हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पुनर्वास ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज के ही अंक में प्रस्तुत है इस कविता का कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का अंग्रेजी भावानुवाद “Rehabilitation”.  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी हिंदी, संस्कृत, उर्दू  एवं अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को इस अतिसुन्दर भावानुवाद के लिए साधुवाद।  

☆ संजय दृष्टि  – पुनर्वास  ☆

‘लेखक पुनर्वास मंडल’,

तख्ती देख

मैं ठठाकर हँस पड़ा,

जो पहले कभी बस सका हो

तब तो पुनर्वास पर चर्चा हो!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #40 ☆ विभाजन की व्यथा ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  प्रस्तुत है  हमारी और अगली  पीढ़ी को देश के विभाजन की व्यथा से  रूबरू कराती एक अत्यंत मार्मिक कविता  “ विभाजन की व्यथा ”। आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #40 ☆

☆ विभाजन की व्यथा     ☆

माँ कहती थी हम भाग थे

आधे अधूरे से

लेकर दो बच्चों को साथ

सारे गहने पहन लिए थे।

एक पेटी में बांधा था सामान

बड़ी बहन डेढ़ साल की

और

बड़े भाई चार महीने के थे।

पिता की गाढ़ी कमाई से बसाया

घर-द्वार छूट रहा था।

आँगन में अपने हाथों से रोपे

तुलसी के पौधे को देख

माँ का चेहरा मुरझा गया था।

अपनी प्यारी गाय गौरी को देखकर

उसे प्यार कर वो फूट-फूट कर रोई थी।

बार-बार अपने साथ ले जाने की

जिद्द कर रही थी,

मूर्छित हो गिर रही थी।

तुम समझती क्यों नहीं

हम गौरी को नहीं ले सकते हैं,

पिता के समझाने पर भी

वो नहीं समझ रही थी।

गौरी भी निरीह आँखों से

माँ को रोता देख रही थी,

सालों का बसाया घर

एक पेटी में समाया था।

चार माह के पुत्र का पासपोर्ट नहीं था,

पिता बहुत घबराए हुए थे

सीमा पार करते ही

पुत्र को छीन लिया गया था

माँ ने चीख पुकार लगा रखी थी

बहुत मुश्किल से कुछ ले देकर

मामला निपटा था।

माँ, भाई को गोद में ले

खुशी से चूम रही थी।

बच्चे भूख से बिलख रहे थे

दूध की कौन कहे

पानी भी मुहैया नहीं हो रहा था।

माँ,भाई को छाती से लगाए हुई थी,

पिता एक हाथ से पेटी

और

दूसरे हाथ से बड़ी बहन को गोदी में कसकर पकड़े हुए थे।

ट्रेन में सफर करते हुए माँ पिताजी दोनों ही बहुत डरे हुए थे,

रास्ते भर मारकाट मची थी

लाशों के अंबार लगे थे।

किसी के बूढ़े माँ-बाप नहीं मिल रहे थे,

तो किसी के अन्य परिजन।

सब आपाधापी में आधे-अधूरे से भाग कर

अपने देश की सीमा तक पहुंचना चाहते थे।

उस मंजर को याद कर

माँ-पिताजी का  कलेजा हिल जाता था।

हम बच्चों को जितनी बार वो व्यथा सुनाते थे,

उतनी बार आँखों में आँसू छलक आते थे।

नई जगह आकर फिर से घर बसाना आसान न था,

पर देश की आजादी के साथ इस दर्द को भी निभाना था।

दोनों देश लाशों पर राज कर रहे थे।

आजादी का भरपूर जश्न मना रहे थे।

विस्थापित व्यथा से उबरने की कोशिश में तिल-तिल कर जल  रहे थे।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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English Literature – Poetry ☆ Rehabilitation ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “ पुनर्वास ”  published today as ☆ संजय  दृष्टि – पुनर्वास   We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

