सूचना – हिन्दी साहित्य – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆ – (विशेषांक की रचनाएँ >>महत्वपूर्ण लिंक्स)

सूचना – हिन्दी साहित्य – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆ – (विशेषांक की रचनाएँ >>महत्वपूर्ण लिंक्स)

☆ ई-अभिव्यक्ति – गांधी स्मृति विशेषांक ☆

 

हम  2  अक्टूबर  2019 को  ई-अभिव्यक्ति  (www.e-abhivyakti.com ) द्वारा महात्मा गाँधी जी की 150वीं  जयंती पर प्रकाशित ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक  विशेषांक की रचनाओं के  महत्वपूर्ण लिंक्स उपलब्ध कर रहे हैं जिन्हें आप भविष्य में पढ़ सकते हैं।

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक  में ई-अभिव्यक्ति की प्रस्तुति :-

  1. हिन्दी साहित्य – ई-अभिव्यक्ति संवाद – ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. महात्मा गांधी प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय – http://bit.ly/2oiSiae
  1. ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 41 – ☆ ई-अभिव्यक्ति – गांधी स्मृति विशेषांक☆ – हेमन्त बावनकर – http://bit.ly/2n09wc7
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता, गांधीवादी चिंतक एवं समाजसेवी – http://bit.ly/2nuCAsA
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद (प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक  ) – http://bit.ly/2nER7le
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी जी के मुख्य सरोकार ☆ डॉ.  मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत) एवं पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी – http://bit.ly/2oq2sFK
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ सपने में बापू ☆ डॉ कुन्दन सिंह परिहार, वरिष्ठ साहित्यकार – http://bit.ly/2mRKpbq
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त, संपादक हिन्द पॉकेट बुक्स – http://bit.ly/2mKLKR6
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक – http://bit.ly/2mIfXjI
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ राजघाट का मूल्य ☆ श्री संजीव निगम, वरिष्ठ साहित्यकार – http://bit.ly/2ok5wDC
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे ☆ श्रीमती सुसंस्कृति परिहार – http://bit.ly/2mKFfOc
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆ श्री अरुण कुमार डनायक, गांधीवादी चिंतक – http://bit.ly/2mO5eED
  1. हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अहिंसा का दूत ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय – http://bit.ly/2paYPEi
  1. हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय – http://bit.ly/2mI78q6
  1. मराठी साहित्य – कविता – ☆ बापू ☆ श्री सुजित कदम, मराठी युवा साहित्यकार – http://bit.ly/2olLJn9
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग – http://bit.ly/2nDSYXD
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक – http://bit.ly/2nQ2VBn
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆ डॉ भावना शुक्ल – http://bit.ly/2otaeiv
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – http://bit.ly/2oz1Bmg
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ – http://bit.ly/2nS9GCz
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ कहाँ चल दिए बापू ☆ श्री विनोद कुमार ‘विक्की’ – http://bit.ly/2piJ9ic
  1. हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रश्नचिन्ह ☆ श्री रमेश सैनी – http://bit.ly/2nGgUtD
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर – http://bit.ly/2nPuieQ
  1. हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – http://bit.ly/2mQoSji
  1. मराठी साहित्य – कविता – ☆ महात्मा गांधी……! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते, मराठी साहित्यकार – http://bit.ly/2mSkCj8
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ पूछ रहे बैकुंठ से बापू ☆ श्री मनोज जैन “मित्र” – http://bit.ly/2nG4L7Z
  1. हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ दृष्टि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” – http://bit.ly/2pn1smx
  1. हिन्दी साहित्य – व्यंग्य लघुकथा – ☆ महात्मा गाँधी की जय ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल – http://bit.ly/2osqznA
  1. हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ बा और बापू ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “ – http://bit.ly/2nST8KT

धन्यवाद.

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 41 – ☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40                

 

☆ ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक ☆

 

सम्माननीय लेखक एवं पाठक गण सादर अभिवादन

 

हम अत्यंत कृतज्ञ है हमारे सम्माननीय गांधीवादी चिन्तकों, समाजसेवियों एवं सभी सम्माननीय वरिष्ठ एवं समकालीन लेखकों के जिन्होंने इतने कम समय में हमारे आग्रह को स्वीकार किया.  इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ सीमित समय में उत्कृष्टता को बनाये रखते हुए एक अंक में प्रकाशित करने के लिए असमर्थ पा रहे थे। इसलिए ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक के स्तर और गुणवत्ता को बनाए रखने की दृष्टि से यह निर्णय लिया गया कि ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक को दो अंकों में प्रकाशित किया जाए और साप्ताहिक स्तंभों को दो दिनों के लिए स्थगित किया जाए।

हमें यह बताते हुए अत्यंत प्रसन्नता है कि हमारे सम्माननीय लेखकों/पाठकों ने इस प्रयास को हृदय से स्वीकार किया एवं हमें अपना सहयोग प्रदान किया।

आज के दिन महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी ने जन्म लिया था। साथ ही यह वर्ष बा और बापू कि 150वीं जयंती का भी अवसर है।

हम ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें सादर नमन करते हैं।

इस विशेषांक के प्रकाशन को हमने महज 4 दिनों के अथक प्रयास से सफलता पूर्वक प्रकाशित किया है। इस विशेषांक के प्रकाशन के लिए हम प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं समाजसेवी श्री मनोज मीता जी, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक  श्री राकेश कुमार पालीवाल जी, महानिदेशक (आयकर) हैदराबाद, व्यंग्य शिल्पी एवं संपादक श्री प्रेम जनमेजय, डॉ सुरेश कांत, गांधीवादी चिनक श्री अरुण डनायक, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कुंदन सिंह परिहार,  डॉ मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत) एवं पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी तथा समस्त सम्माननीय लेखकगणों के हम हृदय से आभारी हैं। साथ ही सम्माननीय लेखक जो हाल ही में ई-अभिव्यक्ति से जुड़े हैं उनका स्वागत करते हैं.

