हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संस्कृति का अवसान ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता संस्कृति का अवसान.   डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज संस्कृति का अवसान किस तरह हो रहा है ,उस  पर अपनी बेबाक राय रखी है. आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें , इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ संस्कृति का अवसान ☆

 

जब से हमने पाश्चात्य संस्कृति

की जूठन को हलक़ से उतारा

हमारी संस्कृति का हनन हो गया

 

हम जींस कल्चर को अपना

हैलो हाय कहने लगे

मां को मम्मी, पिता को डैड पुकारने लगे

उनके प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव

जाने कहां लुप्त हो गया

 

हम जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर

आपस में लड़ने-झगड़ने लगे

लूट-खसोट, भ्रष्टाचार को

जीवन में अपनाने लगे

स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग भाव

खु़द से मुंह छिपाने लगे

 

नारी की अस्मत चौराहे पर लगी लुटने

पिता, पुत्र, भाई बने रक्षक से भक्षक

बेटी नहीं अपने घर-आंगन में सुरक्षित

अपने ही, अपने बन, अपनों को छलने लगे

पैसा, धन जायदाद गले की फांस बना

अपहरण, डकैती, हत्या उनके शौक हुए

कसमे, वादे, प्यार

वफ़ा के किस्से पुराने हुए

 

राजनीति पटरानी बन हुक्म चलाने लगी

भाई भाई को आपस में लड़वाने लगी

रिश्तों के व्याकरण से अनजान

इंसान खु़द से बेखबर हो गए

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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English Literature – Poetry – ☆ Dreams ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” स्वप्न ” published in today’s ✍ संजय दृष्टि  – स्वप्न ✍.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

✍ Dreams ✍

 

Sometimes frightened me,

Sometimes tried threatening

 

Sometimes crushed me,

Sometimes tried pressing…

 

Sometimes battered me,

Sometimes tried breaking

 

Sometimes abrased me,

Sometimes tried twisting

 

Circumstances tried everything possible

But in vain…

 

Grouchingly exhausted

They started panting…

 

Knoweth not what my dreams are made of

They never seem to die..!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 – सीता की गीता ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अद्भुत पराक्रम।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ सीता की गीता

 

देवी सीता ने कहा, “मेरी प्यारी बेटी, पत्नी को केवल अपने पति की नियति का पालन करना चाहिए । एक स्त्री  के लिए उसके पिता, उसका बेटा, उसकी माँ, उसकी सखियों, बहन, भाई, एवं स्वयं से बढ़कर भी उसका पति ही है, जो इस संसार में और उसकी आने वाली आगामी जिंदगियों में मोक्ष का उसका एकमात्र साधन है । एक स्त्री के लिए सबसे बड़ी सजावट बाह्य आभूषण नहीं बल्कि उसके पति की खुशी है ।

अपनी बेटी को अपने पति और अपने सास- ससुर को प्यार, सम्मान और स्नेह देने के लिए प्रशिक्षित करना एक माता का परम कर्तव्य है ।

देवी सीता ने आगे कहा, “अब मैं आपको पत्नी के कुछ कर्तव्यों को बताऊँगी जिन्हें हर एक पत्नी को उसकी जाति, संस्कृति, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि के बावजूद पालन करना चाहिए । वे निम्नलिखित हैं :

  • एक अच्छी पत्नी को अपने पति के घर में खुद को स्थायी रूप से स्थापित करना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति की देख रेख में ही रहना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति के प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण की ओर आकर्षित रहना चाहिए और हमेशा अपने पति के प्रति ईमानदार रहना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति के घर में इतना प्यार और स्नेह खोजना चाहिए कि उसे अपने माता-पिता के घर को याद ही ना आये ।
  • पत्नी को अपने पति के प्रति मधुर रूप से आचरण करना चाहिए ।

पत्नी के कुछ अन्य मुख्य गुण :