☆  English Version  of  Poem of  Shri Sanjay Bhardwaj ☆ 

☆ Rehabilitation – by Captain Pravin  Raghuwanshi ☆

 

Seeing the huge board:

‘Authors Rehabilitation Board’,

I uncontrollably

burst into laughters,

How can one discuss about

the rehabilitation of those

Who have never been settled!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38 ☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका हास्य का पुट लिए  एक व्यंग्य   थोड़े में थोड़ी सी बात। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 38

☆ व्यंग्य – थोड़े में थोड़ी सी बात ☆ 

गंगू बचपन से ही थोड़ा संकोची रहा है। संकोची होने से थोड़े-बहुत के चक्कर में फंस गया, हर बात में थोड़ा – थोड़ी जैसे शब्द उसकी जीभ में सवार रहते , इसीलिए शादी के समय भी लड़की वाले थोड़ा रुक जाओ थोड़ा और पता कर लें का चक्कर चला के शादी में देर करते रहे, हालांकि हर जगह बात बात में थोड़ा – थोड़ा, थोड़ी – थोड़ी की आदत वाले खूब मिल जाते हैं पर गंगू का थोड़ी सी बात को अलग अंदाज में कहने का स्टाइल थोड़ा अलग तरह का रहता है।

रेल, बस की भीड़ में कोई थोड़ी सी जगह बैठने को मांगता तो गंगू उसको थोड़ी सी जगह जरुर देता, भले सामने वाला थोड़ी सी जगह पाकर पसरता जाता और गंगू संकोच में कुकरता जाता। जब चुनाव होते तो नेता जी थोड़ा सा हाथ जोड़कर गंगू से कहते – इस बार थोड़ी सी वोट देकर हमारे हाथ थोड़ा मजबूत करिये तो गंगू खुश होकर दिल खोलकर पूरी वोट दे देता। घरवाली को इस थोड़े – थोड़े में थोड़ी बात रास नहीं आती थी जब गंगू दाल में थोड़ा नमक डालने को कहता तो घरवाली थोड़ा थोड़ा करके खूब सारा नमक डाल देती इसलिए गंगू थोड़ा सहनशील भी हो गया था।

इन दिनों कोरोना के डर से गंगू थोड़ा परेशान है उसने घरवाली को भी कोरोना से थोड़ा डरा दिया है इसीलिए आजकल घरवाली गंगू को सलाह देने लगी है कि

“थोड़ी थोड़ी पिया करो….”

थोड़ी थोड़ी पीने के चक्कर में गंगू आजकल भरपेट पीकर कोरोना को भुलाना चाहता है। खूब डटकर पीकर जब घरवाली को तंग करने लगता है तो घरवाली कहती है….

….. “थोड़ा.. सा… ठहरो

करतीं हूं तुमसे वादा

पूरा होगा तुम्हारा इरादा

मैं सारी की सारी तुम्हारी

थोड़ा सा रहम करो……

ऐन टाइम में ये थोड़ा – थोड़ी का चक्कर गंगू का सिर दर्द भी बन जाता है। वो थोड़ा देर ठहरने को कहती है और थोड़ा सा बहाना बनाकर बाथरूम में घुस जाती है, लौटकर आती है तो मोबाइल की घंटी बजने लगती है फिर थोड़ा थोड़ा कहते लम्बी बातचीत में लग जाती है।

अभी उस दिन घर में सत्यनारायण की कथा हो रही थी तो घरवाली थोड़े में कथा सुनने के मूड में थी सजी-संवरी तो ऐसी थी कि कोई भी पिघल जाय। जब कथा पूरी हुई तो शिष्टाचारवश गंगू ने पंडित जी से पूछा कि चाय तो लेंगे न ? तो फट से पंडित जी ने कहा – थोड़ी सी चल जाएगी……

