(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
श्रीभगवानुवाच –
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
भगवान ने कहा-
इस जग में निष्ठायें दो,प्रथम कहे अनुसार
सांख्यों की है ज्ञान में योगी कर्माधार।।3।।
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ‘निष्ठा’ है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है, इसी को ‘संन्यास’, ‘सांख्ययोग’ आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है, इसी को ‘समत्वयोग’, ‘बुद्धियोग’, ‘कर्मयोग’, ‘तदर्थकर्म’, ‘मदर्थकर्म’, ‘मत्कर्म’ आदि नामों से कहा गया है।) होती है।।3।।
In this world there is a twofold path, as I said before, O sinless one,-the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogis! ।।3।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह “नेहांजलि” पर डॉ राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून, उत्तराखण्ड के सकारात्मक एवं सार्थक विचार।)
काव्य मानव-मन के सत्व चिन्तन से समुदगत वह शब्द-चित्र है जो रस- वैभिन्नय में भी आहलाद के धरातल पर सर्वथा साम्य की स्थापना करता है। जीवन के प्रत्येक रंग में प्राकाशिक भंगिमा की अलौकिक आनुभूतिक छटा की साकार शाब्दी- स्थापना काव्य का अभिप्रेत है। वाच्य-वाचक सम्बन्ध से सज्जित शब्दार्थ मात्र से भिन्न व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध की श्रेष्ठता के साथ व्यंग्य-प्राधान्य में काव्य के औदात्य के दर्शन का रहस्य भी तो यही है। अन्यथा तो शब्द कोष मात्र ही महाकाव्य का मानक बन जाता। लोक में लोकोत्तर का सौन्दर्य बोध क्योंकर उतरता! नितान्त नीरव मन में अदृश्य अश्राव्य ध्वनि के संकेत प्रकृत पद से पृथक अर्थबोध कैसे करा पाते! यही कारण है कि कवि निरन्तर ही नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के माध्यम से नित नूतन की खोज में सृजन करता रहता है, अनन्त आकाश से अपनी सामर्थ्य के अनुरूप चुम्बकीय शक्ति से शब्दार्थ को आकर्षित कर अभिव्यंजन अनामय आयाम रचता रहता है! और यह सिलसिला अनन्त काल से चली आ रही प्राकृतिक घटना है! न तो प्रकृति अपना निर्माण रोक सकती है, न प्रकृति का उद्घोषक और पोषक कवि इससे विमुख हो सकता है। सम्पूर्ण कवि-परम्परा इस प्रक्रिया के अनुपालन में ही निरत है।
यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हृदय में काव्य की नवोन्मेषी संवेदना लेकर डॉ0 प्रेम कृष्ण साहित्य देवता के मन्दिर में ’’नेहांजलि’’ रूपी भाव-नैवेद्य समर्पित करने आये हैं। उनके पवित्र हृदय में प्रेम की सपर्या विविध विच्छित्तियों के द्वार खोलती है। कामायन, कामिनी, कामायनी, कामना, काम्या, अनुभूति, अनुरक्ति, प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों के माध्यम से कवि ने तत्तद विभावानुभावव्यभिचारि के संयोग से तत्तद रसों की हृदयहारिणी व्यंजना का सफल प्रयास किया है। श्रृंगार की आत्मानुभूति में डूबे कवि को मन से मन तक की राह मिल जाती है जो अतीत से आती हुई खुशबू तक पहुँचाने में भावात्मक साहाय्य प्रदान करती है। नयन मिलन से अभिसार तक की साभिलाष भावनाओं की अभिव्यक्ति हो अथवा परस्पर ढूँढने की वांच्छा प्रत्येक स्तर पर कवि रागासक्ति के अधीन प्रीतिमार्ग को ही खोजता है। प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों में संकलित रचनाओं में कवि राग-पराग की मादक सुगन्धि से कुछ हट कर युग धर्म की वेदना, लोकोत्तर की आराधना और राष्ट्र की साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं जहाँ जीवन के इन्द्रधनुषी रंग उज्जवल प्रकाश में लीन होते से प्रतीत होते हैं।
निःसन्देह कवि के भाव अच्छे हैं परन्तु भाव-प्रवाणता और रागजन्य रसपेशलता के वशीभूत वैज्ञानिक कवि ने काव्य के विज्ञान की अनदेखी की है। मैं अपेक्षा करता हूँ कि काव्य सौन्दर्य की भावात्मक व्यंजना में कवि भविष्य में सावधान भी होगें और नूतनोंन्मेषी भी।
