योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga – Touching Human Lives ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Laughter Yoga – Touching Human Lives

(After a day’s break योग-साधना / LifeSkills is back with the amazing Laughter Yoga’s journey and experiments in Laughter Yoga of Shri Jagat Singh Bisht and Smt. Radhika Bisht.)

During the last hundred days, we (my wife Radhika and me) have laughed with more than a thousand people. It has really been a life changing experience! We are now proud to have a life skill with us with which we can connect to any group of people anywhere, anytime and make them laugh unconditionally. We feel cheerful throughout the day. The life is full of joy. We have converted our bodies into factories that utilize oxygen from the atmosphere, rejuvenate each and every cell of our system and manufacture feel good endorphins. We are as healthy and energetic as one can be, touch wood, and have not taken any medication since we turned Laughter Yogis. We feel deeply fulfilled as we are instruments of happiness and health for others and are able to touch their lives with a new joyous way of life. Our lives now have a meaning and a mission – to make others happy and healthy!

(Jagat and Radhika Bisht)

I had my tryst with Laughter Yoga one fine morning in Mumbai, more than a decade ago. Dr Madan Kataria and Madhuri Kataria, the founders of laughter yoga, were leading a laughter session in Lokhandwala park. The experience was simply out of the world! I had to wait for more than a decade after that. In the month of October 2010, Radhika and myself, along with more than 20 laughter professors from all over the globe, were baptised by Dr Kataria himself at Bengaluru.We have never looked back after that..

Here are some experiences shared by the members..

Let us begin with ourselves. The pain in my knee joints is a thing of the past. I get up early in the morning every day and work till late in the night without any feeling of fatigue. Radhika doesn’t need her blood pressure pills any more and her frequents bouts of sinusitis have simply disappeared.

Many among a group of newly promoted bank officers felt nervous to face the audience in their public speaking sessions. They were asked to join laughter yoga sessions, after which they shed all their inhibitions, and gathered the courage to speak freely.

Another group was required to appear for a tough test for promotion to the next cadre. They felt tired at the day end and had no energy left to study. Those who attended laughter exercises in the morning not only improved their attention span in classes but could also study for a couple of hours more in the evenings.

An elderly businessman felt severe pain in his neck which traveled across his shoulders and back. The pain was acute and disabling. After he joined our laughter club, the pain is gone. He has developed a regular habit of getting up and going for morning walk. His wife tells us that he seldom laughed earlier and never mixed socially with people. She is pleasantly surprised at the transformation.

An income tax officer, who has retired recently, has shared that his lungs are fully cleared after the laughter session and the feeling of freshness lingers throughout the day. We get feedback of feelings of well being, energy and health on a continual basis from our member friends.

We were also invited to conduct a laughter therapy session for about 80 persons in a camp organized recently by the National Institute of Naturopathy, Pune at the Naturopathy and Yoga Research Centre, Indore. The response was overwhelming. They found such great value in this alternate therapy that they decided to honour us on the spot after going through our session. The standing ovation, with chants of Very Good Very Good Yay, lasted for more than ten minutes..

We look forward to touch many lives with joy and bliss.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-29 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–29             

जिस स्तर के डिजिटल साहित्यिक मंच की परिकल्पना की थी, उस मार्ग पर आप सब के स्नेह से  प्रगति पथ पर e-abhivyakti अग्रसर है।

गुरुवर साहित्य मनीषियों का आशीर्वाद, सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर एवं सुधि पाठक ही मेरी पूंजी है।  विजिटर्स की बढ़ती संख्या 14,500 से अधिक मन में उल्लास भर देती है और सदैव नवीन प्रयोग करते रहने के लिए प्रेरित करती है। 15 अक्तूबर 2018 से प्रारम्भ यात्रा अब तक अनवरत जारी है।

आज e-abhivyakti के जन्म से सतत स्थायी स्तम्भ का स्वरूप लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी की योग-साधना/LifeSkills को कुछ समय के लिए विराम देते हैं जो कुछ अंतराल के पश्चात पुनः नए स्वरूप में आपसे रूबरू होंगे।