गंगू ये थोड़े के चक्कर में परेशान है थोड़े में यदि विनम्रता है तो उधर से संशय और अंहकार भी झांकता है। “थोड़ी सी चल जाएगी” इसमें भी एक अजीब तरह की अदा का बोध होता है….. खैर, पंडित जी को लोटा भर चाय दी गई और प्लेट में डाल डालकर वो पूरी गटक गए….. तब लगा कि थोड़े में बड़ा कमाल है। पंडित जी से भोजन के लिए जब भी कहो तो डायबिटीज का बहाना मारने लगेंगे, पेट फूलने का बहाना बनाएंगे, जब थोड़ा सा खा लेने का निवेदन करो तो गरमागरम 20-25 पूड़ी और बटका भर खीर ठूंस ठूंस कर भर लेंगे। तब लगता है कि थोड़े शब्द में बड़ा जादू है।

कोरोना की बात चली तो कहने लगे थोड़ा अपना हाथ दिखाइये, गंगू ने तुरंत बोतल की अल्कोहल से हाथ धोया और बोतल में थोड़ा मुंह लगाया फिर पंडित जी के सामने थोड़ा सा हाथ रख दिया। पंडित जी ने हाथ देखकर कहा – “क्या आप व्यंग्य लिखते हैं ?”

बरबस गंगू के मुख से निकल गया – हां, थोड़ा बहुत लिख लेता हूं। पंडित जी ने थोड़ा हाथ दबाया बोले – “थोड़ा नहीं बहुत लिखते हो।” इस थोड़े में विनम्रता कम अहंकार ज्यादा टपक गया। पंडित जी को थोड़ा बुरा भी लग गया तो बात को थोड़ा उलटकर बोले – “अभी भी आपके हाथ में थोड़ी थोड़ी प्यार की रेखाएं फैली दिख रहीं हैं, लगता है कि – थोड़ा सा प्यार हुआ था थोड़ा सा बाकी……”

सुनकर घरवाली की भृगुटी थोड़ी तन गई, तुरंत अपना हाथ तान के पंडित जी के सामने धर दिया। पंडित जी ने प्रेम से हाथ पकड़ कर कहा –

“बड़ी वफा से निभाई तुमने,

इनकी थोड़ी सी बेवफाई…”

गंगू ने अपना हाथ खींच लिया उसे

‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत है’…. वाली याचना के साथ ‘बड़ी वफा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफाई’ सरीखी कातरता दिखी तो घरवाली ने पंडित जी से शिकायत कर दी कि – कोरोना से बचाव के लिए इनको थोड़ी सी पीने की सलाह दी तो ये शराबी का किरदार भी निभाने लगे। झट से पंडित जी ने घरवाली की हथेली दबाकर जीवन रेखा का जायजा लिया। कोरोना का डर बताकर ढाढस दिया कि आपकी जीवन रेखा काफी मजबूत है पर हसबैंड की जीवन रेखा थोड़ा कमजोर और लिजलिजी है, सुनकर घरवाली को काफी सुकून मिला। थोड़ी देर में पंडित जी को हाथ देखने में मज़ा आने लगा बोले – कुछ चीजें इशारों पर बताऊंगा तो थोड़ा ज़्यादा समझना। गंगू के काटो तो खून नहीं बोला – पंडित जी थोड़ा थोड़ा तो हमको भी समझ में आ रहा है। उसी समय टीवी चैनल में टाफी चाकलेट बनाने वाली कंपनी का विज्ञापन आने लगा.. “थोड़ा मीठा हो जाए”……

घरवाली को याद आया फ्रिज में मीठा रखा है तुरंत गंगू को आदेश दिया – “सुनो जी, थोड़ा पंडित जी के लिए मीठा लेकर आइये।”  न चाहते हुए भी गंगू ने फ्रिज खोला और गंजी भर रसगुल्ला पंडित जी के सामने रख दिया। घरवाली ने देखा तो डांट पिला दी बोली – “तुम्हें थोड़ी शरम नहीं आती क्या? पूरा का पूरा गंज धर दिया सामने….. तुम्हारे मां बाप ने ऐटीकेट मैनर नहीं सिखाये कि मेहमान को मीठा कैसे दिया जाता है, पंडित जी थोड़ा थोड़ा पसंद करते हैं।”

