योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Meditation and Guided Relaxation sequence  ☆ Shri Jagat Singh Bisht & Smt Radhika Bisht

Shri Jagat Singh Bisht & Smt Radhika Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Meditation and Guided Relaxation sequence 

We have conducted some sessions of laughter yoga meditation and guided relaxation for the public and the response has been very fulfilling and encouraging. The sessions have enabled a number of participants to come over stress and other ailments. The routine is very effective to overcome stress and fatigue in the corporate world.

While the overall method remains the same as we do during the course of certified laughter yoga teacher / leader training, we give below a sequence that we usually follow. Some exercises are added/omitted looking to the audience and time.

Here we share the sequence with our laughter colleagues:

LAUGHTER MEDITATION SEQUENCE
BREATHING EXERCISES:
DEEP BREATHING, MINDFUL BREATHING, SYNCHRONISED OR DIAPHRAGMATIC BREATHING, ANULOM-VILOM, KAPAL BHATI.

WARMING-UP EXERCISES:
SITTING CALCUTTA LAUGHTER, DEEP BREATHING WITH HOLD IT – HOLD IT.

CHILDLIKE PLAYFULNESS:
VERY GOOD VERY GOOD YAY, GIBBERISH TALKING.

LAUGHTER EXERCISES:
ONE METRE, MILK SHAKE, ALOHA, GURU LAUGHTER, ANTENA, LAUGHTER POINT, LION, BIRD, FORGIVENESS, GRADIENT, HEARTY, SILENT, VOWEL LAUGHTER, JOKE BOOK, ACHES AND PAIN, WIPING SMILE ETC.

LAUGHTER MEDITATION:
FAKE IT UNTIL YOU MAKE IT, VOICE RE-INFORCEMENT , CHILDLIKE GIGGLING, BREATH HOLDING TECHNIQUE, HOLDING YOUR KNEES TOGETHER.
GIBBERISH MEDITATION.
SITTING LAUGHTER MEDITATION, LYING ON YOUR BACK LAUGHTER MEDITATION,ROWING A BOAT, HEAD ON BELLY, BULL’S EYE, CENTIPEDE LAUGHTER.

GROUNDING TECHNIQUES:
HOHO-HAHA GROUNDING DANCE, HUMMING, YOGA NIDRA, EXHALEX, BREATH CONNECT MEDITATION. (any one on each day).

We will be happy to share our experiences with our laughter colleagues and answer any queries that they may have. Love and Laughter!

Radhika and Jagat Singh Bisht
Certified Laughter Yoga Teachers
Indore, India

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।18।।

संजय उवाच:

कर्मो के करने न करने में कुछ स्वार्थ नहीं होता

वैसे ही उसके जीवन में उसका स्वार्थ नही होता।।18।।

भावार्थ : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।18।।

 

For him there is no interest whatsoever in what is done or what is not done; nor does he depend on any being for any object. ।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #1 – निर्मिती प्रक्रिया ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(प्रत्येक कवि की कविता के सृजन के पीछे कोई न कोई तथ्य होता है, जो कवि को तब तक विचलित करता है, जब तक वह उस कविता की रचना न कर ले। और शायद यही उस कविता की सृजन प्रक्रिया है।  किन्तु, इसके पीछे एक संवेदनशील हृदय भी कार्य करता है। ऐसी ही संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी  ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर “कवितेच्या प्रदेशात” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने हेतु अपनी सहमति दी है।  इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  अब आप प्रत्येक बुधवार को उनकी रचनाओं को पढ़ सकेंगे।

यह सच  है कि- कवि को काव्य सृजन की प्रतिभा ईश्वर की देन है। उनके ही शब्दों में  “काव्य प्रतिभा ही आपल्याला मिळालेली ईश्वरी देणगी आहे हे नक्की!”  आज प्रस्तुत है  काव्य सृजन पर उनका आलेख “निर्मिती प्रक्रिया”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात ☆

 ☆ निर्मितीप्रक्रिया ☆

 

मला आठवतंय मी पहिल्यांदा कविता लिहिली ती इयत्ता आठवीत असताना हस्तलिखितासाठी, *माँ पाठशाला*  या शीर्षकाची ती हिंदी कविता होती, आठवी ते अकरावी या काळात मी तुरळक हिंदी कविता लिहिल्या, त्या रेडिओ श्रीलंका- रेडिओ लिसनर्स क्लब च्या रेडिओ पत्रिकांमध्ये प्रकाशित ही झाल्या!