इसी बीच आध्यात्म/Spiritual स्तम्भ के अंतर्गत आप प्रतिदिन प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  जी का  श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद आत्मसात कर रहे हैं।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का व्यंग्य विधा पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ – सवाल जवाब प्रति रविवार प्रकाशित हो रहा है।

आज से प्रति रविवार सुश्री आरुशी दाते जी का मराठी आलेख का साप्ताहिक स्तम्भ “मी_माझी” प्रारम्भ कर रहे हैं।

आज का अंक कई माय  में विशेषांक के स्वरूप में परिणित हो गया है।

आज के अंक में आप उपरोक्त साप्ताहिक स्तंभों के अतिरिक्त पढ़ सकेंगे सुश्री सुषमा सिंह जी की एक बेहद भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “छल”। यह आपको तय करना है कि किसने किसको छल।  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी का व्यंग्य “रोमांच पैदा करते दर्रे”। भोपाल के न्यू मार्केट की गली में दोनों ओर से सड़क की ओर बढ़ती दुकानों के बीच व्यंग्यकार के राह चलते विभिन्न पात्रों की यात्रा निश्चय ही आपको रोमांच से भर देगी। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की कविता “My Dreams” आपके स्वप्नों को साकार करने हेतु एक सकारात्मक संदेश देती है। इसे आप अपनी जीवन यात्रा से कैसे जोड़ते हैं यह आप पर निर्भर करता है। श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश” जी की कविता “जवाबदार कौन….?” आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि लोकतन्त्र के इस पर्व पर आखिर जवाबदार कौन है?

तो फिर देर किस बात की पढ़िये आज का विशेषांक एवं अपनी बेबाक राय दीजिये ताकि भविष्य में e-abhivyakti को और अधिक पठनीय बनाया जा सके।

आज के लिए बस इतना ही।

हेमन्त बवानकर 

28 अप्रैल 2019

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #1 – Space ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

? मी_माझी  – #1 – Space ? 

(हमें आपको यह  सूचित करते  हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि सुश्री आरुशी दाते जी को हाल ही में  साहित्य संपदा द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय काव्यलेखन स्पर्धा में उनकी कविता “वसंत” को द्वितीय  पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। e-abhivyakti की ओर से आपको हार्दिक बधाई।

आप e-abhivyakti  में  प्रकाशित पुरस्कृत कविता “वसंत” को इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>> http://bit.ly/2YTTIFX )

प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की प्रथम कड़ी  Space । इस शृंखला की प्रत्येक कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। 

 

ती रुसली आहे हे त्याला माहित होतं, त्यानेही तिचा रुसवा जाण्याची वाट पाहिली… ह्या वाट पाहण्यात दोघांनी स्वतःला योग्य वाटली ती उत्तर घेऊन पुढे वाटचाल केली… मागे फिरण्याचा प्रश्न अनुत्तरीतच राहिला…

योग्य अयोग्य ठरवायला मौनातल्या शब्दांना आधारच उरला नव्हता… स्वतःच स्वतःचे पाऊल त्या वाटेकडे न्यायचे नाही हा निर्धार पक्का झाला होता… ती म्हणते हेही माझे प्रेमच आहे, त्याला स्वातंत्र्य देण्याचे …

पण त्याला काही सांगायचं होतं का? असेल तर मग तो काही बोलला का नाही… ? तिच्या मनात हे प्रश्न अजूनही रुंजी घालत आहेत …

तो बोलला नाही, म्हणजे त्याची संमती होती का? की ती त्याची वाद संपवण्याची नवीन युक्ती होती?

Space… space…

की दोघांमधील अंतर?

सामनजस्यातून निर्माण केलेलं?

विचारांच्या स्पेस मधून फिरणं फार कठीण आहे…

ह्याची जाणीव होईल तेव्हा वेळ आणि काळ आपली कामं उरकून पुढे गेलेली असतील का?

अनेकविध प्रश्नांच्या गुंत्यातून बाहेर पडताना एक गोष्ट नक्की लक्षात येईल की आपण विणलेलं जाळं, आणि त्याचं गारुड आपल्यावर नक्की परिणाम करतं हे नक्की !