इस अभिनव काव्य संग्रह ’’नेहांजलि’’ के लिए मैं कवि डॉ0 प्रेम कृष्ण जी को सादर साधुवाद समर्पित करता हूँ और मंगल कामनाओं सहित वाग्देवी से प्रार्थना करता हूँ कि इस काव्य को अपेक्षित यश प्रदान करें।
डॉ0 राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, देहरादून, उत्तराखण्ड एंव, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून।
(प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी द्वारा रचित कविता ‘पेरणी’ अथवा ‘बुवाई’ खेती की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। कविराज विजय जी जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं और ऐसे कृषिप्रधान विषय पर उनकी लेखनी से रचित ऐसी कविता में हम मिट्टी की सौंधी खुशबू पाते हैं। निःसन्देह आपको भी यह कविता बहुत अच्छी लगेगी।)
Anurag, my son, is pursuing masters in business administration at the Auckland University Of Technology, New Zealand. He loves sports more than study. Sometimes, when a sport enters the study arena, he gets intensely involved in study too!
During the course of learning about high performance teams (HPT), they are required to go out every week in the water and improve rowing skills collectively without the fear of drowning. This way they are taught not only the management skills that are required in the workplace but with the help of the rowing club they imbibe a practical aspect to it which amplifies their learning ability.
The compelling purpose of their team is to become a legend so that they create a benchmark which will be referred to henceforth to all upcoming HPT classes. According to management experts, compelling purpose is the driving force that pushes athletes beyond limitations, enables social worker to work for betterment of society beyond their own needs and make a soldier to protect others by endangering their life.
I was more than pleasantly surprised when I discovered this mention in his assignment paper on the subject:
“My mom is a housewife and dad is working with the national bank since last 34 years. Three years back they decided to learn and teach laughter yoga. Since then my parents have not only learnt and further developed this art, but have also spread love and laughter to school children, elderly homes and organisations. Being laughter yoga teachers since last three years, I am constantly amazed by enthusiasm and effort they have put in this field of their passion along with their daily lifestyle. Since beginning their fundamental purpose was to touch human lives by the power of love and laughter which enabled them to meet and greet people from different age group, religion and nationalities. These consequential factors were clearly based on a commitment to spread their knowledge without any profit motive and provided good health and wellbeing as an end result. After earning the certificate of teaching this art, their biggest challenge was to develop an environment which encourages people to join and become a part of their journey. Identifying the opportunities in local area was the first step which enabled my parents to not only spread but develop individuals who can be potential front runners to further spread the knowledge. With the right balance of challenge and clarity they have developed a network which has now crossed Indian borders. And with a clear compelling purpose I am confident that they will make their dream of travelling the world come true by the journey of laughter.”
What better testimonial can one expect? I shall cherish and keep it as a treasure all my life!