१९७० सालापासून कविता सतत माझ्या बरोबर आहे, आयुष्याचा एक अविभाज्य घटक  बनली आहे!

चित्र काव्य, विषयावर आधारित काव्य रचताना, कुठली तरी घटना, स्थळ आपल्या मनात येतं आणि आपण कविता रचत जातो,

आपल्याला आवडलेलं, खुपलेलं, खदखदणारं कवितेत उतरत असतं, मी सकाळ नाट्यवाचन स्पर्धेसाठी ग्रामीण भागात परीक्षक म्हणून जात असताना, नुकतीच घडलेली जवळच्या नात्यातल्या तरूण मुलीच्या  आत्महत्येची घटना मनाला क्लेश देत होती, भोर च्या शाळेत नाट्यवाचनाचे परिक्षण करत असताना अचानक रडू कोसळले आणि तिथेच पहिला शेर लिहिला—

 

*तारूण्यातच कसे स्वतःला संपवले पोरी*

*आयुष्याला असे अचानक थांबवले पोरी*

 

काफिये रदीफ़ काहीच मनात योजले नव्हते, मी एकीकडे नाट्यवाचन ऐकत होते, विद्यार्थ्यांना, नाटकाला गुण देत होते आणि त्याचवेळी मला शेर सुचत होते….

 

बाईपण हे नसेच सोपे वाटा काटेरी

रक्ताने तन मृदूमुलायम रंगवले पोरी

 

आले होते मनात तुझिया स्वप्नांचे पक्षी

गोफण फिरवत कठोरतेने पांगवले पोरी

 

तळहातावर ठळक प्रितीची रेषा असताना

निष्प्रेमाचे दिवस कसे तू घालवले पोरी

 

सौंदर्याला दिलीस शिक्षा क्लेश जिवालाही

परक्यापरि तू स्वतःस येथे वागवले पोरी

 

संपवता तू तुझी कहाणी दोष दिला दैवा

अंगण आता पुन्हा नव्याने सारवले पोरी

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला

 

लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला,

मैं जन-तन-मन सुलगाने आया हूं।

मैं खुद ही विरही प्यासा मतवाला,

प्रणयी-उर-प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————-आया हूं।।

 

मैं ज्वालामुखी की हूं अंतर ज्वाला,

निज उर अंगारे बरसाने आया हूं।

मैं व्योम की हूं प्यासी बादल शाला,

धरती की प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————–आया हूं।।

 

मैं तो पवन हूं पतझड़ का मतवाला,

वृक्षों की हर पात गिराने आया हूं।

मैं बसंत का विरही प्यासा मदवाला,

वन-उपवन-नगर महकाने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

प्रिय मैं यौवन की अक्षत मधुशाला,

उर की मधु प्यास जगाने आया हूं।

मैं हूं खुद प्यासा खाली मधु प्याला,

विरही को मधुपान कराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं शलभ दीपशिखा पे जलने वाला,

प्रियतम् पर  प्राण चढ़ाने आया हूं।

मैं हूं मधुप अलि मधुर गुंजन वाला,

शूलों से विध मधु चुराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं हूं चातक चिर तृष्णा है मैंने पाला,

पी स्वाती वर्षा प्यास मिटाने आया हूं।

मैं अनंत अतल सागर खारे जल वाला,

घन बन वन उपवन महकाने आया हूं।।

लेकर हर————————आया हूं।।

 

मैं ही हूं शिव प्रलयंकारी तांडववाला,

सती-वियोग-संताप बुझाने आया हूं।

मैं ही हूं नीलकंठ विषपान करनें वाला,

भूमण्डल सकल गरल मिटाने आया हूं।।

लेकर हर———————–आया हूं।।

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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यात्रा-संस्मरण – ☆ मुरुद का सिद्दी ज़ंजीरा क़िला ☆ – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

