मराठी साहित्य – मराठी कविता – आरती ☆ अंबारती ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  स्वरचित अम्बाजी की आरती अंबारती)

 

☆ अंबारती ☆

 

आरती सप्रेम जय जय जय अंबे माता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||धृ||

 

सदा पाठिशी रहा उभी मुकांबिका होऊनी

शिवशक्तीचे प्रतिक तू सिंहारूढ स्वामींनी

कोल्लर गावी महिमा गाई  भक्त वर्ग मोठा .

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||1||

 

ब्राम्ही रूप हे तुझेच माते चतुर्मुखी ज्ञानी

सप्तमातृका प्रातः गायत्री हंसारूढ मानी

सृजनदेवता ब्रम्हारूपी रक्तवर्णी कांता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||2||

 

माहेश्वरी रूप शिवाचे , व्याघ्रचर्म धारीणी

जटामुकूट  शिरी शोभतो तू सायं गायत्री

त्रिशूल डमरू त्रिनेत्र धारी तू वृषारूढा.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||3||

 

स्कंदशक्ती तू कौमारी तू नागराज धारीणी

मोर कोंबडा हाती भाला तू जगदोद्धारीणी.

अंधकासूरा शासन करण्या आली मातृका

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||4||

 

विष्णू स्वरूपी वैष्णवी तू ,शंख, चक्र, धारीणी

माध्यान्ह गायत्री माता तू शोभे गरूडासनी.

मनमोहिनी पद्मधारीणी तू समृद्धी दाता.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||5||

 

नारसिंही भद्रकाली तू,पानपात्र धारीणी

गंडभेरूडा , शरभेश्वर शिवशक्ती राज्ञी

लिंबमाळेचा साज लेवूनी शोभे अग्नीशिखा.

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||6||

 

आदिमाया,आदिशक्ती,विराट रूप धारीणी

रण चंडिका शैलजा  महिषासूर मर्दिनी

महारात्री त्या दिव्य मोहिनी ,शोभे जगदंबा .

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||7||

 

सप्तमातृका रूपात नटली देवी कल्याणी

भगवती तू, माय रेणुका  शोभे नारायणी

स्तुती सुमनांनी आरती  कविराजे सांगता

कृपा रहावी  आम्हां वरती, दे आशिष आता .||8||

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌।।13।।

सिर ग्रीवा ओै” देह को सम रेखा में ढाल

नासिकाग्र में दृष्टि रख मन के मिटा मलाल।।13।।

 

भावार्थ :  काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।13।।

 

Let him firmly hold his body, head, and neck erect and perfectly still, gazing at the tip of  his nose, without looking around.  ।।13।।

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40 – ☆ ई-अभिव्यक्ति में तकनीकी संवर्धन ☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 40                

☆ ई-अभिव्यक्ति में तकनीकी संवर्धन ☆

 

सम्माननीय लेखक एवं पाठक गण सादर अभिवादन.

हमारा प्रयास है कि हम समय समय पर  सम्माननीय लेखकों एवं पाठकों के सुझावों पर अमल करने का प्रयास करें. जैसे आवश्यकता अविष्कार की जननी है वैसे ही सायबर युग में आवश्यकता तकनीकी संवर्धन की भी जननी होती है .

काफी समय पूर्व एक मित्र लेखक ने पूछा था कि यदि मुझे अपनी कोई रचना वेबसाइट पर ढूंढना हो तो क्या करना होगा.  उस समय लगा कि हाँ यह तो जरुरी है. आखिर हजारों रचनाओं (पोस्ट्स)  में अपनी रचनाएँ कैसे ढूंढी जाये. उस समय “Search” सुविधा उपलब्ध की गई थी. यह सुविधा आपको  वेबसाइट में आपकी ही नहीं अपितु किसी भी लेखक की रचना ढूंढने में मदद करेगी.  आपको मात्र लेखक का नाम टाइप करना है.   यह सुविधा मात्र ई-अभिव्यक्ति तक ही सीमित है इससे आप गूगल सर्च में नहीं जायेंगे.