गंगू थोड़ा सहम गया, पंडित जी से थोड़ा चिढ़ होने लगी….. मन ही मन में सोचने लगा कि अब बुढ़ापे में क्या किया जा सकता है, बचपन में पढाई में थोड़ा और ध्यान दे देते तो थोड़ी अच्छी घरवाली मिलती। ये तो थोड़ी सी बात में लघुता में प्रभुता तलाश लेती है भला हो कोरोना का अच्छे समय आया है।

गंगू का मन भले थोड़ा सा खराब हो गया था पर पंडित जी थोड़े-थोड़े देर में गपागप रसगुल्ले गटक रहे थे और घरवाली थोड़ा और भविष्य जानने के चक्कर में दूसरा हाथ धोकर खड़ी थी और गंगू से कह रही थी कि थोड़ी देर में अपनी बात खत्म करके फिर खाना परसेगी, पर गंगू जानता है कि थोड़े शब्दों में अपनी बात खतम करने का भरोसा दिलाने वाले अक्सर माइक छोड़ना भूल जाते हैं…….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 39 – निसर्ग माझा मित्र ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  प्रकृति / पर्यावरण पर आधारित आपकी एक अतिसुन्दर कविता   “निसर्ग माझा मित्र”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 39 ☆ 

 ☆ निसर्ग माझा मित्र 

शेतकरी राजा असे

काळ्या आईचा सुपुत्र ।

मदतीचा हात हाती

हा निसर्ग माझा मित्र।

 

नदी डोंगर, सागर,

शेती रुपं त्याची न्यारी।

जीव भरण पोषणा,

नित्य सजलेली सारी।

 

चंद्र, सूर्य, तारांगण

सज्ज हिच्या स्वागताला।

सोनसळी किरणांनी

उभा देह  सजलेला।

 

बरसती जलधारा

जादूगिरी निसर्गाची।

उजवते कूस त्याने

माझ्या माय माऊलीची।

 

सुवर्णाचे दान देई

जगा वसुंधरा माता।

सोडू हव्यासाची साथ

तिची जपून अस्मिता।

 

गती जीवन चक्राची

आम्ही सुरळीत करू।

विश्वात्मक दृष्टी नवी

मनी अविरत स्मरू।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #20 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 20☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

 

आओ मानव मानवी, चलें धरम के पंथ । 

इस पथ चलते सत्पुरुष, इस पथ चलते संत ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (10-11) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन )

 

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ।। 10।।

 

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ।। 11।।

अद्भुत दर्शन , मुख कई ,अनुपम नेत्र अनेक ,

अलंकार युत दिव्य कई , शस्त्र एक से एक ।। 10।।

दिव्य पुष्प मालायें थी , दिव्य गंध का लेप

अचरजकारी बहुमुखी , किन्तु देह थी एक ।। 11।।

 

भावार्थ :  अनेक मुख और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए और दिव्य गंध का सारे शरीर में लेप किए हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित और सब ओर मुख किए हुए विराट्स्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा।। 10 – 11 ।।

 

With numerous  mouths  and  eyes,  with  numerous  wonderful  sights,  with  numerous divine ornaments, with numerous divine weapons uplifted (such a form He showed).।। 10।।

 