 

(आदरणीय श्री सुरेश पटवा जी की साहित्यिक अध्ययन  के अतिरिक्त पर्यटन में भी विशेष अभिरुचि है। श्री सुरेश पटवा जी की यात्रा संस्मरण लेखन की अपनी अलग ही शैली है। वे किसी  पर्यटन स्थल पर जाने से पहले उस स्थल का भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक एवं संस्कृतिक आदि प्रत्येक दृष्टि से  अध्ययन करते हैं। प्रस्तुत है उनके  मुरुद का सिद्दी ज़ंजीरा क़िला  यात्रा का संस्मरण।) 

 

☆ मुरुद का सिद्दी ज़ंजीरा क़िला ☆

 

समुंद्र के बीचोबीच 400 सालों से अजेय इतिहास का गवाह है ये रहस्मयी मुरुद-जंजीरा किला, ये तो आप मानते ही होंगे की भारत में प्राचीन रहस्यों की कोई कमी नहीं है क्योंकि हमारा इतिहास ही इतना प्रभावशाली और रहस्यमयी रहा है की जितना जानों उतना कम है। आज हम आपको ऐसे ही एक रहस्य के बारे में बताने जा रहे है। ये किस्सा है एक ऐसे किले का जिसने कई बड़ी लड़ाईयां देखी पर फिर भी ये किला अजेय रहा है। तो जानते है इसके पीछे का रहस्य।

ये है महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के मुरुद गांव में स्थित मुरुद-जंजीरा फोर्ट है जो अपनी बनावट के लिए जाना जाता है। चारों तरफ से पानी से घिरे होने की वजह से इसे आईलैंड फोर्ट भी कह सकते है। ये आइलैंड फोर्ट भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में अपनी बनावट के लिए मशहूर है।

मुरुद-जंजीरा भारत के महाराष्ट्र राज्य के रायगड जिले के तटीय गाँव मुरुड में स्थित एक किला हैं। यह भारत के पश्चिमी तट का एक मात्र किला हैं, जो की कभी भी जीता जा सका था । यह किला 350 वर्ष पुराना है। स्‍थानीय लोग इसे मुस्लिम किला कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ अजेय होता है। माना जाता है कि यह किला पंच पीर पंजातन शाह बाबा के संरक्षण में है। शाह बाबा का मकबरा भी इसी किले में है। यह किला समुद्र तल से 90 फीट ऊंचा है। इसकी नींव 20 फीट गहरी है। यह किला सिद्दी जौहर मज़बूत किया गया था। इस किले का निर्माण 22 वर्षों में हुआ था। यह किला 22 एकड़ में फैला हुआ है। इसमें 22 सुरक्षा चौकियां है। ब्रिटिश, पुर्तगाली, शिवाजी, कान्‍होजी आंग्रे, चिम्‍माजी अप्‍पा तथा शंभाजी ने इस किले को जीतने का काफी प्रयास किया था, लेकिन कोई सफल नहीं हो सका। इस किले में सिद्दिकी शासकों की कई तोपें अभी भी रखी हुई हैं। जंजीरा किला समुद्र के बीच बना हुआ है और चारों ओर से खारे पानी से घिरा हुआ है। समुद्री तल से लगभग 90 फीट ऊंचे किले में शाह बाबा का मकबरा बन हुआ हैऔर इसकी नींव 20 फीट गहरी है।

40 फीट ऊंची दीवारों से घिरा ये किला अरब सागर में एक आइलैंड पर है। इसका निर्माण अहमदनगर सल्तनत के मलिक अंबर की देखरेख में 15 वीं सदी में हुआ था। 15 वीं सदी में राजापुरी (मुरुद-जंजीरा किले से 4 किमी दूर) के मछुआरों ने खुद को समुद्री लुटेरों से बचाने के लिए एक बड़ी चट्टान पर मेधेकोट नाम का लकड़ी का किला बनाया। इस किले को बनाने के लिए मछुआरों के मुखिया राम पाटिल ने अहमदनगर सल्तनत के निज़ाम शाह से इजाज़त मांगी थी।

