(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।4।।
कर्म न करने मात्र से निष्क्रियता मन जान
न ही कर्म के त्याग से सिद्धि का कर अनुमान।।4।।
भावार्थ : मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।।4।।
Not by the non-performance of actions does man reach actionlessness, nor by mere renunciation does he attain to perfection. ।।4।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली मौलिक है। )
☆ भेड़िया ☆
वह नियमित रूप से भगवान के पूजन अर्चन हेतु मंदिर जाती थी । वैधव्य के अकेलेपन को वह भगवान के चरणों मे बैठकर दूर करने का प्रयास करती ।
कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि पुजारी उस पर ज्यादा ही मेहरबानी दिखा रहा है ।
एक दिन पुजारी ने उसके हाथ से पूजा की थाली लेते हुए कहा — ” शाम को हमारे निवास पर सत्संग का कार्यक्रम है , आप अवश्य पधारें । ”
उसने विनम्रता से पुजारी से कहा — ” मैं अवश्य आती यदि आपकी आंखों में मुझे वासना की जगह वात्सल्य नजर आता । तुम भेड़िया हो सकते हो किन्तु में भेड़ नहीँ हूँ । ” वह मंदिर से लौटते हुए सोच रही थी कि भगवान ने हम महिलाओं को पुरुषों की नजर पढ़ने की
विशेष क्षमता दी है, फिर भी महिलाएं इन वहशियों के जाल में कैसे फँस जाती हैं?
(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं। इसके अतिरिक्त आप एक आदर्श एवं सम्माननीय शिक्षिका भी हैं । आपका यह आलेख निश्चित ही इसका प्रमाण है कि माह में कम से कम एक दिन विद्यार्थियों के लिए “बस्ता मुक्त पाठशाला” प्रयोग उनके सर्वांगीण विकास के लिए कितना आवश्यक है।)
☆ दप्तर मुक्त शाळा ☆
प्रचलित शिक्षण पद्धती ही कृती प्रधान व विद्यार्थी केंद्रित असल्यामुळे ती विद्यार्थ्यांना आनंददायी कशी वाटेल यावर भर असून घोकंपट्टी, अभ्यास, शिक्षा, सक्ती, या गोष्टींना गौण स्थान प्राप्त झाले असून विद्यार्थी स्वछंदी राहून कृतितून शिकला पाहिजे ही संकल्पना शिक्षण क्षेत्रात स्विकारली गेल्यामुळे .
दप्तर विना शाळा, बाल आनंद मेळावा, गणितीय बाजार सहल वनभोजन/निसर्ग सहल, परिसर भेट/ क्षेत्र भेट इत्यादी उपक्रमांना महत्त्व प्राप्त झाले..
या पैकीच एक उपक्रम म्हणजे दप्तर विना शाळा महिन्यातून एक दिस आम्ही हा उपक्रम घेतो. या दिवशी मुलांनी दप्तर न घेता शाळा करावयाची असते.
नुतन वर्षा निमित्त आम्ही आज हा उपक्रम घेतला. ससकाळी मुलांनी सर्व बोर्ड ताब्यात घेतले अगदी सुचना फलक सह सुंर हस्ताक्षरात मुलांनी सर्व फलकांवर शुभेच्छा लेखन केले सुंदर सजावट करून. अगदी रांगोळी काढण्या पासून ते सफाई पर्यंत सर्व कामे मुलांनी एकमेकांच्या सहकार्याने केली. सर्व शिक्षक विद्यार्थी यांना शुभेच्छा देऊन झाल्यानंतर लघु मध्यंतर घेतली. त्या नंतर त्या ऐतिहासिक पात्र ठरवून देण्यात आलेले होते त्या साठी लागणारे ढल तलवार इत्यादी भाला पट्टा , बिचवा वाघनखे इ प्रतिकृती मुलांच्या मदतीने तयार केल्या त्यामुळे त्यांना हत्यारे व त्यांचे उपयोग समजले. मधल्या सुट्टी नंतर त्यांना ठरवून दिलेल्या पात्रांचे संवाद म्हणून घेतले. त्यांना यू ट्युब वरील व्हीडीओ दाखवल्यामुळे ते बर्याच प्रमाणात मुलांनी हुबेहूब वटवण्याचा प्रयत्न केला त्यामुळे जे पाठांतर रागवून दडपशाहीने झाले नसते ते पाठांतार मुलांनी उत्तम प्रकारे व सहजतेने केले .शिवाय साभिनय सादरीकरण केल्याने वाचन अस्खलीत केले योग्य स्वराघातासह केले .प्रत्येकाला वेगळा संवाद निवडून घेतलेला असल्यामुळे पूर्ण पुस्तकाची उजळणी झाली तिही न कंटाळता अगदी आनंददायी पद्धतीने. म्हणून महिन्यातून किमान एक दिवस अशी दप्तराविना परंतु नियोजन बद्ध शाळा आवश्य घ्यावी ज्यामुळे अभ्यास तर होतो परंतु तणाव रहीत वातावरणात. यात परस्पर सहकार्य नेतृत्व धाडस सभाधीटपणा इ गुणांचे मूल्यमापन करता येईल अनेक चांगल्या सवई मुलांना लावता येतील.