Wearing divine garlands and apparel, anointed with divine unguents, the all-wonderful, resplendent (Being), endless, with faces on all sides.।। 11।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 41 ☆ व्यंग्य – श्रोता-सुरक्षा के नियम  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘श्रोता-सुरक्षा के नियम ’ एक बेहतरीन व्यंग्य है।  डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। इतनी व्यस्त जिंदगी में कई बार आश्चर्य होता है कि टी वी जैसा साधन होते हुए भी  इतने  श्रोतागण कैसे फुर्सत पा लेते हैं और आयोजक ऐसी कौन सी जादू की छड़ी घुमा लेते हैं  उन्हें जुटाने के लिए ?  फिर श्रोता कैसे यह सब पचा लेते हैं? यदि सही वक्ता चाहिए तो श्रोतागण के लिए श्रोता संघ  का सुझाव सार्थक है, बाकी श्रोता की मर्जी ! ऐसे तथ्य डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि से बचना सम्भव ही नहीं है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 41 ☆

☆ व्यंग्य – श्रोता-सुरक्षा के नियम  ☆

यह श्रोताओं के महत्व का युग है। आज श्रोताओं की बड़ी माँग है। कारण यह है कि इस देश में गाल बजाने का रोग भयंकर है।  हर मौके पर भाषण होता है।  जो वक्ता एक जगह परिवार नियोजन पर भाषण देता है, वही दूसरी जगह आठवीं सन्तान के जन्म पर बधाई दे आता है।  भाषण देने के लिए सिर्फ यह ज़रूरी है कि दिमाग़ को ढीला और मुँह को खुला छोड़ दो।  जो मर्ज़ी आये बोलो।  श्रोता कुछ तो वक्ता महोदय के लिहाज में और कुछ आयोजक के लिहाज में उबासियाँ लेते बैठे रहेंगे।

अब लोग भाषण सुनने से कतराने लगे हैं क्योंकि अपने दिमाग़ को कचरादान बनाना कोई नहीं चाहता।  इसीलिए भाषणों के आयोजक दौड़ दौड़ कर श्रोता जुटाते फिरते हैं।  श्रोता न जुटें तो नेताजी को अपनी लोकप्रियता का मुग़ालता कैसे हो?

एक अधिकारी का प्रसंग मुझे याद आता है।  वे अक्सर समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किये जाते थे।  वे अपने साथ बहुत से दोहे और शेर लिखकर ले जाते और उन्हें पढ़-पढ़ कर घंटों भाषण देते रहते थे। एक बार वे एक संगीत समारोह में मुख्य अतिथि थे।  उनके भाषण के बीच में बिजली गुल हो गयी। हमने राहत की सांस ली कि अब वे बैठ जाएंगे। लेकिन दो तीन मिनट बाद जब बिजली आयी तब हमने देखा वे भाषण हाथ में लिये खड़े थे। उन्हें शायद डर था कि बैठने से उनका भाषण समाप्त मान लिया जाएगा।

संयोग से बिजली दुबारा चली गयी। इस बार हमने पक्की तौर पर मान लिया कि वे बैठ जाएंगे, लेकिन जब फिर बिजली आयी तब वे पूर्ववत खड़े थे। उन्होंने भाषण पूरा करके ही दम लिया। बेचारे श्रोता इसलिए बंधे थे क्योंकि भाषण के बाद संगीत होना था। मुख्य अतिथि महोदय ने इस स्थिति का पूरा फायदा उठाया।

अब वक्त आ गया है कि श्रोता जागें और अपने को पेशेवर भाषणकर्ताओं के शोषण से बचाएं। श्रोता को ध्यान रखना चाहिए कि कोई उसे बेवकूफ बनाकर भाषण न पिला दे। इस देश में ऐसे वक्ता पड़े हैं जो विषय का एक प्रतिशत ज्ञान न होने पर भी उस पर दो तीन घंटे बोल सकते हैं। अनेक ऐसे हैं जो खुद प्रमाणित भ्रष्ट होकर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ दो घंटे बोल सकते हैं। इसीलिए इनसे बचना ज़रूरी है।

मेरा सुझाव है कि हर नगर में श्रोता संघ का गठन होना चाहिए जिसके नियम निम्नलिखित हों——