उसे केवल अपने पति की ओर कामुक होना चाहिए, उसे घर के कामो के प्रति मेहनती होना चाहिए, सर्वोत्तम व्यवहार करना चाहिए, घर को सर्वोत्तम तरीके से बनाए रखने, पति के धन- धान्य को संरक्षित करने और बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए, एवं ज़रूरत वाले लोगों पर पति की कमाई का भाग खर्च करना, घर को बहुत परिपक्व तरीके से बढ़ाने के लिए, पति की कमाई को सावधानी पूर्वक इस्तमाल करना चाहिए । उसे दुःख और क्रोध से प्रभावित नहीं होना चाहिए, हर किसी को अपने अच्छे व्यवहार से खुश रखना चाहिए, उसे हर रोज सूर्योदय से पहले जागना चाहिए एवं कभी भी अपने पति से अलग होने के विषय में नहीं सोचना चाहिए ।

त्रिजटा ने कहा, “माँ मुझे जो आपने अपने ज्ञान का आशीर्वाद दिया है वह अद्भुत है, अब कृपया मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में बताएं”

देवी सीता ने कहा, “पुत्री अपने कर्तव्यों को पूर्णतय पालन करने का सबसे अच्छा उपाय यह है की हम दूसरों के कर्तव्यों से अपने कर्तव्यों की तुलना ना करे । मैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान की पत्नी हूँ और मैं केवल अपने पति और उनके परिवार के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने के विषय में ही सोचती और जानती हूँ लेकिन पुत्री यदि तुम पूछ ही रही हो तो मैं तुमको बता दूँगी, एक बार मेरे पति ने मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में समझाया था, वे ये हैं:

  • पति के प्यारे और प्यारे व्यवहार से पत्नी को उसके प्रति प्यार और स्नेह पैदा करना चाहिए ।
  • पति को पत्नी से कुछ छिपाना नहीं चाहिए ।
  • उसे एक अनुशासित, पवित्र जीवन जीना चाहिए ।
  • वह अपने विवाहित जीवन को बनाए रखने के लिए पैसे कमाने में सक्षम होना चाहिए।
  • पति को अपनी पत्नी का सम्मान करना चाहिए ।

मर्यादा पुरुषोत्तम मर्यादा का अर्थ है केवल वो ही कार्य करना जो एक व्यक्ति के उसकी जाति, राज्य, अवस्था आदि से निर्धारित उसके धर्म है । पुरुषोत्तम का अर्थ है पुरुषो में उत्तम या जो आदर्श पुरुष हो । पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के नामों में से एक हैं और महाभारत के विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के 24 वें नाम के रूप में प्रकट होता हैं । भागवत गीता के अनुसार, पुरुषोत्तम को क्षार और अक्षार के ऊपर और परे समझाया गया है या एक सर्वज्ञानी ब्रह्मांड के रूप में समझाया गया है । भगवान विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, जबकी भगवान विष्णु को भगवान कृष्णा के अवतार के रूप में लीला या पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 6 ☆ माझे स्वप्न ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी  परिकल्पित कविता  माझे स्वप्न.  श्रीमती उर्मिला जी  की  वृक्ष होने की कल्पना अद्भुत है  और सांकेतिक पर्यावरण का सन्देश भी देती है.  श्रीमती उर्मिला जी  को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 6 ☆

 

☆ माझे स्वप्न ☆

 

मला वाटते एक सुंदर झाड मी व्हावे !

कुणीतरी मातीत मला रुजवावें !

त्यावर झारीने पाणी फवारावे !

मग मी मस्त तरारावें !

मी एक सुंदर झाड मी व्हावे !!१!!

 

फुटावित कोवळी पाने !

कसा हिरवागार जोमाने !

दिसामाजी मी वाढतच जावें !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!२!!

 

यावीत सुंदर सुगंधी फुले !

तोडाया येतील मुलीमुलें !

होतील आनंदी मुलें !

मुली आवडीने केसात माळतील फुले !

होई आनंदी माझे जगणें  !!३!

 

येतील मधुर देखणी फळे !

पक्षी होती गोळा सारे !

आनंदाने खातील फळे !

चिवचिवाट करतील सारे !!४!!

 

गाईगुरे येतील सावलीत !

बसतील रवंथ करीत !

झुळुझुळू वारे वाहतील !

चहूकडे आनंद बहरेल !!५!!