सर्च उदहारण

 

अभी कुछ समय पूर्व एक और लेखक मित्र ने चाहा कि हमारी वेबसाइट में प्रिंट की सुविधा भी होनी चाहिए वैसे यदि साधारण प्रिंट कमांड दिया जावे तो अनावश्यक विज्ञापन और स्क्रीन के अन्य तथ्य भी प्रिंट हो जाते हैं. यह वास्तव में एक अत्यावश्यक सुविधा है. अतः अब ई-अभिव्यक्ति  पर आप प्रिंट सुविधा भी पा सकेंगे. आपको प्रत्येक रचना/पोस्ट के दाहिने ऊपर (Top) ओर एवं दाहिनी नीचे (Bottom)की ओर प्रिंटर का छोटा सा चिन्ह दिखाई देगा . इस चिन्ह पर क्लिक कर आप अपनी /अपने प्रिय लेखक की कोई सी भी रचना उपरोक्त स्क्रीन से सर्च कर अथवा रचना/पोस्ट से सीधे प्रिंट कर सकते हैं.

उदहारण –  रचना/पोस्ट के दाहिने ऊपर (Top) पर प्रिंटर के चिन्ह पर क्लिक करें 

उदहारण – रचना/पोस्ट के दाहिनी नीचे (Bottom) पर प्रिंटर के चिन्ह पर क्लिक करें 

आशा है इस सुविधा का हमारे सुधि लेखक एवं पाठक गण सदुपयोग करेंगे.  आपके सुझावों का सदैव स्वागत है. हम सकारात्मक सुझावों पर कार्य करने हेतु सदैव तत्पर हैं.

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हमारे सम्माननीय विजिटर्स की संख्या 64,000 पार कर चुकी होगी. इसके लिए आप सभी का ह्रदय से आभार.

 

आपकी शुभकामनाएं ही मुझे ऊर्जा देती है.

 

हेमन्त बावनकर

22  सितम्बर  2019

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा। आप Likeके नीचे Share लिंक से सीधे फेसबुक  पर भी रचना share कर सकते हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 16 – व्यंग्य – भला आदमी / बुरा आदमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. यूँ कहिये की कि कोई घटना आँखों के सामने चलचित्र की तरह चल रही हो. यह व्यंग्य केवल व्यंग्य ही नहीं हमें जीवन का व्यावहारिक ज्ञान भी देता है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “भला आदमी / बुरा आदमी ” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 16 ☆

 

☆ व्यंग्य – भला आदमी/ बुरा आदमी ☆

 

बिल्लू की शादी के वक्त मैंने बनवारी टेलर को कोट दिया था बनाने के लिए। शादी निकल गयी और बिल्लू की जोड़ी बासी भी हो गयी, लेकिन मेरा कोट नहीं मिला। हर बार बनवारी का एक ही  जवाब होता, ‘क्या बताएं भइया, बीच में अर्जेंट काम आ जाता है, इसलिए पुराना काम जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है।’

मैं चक्कर पर चक्कर लगाता हूँ लेकिन मेरा कपड़ा कोट का रूप धारण नहीं करता। अब बनवारी ने दूसरा रोना शुरू कर दिया था, ‘भइया, इस मुहल्ले के आदमी इतने गन्दे हैं कि क्या बतायें। उनका काम करके न दो तो सिर पर चढ़ जाते हैं। आप ठहरे भले आदमी, आपसे हम दो चार दिन रुकने को कह सकते हैं लेकिन इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है।’

‘भला आदमी’ की पदवी पाकर मैं खुश हो जाता और चुपचाप लौट आता। लेकिन तीन चार दिन बाद फिर मेरा दिमाग खराब होता और मैं फिर बनवारी के सामने हाज़िर हो जाता।