बाद में अहमदनगर सल्तनत के थानेदार ने इस किले को खाली करने कहा तो मछुआरों ने विरोध कर दिया। फिर अहमदनगर के सेनापति पीरम खान एक व्यापारी बनकर सैनिकों से भरे तीन जहाज लेकर पहुंचे और किले पर कब्ज़ा कर लिया। पीरम खान के बाद अहमदनगर सल्तनत के नए सेनापति बुरहान खान ने लकड़ी से बने मेधेकोट किले को तुड़वाकर यहां पत्थरों से किला बनवाया।

इसके नाम में ही इसकी खासियत छिपी है दरअसल जंजीरा अरबी भाषा के ‘जजीरा’ शब्द से बना जिसका अर्थ होता है टापू। यमन और इथियोपिया से अफ़्रीकन हब्सी लोगों ने समुद्री लुटेरों से व्यापारिक जहाज़ों को सुरक्षा देने के लिए एक समुद्री सेना तैयार की थी वे हिंदुस्तान के अरब तुर्की होते हुए यूरोप की समुद्री यात्राओं को शुल्क लेकर सुरक्षा देते थे। उन्होंने मछुआरों से इसे हथिया लिया था।

यह रहस्मयी किला जंजीरा के सिद्दीकियों की राजधानी हुआ करता था, अंग्रजों और मराठा शासकों ने इस किले को जीतने का काफी प्रयास किया, लेकिन वह अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाए। इसकी अजेयता का कारण ये भी है की पुराने समय में पानी के रास्ते इस किले तक पहुंचना बेहद मुश्किल काम था और जब कोई सेना इसकी तरफ बढती थी तब किले में मौजूद सेना आराम से दुश्मनों को हरा देती थी। इस किले पर 20 सिद्दीकी शासकों ने राज किया। अंतिम शासक सिद्दीकी मुहम्मद खान था, जिसका शासन खत्म होने के 330 वर्ष बाद 3 अप्रैल 1948 को यह किला भारतीय सीमा में शामिल कर लिया गया।

मुरुद-जंजीरा किले का दरवाजा दीवारों की आड़ में बनाया गया है। जो किले से कुछ मीटर दूर जाने पर दीवारों के कारण दिखाई देना बंद हो जाता है। यही वजह रही है कि दुश्मन किले के पास आने के बावजूद चकमा खा जाते हैं और किले में घुस नहीं पाते हैं। अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी तथा चारों ओर खारा अरब सागर होने के बाद भी यह मजबूती से खड़ा है।

जंजीरा किले का परकोटा बहुत ही मजबूत है, जिसमें कुल तीन दरवाजे हैं। दो मुख्य दरवाजे और एक चोर दरवाजा। मुख्य दरवाजों में एक पूर्व की ओर राजापुरी गांव की दिशा में खुलता है, तो दूसरा ठीक विपरीत समुद्र की ओर खुलता है। चारों ओर कुल 19 बुर्ज हैं। प्रत्येक बुर्ज के बीच 90 फुट से अधिक का अंतर है। किले के चारों ओर 500 तोपें रखे जाने का उल्लेख भी कहीं-कहीं मिलता है। इन तोपों में कलाल बांगड़ी, लांडाकासम और चावरी ये तोपें आज भी देखने को मिलती हैं।