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।।2।।
उलझे उलझे वाक्य में मोहित सी मम बुद्धि
निश्चित एक बताये , हो जिससे मन की शुद्धि।।2।।
भावार्थ : आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।।2।।
With these apparently perplexing words Thou confusest, as it were, my understanding; therefore, tell me that one way for certain by which I may attain bliss. ।।2।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(प्रस्तुत है डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य। डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के Sense of Humour को दाद देनी पड़ेगी। व्यंग्य में हास्य का पुट देकर अपनी बात पाठक तक पहुंचाने की कला में परिहार जी का कोई सानी नहीं । यह उनकी अपनी मौलिक शैली है और इसके लिए उनकी लेखनी को नमन।)
☆ बच्चूभाई की शौर्यगाथा ☆
बच्चूभाई की एक ही हसरत है —-एक शेर मारने और उस पर पाँव रखकर फोटो खिंचाने की। बच्चूभाई के दादा और पिता मशहूर शिकारी रहे। उनके पास कई पुराने, पीले पड़े फोटो हैं जिनमें उनके दादा या पिता मृत शेर पर पाँव धरे खड़े हैं। हाथ में बंदूक और चेहरे पर गर्व है। बच्चूभाई के पास अब भी उनकी दो बंदूकें और कुछ कारतूस हैं। वे कभी कभी उनकी सफाई करके तेल वेल लगा देते हैं और आह भरकर उन्हें कोने में रख देते हैं।
वीरों के वंशज बच्चूभाई एक दफ्तर में क्लर्क हैं। दिन भर कलम से फाइल पर निशाना लगाते रहते हैं। शिकार पर प्रतिबंध लग गया है। अब शेर मारें तो कैसे, और फोटो कैसे खिंचे?
मायूसी से कहते हैं, ‘लगता है यह हसरत मेरे साथ चिता पर चली जायेगी। ऊपर जाऊँगा तो पिताजी और दादाजी को क्या मुँह दिखाऊँगा?’
मैंने कहा, ‘मुँह दिखाने की छोड़ो। मुँह तो तुम्हारा यहीं रह जाएगा। कहते हैं ऊपर तो सिर्फ आत्मा जाती है। आत्मा के मुँह कहाँ होता है?’
बच्चूभाई कहते हैं, ‘कुछ भी हो। शेर नहीं मारूँगा तो मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। मेरी आत्मा यहीं भटकती रहेगी।’
एक दिन बच्चूभाई मिले तो बहुत खुश थे। बोले, ‘जुगाड़ जम रहा है। एक वनरक्षक को पटा लिया है। वह इंतजाम कर देगा। कह रहा था सिर्फ खाल लेकर आने देगा। बाकी वहीं छोड़ कर आना होगा।’
मैंने कहा, ‘तुमने बंदूक चलायी तो है नहीं। शोभा के लिए रखे रहे। अब कैसे चलाओगे?’
बच्चूभाई कहते हैं, ‘तुमको बताया था न, कि स्कूल में एन.सी.सी. लिये था। तब तीन चार बार चलायी थी।’
मैंने कहा, ‘तुम्हें शिकार का अनुभव नहीं है। कहीं शेर की जगह कोई आदमी मत मार देना। और जहाँ तक मेरा सवाल है, तुम्हारे घर में बंदूक तो है, मेरे घर में वह भी नहीं। कैसे शिकार करोगे?’
बच्चूभाई मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘उसका भी इंतजाम कर लिया है। नगली गाँव के पुराने शिकारी रुस्तम लाल मेरे पिताजी के बड़े अच्छे दोस्त थे।उन्हें साथ ले जाएंगे।’
मैंने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी के समय के हैं तो उनके हाथ-पाँव काँपते होंगे। वे तुम्हारे किस काम आएंगे?’
बच्चू बोले, ‘अमाँ यार, उनसे तो सिर्फ गाइडेंस चाहिए। बाकी हम खुद कर लेंगे।’
बच्चू बहुत उत्साह में थे।शिकार का दिन तय हो गया। बताया कि वनरक्षक मचान बनवा देगा। एक बकरे का इंतज़ाम भी हो गया, जिसका मिमियाना शेर को ठिये तक बुलायेगा। एक जीप का प्रबंध भी कर लिया गया।
बच्चू ने मुझसे कहा, ‘कैमरा ले चलने की जिम्मेदारी तुम्हारी है। तीन चार फोटो खींचना, खास तौर से शेर पर पाँव रखकर खड़े होने वाली।’
एक दोपहर रुस्तम लाल आ गये। बुढ़ा गये थे, लेकिन धज पूरी शिकारी की थी —-जंगल बूट, जुराबें, नेकर, जरकिन और आगे की तरफ झुकायी हुई चमड़े की गोल टोपी। हाथ में बंदूक और छाती पर कारतूसों की माला।
कहने लगे, ‘इस सरकार ने शेर के शिकार पर रोक लगाकर ठीक नहीं किया। अब हम बहादुर लोग अपनी वीरता कहाँ दिखाएं? चिड़ियों, खरगोशों को मारकर संतोष करना पड़ता है, लेकिन उसमें वह थ्रिल कहाँ जो शेर के शिकार में है।’
मैंने कहा, ‘आप फौज में भर्ती क्यों नहीं हो गये? वहाँ वीरता दिखाने के काफी मौके मिल जाते।’
वे बोले, ‘हमारी काफी ज़मीन ज़ायदाद है। ज़मींदारी छोड़कर फौज में जाते तो यहाँ का काम कौन देखता?’