 

© आरुशी दाते

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English Literature – Poetry – ☆ My Dreams ☆– Ms Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

☆ My Dreams ☆

(“My Dreams” is one of the best poems of Ms. Neelam Saxena Chandra’ji which not only inspires you, but motivates too to struggle for fulfillment of your dreams. When I look back the journey of e-abhivyakti it always gives me a positive message. Thanks Ms Neelam ji to motivate me to continue the journey of life too.)

My Dreams

I am a gusty wind that darts
Merrily at its own pace;
I do not stop for joyous detours,
My fiery dreams I chase…

I am not a merry moon,
Waxing and waning at pleasure;
I am the fierceness of the sun
That has no time for leisure…

How can I lazily lie?
Halting is prohibited by my soul!
Life is bizarre and short
And horizons are my goal…

My own target posts
I keep stretching and expanding;
After all, existence is an ellipsis
If you know to struggle, it keeps enlarging…

 

© Ms Neelam Saxena Chandra, Pune 

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ? रोमांच पैदा करते दर्रे ? – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

? रोमांच पैदा करते दर्रे ?
अगर आप जोजिल्ला दर्रा पार करने का रोमांच अनुभव करना चाहते हैं और इस समय वहाँ जा पाने की सुविधा नहीं है तो एक आसान सा विकल्प और भी है. आप भोपाल के न्यू मार्केट तक आ जाईये और उस दर्रे को पार करिए जो हनुमान मंदिर से शुरू होता है और स्टेट बैंक की ओर निकलता है. इसे पार करना एक चैलेंज भी है और जोखिम भरा साहस भी.
आईये इसे पार करते हैं. अगर आपकी हाईट साढ़े तीन फीट से ज्यादा है तो आपको कोहनी के बल ‘क्रॉल’ करते हुए निकलना पड़ेगा. बेहतर है आप टिटनस टॉक्साईड का इंजेक्शन पहले से लगवाकर आयें और बिटाडीन का छोटा ट्यूब कॉटन के साथ जेब में धरकर चलें. जरा चूके तो डिस्प्ले में लटकी किसी बाल्टी, अटैची या मनेक्वीन हॉफ पुतली से सिर टकराना तय है. छतरियों के नुकीले सिरों, साड़ियों, कुर्तियों, नाईटियों से बचते हुए आप घुटने-घुटने या करीब करीब रेंगते हुए चलें. एक सावधानी और रखें, स्पोर्ट्स शूज पहनकर दर्रा पार करें अन्यथा पूरी संभावना है कि पहाड़ के किसी काउंटर की ठोकर से आपके पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ जाये.
दर्रा क्या है साहब प्रेम की गली है, अति साँकरी. मनचलों की मुराद पूरी करती हुई. इसे पार करते समय थोड़ा दिल बड़ा रखियेगा. कोई शोहदा जितनी शिद्दत से आंटीजी के कंधे से अपना कंधा टकराता है उससे ज्यादा फूर्ती से “सॉरी” बोल देता है. इस ‘बेखुदी’ पर कौन न मर जाये या खुदा! हाथ में कैरीबेग उठाये पीछे पीछे चल रहे विवश अंकलजी और कर ही क्या सकते हैं सिवाय ‘इट्स ओके’ बोलने के. इक आग का दर्रा है और बच के पार करना है.
जोजिल्ला के दर्रे में कचोरी नहीं मिलती साहब, यहाँ मिलती है. तपती भट्टी की मुंडेर से सटकर खड़ी हैप्पी फॅमिली कचोरी सेंव के साथ सलटा रही है. कृपया थोड़ा तिरछा होकर निकलें, आपके शर्ट की कोहनी में लाल चटनी लग सकती है. वैरी गुड. चलिए थोड़ा आगे निकलिए. दर्रों में गार्डन नहीं हुआ करते, यहाँ भी नहीं है. मगर, गार्डन चेयर्स हैं. जूसवाले संजूभाई ने खास तौर पर लगवाई हैं. बैठिये श्रीमान, हॉफ-हॉफ पाइनेपल हो जाए, ऐसी मेजबानी जोजिल्ला में तो मिलेगी नहीं.
नेशनल जियोग्राफिक चैनलवाले परेशान हैं साहब. डाक्यूमेंट्री नहीं बना पा रहे. क्योंकि, दर्रा-इन-मेकिंग किसी भौगोलिक घटना का परिणाम तो है नहीं. पॉपुलर स्टोरी कुछ यूं है कि जब इसके दोनों ओर खड़े दुकानों के पहाड़ अपने शटर की सीमाओं के अन्दर थे तब एक दिन तत्कालीन दरोगाजी की एक्चुअल वाईफ़ आदरणीया देवकलीबाई ने एक-दो नई नाईटीज की फरमाईश कर दी. पहाड़ी समझदार था, उसने एक के साथ छह नाईटीज फ्री पैक कर दिए और अपना पहाड़ छह इंच आगे की ओर सरका लिया. फिर तो ये इन्सिडेन्स ट्रेंड करने लगा. इन दिनों दोनों छोर पर खड़े दुकानों के पहाड़ इतने आगे सरक आये हैं कि इससे कृत्रिम दर्रों को वैश्विक अजूबों में प्रथम स्थान मिलने को है.
आड़े-टेढ़े, घुमावदार, संकरे, ऊँचे-नीचे, सर्पीले इन दर्रों में जोजिल्ला की वीरानी नहीं है, रोमांच के साथ जीवन के रंग हैं. चिढ़ है, खीज है, परेशानियां हैं, तो खरीदारी का आनंद है, दुकानदारों से अपनापा है, मोलभाव का सुख है, दर्रे की चौड़ाई से भी छोटे सपने हैं. कुछ साकार होते कुछ टूटते सपने. कितने भी सिकुड़ जाएँ दर्रे, इनकी रवानियत को बचायेंगी इनके मुहाने पर बैठ शहनाज़ को चैलेन्ज करती मेहंदी लगानेवालियां और फ्लिप्कार्ट, अमेज़न के बंसलों-जेफ़ बोजेसों को मुँह चिढ़ाता सूती नाड़े की गुच्छी बेचता आठ साल का राजू.
तो श्रीमान, आईये एक बार जरूर पार कीजिये दर्रे, न्यू मार्केट भोपाल के.