कोई बताने वाला नहीं मिलता कि ज़ंजीरा कैसे जाएँ। जितने लोग उतनी बातें। यदि आप जाना चाहते हैं तो गेट वे आफ इंडिया पहुँचें, वहाँ से मंडवा के लिए फ़ेरी टिकट 75 रुपयों में ख़रीदें। फ़ेरी आपको मंडवा उतार देगी। वहाँ से फ़ेरी वालों की बस आपको उसी किराए में अलीबाग़ तक के जाएगी। अलीबाग़ से 65 किलोमीटर की दूरी पर मरुद गाँव है। अलीबाग़ से मुरुद सरकारी बस से जाया जा सजता है या आप टैक्सी या ऑटो से भी 2000-2500 में जाना-आना कर सकते हैं। आपको यदि रुकना है तो रास्ते में काशिद समुद्री बीच पर होटेल गेस्ट हाउस मिल जाते हैं। अलीबाग़ से स्कूटर या बाइक भी 600 रुपए प्रतिदिन किराए पर मिल जाती हैं। आपके पास ड्राइविंग लाइसेंस होना चाहिए। काशिद के आगे ख़ोरा बंदर गाँव हैं वहाँ से 40 रुपयों में फेरी ज़ंजीरा क़िला तक जाने-आने का शुल्क लेती है।

© सुरेश पटवा

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter meditation is a beautiful experience ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter meditation is a beautiful experience 

Have you ever had the experience of laughter meditation? It is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have. But you have to experience it yourself. It is a mystery. It cannot be told in words by anyone to you.

When you laugh, you forget the past. You can’t bother about the future. And, you are oblivious of the surroundings. Laughter starts to flow like a fountain. There is no laughter, it’s only laughter. The laughter mingles with laughter and they become one. It is something Divine. It is pure and pristine bliss. The mind becomes serene and radiant like the full moon.

I have got my deepest fulfillment while conducting laughter meditation. The participants feel cathartic and fully liberated. All the pain and agony has gone. It feels so good and light. There is no trace of physical, mental or emotional stress anywhere near. Every molecule of the universe is tranquil. All the blockages are cleared. Consciousness flows happily and freely. You become a part of the joyous cosmic dance. A sufi inside you starts singing the most enchanting melodies.

Laughter opens a beautiful door to transcendence. Laughter meditation is a state of no mind. Complete mindlessness. But it is total existence. You have a feel of totality for the first time. It is a paradise that you can create on your own. Anytime, anywhere.

According to Dr Madan Kataria, the founder of laughter yoga, “ Laughter meditation is the purest kind of laughter and a very cathartic experience that opens up the layers of your subconscious mind and you will experience laughter from deep within.”

In some of the Zen monasteries, every monk has to start his morning with laughter, and has to end his night with laughter – the first and the last thing every day. Says Osho, “ If you become silent after your laughter, one day you will feel God also laughing, you will hear the whole existence laughing – trees and stones and stars with you!”

I recommend laughter meditation for all those who face a lot of stress at the workplace. It is also beneficial for students and homemakers.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

 

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।17।।

जो आत्मा में ही रमता है, आत्म तुष्टि ही  पाता है

उसके लिये काम कोई भी शेष नहीं रह जाता है।।17।।

      

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।।17।।

 

But for that man who rejoices only in the Self, who is satisfied in the Self, who is content in the Self alone, verily there is nothing to do. ।।17।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆ – सुश्री समीक्षा तैलंग

सुश्री समीक्षा तैलंग 

 

(अबू धाबी से सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप हिन्दी एवं मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पारंगत हैं और इसके साथ ही व्यंग्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। सुश्री समीक्षा जी के साहित्य की समीक्षा सुधि पाठक ही कर सकते हैं। अतः यह जिम्मेवारी आप पर। प्रस्तुत है सुश्री समीक्षा जी का तीक्ष्ण व्यंग्य “उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं”।)

 

☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆

 