इस सफल प्रयास के लिए अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के समर्पित सहयोग के बिना इस विशेषांक के प्रकाशन की कल्पना ही नहीं कर सकता।

इस अंक में हमने पूर्ण प्रयास किया है कि- हम स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का सकारात्मक प्रयोग करें। व्यंग्य विधा में साहित्यिक रचना की प्रक्रिया में सकारात्मकता एवं नकारात्मकता के मध्य एक महीन धागे जैसा अंतर ही रह जाता है। हम अपेक्षा करते हैं कि आप साहित्य को सदैव सकरात्मक दृष्टिकोण से ही लेंगे।

इस विशेषांक के सम्पादन की प्रक्रिया से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। इस प्रक्रिया और आत्ममंथन से जिस कविता का सृजन हुआ, वह आपसे साझा करना चाहता हूँ।

 

बापू!

तुम पता नहीं कैसे

आ जाते हो

व्यंग्यकारों के स्वप्नों में?

किन्तु,

मत आना बापू

कभी भी मेरे स्वप्नों में।

 

न तो मैं

तुम पर कोई फिल्म बनाकर

सफल बनना चाहता हूँ

और

न ही करना चाहता हूँ

अपने विचार कलमबद्ध

तुम्हारे कंधों का सहारा लेकर।

बेशक,

मेरे कंधे उतने मजबूत न हो

गांधी के कंधों की तरह।

 

क्यों कोई नहीं चाहता

आत्मसात करना

गांधी दर्शन?

क्यों

कोई नहीं ढूँढता लोगों में गांधी?

क्यों लोग ढूँढना चाहते हैं

गांधी में व्यंग्य

क्यों नहीं ढूंढते

गांधी में गांधी

गांधी में गांधी-दर्शन ?

क्यों

लोगों को दिखता हैं

गांधी में

सफलता का सूत्र?

 

मैं नहीं बन सकता गांधी

और

न ही बनना चाहता हूँ गांधी

क्योंकि

एक गांधी का जन्म

एक बार ही होता है

एक सदी में।

हाँ,

कर सकता हूँ

गांधी से सीखने का प्रयास

किन्तु,

नहीं कर सकता

गांधी पर परिहास।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

☆ चौराहे पर गांधी ☆

(मित्रों, आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है।  आज लाल बहादुर शास्त्री का ‘भी ‘ जन्मदिन है।  इन दिनों गाँधी बहुत याद आ रहे हैं।  पता नहीं क्यों लाल बहादुर शास्त्री इसी दिन याद आते हैं ! मुझे गाँधी जी पर लिखी  अपनी  एक कविता याद आ रही है –चौराहे पर गांधी। ‘ उसे साझा करने का मन हुआ सो कर रहा हूँ – प्रेम जनमेजय )

 

मंसूरी में, लायब्रेरी चौक  पर

राजधानी की हर गर्मी से दूर

आती -जाती भड़भडाती

सैलानियों की भीड़ में     अकेला खड़ा

सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी।

क्या सोच रहा होगा —

अपने से निस्पृह

भीड़ के उफनते समुद्र में

स्थिर,निस्पंद,जड़

नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी

खड़ा ।

क्या सोच रहा है, गांधी ?

सोचता हूँ मैं ।

 

कोटि- कोटि पग

इक इशारे पर जिसके, बस

नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम

अनथक

वो ही  थका -सा

प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात

अकेला

संगमरमरी  कंकाल में,       किताबी

मूर्तिवत खड़ा-सा

क्या सोच रहा है, गांधी ?

 

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़

नियंत्रित करतीं वर्दियां

कारों की चिल पौं को

पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां

एक शोर के बीच

दूसरे शोर की भीड़ को

जन्म देती

मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया

किसी के पास समय नहीं

एक पल भी देख ले गांधी को

अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।

 

क्या सोचता होगा गांधी ?

भीड़ में भी विरान खड़ा

क्या, सोचता होगा गांधी !

 

सोचता हूं,

सोचता होगा

भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता… मेरी ?

मैं तो बन न सका

भीड़ का भी हिस्सा

बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक

इक माला के सम्मान का बोझ उठाए

किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में

अपनेपन की सच्चाई को तरसता

अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।

 

हमारे पराएपन को झेलता

हमारा अपना ही

बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।

मेरा गांधी, तेरा गांधी

अनेक हिस्सों में बंटा गांधी

सड़कों और चैराहों को

नाम देता गांधी

हमारी बनाई भीड़ में

वीरान- सा चुपचाप,

खड़ा है, अकेला गांधी ।

क्या सोचता है गांधी ?

क्या, सोचता है गांधी !

 

©  प्रेम जनमेजय

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆ डॉ भावना शुक्ल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। आज प्रस्तुत है महात्मा गांधी जी की 150  वीं जयंती पर उनका विशेष आलेख  “महात्मा गांधी के सपनों का भारत ”। 

☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆

 

संत महात्मा आदमी, राजा रंक फकीर।

गांधी जी के रूप में, पाई एक नजीर।।

 

आने वाली पीढ़ियाँ, भले करें संदेह ।

किंतु कभी यह देश था, गांधीजी का गेह ।।

 

पद दलित उत्पीड़ित दक्षिण एशिया के जागरण-जती, मुक्ति मंत्र दाता, मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी, जन-जन के प्यारे बापू, एक सफल, सबल क्रांति दृष्टा और महान स्वप्न दृष्टा थे।

वह ऐसे स्वप्न दृष्टा थे जिन्होंने अहिंसक क्रांति द्वारा आजादी का जो स्वप्न देखा, उसे साकार किया।

आजाद भारत कैसा हो? उनके सपनों में कैसे भारत की तस्वीर थी, यह कोई अबूझा तथ्य नहीं है। गांधीजी का खुली किताब सजीवन, उनके विचार और आचरण, उनके स्वप्निल भारत का चित्र स्पष्ट करते हैं।

गांधीजी बहुदा ‘रामराज’ की चर्चा करते थे। भारत में ‘रामराज’ चाहते थे। ‘रामराज’ से आशय किसी राजा के राज्य से नहीं, किसी संप्रदाय वादी राज्य से नहीं। वे किसी राजतंत्र, अधिनायक वादी राज्य के पक्षधर कतई नहीं थे। वह तो बस “रामराज” की नैतिकता, सत्याचरण, प्रेम, दया, करुणा, संपन्नता, निर्भयता और जनहित से युक्त राज्य और राज्य व्यवस्था की स्थापना चाहते थे।