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 7 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (7)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  सातवाँ  जवाब  लखनऊ शहर की ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री इन्द्रजीत कौर जी  (हाल ही में आपका व्यंग्य संकलन “पंचरतंत्र की कहानियां”  प्रकाशित हुआ है) की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ ही सुधारक भी होता है । दूसरे शब्दों में वह समाज की आंख के साथ लगाम भी होता है।
लेखक आंख बनकर समाज की तस्वीर लोगों के सामने रखता है। अनदेखे व अनछुए पहलुओं को  उजागर करवा कर आमजन में जागरूकता फैलाता है ।  इसके लिए जरूरी है कि लेखक आखों को हमेशा और पूरी खुली रखें। ऐसा न हो कि कुछ घटनाओं पर वह आंखें बंद कर ले और कुछं पर आंखे इतनी ज्यादा चौड़ी कर ले कि समाज के लिए खतरा ही बन जाए। किसी भी घटना के अनेक कोण होते हैं लेखक की सजगता इस बात में है कि वह हर कोण से देखकर कार्य ,कारण और परिणाम में संबंध स्पष्ट करें।
 हां ,वह लगाम भी है ।सिर्फ आँखं बनकर नहीं रहा जा सकता कि समाज की तस्वीर देखी और पेश कर दी । दंगा ,फसाद , भ्रष्टाचार, छेड़खानी , दबंगई आदि देखकर उसनेे हूबहू कागज पर उतार दिया। इससे तो हम महाभारत के संजय ही बन पाएंगे कृष्ण नहीं। उचित /अनुचित की राह दिखाना भी जरूरी है । विनाश की राह से विकास की तरफ लगाम खींचना  आवश्यक है  ।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सदा चाबुक मारते जाए । लेखक को इस परिवर्तनशील समाज में अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। वह अगर इस बात का रोना रोए कि अब महिलाओं के सिर पर घूंघट नहीं है। सांस्कृतिक पतन हो रहा है तो इसे लगाम नहीं कहेंगे ।
बढ़ते दायरे में लगाम को ढीला करना ही पड़ेगा ताकि घोड़े की दृष्टि और पहुंच व्यापक हो सके। कोई भी चीज सदियों से चली आ रही है इसका मतलब यह नहीं कि वह सही है । जींस पर बहुत कलमें चलीं। इस भागदौड़ वाली अति व्यस्त जिंदगी में लड़कियों के लिए जींस एक सुविधा की तरह है । इस पर बहुत लगाम खींचे गये। क्या यह समझने की कोशिश की गई कि समाज में वह आगे बढ़ने की जद्दोजहद करें या मर्द को देखकर पल्लू ही संभालती रह जाए । ऐसा भी तो लिखा जा सकता था कि पुरुष अपना दृष्टिकोण सही करें। अगर सही अर्थों में लेखक को समाज की आंख और लगाम बनना है तो कुए के मेंढक बनने से परहेज करते हुए उसे कलम चलानी होगी।
इतना ध्यान रखना होगा कि ज्यादा लगाम खींचने से लगाम टूट भी सकती है और अति ढीला करने से घोड़ा छूट सकता है। सन्तुलन आवश्यक है।
– सुश्री इंद्रजीत कौर
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)
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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ छल ☆ – सुश्री सुषमा सिंह 