बनवारी फिर वही रिकॉर्ड शुरू कर देता, ‘भइया, आपसे क्या कहें। इस मुहल्ले में नंगे ही नंगे भरे हैं। अब नंगों से कौन लड़े? उनका काम करके न दो तो महाभारत मचा देते हैं। आप समझदार आदमी हैं। हमारी बात समझ सकते हैं। वे नहीं समझ सकते। मैं तो इस मुहल्ले के लोगों से तंग आ गया।’

जब भी मैं उसकी दूकान पर जाता, बनवारी बड़े प्रेम से मेरा स्वागत करता। अपनी दूकान में उपस्थित लोगों को मेरा परिचय देता। साथ ही यह वाक्य ज़रूर जोड़ता, ‘खास बात यह है कि बड़े भले आदमी हैं। यह नहीं है कि एकाध दिन की देर हो जाए तो आफत मचा दें।’

अंततः मेरे दिमाग में गर्मी बढ़ने लगी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक आदमी मेरे सामने कोट का नाप देकर गया और अगली बार मेरे ही सामने कोट ले भी गया। मैंने जब यह बात बनवारी से कही तो वह बोला, ‘अरे भइया, इस आदमी से आपका क्या मुकाबला? इसका काम टाइम से न करता तो ससुरा जीना मुश्किल कर देता। बड़ा गन्दा आदमी है। ऐसे आदमियों से तो जितनी जल्दी छुट्टी मिले उतना अच्छा। आप ठहरे भले मानस। आपकी बात और है।’

लेकिन मेरा दिमाग गरम हो गया था। मैंने कहा, ‘बनवारी, तुम मेरा कपड़ा वापस कर दो। अब मुझे कोट नहीं बनवाना।’

बनवारी बोला, ‘अरे क्या बात करते हो भइया! बिना बनाये कपड़ा वापस कर दूँ? अब आप भी उन नंगों जैसी बातें करने लगे। दो तीन दिन की तो बात है।’

चार दिन बाद फिर बनवारी की दूकान पर पहुँचा तो वह मुझे देखकर आँखें चुराने लगा। मुझे शहर के समाचार सुनाने लगा। मैंने कहा, ‘बनवारी, मैं कोट लेने आया हूँ।’

वह बोला, ‘क्या बतायें भइया, वे उपाध्याय जी हैं न, वे बहुत अर्जेंट काम धर गये थे। उल्टे-सीधे आदमी हैं इसलिए उनसे पीछा छुड़ाना जरूरी था। बस,अब आपका काम भी हो जाता है।’

मैं कुछ क्षण खड़ा रहा, फिर मैंने कहा, ‘बनवारी!’

वह बोला, ‘हाँ भइया।’

मैंने कहा, ‘तुम इसी वक्त मेरा नाम अपनी भलेमानसों की लिस्ट में से काट दो। बोलो, कोट लेने कब आऊँ?’

वह मेरे मुँह की तरफ देखकर धीरे से बोला, ‘कल ले लीजिए।’

दूसरे दिन पहुँचने पर उसने मुझे कोट पहना दिया। तभी एक और आदमी उससे अपने कपड़ों के लिए झगड़ने लगा। मैंने सुना बनवारी उससे कह रहा था, ‘भइया, तुम ठहरे भले आदमी। नंगे-लुच्चों को पहले निपटाना पड़ता है।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #13 – चौरासी कोसी परिक्रमा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 13 ☆

 

☆ चौरासी कोसी परिक्रमा ☆

 

लगभग एक घंटे पहले छिटपुट बारिश हुई है। भोजन के पश्चात घर की बालकनी में आया तो वहाँ का दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा। सुरक्षा जाली की सलाखों पर पानी की मोटी बूँदें झूल रही थीं। बालकनी के पार खड़े विशाल पेड़ अपनी फुनगियों पर गुलाबी फूलों से लकदक यों झूम रहे थे मानों सुबह-सवेरे कोई मुनिया अपनी चोटियों पर दो गुलाबी रिबन कसे इठलाती हुई स्कूल जा रही हो। इस दृश्य को कैमरे में उतारने का मोह संवरण न कर सका।