उस दिन राह से गुजरते हुए एक तरफ विशाल और सिद्ध कहा जाने वाला शिव मंदिर सरेराह आ ही गया। सरेराह दुकानें भी थीं, भिखारी भी, नेता भी, फूलवाले, प्रसाद बेचने वाले और हमारे जैसे आम लोग भी। चलते फिरते सब एक दूसरे से भिड़ रहे थे। मतलब, राह में कोई भी किसी से भिड़ सकता है, मिल सकता है और खरीद भी सकता है। खरीदफरोख्त का बाजार ऐसे ही थोड़े बुना है। बुनने के बाद भुनाना यही परिपाटी है इस बाजार की। भिड़ने की जुगलबंदी में मिलना कम होता जा रहा है। कोई किसी से भी भिड़ जाने को तैयार है। स्वार्थ या निस्वार्थ दोनों ही भावों में…। भाव गिरने गिराने में भी भिडंत तो होती ही है। भिडंत न हो तो भाव वहीं का वहीं ठहर जाता है। ठहरा हुआ भाव भी किसी काम का नहीं। उसे भी न पूछेगा कोई…। उसका भाव वही है जो पुरानी चप्पल का है। पहन तो सकते हैं पार्टी के लायक नहीं। मतलब भाव बढ़ने में भिड़ंत का अमूल्य योगदान है। अमूल्य होना हर किसी के बस की बात नहीं। जैसे सोने का भाव पीतल तो कतई नहीं ले सकता। सोने के गहनों में पीतल मिलाने के बाद भी गहने सोने के ही कहे जाते हैं।

वे अमूल्य नहीं थे। उनके जन्म का भी कोई मूल्य नहीं था। लोगों के हिसाब से वे धरती पर भार हैं। या भार बना दिये गये हैं। लेकिन धरती का गुरुत्वाकर्षण उतना ही लग रहा था। फिर वो भार हो या आभार। लगने वाले बल का वस्तु की दिशा और दशा से कोई फर्क नहीं पडता। वो बल भेदभाव नहीं करता। उसकी मंदिर के सामने कटोरा लेकर बैठा भिखारी मंदिर में अभिषेक करता उस नेता की भांति दिख रहा था। उसकी झोली पसरी हुई थी। मेरी आंखें हर उस भीख मांगने वाले को भिखारी ही समझती है। मंदिर के सामने एक लाईन में बैठे भिखारी भी दान करने वाले को देवता ही समझता है। उसके रोटी और कपड़े की व्यवस्था का जिम्मा उसी दानदाता पर है। सरकार पर नहीं। मंदिर की घंटियां बजाने वाला नेता खुद भिखारी होते हुए लाईन से बैठे भिखारियों को नजरंदाज करता है। क्योंकि वह दुआओं का नहीं बल्कि वोट का भूखा है। उसे पता है कि लाईन में बैठे भिखारी उसकी वोटर लिस्ट में नहीं। इसीलिए उसके लिए किसी तरह के वादे या दावे की भी जरूरत नहीं। उसके लिए मकान की व्यवस्था करना बेमानी है। समय और पैसा नष्ट करने वाली स्कीम है। इसीलिए वह उनके लिए कोई स्कीम तैयार नहीं करता। क्योंकि उसमें आवक नहीं है। मकान न होते हुए भी उन भिखारियों का वंश बढ़ता चलता है। बेहाल सी फटे कपड़ों में लिपटी वह स्त्री देह किसके वंश की वृद्धि कर रही है उसे पता भी नहीं। हर चलता फिरता राहगीर उस देह पर अधिकार समझता है। लेकिन बढ़े हुए वंश पर कोई दावा नहीं ठोकता। उन पागल, मंदबुद्धि देह पर बिन पैसों का व्यापार इसी तरह चलता रहता है। उनकी नजरों में सड़कों पर रतजगा करने वाले किसी शख्स को न्यौते की दरकार नहीं।

© समीक्षा  तैलंग ✍  

अबु धाबी (यू.ए.ई.)

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

सौ. अनघा जोगलेकर

☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆
पुस्तक  : अश्वत्थामा यातना का अमरत्व

लेखिका : अनघा जोगलेकर

प्रकाशक : उद्वेली बुक्स, बी-4, रश्मि कॉम्प्लेक्स, मेन्टल हॉस्पिटल मार्ग, ठाणे (प.) – 400604

मूल्य   : 200 रूपए

पेज    : 132

अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि का दस्तावेज है उपन्यास “ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व ”