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ छल ☆

(सुश्री सुषमा सिंह जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता “छल” एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता है जो पाठक को अंत तक एक लघुकथा की भांति उत्सुकता बनाए रखती है। सुश्री सुषमा जी की प्रत्येक कविता अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उनकी अन्य कवितायें भी हम समय समय पर आपसे साझा करेंगे।)

 

हाथों में थामे पाति और अधरों पर मुस्कान लिए

आंखों के कोरों पर आंसु, और मन में अरमान लिए

हुई है पुलिकत मां ये देखो, मंद मंद मुस्काती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

बार-बार पढ़ती हर पंक्ति, बार-बार दोहराती है

लगता जैसे उन शब्दों को पल में वो जी जाती है

अपलक उसे निहार रही है, उसको चूमे जाती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

परदेस गया है बेटा, निंदिया भी तो न आती है

रो-रो कर उस पाति को ही बस वो गले लगाती है

पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति को, जाने कहां खो जाती है

खोज रही पाति में बचपन, जो उसकी याद दिलाती है

कितनी हो बीमार, हो कितना भी संताप लिए

खिल जाए अंतर्मन उसका, जब बेटे की आती पाति है

फिर से आई एक दिन पाति, वो तो जैसे हुई निहाल

बेटे की पाति पाकर के, खुशी से खिला था उसका भाल

उसे देख पाने की इच्छा, मन में कहीं दबाए थे

अंखियां थी अश्रु से भीगी, सबसे रही छिपाए थी

अंतिम सांसे गिनते-गिनते, सभी पातियां रही संभाल

पीड़ा थी आंखों में उसके, खोज रही थीं अपना लाल

आंचल में उस दुख को समेटे, और दिल पर लिए वो भार

दर्द भरी सखियों को संग ले, अब वो गई स्वर्ग सिधार।

 

बीते दिन किसी ने पिता से पूछा, क्या आई बेटे की पाति है?

मौन अधर अब सिसक पड़े थे, अश्रु बह निकले छल-छल

अब न आएगी कोई पाति, अब न होगा कोलाहल

मैं ही भेजा करता था पाति, मैं ही करता था वो छल

अब न आएगी कोई पाती, अब न होगी कोई हलचल

उस दुखिया मां को सुख देने को, मैं ही करता था वो छल।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (57) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।57।।

आनन्दित जो शुभाशुभ को भी पा दिन रात

सदा राग से रहित जो वही स्थित धी तात।।57।।

 

भावार्थ : जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।।57।।

 

He who is everywhere without attachment, on meeting with anything good or bad, who neither rejoices nor hates, his wisdom is fixed. ।।57।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆ श्री विनोद साव

श्री विनोद साव 

☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆

(प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विनोद साव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। हम भविष्य में आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।) 

कविता, व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय रहे दो रचनाकार प्रदीप चौबे और डा.शेरजंग गर्ग ने अपनी रचनायात्रा को विराम दिया और साहित्य बिरादरी से उन्होंने अंतिम बिदागरी ले ली. अब उनका व्यक्तित्व नहीं उनका कृतित्व हमारे सामने होगा और उनके व्यक्तित्व को हम उनके कृतित्व में ही तलाश पाएँगे उनसे सीधे साक्षात्कार के जरिए अब नहीं.