 

मला भेटण्या येतील वृक्षमित्र !

काढतील सुंदर छायाचित्र !

छापून देईल वर्तमानपत्र !

मग प्रसिद्धी पावेल सर्वत्र !

बहु कृतकृत्य मी व्हावे !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!६!!

 

माझ्या फळातील बीज सारे !

नेतील गावोगावी सारे !

वृक्ष लावा जगवा देतील नारे !

माझे बीज सर्वत्र अंकुरें !

माझ्या वंशाला फुटतील धुमारे !

रानी वनी आनंदाचे झरे

मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे !

मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे !!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-#२०-९-१९

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7 ☆ फिरूनी जन्म घ्यावा…. ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण मराठी कविता  ‘फिरूनी जन्म घ्यावा….’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7

☆ फिरूनी जन्म घ्यावा….

 

फिरूनी जन्म घ्यावा,
की जन्मभर फिरावे
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

भरावे मनाचे गगन चांदण्याने,
की व्देषाच्या आगीत स्वतः जळावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

रहावे थांबून डोळ्यांच्या किनारी,
की वहावे पूरात स्वतः बुडवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

जगावा प्रत्येक श्वास हृदयाचा,
की मोजक्याच श्वासात स्वतः संपवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

छेडूनी अंतरी तार संगीताची,
की बेसुरी संगतीत स्वतः भिजवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

कवटळून घ्यावे अथांग क्षितिजास,
की कोंडी करावी स्वतःच्या मनाची,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

जगाच्या पसा-सात, पसरूनी हरवावे,
की स्वतःच्या मनी जग निर्माण करावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

 

© सौ. सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ सत्तायदान (विडंबन) ☆ – श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

 

(आज प्रस्तुत है श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे जी की  एक भावप्रवण कविता “सत्तायदान (विडंबन)”।)

 

☆ सत्तायदान (विडंबन) ☆ 

 

आता निवडणुका व्हावें  !

तिकीट मला आज्ञावें  !

निवडूनी मज द्यावें  !

मतदान हें   !!

 

उदंड पैशाची रास पडो  !

तया भ्रष्ट कर्मी गती वाढो  !

काळे भांडे उघड ना पडो  !

मैत्र लबाडांचे   !!

 

विरोधकांचे तिमिर जावो  !

एकटा स्वधर्म सत्ता पाहो  !

जो नडेल तो तो उखडावों  !

जीवजात  !!

 

बरसत सकळ चंगळी  !

पक्ष अनीष्ठांची मांदियाळी  !

न डरता नेता मंडळी  !

भेटती सदा  !!

 

चला जाती धर्मांचे आरव  !

चेतवा बंड फुकाचे गावं  !

बोलते जे उलट  !

पेटवायाचे  !!

 

हिंसाचाराचे जे लांछन  !

अखंड जे घडवून  !

ते सर्वाही सदा दुर्जन  !

आतंक होतू  !!

 

किंबहूना सर्व पापी  !

पूर्ण करोनी मानव लोकीं  !

दानव वृत्ती ठेवूनी भूकी  !

अखंडित   !!

 

आणि प्रतिष्ठापजीवियें  !

सर्व विशेष लोकी इयें  !

भ्रष्टा – भ्रष्ट विजयें  !

होवावे जी   !!

 

येथ म्हणे श्री – नेता अपराधो  !

हा होईल भय पसावो  !

येणे वरे दुःख देवो  !

दुःखिया झाला  !!

 

( ज्ञानेश्वर माऊली  (महाराष्ट्र में  संत ज्ञानेश्वर महाराज जी के ग्रंथ ज्ञानेश्वरी को ‘माउली’ या माता भी कहा जाता है।) कृपया मला माफ करा…तुमच्या पसायदानाचं आता समाजात नेहमीचंच सत्तायदान झालंय… सर्व काही विरोधाभास आहे इथे…वैश्विक विचार नाही इथ ..उरला सत्तेचा खेळ आहे…!!! ) 

 

©  कवी विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

मु/पो-वेळू (पाणी फाउंडेशन), तालुका-कोरेगाव, जिल्हा-सातारा 415511

मोबाइल-7743884307  ईमेल – [email protected]

 

विडंबन “सत्तायदान” क्रमशः  “अस्वस्थ”  या काव्यसंग्रहातून…!