अनघा जोगलेकर का ऐतिहासिक उपन्यास अश्वत्थामा यातना का अमरत्व इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास के पूर्व अनघा जी की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस उपन्यास में अनघा जी ने महाभारत युद्ध के एक ऐसे योद्धा पर अपनी कलम चलाई है जिसका उल्लेख अधिक नहीं है। यह उपन्यास शापित योद्धा अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि की अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। लेखिका ने इस उपन्यास में अश्वत्थामा के दृष्टिकोण से महाभारत की कुछ पहलुओं को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं। हस्तिनापुर के कुलगुरू द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा एक सर्वगुण संपन्न महारथी था लेकिन उसने अधर्म का साथ दिया। लेकिन अश्वत्थामा से ऐसा कौन सा अक्षम्य अपराध हुआ कि श्रीकृष्ण को मजबूर होकर उसे यातना के अमरत्व का श्राप देना पड़ा, जिसका फल वह अभी तक भोग रहा है। वह ऐसा कौन सा कुकृत्य कर बैठा, कि आज भी उसकी आँखों में महाभारत का सत्य तांडव कर रहा है। लेकिन समय बीत चुका है। अब चाहकर भी कुछ नहीं बदला जा सकता है। उस श्राप के कारण वह आज भी वन-वन भटक रहा है। उपन्यास में अनघा जी ने इस उपेक्षित महारथी का दर्द, पीड़ा और यातना का मार्मिक चित्रण किया है। अश्वत्थामा को होने वाला आपराधिक बोध पूरे उपन्यास में फैला हुआ है। उपन्यास का नायक पश्चाताप की अग्नि में अभी तक जल रहा है, न जाने कितने युगयुगों तक वह मुक्ति के लिए तड़पता रहेगा और यातना भोगता रहेगा।

इस उपन्यास का काल महाभारत युद्ध के कुछ दशक पश्चात का है। इस उपन्यास की कथा का सूत्रधार शारणदेव है जो कुरुक्षेत्र के पास के गाँव का एक ब्राह्मण है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व एक कथा नहीं सत्य है, एक सच है… अश्वत्थामा का सच…,  जिसकी विभीषिका अश्वत्थामा आज भी वहन कर रहा है और आगे भी अनंतकाल तक उसे वहन करना है क्योंकि प्रारब्ध से कोई नहीं बच सकता है। परंतु प्रारब्ध लिखता कौन है? हर व्यक्ति अपना प्रारब्ध स्वयं ही रचता है और अश्वत्थामा ने भी अपना प्रारब्ध स्वयं ही निश्चित किया था। यह उपन्यास अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष एवं यातना के अमरत्व का श्राप मिलने के बाद उसके आत्मविश्लेषण की गाथा और महाभारत युद्ध के युग का दर्पण है। इस पुस्तक में लेखिका ने अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष और यातना को बहुत ही सहज-सरल और पारदर्शी भाषा में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जहां उपन्यास का नायक अश्वत्थामा का मन अपने पिताजी द्रोणाचार्य के लिए वितृष्णा से भर उठता है। अनघा जी ने गुरू द्रोणाचार्य की महत्वाकांक्षा एवं उनके अभिमान को और महाभारत के सभी पात्रों के मनोविज्ञान को अश्वत्थामा के माध्यम से भली-भाँति निरूपित किया है। इस उपन्यास में आख्यान के माध्यम से महाभारत के पात्रों के जीवन संघर्ष और मानसिक सोच-विचार को अभिव्यक्त किया गया है। पुस्तक में महाभारत के महारथियों की शौर्यगाथाएं, राजनीति, षड्यंत्र, दर्द, पीड़ा, यातना, पश्चाताप का चित्रण तो है ही और साथ में गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा प्रणाली का भी चित्रण है।  इस उपन्यास में सजीव, सार्थक, संक्षिप्त, स्वाभाविक और सरल संवादों का प्रयोग किया गया है।