इन दोनों रचनाकारों से मेरा विशेष परिचय नहीं रहा सामान्य परिचय ही रहा. आंशिक मुलाकातें हुईं पर हम एक दूसरे के नाम को जाना करते थे, हमारे बीच पूरी तरह अपरिचय व्याप्त नहीं था. ये दोनों रचनाकार व्यंग्य की विधा से जुड़े रहे इसलिए मैं भी इनसे थोडा जुड़ा रहा. मैंने कविता नहीं की पर प्रदीप चौबे की कविताओं में जो हास्य-व्यंग्य की छटा मौजूद थी उसने उनकी ओर मेरी और सभी विनोदप्रिय श्रोताओं व रचनाकारों का ध्यान खूब खींचा. चौबे जी के साथ ‘प्लस’ यह रहा कि उनकी हास्य चेतना और मंचों पर उनकी प्रस्तुति में उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी की प्रेरणा ने भरपूर काम किया और वे अपने भैया की तरह हास्य-व्यंग्य के सफल कवियों में गिने जाने लगे और कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलने लगी थी. बल्कि कई बार श्रोताओं को ठठा ठठाकर हंसवाने में प्रदीप जी आगे भी निकल जाते थे. भ्रष्टाचार पर तंज करती कविता और भारतीय रेल में पूरे हिंदुस्तान को देखने दिखने का जो उनका उपक्रम था उनमें देश की दारुण दशाओं का भी चटखारेदार वर्णन कर लोगों को वे खूब हंसाया करते थे और बड़े निश्छल ह्रदय से हंसाया करते थे. इसकी एक बानगी देखें:

 

हर तरफ गोलमाल है साहब

आपका क्या ख़याल है साहब

 

कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,

आज ‘भगवत दयाल’  है साहब

 

मुल्क मरता नहीं तो क्या करता

आपकी देख भाल है साहब

 

उनकी कविताओं में उनके निश्छल मन का भान होता था. वे मामूली स्थितियों में चले हुए लतीफों को पिरोकर भी हास्य का ऐसा जायका परोसते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे. मृतात्मा और दाहकर्म पर उनकी एक कविता थी जिसमें भीषण गर्मी के दिनों में किसी के दाहकर्म में शामिल होने से ऐसी दैहिक पीड़ादायक अनुभूति होती थी कि मृतात्मा के चले जाने का मानसिक आघात कम हो जाता था जो मृतात्मा के प्रति लोगों की संवेदना को भी मार देती थी. तब आदमी ऐसे दाह्संस्कारों में जाने से बचना चाहता था. उसी में एक पंक्ति थी कि ‘आदमी को मरना चाहिए देहरादून में.’ और डा.शेरजंग गर्ग देहरादून में दिवंगत हुए क्योंकि डा.गर्ग देहरादून के रहने वाले थे. पर प्रदीप चौबे ने अंतिम साँस अपने शहर ग्वालियर में ली.

प्रदीप जी से लखनऊ के अट्टहास समारोहों में भी मुलाकातें हुईं. गद्य व्यंग्य लेखन में उनकी रूचि भले ही कम थी पर गद्य व्यंग्यकारों को पढने समझने का सलीका उनके पास था. अन्य मंचीय कवियों के सीमित संकीर्ण ज्ञान से वे दूर थे. एक बार भिलाई आगमन पर उन्होंने सबके बीच मुझे पहचानकर लपककर गले लगाते हुए कहा था कि ‘आप व्यंग्यकार विनोद साव हैं.’