आवडल्यास प्रतिक्रिया जरूर द्या..सदैव आपल्या सेवेसी 7743884307

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌।।11।।

 

उचित उच्च आसन लगा, देख शुद्ध स्थान

विध्न दर्भ मृगचर्म से वेदी कर निर्माण।।11।।

 

भावार्थ :  शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।।11।।

 

In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low,  made of cloth, a skin and kusha grass, one over the इतर ।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆

 

सोमवार 16 सितम्बर 2019 को हिंदी पखवाड़ा के संदर्भ में केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में  संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए,  यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

लगभग एक वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों  की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 16 ☆ हैरान हूँ ! ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता हैरान हूँ !  डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज के हालात  पर अपनी बेबाक राय रखी है.  जयंती, विशेष दिवस हों या कोई त्यौहार या फिर कोई सम्मान – पुरस्कार ,  कवि सम्मलेन या समारोह एक उत्सव हो गए हैं और  ये सब हो गए हैं मौकापरस्ती के अवसर.  अब आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 16 ☆

 

☆ हैरान हूं! ☆

 

हैरान हूं!

आजकल कवि-सम्मेलनों की

बाढ़ देख कर

डर है कहीं सैलाब आ न जाये

 

जयंती हो या हो पुण्यतिथि

होली मिलन हो या दीवाली की शाम

ईद हो या हो बक़रीद

हिंदी दिवस हो या शिक्षक दिवस

या हो नववर्ष के आगमन की वेला

सिलसिला यह अनवरत चलता रहता

कभी थमने का नाम नहीं लेता

 

वैसे तो हम आधुनिकता का दम भरते हैं

लिव-इन व मी टू में खुशी तलाशते हैं

तू नहीं और सही को आज़माते हैं

परन्तु ग़मों से निज़ात कहां पाते हैं

 

आजकल कुछ इस क़दर

बदल गया है, ज़माने का चलन

मीडिया की सुर्खियों में बने रहने को

हर दांवपेच अपनाते हैं

पुरस्कार प्राप्त करने को बिछ-से जाते हैं

पुरस्कृत होने के पश्चात् फूले नहीं समाते हैं

और न मिलने पर अवसाद से घिर जाते हैं

जैसे यह सबसे बड़ी पराजय है

जिससे उबर पाना नहीं मुमक़िन

 

आओ! अपनी सोच बदल

सहज रूप से जीएं

इस चक्रव्यूह को भेद

मन की ऊहापोह को शांत करें

अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं

स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ

अलौकिक आनंद में डूब जाएं

जीवन का उत्सव समझ

जीते जी मुक्ति पाएं

जीवन को सफल मनाएं

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ व्यंग्य – हिन्साप ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(श्री हेमन्त बावनकर जी  द्वारा अस्सी नब्बे के दशक में  लिखा गया  राजभाषा  पखवाड़े पर  एक विशेष  व्यंग्य .)

 

☆ हिन्साप

 

“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; हिन्साप”  की नींव जो हमने रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।

हमारे विभाग में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या अधिकारी को ही मिले, चाहे वह हिन्दी शब्द का उच्चारण इंदी या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं अधिकारी हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई अधिकारी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- जब मैं अधिकारी नहीं हूँ तो फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है स्वार्थ। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।

चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे अनुभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।

अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।“

शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।“

उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।“

कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है।  मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।“

फिर मैंने कई ग्रन्थ एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।

कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया!  थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि उर्मिला ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि स्वार्थ और उपेक्षित को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।

शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।

कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।

“हिन्साप” के अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को संरक्षक पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।

इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों, चमचों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्त्रोत थे।

जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।

हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” प्रतिभा-युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।

सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।

परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद लगने लगी है।

अब हमें यह कहानी मात्र हिन्दी साहित्य परिषद की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव हि. सा. प. को “हिंसा. प. के हिसाब से बचा सके?

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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