बापू ने स्वप्न देखा क्योंकि वह संवेदनशील और कल्पनाशील थे। उनकी कल्पना यथार्थ की जमीन से उठकर पुरुषार्थ के आकाश में उड़ान भर्ती थी।

जिन आंखों में स्वत नहीं होते उनमें निराशा का अंधकार अंज जाता है। बापू स्वप्न दृष्टा थे इसलिए उन्होंने क्रांति का स्वप्न देखा और उसे मूर्त रूप दिया। फिर उन्होंने नए भारत का नया स्वप्न देखा। आइए, देखें सोचे विचारे, पहले उनके स्वप्न सागर की।

बापू…”स्वराज्य की मेरी धारणा के बारे में किसी को कोई धर्म ना रहे। वह है बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वाधीनता और पूर्ण आर्थिक स्वाधीनता। इस प्रकार एक छोर पर है राजनीतिक स्वाधीनता और दूसरे छोर पर है आर्थिक। इसके 2 चोर और भी हैं जिनमें से एक छोर नैतिक व सामाजिक है और उसी का दूसरा छोर है… धर्म… इस शब्द के उत्कृष्टतम अर्थ में। इसमें हिंदुत्व, सलाम, ईसाई मजहब आदि सभी का समावेश है। पर यह उन सबसे ऊंचा है। आप इसे सत्य के नाम से पहचान सकते हैं।”

अपनी ‘रामराज्य’ की धारणा को भी गांधी ने अनेक बार स्पष्ट किया। वे कहा करते थे कि…” राजनीतिक स्वाधीनता से मेरा आशय यह नहीं है कि। हम ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस की ही पूरी नकल कर ले, या सोवियत रूस के शासन की, या इटली के फासिस्ट अथवा जर्मनी के नाजी राज की। उनकी शासन पद्धतियाँ उनकी अपनी ही विशेषता के अनुरूप हैं।

बापु ने अपनी धारणा को और स्पष्ट करते हुए कहा था…”हमारी शासन पद्धति हमारी ही विशेषता के अनुरूप होगी पर वह क्या हो, यह बता सजना मेरी सामर्थ के बाहर है। मैंने इसका वर्णन ‘रामराज’ के रूप में किया है अर्थ-अर्थ आम जनता की प्रभुसत्ता, जिसका आधार विशुद्ध रूप से नैतिक ही हो।”

अपने स्वप्निल भारत की स्वप्निल आर्थिक स्वाधीनता के बारे में बापू ने कहा था…”मेरे लिए तो भारतीय आर्थिक स्वाधीनता का अर्थ हर व्यक्ति का आर्थिक उत्थान है… हर पुरुष और स्त्री का और उसके अपने ही जागरूक प्रयत्नों द्वारा… इस पद्धति के अंतर्गत हर पुरुष और स्त्री के लिए पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध रहेंगे और पर्याप्त खुराक, जिसमें दूध और मक्खन भी शामिल होंगे, जो आज करोड़ों को नसीब नहीं होते।”

वक्त और खुराक के साथ बापू ने जमीनी अधिकार के बारे में भी सोचा था। वे”सब भूमि गोपाल की” … यानी सब भूमि जनता की मानते थे।

गुलाम भारत के आर्थिक विषमता की स्थितियों से गांधीजी बेहद दुखी और चिंतित रहते थे। उनका विचार था स्वप्न था कि आजाद भारत में, नए भारत में यह स्थितियाँ नहीं रहेंगी।

बापू ने कहा था…”स्वतंत्र भारत में जहाँ कि गरीबों के हाथ में उतनी शक्ति होगी जितनी देश के बड़े से बड़े अमीरों के हाथ में, वैसे विषमता तो 1 दिन के लिए भी कायम नहीं रह सकती जैसे कि नई दिल्ली के महलों और वही नजदीक की उन सड़ी गली झोपड़ियों के बीच पाई जाती है जिनमें मजदूर वर्ग के गरीब लोग रहते हैं।”

बापू ने एक चेतावनी भी दी थी कि यदि आजाद भारत में आर्थिक विषमता की खाई पार्टी नहीं गई, यदि अमीर लोग अपनी संपत्ति और शक्ति का स्वेच्छा पूर्वक ही त्याग नहीं करते और सभी की भलाई के लिए उसमें हिस्सा नहीं बांटते तो “हिंसात्मक और खूनी क्रांति एक दिन होकर ही रहेगी।” ऐसा ना हो इसके लिए हम सभी को एकजुट होना होगा और बापू के सपने को साकार करना होगा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

 

व्यंग्य – बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में

 

शहर के मुख्य चौराहे पर बापू का बुत है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशीयां सजी हैं. लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- “विदेशी शराब की सरकारी दुकान” इस बोर्ड को आजादी के बाद से हर बरस, नया ठेका मिलते ही, नया ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है . आम नागरिकों को विदेशी शराब की सरकारी दूकान से निखालिस मेड इन इंडिया, देसी माल  भारी टैक्स वगैरह के साथ सरे आम देर रात तक पूरी तरह नगद लेनदेन से बेचा जाता है.  यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष गांधी जी के नाम की जन कल्याण योजनाओं  के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-शहर  फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेशी शराब की देसी दुकानों के लिये चलाया जा रहा लोकप्रिय विभाग है.  विभाग के मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय गांधी जी की फोटू वाले नोटो से ही नगद होता है. शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सडी देकर चलाने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है।

“मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला” हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही  है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी,  जैसे विचार करते रहे। आज उनके अनुयायी कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, विदेशी शराब का देसी धंधा कर रहे हैं. गांधी जी का बुत अनजान राहगीर को पता बताने के काम भी आता है, गुगल मैप और हर हाथ में एंड्राइड  फोन आ जाने से यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है, पर अब गांधी जी गूगल का डूडल बन रहे हैं.