मैंने कहा, ‘तो फिर आप डाकुओं, आतंकवादियों से निपटने में सरकार की मदद कीजिए।’
वे नाराज़ हो गये, बोले, ‘आप तो मज़ाक करते हैं। मैं शेर के शिकार की बात करता हूँ और आप डाकुओं से निपटने की। मैं तो शिकारी हूँ। मुझे डाकुओं को मारने से क्या लेना देना?’
थोड़ी देर में बच्चूभाई तैयार होकर आ गये। मैंने देखा तो पहचान नहीं पाया —–ब्रीचेज़, जंगल बूट, जरकिन, सिर पर टोपी। सब पिताजी की पुरानी पेटी से निकाले हुए।सिर्फ चाल से ही पता चलता था कि शिकारी असली नहीं है। फाइलें देखते देखते कमर कुछ झुक गयी थी।
बंदूकें और सर्चलाइट लेकर हम चल पड़े। जहाँ से जंगल शुरू होता था वहाँ से एक बूढ़ा देहाती हमारे साथ हो लिया। उसने एक बकरा जीप में रख लिया। ठिये पर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी।
देखा, एक पेड़ पर बढ़िया मचान बना था। बच्चूभाई मुँह उठाकर चिंतित स्वर में बोले, ‘मचान तक कैसे चढ़ेंगे?’
देहाती हंसने लगा। बच्चूभाई शर्मा गये।
बकरे को थोड़ी दूर एक पेड़ से बाँध दिया गया। उसने अपनी मिमियाने की ड्यूटी शुरू कर दी।फिर हम लोग मचान पर चढ़े। देहाती ने सहारा देकर बच्चूभाई को चढ़ाया, फिर भी उनकी ब्रीचेज़ फट गयी। शहर में होते तो तुरंत बदलनी पड़ती। यहां ज़रूरी नहीं था। रुस्तम लाल भी सहारा लेकर कांपते कांपते ऊपर चढ़े। बंदूकें, कारतूस, सर्चलाइट, खाना-पीना भी ऊपर पहुँचाया गया।
जीप वाला और देहाती सबेरे आने की कह कर चले गये।
अब हम थे और जंगल की रात और सन्नाटा। मेरी हालत खराब हो रही थी, और बच्चू की भी। हम शहर के लोग ऐसे सन्नाटे के आदी कहाँ हैं?वहाँ तो रात को बिजली चले जाने से घबराहट होने लगती है, यहाँ रात भर पेड़ों और जंगली जानवरों की आवाज़ों के बीच रहना था। रुस्तम लाल बैठे बैठे झपकी ले रहे थे।
रात गुज़रती गयी। करीब एक बज गया। वनरक्षक ने बच्चूभाई को पक्का आश्वासन दिया था कि शेर यहाँ आएगा। बकरा अपनी मिमियाने की ड्यूटी निष्ठा से कर रहा था। हम बीच बीच में सर्चलाइट से उसे देख लेते थे।
एकाएक पौधों के चटकने की आवाज़ आयी। हमने सर्चलाइट डाली, और हम भय और आश्चर्य से जड़ हो गये। सचमुच एक शेर चला आ रहा था, इत्मीनान और निश्चिंतता के साथ चलता हुआ। रुस्तम लाल चौकन्ने हुए। उन्होंने जल्दी से बंदूक बच्चूभाई को थमायी। बकरा अब डर के मारे फटी आवाज़ में मिमिया रहा था।