महाभारत जैसी कालजयी कृति के साथ लेखिका ने पूर्ण न्याय किया है। पौराणिक कथाओं पर हिंदी में अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए है उनमें अश्वत्थामा यातना का अमरत्व निश्चित ही प्रशंसनीय है। यह उपन्यास अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है। कथाकार अनघा जोगलेकर की प्रतिभा अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण है। लेखिका ऐतिहासिक तथ्यों की तह तक गई है। लेखिका ने अधिकांश अध्याय के अंत में उस अध्याय से संबंधित दंतकथा का सार्थक प्रयोग किया है, सही तथ्य प्रस्तुत किये है, पाठकों से प्रश्न किये है और उन प्रश्नों के संभावित उत्तर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ पाठकों के सामने रखें हैं। उपन्यास में इस तरह की अभिव्यक्ति शिल्प में बेजोड़ है और लेखिका की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है। उपन्यास के बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। इस तरह के ऐतिहासिक उपन्यास लिखना अत्यंत कठिन कार्य है। लेखिका ने इस उपन्यास को बहुत गंभीर अध्ययन और शोध के पश्चात लिखा है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व उपन्यास शिल्प और औपन्यासिक कला की दृष्टि से सफल रचना है। यह उपन्यास सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। भविष्य में अनघा जोगलेकर से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।

समीक्षक –  श्री दीपक गिरकर

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036 ईमेल [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #1 ?नीम की छांव ? ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए मेरे आग्रह को स्वीकारा इसके लिए उनका आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी एक लघुकथा पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “नीम की छांव”।)

 

☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं ☆

?नीम की छांव ?

 

एक गांव में नीम की छांव पर उसने अपना घर बनाया। दिमाग से थोड़ा विक्षिप्त घर से निकाल दी गई थी। सही गलत का फैसला कर नहीं पाती थी। एक तो गरीबी और उपर से बेटी की लाचारी पर तरस तो सभी खाते पर कोई सहारा देना नहीं चाहते थे।  बूढ़े मां बाप के खतम होने के साथ उसका रूप भी नीम की छांव के नीचे सब को दिखने लगा था।

एक बडे़ घर से कार आकर रोज ही रूकने लगी, कभी खाने का सामान तो कभी कपड़े। वो नासमझ समझ न सकी कि उस पर इतनी मेहरबानी क्यों हो रही है। उसे उसका साथ अच्छा लगने लगा। अब तो कार वाला छुपके से दरवाजा खोल कार में बिठा उसे ले जाने लगा। समय पंख लगा कर उड़ चला।उसे देखने से समझ में आने लगा कि वो किसी झांसे का शिकार हो चुकी है। अब कार आना बंद हो चुका था। मातृत्व की झलक उस बेचारी पर दिखने लगी। समय आने पर उसने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया और फिर उसे अपने तरीके से पालने लगी। कहते हैं उसके दुखों का अंत नहीं हुआ। असमय अनेक प्रकार की बीमारी से उसका अंत हो गया और छोड़ गयी एक नन्ही सी जान। सभी उस पर दया की भावना रखने लगे। उसी नीम की छांव पर खेलती और वहीँ सो जाया करती।

एक बढे भव्य भवन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। कन्या भोज के समय उसे भी बुला लिया गया। पूछने पर पता चला कि नीम की छांव ही उसका घर है। पिताजी को देखीं नहीं और माँ को किसी ने जला दिया। इतना ही कह सकी। उस भवन की जैसे नीव ही हिल चुकी थी । जिस प्रकार से बेटी ने अपना परिचय दिया। सारी कहानी सुनते ही आँखों से आँसू गिरने लगे। सभी परेशान थे कि मामला क्या है। अचानक ही उसने सबसे कहा कि बरसों से मैं शीतला देवी की पूजा करता था। आज शीतला कन्या के रूप में स्वयं मेरे यहां आई है। और अब से यही घर ही इसका मंदिर है। समाज ने कोई आपत्ति नहीं उठाई। गर्व से उसने अपनी बेटी को सत्कार पूर्वक अपना लिया और किसी को पता भी नहीं लगने दिया। बिटिया भी इस चीज को समझ न सकी पर भक्त रूपी पिता को पा कर बहुत ही खुश हो गयी। बस उसकी एक इच्छा थी कि घर के सामने उसे अपनी माँ ” नीम की छांव ” चाहिए।

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© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

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