राष्ट्रपिता को कोई कभी भी न भूले इसलिये हर लेन देन की हरी नीली, गुलाबी मुद्रा पर उनके चित्र छपवा दिये गये  हैं. ये और बात है कि प्रायः ये हरी नीली गुलाबी मुद्रा बड़े लोगो के पास पहुंचते पहुंचते जाने कैसे बिना रंग बदले काली हो जाती है.

हर भला बुरा काम रुपयो के बगैर संभव नही, तो रुपयो में प्रिंटेड बापू देश के विकास में इस जेब से उस जेब का निरंतर अनथक सफर कर रहे हैं.

भला हो मोदी का जिसने बापू की इस भागम भाग को किंचित विश्राम दिया, रातो रात बापू के करोड़ो को बंडलो को बंडल बंद कर दिया. फिर डिजिटल ट्रांस्फर की ऐसी जुगत निकाली कि अब कौन बनेगा करोड़पति में हर रात अमिताभ बच्चन पल भर में करोड़ो डिजिटली ट्रांस्फर करते दिखते हैं, बिना गांधी जी को दौड़ाये गांधी जी इस खाते से उस खाते में दौड़ रहे हैं.

बापू की रंगीन फोटू हर  मंत्री और बड़े अधिकारी की कुर्सी के पीछे   दीवार पर लटकी हुई है, जाने क्यो मुझे यह बेबस फोटो ऐसी लगती है जैसे सलीब पर लटके ईसा मसीह हों, और वे कह रहे हो, हे राम ! इन्हें माफ करना ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं.

बापू की समाधि केवल एक है. वह भी दिल्ली में यमुना तीर. यह राजनेताओ के अनशन करने, शपथ लेने,रूठने मनाने,  विदेशी मेहमानो को घुमाने और जलती अखण्ड ज्योति  के दरशनो के काम आती है. लाल किले की प्राचीर से भाषण देने जाने से पहले हर महान नेता अपनी आत्मा की रिचार्जिंग के लिये पूरे काफिले के साथ यहां आता है.अंजुरी भर गुलाब के फूलो की पंखुड़ियां चढ़ाता है और बदले में बापू उसे बड़ी घोषणा करने की ताकत दे देते हैं.

बापू से जुड़े सारे स्थल नये भारत के नये पर्यटन स्थल बना दिये गये हैं. सेवाग्राम, वर्धा,वगैरह स्थलो पर देसी विदेशी मेहमानो की सरकारी असरकारी मेहमान नवाजी होती है. इस पर्यटन का प्रभाव यह होता है कि कभी कोई बुलेट ट्रेन दे जाता है, तो कभी परमाणु ईधन की कोई डील हो पाये ऐसा माहौल बन जाता है.

इन दिनो बापू  को हाईजैक करने के जोरदार अभियान हो रहे हैं. ट्रम्प ने बापू से फादर आफ नेशन की जिम्मेदारी छीन मोदी को पकड़ाने की कोशिश कर दिखाई है।

कांग्रेस बेबस रह गई और मोदी जी ने गांधी जी से उनकी सफाई की जिम्मेदारी ही छीन ली. वह भी उनके जन्म दिन पर, उन्होने सारे देशवासियो पर यह जिम्मेदारी ट्रांस्फर कर दी है. अब देश में मार्डन साफ सफाई दिखने लगी है. हरे नीले पीले कचरे के डिब्बे जगह जगह रखे दिखते हैं. वैक्यूम क्लीनर से हवाई अड्डो और रेल्वे स्टेशनो पर वर्दी पहने कर्मचारी साफ सफाई करते दिखते हैं. थियेटर,  माल वगैरह में पेशाब घर में तीखी बद्बू की जगह ओडोनिल की खुश्बू आती है. कचरा खरीदा जा रहा है और उससे महंगी बिजली बनाई जा रही है.  ये और बात है कि गांधी जी के बुत पर जमी धूल नियमित रूप से हटाने और उन पर बैठे कबूतरो को उड़ाने के टेंडर अब तक किसी नगर पालिका ने नही किये हैं.

बापू का एक और शाश्वत उपयोग है, जिस पर केवल बुद्धिजीवीयो का एकाधिकार है. गांधी भाषण माला, पुरस्कार व सम्मान,  गांधी जयंती, पुण्यतिथी या अन्य देश प्रेम के मौको पर गांधी पर, उनके सिद्धांतो पर किताब छापी जा सकती है, जो बिके न बिके पढ़ी जाये या नही पर उसे सरकारी खरीद कर पुस्तकालयो में भेजा जाना सुनिश्चित होता है. गांधी जी, बच्चो के निबंध लिखने के काम भी आते हैं और जो बच्चा उनके सत्य के प्रयोगो व अहिंसा के सिद्धांतो के साथ ही तीन बंदरो की कहानी सही सही समझ समझा लेता है उसे भरपूर नम्बर देने में मास्साब को कोई कठिनाई नही होती. फिल्म जगत भी जब तब गांधी जी को बाक्स आफिस पर इनकैश कर लेता है, कभी “मुन्ना भाई ” बनाकर तो कभी “गांधी” बनाकर. जब जब देश के विकास के शिलान्यास, उद्घाटन होते हैं लाउडस्पीकर चिल्लाता  है ” साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल. ”

सच है ! गांधी से पहले, गांधी के बाद, पर हमेशा गांधी के साथ देश प्रगति पथ पर अग्रसर है. गुजरे हुये बापू भी देश के विकास में पूरे सवा लाख के हैं !

150 वे जन्मदिन पर हमारा यही कहना है हैप्पी बर्थडे बापू।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

व्यंग्य कविता – हे राम! ☆

 

हे राम!