शेर ने बकरे की तरफ देखा भी नहीं। वह आराम से चलता हुआ मचान के पास आ गया। बच्चूभाई भय या उत्तेजना के मारे बंदूक लिये मचान पर खड़े हो गये। मैं बराबर सर्चलाइट डाल रहा था।
एकाएक शेर ने ज़ोर की दहाड़ मारी। पूरा जंगल उसकी दहाड़ से काँप गया। उसके दहाड़ते ही बच्चूभाई ने कलाबाजी खायी और मय बंदूक के सीधे नीचे शेर के चरणों में जा गिरे। हमारे प्राण हलक में आ गये।
बच्चूभाई मुर्दे की तरह निस्पंद, आँखें बंद किये, शेर के पाँवों के पास पड़े थे। मचान की ऊँचाई तो ज़्यादा नहीं थी लेकिन शायद डर के मारे बेहोश हो गये थे।
रुस्तम लाल अपनी बंदूक संभाल रहे थे। इतने में शेर बोला, ‘ए बूढ़े, बंदूक रख दे, नहीं तो मैं तेरे इस बहादुर साथी को हलाल करता हूँ।’
हम शेर को आदमी की तरह बोलते सुनकर स्तब्ध रह गये। एकदम चमत्कार। रुस्तम लाल ने बंदूक नीचे रख दी।
शेर ने अपना एक पंजा बच्चूभाई की छाती पर रखा और मुँह उठाकर बोला, ‘फोटो खींचो।’
मैंने फट से कैमरे का बटन दबाया। फोटो खिंच गयी।
शेर रुस्तम लाल को संबोधित करके बोला, ‘सुन बूढ़े! मैं जानता हूँ तू पुराना पेशेवर हत्यारा है। तेरे जैसे लोगों ने हमारे वंश का बहुत नाश किया है। अब तो बुढ़ा गया है, राम नाम ले।’
रुस्तम लाल सन्नाटे में थे।
शेर फिर बोला, ‘बहादुर है तो फिर ऊपर मचान पर बैठकर बंदूक से क्यों मारता है? बड़ा सूरमा है तो नीचे उतरकर बिना बंदूक के मुझसे कुश्ती लड़। मेरे पास नाखून हैं तो तू भी एकाध छुरी ले ले।’
रुस्तम लाल मुँह पर दही जमाये, सिर झुकाये बैठे थे।
शेर बोला, ‘मैं तो जा रहा हूँ। इस बेचारे बकरे को फालतू ही यहाँ लाकर मरवाने को बाँध दिया। मैं तुम लोगों के फेर में आकर इसे नहीं मारूँगा। तुम लोग दो हत्याएं करना चाहते थे।’
अब तुम लोग मचान के किनारे दूसरी तरफ मुँह करके बैठ जाओ। ज़रा भी हरकत की कि मैंने तुम्हारे दोस्त पर झपट्टा मारा। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखना।’
हम मचान के किनारे दस मिनट बेवकूफों जैसे बैठे रहे। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखा तो शेर का कहीं अता-पता नहीं था।
हम जल्दी जल्दी नीचे उतरे। देखा, बच्चूभाई लेटे लेटे आँखें मुलमुला रहे थे।उन्हें सही-सलामत देखकर हमारी जान में जान आयी।
मैंने पूछा, ‘ज़्यादा चोट तो नहीं आयी?’
वे उठकर बैठ गये। हाथ पाँव थथोलकर बोले, ‘थोड़ी सी आयी है, कोई चिन्ता वाली बात नहीं है। लेकिन यह शेर तो हमको पट्टी पढ़ा गया। अब फोटो का क्या होगा?’