  1. कोई सदस्य संघ की अनुमति के बिना कोई भाषण सुनने नहीं जाएगा।
  2. श्रोता का पारिश्रमिक कम से कम पचास रुपये प्रति घंटा होगा।
  3. भाषण का स्थान आधा किलोमीटर से अधिक दूर होने पर आयोजक को श्रोता के लिए वाहन का प्रबंध करना होगा।
  4. जो वक्ता प्रमाणित बोर हैं उनका भाषण सुनने की दर दुगुनी होगी।  (उनकी लिस्ट हमारे पास देखें)
  5. भाषण दो घंटे से अधिक का होने पर संपूर्ण भाषण पर दुगुनी दर हो जाएगी।
  6. पारिश्रमिक श्रोता के भाषण-स्थल पर पहुँचते ही लागू हो जाएगा, भाषण चाहे कितनी देर में शुरू क्यों न हो।
  7. यदि किसी वक्ता के भाषण से किसी सदस्य को मानसिक आघात लगता है तो उसके इलाज की ज़िम्मेदारी आयोजक की होगी।  यदि ऐसी स्थिति में सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो आयोजक एक लाख रुपये का देनदार होगा।
  8. संघ का सदस्यों को निर्देश है कि वे भाषण को बिलकुल गंभीरता से न लें। ऐसा न होने पर उनके लिए दिन में एक से अधिक भाषण पचा पाना मुश्किल होगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #41 ☆ अंतस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  अंतस

महाभारत युद्ध के पूर्व सहयोगी के रूप में नारायण या नारायणी सेना चुनने का विकल्प दुर्योधन और अर्जुन के सामने था। मदांध दुर्योधन ने सेना को चुना। श्रीकृष्ण, पार्थसारथी हुए। महाभारत का परिणाम सर्वविदित है।

जो अंतस में है, उसे जागृत करने का अंतर्भूत सौभाग्य उपलब्ध  होते हुए भी जो बाहर दिख रहा है; मन भागता है उसकी ओर। वाह्य आडंबर न कभी सफलता दिलाते हैं न असफलता के कालखंड में न्यायसंगत मार्ग पर होने का सैद्धांतिक संतोष ही देते हैं।

सनद रहे, अंतस के सारथी के अनुरूप यात्रा करनेवाला पार्थ ही जीवन के महाभारत में विजयी होता है।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 26 – नमकीन नदी – स्त्रियां ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना ‘नमकीन नदी – स्त्रियाँ। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 26 – विशाखा की नज़र से

☆ नमकीन नदी – स्त्रियाँ ☆

स्त्रियाँ जानती हैं कीमियागिरी

वे धागे को मन्नत में

काजल को नज़र के टीके में

नमक को ड्योढ़ी में रख

इंतज़ार काटना जानती हैं

 

वे मिर्ची और झाडू से उतारतीं हैं बुरी बला

अपनी रसोई में खोज लेतीं हैं संजीवनी

कई बीमारियों का देतीं हैं रामबाण इलाज

अपनी दिनचर्या के वृत्त में भी

साध लेतीं हैं ईश्वर की परिक्रमा

माँग लेतीं हैं परिवार का सुख

कभी – कभी वे ओढ़तीं हैं कठोरता

दंड भी देतीं हैं अपने इष्ट को

रहते हैं वे कई प्रहर जल में मग्न

 

सारे संसार को झाड़ बुहार

आहत होतीं हैं अपनों के कटाक्षों से

तब , तरल हो रो लेतीं हैं कुछ क्षण

दिखावे के लिए काटतीं हैं ‘प्याज’*

है ना ! प्रिय स्वरांगी*

प्याज के अम्ल से तानों के क्षार की क्रिया कर

वे जल और नमक बनातीं हैं,

जिसमें तिरोहित करतीं हैं अपने दुःख

बनती जातीं हैं नमकीन

तुम पुरुष, जिसे लावण्य समझते हो !

* स्वरांगी साने की चर्चित कविता प्याज

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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