तुम

कितने काम के थे

यह राम जानें

किसी के लिए

किसी काम के थे भी या नहीं

यह भी राम जानें

पर

तुम्हारे आशीष से

बदले हुए देश में

हम जो देखते हैं वह ये है

कि तुम्हारी एक सौ पचासवीं जयंती पर

बड़ी रौनक है/धूम है

मेले लगे हैं जगह-जगह

प्रदर्शनी में

खूब बिक रहे हैं

फैशन में भी हैं

तुम्हारी लाठी और चश्मे

जहाँ देखो

तुम्हारे बंदरों की ही नहीं

हर आंख पर तुम्हारा ही चश्मा है

हर हाथ में तुम्हारी ही लाठी

लेकिन खरीदने वालों को

इनके इस्तेमाल का पता नहीं

आयोजकों का भी नहीं है कोई स्पष्ट निर्देश

कि कब और कैसे करें इस्तेमाल

इसीलिये ‘ सूत न कपास’ फिर भी लट्ठम लट्ठा है

बाकी तो सब ठीक-ठाक है

तुम्हारे इस देश में

बस खादी के कुर्ते और टोपियाँ

‘खादी भण्डार’ के बाहर धरने पर हैं

और रेशमी धागों वाली कीमती मालाएँ

सजी हैं भीतर

तुम्हारे नाम की एक माला

हमारे गले में भी

उतनी ही शोभती है जितनी

कि तुम्हारे नाम के पेटेंट धारकों के

(तथाकथित सुधारकों के)

इसी माला को पहनकर

हम बड़े मज़े से

मुर्गा उदरस्थ कर अहिंसा पर बोलते हैं

और इस तरह आपके हृदय परिवर्तन पर

‘सत्य और अहिंसा के साथ प्रयोग’करते हैं

सुना है

पहनकर तुम्हारा गोल-गोल चश्मा और

हाथ में लाठी लेकर

कोई

माँगने वाला है

शन्ति का नोबेल पुरस्कार

तुम्हारे लिए

इसी 2अक्तूबर को

यकीन मानिये बापू!

तुम्हारी अहिंसा में बहुत दम है

तुमने बस एक बार किया था माफ़

अपने हत्यारे को

पर लाल-लाल कलंगी वाला मुर्गा

हमें रोज़ माफ़ करने हमारे घर आता है

खुद ही

‘हे राम’ कहकर अपनी खाल उतरवाता है

और हांडी में पक जाता है

अहिंसा का ऐसा उदात्त उदाहरण

क्या किसी और देश में मिल पाता है

आके देखना कभी राजघाट

अपनी नंगी आंखों से

कि जिसने किया था तुम्हारे लहू से तिलक

वही बिना नागा

हर 30 जनवरी को

तुम्हारी समाधि पर फूल चढ़ाता है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ कहाँ चल दिए बापू ☆ श्री विनोद कुमार ‘विक्की’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विनोद कुमार ‘विक्की’

 

(श्री विनोद कुमार ‘विक्की’ जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. श्री विनोद कुमार जी स्वतंत्र  युवा लेखक सह व्यंग्यकार हैं. आप व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आप कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं. आपकी कृतियां – हास्य व्यंग्य की भेलपूरी (व्यंग्य संग्रह),मूर्खमेव जयते युगे युगे(व्यंग्य संग्रह),सिसकता दर्द (लघुकथा संग्रह) प्रसिद्ध हैं.  इस विशेषांक के लिए श्री विनोद कुमार जी के व्यंग्य के लिए हार्दिक आभार.)

 

व्यंग्य – कहाँ चल दिए  बापू  ☆

 

वाक़या इस गांधी जयंती की है। रात्रि स्वप्न में टहलते हुए बापू मिल गए। अरे भाई …. आसाराम बापू नहीं मोहन दास करमचंद बापू। वही 1947 वाला लुक आंखों पर गोल चश्मा,एक धोती पर ढ़का हुआ शरीर, हाथ में लाठी…….हाँ दाएँ-बाएँ कन्याए नजर नहीं आ रही थी।

औपचारिक अभिवादन के बाद सोचा आज बापू का इंटरव्यू ले लूँ यही सोच कर  मै उनसे पूछ बैठा-” हैप्पी बर्थडे बापू…. कैसे हो “?

बापू ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- “मैं तो ठीक हूँ पर मेरा भारत कैसा है”! उन्होंने क्रास क्वेशचन किया।

भारत बोले तो मनोज कुमार और सात हिन्दुस्तानी अमिताभ ……एक दम मजे में हैं  दो साल पहले भारत को और इस  बार सात हिन्दुस्तानी को  दादा साहब फाल्के भी मिला  ……”

“अरे नहीं रे…. मेरी बात को बीच में काटते हुए लाठी टेक कर बापू आगे बोले ये तेरा इंडिया कैसा है”?

“एकदम रापचीक बापू अब तो डिजिटल हो रहा है”। मैने जवाब दिया।

“हाँ दिख रहा है…. मुस्कुराते हुए बोले  अरे….मेरे सपनो का भारत रे….” इतना बोल बापू लाठी टिकाकर वहीं बैठ गए।

“अरे बापू आपको तो खुश होना चाहिए आप ने गुलाम भारत को भी देखा और आजाद भारत को भी देखा है” मैने उनका हौसला बढाया।

“सच कह रहे हो बेटा मैं अकेला हूँ जिसने परतंत्र भारत में भारतीयों पर गैर भारतीयों के अत्याचार को देखा और आज स्वतंत्र भारत में तस्वीर/मूर्तियों के माध्यम से भारतीयों पर भारतीयों द्वारा हो रहे अत्याचार को देख रहा हूँ”। इतना कह बापू खामोश हो गए।

“और बताओ बापू तुम्हारे तीन बंदर कहीं नहीं दिखाई दे रहे “! मैने बात आगे बढाते हुए पूछा।

बापू गम्भीरता से हाथों से नाक पर चश्मा टिकाते हुए बोले-” मुझे तो पुरे देश में लोगों की बजाय उसी तीनों बंदर के वंशज नजर आ रहें है बेटा…… बस  उद्देश्य बदल गया है उनका।

उनमें से एक बंदर का वंशज जनता का प्रतिनिधि  बन गया है जिसे प्रजा का दुख दिखाई नहीं देता और वो जनता के प्रति हो रहे अत्याचार/अन्याय को देखकर आंखें मूंद लेता है….. दूसरे का वंशज प्रशासन बन गया है जो जनता की परेशानी/व्यथा/ तकलीफ सुनने की बजाय कान मूंद लेता है…..तीसरे का वंशज स्वयं आम जनता है जो अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बजाय खामोशी से मुंह बंद कर लेता है और चुपचाप सब सह लेता है …….मेरे विचार और मूल्य रहें कहाँ मेरे भारत में”।