मैंने कहा, ‘जो फोटो मैंने खींची है उसी को ड्राइंगरूम में टाँग लेना। वह एक दुर्लभ फोटो होगी। मुझे ज़रूर इस फोटो पर इनाम मिलेगा।’
बच्चूभाई नाराज़ होकर बोले, ‘तुम्हें हमेशा मज़ाक सूझता है। मेरी हसरत तो धरी की धरी रह गयी।’
फिर बोले, ‘लेकिन क्या यह मेरी बहादुरी नहीं है कि छाती पर शेर का पंजा रखा होने के बाद भी मैं जिन्दा रहा?’
मैंने कहा, ‘सो तो है। यह बात तुम गर्व से लोगों को बता सकते हो।’
हम फिर किसी तरह मचान पर चढ़कर सुबह का इंतज़ार करते करते सो गये। बकरा अब बेमतलब मिमिया रहा था। बच्चूभाई को उसके मिमियाने पर गुस्सा आ रहा था।
सबेरे जीप उस देहाती को लेकर आ गयी और हम अपना सामान समेटकर मय बकरे के चल दिये।
एक मोड़ पर वह वनरक्षक हमारा इंतज़ार करता मिल गया। जीप रुकने पर उसने बच्चूभाई से रहस्यमय आवाज़ में पूछा, ‘हो गया?’
बच्चूभाई संत की तरह गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं। मुझे रात को मचान पर बैठे बैठे ज्ञान हुआ कि जीवहत्या पाप है। इसलिए मैंने अपना इरादा बदल दिया। आपको सहयोग के लिए धन्यवाद।’
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की कविता “अनुत्तरित प्रश्न” जिसके उत्तर शायद किसी के भी पास नहीं है। बस इसका उत्तर नियति पर छोड़ने के अतिरिक्त और कोई उपाय हो तो बताइये। )
(सुश्री प्रभा सोनवणे जी हमारी पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । प्रस्तुत है सुश्री प्रभा जी की एक संवेदनशील एवं भावप्रवण मराठी कविता “मृगचांदणी”)
☆ Footprints of Laughter Yoga in my native village ☆
We (Radhika and me) are just back from a short vacation to our native village Naula in the Uttarakhand hills of India. To reach our place, one has to pass through the famous Corbett National Park. It is named after a British Jungle enthusiast, Jim Corbett, who penned ‘The Man Eaters of Kumaon’.
There is a small school, named Shikhar Public School, in the village. My nephew, Bittu, studies there. We visited the school and explained the concept and benefits of Laughter Yoga to the Principal and teachers. Instantly, a laughter yoga session was arranged for the kids. Some of them were very young, just three or four years old in the Nursery class, and the older ones were about twelve years old in their Eighth standard.
We started the session as usual with clapping and chanting. There were guffaws all around as they chanted ‘Hoho Hahaha’ and moved around. They relished Milkshake Laughter, may be because it was close to lunch time. Radhika did the Laughter Zoo with them comprising of various laughters from the animal kingdom like Lion, Elephant, Kangaroo, Penguin, Bird and Monkey Laughter. It touched the core of their hearts and they yearned for more laughter as they had never imagined of such variety in laughter. We did Age Laughter and Swinging Laughter.
Then, we realized that the sun was straight over our heads and it had got somewhat hot. We tried to wrap up but the kids wanted more. So, we decided to come back to the school again in the evening.
To our utter surprise, all the kids were there in the evening. We did a quick recap of the warm-up steps and some laughter exercises. Then we played the games ‘Follow the Leader’ and ‘Pizza Pasta’ with them. They were simply delighted.
By this time, a word had spread in the village that children in the school were having some real fun. When we looked around towards the end, the entire school was surrounded by spectators from the village who were shouting in chorus ‘Very Good Very Good Yay’.
It was quite a fulfilling experience as kids there don’t have equipments to play any games and this could be very handy. Some of the villagers expressed that well meaning citizens like us should regularly visit the remote village to encourage and guide the local kids.
Last night, I telephoned my mother to tell her that we have reached back Indore safely. She seemed very happy and said, “Radhika and you have left permanent footprints in the village. The chants of ‘Very good Very Good Yay’ by the kids can be heard anytime, anywhere in the neighbourhood. Now, you are not away. You are always right here!”