मोबाइल के कैमरे ने चित्र उतारा तो मन का कैमरा चित्र को मस्तिष्क की तरंगों तक ले गया और मन-मस्तिष्क क गठजोड़ विचार करने लगा। क्या हमारा क्षणभंगुर जीवन साँसों का आलंबन लिए इन बूँदों जैसा नहीं है? हर बूँद को लगता है  जैसे वह कभी न ढलेगी, न ढलकेगी। सत्य तो यह है कि अपने ही भार से बूँद प्रतिपल माटी में मिलने की ओर बढ़ रही है। कालातीत सत्य का अनुपम सौंदर्य देखिए कि बूँद माटी में मिलेगी तो माटी उम्मीद से होगी। माटी उम्मीद से होगी तो अंकुर फूटेंगे। अंकुर फूटेंगे तो पौधे पनपेंगे। पौधे पनपेंगे तो वृक्ष खड़े होंगे। वृक्ष खड़े होंगे तो बादल घिरेंगे। बादल घिरेंगे तो बारिश होगी। बारिश होगी तो बूँदें टपकेंगी। बूँदें टपकेंगी तो सलाखें भीगेंगी। सलाखें भीगेंगी तो उन पर पानी की मोटी बूँदें झूलेंगी…!

वस्तुत: सलाखें, बूँदें, पेड़, सब प्रतीक भर हैं। जीवात्मा असीम आनंद के अनंत चक्र की चौरासी कोसी परिक्रमा कर रहा है। बरसाती बादल की तरह छिपते-दिखते इस चक्र को अद्वैत भाव से देख सको तो जीवन के ललाट पर सतरंगा इंद्रधनुष उमगेगा।…इंद्रधनुष उमगने के पहले चरण में चलो निहारते हैं सलाखें, बूँदें और पेड़…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से ☆ पूर्व/पश्चिम☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  पूर्व/पश्चिम.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से

 

☆ पूर्व/पश्चिम ☆

 

कितना अंतर है हम दोनों के मध्य

मैं पूर्व तू पश्चिम ,जब मै उदित तू अस्त

पर कभी मेरे द्वारा अर्पित सूर्य को अर्ध्य

अब तेरे सागर में हिलोरे लेता है

तेरे मनचंद्र को प्रभावित करता है

 

जिस ओंकार स्मरण से

मेरी धरती का मन भर गया

तू उसका अनुसरण करने लगा

ध्यान, योग, वेदों में भ्रमण करने लगा ।

 

जिस पौरुष को तूने 200 वर्ष तक दमित किया ,

उसकी कई पीढ़ियों को संक्रमित किया ।

अब उसके मानसरोवर में संशय के बत्तखों को स्वतंत्र कर,

तू कैलाश आरोहण करने लगा, परमसत्य खोजने चला ।

 

अब तू ही कल आकर,

वही ज्ञान पूर्व को बताएगा,

संस्कृत का महत्व जतायेगा ।

फिर हम,

उसी पश्चिम सागर के जल से सूर्य अर्ध्य का दर्प करेंगे,

सप्तऋषियों को चकित करेंगे ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ फरारी. ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  एक भावप्रवण कविता  फरारी. )

 

☆ फरारी ☆

(*वृत्त :- भुजंग प्रयात*)

(*लगागा, लगागा, लगागा, लगागा*)

मनाची कितीदा करू मी तयारी

तुझे नाटकी बोलणे घाव भारी.

तुझ्या  आठवांनी मना चैन नाही

नको पावसाळा घडो भेट न्यारी.

तुझी रंगभूषा अजूनी कळेना

तुझी भावबोली , पुन्हा स्वप्न वारी.

दिले तू मला जे, तया तोड नाही

तुझ्या आठवांची, पुरेना शिदोरी.