Carolyn Laughalot and Desmond Nicholson, Laughter Yoga Leaders from Eltham Laughter Club, Melbourne, Australia visited Suniket Laughter Club and Laughter Club of State Bank Learning Centre, Indore, India under the exchange programme of Laughter Yoga International Clubs. They also giggled with the school girls of Sarada Ramakrishna School, Indore and laughed with their teachers.
It was an enriching experience for the members of these clubs in Indore as Carolyn and Desmond enthralled them with the Victorian flavour of Laughter Yoga, especially Giggle and Wriggle, New Zealand Rugby Hakka Laughter and Donkey Laughter.
Carolyn and Desmond were guests of Dr Madan Kataria, the founder of Laughter Yoga, at Bangalore. They stayed with us at Indore and we had deep discussions till late in the night on the inner spirit of laughter, new laughter exercises and the manner in which we conduct laughter sessions.
While we appreciated their fusion of energy healing and dance with Laughter Yoga, they loved Follow-the-Leader and Singing+Dancing+Playing+Laughing=Joy incorporated in our laughter sessions. While switching between laughter, they used Hoho Hahaha and deep breathing; whereas in our clubs we use Very Good Very Good Yay more often. They loved Cricket Laughter exercise created in our club and Desmond added a piece to it.
I prepared Indian Chai (Tea) for them every morning while my wife Radhika, who is also a Laughter Teacher, cooked Poha (Rice flakes) for them in the Indorean style which they relished. My mother, who is almost 80 years old, usually doesn’t prefer to move out of house, accompanied us for an excursion to nearby Maheshwar and Mandu, which are places of great historical value, as she felt that it would be too long a day without her new found daughter Carolyn. I had long, leisurely strolls with Desmond, who has a great sense of humour, in the evenings and talked about everything from Cricket to Kashmir and Australian grapes to Indian wine.
We would like to express our gratitude to Dr Madan Kataria who arranged this exchange and would like to share that these exchanges are really great experiences. The Times of India, The Hindustan Times and the local Hindi papers gave a wide coverage to this exchange programme which has been encouraging for the laughter lovers in this part of the country.
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
श्रीभगवानुवाच –
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
भगवान ने कहा-
इस जग में निष्ठायें दो,प्रथम कहे अनुसार
सांख्यों की है ज्ञान में योगी कर्माधार।।3।।
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ‘निष्ठा’ है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है, इसी को ‘संन्यास’, ‘सांख्ययोग’ आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है, इसी को ‘समत्वयोग’, ‘बुद्धियोग’, ‘कर्मयोग’, ‘तदर्थकर्म’, ‘मदर्थकर्म’, ‘मत्कर्म’ आदि नामों से कहा गया है।) होती है।।3।।
In this world there is a twofold path, as I said before, O sinless one,-the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogis! ।।3।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह “नेहांजलि” पर डॉ राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून, उत्तराखण्ड के सकारात्मक एवं सार्थक विचार।)
काव्य मानव-मन के सत्व चिन्तन से समुदगत वह शब्द-चित्र है जो रस- वैभिन्नय में भी आहलाद के धरातल पर सर्वथा साम्य की स्थापना करता है। जीवन के प्रत्येक रंग में प्राकाशिक भंगिमा की अलौकिक आनुभूतिक छटा की साकार शाब्दी- स्थापना काव्य का अभिप्रेत है। वाच्य-वाचक सम्बन्ध से सज्जित शब्दार्थ मात्र से भिन्न व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध की श्रेष्ठता के साथ व्यंग्य-प्राधान्य में काव्य के औदात्य के दर्शन का रहस्य भी तो यही है। अन्यथा तो शब्द कोष मात्र ही महाकाव्य का मानक बन जाता। लोक में लोकोत्तर का सौन्दर्य बोध क्योंकर उतरता! नितान्त नीरव मन में अदृश्य अश्राव्य ध्वनि के संकेत प्रकृत पद से पृथक अर्थबोध कैसे करा पाते! यही कारण है कि कवि निरन्तर ही नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के माध्यम से नित नूतन की खोज में सृजन करता रहता है, अनन्त आकाश से अपनी सामर्थ्य के अनुरूप चुम्बकीय शक्ति से शब्दार्थ को आकर्षित कर अभिव्यंजन अनामय आयाम रचता रहता है! और यह सिलसिला अनन्त काल से चली आ रही प्राकृतिक घटना है! न तो प्रकृति अपना निर्माण रोक सकती है, न प्रकृति का उद्घोषक और पोषक कवि इससे विमुख हो सकता है। सम्पूर्ण कवि-परम्परा इस प्रक्रिया के अनुपालन में ही निरत है।
यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हृदय में काव्य की नवोन्मेषी संवेदना लेकर डॉ0 प्रेम कृष्ण साहित्य देवता के मन्दिर में ’’नेहांजलि’’ रूपी भाव-नैवेद्य समर्पित करने आये हैं। उनके पवित्र हृदय में प्रेम की सपर्या विविध विच्छित्तियों के द्वार खोलती है। कामायन, कामिनी, कामायनी, कामना, काम्या, अनुभूति, अनुरक्ति, प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों के माध्यम से कवि ने तत्तद विभावानुभावव्यभिचारि के संयोग से तत्तद रसों की हृदयहारिणी व्यंजना का सफल प्रयास किया है। श्रृंगार की आत्मानुभूति में डूबे कवि को मन से मन तक की राह मिल जाती है जो अतीत से आती हुई खुशबू तक पहुँचाने में भावात्मक साहाय्य प्रदान करती है। नयन मिलन से अभिसार तक की साभिलाष भावनाओं की अभिव्यक्ति हो अथवा परस्पर ढूँढने की वांच्छा प्रत्येक स्तर पर कवि रागासक्ति के अधीन प्रीतिमार्ग को ही खोजता है। प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों में संकलित रचनाओं में कवि राग-पराग की मादक सुगन्धि से कुछ हट कर युग धर्म की वेदना, लोकोत्तर की आराधना और राष्ट्र की साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं जहाँ जीवन के इन्द्रधनुषी रंग उज्जवल प्रकाश में लीन होते से प्रतीत होते हैं।
निःसन्देह कवि के भाव अच्छे हैं परन्तु भाव-प्रवाणता और रागजन्य रसपेशलता के वशीभूत वैज्ञानिक कवि ने काव्य के विज्ञान की अनदेखी की है। मैं अपेक्षा करता हूँ कि काव्य सौन्दर्य की भावात्मक व्यंजना में कवि भविष्य में सावधान भी होगें और नूतनोंन्मेषी भी।
इस अभिनव काव्य संग्रह ’’नेहांजलि’’ के लिए मैं कवि डॉ0 प्रेम कृष्ण जी को सादर साधुवाद समर्पित करता हूँ और मंगल कामनाओं सहित वाग्देवी से प्रार्थना करता हूँ कि इस काव्य को अपेक्षित यश प्रदान करें।
डॉ0 राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, देहरादून, उत्तराखण्ड एंव, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून।
(प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी द्वारा रचित कविता ‘पेरणी’ अथवा ‘बुवाई’ खेती की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। कविराज विजय जी जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं और ऐसे कृषिप्रधान विषय पर उनकी लेखनी से रचित ऐसी कविता में हम मिट्टी की सौंधी खुशबू पाते हैं। निःसन्देह आपको भी यह कविता बहुत अच्छी लगेगी।)
Anurag, my son, is pursuing masters in business administration at the Auckland University Of Technology, New Zealand. He loves sports more than study. Sometimes, when a sport enters the study arena, he gets intensely involved in study too!
During the course of learning about high performance teams (HPT), they are required to go out every week in the water and improve rowing skills collectively without the fear of drowning. This way they are taught not only the management skills that are required in the workplace but with the help of the rowing club they imbibe a practical aspect to it which amplifies their learning ability.
The compelling purpose of their team is to become a legend so that they create a benchmark which will be referred to henceforth to all upcoming HPT classes. According to management experts, compelling purpose is the driving force that pushes athletes beyond limitations, enables social worker to work for betterment of society beyond their own needs and make a soldier to protect others by endangering their life.
I was more than pleasantly surprised when I discovered this mention in his assignment paper on the subject:
“My mom is a housewife and dad is working with the national bank since last 34 years. Three years back they decided to learn and teach laughter yoga. Since then my parents have not only learnt and further developed this art, but have also spread love and laughter to school children, elderly homes and organisations. Being laughter yoga teachers since last three years, I am constantly amazed by enthusiasm and effort they have put in this field of their passion along with their daily lifestyle. Since beginning their fundamental purpose was to touch human lives by the power of love and laughter which enabled them to meet and greet people from different age group, religion and nationalities. These consequential factors were clearly based on a commitment to spread their knowledge without any profit motive and provided good health and wellbeing as an end result. After earning the certificate of teaching this art, their biggest challenge was to develop an environment which encourages people to join and become a part of their journey. Identifying the opportunities in local area was the first step which enabled my parents to not only spread but develop individuals who can be potential front runners to further spread the knowledge. With the right balance of challenge and clarity they have developed a network which has now crossed Indian borders. And with a clear compelling purpose I am confident that they will make their dream of travelling the world come true by the journey of laughter.”
What better testimonial can one expect? I shall cherish and keep it as a treasure all my life!
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।।2।।
उलझे उलझे वाक्य में मोहित सी मम बुद्धि
निश्चित एक बताये , हो जिससे मन की शुद्धि।।2।।
भावार्थ : आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।।2।।
With these apparently perplexing words Thou confusest, as it were, my understanding; therefore, tell me that one way for certain by which I may attain bliss. ।।2।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)