बापू की गंभीरता को देखते हुए मै बोला- “ऐसा नहीं है बापू आप हिन्दुस्तान में हर जगह हो थाना से लेकर सभी सरकारी कार्यालय में दीवारों पर आप फिक्स हो। प्रायः हर चौक चौराहे पर सर्दी, गर्मी, बरसात में आप खड़े हो और अपने भारत को देख रहे हो। जितनी सेवा आपने अपने जीवनकाल में इस देश की नहीं कि होगी उतनी तो आपके जाने के बाद आपकी तस्वीर, मूर्ति आदि 365 दिन कर रहे है”।

“फिर भी दुख है आज के नागरिक मुझे नहीं जान रहे”! दर्द छिपाते हुए बापू बोले।

आहत बापू को ढांढस बंधाते हुए मै बोला-“बापू लगता है आपको किसी ने रांग इन्फोर्मेशन दे दिया है पूरे देश में आप ही आप हो बापू  गली-मोहल्ले,स ड़क से लेकर शहर तक के नाम पर आपका  ही कॉपीराइट है। आपके नाम पर सफाई स्वच्छता अभियान चल रहा है ये और बात है एक देश में सफाई करके विदेश भ्रमण को जाते है जबकि दूसरा देश की सफाई कर विदेश पलायन कर जाता है।

आप तो हर जगह छाए हो और तो और दस से दो हजार के नोट पर भी आपका ही पासपोर्ट साइज फोटो छपा हुआ है।

बच्चे भले अपने बाप का  नाम नहीं जानते हो लेकिन अक्खा कंट्री के बाप के बारे में जरूर जानते है”।

” फोटो से याद आया वो नोट के फोटो पर भी राजनीति होने लगी है भाई….. उसे भी हटाकर मेरे जूनियर भगत, सुभाष एवं चंद्रशेखर की फोटो चिपकाने की बात हो रही है”। बापू आगे बोले।

“अरे इसमें टेंशन क्या है बापू वो लोग भी तो आजादी को लेकर…… शहीद भी हुए…. आजाद भारत  की सुबह-शाम नहीं देख पाए आने दो उनकी भी तस्वीरें नोट पर। वैसे भी आप तो बड़े महान दयालू और त्यागी हो, ये तो महज नोट पर फोटो वाली ही बात है”।

मेरे इस बात पर बापू फूर्ति से उठते हुए बोले-“बेटा तुम मेरी ले रहो हो…..”

मैने बिना पूरी बात सुने ही कहा -“सही समझे बापू मै आपका इंटरव्यू ही ले रहा हूँ।

“लेकिन बेटा इन दिनों बड़ी असहिष्णुता है देश में एक संप्रदाय दूसरे का जान का दुश्मन बना हुआ है राजनेता इसे रोकने की बजाय और बढ़ावा देते है ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सनमति दे भगवान’ ।वे निराश भाव से आगे बोले।

मैने उनको टोका-“ये मै नहीं मानने वाला बापू ये सांप्रदायिक भेदभाव गुलाम भारत से ही है”।

“नहीं बेटा हमारे समय तो हिंसा रक्तपात केवल अंग्रेज ही करते थे राजनेता नहीं सभी भारतीय प्रेम से रहते थे बिना भेदभाव के”। बापू ओवर कांफिडेंस में बोले।

“तो1946 का प्रत्यक्ष भी अंग्रेजों की ही देन थी बापू”!

मेरे इस सवाल पर बापू धीरे से बोले-“अच्छा भाई अब चलता हूँ “।

” अरे रूको बापू कहाँ चल दिए …. अरे थोड़ा रूको” चिल्लाते चिल्लाते मेरी नींद खुल गई। सपना फूर्र हो गया और बापू जयंती मनाने सरकारी कार्यालय को निकल लिए।

 

© विनोद कुमार ‘विक्की’ 

द्वारा स्व. श्री ओमप्रकाश गुप्ता, सुमित किराना स्टोर

ग्रा+ पो.-महेशखूंट बाजार जिला: खगड़िया 851213(बिहार) मो 9113473167

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -२ ☆ प्रश्नचिन्ह ☆ श्री रमेश सैनी

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी   की महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी  के जन्मदिवस पर एक कविता. श्री रमेश सैनी जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. )

 

☆ प्रश्नचिन्ह ☆

 

हम हर वर्ष

मनाते हैं, जयंती

गाँधी और नेहरू की

खाते है,कसम

पदचिंहों पर चलने की

कसम वही रेखा है,

रेत पर खींची हुई

जिन्हें हर वर्ष

हम पीटते हैं

भूल गए हम उन्हें

उनके स्मारक बनाकर

चढ़ा देते हैं, पुष्प

वर्ष में एक बार जाकर

क्या ?

वतन पर मरने वालों का यही बाँकी निशां होगा ?

 

रमेश सैनी

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(महात्मा गांधी जी के  150वें  जन्म दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित विशेष लघुकथा ‘मानव’श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।) 

 

लघुकथा – मानव

 

शहर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं वरिष्ठ नागरिक श्री नाना देशपाण्डे साग भाजी लेकर बाजार से लौट रहे थे कि दंगों के लिये कुख्यात क्षेत्र महात्मा गांधी मार्ग पर अचानक किसी बात पर दो धर्मों के लोग आपस में भिड़ गए। मारकाट एवं लूट आरंभ हो गई।

नाना ने तत्काल एक गली में प्रवेश किया व तेजी से घर जाने लगे। थोड़ी दूर गए थे कि सामने से हथियारबंद भीड़ आ गई। नाना को घेरा तो वे चिल्लाते हुए भागे कि अरे मैं तो हिंदू हूँ, मुझे जाने दो। लेकिन फिर भी भागते भागते दो चार लाठियाँ पड़ ही गईं ओर वे किसी तरह बचकर दूसरी गली से भाग निकले।