कवीराज आता, नको आस लावू

तुझ्या पावलांचे, ठसे ही फरारी.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #20 – ☆ प्रवास ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी प्रवास सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  यह सत्य है कि अक्सर हम जीवन में कई प्रवास करते हैं.  कभी कभी हम थक जाते हैं . हम अर्थात हमारा शरीर या मन.  उस थकान का अहसास कभी शरीर तो कभी मन दे देता है.  किन्तु, हमारा जीवन भी तो आखिर एक प्रवास ही है न ? इस प्रवास पर सुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #20 ?

 

☆ प्रवास ☆

 

प्रवास करून करून थकले बाई, बास आता, कुठ्ठे कुठ्ठे जाणं नको आता…

असं बऱ्याच वेळा होतं, आणि थकलेलं मन किंवा शरीर हा डायलॉग बोलून जातं. कधी कधी हे मनातल्या मनात असतं तर कधी बोलून दाखवलं जातं… मन किंवा शरीर थकत आहे म्हणजे नक्कीच त्यांचा उपयोग केला जात आहे…

जन्म आणि मृत्यू ह्यातील प्रत्येक क्षणाचा प्रवास हा आपल्याला समृद्ध करणारा असतो… फक्त आपण समृद्ध होत आहोत ही जाणीव खूप महत्त्वाची असते… कुठलाही प्रवास काही तरी देऊन जातो आणि जेव्हा काही तरी घेऊन जातो तेव्हा आपलं आयुष्य नक्कीच बदलून जातो… प्रवासात येणारे अनुभव, घालवलेला वेळ, पैसा, बुद्धी, कष्ट ह्याला नक्कीच काही ना काही तरी अर्थ आहे, विनाकारण कोण कशाला ह्या गोष्टी खर्च करेल, हो ना ? ह्या प्रवासातून काही तरी साध्य होणार आहे म्हणून हा सगळा खटाटोप केला जातो… निरर्थक काहीच नाही…

खरंच हा प्रवास करताना किती ऍडजस्टमेंट करायला लागतात नाही, कधी ह्या अडजस्टमेंट्स मान्य असतात, तर कधी नाही. पर्याय नसतो कधी कधी. काही वेळा त्यामुळे चीड चीड होते, पण सकारात्मकता असेल तर हे ही दिवस जातील ह्या प्रमाणे हा प्रवासही सुखाचा होईल ह्यात शंका नाही. त्यात प्रवासातील साथीदार कोण आहेत, त्यांची गरज किंवा आवश्यकता काय आहे, त्यांचे त्या प्रवासातील महत्व काय आहे ह्या गोष्टी खूप घडवून आणतात…

किती ही काही झालं तरी, प्रवासाची दिशा जर ठरलेली नसेल तर सगळंच अवघड होऊन बसेल, हो ना? म्हणजे भरकटलेला प्रवास कदाचित निरर्थक ठरेल, त्याचे परिणामही चांगले नसतील, त्यामुळे सर्व जाणिवा जिवंत ठेवून प्रवासाचा आनंद घेणे कधी ही योग्यच ठरेल… असा प्रवास प्रगल्भतेकडे नेणारा असेल…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।

 

उस आसन पर बैठकर मन को कर एकाग्र

आत्म शुद्धि के भाव से ध्यान करे अनिवार्य।।12।।

 

भावार्थ :  उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे ।।12।।

 

There, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses controlled, let him, seated on the seat, practice Yoga for the purification of the self. ।।12।।

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – स्वप्न ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title ✍ Dreams ✍  published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

✍ संजय दृष्टि  – स्वप्न  ✍

 

कभी डराया, कभी धमकाया,

 कभी कुचला,  कभी दबाया,

  कभी तोड़ा, कभी फोड़ा,

   कभी  रेता, कभी मरोड़ा…

 

सब कुछ करके हार गईं,

 हाँफने लगीं परिस्थितियाँ।….

  जाने क्या है जो मेरे

   सपने कभी मरते ही नहीं..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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