डा.शेरजंग गर्ग वर्ष २००२ में विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में मिले और उन्होंने भावना प्रकाशन द्वारा आयोजित मेरे व्यंग्य संग्रह ‘मैंदान-ए-व्यंग्य’ के विमोचन कार्यक्रम में आना स्वीकार किया और वे आए थे. नरेंद्र कोहली जी ने विमोचन किया और कार्यक्रम का संचालन हरीश नवल ने किया था. मेरे एल्बम में उस समय का एक रंगीन चित्र है जिसमें कथाकार द्वय राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और शेरजंग गर्ग जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ मैं भी खड़ा हूं उस समय के एक उभरते हुए लेखक के रूप में.

शेरजंग गर्ग ने व्यंग्य के अतिरिक्त हिन्दी आलोचना में भी अपने हाथ चलाए और बालसाहित्य लेखन में भी.. और अपनी ग़ज़लों से भी उनकी पहचान बनी. इस बहुविध लेखन के बीच डा.गर्ग को देखने से लगता था कि उन्होंने ज्यादा आत्मसात बालसाहित्य की भावना (स्पिरिट) को किया होगा क्योंकि उनके सुदर्शन व्यक्तित्व में बालसुलभता का भाव विशेष रूप से उभरकर आता था और संभवतः उनकी इसी बालसुलभता और बच्चों जैसी निर्मलता ने उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी साहित्य की राजनीति और उखाड़-पछाड़ से अलग रखा होगा. अपने बालसाहित्य लेखन के लिए वे ज्यादा पुरस्कृत हुए थे. मुझे भी एक बार दिल्ली प्रवास पर प्रेम जनमेजय के साथ बालभवन दिल्ली में उनके सम्मान समारोह को देखने का अवसर मिला था. ऐसी ही निर्मल भावना से शेरजंग गर्ग व्यंग्य लेखन में साहसिक वक्तव्य दे लिया करते थे. समाज के प्रति भावना कम रख समाजसेवी का मुलम्मा अपने पर चढ़ाए हुए लोगों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘ये समाज सुधारक हैं.. अरे ये ह्रदय विदारक हैं.’  उनके शेरो-शायरी हो बालसाहित्य, उनमें व्यंग्य की चेतना बरक़रार रहती थी. उनकी एक ग़ज़ल की ये पंक्ति देखें

 

चुल्लू में डूबने का अब लद चुका जमाना

उल्लू से दोस्ती कर, क्या शर्मसार होना।

 

व्यंग्य और कविता  कर्म के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे.

 

© विनोद साव 

दुर्ग (छत्तीसगढ़)

मोबाइल – 9009884014

(साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆

(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”।  संयोगवश आज ही के अंक में भगवान  शिव जी परआधारित  श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक और रचना “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा” प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सममानीय कवियों का हार्दिक आभार।)

 

विष पी पी मैं हूँ नील कंठ बना।

विष पी कर ही प्रेम के सूत्र बना,

मैं जग में प्रेम अमर कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

विष पी पीकर मैं ही शेषनाग बना,

मैं भू माथे पर धारण कर जाऊंगा।

धरती धर खुद को निद्राहीन बना,

मैं मेघनादों का वध कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

मैं रवि टूट टूट ग्रह तारे नक्षत्र बना,

नभ मंडल आलोकित कर जाऊंगा।

पी वियोग ज्वाला मैं पृथ्वी चंद्र बना,

शीतल हो श्रृष्टि सृजन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

नफरत पी पी कर मैं अग्नि बना,

वन उपवन नगर दहन कर जाऊंगा,

पी पी मैं लोभ द्वेष बृहमास्त्र बना,

अरि दल पल में दहन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

संयोग वियोग अभिसार से जीव बना,

मैं ही नियंता सर्जक बृहमा बन जाऊंगा।

उर पढ़ पढ़ मैं ही असीम ज्ञान बना,

मैं वेद पुराण उपनिषद बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

प्रणय तपस्या में राधा की कृष्ण बना,

श्रृष्टि पालक नारायण मैं बन जाऊंगा।

मैं क्षिति जल पावक गगन समीर बना,

अणु परमाणु बृहम ईश्वर बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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