गली पार भी न हो पाई थी कि दूसरे दल के लोग तलवारें लेकर दीवानों की तरह उनकी ओर लपके। नाना फिर उलटे पैर भागे और चिल्लाए कि “अरे-अरे मैं मुसलमान हूँ, शेख सलीम नाम है मेरा..” पर वहां भी उनको भीड़ ने दौड़ा ही दिया। आगे आगे नाना और पीछे पीछे वहशी भीड़, और अचानक सामने से वही पहले वाला दल भी आ गया। अब तो नाना बेचारे दो पाटों के बीच आ गए। पीछे वाला दल चिल्लाया – “कत्ल कर दो इसका काफिर बचके नहीं जा पाए ”।  सामने वाले दल ने नारा लगाया- ” खत्म कर दो विधर्मी को और पुण्य कमाओ ”।

नाना अब गला फाड़ कर चिल्लाये – “अरे दानवों, मैं एक भारतीय हूँ, और मेरे ही देश में मुझे मत मारो”। लेकिन अंधी बहरी भीड़ में से किसी ने एक लठ्ठ मारा और दूसरे ने उनके पेट में तलवार भोंक दी। नाना बेचारे चकरा कर गिर पडे़ और अंतिम सांसे गिनने लगे।

उधर दोनों दलों में अपने अपने धर्म को बचाने के लिए आमने-सामने का खूनी खेल आरंभ हो गया और इधर बूढ़े नाना, मरते मरते अस्पष्ट शब्दों में कह रहे थे- “अरे दुष्टों मुझे क्यों मारा, मैं एक  मानव हूँ ”।

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

आलेख – गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ 

 

बांधे गये रक्षा सूत्र के लिये भी  खादी के कच्चे धागे का ही उपयोग करते हैं . महात्मा कबीर ने तो

 

काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥

दास कबीर जतन करि ओढी,

जस कीं तस धर दीनी चदरिया ॥

पंक्तियां कहकर जीवन जीने की फिलासफी ही खादी की चादर के ताने बाने से समझा दी है. गांधी जी क़ानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में टाई सूट पहना करते थे, उन्होने खादी को कैसे और क्यों अपनाया, कैसे वे केवल एक धोती पहनने लगे यह जानना रोचक तो है ही, उनके सत्याग्रह के अद्भुत वैश्विक प्रयोग के मनोविज्ञान को समझने के लिये आवश्यक है कि हम जाने कि उन्होने खादी को अपनी ताकत कैसे और क्यो बना लिया.  1888 के सूट वाले बैरिस्टर गांधी 1921 में मदुरई में केवल धोती में दिखे, इस बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि बैरिस्टर गांधी ने अपना सूट छोड़ खादी की धोती को अपना परिधान बना लिया. दरअसल गांधी जी ने देश में बिहार के चंपारण ज़िले में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था.गांधी जी जब चंपारण पुहंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक में थे.  एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी उनकी पोशाक थी.ये सब कपड़े या तो भारतीय मिलों में बने  या फिर हाथ से बुने हुए थे. ये वो समय था जब पश्चिम में कपड़ा बनाने की मशीने चल निकली थीं. औद्योगिक क्रांति का काल था. मशीन से बना कपड़ा महीन होता था कम इसानी मेहनत से बन जाता था अतः तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. इन कपड़े की मिलो के लिये बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत पड़ती थी. कपड़े की प्रोसेसिंग के लिये बड़ी मात्रा में नील की आवश्यकता भी होती थी. बिहार के चंपारण क्षेत्र की उपजाऊ जमीन  में अंग्रेजो के फरमान से नील और कपास की खेती अनिवार्य कर दी गई थी. उस क्षेत्र के किसानो को उनकी स्वयं की इच्छा के विपरीत केवल नील और कपास ही बोना पड़ता था. एक तरह से वहां के सारे किसान परिवार अंग्रेजो के बंधक बन चुके थे.

जब चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को  दोपहर में गांधी जी उतरे तो हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी जी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे.इनमें से बहुत सी औरतें भी थीं जो घूंघट  और पर्दे से गांधी जी को आशा भरी आंखो से देख रही  थीं. स्त्रियो ने उन पर हो रहे जुल्म की कहानी गांधी जी को सुनाई, कि कैसे उन्हें पानी तक लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है. बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है. उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है. उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें केवल एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है. उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है. यह गांधी जी का कड़वे यथार्थ से पहला साक्षात्कार था. गांधी जी ने देखा कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति की औरतों और मर्दों को जूते तक नहीं पहनने देते हैं. एक ओर कड़क अंग्रेज हुकूमत थी दूसरी ओर गांधी जी में अपने कष्टो के निवारण की आशा देखती गरीब जनता थी,किसी तरह की गवर्निंग ताकत  विहीन गांधी के पास केवल उनकी शिक्षा थी, संस्कार थे और आकांक्षा लगाये असहाय लोगों का जन समर्थन था .गांधी जी  ने बचपन से मां को व्रत, उपवास करते देखा था, वे तपस्या का अर्थ समझ रहे थे. हम कल्पना कर सकते हैं कि हनुमान जी की नीति, जिसमें जब लंका जाते हुये सुरसा ने उनकी राह रोकी तो ” ज्यो ज्यो सुरसा रूप बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा,सत योजन तेहि आनन कीन्हा अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ” के अनुरूप जब गांधी जी ने देखा होगा कि  उनके पास मदद की गुहार लगाने आये किसानो के लिये अंग्रेजो से तुरंत कुछ पा लेना सरल नही था. अंग्रेजो की विशाल सत्ता सुरसा के सत योजन आनन सी असीम थी, और उससे जीतने के लिये लघुता को ही अस्त्र बनाना सहज विकल्प हो सकता था.  मदहोश सत्ता से  याचक बनकर कुछ पाया  नही जा सकता था. जन बल ही गांधी जी की शक्ति बन सकता था. और पर उपदेश कुशल बहुतेरे की अपेक्षा स्वयं सामान्य लोगो का आत्मीय हिस्सा बनकर जनसमर्थन जुटाने का मार्ग ही   उन्हें सूझ रहा  था. मदद मांगने आये किसानो को जब गांधी जी ने नंगे पांव या चप्पलो में देखा तो उनके समर्थन में तुरंत स्वयं भी उनने जूते पहनने बंद कर दिए.गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच  ब्रितानी अधिकारियों को दो पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की. यह उनका प्रथम सत्याग्रह था.8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया.वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, भी साथ थीं. तीन स्कूल  शुरू किए गये. हिंदी और उर्दू में  लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई. इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया जाने लगा. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया.गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए. कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई बक्सा दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.” जब  गांधी जी ने यह सुना तो उन्होने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया.

सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घुटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया.1918 में जब वो अहमदाबाद में करखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’उन्होंने तभी से  पगड़ी पहनना छोड़ दिया. दार्शनिक विवेचना की जावे तो गांधी का आंदोलन को न्यूक्लियर  फ्यूजन से समझा जा सकता है, जबकि क्रांतिकारियो के आंदोलन को फिजन कहा जा सकता है. इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का गणित, आत्मा की इकाई में  परमात्मा के विराट स्वरूप की परिकल्पना की दार्शनिक ताकत ही गांधी के आंदोलन का मूल तत्व बना.   किसानो के पक्ष में मशीनीकरण के विरोध का स्वर उपजा.31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा.”, “उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था. गांधी जी ने सबसे खादी पहनने का आग्रह किया. उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि क्या हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे ?

गांधीजी कहते हैं, “मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां देश के लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे. चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी. मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर और धोती को अपनाकर गांधी ने स्वयं को आम आदमी के साथ खड़ा कर लिया.”छोटी सी धोती और ह्थकरघे से बुना गया शॉल विदेशी मशीनो से बने कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया.

यह गांधी की खादी की ताकत ही रही कि अब मोतिहारी में नील का पौधा महज संग्रहालय में सीमित हो गया है.इस तरह खादी को महात्मा गांधी ने अहिंसक हथियार बनाकर देश की आजादी के लिये उपयोग किया और ग्राम स्वावलंबन का अभूतपूर्व उदारहण दुनियां के सामने प्रस्तुत किया. खादी में यह ताकत कल भी थी, आज भी है. केवल बदले हुये समय और स्वरूप में खादी को पुनः वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से युवाओ के बीच पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है.  खादी मूवमेंट आज भी रोजगार, राष्ट्रीयता की भावना और खादी का उपयोग करने वालो और उसे बुनने वालो को परस्पर जोड़ने में कारगर है.

खादी एक ईको फ्रेँडली  कपड़ा है. यह शुचिता व शुद्धता का प्रतीक है.खादी राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक रही है. कभी महात्मा गांधी ने कहा था “हर हाथ को काम और हर कारीगर को सम्मान ” यह सूत्र वाक्य आज भी प्रेरणा है.  लगातार लोगो के बीच खादी को लोकप्रिय बनाने के लिये काम होना चाहिए.  खादी  बाजार फिर से पुनर्जीवित हो .  खादी बुनकरो का उत्थान,युवाओ तथा नई पीढ़ी में खादी के साथ ही महात्मा गांधी के  विचार तथा दृष्टिकोण का विस्तार कर और ग्रामीण विकास के लिये खादी के जरिये दीर्घकालिक रोजगार के अवसर बनाने के प्रयास जरूरी हैं. इन्ही उद्देश्यो से सरकार के वस्त्र मंत्रालय को कार्य दिशा बनाने की आवश्यकता है. प्रति मीटर खादी के उत्पादन में मात्र ३ लीटर पानी की खपत होती है, जबकि इतनी ही लम्बाई के टैक्सटाईल मिल के कपड़े के उत्पादन में जहां तरह तरह के केमिकल प्रयुक्त होते हैं, ५५ लिटर तक पानी लगता है. खादी हाथो से बुनी और बनाई जाती है, खादी लम्बी यांत्रिक गतिविधियो से मुक्त है अतः इसके उत्पादन में केमिकल्स व बिजली की खपत भी नगण्य होती है, इस तरह खादी पूरी तरह ईको फ्रेंडली है. जिसे अपनाकर हम पर्यावरण संरक्षण में अपना अपरोक्ष बड़ा योगदान सहज ही दे सकते हैं.

चरखे से सूती, सिल्क या ऊनी धागा काता जाता है. फिर हथकरघे पर इस धागे से खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. खादी के कपड़े की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसकी बुनाई में ताने बाने के बीच स्वतः ही हवा निकलने लायक छिद्र बन जाते हैं. इन छिद्रो में जो हवा होती है, उसके चलते खादी के वस्त्रो में गर्मी में ठंडक तथा ठंडियो के मौसम में गर्मी का अहसास होता है, जो खादी के वस्त्र पहनने वाले को सुखकर लगता है. खादी के वस्त्र मजबूत होते हैं व बिना पुराने पड़े अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं.प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने मन की बात में देश से कहा है कि हर नागरिक कम से कम वर्ष में एक जोड़ी कपड़ा खादी का अवश्य खरीदे. पर्यटन, योग, खादी का त्रिकोणीय साथ देश को नई प्रासंगिकता दे सकता है. विदेशी पर्यटक खादी को हथकरघे पर बनता हुआ देखना पसंद करते हैं. नये कलेवर में अब खादी में रंग, रूप, फैब्रिक, की विविधता भी शामिल हो चुकी है तथा अब खादी नये फैशन के सर्वथा अनुरूप है. लगभग नगण्य यांत्रिक लागत व केवल श्रम से खादी के धागे और उससे वस्त्रो का उत्पादन संभव है. इसलिये सुदूर ग्रामीण अंचलो में भी रोजगार के लिये सहज ही खादी उत्पादन को व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है. महिलायें घर बैठे इस रोजगार को अपनी आय का साधन बना सकती हैं.  खादी की लोकप्रियता बढ़ाई जावे, जिससे बाजार में खादी की मांग बढ़े और इस तरह अंततोगत्वा खादी के बुनकरो के आर्थिक हालात और भी बेहतर बन सकें. हम सब मिलकर खादी के ताने बाने इस तरह बुने कि नये फैशन, नये पहनावे के अनुरूप एक बार फिर से खादी दुनिया में नई  लोकप्रियता प्राप्त करे और विश्व में भारत का झंडा सर्वोच्च स्थान पर लहरा सकें.

विवेक रंजन श्रीवास्तव

A 1, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर

मो 7000375798

 

 

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