगवान राम ना होते तो रावण का वध कोई नहीं कर सकता था, और राक्षस बढ़ते ही जाते।

बड़े ध्यान से रिया दादी की बात सुन रही थी, और दौड़कर पापा के पास पहुंची, और बोली :- “ पापा क्या यह कोरोना भी रावण की तरह ही है? यह बहुत बलशाली है! हमारे भारत में कोई  राम नहीं जो कोरोना रावण को मार सके? ”

पापा धीरे से मुस्कुरा कर बोले:-” हैं ना बेटा और वह कोरोना रावण रूपी राक्षस को मार ही रहे है। वह अपना काम कर रहे हैं। बहुत जल्दी यह कोरोना रुपी रावण खत्म हो जाएगा।”खुश होकर रिया दीपक जलाने का इंतजार करने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆ कोरोना, नकोच तुझे सरकार ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामायिक भावप्रवण कविता  “कोरोना, नकोच तुझे सरकार।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆

☆ कोरोना, नकोच तुझे सरकार☆

(अजब तुझे सरकार या गीताची समछंदी रचना)

 

कोरोना, नकोच तुझे सरकार

शतकामध्ये कधी न पाहिला, हा असला आजार

 

भेटीतून हा पसरे जगभर, चला ठेवुया थोडे अंतर

दुसरे नाही औषाध यावर, हाच एक उपचार

 

प्रत्येकाला मिळे कोठडी, महल असो वा असो झोपडी

प्राण्यांहूनही माणूस झाला, आज इथे लाचार

 

रस्त्यांवरचे दृष्य वेगळे, रस्ते सारे इथे मोकळे

प्रदूषण आणि अपघाताने, नाही कुणी मरणार

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सलोखा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को  उनके साप्ताहिक स्तम्भ रंजना जी यांचे साहित्य के अंतर्गत पढ़ सकते हैं । आज  प्रस्तुत है  आपकी  एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता ” सलोखा”।)

☆ सलोखा ☆

अगणित जाती धर्म

देश संपन्न  अनोखा।

घडी सत्वपरीक्षेची

परि जपतो सलोखा।

 

जगी तांडव मृत्यूचे।

मती खुंटली जगाची।

पुत्र चाणाक्ष निर्धारी

पाठीराखे शतकोटी।

 

अभावात दावी प्रभा

स्वयंसिद्ध वैद्यराज।

फास रोखती मृत्यूचे

थक्क होई यमराज।

 

व्रत निस्पृह सेवेचे

असे परीचारिकेचे।

सेवा सुश्रृषा करून

बंध बांधी एकतेचे।

 

खाक्या खाकीचा दावितो

अहर्निश सेवादारी ।

दीन दुःखीतांचे अश्रू

पुसतसे शस्त्रधारी।

 

असा अनोखा सलोखा

उभ्या जगी ना मिळेल ।

कोरोनाचा विळखाही

प्रेमा पाहून गळेल।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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